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जप चर्चा
पंढरपुर धाम से
दिनांक १७. ०२.२०२१
हरे कृष्ण!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में ६७२ स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं।
हरि! हरि!
कृष्णोत्कीर्तन- गान-नर्तन-परौ प्रेमामृताम्भो-निधी
धीराधीर-जन-प्रियौ प्रिय-करौ निर्मत्सरौ पूजितौ
श्री-चैतन्य-कृपा-भरौ भुवि भुवो भारावहंतारकौ
वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।१।।
(श्री श्री षड्- गोस्वामी-अष्टक)
अनुवाद:- मैं, श्रीरूप, सनातन, रघुनाथदास, रघुनाथ भट्ट,श्रीजीव एवं गोपालभट्ट नामक इन छः गोस्वामियों की वंदना करता हूँ जो श्रीकृष्ण के नाम -रूप-गुण-लीलाओं के कीर्तन, गायन, एवं नृत्य परायण थे; प्रेमामृत के समुद्रस्वरूप थे, विद्वान एवं अविद्वानरूप सर्वसाधारण जनमात्र के प्रिय थे तथा सभी के प्रियकार्य करने वाले थे, मात्सर्यरहित एवं सर्वलोक पूजित थे, श्रीचैतन्यदेव की अतिशय कृपा से युक्त थे, भूतल में भक्ति का विस्तार करके भूमि का भार उतारनेवाले थे।
वंदे अर्थात् प्रणाम या वंदना।
हम प्रणाम करते हैं, अहम वंदे। हम किन्हें प्रणाम करते हैं?
वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ
हम पहले रूप और सनातन को प्रणाम करते हैं, वंदे रूप-सनातनौ। हम हमेशा समझाते ही रहते हैं, औ मतलब दो। रूप और सनातन का नाम उच्चारण साथ में हुआ या उन दोनों का स्मरण या उन दोनों की वंदना साथ में हुई है। वंदे रूप-सनातनौ। तत्पश्चात वंदे रघु-युगौ अर्थात फिर दो रघुओं को हमारी वंदना अथवा हमारा प्रणाम। रघु-युगौ अर्थात वे दो रघु, रघुनाथ दास गोस्वामी और रघुनाथ भट्ट गोस्वामी हैं। छह गोस्वामी में से यह दो गोस्वामी हैं और इन दोनों के नाम रघु हैं। एक रघुनाथ भट्ट हैं और दूसरे रघुनाथ दास हैं, उन दोनों को साथ में प्रणाम हो रहा है। वैसे इस गोस्वामी अष्टक में सभी को ही साथ में नमस्कार अथवा वंदना हो रही है। श्री निवास आचार्य ने इस गोस्वामी अष्टक की रचना की है। रघु-युगौ, युगौ मतलब दो अथवा युगल सरकार। हम युगल जोड़ी अथवा युगल सरकार राधा और कृष्ण ऐसा कहते ही रहते हैं।
तत्पश्चात श्री-जीव-गोपालकौ अर्थात फिर दो बचे हुए गोस्वामियों को भी नमस्कार अथवा उनकी भी वंदना अर्थात जीव गोस्वामी और गोपाल भट्ट गोस्वामी को हमारी वंदना अथवा नमस्कार। आप भी वंदना करना चाहते हो या नहीं? जबरदस्ती तो नहीं है?
श्रीनिवासाचार्य हमें सिखा रहे हैं कि यह वंदनीय है, यह पूजनीय है या यह प्रातः स्मरणीय है, मैं इन शब्दों को भी समझाता ही रहता हूं। वे वंदनीय हैं अर्थात वे वंदना करने योग्य हैं। वे पूजनीय हैं अर्थात पूजा करने योग्य हैं। वे स्मरणीय हैं अर्थात स्मरण करने योग्य हैं। यह प्रातः स्मरणीय, वंदनीय, पूजनीय षड् गोस्वामी वृंद हैं ,उनकी कुछ महिमा का गान इस गोस्वामी अष्टक में हुआ है। हरि! हरि!
श्रीनिवास आचार्य स्वयं ही महान आचार्य रहे हैं। श्रीनिवास आचार्य, गोपाल भट्ट गोस्वामी के शिष्य भी रहे हैं। श्रीनिवास आचार्य आदि आचार्य त्रयः कहलाए जाते हैं। षड् गोस्वामी वृन्दों की एक टीम है, इनका एक दल है। वैसे ही तीन आचार्यों अर्थात श्यामानंद पंडित, नरोत्तम दास ठाकुर, श्रीनिवासाचार्य का एक छोटा सा मंडल है, जिन्हें आचार्य त्रयः कहते हैं। वे षड् गोस्वामी वृन्दों के समकालीन अर्थात अगली पीढ़ी भी रहे। षड् गोस्वामी वृन्द कुछ वयस्क थे और प्रस्थान कर रहे थे अर्थात उनका नित्य लीला प्रविष्ट हो रहा था। तब तीन आचार्य मंच पर पधारे अथवा आए, उनमें से एक श्रीनिवासाचार्य उच्च कोटि के आचार्य अथवा महाजन रहे। वह षड् गोस्वामी वृन्दों की महिमा का गान कर रहे हैं। श्रील प्रभुपाद भी गोस्वामी अष्टक के बारे में बता रहे हैं।
'कृष्णोत्कीर्तन- गान-नर्तन-परौ प्रेमामृताम्भो-निधी'
मुझे याद है कि जब मैं नया भक्त था, यह वर्ष 1972 की बात है। श्रील प्रभुपाद का रिकॉर्ड था, उसमें बहुत ही गहरी आवाज और कुछ सितार वादन भी है। हमारे हरे कृष्ण लैंड जुहू में आश्रम में इसे पुन: पुन: बजाया जाता था। जब श्रील प्रभुपाद इस गोस्वामी अष्टक को गाया करते थे, मैं इसके प्रति काफी आकृष्ट होता था।
पूरा समझ में तो नहीं आता था, वैसे भी यह संस्कृत में था और इसके भाव भी गूढ़ होने के कारण यह समझ नहीं आता था। यह श्रवणीय है, मैं इसका खूब श्रवण करता था। आप भी इस रिकॉर्ड को सुना करो, क्या आपने कभी प्रभुपाद के इस रिकॉर्ड को सुना है? समीक्षा शर्मा, क्या तुमने सुना है? अपनी मुंडी( सिर) तो हिला रही हो। ढूंढो, यह आपको मिलेगा। यह उपलब्ध है। हम वंदना क्यों कर रहे हैं? ऐसे ऐसे आचार्य रहे हैं जिनके गुण के विषय में कहा जाए अथवा एक-एक आचार्य की लीला के विषय में कहा जाए जिस प्रकार प्रभुपाद लीलामृत हैं, वैसे ही इन आचार्यों की लीलाएं भी हैं। उनका गुण या उनका रूप, उनके भाव व उनकी भक्ति भी है। हरि! हरि! उनकी कृष्ण के प्रति समझ अथवा कृष्ण तत्व, अर्थात वे कृष्ण के ज्ञाता हैं। जब हम इन बातों को सुनते हैं तो हमें इन बातों को मानना पड़ेगा और झुकना पड़ेगा। फिर हम वंदना भी करते हैं।
(पहले भी ऐसा समझाया ही है।)
कृष्णोत्कीर्तन- गान-नर्तन-परौ प्रेमामृताम्भो-निधी। हम ऐसे एक-एक पंक्ति तो नहीं समझा पाएंगे। एक एक पंक्ति पर व्याख्या हो भी सकती है। किंतु कृष्णोत्कीर्तन अर्थात वे कृष्ण का कीर्तन करते हैं। वे उच्च स्वर से कीर्तन करते हैं लेकिन जब हम जप करते हैं, वह उच्च स्वर में नहीं होता है लेकिन जब कीर्तन करते हैं तब उच्च स्वर से कीर्तन होता है। नामाचार्य श्री हरिदास ठाकुर भी उच्च स्वर से कीर्तन करते हुए कहते थे कि उच्च स्वर से किए हुए कीर्तन का फल, कीर्तन- गान-नर्तन- अर्थात कीर्तन के साथ किए हुए नृत्य का लाभ जप की तुलना में एक हजार गुणा अधिक है। आप यह सुनकर जप छोड़ना नहीं कि अब हम कीर्तन ही करेंगे। उच्च स्वर से कीर्तन से इतना अधिक लाभ होता है तो फिर जप करने से क्या लाभ? हम जप नहीं करते। लेकिन नामाचार्य, श्रील हरिदास ठाकुर भी जप भी करते थे और उच्च स्वर से कीर्तन भी करते थे। वैसे जप का तो लाभ है ही किन्तु जप करने से हमारा खुद का उद्धार होता है अर्थात हम खुद के उद्धार के लिए जप करते हैं। जैसा कि कहते हैं कि चैरिटी बिगिंस अट होम अर्थात अगर आप को दान धर्म आदि करना है तो घर से शुरुआत करो। अपने अपने घर वालों का भी ख्याल करो। उनकी भी कुछ मदद करो। उनको कुछ दान दो या रोटी कपड़ा मकान उनको भी दो अथवा उनको कृष्ण कीर्तन दो। जब हम कीर्तन करते हैं तो अन्यों का कल्याण होता है
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ५.२५)
अनुवाद:- जो लोग संशय से उत्पन्न होने वाले द्वैत से परे हैं, जिनके मन आत्म-साक्षात्कार में रत हैं, जो समस्त जीवों के कल्याणकार्य करने में सदैव व्यस्त रहते हैं और जो समस्त पापों से रहित हैं, वे ब्रह्मनिर्वाण (मुक्ति) को प्राप्त होते हैं।
यह वैष्णवों का विशिष्ट है। यह उनकी खासियत है। वे क्या करते हैं?
यारे देख, तारे कह ' कृष्ण'- उपदेश। आमार आज्ञाय गुरु हञा तार' एइ देश।।
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला श्लोक ७.१२८)
अनुवाद:- हर एक को उपदेश दो की वह भगवत गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिए गए भगवान श्री कृष्ण के आदेशों का पालन करें। इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो।
वे यारे देख, तारे कह ' कृष्ण'- उपदेश करते हैं ताकि औरों का कल्याण हो अथवा औरों का उद्धार हो।अन्यों का उद्धार इस उच्च कीर्तन में सम्मलित है। इसीलिए जप की तुलना में कीर्तन का अधिक लाभ है। वैसे जप का भी लाभ कुछ कम नहीं है। पर्याप्त है, पूरा है, सौ प्रतिशत लाभदायक है लेकिन कीर्तन का हजार गुणा है। हरि! हरि!
नाना-शास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्-धर्म संस्थापकौ*
लोकानां हित-कारिणौ त्रि-भुवने मान्यौ शरण्याकरौ
राधा-कृष्ण-पदारविंद-भजनानंदेन मत्तालिकौ
वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।२।।
अनुवाद:- मै, श्रीरुप सनातन आदि उन छः गोस्वामियो की वंदना करता हूँ की, जो अनेक शास्त्रो के गूढ तात्पर्य विचार करने मे परमनिपुण थे, भक्तीरुप परंधर्म के संस्थापक थे, जनमात्र के परम हितैषी थे, तीनो लोकों में माननीय थे, श्रृंगारवत्सल थे,एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविंद के भजनरुप आनंद से मतमधूप के समान थे।
षड गोस्वामी वृंद नाना शास्त्रों में निपुण थे। श्री जीव गोस्वामी द्वारा सेवित अथवा स्थापित राधा दामोदर मंदिर के बगल वाले कोर्ट यार्ड में सभी षड गोस्वामी वृंद एकत्रित हुआ करते थे। वहाँ रूप गोस्वामी स्वयं भजन भी किया करते थे। ग्रंथों का ढेर मध्य में रखा जाता था और खूब शास्त्रार्थ होता था।
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥
( श्री मद् भगवतगीता १०.९)
अनुवाद:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं।
उसी शास्त्रार्थ में अथवा शास्त्रों के कीर्तन में षड् गोस्वामी वृन्द तल्लीन हुआ करते थे। धर्म संस्थापकों अर्थात धर्म की संस्थापना तो उनके जीवन का लक्ष्य था। उनका मिशन भगवान के मिशन अथवा लक्ष्य से भिन्न नहीं था। भगवान प्रकट होते हैं क्योंकि भगवान् स्वयं कहते हैं कि
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
(श्रीमद भगवद्गीता 4.8)
अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ ।
धर्मसंस्थापनार्थाय अर्थात धर्म की स्थापना के लिए भगवान प्रकट होते हैं। जब भक्त प्रकट होते हैं और वे अपने कार्यकलापों में व्यस्त रहते हैं। उनके कार्यकलापों का उद्देश्य भी धर्मसंस्थापनार्थाय होता है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं उस सुनोइड्या ब्राह्मण को मथुरा में ऐसा कहा था जिनके यहां चैतन्य महाप्रभु ने भोजन भी किया था। वहाँ सुनोइड्या ब्राह्मण कुछ ज़्यादा तो नहीं थे, कुछ ही थे। वे माधवेंद्र पुरी के शिष्य थे, तब चैतन्य महाप्रभु ने कहा
धर्मसंस्थापना हेतु साधुर व्यवहार।
साधु का व्यवहार, कार्य कलाप का हेतु धर्मसंस्थापना होता है। षड् गोस्वामी वृंद वैसे ही कार्य में व्यस्त थे, उनका हर शब्द अर्थ पूर्ण है। महत्वपूर्ण है, क्या कहा जाए और क्या नहीं और कितना कहा जाए? कम ही है। हमारी समझ की भी एक सीमा है और समय की भी पाबंदी है।
राधा-कृष्ण-पदारविंद-भजनानंदेन मत्तालिकौ इतने अच्छे और भावगर्भित व सारगर्भित शब्द हैं। राधा कृष्ण कैसे शब्द हैं? कैसे नाम हैं?
यह दो नाम ही वर्ण-द्वयी है
नो जाने जनिता कियद्भिरमृतैः कृष्णेति वर्ण-द्वयी।।
कृष्णेति अर्थात कृष्ण में दो ही अक्षर हैं। श्रील रूप गोस्वामी ही लिखते हैं कि इन अक्षरों में कितना अधिक आनंद है। इन दो अक्षरों में एक नाम कृष्ण बना है
तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते तुण्डावली लब्धये कर्ण- क्रोड़- कड़म्बिनी घटयते कर्णार्बुदेभ्यः स्पृहाम। चेतः-प्राङ्गण-सङ्गिनी विजयते सर्वेन्द्रियाणां कृतिं नो जाने जनिता कियद्भिरमृतैः कृष्णेति वर्ण-द्वयी।।
( श्री चैतन्य चरितामृत अन्तय लीला 1.९९)
सर्वोपाधि- विनिर्मुक्तं तत्परत्वेन निर्मलम्। हृषिकेण हृषिकेश सेवनं भक्तिरूच्यते।।
( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१७०)
अनुवाद:- भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान की सेवा में अपनी सारी इंद्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान की सेवा करता है, तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान की सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इंद्रियां शुद्ध हो जाती हैं।
वैसे भक्ति की व्याख्या में ही कहा है।हृषिकेण हृषिकेश सेवनं। जब हम अपनी इंद्रियों से अर्थात हमारी इंद्रियों के स्वामी हृषिकेश की सेवा करेंगे।
कृष्ण का नाम हृषिकेश है अर्थात वे इंद्रियों के स्वामी हैं । उनकी स्वयं अर्थात हृषिकेश अर्थात भगवान की भी इंद्रियां हैं। भगवान की भी दृष्टि है या उनकी भी ज्ञानेंद्रियां हैं।
सकलेइंद्रियां अर्थात उनकी एक इंद्रिय भी बाकी सभी इंद्रियों का भी कार्य करती है। यह सब बातें ही बातें हैं।
राधा-कृष्ण-पदारविंद-भजनानंदेन मत्तालिकौ अर्थात रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, रघुनाथ दास गोस्वामी, रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, जीव गोस्वामी, गोपाल भट्ट गोस्वामी राधा कृष्ण के भजन के आनंद में मग्न रहा करते थे।
त्यक्त्वा तूर्णम् अशेष -मंडल-पति-श्रेणें सदा तुच्छ-वत्*
भूत्वा दीन गणेशकौ करुणया कौपीन-कन्थाश्रितौ
गोपी-भाव-रसामृताब्धि-लहरी-कल्लोल-मग्नौ मुहुर्
वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।४।।
( श्री गोस्वामी अष्टक)
अनुवाद:- मैं, श्रीरूप-सनातनादि उन छः गोस्वामियों की बारंबार वंदना करता हूँ कि, जो समस्त मंडलो के आधिपत्य की श्रेणी को, लोकोत्तर वैराग्य से शीध्र ही तुच्छ की तरह सदा के लिए छोड़कर, कृपापूर्वक अतिशय दिन होकर, कौपीन एवं कंथा (गुदडी) को धारण करनेवाले थे, तथा गोपीभावरूप रसामृतसागर की तरंगों में आनंदपूर्वक निमग्न रहते थे।
हरि! हरि! लोग ऐसा समझते हैं कि इस भौतिक जगत में कुछ सफलता नहीं मिली अथवा फेल हो गए या लव मैरिज में फेल हो गए या दिवाला निकल गया, इसीलिए वे साधु अथवा वैरागी बन गए। मूर्ख लोग ऐसा समझते हैं कि अनाड़ी लोग अथवा भोले भाई लोग भगवान की शरण में आते हैं लेकिन भगवान की समझ तो भिन्न है। भगवान कहते हैं
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते । वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
( श्रीमद् भगवतगीता ७.१९)
अनुवाद:- अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है, ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है।
बहुत जन्म जन्मांतरों के पश्चात जो ज्ञानवान है, वही भगवान की शरण में आता है। यह षड गोस्वामी वृंद पूरे ज्ञान के साथ शरण में आए थे। ये असफलता अथवा फेल हो गए अथवा यह हुआ या वह हुआ, ऐसा नही था। हमारे राजनेता कभी कभी संन्यास लेने की बात करते हैं कि यदि हम इलेक्शन में हार गए तो हम संन्यास ले लेंगे, उनका ऐसा वैराग्य मर्कट वैराग्य होता है। उसे मर्कट वैराग्य कहा जाए या श्मशान वैराग्य कहा जाए। जब तक वे श्मशान में होते हैं, तब तक वैराग्य ही वैराग्य होता है। शमशान से जैसे ही घर वापस लौटे तो वैराग्य समाप्त। वैराग्य भी श्मशान भूमि में ही छोड़ दिया। वहां कुछ योगी बनने का विचार हो रहा था किंतु पुनः भोग विलास शुरू हो जाता है। हरि! हरि! षड् गोस्वामी वृंद ऐसे नहीं थे। वे मर्कट वैरागी नहीं थे या वे शमशान वैरागी नहीं थे।
वैराग्यविद्या निजभक्तियोग शिक्षार्थमेकः पुरुषः पुराणः श्रीकृष्णचैतन्य शरीरधारी कृपाम्बुधिर्यस्तमहं प्रपद्ये।।
( श्री चैतन्य चंद्रोदय नाटक ६.७४-७५)
अनुवाद:- मैं उन पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान श्री कृष्ण की शरण ग्रहण करता हूं जो हमें वास्तविक ज्ञान अपनी भक्ति तथा कृष्ण बालामृत के विकास में बाधक वस्तुओं से से विरक्ति सिखाने के लिए श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए हैं। विवेक कृपा के सिंधु होने के कारण अवतरित हुए हैं मैं उनके चरण कमलों की शरण ग्रहण करता हूं।
वे सच्चे वैरागी थे। सच्चा वैराग्य और विज्ञान, सच्ची भक्ति करने से ही प्राप्त होते हैं।
वासुदेवे भगवति भक्तियोग: प्रयोजित :। जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ।।
( श्रीमद् भागवतम १.२.७)
अनुवाद:- भगवान श्री कृष्ण की भक्ति करने से मनुष्य तुरंत ही अहेतुक ज्ञान तथा संसार से वैराग्य प्राप्त कर लेता है।
यह भागवत का सिद्धांत है। जो भगवान की भक्ति करता है। (पहले भक्ति या पहले वैराग्य ?) वह भक्ति से ही उच्च रस को प्राप्त करेगा।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥
( श्रीमद् भगवतगीता २.५९)
अनुवाद:- देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही निवृत्त हो जाय पर उसमें इन्द्रियभोगों की इच्छा बनी रहती है | लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यों को बंद करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है।
जब जीव उच्च रस का आस्वादन करता है तब उसके जीवन में वैराग्य उत्पन्न होता है। उसके भावों में वैराग्य उत्पन्न होता है। तब वह इस संसार के जो प्रलोभन हैं, उसको आसानी से ठुकरा सकता है। भोग विलास के विचार या भोग विलास के साधन ठुकराने अथवा त्यागने की संभावना या शक्ति तब आती है जब भक्ति से वह शक्ति आती है। भक्ति करने से ही वह शक्ति आती है।
कलि कालेर धर्म कृष्ण संकीर्तन कृष्ण शक्ति विना नहे तार प्रर्वतन।।
( श्री चैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला श्लोक ७.११)
अनुवाद:- कलियुग में मूलभूत धार्मिक प्रणाली कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने की है कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त किए बिना संकीर्तन आंदोलन का प्रसार कोई नहीं कर सकता।
ऐसा सिद्धान्त भी हैं। षड् गोस्वामी वृंद जो
त्यक्त्वा तूर्णम् अशेष -मंडल-पति हैं।
हम स्वयं ही कल उनका आविर्भाव दिवस मना रहे थे। रघुनाथ दास गोस्वामी बहुत बड़े जमींदार के बेटे थे। उनकी तुलना में बंगाल में शायद ही कोई आज इतना बड़ा जमींदार या अमीर होगा। उनके पास जेब भर कर सोने के सिक्के नहीं थे अपितु नौका भर कर सोने के सिक्के थे। क्या नागपुर में ऐसा कोई ऐसा धनवान है? या और कहीं है? वे धनाढ्य गोवर्धन मजूमदार के पुत्र थे। यहाँ वर्णित है कि
त्यक्त्वा तूर्णम् अशेष -मंडल-पति-श्रेणें सदा तुच्छ-वत्
वे स्वयं बड़े-बड़े मंडलों के पति थे अथवा उनके पिता थे क्योंकि पुत्र का भी अधिकार होता है इसलिए रघुनाथ दास गोस्वामी का अधिकार होते हुए भी सारी सम्पदा उनके लिए त्यक्त्वा मानो तुच्छ-वत थी।
श्रेणें सदा तुच्छ-वत् षड् गोस्वामी उसकी और थूकते थे। हमें इसकी परवाह नहीं, यह संपत्ति तो कचरा है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। ही वास्तविक धन है।
गोलोकेर प्रेमधन हरि नाम संकीर्तन
जप करते-करते या उच्च स्वर में कृष्ण का कीर्तन व नृत्य करते हुए गोलोक वृंदावन का धन प्राप्त करो। जब हम जप करते हुए उच्चारण करते हैं तब हमें ध्यानपूर्वक उच्चारण करना होगा। तभी हमारी धनराशि में वृद्धि होगी, हमारा फिक्स्ड डिपॉजिट बढ़ेगा लेकिन इसके लिए ध्यानपूर्वक जप करना होगा नहीं तो सब कुछ माया के अकाउंट ( खाते) में डिपॉजिट हो जाएगा। माया बलवान हो जाएगी। यदि हम वैष्णव अपराध करेंगे तो माया बलवान होगी। तत्पश्चात दुर्देव से हमारे जीवन में ऐसा भी समय आ सकता है कि वही हरि नाम हमारे मुख से नहीं निकलेगा व नाम में रुचि की बजाय अरुचि उत्पन्न होगी। हम भगवान जो मंदिर में रहते हैं, की ओर मुड़ने और दौड़ने की बजाए फिल्मी चित्र आदि की और या कहीं और दौड़ेंगे। ऐसा बहुत कुछ हो सकता है। हम बहुत कुछ खो सकते हैं।
कलि काले नाम रुपे कृष्ण अवतार।नाम हैते हय सर्व जगत्निस्तार।।
( श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला श्लोक १७.२२)
अनुवाद:- इस कलयुग में भगवान के पवित्र नाम अर्थ हरे कृष्ण महामंत्र भगवान कृष्ण का अवतार है केवल पवित्र नाम के कीर्तन से मनुष्य भगवान की प्रत्यक्ष संगति कर सकता है जो कोई भी ऐसा करता है उसका निश्चित रूप से उद्धार हो जाता है।
भगवत प्राप्ति जोकि हमें नाम के रूप में हो रही थी अथवा कृष्ण प्राप्त हो रहे थे लेकिन ध्यानपूर्वक अपराधरहित जप या कीर्तन नहीं करने से तब माया प्रबल होगी। ऐसा देखा जाता है और देखा गया है और इसके कई सारे उदाहरण हैं। दस नाम अपराधों में वैष्णव अपराध है। साधु सावधान! पदम पुराण सावधान करता है।
हरि! हरि!
करुणया कौपीन-कन्थाश्रितौ
वे अशेष -मंडल-पति अथवा बहुत धनाढ्य थे लेकिन अब वे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी व शिष्य भी बने हैं। भगवान ने रूप और सनातन को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया है। भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं बंगाल में रामकेली गए थे जहां रूप और सनातन रहते थे अर्थात जहां दबीर खास और साकर मल्लिक रहते थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उन दोनों को खोजते खोजते गए और उन्होंने इन रत्नों अर्थात रूप सनातन को ढूंढ कर निकाला। उनको दीक्षा भी दी और उनका नामकरण हुआ। वैसे रूप और सनातन नवाब हुसैन शाह के राज्य में अर्थमंत्री व प्रधानमंत्री की ऊंची पदवी पर थे।
ये सारी पदवी छोड़
त्यक्त्वा तूर्णम् अशेष -मंडल-पति-श्रेणें सदा तुच्छ-वत्
अब उन्होंने कौपीन पहनी हुई है, तब उनके जीवन में ऐसा वैराग्य उत्पन्न हुआ है।
कौपीन-कन्थाश्रितौ अब उनके पास कौपीन है, कन्था अर्थात कंबल है। उनके एक हाथ में कमंडल है और दूसरे हाथ में जपमाला है। अब हम जप की थैली और माला से हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे कह रहे हैं।
गोपी-भाव-रसामृताब्धि-लहरी-कल्लोल-मग्नौ मुहुर्
अभी तो मुझे विराम देना होगा, वे गोपी भाव के रस के सागर में मग्न थे। जैसा कि ऊपर वर्णन था
राधा-कृष्ण-पदारविंद-भजनानंदेन मत्तालिकौ अर्थात षड् गोस्वामी वृन्द राधा कृष्ण के भजन में आनंद में मग्न रहा करते थे। अब यहां वर्णन है कि गोपी भाव का जो रस है या गोपी भाव के रस का जो अमृत है या गोपी भाव के अमृत का जो सागर है अथवा उपाधि है। अप मतलब जल और धि मतलब संग्रह या स्टोर, वे उसमें भी मग्न है। इतना ही नहीं वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ, मुहुर् अर्थात पुनः पुनः अर्थात हर समय मग्न थे। षड् गोस्वामी वृन्दों की जय! श्रील प्रभुपाद की जय!
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!
हरि! हरि!