Hindi

*जप चर्चा* *दिनांक 29.01.2022* *परम पूज्य वृंदावन चंद्र महाराज द्वारा* *नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।।* *नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे। निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे।।* *हे कृष्ण करुणासिन्धो दीनबन्धो जगत्पते। गोपेश गोपिकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तुते।।* *तप्तकाञ्चनगौराङ्गि राधे वृन्दावनेश्वरि। वृषभानुसुते देवी प्रणमामि हरिप्रिये।।* *नमो महावदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः।* *श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्* *वाछां – कल्पतरुभ्यश्च कृपा – सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।।* *(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।* *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* कल हम लोग साधना के विषय में सुन रहे थे। बहुत कम समय था, हम तो समय का अतिक्रमण नहीं करना चाहते। कुछ भक्त लोग प्रश्न पूछ रहे थे। अच्छा तो यह होता है कि प्रश्न पहले ही लिख कर दे दिए जाएं। तब उस पर विचार कर लिया जाता है। लेकिन जो भी हो वैसे प्रश्न जिसके भी मन में हो, उसको पुछना चाहिए। प्रश्न बनाने की जरूरत नहीं है। यदि प्रश्न स्वाभाविक रूप से मन में आ रहा है तो आप पूछ सकते हैं। प्रश्न उत्तर प्रश्न:- महाराज जैसे हम लोग साधना में प्रतिदिन 16 माला का जप करते हैं। एकादशी के दिन हम 32 या 64 माला करने की कोशिश करते हैं लेकिन बाकी समय 16 माला से ज़्यादा हो नहीं पाता क्योंकि बहुत सारी सेवाएं रहती हैं। यदि हम सेवा के साथ साथ हरिनाम ले रहे हैं, वो ज़्यादा अच्छा है या माला में जप करना ज्यादा महत्वपूर्ण है। महाराज:- देखिए। हरिनाम के विषय में स्पष्ट सिद्धान्त है। इसमें देश काल का बंधन नहीं है। आप शिक्षाष्टकम में सुनते हैं। *नाम्नामकारि बहुधा निज - सर्व - शक्तिस् तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः । एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ।।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.16) अनुवाद:- " हे प्रभु , हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् , आपके पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है , अत : आपके अनेक नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविन्द , जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं । आपने अपने इन नामों में अपनी सारी शक्तियाँ भर दी हैं और उनका स्मरण करने के लिए कोई निश्चित नियम भी नहीं हैं । हे प्रभु , यद्यपि आप अपने पवित्र नामों की उदारतापूर्वक शिक्षा देकर पतित बद्ध जीवों पर ऐसी कृपा करते हैं , किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय अपराध करता हूँ , अतः मुझ में जप करने के लिए अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता है । भगवान् ने उसमें नाम प्रकाशित किया है। उसमें सर्व शक्ति है। जहां तक उसके उच्चारण के विषय में कोई देश व काल का नियम नही है। मुख्य चीज़ है कि भगवान् नाम का उच्चारण करना, माला तो एक सहायक चीज़ है। अच्छा तो यही है कि ऐसा अभ्यास कर लेना चाहिए कि निरन्तर भगवान् का नाम जिव्हा पर आता रहें। अभ्यास करने से ऐसा हो जाता है, नाम का उच्चारण करना महत्वपूर्ण है लेकिन इसके साथ एक कठिनाई है कि हम लोगों का जो मन है, वह बहुत दूषित है औऱ मन धोखा दे देता है।एक दिन तो खूब अच्छे से जप होगा। मन में आता है कि अब तो जप हो रहा है, गिनती करने की क्या आवश्यकता है लेकिन यदि हिसाब किताब नहीं रखेंगे, गिनती नहीं रखेंगे। बहुत सम्भावना है कि वह धीरे धीरे कम हो जाएगा। थोड़ी देर नाम बोलेगें तब उसी में मन कहेगा कि बहुत बोल लिया, अब आगे देखा जाएगा। मन पर विश्वास नहीं करना चाहिए और माला से जप करना चाहिए। जब सेवा का समय है तो उस समय भी जप कीजिए लेकिन जो अपना नियम है, उसको रखना चाहिए। नियम का त्याग करेंगे तो धीरे धीरे साधना से विचलन होने लगता है।अतः जो 16 माला का नियम है, उसको माला पर जप करना चाहिए।बाकी आपको जितना समय मिले , भगवान् का नाम बोलते रहिए, उसमें कोई अंतर नही है। माला पर बोले या बिना माला से बोले, उससे बहुत अंतर नहीं होता है। अंतर दूसरे दूसरे फैक्टर में है। जब तैयारी के साथ बैठकर माला के साथ जप करते हैं, माला के चलते भावना भी बंधती है। आप तब नाम का आस्वादन भी अच्छे से कर पाते हैं। नाम बोल रहे हैं, यह अपने आप में पूर्ण है। लेकिन यदि नाम का चिन्तन कर रहे हैं, उसका श्रवण कर रहे हैं, उसका ध्यान कर रहे हैं तब निश्चित रूप से चित्त में एक सुखद अनुभूति होगी। हमारा चित्त जल्दी ही आनंद का अनुभव करने लगेगा और अपने स्वरूप की स्थिति में जल्दी आएगा। सार यह है कि नाम किसी तरह लीजिए। बहुत अच्छा है लेकिन फिर भी जो अपना नियम है 16 माला का, अच्छा होगा कि उसको आसन पर बैठकर ध्यान पूर्वक नाम का चिंतन करते हुए जप करना चाहिए। प्रश्न:- कल हमनें एक पॉइंट (बिंदु ) यह सुना था कि कभी कभी भक्त अपनी साधना करते हुए उसे इतना सुख आने लगता है कि वह अपने साध्य को भी भूल जाता है। क्या यह भक्त के लिए सही परिस्थिति है? इसे कैसे समझा जाए। महाराज:- यदि वह साध्य को भूल जाता हैं, तो इसमें आपको क्या कठिनाई हो रही है? वहां पहुंचेगा ही नहीं। अपने साध्य को भूल जाता है, इसमें आपको क्या कठिनाई लग रही है। देखिए, हम लोग अपने साध्य को प्राप्त करने के लिए साधना कर रहे हैं। कल मैंने कहा कि प्रारंभ में बहुत ज़ोर लगाना पड़ता है क्योंकि अविद्या का प्रभाव है। अविद्या का स्तर जैसे जैसे घटता जाता है तो साधना में रुचि बढ़ती जाती है। एक स्थिति आ जाती है, व्यक्ति को साध्य का ध्यान नहीं रहता है। आपके प्रश्न से लग रहा है कि साध्य तक पहुंचेगे ही नहीं। अगर वो भूल ही गया तो क्या होगा। एक चीज़ ध्यान रखना चाहिए साध्य और साधन में बहुत भारी अंतर नहीं है। क्योंकि यह जो साधना है, यह भी भक्ति ही है। लेकिन जो सिद्धि है, वह भी भक्ति ही हैं, इसी से भक्ति का विभाजन किया गया है। साधन भक्ति, भाव भक्ति और प्रेम भक्ति। लेकिन यह संशय (कंफ्यूजन) नहीं होना चाहिए कि भक्ति तीन है। भक्ति तो एक ही है, उसके स्तर का भेद है, आस्वादन का भेद है। स्वरूप भी भिन्न दिखता है। एक उदाहरण से हम इस बात को समझ सकते हैं जैसे कोई आम का फल है। आम का फल सब लोगों ने देखा है। सब का अनुभव है। एक अवस्था ऐसी होती है जिसमें आम इतना खट्टा होता है कि खाने में दांत भी खट्टे हो जाते हैं। अरे! खाने की बात तो दूर है, कभी-कभी लगता है कि दूसरा व्यक्ति खा रहा है तो अन्य पर भी असर आ रहा है। ऐसा बच्चों में देखा जाता है। आम खट्टा है लेकिन अब कुछ समय के पश्चात उसका रस पुष्ट हो जाता है। एक अवस्था ऐसी आ जाती है कि अब आम खट्टा मीठा दोनों हो जाते हैं। कुछ खट्टा भी लगता है और कुछ मीठा भी लगता है। एक अवस्था ऐसी आ जाती है कि पूरा का पूरा मीठा हो जाता है। अब उसमें खट्टापन नहीं रह जाता। अगर रह भी जाता है तो बहुत स्वादिष्ट हो जाता है, आम के तीन स्तर दिख रहे हैं ना? आम 3 है या एक है? वह आम 3 नहीं हैं, आम की अवस्थाएं तीन हैं। उसी प्रकार भक्ति तो भगवान की अंतरंगा शक्ति की वृत्ति है। भक्ति सदैव सुख स्वरूप है और इसके अनुभव में अंतर होता है। जो भक्ति का विभाजन किया गया है, इसके गुण के प्रकाशन के स्तर से भेद दिया जाता है। भक्ति में भेद नहीं है। वास्तव में साधन भक्ति ही भाव भक्ति में परिणत हो जाती है अंतत, प्रेम भक्ति में परिणत हो जाती है। जब साधना में ही इतना सुख मिलने लगे तो व्यक्ति लक्ष्य अर्थात अपने साध्य को भी विस्मरण कर देता है। इसमें दो चीजें समझनी चाहिए कि एक तो साध्य के नजदीक पहुंच गया। मान लीजिए कि हम अपने साध्य को भूल जाएं फिर जो हम साधना कर रहे हैं तो साधना के प्रभाव से साध्य तक जाएंगे ही ना। मान लीजिए कि हम ट्रेन में सवार हैं और यह विस्मरण हो जाए कि हम ट्रेन में बैठे हैं, हमारे विस्मरण से ट्रेन की स्पीड में कोई कमी नहीं आएगी। हम अपने गंतव्य तक पहुंच ही जाएंगे। अब हम आपसे प्रश्न करेंगे कि मान लीजिए कि आपको कहीं जाना है और रास्ते में आप भूल गए कि हम ट्रेन पर हैं और हमको वहां तक जाना है, तो भूल जाने से क्या कठिनाई आएगी? ऐसे तो उदाहरण में कहा जायेगा कि किस स्टेशन पर उतरना है, वहां नहीं उतर पाएंगे। मान लीजिए एकदम लास्ट स्टेशन पर जाना है तो भूलने से कोई कठिनाई नहीं आएगी, यह सब स्वभाविक है कि व्यक्ति भूल जाता है। अपनी साधना में खो जाता है। इतना सुख मिलने लगता है कि अब उसको दूसरी चीज का स्मरण नहीं रहता। वह उसी को चाहता है। यह एक लक्षण है। जो व्यक्त कर रहा है कि वह अपने लक्ष्य तक पहुंच रहा है, अपनी सिद्धि को प्राप्त कर रहा है। सिद्धि के नजदीक चला गया है और सिद्धि को प्राप्त किया है। मान लीजिए अभी तो साधन और साध्य का भेद कर रहे हैं लेकिन साध्य को प्राप्त कर लें अर्थात यदि भगवान के प्रेम को प्राप्त कर लें, उसमें भी तो ऐसा नहीं है, कई स्तर हैं। प्रेम के भी तो बहुत बहुत स्तर हैं ना!! प्रेम, स्नेह, मान, राग, अनुराग भाव, महाभाव। साधक महाभाव तक तो नहीं जा सकता। वह तो नित्य परिकरों का ही अधिकार है। लेकिन इसमें भाव का यही लक्षण दिया गया है वह स्वसंविदय हो जाता है। उस स्तर पर साधक को ना तो अपना ख्याल रहता है और ना ही अपने विषय का। केवल सुख की अनुभूति होती है। सार वक्तव्य हमारा यह है कि साधन कर रहे हो उसी में सब इतना अभीष्ट हो गया है कि सिद्धि की तरफ ध्यान भी नहीं है । यह एक शुभ लक्षण है लेकिन साधना के अभिनिवेश से ऐसा हो रहा है तब यदि किसी दूसरे अभिनिवेश से कोई अपने सिद्धि अर्थात साध्य को ही भूल जाए। यह तो बहुत खतरनाक है। यदि साधना के अभिनिवेश से यह हो रहा है तो यह बहुत शुभ लक्षण है। प्रश्न:- जब हम हरि नाम करते हैं तो कभी-कभी ऐसी परेशानियां आ जाती हैं। जहां हम जॉब करते हैं तब व्यस्त शेड्यूल रहता है। उस समय जो श्रवण पठन भी करते हैं लेकिन वह पूरा रूटीन डिस्टर्ब हो जाता है और ऐसा होता है कि जिसमें हमें रुचि भी नहीं है। वह काम हमें जबरदस्ती करना पड़ता है। महाराज! हम उस परिस्थिति को कैसे सोचे और उस परिस्थिति में कैसे निरंतर अपनी साधना को कर सकते है? उत्तर:- क्या आप मिलिट्री में सेवा करते हैं? देखिए, ऐसी तो बहुत कम जगह है, जहां जबरदस्ती कार्य करना पड़ता है और वहां भी बहुत जबरदस्ती नहीं है। जो मिलिट्री में ट्रेनिंग लेता है, उसको घर नहीं जाने देते लेकिन यदि वह घर जाना चाहे तो उसको भी नहीं रोकते हैं। वे कुछ अपनी फीस लेते हैं, उस पर अपना ध्यान रखते हैं। आप जो यह कह रहे हैं कि जबरदस्ती कराया जाता है या करना पड़ता है तो ऐसी स्थिति तो हमें नहीं दिख रही है। किसी भी जॉब में अगर कोई व्यक्ति है तो उसने खुद ज्वाइन किया है। ऐसा नहीं है कि वह रिजाइन कर ही नहीं सकता है। कुछ विषम परिस्थिति आ जाती है तो वह छुट्टी ले लेता है या रिजाइन भी कर देता है। वह बाध्य नही है, व्यक्ति ने खुद अपने से चुना है। यह उसका अपना डिसीजन होगा कि वह क्या करें। अब भक्ति बाधित हो रही है, बहुत सारे भक्त हैं, जो काम का त्याग कर देते हैं। बहुत सारे भक्त हैं जो उसी में एडजस्ट करके चलते हैं। इसी से वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था है। व्यक्ति की ऐसी चेतना है कि वह भोग का त्याग नहीं कर सकता है। भोग का त्याग नहीं कर सकते हो तो बैलेंस जीवन जियो। कुछ भक्ति करो, कुछ भोग भी करो। इसी से वर्णाश्रम की व्यवस्था है। नहीं तो जहां तक भक्ति की बात है *लोक - धर्म , वेद - धर्म , देह धर्म , कर्म लज्जा , धैर्य , देह - सुख , आत्म - सुख - मर्म ॥* *दुस्त्यज आर्य - पथ निज परिजन ॥ स्व - जने करये व्रत ताड़न - भर्सन ॥* *सर्व - त्याग करि करे कृष्णेर भजन । कृष्ण - सुख हेतु करे प्रेम सेवन ॥* (चैतन्य चरितामृत आदि लीला 4.167 - 168 -169) अनुवाद:- सामाजिक रीतियाँ शास्त्रीय आदेश शारीरिक आवश्यकताएँ, सकाम कर्म , लज्जा , धैर्य , शारीरिक सुख इन्द्रियतृप्ति तथा वर्णाश्रम धर्म का वह मार्ग , जिसे छोड़ पाना कठिन है - गोपियों ने अपने परिवार के साथ साथ इन सबको त्याग दिया है और अपने परिजनों के दण्ड तथा फटकार को सहा है । यह सब उन्होंने भगवान् कृष्ण की सेवा के लिये किया । वे उनके ( कृष्ण के ) आनन्द के लिए उनकी प्रेममयी सेवा करती है। सार यह है कि सब कुछ त्याग कर वृंदावन में रहकर एकांत में भक्ति संपादन करना चाहिए। आदर्श तो यह है लेकिन कौन कर पाएगा? इसका भी एक जजमेंट करना होता है। ऐसा नहीं है कि सब लोग त्याग करेंगे और वृंदावन में आ जाएंगे और केवल भक्ति में ही लग जाएंगे। भगवान ने गीता का उपदेश दिया है क्योंकि लोगों की चेतना का स्तर भिन्न-भिन्न है। कुछ की कर्म में प्रवृत्ति है, कर्म करते हुए शुद्ध होगा। कुछ लोग ऐसे हैं कि वे कर्म करें या ना करें। कोई अंतर नहीं पड़ता है, इसलिए अपनी चेतना का स्तर बढ़ाना चाहिए। जितना भक्ति कर सकते हैं, उतना भक्ति को एडजस्ट करके, करना चाहिए। नहीं तो, यदि आपको बहुत खराब लगने लगे और एकदम खराब लगने लगे। हमें ऐसा नहीं लगता है कि यदि कोई अपनी जॉब से रिजाइन कर देगा तो उसको पुलिस पकड़ने आएगी कि क्यों ऐसा कर दिया। एक दो साल का समय भले ही लग सकता है। ऐसा तो हमें समझ में नहीं आ रहा है कि कोई जबरदस्ती करवा रहा है। अपना मन जबरदस्ती कराता है । अर्जुन ने कहा है- अर्जुन उवाच *अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः |अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ||* ( श्रीमद भगवद्गीता 3.36) अनुवाद: अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो | हम तो ऐसा अनुभव कर रहे हैं कि हमको जबरदस्ती लगाया जा रहा है लेकिन जबरदस्ती लगाने वाला हमारा अपना मन है। इसलिए मन को प्रशिक्षण देने की जरूरत है, यदि वास्तव में मन उसको बिल्कुल भी पसंद नहीं कर रहा है। वैसे काम करने की क्या जरूरत है। जो भगवान की भक्ति के लिए त्याग करेगा, उसका भरण पोषण भगवान करेंगे, ऐसा नहीं है कि कोई नौकरी से ही जी रहा है। जिलाने वाले भगवान हैं। भगवान ने ऐसी सृष्टि की है कि किसी व्यक्ति को कहीं भी जिला लेंगे लेकिन अपने मन का स्तर जानना चाहिए। जब तक मन सुख चाह रहा है, पुत्र परिवार का ध्यान रख रहा है। तब तक जैसी भी नौकरी है उसे करना ही पड़ेगा। प्रयास करना चाहिए कि कम से कम वैसे कार्य और जो भी दूषित कार्य हैं, भगवान् का भरोसा करके उसका त्याग कर देना चाहिए। जीवन का मुख्य उद्देश्य भक्ति है। यह सब कैसा नौकरी है, कैसा पेशा है।किसी का कोई व्यक्तिगत केस है उसका कोई काउंसलर है, गुरु है, वह कुछ जजमेंट करके निर्णय दे सकता है। एक व्यक्ति की परिस्थिति से इस पर कोई सार्वभौमिक निर्णय नहीं दिया जा सकता। जहां तक निर्णय की बात है, भक्ति के लिए तो बस स्थिति यही है कि सब कुछ त्याग करके भक्ति करना चाहिए। ऐसा नहीं कर सकते हैं तो जितना त्याग कर सकते हैं, उतना त्याग करना चाहिए। भक्ति का त्याग नहीं करना चाहिए। कुछ भी नहीं त्याग कर सकते तो सब करते हुए भक्ति कीजिए। जिस स्थिति में भक्ति को करना है, किसकी क्या स्थिति है इस पर व्यक्तिगत रूप से विचार किया जा सकता है। प्रश्न:- कहते हैं कि हम मन के पीछे दौड़ते हैं लेकिन पुरंजन की कथा में भागवत में लिखा है कि जो आत्मा है वह बुद्धि के पीछे पीछे भागती है और इंद्रिय भोग करती है इस पर थोड़ा सा प्रकाश डालिए कि मन या बुद्धि किस के पीछे भागते हैं? महाराज :- मन और बुद्धि में क्या अंतर है इसको आप बतलाइए? प्रभु:- मन तो इंद्रिय है लेकिन पुरंजन कथा में पुरंजन का जो रूपक है, वह बुद्धि के पीछे पीछे भागता है। महाराज:- वो तो ठीक है, लेकिन मन क्या है? बुद्धि क्या है? पहले आप इसको बतलाइए तब मैं अपना उत्तर दूंगा। प्रभु:- मन तो इन्द्रिय है। महाराज:- और बुद्धि? प्रभु:- बुद्धि तो शायद सारथी है। महाराज:- देखिए, आप मन और बुद्धि के अंतर को इतना स्पष्ट समझ ही नहीं रहे हैं, तो कैसे उत्तर समझ पाएंगे। आपने ऐसा प्रश्न कर दिया तो पहले बतलाइए कि इंद्रियां कितनी है? इन्द्रियों की संख्या बतलाइए। प्रभु:- ११ इंद्रियां हैं। महाराज:- उसका भेद, उसका विभाजन कैसे करेंगे। प्रभु:- 5 ज्ञानेद्रियां,5 कर्मेन्द्रियाँ। महाराज :- और एक? प्रभु:- गीता में भगवान् ने बोला है:- मन: षष्ठी इन्द्रियाणि कर्षिति।। महाराज :- ठीक है, छः है। कर्षिति छः। छह सब एक जाति का है या उसमें कुछ अंतर है? प्रभु:- सूक्ष्म इंद्रियां और स्थूल इन्द्रियों का अंतर है। महाराज:- देखिए! इंद्रियां स्थूल नहीं हैं, इंद्रियां सूक्ष्म ही हैं लेकिन अंतर किया जाता है। दस इंद्रियां बाहरी हैं और एक अंतःकरण है। अंतःकरण का अर्थ हुआ कि भीतर की इंद्रिय। अंतःकरण कितने रूप में लक्षित होता है? आपको अंतःकरण की धारणा पता है? पुरंजन कथा पढ़ रहे हैं, उससे पहले द्वितीय स्कंध में सृष्टि का प्रकरण भी आपने पढ़ा होगा। जहां पर अंत: इंद्रिय की बात है। चतुर्थ लक्ष्यते - चार रूप में लक्षित होता है। मन, बुद्धि, अहंकार और चित या चित्त, मन, बुद्धि और अहंकार । वास्तव में एक दृष्टि से देखा जाए, यह चारों एक हैं। केवल उनके वृत्ति के भेद से अंतर किया जाता है। उनके कार्य के भेद से अंतर किया जाता है। चित्त, मन, बुद्धि, अहंकार यह चार नहीं हैं। यह एक ही है लेकिन एक ही इंद्रिय अनुसंधान का कार्य करती है तो उसको चित्त कहते हैं। संकल्प, विकल्प होता है, उसको मन कहते हैं। जहां निर्णय है उसको बुद्धि कहते हैं। जहां क्रिया का उन्मेष है, उसको अहंकार कहते हैं। मन और बुद्धि एक दृष्टि से कहा जाए, वे भिन्न-भिन्न नहीं हैं। वृत्ति भिन्न भिन्न है, अब आपका प्रश्न कि व्यक्ति मन के पीछे भाग रहा है या बुद्धि के पीछे भाग रहा है। तो भाई, दोनों के पीछे भाग रहा है क्योंकि जो माया है, उसका प्रभाव दोनों पर है। वह तदात्म्य कर लिया है। अब मन को ही मानता है कि मन ही है लेकिन फिर आप और सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो मन के ऊपर बुद्धि का नियंत्रण है। अब व्यक्ति बुद्धि के पीछे जाने लगा तो अब तो मन को नियंत्रण में करना एकदम कठिन है। अभी मन के पीछे चल रहा है तो बुद्धि से कंट्रोल कर सकता है। अब जिसका बुद्धि पर ही कंट्रोल नहीं है, बुद्धि का तदात्मय कर लिया और उसी का अनुगामी हो गया। अब मन के पीछे तो रहेगा ही। यह केवल एक स्टेप का भेद है। जो बुद्धि के पीछे है या मन के पीछे है। कुछ लोग मन के पीछे हैं तो बुद्धि से कंट्रोल कर सकते हैं और जो लोग बुद्धि से पीछे हो गए तो उनको मन से तो नियंत्रण नहीं किया जा सकता। आपका जहां तक है, मन बुद्धि ये दोनों दूषित है। दोनों के पीछे व्यक्ति भाग रहा है इसमें बहुत अंतर नहीं है। प्रश्न:- क्या भक्त अपनी साधना में संतुष्टि पाता है और यह कैसे पता चलेगा कि हमारी भक्ति का स्तर क्या है? महाराज:- साधना ठीक चलेगी तो संतुष्टि तो आएगी ही। भोजन ठीक है तो उससे कुछ संतुष्टि की प्राप्ति होती है ना। वैसे ही भक्ति करने से भगवान का अनुभव होता है। भगवान तो चितघन हैं, आनंददायी हैं। उनका अनुभव होने से सुख का तो अनुभव होगा ही। उदाहरण दिया गया है कि भोजन करने से संतुष्टि भी होती है। भूख का ह्रास भी होता है। भूख का समापन होता है और बल भी मिलता है। वैसे ही साधना करने से संतुष्टि आती ही है। मान लीजिए जिस के चित्त पर बहुत माया का प्रभाव है। अभी वह सुख का अनुभव नहीं कर पाता है, जैसे देखा जाता है कभी-कभी तार को कनेक्ट कर देते हैं लेकिन तार पर कार्बन है। गांठ लगाने के बाद भी बिजली का प्रवाह नहीं हो पाता। साधना करने से भगवान से संपर्क बनता है तो हमें सुख का अनुभव होगा ही। अभी अनुभव नहीं कर रहे हैं तब इसका मतलब अभी इंद्रियां अत्यधिक दूषित है। कल तो उदाहरण दिया गया था। मिश्री खाने पर भी कड़वा लगता है किंतु खाते खाते फिर ठीक हो जाता है। जहां तक साधना में हमारा क्या स्तर है इसको जांचने के लिए तो लेबोरेटरी में जाना पड़ेगा ना। जो भी विज्ञ भक्त हैं, डायग्नोसिस जानते हैं। वही जांच पाएंगे, वे जांच लेते हैं। मान लीजिए कि आपको अपने से ही जांचने की इच्छा है कि हम खुद ही जांच लें कि हमारा क्या स्तर है ? उसके लिए आपको पढ़ाई करनी होगी ना, कि क्या-क्या स्तर होते हैं तो पढ़ाई करके अपने आप को जांच लीजिएगा। माधुर्य कादंबिनी एक ग्रंथ है। उसमें साधना के स्तर की 8 सीढ़ियां बतलाई गई हैं, सबके लक्षण दिए गए हैं। उस ग्रंथ का आप खूब अच्छे से अध्ययन करके अपनी स्थिति को जांच सकती हैं। अगर अपनी क्षमता नहीं है तो जो भी विज्ञ वैष्णव हैं अर्थात सिद्धांत को जानने वाले हैं, वह आपके स्तर का निर्धारण कर सकते हैं। प्रश्न:- महाराज! आपने भक्ति की महिमा बताई, उसके बाद हमारी स्थिति यह होती है यदि हमें कोई बहुत जघन्य प्रताड़ित करता है लेकिन हम उनको श्राप देने का प्रयत्न करते हैं लेकिन हम उन्हें श्राप दे नहीं पाते। हम उसको अच्छे से दंडित भी नहीं कर पा रहे हैं। क्या यह अपने कर्तव्य से पलायन है? क्या हम डरपोक हैं? महाराज:- देखिए, वह टॉर्चर कर रहा है, उत्पीड़न दे रहा है। यदि वह हमें उत्पीड़न दे रहा है और हम उसको सहन कर रहे हैं या हम कुछ प्रतिकार नहीं कर रहे हैं। यह तो पलायन नहीं है, यह तो बहुत अच्छी बात है। उत्पीड़न सह लेना यह तो बहुत अच्छी बात है क्योंकि इससे हमारी भक्ति की क्षति नहीं होगी। उत्पीड़न सहने की प्रवृत्ति आ गई और उत्पीड़न सहते जा रहे हैं तो एक ऐसी स्थिति आ जाएगी जो उत्पीड़न दे रहा है, वह ही बदल जाएगा और उत्पीड़न देना ही छोड़ देगा। उसका कुछ असर ही नहीं आ रहा है तो क्यों फालतू का उत्पीड़न देगा। यदि कोई किसी दूसरे भक्त को उत्पीड़न दे रहा है तो उस समय कर्तव्य यहीं होता है कि अपनी क्षमता के अनुसार उसका प्रतिकार करना चाहिए। यदि प्रतिकार नहीं कर सकते हैं तो पलायन कर जाना चाहिए या उस स्थान का त्याग कर देना चाहिए। वह अपना स्वार्थ है। इस अर्थ में यदि ऐसा नहीं करते हैं तो आपकी भक्ति का ह्रास होगा। कोई गुरु के विषय में कुछ बोल रहा है, वैष्णव के विषय में बोल रहा है, भगवान के विषय में बोल रहा है, उसको सहन नहीं करना चाहिए ।अपनी क्षमता हो तो प्रतिकार करना चाहिए। क्षमता नहीं हो तो वहां से हट जाना चाहिए। इससे हमारी भक्ति सुरक्षित रहती है। नहीं तो हमारी भक्ति का ह्रास होगा। हम पर कोई अपना उत्पीड़ित कर रहा है उसको जितना सह लेंगे, उतना ही अच्छा है। यदि मन में भी कोई क्षुब्ध ना हो तो बहुत शीघ्र आप भक्ति ही उच्चतर अवस्था को प्राप्त कर लेंगे। प्रश्न:- साधना के कुछ स्टैंडर्ड होते हैं जिस पर हमें चलना पड़ता है। जिससे कुछ लक्ष्य की प्राप्ति होती है लेकिन हम जिस भौतिकवादी जीवन में जीते हैं तो हम कुछ लोगों की असंगति में भी आते हैं। जैसे हम लोग व्यवसाय में हैं तो व्यवसाय को बढ़ाने के लिए, व्यवसाय को टिकाए रखने के लिए ऐसे लोगों की संगति करनी पड़ती है या व्यवसाय की जानकारी लेने के लिए ऐसे लोगों की संगति लेनी पड़ती है। ऐसे लोगों की चेतना का प्रभाव हम पर पड़ता है उससे हमारी साधना प्रभावित होती है। ऐसे समय में क्या करना चाहिए? महाराज:- यह तो आपका निर्णय होगा ना। आप साधना को बढ़ाना चाहते हैं तो उस असंगति, उस असत सङ्ग का त्याग करना होगा। त्याग तो आप ही कर पाएंगे ना। आपके लिए कोई दूसरा त्याग नहीं करेगा। जिस व्यक्ति को कठिनाई आ रही है तो वह अपना निर्णय खुद लेगा कि क्या करना है। त्याग नहीं कर सकता है और साधना को सुरक्षित रखना है तो फिर कुछ ऐसा करना चाहिए, कुछ ऐसा संग भी रखना चाहिए जिससे वह कुछ मार्जित हो जाए। यह जो आप प्रश्न पूछ रहे हैं, इसी नेचर का एक प्रश्न पहले भी आया था कि जबरदस्ती कुछ कार्य करना पड़ता है। दोनों प्रश्नों का नेचर एक जैसा है। ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि नहीं कि साधना भले ही प्रभावित हो रहा है, उस कार्य का त्याग मत कीजिए। आप किस पॉइंट पर अपने को एडजस्ट कर सकते हैं। वह आपको विचार करना होगा, वह आपको देखना होगा। प्रश्न:- कभी हमारे हृदय में राधा रानी और कृष्ण के प्रति वियोग की भावना आती है। आंखों से अश्रु बहते हैं और कभी इतना वियोग होता है कि उनकी याद में हम एकदम तरसते हैं और कभी-कभी यह चेतना निकल जाती है। कभी आती है और कभी निकल जाती है। कभी हम रेगुलर काम करते हैं और कभी हम में अचानक इतनी अच्छे से चेतना आ जाती है। तो ऐसा क्यों होता है। महाराज:- आपका जो प्रश्न है, बहुत अच्छा प्रश्न है। देखिए! अपने चित्त पर अपने ही संस्कार का प्रभाव आता है। हमारे पूर्व के बहुत-बहुत संस्कार हमारे साथ जुड़े हुए हैं। सिद्धांत समझना चाहिए। *शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्र्वरः |गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाश्यात् ||* ( श्रीमद भगवद्गीता 15.8) अनुवाद:- इस संसार में जीव अपनी देहात्मबुद्धि को एक शरीर से दूसरे में उसी तरह ले जाता है, जिस प्रकार वायु सुगन्धि को ले जाता है । इस प्रकार वह एक शरीर धारण करता है और फिर इसे त्याग कर दूसरा शरीर धारण करता है । जैसे हवा का प्रवाह अर्थात हवा चल रही है। जिधर से हवा जाएगी, उधर से गंध को ग्रहण कर लेगी। केवल गंध को ग्रहण करती है। जैसे कोई बगीचा गार्डन है उस में जाती है तो फूल की गंध को ग्रहण करेगी, फूल को नहीं ग्रहण करेगी। मान लो यदि किसी गंदे स्थान से हवा बह रही है, उसकी दुर्गंध को ग्रहण कर लेगी और आगे बढ़ेगी। उसी तरह हम लोग जो भी शरीर धारण किए हैं, उसको लेकर आगे बढ़ते हैं। इस अर्थ में उस शरीर में जो भी संस्कार हैं फिर लेकर के चलते हैं। हमारी इंद्रियों का किसी विषय से संजोग होता है तो उसका संस्कार आ जाता है। ऐसा नहीं है कि किसी विषय को ग्रहण करें और उसका त्याग कर दें और हम पर कोई प्रभाव नहीं आएगा। इसका प्रकट उदाहरण दिया जाता है कि जैसे कोई पशु शौच करता है। जैसे गाय गोबर करती है और वह गोबर भूमि पर गिरता है। गोबर एक बार भूमि पर गिरा तो कितना भी बारीकी से गोबर हटाइए, वह कुछ ना कुछ मिट्टी का अंश जरूर ग्रहण कर लेगा। जो गांव देहात की होंगे, वही इसका अनुभव कर सकते हैं। जब भूमि पर गोबर आया तो आप कितना भी बारीकी से गोबर को उठाइए, कुछ ना कुछ उसमें मिट्टी का अंश आएगा। उसी तरह हमारी इंद्रियों का संजोग विषय से हुआ, उसका प्रभाव या संस्कार लेकर लौटते हैं। ये अनंत जन्म का संस्कार संचित है। कुछ संस्कार बहुत अच्छे हैं और कुछ संस्कार बहुत बुरे हैं। जब अच्छे संस्कार एक्टिव होते हैं तो वे प्रभाव डालते हैं। हमारे चित्त में अच्छी भावना आती है और हम राधा रानी का वियोग अनुभव करने लगते हैं। कृष्ण का वियोग अनुभव करने लगते हैं और कभी बुरा संस्कार एक्टिव हो गया, उसका प्रभाव आया तो इन सब चीजों को हम भूल जाते हैं। हमारे चित्त में यदि भक्ति की भावना आ रही है और इसमें स्थिरता नहीं है तो उसके पीछे एक कारण तो यह है कि हमारा अपना संस्कार है। कभी कभी दूसरे की भक्ति का प्रभाव हमारे चित्त पर आ जाता है। कभी देखा जाता है कि भक्त का स्तर बहुत निम्न है। वह नया नया भक्ति में आया है, वह भी विरह का अनुभव करने लगता है। वह भी कृष्ण के वियोग में रोने लगता है। कांपने लगता है। उसका चित्त भी शीतल हो जाता है। इस स्थिति में ऐसा जानना चाहिए कि संगति के प्रभाव से किसी दूसरे भक्त के भक्ति के स्तर का प्रतिबिंब पड़ रहा है या छाया पड़ रही है। देखिए! इस एक उदाहरण से आप इस बात को समझ सकते हैं कि कभी-कभी सूरज का प्रतिबिंब दीवार पर दिखने लगता है। आपने अनुभव किया ना, सूरज तो आकाश में है लेकिन प्रतिबिंब दीवार पर दिख जाता है। उसी तरह कोई कोई भक्त है जो निरंतर कृष्ण का वियोग अनुभव कर रहे हैं। उनका स्तर बहुत उन्नत है। लेकिन उसका प्रतिबिंब किसी भाग्यशाली जीव के हृदय में आ जाता है। यह प्रतिबिंब है यह छाया है। यह वास्तविक भाव नहीं है। जहां वास्तविक भाव भक्ति की चर्चा है, वहां उसका भेद किया गया है। एक तो वास्तविक भाव उदित होता और कभी कभी किसी भक्त के हृदय के भाव का प्रतिबिंब या छाया आ जाती है लेकिन जो भी हो। जब दूसरे भक्त की छाया आ रही हो या दूसरे भक्त का प्रतिबिंब आ रहा है। तो वह भी बहुत अच्छा है। कभी-कभी वह भी सच्चाई में बदल जाता है। अब यदि किसी एक विशेष व्यक्ति की बात है, आपको अपने चित्त की स्थिति जाननी है। तो आपको अपने पीछे का रिकॉर्ड देखना चाहिए कि किस परिस्थिति में यह सुखद भावना में यह विरह की भावना आती है, (यह भी बहुत सुखद बात है ऊपर से देखने में यह बहुत दुखद है लेकिन वास्तविक रूप से यह भी बहुत सुखद है।) यह देखना है कि किस परिस्थिति में वह भावना आ रही है। तो उसी परिस्थिति को जुटाने का प्रयास करना चाहिए। उसी परिस्थिति में अपने को रखने का प्रयास करना चाहिए। यदि किसी दूसरे के हृदय का प्रतिबिंब आ रहा है तो राधा रानी से प्रार्थना करना चाहिए तो इसी स्थिति को सदा सर्वदा के लिए कायम रखें। कभी-कभी व्यक्ति अपने से कुछ करने में असक्षम है तो दूसरे का सहायता लेना पड़ता है। कुरुक्षेत्र में जब गोपियां कृष्ण से मिली। कृष्ण का दर्शन पाकर उन्हें आनंद हुआ, उन्होंने अपने हृदय में आँखों से रह करके अपने हृदय में गाढ़ा आलिंगन किया। बहुत सुख अनुभव किया। कृष्ण से बातचीत करके बहुत सुख का अनुभव किया लेकिन गोपियां कह रही हैं यहां तो हमने सुख अनुभव किया लेकिन अभी तो हमें घर गृहस्थी में जाना होगा तो कृष्ण से प्रार्थना करने लगी *आहुश्च ते नलिननाभ पदारविन्दं योगेश्वरैर्हदि विचिन्त्यमगाधबोधैः । संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बं गेहं जुषामपि मनस्युदियात्सदा नः ॥* ( श्रीमद भागवतम 10.82.48) अनुवाद:- गोपियाँ इस प्रकार बोलीं : हे कमलनाभ प्रभु , आपके चरणकमल उन लोगों के लिए एकमात्र शरण हैं जो भौतिक संसाररूपी गहरे कुएँ में गिर गये हैं । आपके चरणों की पूजा तथा ध्यान बड़े बड़े योगी तथा प्रकाण्ड दार्शनिक करते हैं । हमारी यही इच्छा है कि ये चरणकमल हमारे हृदयों के भीतर उदित हों , यद्यपि हम सभी गृहस्थकार्यों में व्यस्त रहने वाली सामान्य प्राणी मात्र हैं । गोपियां कह रही है कि हे पद्मनाभ! आपके चरण कमल का चिंतन, बड़े-बड़े योगी लोग हृदय में करते हैं। जिनका ज्ञान अगाध है, वे जिन चरण कमल का चिंतन अपने हृदय में करते हैं। जो व्यक्ति संसार कूप में गिर गया है। घर गृहस्थी में पड़ गया है, जन्म मृत्यु में पड़ गया है। इससे बाहर निकलने का एकमात्र अवलंबन..., बिना किसी अवलंबन से हम बाहर नहीं निकल सकते। देखिए, जिन लोगों ने कुआँ देखा होगा। उसमें किसी व्यक्ति को पड़ा हुआ देखा होगा, वे लोग समझ सकते हैं कि कुएं में एक बार व्यक्ति गिर गया तो बिना सहारे के नहीं निकल सकता। कोई ना कोई सहारा चाहिए। चाहे रस्सी का सहारा हो, बांस का सहारा हो, सीढ़ी का सहारा हो। कुएं में गिर गया तो बिना सपोर्ट के अपने आप नहीं निकल सकता। कुएं से निकलने के लिए कई एक विकल्प हैं। लेकिन जो संसार रूपी कुएं में गिरा है। उसमें निकलने का एक ही विकल्प है। भगवान के चरण कमल। कह रहे हैं *संसारकूपपतितोत्तरणावलम्बं* अर्थात जो संसार कूप में गिर गए हैं तो उससे निकलने का एकमात्र अवलंबन *गेहं जुषामपि मनस्युदियात्सदा नः।* गोपियाँ कह रही हैं, यहां तो हम प्रकट दर्शन कर रहे हैं। बहुत सुख मिला लेकिन जब हम अपने घर गृहस्थी में जाएंगी। यही प्रार्थना है कि आपके चरण कमल उस समय भी हमारे हृदय में उदित हो। भगवान से प्रार्थना करने से भगवान् हृदय में भी अपने चरण कमल को प्रकाशित कर देते हैं। जो सुखद स्थिति है, यहां कृष्ण के विरह का अनुभव हो रहा है तो भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए, गुरु से प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारे चित्त की यही स्थिति बनी रहे। कल भी एक माताजी ने प्रश्न किया था कभी हम लोगों का संकल्प फेल हो जाता है, विफल हो जाता है। कभी तो भक्ति में जग पाते हैं, कभी नहीं जग पाती हूँ। कोई ना कोई बाधा आ जाती है। तीन व्यक्ति का स्मरण करने से हमारा बाधा समाप्त होती है। गुरु का स्मरण, वैष्णव का स्मरण, भगवान का स्मरण। जब इन तीनों का स्मरण करने से कोई कार्य प्रारंभ करते हैं तो कार्य की बाधा समाप्त हो जाती है। भक्तों को भी, साधना में गुरु, वैष्णव, भगवान का स्मरण करके लगना चाहिए।इससे साधना की बाधा समाप्त हो जाती है, साधना में बाधा नहीं आती या कम हो जाएगी। जो साधना कर रहे हैं गुरु, वैष्णव और भगवान का अवलंबन रखना चाहिए। उनका स्मरण करना चाहिए। यदि उनका स्मरण रखेंगे तो हमारी साधना की बाधा समाप्त हो जाएगी। जो हमारे हृदय के अवरोधक तत्व हैं वह हृदय से निकल जाएंगे। हरे कृष्ण!!!

English

Russian