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हरे कृष्ण! जप चर्चा, पंढरपुर धाम से, 18 फरवरी 2021 वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ। नाना-शास्त्र-विचारणैक-निपुणौ सद्-धर्म संस्थापकौ* लोकानां हित-कारिणौ त्रि-भुवने मान्यौ शरण्याकरौ राधा-कृष्ण-पदारविंद-भजनानंदेन मत्तालिकौ वंदे रूप-सनातनौ रघु-युगौ श्री-जीव-गोपालकौ।।२।। श्री श्री षड् गोस्वामी अष्टक अनुवाद:- मै, श्रीरुप सनातन आदि उन छः गोस्वामियो की वंदना करता हूँ की, जो अनेक शास्त्रो के गूढ तात्पर्य विचार करने मे परमनिपुण थे, भक्तीरुप परंधर्म के संस्थापक थे, जनमात्र के परम हितैषी थे, तीनो लोकों में माननीय थे, श्रृंगारवत्सल थे,एवं श्रीराधाकृष्ण के पदारविंद के भजनरुप आनंद से मतमधूप के समान थे। हरि हरि! 'साधु-सङ्ग', 'साधु-सङ्ग'- सर्व-शास्त्रे कय। लव-मात्र ' साधु-सङ्गे सर्व-सिद्धि हय।। श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.54 अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है। षड्गोस्वामी वृंदो का संस्मरण कर रहे थें,कल किया और आज भी करूंगा ऐसा आपके साथ कुछ वादा भी किया। हरि हरि! जब हम किसी भी संत,महात्मा या साधु के चरित्र का संस्मरण करते है, याद करते है,पढ़ते है, स्मरण करते हैं हमें उनका संग प्राप्त होता हैं। साधु संग प्राप्त होता हैं। येषां संस्मरण मात्रेन याद है आपको! राजा परीक्षित महाराज ने कहा था शुकदेव गोस्वामी वहां उपस्थित थे या अभी-अभी पधार चुके हैं तब राजा परीक्षित ने कहा येषां संस्मरणात्पुंसां सद्यः शुध्दयन्ति वै गृहा:। किं पुनर्दर्शनस्पर्शपादशौचासनादिभि:।। श्रीमद्भागवतम् 1.19.33 अनुवाद: -आप के स्मरण मात्र से हमारे घर तुरंत पवित्र हो जाते हैं तो आपको देखने, स्पर्श करने, आपके पवित्र चरणों को धोने तथा अपने घर में आपको आसन प्रदान करने के विषय में तो कहना ही क्या? वही बात है जब हम षड्गोस्वामी वृंदों का संस्मरण करते है तब हमें उनके संग का लाभ होता है, और फिर ऐसे संघ से 'साधु-सङ्ग', 'साधु-सङ्ग'- सर्व-शास्त्रे कय। लव-मात्र ' साधु-सङ्गे सर्व-सिद्धि हय।। हम अपनी साधना में सिद्ध होंगे। यह बात ठीक है सुन रहे हो।इंटरनेट कि समस्या चल रही हैं। यह जो षड् गोस्वामी वृंद है,यह षड् गोस्वामी वृंद एक विशेष टीम हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु के दल, मंडल अलग-अलग स्थानों में कार्यरत थें। मायापुर में, जगन्नाथ पुरी में, वृंदावन में यह तीन मुख्य स्थान है यह बेस हैं। वृंदावन के विस्तार के लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु इन गोसवामी यों को नियुक्त किए। सद्-धर्म संस्थापकौ ताकि वृंदावन में धर्म कि स्थापना हो! वृंदावन में वृंदावन के गौरव की पुन:स्थापना हो! इसके लिए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा मंदिरों का निर्माण करो!,अलग-अलग विग्रहों की आराधना करो! और ग्रंथों की रचना करो!और ब्रज में निवास करो!हरि हरि! उन्होंने निवास किया और मूल:तहा तो यह सभी वृंदावन के ही निवासी रहे। गोलोक के निवासी, भगवान के नीत्य परिकर, पार्षद, कुछ गोपिया तो कुछ मंझरिया ही वे थे।अब भगवान कि प्रगट लीला में और भगवान प्रकट हुए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में इस प्रगट लीला में प्रकटीत हुए हैं, अवतरित हुए हैं। यह षड्गोस्वामी वृंद भी। वैसे प्रगट तो वे अन्य किसी स्थान पर हुए थे या जन्म हुआ। रूप सनातन रामकेली मैं रहे। रामकेली जो बंगाल में हैं।नाम भी सुंदर है रामकेली।हरि हरि! रूप सनातन कि प्रथम मुलाकात वहां हुई और फिर पुनः श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु रूप गोस्वामी से..हरी हरी! प्रयागराज में मिले अश्वमेध घाट पर दस दिनों तक, श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपना सानिध्य रूप गोस्वामी को दिया। कई आदेश-उपदेश दिए।हरी हरी! और फिर पुनः रूप गोस्वामी को जगन्नाथपुरी में भी संग प्राप्त हुआ था चैतन्य महाप्रभु का। सनातन गोस्वामी जन्मे तो वैसे रूप सनातन दक्षिण भारत के कर्नाटक में। सनातन गोस्वामी को श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वाराणसी में दो महीने मिले,खूब वार्तालाप हुआ, संवाद हुआ,जैसे श्री कृष्ण-अर्जुन का संवाद हो रहा था कुरुक्षेत्र में, वैसे ही संवाद हुआ वाराणसी में। दो महीने अर्जुन के साथ तो श्री कृष्ण का संवाद कुछ 45 मिनट का ही हुआ, लेकिन यहां सनातन गोस्वामी के साथ दो महीने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वार्तालाप कर रहे थे और क्या संवाद हुआ? वह हम पढ़ सकते हैं कृष्ण-अर्जुन का संवाद हम भगवत गीता में पढ़ते हैं।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और सनातन गोस्वामी के मध्य का जो संवाद है वह हम चैतन्य चरितामृत के मध्य लीला के अंतिम अध्याय में पढ़ सकते हैं। सनातन गोस्वामी को जगन्नाथपुरी में भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपना अंग संग दिए। फिर उसी रामकेली के रहे जीव गोस्वामी किंतु जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु रामकेली गए थें। रूप सनातन से मिले रूप सनातन को दीक्षा दिए। उस समय जीव गोस्वामी छोटे थे, बालक थे, शिशु थे ऐसी भी समझ है तो कुछ मिलना-जुलना, संवाद हुआ ही नहीं जीव गोस्वामी के साथ।जीव गोस्वामी के साथ श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कभी भी नहीं मिले। जब बालक थे रामकेली में तभी भी नहीं मिले देखें होंगे किंतु उनका मिलना नहीं हुआ। जीव गोस्वामी नित्यानंद प्रभु से मिले थे मायापुर में। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से जीव गोस्वामी कभी नहीं मिले। यह जीव गोस्वामी रूप सनातन के ही भाताश्री अनुपम के पुत्र थें। ये तीन गोस्वामीयो कि बात है। कहां के थें और कहां पर वे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से मिलने कि बात हमने संक्षिप्त में कहीं; और फिर रघुनाथ दास गोस्वामी वह सप्तग्राम बंगाल के थें। यह भी नित्यानंद प्रभु से पहले मिले थें। श्री नित्यानंद प्रभु कि कृपा से ही वे संसार के बंधनों से मुक्त हो पाए और जगन्नाथ पुरी के लिए प्रस्थान किए।इन षड् गोस्वामी वृंदो में श्री रघुनाथ दास गोस्वामी ही अधिक समय बिताए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ जगन्नाथपुरी में और इन्होंने ही मैंने कल भी कहा इन्होंने कई ग्रंथ लिखे और कई सालों तक, बहुत समय तक रहे रघुनाथ दास गोस्वामी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ और जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने स्व धाम लौटे, संसार में नहीं रहे, प्रगट लीला का समापन हुआ तब रघुनाथ दास गोस्वामी वृंदावन के लिए प्रस्थान किए। फिर बात आती हैं। रघुनाथ भट्ट गोस्वामी! रघुनाथ भट्ट गोस्वामी वाराणसी के थें। बनारस वाराणसी का नाम हैं। अंग्रेज लोग वाराणसी को बनारस बनारस कहने लगे मुंबई को बांम्बे ऐसे कई सारे नाम है उन्होंने अपभ्रंश करते हुए उच्चारण किया करते थे नाम तो है वाराणसी जैसे नाम तो है गंगा औरअंग्रेज लोग कहने लगे गौगीज गौगीज नाम तो है गंगा। गंगा मैया कि जय...! गंगा मैया कहने के बजाय गौगीज। वाराणसी में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब पहुंचे वृंदावन को भेठ देकर, वृंदावन में निवास करके, ब्रजमंडल कि परिक्रमा करके चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी लौट रहे थे तो जैसे रूप गोस्वामी को प्रयागराज में मिले और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और आगे बढ़े वाराणसी में सनातन गोस्वामी के साथ मिलन हुआ। उन दिनों में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वाराणसी में चंद्रशेखर के घर में निवास करते थें और तपन मिश्र के घर में भिक्षा ग्रहण करते थे, प्रसाद ग्रहण करते थे, भोजन करते थें। यह तपन मिश्र जो बंगाल के थे और तपन मिश्र से मिले थे चैतन्य महाप्रभु बंगाल में ही जब चैतन्य महाप्रभु वैसे कह सकते हैं चैतन्य महाप्रभु वेस्ट (पश्चिम) बंगाल से इष्ट(पुर्व)बंगाल में गये थें, प्रचार के लिए। यह सन्यास लेने से पहले की बात है। जब चैतन्य महाप्रभु मायापुर वासी ही थे। विष्णु प्रिया के विवाह के उपरांत, चैतन्य महाप्रभु पूर्व बंगाल गए और तपन मिश्र से मिले। तब चैतन्य महाप्रभु ने तपन मिश्र को कहा वाराणसी, जाओ तपन मिश्रा वाराणसी पहुंचे थे ।फिर जब चैतन्य महाप्रभु वाराणसी पहुंचे, वे तपन मित्र के घर पर भोजन के लिए जाया करते थे ।तपन मिश्र के पुत्र रघुनाथ भट्ट गोस्वामी थे। उस समय वह बालक ही थे ।बाल अवस्था में ही उन्हें चैतन्य महाप्रभु की सेवा और संघ का अवसर मिला। भट्ट भी दो हैं ।रघुनाथ भट्ट और गोपाल भट्ट। रघुनाथ भी दो हैं ।रघुनाथ भट्ट और रघुनाथ दास ।जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में रह रहे थे तब रघुनाथ भट्ट गोस्वामी दो बार जगन्नाथ पुरी गए थे।चैतन्य महाप्रभु के संग के लिए, लीला दर्शन के लिए, उन्होंने चैतन्य महाप्रभु की लीला में प्रवेश कहो या योगदान भी ,जगन्नाथपुरी में दिया ।जब प्रथम बार वे गए तो चैतन्य महाप्रभु ने उनको वाराणसी लौटने को बोला और कहा कि जाओ अपने माता पिता की सेवा करो। तब रघुनाथ भट्ट वाराणसी लौटे थे। पर जब दोबारा गए तब वहां पर थोड़े ही समय रहे और फिर चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें वृंदावन भेज दिया। और वृंदावन के शट गोस्वामी में से एक बने ।रघुनाथ भट्ट गोस्वामी! तो यह संक्षिप्त में पांच गोस्वामियों का वर्णन है। या वे चैतन्य महाप्रभु से कहां मिले ? गोपाल भट्ट गोस्वामी श्रीरंगम के निवासी थे ।जहां रामानुजाचार्य या श्री संप्रदाय का व्यास पीठ है ।यह तमिलनाडु में है। गोपाल भट्ट गोस्वामी वेंकट भट्ट गोस्वामी के पुत्र थे। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जब सन्यास लिया तो जगन्नाथपुरी जाना ही पड़ा क्योंकि सचि माता का आदेश था। उनकी इच्छा थी। इसीलिए चैतन्य महाप्रभु वहां गए। वे वहां 2 महीने ही रहे और फिर दक्षिण भारत की यात्रा प्रारंभ की। यात्रा करते करते जब श्रीरंगम में पहुंचे तब चातुर्मास आया तो वह 4 महीने श्रीरंगम में वेंकट भट्ट के निवास पर रहने लगे उस समय वेंकट भट्ट के पुत्र गोपाल भट्ट छोटे बालक ही थे। जैसे वाराणसी में रघुनाथ भट्ट छोटे ही थे। चैतन्य महाप्रभु उनके घर में ही 4 महीने के लिए रहे ।श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां रहे और वहां प्रसाद भी खाते थे। गोपाल गोस्वामी को चैतन्य महाप्रभु का जूठन ,महा महा प्रसाद भी मिला और सेवा भी करने का अवसर प्राप्त हुआ ।अंग संग प्राप्त हुआ। गोपाल भट्ट गोस्वामी जब बड़े हुए तो श्रीरंगम छोड़ दिया और सीधा वृंदावन चले गए ।वृंदावन धाम की जय ! गोपाल भट्ट गोस्वामी के चाचा प्रभोदानंद सरस्वती ठाकुर जिनको पहले गोपाल गुरु कहते थे, वह भी वृंदावन पहुंचे। तो वेंकट भट्ट गोस्वामी के भ्राता श्री और पुत्र दोनों ने ही वृंदावन के लिए प्रस्थान किया। गोपाल भट्ट गोस्वामी ने कई सारे ग्रंथ लिखे। प्रबोध आनंद सरस्वती ठाकुर बोले श्लोक,चैतन्य चन्दरामृत 46 वंचितोस्मि, वंचितोस्मि, वंचितोस्मि न संशय विश्वं गौर रसे मग्नम स्पर्शोपि मम नाभावत वंचितोस्मि! मुझे ठगाया गया था ।जब मैं धर्म का अवलंबन कर रहा था, प्रचार प्रसार कर रहा था। यह एक तरह से ठगाई हुई। देखो देखो ! षड्ड गोस्वामी वृंद का भी यही विचार है। गौड़ीय वैष्णवों की भी यही विचारधारा है। कैटभ धर्म है अलग-अलग नामों से जो संसार में धर्म का प्रचार होता है उसमें कुछ कमी है, कुछ अभाव होता है। कृष्ण भावना का पूरा प्रभाव नहीं होता। प्रभोदानंद सरस्वती ठाकुर ने कहा जब मैं श्रीरंगम में था, तब मैं गौर रस से वंचित रहा। गौरंगा गौरंगा !हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे, का रस या माधुर्य रस कहो। चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.4 अनर्पित चरीम चिरातकरुणयावतीर्ण कलौ समरपायितुं उन्नत उज्ज्वल रसां स्व भक्ति श्रियं अनुवाद: श्रीमती शची देवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके ह्रदय की गहराई में दिव्य रूप से विराजमान हो ।पिघले सोने की आभा से दीप्त कलियुग में अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी सेवा के अत्यंत उत्कृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को जिसे इसके पूर्व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया प्रदान करने के लिए अवतीर्ण हुए है। रूप गोस्वामी ने भी कहा जो अर्पित नहीं किया था ,जो पहले बाटा नहीं था वह देने के लिए चैतन्य महाप्रभु महवादन्याय प्रकट हुए । उत्तम उन्नत उज्जवल रस प्रदान किया। इस माधुर्य रस का आस्वादन या वितरण करने हेतु चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए । गौड़ीय जगत गौर रस में गोते लगा रहा था । शिक्षाष्टकं, 1 चेतोदर्पणमार्जनं *भव-महादावाग्नि-निर्वापणम् श्रेयःकैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधू-जीवनम् । आनंदाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनम् सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण-संकीर्तनम् ॥१॥ अनुवाद: श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो जो हृदय में वर्षों से संचित मल का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूपी दावानल को शांत करने वाला है । यह संकीर्तन यज्ञ मानवता के लिए परम कल्याणकारी है क्योंकि चन्द्र-किरणों की तरह शीतलता प्रदान करता है। समस्त अप्राकृत विद्या रूपी वधु का यही जीवन है । यह आनंद के सागर की वृद्धि करने वाला है और नित्य अमृत का आस्वादन कराने वाला है ॥१॥ यह सब हो रहा था वंचितोस्मि! वंचितोस्मि! वंचितोस्मि ! इसमें कोई शक नहीं कि मैं पहले वंचित रहा। पहले मुझे ठगाया गया। उस गौर रस के सिंधु के बिंदु ने मुझे स्पर्श भी नहीं किया। षट गोस्वामी वृंद प्रकट हुए कोई बंगाल में ,कोई वाराणसी में ,कोई दक्षिण भारत में ।और फिर धीरे-धीरे चैतन्य महाप्रभु के आदेश प्राप्त करके वृंदावन गए ।महाप्रभु ने रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी को भी आदेश दिया ।वृन्दावन जाओ।गोपाल भट्ट गोस्वामी को, लोकनाथ गोस्वामी को भी बोला ,वृंदावन जाओ ।यह सन्यास से पहले था और भूगर्भ गोस्वामी भी थे ।ये दो लोग पहले-पहले वृंदावन पहुंचने वाले थे, लोकनाथ गोस्वामी और भूगर्भ गोस्वामी ।इनका षट गोसवामियों की सूची में नाम नहीं है, पर वह गोस्वामी ही हैं। नित्यानंद प्रभु ने जीव गोस्वामी को आदेश दिया। वृन्दावन जाओ !और धीरे-धीरे एक के बाद एक सब वृंदावन गए। चैतन्य महाप्रभु का मिशन वृंदावन में था और उसको उन्होंने सफल बनाया। हरि बोल।

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