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हरे कृष्ण जप चर्चा, पंढरपुर धाम से, 17 दिसंबर 2020

हरे कृष्ण...! आज 847 स्थानो से अभिभावक जपा टॉक में सम्मिलित है। आप सभी का स्वागत है। सब तैयार हो! सब ध्यान पूर्वक सुनो!वैसे जप को हम ध्यानपूर्वक सुनते हैं। या कथा को भी ।जपा टॉक में जप भी श्रवणम् है ,नाम का श्रवण है या हरि कथा का श्रवण है। कथा का श्रवण ध्यान पूर्वक होना चाहिए।

सूत उवाच यं ब्रह्मा वरुणेन्द्रुब्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै- बैदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैगायन्ति यं सामगाः । ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

(श्रीमद्भाववतम् स्कंध 12,अध्याय13, श्लोक 1)

अनुवाद: -सूत गोस्वामी ने कहा : बरहमा, वरुण, इन्द्र, रुद्र तथा मरुत्गण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों, पद-क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं, सिद्ध योगी अपने को समाधि में स्थिर करके और अपने को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता-ऐसे भगवान् को में सादर नमस्कार करता हूँ।

ध्यानावस्थितत द्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो ध्यान की अवस्था में...हरी हरी! श्रवण करते तो फिर ध्यान का समय होता है मतलब जब आप मुझे सुनते हो उसका ध्यान करना होता है,तुरंत इसका मनन,चिंतन,हृदयंगम करना उस बात को, विचारों को उसी समय (ऑन द स्पॉट) यह नहीं कि इन्हें तो पहले सुनेंगे बाद में सोचेंगे। आप क्या करते हो।सुनते हैं श्रवण करते हैं यह विषय वस्तु क्या है? वस मतलब रहना। जिसका अस्तित्व है, उसे वस्तु कहते हैं। वास्तविकता भी बन जाती हैं। हरि हरि! भगवान मूल वस्तु हैं। जब हम घर बनाते हैं उसको भी वास्तु कहते हैं। वास्तुशांती हम करते हैं।उस वास्तु में वास्तु पुरुष भी होता हैं। उस वास्तु को धारण करता हैं। हरि हरि!यह जो श्रवण हो रहा है।

श्रीप्रह्लाद उवाच श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥२३ ॥ इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥२४ ॥

(श्रीमद्भाववतम् स्कंध 7 ,अध्याय 5, श्लोक 23-24)

अनुवाद: -प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज - सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना , उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) -शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । स्मरणं कहो या ध्यान कहो और इसे समाधि भी कहते हैं। अष्टांग योग अंततोगत्वा समाधि ही हैं।

मैं सोच रहा हूंँ, आज आपको एक मधुर लीला सुनाऊँ। लीला संक्षिप्त भी है और मधुर भी है, और इस लीला का गीता के साथ संबंध हैं। हां..!गीता जयंती का समय है, या महीना है गीता के वितरण का समय हैं। गीता के मूड में रहना चाहते हैं। कृष्णभावनाभावित होना चाहते हैं। स्वागत है प्रयास कर रहे हैं।,ताकि हम अधूरा है, उसको पूरा करना हैं।

श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जी जब दक्षिण भारत कि यात्रा में जा रहे थे तो वे श्रीरंगम में पहुंचे। यात्रा जगन्नाथ पुरी से प्रारंभ हुई ओडिशा में बाद में आंध्र प्रदेश यात्रा के बाद तमिलनाडु कि तमिलनाडु में प्रवेश किए और तमिलनाडु में श्रीरंगम पहुंचे।यह रामानुज संप्रदाय का स्थान है, या गद्दी है, या रामानुजाचार्य वहा बहुत समय के लिए वहा रहे और श्री संप्रदाय कि स्थापना वहा कि उस श्रीरंगम में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब श्रीरंगम में थे वह चार महीने रहे वहां। चातुर्मास श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु में श्रीरंगम में बिताए। जब वे श्रीरंगम, भगवान का ही नाम है श्रीरंगम। उनके दर्शन के लिए जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जाते तो उस मंदिर में एक ब्राह्मण प्रतिदिन आया करता था और भगवत गीता का पाठ किया करता था। जैसे जिस भाव के साथ भक्ति के साथ वह गीता का पाठ करता था। उस ब्राह्मण के भक्तिपूर्ण पाठ करने से आकृष्ट हुए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु। भक्ति कैसी होती है? कृष्णाकर्षणी। कृष्ण को आकृष्ट करती है भक्ति।इस ब्राह्मण कि भक्ति में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को आकृष्ट किया। हरी हरी!यह उस ब्राह्मण की कथा है,और इस ब्राह्मण के साथ श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का संवाद भी हैं। उस संवाद के अंतर्गत यह ब्राह्मण अपने साक्षात्कार,अपने अनुभव सुनाने वाले हैं। इसे परसों मै सुना रहा था। भगवत गीता संजय ने भी सुनी।

तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे:। विस्मयो मे महान्राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः।। (श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 18, श्लोक 77)

अनुवाद: -हे राजन्! भगवान् कृष्ण के अद्भुत रूप का स्मरण करते ही मैं अधिकाधिक आश्चर्यचकित होता हूँ और पुनःपुनः हर्षित होता हूँ |

भगवत गीता के अंत में जो संजय का अनुभव रहा भगवत गीता के श्रवण के उपरांत, संजय ने भी अपना अनुभव कहां हैं। वैसे ही यह ब्राह्मण अपने अनुभव सुना रहा हैं।साक्षात भगवान श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को, यह चैतन्य चरित्र्मृत में मध्य लीला के नवम अध्याय में श्लोक संख्या 93 से ये कथा प्रारंभ होती है,जो बंगला भाषा में हैं। इसके पहले भी मैं यह सुनाया हुँ। शायद आप सभी उन दिनों में नहीं रहा करते थे, इसलिए यह हो सकता है पहली बार आप सुनोगे इसीलिए, या हर बार सुनते हैं। नवम-नवम नये नये रसों का हम अनुभव करते हैं। पुनः पुनः पढ़ना चाहिए। पुन: पुन:श्रवण करना चाहिए। यह नहीं कि पढ़ लिया, हो गया! पहले सुना था! हरि हरि!

सेइ क्षेत्रे रहे एक वैष्णव-ब्राह्मण। देवालये आसि' करे गीता आवर्तन।।

(श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला, अध्याय 9,श्लोक 93)

अनुवाद: -श्री रंगक्षेत्र में एक ब्राह्मण वैष्णव नित्य मंदिर में दर्शन करने आता था, और समुची भगवद्गीता का पाठ करता था।

श्रीरंगम क्षेत्र में रहते थे एक ब्राह्मण लेकिन वह ब्राह्मण कैसे थें?वैष्णव ब्राह्मण! यह ध्यान में रखने जैसी बात हैं। स्मार्त ब्राह्मण भी होते हैं कई प्रकार के ब्राह्मण होते हैं। सनौडिया ब्राह्मण मथुरा में है, लेकिन चैतन्य महाप्रभु जिससे मिले थे यह ब्राह्मण थे वैष्णव ब्राह्मण। हरि हरि! केवल ब्राह्मण बनना ही पर्याप्त नहीं हैं। ब्राह्मण को वैष्णव बनना चाहिए। यह पूर्णतः हैं। वैसे ब्राह्मण एक उपाधि हैं। और कुछ भी कह रहा हुँ। लीला कथा कब कहेंगे? श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा

नाहं विप्रो न च नर-पतिर्नापि वैश्यो न शुद्रो नाहे वर्णी न च गृह-पति्नो वनस्थो यतिर्वा। किन्तु *प्रोद्यन्निखिल-परमानन्द-पूर्नामृताब्धेर् गोपी-भर्तुः पद-कमलयोर्दास-दासानुदासः ॥

(श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला, अध्याय 13,श्लोक 80)

अनुवाद:-मैं न तो ब्राह्मण हूँ, न क्षत्रिय, न वैश्य, न ही शुद्र हैं। न ही मैं ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ या संन्यासी हूँ। मैं तो गोपियों के भर्ता भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमलों के दास के दास का भी दास हूँ। वे अमृत के सागर के तुल्य हैं और विध्व के दिव्य आनन्द के कारणस्वरूप हैं। वे सदैव तेजोमय रहते हैं।"

मैं ब्राह्मण नहीं हूंँ और या मैं ब्रह्मचारी भी नहीं हूंँ लेकिन उन्होने ये कभी नहीं कहा, या ना कहेंगे कि मैं वैष्णव नहीं हूंँ। वैकुंठ में वैष्णव होते हैं। वैष्णव ये उपाधि नहीं हैं।

सर्वोपाधि-विनिमुक्त त्परत्वेन निर्मलम्। हपीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिरुच्यते।।

(श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला, अध्याय 19,श्लोक 170)

अनुवाद: -भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इन्द्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान् की सेवा करता है, तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् की सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं।

भक्ति का जो स्तर हैं। वह स्तर है, सर्वोपाधि-विनिमुक्त त्परत्वेन निर्मलम्। सारी उपाधियों से जब मुक्त होते है,तब भी एक उपाधि बच जाती है और वह होती है वैष्णव उपाधि।दूसरे शब्दों में ब्राह्मण उपाधि प्राकृतिक हैं। इस संसार कि हैं। जो सत्व गुण में है,वह ब्राह्मण लेकिन बनना तो है गुनातीत। जब साधक गुनातीत बन जाता है, तब वह वैष्णव कहलाता है,वैष्णव होता हैं। तब वह वैकुंठ में प्रवेश करने के योग्य होता हैं। पात्र बनता हैं।आप समझिए ब्राह्मण और वैष्णव में जो अंतर हैं। नाहं विप्रोकहा नाहं वैष्णो ऐसे कभी नहीं कहा जा सकता।यह ब्राह्मण थे वैष्णव ब्राह्मण।वैष्णव ब्राह्मणों से ऊंचा होता हैं। देवालये आसि' करे गीता आवर्तन।। वे प्रतिदिन मंदिर में आकर देवालय मतलब देव का आलय हैं। देव का निवास स्थान श्रीरंगम मंदिर में आकर भगवत गीता का पाठ किया करते थें।

अष्टादशाध्याय पड़े आनन्द-आवेशे । अशुद्ध पढ़ेन, लोक करे उपहासे ॥ (श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला, अध्याय 9,श्लोक 94)

अनुवाद: -वह ब्राह्मण अत्यन्त भावावेश में भगवद्गीता के अठारहों अध्याय का पाठ करता था। किन्तु वह शुद्ध उच्चारण नहीं कर सकता था, इसलिए लोग उसका मजाक उड़ाते थे।

पुरे अष्टादश पाठ वाले भगवत गीता का अध्ययन करते थें कैसे? आवेशे हर शब्द महत्वपूर्ण हैं। आवेश में आकर, भक्ति के आवेश में, काम का आवेश, क्रोध का आवेश।

श्री भगवानुवाच काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः | महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् || (श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 3,श्लोक37)

अनुवाद: -श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है |

काम वश, क्रोध वश, काम के वशीभूत होकर हम केई सारे कृत्य करते है, या क्रोध के वशीभूत होकर,या लोभवश कृत्य करते हैं। हस लोभवश मात्सर्य वश ऐसे शब्दों का प्रयोग होता हैं। मात्सर्य के प्रभाव में कई सारे कृत्य हम करते हैं। मनसा वाचा करते हैं लेकिन यहां कहा गया है आवेश कैसा? भक्ति का आवेश। भक्ति के आवेश में वे भगवत गीता का अध्ययन करते हैं।

अशुद्ध पढ़ेन, लोक करे उपहासे ॥ वे ब्राह्मण उनका उच्चारण ठीक प्रकार का नहीं था वे पांडित्य नहीं जानते थें। कुछ टूटा फूटा ही उच्चारण होता था, लेकिन भावपूर्ण भक्ति के आवेश में...हरि हरि!

अशुद्ध उच्चारण सुनकर लोग यह श्रीरंगम है, दक्षिण भारत है, ब्राह्मण सही उच्चारण करने वाली एक पध्दति है, एक शास्त्र है।शास्त्र के परायण करने में ब्राह्मण की कोई कमी नहीं है दक्षिण भारत में और श्रीरंगम में भी। वे जब सुनते इस ब्राह्मण को टूटा फूटा तो वह उसका मजाक उड़ाते उसका उपहास करते हैं।

भावग्राही जनार्दन जनार्दन भगवान तो भागग्राही हैं। भाव ग्रहण करते है और तो बढ़िया है सही है तो स्वागत है लेकिन उच्चारण से अधिक महत्वपूर्ण भाव, प्रेम। भावग्राही जनार्दन! जनार्दन तो भाव को ग्रहण करते हैं।

केह हासे, केह निन्दे, ताहा नाहि माने। आविष्ट हुआ गीता पड़े आनन्दित-मने ॥

(श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला, अध्याय 9,श्लोक 95)

अनुवाद:-अशुद्ध उच्चारण करने से लोग कभी उसकी आलोचना करते और उस पर हँसते थे; किन्तु बह उनकी कोई परवाह नहीं करता था। वह भगवद्गीता का पाठ करने के कारण भावाविष्ट रहता था और मन-ही-मन अत्यन्त सुखी था।तो वे वैष्णव ब्राह्मण भक्ति के आवेश में आनंद ,हर्ष उल्लास के साथ गीता का पाठ जारी रख रहे थे।

चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 9.96

पुलकाश्रु,कम्प, स्वेद, यावत्पठन। देखि" आनन्दित हैल महाप्रभुर मन॥ 96॥

अनुवाद भगवद्गीता पढ़ते समय ब्राह्मण को दिव्य शारीरिक विकारों का अनुभव होता था। उसके रोंगटे खड़े हो जाते थे, उसकी आँखों से आँसू आते रहते थे, उसका शरीर काँपने लगता था और वह पसीना-पसीना हो जाता था। यह देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त आनन्दित होते थे।

श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु दूर से देख रहे थे। वह वैष्णव ब्राह्मण भगवद गीता का पाठ करते हुए रोमांच का अनुभव कर रहा था। उनके रोंगटे खड़े हो रहे थे। और वह कभी स्तंभित हो रहे थे। (स्तंभ यानी खंबा) यह भक्ति के अष्ट विकारों में से एक है। स्तंभित होना यानी ना हिल रहे थे ना डुल रहे थे।

उनके उनके नेत्रों से अश्रु बह रहे थे। चैतन्य महाप्रभु कई दिनों से दूर से ही देख रहे थे, परंतु आज वे कुछ और ही करेंगे ।चैतन्य महाप्रभु का मन उस वैष्णव ब्राह्मण को गीता का पाठ करते हुए देख आनंदित हुआ।

चैतन्य चरितामृत मध्य लीला*9.97

महाप्रभु पुछिल तारे, शुन, महाशय। कोनर्थ जानि तोमार एत सुख हय ॥ 97॥

अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस ब्राह्मण से पूछा, "हे महोदय, आप ऐसे भावावेश में क्यों हैं? आपको भगवद्गीता के किस अंश से ऐसा दिव्य सुख प्राप्त होता है?"

आज चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े हैं और उसके समक्ष पहुंचकर उससे पहुंच पूछते हैं की है महाशय जब तुम गीता का पाठ करते हो तो तुम्हें कौन सा भाव समझ आता है, जिसके परिणाम यह भक्ति के अष्ट विकार प्रदर्शित होते हैं? कौन से गोपनीय भाव तुम्हें समझ आते हैं जिससे तुम में भक्ति के भाव उत्पन्न हो रहे हैं। मैं बहुत कुछ सीख रहा हूं तुमसे ।तुम्हारी भक्ति को मैं पढ़ रहा हूं। तुम बताओ तुम क्या समझते हो?

चैतन्य चरितामृत मध्य लीला*9.98

विप्र कहे, मुर्ख आमि, शब्दार्थ ना जानि। शुद्धाशुद्ध गीता पड़ि, गुरु-आज्ञा मानि ॥98॥

अनुवाद उस ब्राह्मण ने उत्तर दिया, "मैं मूर्ख हैं, अतएव मैं शब्दों का अर्थ नहीं जानता। मैं कभी भगवद्गीता का शुद्ध पाठ करता हूँ, कभी अशुद्ध, किन्तु ऐसा करके मैं अपने गुरु के आदेश का पालन कर रहा हूँ।"

मैं तो मूर्ख हूं शब्दार्थ ,भी नहीं समझता व्याकरण भी नहीं समझता ,मैंने तो उच्चारण भी नहीं सीखा ,बस मेरे गुरु जी ने कहा है गीता का पाठ करो। जिस प्रकार श्रील प्रभुपाद ने हम सभी को कहा कि मेरी पुस्तकें पढ़ो, गीता पढ़ो ,शास्त्र पढ़ो ।बस मैं गुरु के आदेश का पालन कर रहा हूं ।मालूम नहीं कि उच्चारण शुद्ध है कि अशुद्ध होता है पर मैं पढ़ता जाता हूं ,क्योंकि गुरु का आदेश है।

चैतन्य चरितामृत मध्य लीला*9.99

अर्जुनेर रथे कृष्ण हय रज्जु-धर। वसियाछे हाते तोत्र श्यामल सुन्दर ॥99॥

अनुवाद वह ब्राह्मण कहता गया, "वास्तव में मैं भगवान् कृष्ण के उस चित्र को ही देखता हूँ, जिसमें वे अर्जुन के सारथी के रूप में रथ पर बैठे हैं। वे अपने हाथों में लगाम थामे हुए अत्यन्त सुन्दर तथा साँवले लगते हैं।"

ब्राह्मण कह रहे हैं ,मुझे दिखाई देता है, दर्शन होता है। मैं कुरुक्षेत्र पहुंच जाता हूं ,या कुरुक्षेत्र यहां श्रीरंगम पहुंच जाता है ।मैं प्रत्यक्ष अर्जुन और श्री कृष्ण को रथ में विराजमान देखता हूं। रज्जूधर कृष्ण एक हाथ में रज्जू (रस्सी) और दूसरे हाथ में चाबुक । जो रज्जूधर श्रीकृष्ण है उनकी श्याम वर्ण मूर्ति है। श्यामल, सुंदर, पार्थसारथी को मैं देखता हूं और यहां तो नहीं कह रहे पर ब्राह्मण कह सकते थे

भगवद्गीता 1.14 “ततः श्र्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ | माधवः पाण्डवश्र्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः || १४ ||”

अनुवाद दूसरी ओर से श्र्वेत घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले विशाल रथ पर आसीन कृष्ण तथा अर्जुन ने अपने-अपने दिव्य शंख बजाये |

माधव और पांडव महान और अद्भुत रथ पर स्थित है। पार्थसारथी यानी माधव और पार्थ है पांडव ।दोनों को शंख ध्वनि करते हुए मैं देख रहा हूं। अर्जुन प्रश्न कर रहे हैं और श्री कृष्ण प्रश्न के उत्तर दे रहे हैं ।जब भी मैं भगवत गीता का पाठ करता हूं,यह दृश्य देखता हूँ।

चैतन्य चरितामृत मध्य लीला*9.100

अर्जुनेरे कहितेछेन हित-उपदेश। तारै देखि" हय मोर आनन्द-आवेश ॥100॥

अनुवाद जब मैं रथ में बैठे और अर्जुन को उपदेश देते हुए भगवान् कृष्ण के चित्र को देखता हूँ, तो मैं भावमय आनन्द से पूरित हो उठता हैं।" अर्जुन प्रश्न पूछ रहे हैं

भगवद्गीता 3.36 “अर्जुन उवाच अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः | अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः || ३६ ||”

अनुवाद अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो

भगवद्गीता 3.37 “श्री भगवानुवाच काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः | महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् || ३७ ||”

अनुवाद श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है |

श्री कृष्ण और अर्जुन का संवाद हो रहा है तो जब मैं गीता का पाठ करता हूं तो मैं कुरुक्षेत्र पहुंच जाता हूं या कुरुक्षेत्र श्रीरंगम पहुंच जाता है जब अर्जुन और कृष्ण का संवाद हो रहा है तो मानो मैं सुन रहा हूं और अर्जुन के स्थान पर मैं ही हूं संभ्रम इतने और श्री कृष्णा मेरे ही प्रश्नों के उत्तर दे रहे हैं इससे मैं अत्यंत हर्षित हो जाता हूं

चैतन्य चरितामृत मध्य लीला *9.101

यावत्पड़ों, तावत्पाङ ताँर दरशन। एड लागि' गीता-पाठ ना छाड़े मोर मन ॥101॥

अनुवाद जब तक मैं गीता पढ़ता हूँ, तब तक मैं भगवान् के सुन्दर स्वरूप का ही दर्शन करता हूँ। इसी कारण से मैं भगवद्गीता पढ़ता हूँ और मेरा मन उससे विचलित नहीं होता।"

जब तक मैं भी गीता पढ़ता रहता हूं तो यह दर्शन मेरे समक्ष रहता है

चैतन्य चरितामृत मध्य लीला*9.102

प्रभु कहे, गीता-पाठे तोमाराइ अधिकार। तुमि से जानह एड गीतार अर्थ-सार ॥102॥

अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने ब्राह्मण से कहा, "निस्सन्देह, भगवद्गीता पढ़ने के तुम्हीं अधिकारी हो। तुम जो कुछ जानते हो, बही भगवद्रीता का वास्तविक तात्पर्य है।"

ब्राह्मण ने कहा ऐसा लगता है कि यह गीता का पाठ में करता ही रहूं क्योंकि जब तक मैं गीता का पाठ करता हूं तब तक यह साक्षात्कार ,यह अनुभव और इन रहस्यों का उद्घाटन होता ही रहता है। जब चैतन्य महाप्रभु ने यह बात सुनी तो चैतन्य महाप्रभु ने कहा

चैतन्य चरितामृत मध्य लीला *9.102

प्रभु कहे, गीता-पाठे तोमाराइ अधिकार। तुमि से जानह एड गीतार अर्थ-सार ॥102॥

अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने ब्राह्मण से कहा, "निस्सन्देह, भगवद्गीता पढ़ने के तुम्हीं अधिकारी हो। तुम जो कुछ जानते हो, बही भगवद्रीता का वास्तविक तात्पर्य है।"

चैतन्य महाप्रभु ने कहा यदि भगवत गीता पढ़ने का कोई अधिकारी है तो वह तुम ही हो ।ब्राह्मण ने तो कहा था 'आमी मूर्ख' मैं तो मूर्ख हूं परंतु चैतन्य महाप्रभु ने उनको ही भगवत गीता पढ़ने का अधिकारी घोषित किया। और यह भी कहा कि जो तुम समझ रहे हो वही सार है।

चैतन्य चरितामृत मध्य लीला*9.103

एत बलि" सेइ विप्रे कैल आलिङ्गन। प्रभु-पद धरि' विप्र करेन रोदन ॥ 103 ॥

अनुवाद यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस ब्राह्मण का आलिंगन किया, और बह ब्राह्मण महाप्रभु के चरणकमलों को पकड़कर रोने लगा।

यह कहकर चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े और ब्राह्मण को आलिंगन देने लगे ।ब्राह्मण ने यह सोचा कि वह इस योग्य नहीं है तो वह चैतन्य महाप्रभु के चरणों की ओर स्पर्श करने के लिए झुक रहा था।

चैतन्य चरितामृत मध्य लीला9.104

तोमा देखि" ताहा हैते द्वि-गुण सुख हय। सेइ कृष्ण तुमि, हेन मोर मने लय ।।104॥

अनुवाद उस ब्राह्मण ने कहा, "आपको देखकर मेरा सुख दुगना हो गया है। मैं तो समझता हूँ कि आप ही वे भगवान् कृष्ण हैं।"

वैष्णव ब्राह्मण कह रहे हैं जब मैं गीता का पाठ करता था तो मैं आनंद का अनुभव करता ही था, पर आज मेरा आनंद दुगना हो गया है क्यों क्योंकि भगवत गीता का उपदेश सुनाने वाले पार्थसारथी आप ही हो। वैष्णव ब्राह्मण को ऐसा साक्षात्कार हुआ। चैतन्य महाप्रभु इस बात को सुनकर हर्षित हुए ही होंगे किंतु साथ ही साथ उन्हें उन्होंने वैष्णव ब्राह्मण को सावधान किया कि तुमने जो भी कहा यह बात किसी को नहीं कहना । चैतन्य महाप्रभु इस बात को गोपनीय रखना चाहते थे ।अपनी भगवत्ता का प्रदर्शन नहीं करना चाहते थे। वह भक्त रूप में ही रहना चाहते थे ।उसके पश्चात वैष्णव ब्राह्मण चार महीनों तक चैतन्य महाप्रभु के साथ श्रीरंगम में ही परछाई के जैसे रहे।उनको महाप्रभु का अंग संग भी मिला। चैतन्य महाप्रभु ने उस वैष्णव ब्राह्मण को अपना परिकर बनाया। जब तक महाप्रभु श्रीरंगम में थे वह वैष्णव ब्राह्मण उन्हीं के साथ रहा उनका संग कभी नहीं छोड़ा। हरे कृष्ण

English

17 December 2020

Mood of service supersedes expertise

Hare Krishna! We have devotees from 847 locations chanting with us. Listen carefully. We should hear our chanting attentively. Whether it's listening or hearing Harinama or Katha, one should hear attentively.

dhyānāvasthita-tad-gatena manasā paśyanti yaṁ yogino yasyāntaṁ na viduḥ surāsura-gaṇā devāya tasmai namaḥ

Translation: Sūta Gosvāmī said: Unto that personality whom Brahmā, Varuṇa, Indra, Rudra and the Maruts praise by chanting transcendental hymns and reciting the Vedas with all their corollaries, pada-kramas and Upaniṣads, to whom the chanters of the Sāma Veda always sing, whom the perfected yogīs see within their minds after fixing themselves in trance and absorbing themselves within Him, and whose limit can never be found by any demigod or demon — unto that Supreme Personality of Godhead I offer my humble obeisances. (SB 12.13.1)

Whatever we hear, we should meditate on it, contemplate on it, make it hrdayastha.

śrī-prahrāda uvāca śravaṇaṁ kīrtanaṁ viṣṇoḥ smaraṇaṁ pāda-sevanam arcanaṁ vandanaṁ dāsyaṁ sakhyam ātma-nivedanam

Translation: Prahlāda Mahārāja said: Hearing and chanting about the transcendental holy name, form, qualities, paraphernalia and pastimes of Lord Viṣṇu, remembering them, serving the lotus feet of the Lord, offering the Lord respectful worship with sixteen types of paraphernalia, offering prayers to the Lord, becoming His servant, considering the Lord one’s best friend, and surrendering everything unto Him (in other words, serving Him with the body, mind and words) — these nine processes are accepted as pure devotional service. (SB 7.5.24)

Today I'll narrate a sweet story. It is related to Bhagavad Gita as this month is dedicated to Bhagavad Gita distribution.

Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu was touring South India. He reached the holy place of Sri Rangam, having started from Jagannatha Puri via Andhra Pradesh. Sri Rangam in Tamil Nadu, is a place dedicated to Sri Ramanuja Sampradaya. He spent caturmasa there. He would go daily to take darshan in the temple. There He would find an old brahmana reading Bhagavad Gita. Seeing his devotion and sincerity Caitanya Mahaprabhu was attracted to the brahmana's reading of Bhagavad Gita. One of the qualities of devotional service is that it attracts the attention of the Lord, krsnakarsini. From this story it is clearly defined how sincere devotion attracts the Lord. There was a beautiful conversation between the brahmana and Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu and in that conversation the brahmana shared his own experience and realisations.

A few days back I was saying that Bhagavad Gita has a different impact on each individual. Sanjaya gives his experience at the end of Bhagavad Gita,

tac ca saṁsmṛtya saṁsmṛtya rūpam aty-adbhutaṁ hareḥ vismayo me mahān rājan hṛṣyāmi ca punaḥ punaḥ

Translation: O King, as I remember the wonderful form of Lord Kṛṣṇa, I am struck with wonder more and more, and I rejoice again and again. (BG 18.77)

Similarly the old Brahmana shared his realisations as described in the Bengali Caitanya-caritamrta. I'll be discussing the pastime here for all of you. I may have narrated the pastime before, but many of you may have not been present then. We get to relish new (navam rasa) sweet mellows every time we hear Krsna's pastime. We must repeatedly hear and read the pastimes of the Lord.

sei kṣetre rahe eka vaiṣṇava-brāhmaṇa devālaye āsi’ kare gītā āvartana

Translation: In the holy place of Śrī Raṅga-kṣetra, a brāhmaṇa Vaiṣṇava used to visit the temple daily and recite the entire text of the Bhagavad-gītā. (CC Madhya 9.93)

We should note, this brahmana is a Vaisnava and not any ordinary brahmana like smrata or sanodiya. Just having a Brahmana title is not an accomplishment, everyone must become a Vaiṣṇava-brāhmaṇa. This is complete and perfect. As Caitanya Mahaprabhu says,

nāhaṁ vipro na ca nara-patir nāpi vaiśyo na śūdro nāhaṁ varṇī na ca gṛha-patir no vanastho yatir vā kintu prodyan-nikhila-paramānanda-pūrnāmṛtābdher gopī-bhartuḥ pada-kamalayor dāsa-dāsānudāsaḥ

Translation:  ‘I am not a brāhmaṇa, I am not a kṣatriya, I am not a vaiśya or a śūdra. Nor am I a brahmacārī, a householder, a vānaprastha or a sannyāsī. I identify Myself only as the servant of the servant of the servant of the lotus feet of Lord Śrī Kṛṣṇa, the maintainer of the gopīs. He is like an ocean of nectar, and He is the cause of universal transcendental bliss. He is always existing with brilliance.’ (CC Madhya 13.80)

Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu said, “ I'm not a Brahmana,” but He never said that I'm not a Vaisnava. Being a Vaisnava is not a title or a post.

sarvopādhi-vinirmuktaṁ tat-paratvena nirmalam hṛṣīkeṇa hṛṣīkeśa- sevanaṁ bhaktir ucyate

Translation: ‘Bhakti, or devotional service, means engaging all our senses in the service of the Lord, the Supreme Personality of Godhead, the master of all the senses. When the spirit soul renders service unto the Supreme, there are two side effects. One is freed from all material designations, and one’s senses are purified simply by being employed in the service of the Lord.’ (CC Madhya 19.170)

Devotional service is that level when a practitioner goes beyond all other mundane designations and modes of material nature and situates oneself on the spiritual platform. Then one is qualified of being a Vaishnava.

This Brahmana was a Vaisnava brahmana, he used to daily go to the temple and read Bhagavad Gita.

aṣṭādaśādhyāya paḍe ānanda-āveśe aśuddha paḍena, loka kare upahāse

Translation: The brāhmaṇa regularly read the eighteen chapters of the Bhagavad-gītā in great transcendental ecstasy, but because he could not pronounce the words correctly, people used to joke about him. (CC Madhya 9.94)

He read Bhagavad Gita in devotional ecstasy. There are different ecstasies when a person performs one's activities like kamavesh, krodhavesh, lobhavesh. But here we find the simple Vaisnava brahmana reading the Bhagavad Gita in pure devotional ecstasy. He was not a scholarly brahmana and so his Sanskrit pronunciation was inaccurate. Other scholarly brahmanas would laugh at him. As we all know the Lord is Bhavagrahi janardana, He accepts the mood of the service.

keha hāse, keha ninde, tāhā nāhi māne āviṣṭa hañā gītā paḍe ānandita-mane

Translation: Due to his incorrect pronunciation, people sometimes criticized him and laughed at him, but he did not care. He was full of ecstasy due to reading the Bhagavad-gītā and was personally very happy. (CC Madhya 9.95)

pulakāśru, kampa, sveda, — yāvat paṭhana dekhi’ ānandita haila mahāprabhura mana

Translation : While reading the book, the brāhmaṇa experienced transcendental bodily transformations. The hairs on his body stood on end, tears welled up in his eyes, and his body trembled and perspired as he read. Seeing this, Śrī Caitanya Mahāprabhu became very happy. (CC Madhya 9.96)

As the Brahmana started exhibiting the devotional ecstasy, Caitanya Mahaprabhu felt very joyful seeing it. He further said,

mahāprabhu puchila tāṅre, śuna, mahāśaya kon artha jāni’ tomāra eta sukha haya

Translation : Śrī Caitanya Mahāprabhu asked the brāhmaṇa, “My dear sir, why are you in such ecstatic love? Which portion of the Bhagavad-gītā gives you such transcendental pleasure?” (CC Madhya 9.97)

Caitanya Mahaprabhu asked, “What did you understand? Is there any deep meaning that you understand or any confidential mood that you understand which is leading you to exhibit such ecstasies?” Caitanya Mahaprabhu could read the mood and the body language of the Brahmana and so He inquired into the matter.

vipra kahe, — mūrkha āmi, śabdārtha nā jāni śuddhāśuddha gītā paḍi, guru-ājñā māni’

Translation : Then brāhmaṇa replied, “I am illiterate and therefore do not know the meaning of the words. Sometimes I read the Bhagavad-gītā correctly and sometimes incorrectly, but in any case I am doing this in compliance with the orders of my spiritual master.” (CC Madhya 9.98)

I'm reading on the order of my spiritual master, similarly Srila Prabhupada has instructed all of us to read his books, to read Bhagavad Gita, Vedic literatures.

arjunera rathe kṛṣṇa haya rajju-dhara vasiyāche hāte totra śyāmala sundara

Translation : The brāhmaṇa continued, “Actually I only see Lord Kṛṣṇa sitting on a chariot as Arjuna’s charioteer. Taking the reins in His hands, He appears very beautiful and blackish. (CC Madhya 9.99)

The Brahmana said, “I get the vision of Kuruksetra where the war took place and I could see Arjuna and Lord Krsna seated on the chariot before my eyes”.

tataḥ śvetair hayair yukte mahati syandane sthitau mādhavaḥ pāṇḍavaś caiva divyau śaṅkhau pradadhmatuḥ

Translation : On the other side, both Lord Kṛṣṇa and Arjuna, stationed on a great chariot drawn by white horses, sounded their transcendental conch shells. (BG 1.14)

“I see this beautiful scene where the Lord is holding the ropes of the chariot (rajjodhar Sri Krsna) and the Arjuna, the brother of Pandavas is sitting on the golden chariot.”

arjunere kahitechena hita-upadeśa tāṅre dekhi’ haya mora ānanda-āveśa

Translation : “While seeing Lord Kṛṣṇa sitting in a chariot and instructing Arjuna, I am filled with ecstatic happiness. (CC Madhya 9.100)

“The Lord is instructing Arjuna, but as I read the conversation between them, I hear it too.” Arjuna asked the question in the chapter,

arjuna uvāca atha kena prayukto ’yaṁ pāpaṁ carati pūruṣaḥ anicchann api vārṣṇeya balād iva niyojitaḥ

Translation : Arjuna said: O descendant of Vṛṣṇi, by what is one impelled to sinful acts, even unwillingly, as if engaged by force? (BG 3.36)

The Lord answered,

śrī-bhagavān uvāca kāma eṣa krodha eṣa rajo-guṇa-samudbhavaḥ mahāśano mahā-pāpmā viddhy enam iha vairiṇam

Translation : {The Supreme Personality of Godhead said: It is lust only, Arjuna, which is born of contact with the material mode of passion and later transformed into wrath, and which is the all-devouring sinful enemy of this world. (BG 3.37)

“Reading Bhagavad Gita in Sri Rangam temple, I get transported to the land of Kuruksetra or Kuruksetra comes here and I, in that state of bewilderment, think that I am in Arjuna’s place, and Lord Krsna is answering my questions. And I become joyful.”

yāvat paḍoṅ, tāvat pāṅa tāṅra daraśana ei lāgi’ gītā-pāṭha nā chāḍe mora mana

Translation : “As long as I read the Bhagavad-gītā, I simply see the Lord’s beautiful features. It is for this reason that I am reading the Bhagavad-gītā, and my mind cannot be distracted from this.” (CC Madhya 9.101)

“I feel like I should keep reading Bhagavad Gita on and on.” To which Caitanya Mahaprabhu said,

prabhu kahe, — gītā-pāṭhe tomārā-i adhikāra tumi se jānaha ei gītāra artha-sāra

Translation : Śrī Caitanya Mahāprabhu told the brāhmaṇa, “Indeed, you are an authority in the reading of the Bhagavad-gītā. Whatever you know constitutes the real purport of the Bhagavad-gītā.” (CC Madhya 9.102)

eta bali’ sei vipre kaila āliṅgana prabhu-pada dhari’ vipra karena rodana

Translation : After saying this, Lord Caitanya Mahāprabhu embraced the brāhmaṇa, and the brāhmaṇa, catching the lotus feet of the Lord, began to cry. (CC Madhya 9.103)

The Brahmana didn't find himself fit to embrace the Lord and so falling at the Lotus feet of the Lord, he cried profusely. Further the Brahmana said,

tomā dekhi’ tāhā haite dvi-guṇa sukha haya sei kṛṣṇa tumi, — hena mora mane laya

Translation : The brāhmaṇa said, “Upon seeing You, my happiness is doubled. I take it that You are the same Lord Kṛṣṇa.” (CC Madhya 9.104)

“My joy is doubled as I get to know that Lord Krsna instructing Arjuna is none other than you.” Hearing this, Caitanya Mahaprabhu was pleased, but asked him to keep it a secret. The Lord wanted to keep it confidential. The Brahmana stayed with Caitanya Mahaprabhu for the next four months just like a shadow. He never left the association of the Lord.

Do read and distribute Bhagavad Gita and thus you too can get the similar experience which the Vaisnava brahmana had.

Questions and Answers Session

Question One As Caitanya Mahaprabhu says,  ‘I am not a brāhmaṇa, I am not a kṣatriya, I am not a vaiśya or a śūdra. Nor am I a brahmacārī, a householder, a vānaprastha or a sannyāsī.' But the Lord strictly followed the Brahmacari ashram, how to understand this contradiction?

Gurudev uvaca: He was a Vaisnava sannyasi. Being a sannayasi is secondary. Lord Krsna was an ideal brahmacari and an ideal grhasta. Similarly Lord Caitanya was an ideal Vaisnava sannayasi. Brahmachari is a title, but being an Vaisnava brahmacari is a liberated state - muktam. He wasn't only renounced, but also a devotee. He was in the mood of a devotee. Understand the difference between brahmacari and Vaisanava brahmacari. As we know the reality of today's Brahmanas. There are limits to the qualities of a Brahmana. But when we talk about devotees there are 26 qualities. In a similar way for a sannayasi and a Vaisnava sannayasi, they do have symptoms of a sannayasi, the only difference is the quality of love. The four varnas or ashrams fall within the four Purushtarthas - Dharma, Arths, Kama, Moksha but when we add Vaisnava then it relates to love like premi brahmacari, premi grhastha, premi vanaprastha and premi sannayasi.

Question Two When we go on book distribution, people object to buying it saying they already have Gita press Gorakhpur Bhagavad Gita. So how to persuade them to accept our Bhagavad Gita?

Gurudev uvaca Don't you know the difference between the two Gitas? If you don't know this much, then you can't distribute. This is basic knowledge. Could anyone answer this question? Lord Krsna says in Bhagavad Gita,

evaṁ paramparā-prāptam imaṁ rājarṣayo viduḥ sa kāleneha mahatā yogo naṣṭaḥ paran-tapa

Translation : This supreme science was thus received through the chain of disciplic succession, and the saintly kings understood it in that way. But in course of time the succession was broken, and therefore the science as it is appears to be lost. (BG 4.2)

The acarya of Bhagavad Gita has presented the translation and purports without dilution. There can be hundreds of reasons to choose ISKCON Bhagavad Gita. One of is they interpret the meaning of the Gita according to their thinking (mano dharmo) and it does not come under disciplic authority.

Sampradāya-vihīnā ye mantrās te viphalā matāḥ

Translation: If you do not accept mantra initiation from the disciplic succession of the sampradāya, then it will be useless." [Padma Purāṇa]

Russian

Наставления после совместной джапа-сессии 17.12.2020г. Харе Кришна Прямо сейчас с нами воспевают преданные из 830 мест. Это месяц явления Гита Джаянти. Все больше и больше увлекайтесь чтением, слушанием и проповедью Бхагавад Гиты (БГ). Нам нужно осознавать БГ. Для нас очень важно изучать БГ. Нам нужно распространять книги БГ среди все большего числа людей, чтобы распространять это сознание. Когда Шри Кришна Чайтанья Махапрабху был в своем путешествии по южной Индии, он достиг Шри Рангама, святого места, где Шри Рамануджачарья основал Шри-сампрадаю, одну из четырех авторитетных вайшнавский сампрадай. Он пробыл там четыре месяца Чатурмасьи. Есть прекрасный храм Шри Ранганатха. Итак, когда Шри Кришна Чайтанья Махапрабху приходил в храм каждый день, он находил там старого брахмана, который каждый день посещал храм, сидел там и читал БГ. Между ним и Шри Кришной Чайтаньей Махапрабху был прекрасный разговор. Этот разговор показывает, как Бхакти на самом деле привлекает Кришну. У каждого свой собственный опыт от БГ, как я говорил позавчера. Я привел пример Санджая. Таким образом, этот брахман тоже имел понимание в соответствии со своим настроением. Так что сегодня я буду обсуждать эту лилу из Чайтанья Чаритамриты (ЧЧ). Я, возможно, уже рассказывал это раньше, но многие из вас, возможно, не присутствовали тогда или даже если бы вы были там, но мы можем извлекать новые уроки каждый раз, когда слышим какую-то историю (лилу). Итак, это был вайшнав-брахман (брахман). Быть вайшнавом и брахманом - это осознанность и совершенство. Быть просто брахманом - не достижение. Это просто название. Но быть вайшнавом - это не титул. Это то, кем мы стали после отказа от всех остальных титулов. Когда практикующий выходит за рамки всех материальных гун, он становится вайшнавом. Шри Кришна Чайтанья Махапрабху сказал, что я не брахман, но он никогда не говорил, что я не вайшнав. Итак, этот брахман был брахманом вайшнавом. Каждый день он ходил в храм и читал 18 глав БГ, полностью погруженный в экстаз и блаженство. Это экстаз преданности. Мы возбуждены вожделением или гневом. Но это был экстаз преданности. Он не был ученым брахманом, и его произношение было в основном искаженным и неправильным. Но настроение у него было очень хорошее и глубокое. Слушая его, окружающие будут над ним смеяться В Южной Индии есть много ученых брахманов, особенно в храме Шри Рангам. Поэтому они издевались над ним, видя его искаженное и неправильное произношение. Но Кришну называют Бхаваграхи Джанардана. Он принимает настроение. Настроение этого брахмана было превосходным. Этот старый вайшнав-брахман совсем не пострадал от оскорбления, которое наносили другие ученые. Он был глубоко погружен в экстаз блаженства преданности. Он продолжал читать БГ. Когда Шри Кришна Чайтанья Махапрабху увидел, что он с таким экстазом читает «БГ», он очень обрадовался. Махапрабху видит, что в брахмане пробуждаются 8 признаков экстаза. Иногда он застывает, слезы катятся по его глазам Итак, Махапрабху видел это ежедневно. И он был очень доволен и счастлив видеть брахмана в таком нектарном экстазе. В конце концов, однажды Махапрабху подошел к этому брахману и спросил его. О брахман, когда ты читаешь БГ, какую шлоку или какую сокровенную часть ты ощущаешь, которая приводит тебя в экстаз? Я отчетливо вижу этот экстаз на твоем лице и языке твоего тела. Он сказал, что я не умею читать, я не понимаю никакого смысла. Я получил это наставление от своего Гуру читать БГ, поэтому я ее регулярно читаю. Шрила Прабхупада также посоветовал нам прочитать и изучить ее. Но он принял это наставление так искренне Он говорит, что, хотя я не понимаю никакого смысла, но я не знаю, как, когда я начинаю читать, меня переносят на Курукшетру или Курукшетра приходит ко мне. Я становлюсь непосредственным свидетелем того, что Кришна и Арджуна сидят на золотой колеснице, которую тянут 4 белых прекрасных коня. Я вижу, как они оба затрубили в свои раковины Арджуна сидит наверху, а Кришна сидит внизу на сиденье возничего. Читая, я действительно вижу и слышу их разговор. Мне кажется, что Арджун задает вопросы от моего имени, а Кришна на самом деле отвечает мне. Я становлюсь очень счастливым и взволнованным блаженством, видя все это божественное зрелище. Поскольку я читаю БГ, я полностью этим увлечен. Хотя брахман утверждает, что он неграмотный дурак, но Махапрабху говорит, что ты очень авторитетно читаешь БГ. Махапрабху сказал, что ты получаешь такой потрясающий опыт и делишься им со мной. Сказав, это Махапрабху пошел вперед, чтобы особым образом обнять брахмана, но, думая о себе низко, он почувствовал себя на стопах Махапрабху. Это переживание брахмана было еще более восторженным. Он говорит, что чтение БГ и наблюдение за всеми играми, происходящими на моих глазах, безусловно, очень божественный опыт, но встреча с Махапрабху еще более экстатична. Он сказал, что Махапрабху является рассказчиком БГ, самим Кришной. Услышав, как это говорит брахман, он попросил брахмана не рассказывать об этом сокровенном факте никому, поскольку он хотел сохранить это в секрете и не хотел никому рассказывать о своей божественности. Махапрабху пробыл там в Шри Рангаме почти четыре месяца и дал свое божественное общение брахману. Итак, даже у всех вас есть это наставление от меня и Шрилы Прабхупады. Попробуйте читать, изучать и проповедовать БГ. Теперь будет время для комментариев, вопросов и данных обетах. Преданные могут их записывать. Вчера преданные пожертвовали около 60000 болгарских левов. Но Гуру Махарадж говорит, что этого недостаточно, и нам нужно задействовать больше людей. (Перевод Кришна Намадхан дас)