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जप चर्चा - १६-१२-२० हरे कृष्ण !
(परम पूजनीय गोपाल कृष्ण गोस्वामी महाराज )- आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद मुझे यहां आमंत्रित करने के लिए तो यहां अंग्रेजी भाषा है या हिंदी भाषा?
(परम पूज्यनीय लोकनाथ स्वामी महाराज ) - पद्ममालि कृपया आप यहां के विषय में महाराज को बताइए। (पद्ममालि प्रभु)- गोपाल कृष्ण गोस्वामी महाराज की जय ! महाराज जी आपको बहुत-बहुत धन्यवाद हमसे जुड़ने के लिए। (परम पूज्यनीय गोपाल कृष्ण गोस्वामी महाराज )- मेरा गला अत्यंत खराब है इसलिए शायद थोड़ी समस्या हो सकती है।
(पद्ममालि प्रभु)- महाराज जी यहां पर हिंदी भाषा का उपयोग करना है। हमारे साथ इस वक्त एक हजार लोकेशन से भक्त जप कर रहे हैं। ऐसा संभव है कि एक लोकेशन से पूरा परिवार अथवा भक्त मंडली जुड़ करके जप कर रहे हैं और बहुत सारे सेंटर के भक्तगण एक साथ जप कर रहे हैं जैसे पंढरपुर के बीस तीस भक्त बैठकर जप कर रहे हैं। इस्कॉन नागपुर, इस्कॉन नोएडा , इस्कॉन सोलापुर और अन्य बहुत सारे परिवार हमारे साथ है। किंतु यह सभी नंबर ऑफ लोकेशंस हैं ना कि नंबर ऑफ पार्टिसिपेंट। भारत के अलावा हमारे साथ मॉरीशस, साउथ अफ्रीका, और रशिया के भक्त गण भी हैं। इसके साथ ही साथ हमारे पास ट्रांसक्रिप्शन की भी सुविधा है, जिसमें कि हिंदी भाषा का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया जाता है और रशिया के भक्त, वह साथ ही साथ इंग्लिश भाषा को रशिया की लोकल भाषा में ट्रांसक्रिप्ट करते हैं। इस प्रकार हम यहाँ प्रतिदिन ये कार्य करते हैं।
(परम पूज्यनीय लोकनाथ स्वामी महाराज ) अभी गोपाल कृष्ण गोस्वामी महाराज जो भी हिंदी में बोलेंगे उसका भी अंग्रेजी में अनुवाद होगा।
(पद्ममालि प्रभु) - महाराज जी हम आपका फिर से सादर पूर्वक अभिनंदन करते हैं और मैं कृष्ण भक्त प्रभु से प्रार्थना करता हूं की वह परम पूजनीय गोपाल कृष्ण गोस्वामी महाराज जी के विषय में हमारे यहां उपस्थित भक्तों को बताएं।
(कृष्ण भक्त प्रभु) - आज हमारा यह सौभाग्य है कि हमारे बीच परम पूजनीय गोपाल कृष्ण गोस्वामी महाराज उपस्थित हैं। कल जब मैंने महाराज जी के सचिव दशावतार प्रभु से बात की तब वे बता रहे थे कि महाराज जी का इतना व्यस्त कार्यक्रम चल रहा है फिर भी महाराज जी ने हमें अपना समय दिया। आज ब्यूरो मीटिंग है। हम महाराज जी के विषय में थोड़ा परिचय देना चाहते हैं कि जब वे श्रील प्रभुपाद जी से मिले 1 जून1968 में मांट्रियल कनाडा में उसी दिन से महाराज जी ने प्रभुपाद जी के प्रति अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। प्रभुपाद जी को मिलने से पहले प्रभुपाद जी के सेवक ने उनको प्रभुपाद के रूम की सफाई की सेवा दी और पहली ही मुलाकात में प्रभुपाद जी ने महाराज जी को ग्रंथों का वितरण करने के लिए भारत भेजा। भारत की सभी अलग-अलग भाषाओं में ग्रंथों के वितरण करने की सेवा महाराज जी को दी। हिंदी में पहली बार जब प्रभुपाद जी को महाराज ने श्रीमद भगवतम प्रस्तुत किया तो प्रभुपाद जी अत्यंत प्रसन्न हुए।हिंदी भागवतम को देखकर प्रभुपाद जी ने महाराज को बहुत विशेष आशीर्वाद प्रदान किया, तभी से लेकर अर्थात श्रील प्रभुपाद जी के समय से आज तक महाराज जी पूरे विश्व भर में अलग-अलग भाषाओं में श्रीमद् भागवत, श्रीमद्भगवद्गीता का प्रचार कर रहे हैं और लाखों करोड़ों की संख्या में भक्तों को महाराज प्रेरित करते हैं ग्रंथों का वितरण करने के लिए। जैसे हमारे ज़ूम कॉन्फ्रेंस में हम एक टारगेट लेते हैं हजार ५ हज़ार १० हज़ार लेकिन महाराज जी का टारगेट रहता है ५ लाख १० लाख या ११ लाख। उसी हिसाब से हर वर्ष महाराज जी भगवत गीता का वितरण करने के लिए सारे भक्तों को विश्व भर में प्रेरित करते हैं और हमारा यह सौभाग्य है। पूरे विश्व भर में महाराज जी जीबीसी या उनके सचिव के रूप में हमने उनका मार्गदर्शन देखा है। हमारे बीच आज महाराज जी उपस्थित हैं और महाराज जी की प्रसन्नता के लिए आज हम टारगेट भी लेंगे। हम महाराज जी से निवेदन करते हैं की वो हमें मार्गदर्शन करें सभी भक्तों को ग्रंथ वितरण करने के लिए इस मैराथन के महीने में।
(परम पूजनीय गोपाल कृष्ण गोस्वामी महाराज)- हरे कृष्ण ! मैं आप सबका आभारी हूं लोकनाथ स्वामी महाराज और आप सभी भक्तों का कि आपने मुझे निमंत्रण दिया मेरा गला जरा बैठा हुआ है लेकिन आप लोगों को साफ सुनाई दे रहा है?
जी महाराज ! मैं आप सबका आभारी हूं कि मुझे निमंत्रण दिया आप सभी भक्तों के संग में इस जप चर्चा प्रोग्राम में आने के लिए। हम सब इस्कॉन के भक्त जानते हैं की प्रभुपाद ने क्या कहा अगर तुम मुझे संतुष्ट करना चाहते हो तो क्या करो ? ग्रंथों का वितरण करो। भक्तिसिद्धांत सरस्वती ठाकुर वे महान अचार्य थे, प्रभुपाद उनसे पहली बार मिले थे १९२२ में, १९३५ में भक्ति सिद्धांत सरस्वती प्रभुपाद जब ब्रज मंडल परिक्रमा कर रहे थे प्रभुपाद भी वहां थे तो उन्होंने एक मृदंगा की तस्वीर खींची और कहा अगर भगवान तुम्हें सुविधा दें तो तुम ग्रंथों का क्या करना, अनुवाद करना और प्रकाशन करना। प्रभुपाद जी ने यह संदेश बड़ी गंभीरता से स्वीकार लिया और जैसा की आप जानते हो प्रभुपाद जी ने विदेश जाने से पहले यहाँ बहुत प्रचार बढ़ाने का प्रयास किया , ग्रंथों का अनुवाद भी किया प्रभुपाद जी एक पत्रिका छाप रहे थे "बैक टू गॉड हेड " वह आज के बैक टू गॉड हेड जैसी नहीं थी। वह बहुत साधारण सी थी तो किसी ने प्रभुपाद जी को कहा कि आप जो मैगजीन छापते हो, वो मैगजीन लोग पढ़ कर फेंक देते हैं आप किताबों पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करो। प्रभुपाद जी ने श्रीमद्भागवत पर ध्यान दिया उस समय प्रभुपाद राधा दामोदर मंदिर में निवास कर रहे थे उनके पास एक टूटा हुआ टाइप राइटर था, टूटे हुए टाइपराइटर से टाइप करते थे। वो थर्ड क्लास के डब्बे में बैठकर मथुरा से दिल्ली आते थे और छीपीवाड़ा के इलाके में किताबों को छापने के लिए जाते थे। उसका अनुवाद , उसके प्रकाशन के लिए, फिर वितरण करने के लिए, साथ ही साथ वह चंदा इकट्ठा करने के लिए जाते थे। एक तरह से वह वन मैन आर्मी थे।
श्रील प्रभुपाद सब कुछ करते थे अनुवाद, टाइपिंग, प्रिंटिंग डिस्ट्रीब्यूशन तो प्रभुपाद जी के उदाहरण से हम देख सकते हैं प्रभुपाद जी ने कितना प्रयास किया ग्रंथों को प्रकाशित करने के लिए और वह अकेले जाते थे ग्रंथों को वितरण करने के लिए। आप लोग तो दिल्ली और नोएडा के भक्त हो और एक रुप से बहुत भाग्यशाली हो क्योंकि इस भूमि में प्रभुपाद जी ने भी ग्रंथों का वितरण किया और रोज प्रभुपाद जी जाते थे। प्रभुपाद जी ने बहुत ही संघर्ष के साथ श्रीमद्भागवतम के ३ स्कन्धों को प्रकाशित किया उसके पश्चात उन्होंने विदेश में जाने की योजना बनाई। प्रभुपाद जी ने ग्रंथों के वितरण पर बल दिया, प्रभुपाद जी अमेरिका आए तो उन्होंने फिर से अनुवाद का कार्य शुरू किया जब प्रभुपाद जी भारत से गए थे अमेरिका तो वह एक कार्गो शिप में गए थे और उस शिप के कैप्टन को प्रभुपाद जी ने तीन स्कन्धों में उस श्रीमद्भागवतम को दिया था। प्रभुपाद जी जब अमेरिका पहुंचे तो उन्होंने अनुवाद किया और वहां के भक्तों से कहा की ग्रंथों का वितरण करो। वह विदेशी भक्त थे और वे आश्रित थे वे चिंता में थे और सोच रहे थे कि कैसे हम ग्रंथों का वितरण करेंगे क्योंकि विदेशों में कृष्ण के विषय में लोगों को बहुत कम ज्ञान था, यह इतना आसान नहीं था पर इन भक्तों में बड़ी श्रद्धा थी। वे सोचते थे कि प्रभुपाद जी रोज कहते हैं किताबें बांटो किताबे बांटो तो हम कैसे बाटेंगे। उनमें से एक भक्त कुछ भक्तों के साथ मिलकर सैन फ्रांसिस्को जा रहे थे तो रास्ते में एक पेट्रोल पंप पर पेट्रोल लेने के लिए रुके और उन्होंने सोचा क्यों ना हम यहां कोशिश करें कृष्ण बुक को वितरित करने के लिए क्योंकि कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् है। उसने पेट्रोल पंप के मालिक से कहा कि क्या आप पेर्ट्रोल के मूल्य के बदले यह लेंगे तो उसने कहा हां उसको किताब अच्छी लगी अमेरिकन भक्तों ने यह सोचा कि यदि एक व्यक्ति पेट्रोल के पैसों की बजाय यह किताब ले सकता है तो और प्रयास करना चाहिए और प्रयास करते गए और धीरे धीरे यह बढ़ता गया। तो प्रश्न यह है कि क्या कारण है जो प्रभुपाद जी ने इतना बल दिया इस सेवा के ऊपर, इस्कॉन के आप किसी भी मंदिर में चले जाओ आप देखोगे सबको पुस्तक वितरण की महिमा का ज्ञान है।
प्रभुपाद जी ने ऐसा क्यों कहा ? इसलिए कहा क्योंकि ग्रंथों में दिव्य ज्ञान है और जो वैष्णव है वह पर दुख दुखी होता है अर्थात वह दूसरों के दुख को देखकर दुखी होता है की कैसे उसका उद्धार किया जाए। जब चैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत की यात्रा कर रहे थे तो यात्रा के दौरान दूर-दूर से लोग आते थे उनको सुनने के लिए, उनको देखने के लिए और उनको देखते ही वे हरि नाम का उच्चारण शुरू कर देते थे। एक भक्त थे बहुत दयालु उनका पूरा शरीर कीड़ों से भरा हुआ था किंतु वे इतने दयालु थे कि जब कोई कीड़ा नीचे गिरता था तो उसको उठाकर दोबारा अपने शरीर में छोड़ देते थे। जब उन्हें पता लगा कि महाप्रभु आए हैं तो वह उनको मिलने के लिए गए किन्तु उनको सूचना मिली कि महाप्रभु तो वहां से निकल गए हैं। महाप्रभु स्वयं भगवान हैं जब महाप्रभु को यह बात पता चली कोई ब्राह्मण उनसे मिलने आया था और वह अत्यंत दुखी है तो महाप्रभु वापस उनसे मिलने पहुंचे, लौटकर महाप्रभु ने उनको गले लगाया और जैसे ही महाप्रभु ने उनको गले लगाया तो उनकी वह बदसूरत देह तुरंत अत्यंत खूबसूरत बन गई और फिर वहां किसी ने एक अत्यंत सुंदर श्लोक बोला जो कि दशम स्कंध में स्मार्त ब्राह्मण ने कहा था उन्होंने महाप्रभु से एक प्रश्न पूछा कि अब आपकी कृपा से यह देह इतना खूबसूरत बन गया है मेरे देह से जो बदबू आती थी वह भी समाप्त हो गई है, मैं आप के लिए क्या कर सकता हूं महाप्रभु ने कहा तुम हरी नाम का उच्चारण करो और हरी नाम की महिमा का प्रचार करो। प्रभुपाद जी उसके तात्पर्य में कहते हैं जिस प्रकार उस दयालु व्यक्ति का उद्धार हुआ उसी प्रकार हम सब का भी उद्धार हो रहा है तो हम सब का कर्तव्य होना चाहिए की हरी नाम ले और हरी नाम की महिमा का प्रचार करें। चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु और हरिदास ठाकुर को कहा जाओ जाओ तुम सब जाओ और गांव-गांव घर-घर में हरि नाम का प्रचार करो
नदिया-गोद्रुमे नित्यानन्द महाजन पातियाछे नाम-हट्ट जीवेर कारण॥1॥
अर्थ:भगवान् नित्यानंद, जो भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम का वितरण करने के अधिकारी हैं, उन्होंने नदीया में, गोद्रुम द्वीप पर, जीवों के लाभ हेतु भगवान् के पवित्र नाम लेने का स्थान, नाम हाट का प्रबन्ध किया है। (श्रद्धावान जन हे, श्रद्धावान जन हे)
प्रभुर अज्ञाय, भाइ, मागि एइ भिक्षा बोलो ‘कृष्ण, ‘भजकृष्ण, कर कृष्ण-शिक्षा॥2॥
अर्थ: हे सच्चे, वफादार वयक्तियों, हे श्रद्धावान, विश्वसनीय लोगों, हे भाइयों! भगवान् के आदेश पर, मैं आपसे यह भिक्षा माँगता हूँ, “कृपया कृष्ण के नाम का उच्चारण कीजिए, कृष्ण की आराधना कीजिए और कृष्ण की शिक्षाओं का अनुसरण कीजिए।
अपराध-शून्य ह’ये लह कृष्ण-नाम कृष्ण माता, कृष्ण पिता, कृष्ण धन-प्राण॥3॥
अर्थ: पवित्र नाम के प्रति अपराध किए बिना, कृष्ण के पवित्र नाम का जप कीजिए। कृष्ण ही आपकी माता है, कृष्ण ही आपके पिता हैं, और कृष्ण ही आपके प्राण-आधार हैं।
कृष्णेर संसार कर छाडि’ अनाचार। जीवे दया, कृष्ण-नाम सर्व धर्म-सार॥4॥
अर्थ: संपूर्ण अनुचित आचरण को त्याग कर, कृष्ण से संबधित अपने कर्तव्यों को सम्पन्न कीजिए। सभी जीवों के प्रति दया करने के लिए कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण सभी धर्मों का सार है। (वैष्णव गीत )
बोलो कृष्ण भजो कृष्ण करो कृष्ण शिक्षा कृष्ण का नाम लो कृष्ण की उपासना करो और उनकी जो शिक्षाएं हैं गीता में उसका प्रचार करो और फिर लौट कर वापस मुझे बताओ कि प्रचार कैसा हुआ । महाप्रभु के आदेश के अनुसार नित्यानंद और हरिदास घर घर जा रहे हैं कई घरों में उनका बड़ा अच्छा स्वागत हुआ आओ सन्यासी महात्मा आए हैं बताओ क्या आदेश जब वह आदेश सुनाते हैं तो ठीक है हम जरूर करेंगे और कई घरों में गए तो लोगों ने उनकी बेइज्जती की अपमान किया, पागल जैसे आ जाते हैं सब को पागल बना रखा है कई लोगों ने कहा हमने प्रयास किया था श्रीवास आंगन में कीर्तन मंडली में जाने का लेकिन आप लोगों ने हमें अंदर नहीं आने दिया अब आप जाओ यहां से निकलो और कईयों ने आरोप भी लगाया कि यह तो चोरों के जासूस हैं , जब महाप्रभु के आदेश के अनुसार नित्यानंद और हरिदास प्रचार कर रहे थे तो सब ने साथ नहीं दिया कईयों ने दिया कईयों ने आरोप लगाया विरोध किया और इसी प्रकार आप सभी प्रचार करते रहो कई लोग आपका स्वागत करते हैं कई लोग आपकी बेइज्जती करते हैं। कहते हैं और कोई काम धंधा नहीं है क्या, इस प्रकार ग्रंथों के वितरण की यह सेवा है इसकी महिमा प्रभुपाद जी ने बताई है भक्ति सिद्धांत सरस्वती भी अपने शिष्यों को भेजते थे ग्रंथों के वितरण के लिए और वह भी किताबे बांटते थे लेकिन उन्होंने प्रभुपाद को खास करके इस विषय में आदेश दिया था तो प्रभुपाद जी ने स्वयं ग्रंथों के वितरण का उदाहरण दिया और जब इस्कॉन की स्थापना की तो उन्होंने अपने शिष्यों को भी कहा ग्रंथों का वितरण करना। इस प्रकार आज सारे विश्व में हरि नाम की महिमा, पुस्तक वितरण की महिमा का ज्ञान रखते हैं।
कजाकिस्तान एक मुस्लिम देश है और वहां एक भक्तिन है उसका नाम है "कृष्णानायक" मुसलमान देश है १५ २० सालों से वह रोज प्रभुपाद जी के ग्रंथावली को बांटने के लिए जाती है। इस प्रकार सारे देश में लोग जुड़ रहे हैं कई बार भक्त डरते हैं पुस्तक वितरण से, और कहते हैं हमने तो कभी किया नहीं हम कैसे करेंगे हम बड़े शर्मीले हैं इत्यादि। किंतु यदि आप प्रयास करोगे तो भगवान सहयोग देंगे प्रभुपाद कहते थे कि आप एक कदम उठाओ कृष्ण की ओर तो भगवान १० कदम उठाएंगे आपकी ओर आपका सहयोग देने के लिए। इस प्रकार ग्रंथों की यह सेवा बहुत महत्वपूर्ण है। भक्तों का भाव क्या है नारद मुनि कहते हैं यदि तुम भगवान को प्रसन्न करना चाहते हो तो तीन चीजों की आवश्यकता है सब पर दया करो "दयासर्वभूतेषु " बड़ी सीधी व्याख्या है भगवत गीता का ज्ञान देना लोगों को भव बंधन से छुटकारा देना है। इस प्रकार प्रभुपाद जी ने कहा यदि तुम मुझे प्रसन्न करना चाहते हो तो ग्रंथों का वितरण करो।
विदेशों में भक्तों ने पुस्तकों का वितरण किया और वहां कई ऐसे भक्त हैं जो ३५ साल से रोज जाते हैं पुस्तक वितरण के लिए क्यों ? केवल एक ही कारण है श्रील प्रभुपाद की प्रसन्नता के लिए तो आप पूछ सकते हो प्रभुपाद की इच्छा क्यों थी क्या कारण है क्योंकि प्रभुपाद जी के मन में केवल एक ही बात थी पतितों का उद्धार। और आज आप देखते हो कि सारे विश्व में भक्तों की संख्या बढ़ रही है उसका मूल कारण क्या है इन ग्रंथों का वितरण । कई बार भक्त सोचते हैं हम दस हज़ार गीता बाटेंगे मैराथन में, किंतु जब हम एक भी ग्रंथ बांटते हैं तो वह एक बीज के समान होता है जो कि हम नहीं जानते कि वह कब जाकर अंकुरित होगा। एक भक्त हैं जो बताते हैं कि १० साल से उनके पास में गीता थी और उन्होंने उसे खोला भी नहीं वह अलमारी में ही थी। फिर कोई दुर्घटना हुई और उन्होंने उसे पढ़ना शुरू किया और पढ़कर फिर वह भक्त बन गए। गीता कब ली थी १० साल पहले तो हमें यह नहीं सोचना चाहिए अगर आज बाटेंगे तो उसका नतीजा कल मिले। प्रभुपाद जी ने कहा ग्रंथों में इतनी शक्ति है यदि कोई एक श्लोक भी पढ़ लेगा तो उसका जीवन सुधर सकता है। आज सारे विश्व में प्रभुपाद जी के आदेशानुसार इन ग्रंथों का अनुवाद लगभग विश्व की सारी प्रचलित भाषाओं में किया जा चुका है। लगभग १ साल पहले पाकिस्तान में भी वहां की सरकार ने उर्दू भाषा में और सिंधी भाषा में लगभग हजार हजार प्रतिलिपि ली है बांटने के लिए। इस प्रकार सारे विश्व में लोग गीता को पढ़ रहे हैं क्योंकि इसमें दिव्य ज्ञान है। हर समस्या का हल है। हर प्रश्न का उत्तर है। हमें कभी यह भी नहीं सोचना चाहिए कि अभी आधुनिक युग है तो उनकी रुचि नहीं है इन ग्रंथों में, आगे के १०००० साल तक लोग इस भगवत गीता को पढेंगे और यदि हम इन ग्रंथों का वितरण करना चाहते हैं तो हमें उत्साहित होना चाहिए, हमें भगवान की सेवा करनी चाहिए श्रील रूप गोस्वामी उपदेशामृत मे कहते हैं-
उत्साहान्निश्चयाद्धैर्यात् तत्तत्कर्मप्रवर्तनात् । सङ्गत्यागात्सतो वृत्तेः षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति॥३॥
अनुवाद- शद्ध भक्ति को सम्पन्न करने में छह सिद्धान्त अनुकल होते हैं : (१) उत्साही बने रहना (२) निश्चय के साथ प्रयास करना (३) धैर्यवान होना (४) नियामक सिद्धान्तों के अनुसार कर्म करना (यथा श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणम्-कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना) (५) अभक्तों की संगति छोड़ देना तथा (६) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरणचिह्नों पर चलना। ये छहों सिद्धान्त निस्सन्देह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं।
एक समय मुंबई में एक इंटरनेशनल बुक स्टॉल था , इंटरनेशनल बुक हाउस था १९७६ की बात है तो वहां हमने एक बहुत बड़ा डिस्प्ले आयोजित किया था प्रभुपाद जी के ग्रंथों का उस वक्त इस्कॉन इतना प्रसिद्ध नहीं था और १ महीने के बाद हमने देखा कि वहां ज्यादा पुस्तके नहीं बिकी। लेकिन प्रभुपाद ने कहा मेरे भक्तों के उत्साह को देखकर ग्रंथों के प्रति मैं भी बहुत उत्साहित हूं, प्रसन्न हूं। अमेरिका में एक भक्त थे जिनको मैंने पूछा कि आप कैसे भक्त बने तो उसने बताया कि जब मैं फ्लोरिडा में था तो वहां पर एक अन्य भक्त के पास भगवत गीता थी तो मैंने उससे कहा कि क्या मैं तुमसे यह भगवत गीता खरीद सकता हूं पढ़ने के लिए तो उसने कहा कि क्यों खरीदना चाहते हो मुझसे ऐसे ही ले लो मेरी इसे पढ़ने में कोई रुचि नहीं है तो मैंने उससे पूछा कि यदि तुम्हारी कोई रुचि नहीं थी तो तुमने यह ग्रंथ क्यों खरीदा ? उसने कहा एक साधु था जो बहुत उत्साह के साथ प्रचार कर रहा था उसने कहा अगर उत्साह के साथ प्रचार करते हैं तो आप जैसे कठोर हृदय वाला व्यक्ति भी इसे ले सकता है। यह सत्य है कि यदि आप सभी उत्साह के साथ प्रचार करेंगे तो आप सभी सफल होंगे। आजकल जैसा कि आप जानते हो कोरोना वायरस की वजह से थोड़ी समस्या है किंतु हमारे जो ब्रह्मचारी भक्त हैं मैराथन की वजह से वह वह भी सीधे प्रचार कार्य कर रहे हैं। मैंने शुरू में उनसे कहा कोरोना वायरस की वजह से तुम्हें डर तो नहीं लग रहा बाहर जाने से ? उनका उत्तर था नहीं उन्हें एक बार कोरोनावायरस हो चुका है अब 6 महीने तक नहीं होगा। ५० /६० ब्रह्मचारी बुक डिस्ट्रीब्यूशन करने बाहर जाते हैं और भगवान की दया से अभी तक किसी को भी कोरोना वायरस नहीं हुआ है। हालांकि वह इतना रिस्क ले रहे हैं। उत्साह से हम सबको इन ग्रंथों को बांटना चाहिए, हमारे मन में यह भाव होना चाहिए कि इन ग्रंथों से हमें सबका उद्धार करना है। अगर किसी का सौभाग्य हो एक गीता भी हाथ में आ जाए या एक प्रभुपाद का ग्रंथ हाथ में आ जाए तो उसका धार्मिक जीवन प्रारंभ हो जाता है उसे किसी प्रकार से यह प्रेरणा भी दो कि इन ग्रंथों को पढ़े, इसके द्वारा मन की शांति प्राप्त होगी और असली सुख प्राप्त होगा। यह अभ्यास है जहां भक्त प्रयास करते हैं वहां सफलता प्राप्त होती है। "प्युरिटी इज़ द फोर्स" प्रभुपाद जी कहते थे शुद्धता की असली शक्ति है, प्रभुपाद जी कहते थे "बुक्स आर द बेसिस " "प्रीचिंग इज़ द एसेंस" ग्रंथों का वितरण यह हमारी सबसे महत्वपूर्ण सेवा है।
प्रभुपाद जी के समय इंडियन रेलवेज का एक स्लोगन था जिसमें उन्होंने एक ट्रेन दिखाई थी और पहिए थे जिसमें लिखा था " गो अवे द व्हील्स" प्रभुपाद उदाहरण देते हैं। इसलिए हमें अपने पुस्तक वितरण के पहिए को सदैव चलाना पड़ेगा, ग्रंथों के वितरण की सेवा है प्रचार की सेवा है यह १ महीने के लिए नहीं है पूरा साल हमें यह भाव रखना चाहिए। माया का मैराथन कितने महीने चलता है साल में यह मेरा प्रश्न है ? पूरे साल ही चलता है है ना? तो इसी प्रकार हमारे प्रचार का मैराथन भी पूरे साल चलना चाहिए। मैराथन के महीने में थोड़ा ज्यादा उत्साह प्रकट करना चाहिए प्रचार का मौका हमें हमेशा ढूंढना चाहिए। प्रचार विश्व के हर कोने में करना चाहिए। गीता के संदेश का उपयोग विश्व के हर कोने में किया जा रहा है तो क्या आप तैयार हो ग्रंथों के वितरण में , आप रुचि ले रहे हो लोकनाथ स्वामी महाराज के निर्देशन में हमें पूरा विश्वास है आप सभी भी बुक डिसटीब्यूशन की महिमा हजार बार सुन चुके हो और प्रयास करो यदि हम में योग्यता नहीं है तो भी प्रयास करो। भगवान कहते हैं कि जो मेरे भक्त होते हैं अगर उनमें कुछ कमी भी हो तो मैं उसे दूर कर देता हूं। अतः आप सभी इस पुस्तक ग्रंथ वितरण में भाग लें और इसके द्वारा आप सभी को प्रभुपाद जी तथा अन्य आचार्यों की कृपा प्राप्त होगी। भगवत गीता में भगवान कहते हैं कि सब भक्तों में मुझे सबसे प्रिय भक्त कौन सा है जो मेरा प्रचार करता है। इससे ज्यादा प्रिय और ना कोई मुझे है और ना ही कोई होगा। चैतन्य महाप्रभु ने भी इसी सेवा पर बल दिया -
यार देख , तारे कह ' कृष्ण ' - उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु हजा तार ' एइ देश ॥ (चैतन्य चरितामृत मध्य 7.128)
अनुवाद- हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे। इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो।
प्रभुपाद के प्रतिनिधि तो आप सब भी हो सेवा में भाग ले। आधा मैराथन बीत गया है और यह देखा गया है कि कई बार भक्त जब उत्साह से प्रयास करते हैं तो वह सफल होते हैं। एक बार एक भक्त ने श्रील प्रभुपाद से पूछा अमेरिका में एक माताजी ने मैं कैसे विनम्र होऊं ग्रंथों को वितरण करने के समय?
प्रभुपाद ने कहा मंदिर में भक्तों के साथ मीठा जैसा व्यवहार करो और जब प्रचार के समय बाहर जाओ तो शेर जैसा व्यवहार करो। इस तरह जब आप उत्साह के साथ प्रचार करोगे तो बहुत असर पड़ेगा।
आप सब का बहुत-बहुत धन्यवाद और मैं आशा करता हूं कि लोकनाथ स्वामी जी के सानिध्य में ग्रंथ वितरण अभी और बढ़ेगा।
हरे कृष्ण !
English
16 December 2020
Importance of Book Distribution Marathon HH Gopal Krsna Goswami Maharaja Special guest
I am grateful to HH Lokanath Swami for inviting me to this program. We all in ISKCON know well what Srila Prabhupada said: If you want to please me, distribute my books. Srila Prabhupada met Srila Bhaktisiddhanta Saraswati Thakur on Vraja-mandala Parikrama and was instructed to translate, print and distribute books. As you all know Srila Prabhupada was trying hard to preach Krishna Consciousness and distribute books. He even tried to distribute the Back To Godhead magazine which was very simple compared to today’s version. Someone told Srila Prabhupada not to concentrate so much on such a small magazine, but something bigger because people may read and then throw it away. Then Srila Prabhupada started writing Srimad Bhagavatam.
Srila Prabhupada was staying in the Chippiwara area of Delhi in Radha Damodara temple and had a broken typewriter. He would to go out to get free paper for his books, type using that broken typewriter and then distribute books on his own. Simultaneously he would to go out to collect funds. He was like a one man army. Srila Prabhupada did everything alone - translating, typing, printing and distributing. We can see from his example how hard he tried to print these books. He went alone on book distribution.
Devotees of ISKCON Noida and Delhi are very fortunate as Srila Prabhupada also distributed books in this same area and on the same land. After a long struggle Srila Prabhupada completed the first canto of Srimad Bhagavatam in three parts and got it printed. Next he planned to go the Western countries for preaching. Why did Srila Prabhupada stress on these books and its distribution? Srila Prabhupada travelled from India in a cargo ship and took Srimad Bhagavatam with him. His distribution of this Srimad Bhagavatam commenced on the way to the captain of that ship. When he reached America he again started his translation work. Srila Prabhupada always encouraged His western disciples to distribute books but they had no idea how to do it. They thought, “Nobody knows about Krsna here, who will buy them?”
One devotee was once going back to temple after Sankirtana and he was filling petrol at a petrol pump. He thought of giving a Krsna book in place of money and it worked. He said to the owner of petrol pump,”You take this book instead of 10 dollars.” The owner agreed. The owner liked that book. American devotees thought if one man is ready to take this book instead of money for petrol then we should try to distribute more of these books to others. They tried more and more. That’s how book distribution started. So the question is,”Why did Srila Prabhupada stress so much on book distribution?” When he started ISKCON he always stressed on distribution of books because it has deep, great knowledge. Vaisnavas are para dukha dukhi. When they see others engrossed in material activities, anxiety, stress, they also feel sad.
Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu travelled extensively in South India and other parts of India. Many people from far distant places would come to see and meet Mahaprabhu and after meeting Him, everyone started chanting Harinama. There was a very merciful devotee, Vasudeva Vipra, who was suffering from leprosy and had living worms on his whole body. Although suffering from leprosy, the brāhmaṇa Vāsudeva was enlightened. As soon as one worm fell from his body, he would pick it up and place it back again in the same location. Then one night Vāsudeva heard of Lord Caitanya Mahāprabhu’s arrival, and in the morning he came to see the Lord at the house of Kūrma. When the leper Vāsudeva came to Kūrma’s house to see Caitanya Mahāprabhu, he was informed that the Lord had already left. The leper then fell to the ground unconscious. When Vāsudeva, the leper brāhmaṇa, was lamenting due to not being able to see Caitanya Mahāprabhu, the Lord, who is omniscient, immediately returned to that spot and embraced him. When Śrī Caitanya Mahāprabhu touched him, both the leprosy and his distress was gone. Indeed, Vāsudeva’s body became very beautiful, to his great happiness. The brāhmaṇa Vāsudeva was astonished to behold the wonderful mercy of Śrī Caitanya Mahāprabhu, and he began to recite a verse from Śrīmad-Bhāgavatam, touching the Lord’s lotus feet. This verse was spoken by Sudāmā Brāhmaṇa in Śrīmad-Bhāgavatam (10.81.16), in connection with his meeting Lord Kṛṣṇa. Being meek and humble, the brāhmaṇa Vāsudeva worried that he would become proud after being cured by the grace of Śrī Caitanya Mahāprabhu. To protect the brāhmaṇa, Śrī Caitanya Mahāprabhu advised him to chant the Hare Kṛṣṇa mantra incessantly and Śrī Caitanya Mahāprabhu also advised Vāsudeva to preach about Kṛṣṇa and thus liberate living entities.
In the purport of this verse, CC Madhya 7.148, Srila Prabhupada has written that although Vāsudeva Vipra was a leper and had suffered greatly, still, after Śrī Caitanya Mahāprabhu cured him He instructed him to preach Kṛṣṇa consciousness. Indeed, the only return the Lord wanted was that Vāsudeva preach the instructions of Kṛṣṇa and liberate all human beings. That is the process of the International Society for Krishna Consciousness. Each and every member of this Society was rescued from a very abominable condition, but now they are engaged in preaching Kṛṣṇa consciousness. They are not only cured of the disease called materialism, but are also living a very happy life. If one wants to be recognised as a devotee by Kṛṣṇa, he should take to preaching, following the advice of Śrī Caitanya Mahāprabhu. This is our responsibility to preach the glories of the holy name.
Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu also gave the same instruction. He asked Nityananda Prabhu and Srila Haridas Thakura to go from village to village and from town to town and instruct them to bolo `kṛṣṇa,’ bhajo kṛṣṇa, koro kṛṣṇa-śikṣā meaning chant "Krsna!", worship Krsna, and teach others about Krsna and then give Him a report about their daily preaching activities. On Mahaprabhu’s instruction, Nityananda Prabhu and Srila Haridas Thakura travelled from home to home and at some places people welcomed them by saying, “Oh great Mahatamas have come. Please instruct us what are we supposed to do?” When they gave the instruction, they would respond,”We will do it.” At some places, people would insult them, “These mad people have come again, and they want us to become mad like them.” Like this someone would welcome them and someone would throw insults. Someone would complain, “We tried to enter into the sankirtana which took place in Srivas angan, but Mahaprabhu didn’t allowe us to enter. So now you are also not allowed here. Leave this place.” Someone would say, “It seems they are a thief or some spy.” That’s how it was. Some cooperated, some complained or put allegations on them. That is what Srila Prabhupada asked us to do. This may happen with us also. Someone may welcome us or insult us too. This is book distribution service. You can read about the glories of book distribution in Srila Prabhupada’s books. Prabhupada stressed this book distribution service.
Srila Bhaktisiddhanta Saraswati Maharaja also sent His disciples for book distribution and He especially instructed Srila Prabhupada. Srila Prabhupada himself distributed books.
Everyone was not allowed in the Srivas angan. So Nityananda and Haridas left to take that sankirtana outside. When Srila Prabhupada established ISKCON, He instructed His disciples to do this as well. Now you can see in every ISKCON temple in this whole world, devotees clearly know about the significance of harinama and book distribution. Kazakhstan is an Islamic country, yet there this sankirtana is going on for the past 15-20 years.
Many times, devotees are afraid of book distribution service and they say, “We haven't done it ever before. How will we do it?” There is a very simple answer. If you sincerely try then Krsna will provide all the help. Srila Prabhupada said, “You take one step towards Krsna and He will take 10 steps towards you.” This service of book distribution is really important. It is the nature of the devotees to help and deliver others. Narada Muni says that if you want to please Krsna then 3 things are required:
dayayā sarva-bhūteṣu santuṣṭyā yena kena vā sarvendriyopaśāntyā ca tuṣyaty āśu janārdanaḥ
Translation By showing mercy to all living entities, being satisfied somehow or other and controlling the senses from sense enjoyment, one can very quickly satisfy the Supreme Personality of Godhead, Janārdana. [SB 4.31.19]
1) dayayā sarva-bhūteṣu - By showing mercy to all living entities. To show mercy and compassion to others. What is the real compassion? Real compassion is to give this Krishna conscious knowledge to everyone sothat they can get out of this cycle of birth and death. 2) santuṣṭyā yena kena vā - being satisfied somehow or other 3) sarvendriyopaśāntyā ca - controlling the senses from sense enjoyment
Srila Prabhupada said this many times that is you want to please me then distribute books. There are so many devotees in Western countries who have be3en gong on the streets for distribution of books everyday for the past 30-35 years. Why? Only for the pleasure of Srila Prabhupada. You may ask, Why did Srila Prabhupada want this to happen so sincerely? Because when we go out, someone may accept or reject, but Srila Prabhupada had only one desire ie. to deliver all the fallen souls.
And today if you see that the number of devotees are increasing, then the main reason is the book distribution. Sometimes devotees think that if I am distributing 10000 Bhagavad Gitas this year, then next year new 10000 devotees should join our temple. This is a good thought. But we should know that we have planted the seed. When you distribute one Bhagavad Gita to a person, you don’t know when it will explode and transform the life of that person or others. There are many examples. Once a devotee in our temple told us that he bought a Bhagavad Gita 10 years ago before he started reading it. After purchasing the Gita, he never opened it for the next 10 years and it was kept in his cupboard. Then after some misadventure, he opened and read it and became a devotee. We should not think that if I am distributing it today, then tomorrow I will get the result.
Srila Prabhupada knew that it is a slow sprouting seed. Srila Prabhupada used to say that there is so much power and energy in these books that one can be transformed by even reading one verse of these books. Srila Prabhupada's Gita is widely read in the entire world. He translated it from Sanskrit to English. Now with the hard work of Srila Prabhupada’s disciples, Bhagavad Gita has been translated into mostly every known language in this world. Now people of every language are reading it in their own language.
Last year or maybe a few months ago, the government of Pakistan bought 1000 copies of Urdu and Sindhi Bhagavad Gita to read. The whole world is reading Bhagavad Gita today and what is the reason behind that? Because it has transcendental knowledge and it has all the answers of all the questions, every solution of every problem. We should never think that this is a modern era and who would take interest in reading Bhagavad Gita. For the next 10,000 years people are going to read it. We should distribute it enthusiastically. This knowledge of Bhagavad Gita is never going to be outdated.
utsāhān niścayād dhairyāt tat-tat-karma-pravartanāt saṅga-tyāgāt sato vṛtteḥ ṣaḍbhir bhaktiḥ prasidhyati
Translation: There are six principles favorable to the execution of pure devotional service: (1) being enthusiastic, (2) endeavoring with confidence, (3) being patient, (4) acting according to regulative principles [such as śravaṇaṁ kīrtanaṁ viṣṇoḥ smaraṇam – hearing, chanting and remembering Kṛṣṇa], (5) abandoning the association of nondevotees, and (6) following in the footsteps of the previous ācāryas. These six principles undoubtedly assure the complete success of pure devotional service. [NOI Text 3]
One should be enthusiastic while serving the Lord. Why not? After all you’re serving the Supreme Personality of Godhead. Once we had displayed the books of Srila Prabhupada at a very popular International book display of one of our members. It was in 1976. At that time, ISKCON was not as much popular as it is today. Even after a month, the distribution didn't go very well. I said to Srila Prabhupada, “After a month of trial, not many books have been distributed”. Srila Prabhupada said, “My books can be distributed only when devotees do it enthusiastically. People will only buy it when they will see the enthusiasm of devotees.”
Once there was a devotee in America. I asked him, “How did you come into Krishna Consciousness?” He said, “Once my friend was going somewhere on a bike and there was a Bhagavad Gita on his back seat. I asked him, “Can I borrow this Bhagavad Gita for few days?”
My friend said, “Why borrow? Just take it. I am not at all interested in reading this.” Then I asked him, “Then why did you purchase it?” He said that the Hare Krishna devotee was so enthusiastically distributing it that I couldn’t deny his request to purchase it. So if you preach enthusiastically then you will attract the most stone hearted person on the streets.
This is a great pleasure that In every part of the world this effort is going on to distribute the books of Srila Prabhupada. If we do it enthusiastically then we will be successful. So many Brahmacharis and temple devotees are going out for book distribution even in this situation of Coronavirus. So I asked them, “ Are you afraid of going out for book distribution?” They replied enthusiastically, “NO! We have been affected by the virus once already now it will not affect us for the next 6 months.” These 50-60 brahmacaris are going out daily and by the Lord’s mercy they are fine also. We should distribute these books enthusiastically. We should have this mood that we have to deliver everyone in this material world. Vaisnavas should be para dukha dukhi. Even if one touches a Bhagavad Gita, their spiritual life will immediately begin from that very moment. Somehow inspire them to read these books. Because they will get spiritual bliss and peace in reading these books. We should enthusiastically try and then we will be successful. Srila Prabhupada said,”Purity is the force. Preaching is the essence. Books are the basis. Utility is the principle.” So this book distribution is the most important service in ISKCON.
Once Srila Prabhupada said in his lecture, “Indian Railways had a slogan - keep the wheels moving, so in the same way this book distribution must go on and not just for a month but for the whole year.”
In this age where Maya is very strong, Maya's marathon goes on all the time so our book distribution marathon must also go on throughout the year. We should be just more enthusiastic during the month of December. But the opportunity of preaching is available throughout the year and in every nook and corner of this world. People are frustrated and suffering everywhere in this world. We should preach everywhere and every time throughout the year. We are very grateful to you all that you’re taking interest in this book distribution marathon. Please distribute books under the guidance of Lokanath Swami Maharaja. You all have joined from many different places so please distribute in your areas. If you think that I am not eligible to distribute books still go and distribute. Because Krsna says in Bhagavad Gita, “Those who worship Me with devotion, meditating on My transcendental form-to them I carry what they lack and preserve what they have.” [BG 9.22] If you take part in book distribution, you will be able to receive the mercy of Srila Prabhupada and all the other acaryas. Krsna promises in Bhagavad Gita,” For one who explains this supreme secret to the devotees, pure devotional service is guaranteed, and at the end he will come back to Me. There is no servant in this world more dear to Me than he, nor will there ever be one more dear.” [BG 18.68-69]
Sri Krsna Caitanya Mahaprabhu also stressed this and said, yare dekha tare kaha 'krsna'-upadesa meaning Instruct everyone to follow the orders of Lord Śrī Kṛṣṇa as they are given in the Bhagavad Gītā and Śrīmad-Bhāgavatam. In this way become a spiritual master and try to liberate everyone in this land. It is said, “God help those who help themselves.” If you try to please the Lord then the Lord will provide you help.
Please participate in this marathon. Half of the marathon has already passed by so you need to be more enthusiastic in the second half. Some are doing this marathon till 10th January or till the end of January. Once an American mataji asked Srila Prabhupada,” How can I be humble and distribute books?” Srila Prabhupada answered, “ A lamb at home, a lion in the chase." When you are chasing, you must be a lion. But when you come home, you do not try to chase the devotees. When you go out for preaching then preach enthusiastically. This book distribution marathon may expand for a long time. You all are under the guidance of HH Lokanath Swami so you all must enthusiastically do it, participate in this marathon.
Thank you very much. Hare Krishna. Lokanath Swami Maharaja can say few words on book distribution.
Lokanath Swami Maharaja
Srila Prabhupada said, “I will be alive till my books are distributed.” He said this in Vrindavan. We all want that Srila Prabhupada lives till eternity. Who doesn’t want Him to live forever? gaura-vani-pracarine Srila Prabhupada in the form of his words will live forever by this process of book distribution.
Russian
Наставления после совместной джапа-сессии 16.12.2020г.
Гопал Кришна Госвами Махарадж:
Я благодарен Его Святейшеству Локанатху Свами за приглашение на эту программу.
Все мы в ИСККОН хорошо знаем, что сказал Шрила Прабхупада: «Если хотите доставить мне удовольствие,
распространяйте мои книги».Шрила Прабхупада встретился с Бхати Сидхантха Сарасати Тхакуром во Враджамандал Парикраме и получил наставления распространять и печатать книги
КАК вы все знаете,Шрила Прабхупада изо всех сил пытался проповедовать Сознание Кришны и распространять книги
Он даже пытался распространять журнал Обратно к Богу, что было очень просто по сравнению с сегодняшним днем.
Кто-то сказал Шриле Прабхупаде не концентрироваться на таком маленьком журнале, а на чем-то большем, и Шрила Прабхупада начал переводить Шримад Бхагаватам.
Шрила Прабхупада жил в районе Чиипивара в Дели, и у него была сломанная пишущая машинка, он обычно выходил, чтобы получить бесплатную бумагу для своих книг, и сам распространял книги.
Он был похож на армию одного человека
Преданным ИСККОН в Нойде и Дели очень повезло, так как Шрила Прабхупада также распространяла книги в том же районе и стране.
Почему Шрила Прабхупада сделал упор на эти книги и их распространение?
Шрила Прабхупада отправился из Индии на грузовом корабле и взял с собой Шримад Бхагаватам.
И он раздал этот Шримад Бхагаватам по дороге сам
Когда он основал ИСККОН, он всегда делал упор на распространение книг, потому что у него были глубокие знания.
Шрила Прабхупада всегда поощрял преданных распространять книги, но они не знали, как это делать.
Один преданный однажды возвращался в храм после санкиртаны, он заправлялся бензином и думал дать книгу вместо денег, и это сработало, как началось распространение книг
Шри Чайтанья Махапрабху много путешествовал по югу Индии и другим частям Индии и был очень милостив.
Был преданный, который страдал от проказы и все его тело было покрыто микробами, он хотел получить себе милость, и Махапрабху встретил его и обнял его, и он сразу же избавился от своей болезни.
Он обрел прекрасное тело, и именно так Васудева Випра получил благословение Махапрабху.
Как можно проповедовать без гордости. Так что это можно сделать, всегда воспевая славу Святого имени. Только что сказали про Васудеву Випру. Так поступил Шрила Прабхупада.
Шри Кришна Чайтанья Махапрабху также дал такое же наставление. Он просил всех идти из деревни в деревню и из города в город и проповедовать славу Славу Святого имени.
Это то, что Шрила Прабхупада просил нас сделать.
Многих людей не пускали в Шривасанган. Итак, Нитьянанда и Харидас вышли, чтобы провести санкиртану на улице.
Когда Шрила Прабхупада основал ИСККОН, он также наставлял своих учеников делать это.
Казахстан - исламская страна, но там эта санкиртана продолжается последние 15-20 лет.
Многие спрашивают, что мы никогда не делали этого раньше, как мы это сделаем? Итак, есть очень простой ответ. продолжайте попытки. Если вы сделаете один шаг к Кришне, он сделает 10 шагов к вам.
Природа преданных - это помогать другим.
Нарада Муни говорит, что если вы хотите доставить удовольствие Кришне, тогда помогайте другим преданным, служите им и радуйте их.
В западных странах так много преданных, которые в течение последних 30-35 лет каждый день выходят на улицы для распространения книг только ради удовольствия Шрилы Прабхупады.
Почему Шрила Прабхупада так искренне хотел, чтобы это произошло?
Потому что он знал, что это медленно прорастающее семя.
Мы видим, что сегодня наше количество (участников Сознания Кришны) достигла этого только за счет распространения книг.
Шрила Прабхупада раньше говорил, что в этих книгах столько силы и энергии, что можно измениться, даже прочитав один стих.
Гита Шрилы Прабхупады широко читается во всем мире. В прошлом году в Пакистане было распространено 1000 экземпляров БГ на урду (язык).
Это знание БГ никогда не устареет. Тысячи лет в будущем люди будут читать это.
Однажды мы показали книги Шрилы Прабхупады на очень популярной книжной выставке одного из наших членов. Но даже через месяц раздача шла не очень хорошо.
Итак, Шрила Прабхупада сказал, что это могут делать только преданные.
Эти усилия продолжаются во всех частях света.
распространять книги Шрилы Прабхупады
Так много брахмчари и храмовых преданных выходят за распространение книг даже в этой ситуации с коронавирусом.
Шрила Прабхупада сказал, что проповедь - это суть, книги - это основа.
У индийских железных дорог был лозунг «Держите колеса в движении», поэтому Шрила Прабхупада сказал по этому поводу: «Поддерживайте распространение книг».
В наше время, когда Майя очень сильна, марафон Майи продолжается постоянно, поэтому наш марафон должен продолжаться круглый год. Просто в декабре мы полны энтузиазма.
Если мы приложим усилия, мы станем дорогими Кришне
Кришна обещает это в Бхагавад Гите.
Даже если есть некоторые недостатки, они устраняются по милости Кришны.
Половина марафона уже пройдена, поэтому во второй половине нужно проявлять больше энтузиазма.
Вы все находитесь под руководством Его Святейшества Локанатха Свами.
Так что вы все должны сделать это с энтузиазмом, принять участие в марафоне Бхагавад Гиты.
Шрила Прабхупада говорил, что я буду жив, пока мои книги будут распространяться.
Он сказал это во Вриндаване.
Все мы хотим, чтобы Шрила Прабхупада жил вечно.
Шрила Прабхупада в форме своих слов будет жить вечно благодаря этому процессу распространения книг. (Перевод Кришна Намадхан дас)