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जप चर्चा 18 दिसंबर 2020 पंढरपुर धाम

हरे कृष्ण, 842 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। हरे कृष्ण! हरि बोल!

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय कहो ॐ नमो भगवते वासुदेवाय हरि बोल, जप के बाद जप चर्चा ,हरिनाम के बाद हरिकथा। भगवद्गीता भी एक हरि कथा है। श्रील प्रभुपाद लिखते हैं। समझाते हैं कि, एक अध्याय में स्वयं भगवान ने कहांं है। गीता यह भेंट अनुपम है भगवान के वचन है।

और कथाएं हैं। श्रीमद्भागवत या और पुराणों में कथाएं हैं, यह भगवान के संबंधित। भगवान ने स्वयं की हुई कथा भगवत गीता। और भगवान के संबंधित जो कथा आती है वह है पूरी कथा। spoken by the loard, spoken about the lord. spoken by the loard, इसीलिए भगवद्गीता तो भगवान का गीत ही है। हरि कथा है या गीत है। यहां पर संत तुकाराम महाराज कहते हैं।

गीता भागवत करिती श्रवण। अखंड चिंतन विठोबाचे गीता का श्रवण भागवत का श्रवण जो भी करेंगे या गीता की कथा, भागवत की कथा का श्रवण जो करेंगे। अखंड चिंतन विठोबाचे उसको स्मरण होगा पांडुरंगा पांडुरंगा विट्ठल का स्मरण होगा। गीता भागवत करिती श्रवण गीता भागवत के श्रवण से भगवान का स्मरण होगा। श्रीमदभगवद्गीता यथारूप की यह भूमिका है। श्रील प्रभुपाद गीता महात्म्य का उल्लेख करते हैं। गीताा महात्म्य, महात्म्य समझतेे हैं, महिमा महत्व। हां हर एक का अपना अपना एक महिमा है। फिर वह धाम का महात्म्य है या नाम का महात्म्य है। फिर गीता का भी महात्म्य है। तो उस महात्म्य का कुछ प्रश्नोंं का उल्लेख श्रील प्रभुपाद भगवद्गीता यथार्थ के भूमिका में श्रील प्रभुपाद करतेे हैं। हम पढ़कर सुनाएंगेेे कि कौन से महात्म्य का उल्लेख श्रील प्रभुपाद करते हैं।

भारतामृतसर्वस्वं विष्णुवक्त्राद्विनिः सृतम । गीता- गङ्गोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ॥

“जो गंगाजल पीता है, वह मुक्ति प्राप्त करता है । अतएव उसके लिए क्या कहा जाय जो भगवद्गीता का अमृत पान करता हो? भगवद्गीता महाभारत का अमृत है औरइसे भगवान् कृष्ण (मूल विष्णु) ने स्वयं सुनाया है ।” (गीता महात्म्य ५)

गीता महात्म्य का यह 4था वचन है। श्रील प्रभुपाद में इसका अनुवाद भी किया है। जो गंगाजल पीता है, वह मुक्ति प्राप्त करता है । अतएव उसके लिए क्या कहा जाय जो भगवद्गीता का अमृत पान करता हो। भगवद्गीता महाभारत का अमृत है ।और इसे भगवान् कृष्ण जिनको श्रीला प्रभुपाद ने कहां है। मूल विष्णु ने स्वयं सुनाया है ।” गीता महात्म्य का अगला वचन है। यह पांचवा वचन है चौथा नहीं। गीता महात्म्य भारतामृतसर्वस्वं भारत मतलब महाभारत महाभारत का यह अमृत है। या महाभारत का यह सार है। अमृत है भगवदगीता। और क्या महिमा है इस गीता का? इस महाभारत का यह सार है। यह अमृत है। विष्णुवक्त्राद्विनिः सृतम वक्त्रा मतलब मुंह वक्त्र वक्त्र कहते हैं। तो विष्णुवक्त्रा तो यहां विष्णु कृष्ण है। श्रील प्रभुपाद में अनुवाद में लिखा है मूल विष्णु। विष्णु का भी मूल है स्रोत है श्रीकृष्ण। विष्णु अवतार है श्रीकृष्ण का। कृष्ण अवतारी है और विष्णु अवतार है। और फिर विष्णु के कई अवतार है या फिर विष्णु विष्णु कहते हैं तो फिर विष्णु के भी कई प्रकार हैं। महाविष्णु, गर्भोदकशायी विष्णु, क्षीरोदकशायी विष्णु, यह नाम हमने कभी सुने नहीं होंगे, हम विष्णु विष्णु कहते रहते हैं। लेकिन विष्णु के भी तीन प्रकार हैं और यह विष्णु मिलाकर भगवान के अवतार का एक प्रकार होता है उसे पुरुष अवतार कहते हैं। पुरुष अवतार, भगवान के पुरुषवतार, लीलावतार, गुणवतार, युगवतार ऐसे अवतारों के प्रकार हैं। उसमें से एक अवतार पुरुषवतार जो तीन विष्णु के समूह से आते हैं पुरुष अवतार। तो विष्णु यहां दिखा तो रहे हैं विष्णु लेकिन मूल कृष्ण है। कृष्ण के मुखारविंद से द्विनिः सृतम निकले हुए वचन है। यहां वैसे दूसरा वचन भी तो है ही। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता या मतलब जो गीता स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता भगवान के यह वचन है। भगवान ने स्वयं ही तो कहा है। स्वयं पद्मनाभस्य पद्मनाभ भगवान के मुखारविंद से निकले हुए वचन है। भगवद्गीता भगवान के वचन है और भगवान के विचार है। यह भगवान के विचार हैं इसीलिए वे फिर सर्वोच्च विचार है। लोग high thinking high thinking कहते रहतेे हैं। जीवन सरल साधा हो और विचार कैसे हो उच्च विचार। यह भगवद्गीता के विचार भगवान के विचार यह सर्वोच्च विचार है। और यह सत्य विचार है भगवान सत्य बताते हैं। श्रीकृष्ण बद्ध जीवों को सत्य पर प्रवचन दे रहे हैं। यहां सत्य सुना रहे हैं।

“सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव | न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः || १४ ||”

अनुवाद हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ | हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं |

अर्जुन ने कहा सर्वमेतदृतं मन्ये आप जो भी कह रहे हो, वह सब क्या है? सर्वमेत दृतं मतलब सत्य। दृतं इस शब्द का अर्थ है सत्य सर्वमेतदृतं मन्ये। और मुझे यह मंजूर है मुुुुुुझे यह स्वीकार आप जो कह रहे हो। गीता- गङ्गोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते तो गीता की तुलना की है। गीता- गङ्गोदकं गीता है गंगा के जल समान गंगा तेरा पानी अमृत तोक्षवैसे गीता का है। श्रील प्रभुपाद ने अनुवाद में कहां है। गंगाजल के पान करने से व्यक्ति मुक्त होते हैं, तो फिर यह गीता अमृत पान करने से फिर क्या कहना। गीता अमृत है। गीता- गङ्गोदकं गीता गंगा के उदक गंगा के जल जैसा है। गीता अमृत है। तो जो उसका पान करेगा पुनर्जन्म न विद्यते पुनः जन्म नहीं होगा। या फिर भगवान ने गीता में पुनः पुनः कहा है। जो गीता का अमृत का जो पान करेंगे या इसको समझेंगे सुनेंगे कई सारे तत्व बताए हुए हैं।

“जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः | त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ||

अनुवाद हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है |

भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में भगवान ने कहा है। जो भी व्यक्ती मुझे तत्वतः जानता है वह त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति जब शरीर त्यागेगा तव पुनर्जन्म नहीं होगा। तो क्या होगा मामेति पुनर्जन्म नैति मामेति. नैति मतलब जाता है कि आता है। मामेति वह मेरी ओर आएगा मैं जहां रहता हूं, गोलोक एव निवसत्याखिलात्मभुतो गोलोक में मेरा निवास है वहां आएगा। वैकुंठ आएगा जहां मैं रहता हूं विष्णु रूप में या अलग-अलग अवतारों में। गीता- गङ्गोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते गीता महात्म्य का यह वचन है। आगे का भी यह वचन है गीता महात्म्य का।

सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः । पार्थो वत्सः सुधिभोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् ।।

“यह गीतोपनीषद, भगवद्गीता, जो समस्त उपनिषदों का सार है, गाय के तुल्य है और ग्वालबाल के रूप में विख्यात भगवान् कृष्ण इस गाय को दुह रहे है । अर्जुन बछड़े के समान है, और सारे विद्वान् तथा शुद्ध भक्त भगवद्गीताके अमृतमय दूध का पान करने वाले हैं ।” (गीता महात्म्य ६)

और क्या कहां है इसमें सर्वोपनिषदो गावो गाय सारे जो उपनिषद है वेद का सार उपनिषद कहां है। वेद की वाणी सिद्धांत या तत्व उपनिषद है। *सर्वोपनिषदो गावो श्रील प्रभुपाद ने यहां समझाया है। कल्पना करो या मान लो। सारे उपनिषद बने हैं गाय सारे उपनिषद 108 उपनिषद। मुख्य मुख्य 108 उपनिषद है तो यह बन जाते हैं गाय। *सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः अब गाय हैं तो फिर गाय से क्या प्राप्त होता है? गाय से प्राप्त होता है दूध। लेकिन उसका दोहन करने वाला भी तो चाहिए तो दोग्धा जो दूध दोहन करेंगे गोपाल नंदन स्वयं भगवान दोग्धा है दूध का दोहन कर रहे है। गाय हैं और दूध दोहन करने वाले हैं या गाय हैं उपनिषद और उसका दोहन करने वाले हैं गोपालानंदनः स्वयं श्रीकृष्ण। फिर अब कौन होगा पार्थो वत्सः पार्थ, अर्जुन है बछड़ा। उपनिषद का सार यह गीतामृत उसका पान बछड़े को करा रहे हैं गोपाल नंदन श्री कृष्ण और यह बछड़ा पार्थो वत्सः पार्थ बने हैं बछड़ा। और सुधीर्भोक्ता तो सर्वप्रथम दूध का पान करने वाले या प्रसाद को ग्रहण करने वाले यह अमृत प्रसाद गीतामृत प्रसाद का आस्वादन करने वाले ग्रहण करने वाले अर्जुन हुए, उन्होंन प्रसाद ग्रहण किया। फिर प्रसाद ग्रहण करने के उपरांत कुछ बचता हैै या पूरा का पूरा बचता भी है। ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते वह सारा दूध पी लिया और सारा का सारा बच भी गया ऐसा सिद्धांत है। कम नहीं होता है घटता नहीं बढ़ता है या उतना ही रहता है।

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥

ऐसा नियम है, 1 में से 1 घटाया तो शून्य नहीं होता, आध्यात्मिक जगत में 1 में से 1 घटाया तो क्या होता है? पुनः एक ही रहता है। तो अर्जुन ने पी लिया पार्थो वत्सः सुधीर्भोक्ता सुधी सु मतलब अच्छी, धी मतलब धिया बुद्धी। जो बुद्धिमान है, दिमाग वाले हैं वह क्या करेंगे, अर्जुन ने पी हुई इस अमृत का पान करेंगे। अर्जुन ने पी लिया तो यह अमृत तो महाप्रसाद हुआ। और लोग पिएंगे जो शेष है अवशेष है, तो वे महा महा प्रसाद का पान करेंगे और वे होंगे सुधी बुद्धिमान लोग। वैसे इस भगवदगीता को अर्जुन ने प्रसाद तो कहा ही है, नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत हे अच्युत आपका कभी पतन नहीं होता, आप कभी च्युत नहीं होते। ऐसे हे अच्युत आपसे मुझे प्रसाद प्राप्त हुआ है गीता के अभी अंत में। हरि हरि। इसको उपनिषद भी कहा है या गीता को उपनिषद भी कहते हैं। 'गीतोंपानिषद' उपनिषद मतलब उप निषद पास में बैठ कर श्रवण होता है या गुरु शिष्य में जो संवाद होता है वह उपनिषद होते हैं। हर उपनिषद में एक गुरु और एक शिष्य उनके मध्य में संवाद है यह उपनिषदो का वैशिष्ठ है। उपनिषदों में पास में बैठ कर गुरु और शिष्य वार्तालाप करते हैं उनमें संवाद होता है। भगवदगीता को भी उपनिषद कहां है 'गीतोंपनिषद' कहां है। क्योंकि यहां भी संवाद है शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् गीता के द्वितीय अध्याय में अर्जुन ने स्वीकार किया है प्रभु मैं आपका शिष्य हूं, शिष्यस्ते अहं मां त्वां प्रपन्नम् आपकी शरण में आ रहा हूं शाधि मुझे उपदेश कीजिए, मुझे समझाइए बुझाइये। तो यह उपनिषद है, जब संवाद हो ही रहा था कुरुक्षेत्र के मैदान में तो अर्जुन ने अंत में कहा मुझे आप जो सुनाएं हो, यह गीता के वचन मेरे लिए प्रसाद बना है यह प्रसाद है मेरे लिए। नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत अर्जुन ने उस प्रसाद को ग्रहण किया और फिर जो अवशेष है हमारे लिए उन्होंने छोड़ा है। जो बुद्धिमान लोग हैं इस गीतामृत का वे भी पान करेंगे सुधीर्भोक्ता दुग्धं गीतामृतं महत् इस प्रकार यह गीतामृत महान है। फिर और एक गीता माहात्म्य का वचन यह सातवां है, यह प्रसिद्ध है दूसरे भी प्रसिद्ध है सभी प्रसिद्ध है वैसे लेकिन इस माहात्म्य के वचन इससे शायद आप परिचित होने चाहिए।

एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम् । एको देवो देवकीपुत्र एव ।। एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि। कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ।।

“आज के युग में लोग एक शास्त्र, एक ईश्र्वर, एक धर्म तथा एक वृति के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं। अतएव सारे विश्र्व के लिए केवल एक शास्त्र भगवद्गीता हो। सारे विश्र्व के लिए एक इश्वर हो-देवकीपुत्र श्रीकृष्ण । एक मन्त्र, एक प्रार्थना हो- उनके नाम का कीर्तन, हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे। केवल एक ही कार्य हो – भगवान् की सेवा ।” (गीता महात्म्य ७)

इस माहात्म्य के वचन में कहां है एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम् एक ही शास्त्र पर्याप्त है और वह कौन सा शास्त्र है? देवकीपुत्रगीतम दोग्धा गोपालनन्दनः श्री कृष्ण या वासुदेव वासुदेव सर्वम इति उनका जो गीत है भगवदगीता और फिर शास्त्र है तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते भगवान गीता में कहे हैं गीता को शास्त्र कहे हैं यह गीता शास्त्र है। कार्याकार्यव्यवस्थितौ क्या करें क्या ना करें या इसको कैसे निर्धारित करें तो शास्त्र के आधार से। शास्त्र प्रमाण है, गीता प्रमाण है, क्या प्रमाण है? श्री कृष्ण कह रहे हैं भगवदगीता प्रमाण है, तो यह एकं शास्त्रं बस। गीता सुगीताकर्तव्या किमन्यौ: शास्त्रविस्तरैः यहां भी गीता माहात्म्य के और एक माहात्म्य का वचन हुआ गीता सुगीताकर्तव्या किमन्यौ: जब गीता प्राप्त हुई है, भगवान ने गीता का उपदेशामृत जब उपलब्ध कराया ही है तो एकं शास्त्रं जब यह एक शास्त्र पर्याप्त है किमन्यौ: तो अन्य शास्त्रों की आवश्यकता ही क्या है। तो एकं शास्त्रं वही बात फिर प्रभुपाद यहां कहते हैं, सारे संसार के लिए सिर्फ एक ग्रंथ, एक शास्त्र 'भगवदगीता' तो सारे संसार के लिए एक शास्त्र और एको देवो और देव भी एक या आदि देव भी एक एको देवो देवकीपुत्र एव देवकी पुत्र ही एक भगवान है और वह एक भगवान ही सभी के लिए पर्याप्त है। या वही तो है वैसे और कोई है ही नहीं एको देवो देवकीपुत्र एव । तो एक शास्त्र और एक भगवान आराध्य भगवान देवकीपुत्र एव जिसको कृष्ण ने कहा गीता के अंत में सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज मैं तो एक ही हूं और दूसरा कोई है नहीं वासुदेव: सर्वमिति जो इस बात को स्वीकार करता है समझता है वासुदेव ही सब कुछ है स महात्मा सुदुर्लभ: ऐसा महात्मा दुर्लभ है। एक तो वह महात्मा है, जो वासुदेव ही सब कुछ है जानने वाला, मानने वाला, उनकी शरण में जाने वाला महात्मा है और ऐसा महात्मा दुर्लभ है। तो एक शास्त्र, एक भगवान और एको मन्त्रस मंत्र भी एक मन्त्रस्तस्य नामानि यानि जो उनका नाम है वही है एक मंत्र। फिर आराम से कह सकते हैं

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

हरेर्नामैव केवलं केवलं मतलब एक तो यह नाम पर्याप्त है यह एक मंत्र पर्याप्त है सारे संसार के लिए। पूरे मानव जाति के लिए एक शास्त्र, एक भगवान, एक मंत्र और कर्माप्येकं कर्म भी, कृत्य भी, कार्य भी एक। वह कौन सा? तस्य देवस्य सेवा तस्य, कृष्णस्य कहो सेवा, उस कृष्ण की पद्मनाभ की सेवा ही सभी का कृत्य या कर्तव्य है। तो इस प्रकार इस माहात्म्य में एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम् एक शास्त्र, एक देव देवकीपुत्र एव और एक मंत्र तस्य नामानि यानि और एक कर्म तस्य देवस्य सेवा उस भगवान की सेवा भक्ति योग जो भगवान भगवदगीता में सुनाएं हैं। कर्मयोग से भी ऊंचा, ज्ञानयोग से भी ऊंचा और अष्टांग योग से भी ऊंचा भक्ति योग।

“योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना | श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः || ४७ ||”

अनुवाद और समस्त योगियों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे परायण है, अपने अन्तःकरण में मेरे विषय में सोचता है और मेरी दिव्य प्रेमाभक्ति करता है वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युक्त रहता है और सबों में सर्वोच्च है | यही मेरा मत है |

ऐसा है मेरा मत श्री कृष्ण ने कहा, भगवदगीता के छठे अध्याय के अंतिम श्लोक मे कृष्ण कहते हैं, पहले उन्होंने यह योग, वह योग, योगों का उल्लेख तो किया है। लेकिन फिर उन्होंने कहा योगिनामपि सर्वेषां सारे योगों में सर्वेषां मद्गतेनान्तरातमना श्रद्धावान्भजते यो मां जो मुझे श्रद्धा से भक्ति पूर्वक भजते हैं वह योगी युक्ततम वह श्रेष्ठ है, ऐसा मेरा मत है। भगवान का ऐसा मत है तो और मतमतांतर की आवश्यकता ही क्या है? हरि हरि।

गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। तो ऐसी गीता एकं शास्त्रम देवकी पुत्र गीतम का अध्ययन करना है, पठान करना है फिर पाठन भी करना है पठन-पाठन। अध्ययन अध्यापन, अध्ययन करना है और औरों से भी करवाना है अध्ययन। श्रील प्रभुपाद कहते हैं आप मेरे ग्रंथों को पढ़िए और उसका वितरण भी करिए। श्रील पभुपाद की इस गीता का हमें अध्ययन और वितरण करना है, अधिक अध्ययन और वितरण करने का भी यह महीना है।

English

18 December 2020

Unlimited glories of Bhagavad Gita

We have devotees chanting from 842 locations with us.

om namo bhagvate vasudevaya!

Hare Krishna! After chanting (Harinama), we will discuss Hari Katha. Bhagavad Gita is also Hari Katha, Srila Prabhupada explains that Bhagavad Gita is Hari Katha as it is spoken directly by the Supreme Lord and the other Vedic literatures like Srimad Bhagavatam or Puranas are also Hari Katha as it's the compilation of the Lord’s divine activities, spoken about the Supreme Lord. Bhagavad Gita is considered a song of God and also katha. Saint Tukarama says:

gita bhagavat karti sravan akhand cintan vithobache

Whoever hears Bhagavad Gita or Srimad Bhagavatam, will remember the Supreme Lord, Panduranga.

In the preface of Bhagavad Gita As it is, Srila Prabhupada mentions Gita Mahatmya - the importance and glory of Gita. I'll be reading some verses for you.

bharatamrita-sarvasvam, vishnu-vaktrad vinihsritam gita-gangodakam pitva, punar janma na vidyate

Translation : By drinking the Ganges waters of the Gita, the divine quintessence of the Mahabharat emanating from the holy lotus mouth of Lord Vishnu, one will never take rebirth in the material world again. In other words, by devotionally reciting the Gita, the cycle of birth and death is terminated. (Text 5, Bhagavad Gita Mahatmya by Adi Sankaracarya)

bharatamrita-sarvasvam means it's the essence, nectar of Mahabharata and the glory is visnu-vaktrad vinihsritam which means from the mouth of Visnu. As Srila Prabhupada writes in the purport. Kṛṣṇa is the source of Visnu, Kṛṣṇa is avatari and Visnu is avatar and Visnu has many expansions like Maha-Visnu, Garbodaksayi Visnu, Ksirodaksayi Visnu which are further expansions of Purush Avataras. visnu-vaktrad vinihsritam from the lotus mouth of Sri Kṛṣṇa, the divine speech took place,

ya svayam padmanabhasya, mukha-padmad vinihsrita

Bhagavad Gita is the guidelines (vicaar) of the Supreme Lord, supreme thoughts and also truthful and eternal speech of the Lord. As we keep saying, 'Simple living and high thinking', Bhagavad Gita represents the high thinking. While hearing Bhagavad Gita, Arjuna said,

sarvam etad ṛtaṁ manye yan māṁ vadasi keśava na hi te bhagavan vyaktiṁ vidur devā na dānavāḥ

Translation : O Kṛṣṇa, I totally accept as truth all that You have told me. Neither the demigods nor the demons, O Lord, can understand Your personality. (BG 10.14)

gita-gangodakam pitva, the words of Bhagavad Gita is considered pure and nectarean as Ganges water. As Srila Prabhupada said in the purport, if one drinks the holy Ganga water one gets purified. Then what to speak of Bhagavad Gita's nectar and whoever consumes it will never have to take birth again in this mortal world.

By continuously listening to the divine messages of the Bhagavad Gita, Lord Kṛṣṇa says in the verse:

janma karma ca me divyam evaṁ yo vetti tattvataḥ tyaktvā dehaṁ punar janma naiti mām eti so ’rjuna

Translation : One who knows the transcendental nature of My appearance and activities does not, upon leaving the body, take his birth again in this material world, but attains My eternal abode, O Arjuna. (BG 4.9)

In the next verse of Gita Mahatmya,

sarvopanishado gavo, dogdha gopala-nandanah partho vatsah su-dhir bhokta, dugdham gitamritam mahat

Translation : All the Upanisads are like a cow, and one who milks the cow is Lord Shri Kṛṣṇa, the son of Nanda. Arjuna is the calf, the beautiful nectar of the Gita is the milk, and the fortunate devotees of fine theistic intellect are the drinkers and enjoyers of that milk. (Gita Dhyanam)

The foremost person to consume the nectarean milk-like messages of Bhagavad Gita is Arjuna, honouring the Gita prasada, but still some remnants are left for all us to relish as Bhagavad Gita is complete in itself.

oṁ pūrṇam adaḥ pūrṇam idaṁ pūrṇāt pūrṇam udacyate pūrṇasya pūrṇam ādāya pūrṇam evāvaśiṣyate

Translation : The Personality of Godhead is perfect and complete, and because He is completely perfect, all emanations from Him, such as this phenomenal world, are perfectly equipped as complete wholes. Whatever is produced of the Complete Whole is also complete in itself. Because He is the complete whole, even though so many complete units emanate from Him, He remains the complete balance.(Isopanisad invocation)

The theory is as follows. Arjuna drank the all the milk but still the milk is remaining. It didn't decrease, but was the same quantity as before. In spiritual world maths is different. It's not like material matha which calculates 1-1=0 instead it's 1-1=1. This is the extraordinary quality of devotional service. su-dhir bhokta- good (su) intelligence (dhir), the intelligent people drink the mahaprasada of Arjuna and thus their intelligence becomes spiritual. Arjuna said,

arjuna uvāca naṣṭo mohaḥ smṛtir labdhā tvat-prasādān mayācyuta sthito ’smi gata-sandehaḥ kariṣye vacanaṁ tava

Translation : Arjuna said: My dear Kṛṣṇa, O infallible one, my illusion is now gone. I have regained my memory by Your mercy. I am now firm and free from doubt and am prepared to act according to Your instructions. (BG 18.77)

The conversation between the master and the disciple is known as Upanisad, gaining the knowledge by sitting near to the master, upa means near and nishad means to sit. Bhagavad Gita is also called Gita-upanishad. In the second chapter Arjuna says,

kārpaṇya-doṣopahata-svabhāvaḥ pṛcchāmi tvāṁ dharma-sammūḍha-cetāḥ yac chreyaḥ syān niścitaṁ brūhi tan me śiṣyas te ’haṁ śādhi māṁ tvāṁ prapannam

Translation : Now I am confused about my duty and have lost all composure because of miserly weakness. In this condition I am asking You to tell me for certain what is best for me. Now I am Your disciple, and a soul surrendered unto You. Please instruct me. (BG 2.7)

In the end of Bhagavad Gita, Arjuna said, “You gave me prasada andI honoured it.” But he kept his remnants for all of us to consume, and the intelligent people (su-dhir bhokta) will take advantage of this Gita-amrita.

In the next verse of Gita Mahatmaya

ekam shastram devaki-putra-gitam eko devo devaki-putra eva eko mantras tasya namani yani karmapy ekam tasya devasya seva

Translation : There need be only one holy scripture-the divine Gita sung by Lord Shri Krishna: only one worshipable Lord-Lord Shri Krishna: only one mantra-His holy names: and only one duty-devotional service unto that Supreme Worshipable Lord, Shri Krishna. (Text 7, Bhagavad Gita Mahatmya by Adi Sankaracarya)

Only one sastra is sufficient for humanity and that is Bhagavad Gita, a song sung by nanda-gopa, vasudevam sarvam iti. This Gita is sastra pramam te, the do's and dont's are illustrated in this Gita, karya karyo vyavasthito. Bhagavad Gita is the authority.

gita su-gita kartavya, kim anyaih - Because Bhagavad Gita is spoken by the Supreme Personality of Godhead, one need not read any other Vedic literature. One need only attentively and regularly hear and read Bhagavad Gita

In the end of Bhagavad Gita, the Lord announced to surrender unto Him.

sarva-dharmān parityajya mām ekaṁ śaraṇaṁ vraja ahaṁ tvāṁ sarva-pāpebhyo mokṣayiṣyāmi mā śucaḥ

Translation : Abandon all varieties of religion and just surrender unto Me. I shall deliver you from all sinful reactions. Do not fear. (BG 18.66)

bahūnāṁ janmanām ante jñānavān māṁ prapadyate vāsudevaḥ sarvam iti sa mahātmā su-durlabhaḥ

Translation : After many births and deaths, he who is actually in knowledge surrenders unto Me, knowing Me to be the cause of all causes and all that is. Such a great soul is very rare. (BG 7.19)

The soul which surrenders oneself completely to Vasudeva is known as mahatma and such mahatma is rare to find.

eko mantras tasya namani yani- only one mantra and that is the maha-mantra, harer nameva kevalam.

Hare Krishna Hare Krishna Krishna Krishna Hare Hare Hare Rama Hare Rama Rama Rama Hare Hare

One scripture that is Bhagavad Gita, one Lord that is Sri Kṛṣṇa, one mantra that is the maha-mantra and one duty that is to serve Padmanabha Sri Kṛṣṇa. As the Lord has described about Bhakti Yoga which is superior to jnana yoga, karma yoga, asthanga yoga. The Lord says in Bhagavad Gita at the end of the sixth chapter,

yoginām api sarveṣāṁ mad-gatenāntar-ātmanā śraddhāvān bhajate yo māṁ sa me yuktatamo mataḥ

Translation : And of all yogīs, he who always abides in Me with great faith, worshiping Me in transcendental loving service, is most intimately united with Me in yoga and is the highest of all. (BG 6.47)

Read, study and preach Bhagavad Gita as Srila Prabhupada said, "Read my books and distribute my books." This month is dedicated to Book Distribution.

Gita Jayanti ki Jai!

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