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*जप चर्चा*, *पंढरपुर धाम*, *10 अक्टूबर 2021* गौरंग । गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। हमारे साथ 862 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। 862 भक्तों की जय। मतलब आप सब की जय। जप करने वालों की जय होती ही है। आप कहे या ना कहे, यह निश्चित है। चेतो - दर्पण - मार्जनं भव - महा - दावाग्नि - निर्वापणं श्रेय : -कैरव - चन्द्रिका - वितरणं विद्या - वधू - जीवनम् । आनन्दाम्बुधि - वर्धनं प्रति - पदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्म - स्नपनं परं विजयते श्री - कृष्ण - सङ्कीर्तनम् ॥१२ ॥ (अंतिम लीला 20.12) अनुवाद:- भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो , जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागररूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है , जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतलता प्रदान करता है और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बनाता है । परम विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्, परम विजय, विजय भव: , हम एक दिन जीतेंगे। हरि हरि। धन्यवाद श्रीकृष्ण चैतन्य स्वामी महाराज केवल माल्यार्पण के लिए ही नहीं। मैंने कह दिया या मैंने कहने प्रारंभ किया था कि आज पता नहीं आप कुछ नया अनुभव कर रहे हो या नहीं। आपको कुछ नया अनुभव हो रहा है क्योंकि आज प्रातः कालीन हम जप तप एक गुफा में कर रहे हैं। हम एक अद्भुत गुफा में आ चुके हैं। जहां एकांत और प्रशांत या शांति का हम अनुभव कर रहे हैं और वह गुफा जो है लोक स्टूडियो पंढरपुर में है। हरि बोल। इस्कॉन पंढरपुर में इस स्टूडियो का निर्माण लगभग पूरा हो चुका है। यह मेरा पंढरपुर में आखिरी दिन है और मेरी यात्रा प्रारंभ हो रही है। जो भी निर्माण कर रहे थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय इन सभी ने योगदान दिया भविष्य में हम कभी स्पेशल समारोह भी आयोजित कर सकते हैं लोग चिड़ियों के संबंध में यहां तक कि श्री कृष्ण चैतन्य स्वामी महाराज, स्वरूपानंद और आदि पुरुष प्रभु की जय। इन तीनों के प्रयासों से और वैसे कई औरों ने भी प्रयास किए और योगदान दिया। हम भविष्य में विशेष समारोह आयोजित कर सकते है। श्रीकृष्ण चैतन्य स्वामी महाराज इस स्टूडियो का वीडियो बनाकर प्रस्तुत भी कर सकते हैं। वैसे आप में से कईयों ने धनराशि देकर भी योगदान दिया हुआ है। आपने से कई सारे इस स्टूडियो के वित्तीय योगदान करता है। आपको भी आभार, लेकिन आपको थोड़ा हल्का सा अभार मान रहे हैं। लेकिन भविष्य में किसी समय पूरा आभार मान लेंगे, कुछ औपचारिक दृष्टि से। हरि हरि। गौरंग। वैसे गुफाएं भी होती है और इस स्टूडियो को हम गुफा कह रहे हैं किंतु शास्त्रों में हमारे हृदय को भी गुफा कहा है। हमारा हृदय एक गुफा है। कई स्थानों पर ऐसा उल्लेख है। हमारा हृदय ही गुफा है। तो गुफा अनुकूल होती है ध्यान के लिए या जप तप के। हमको हमारे हृदय रूपी गुफा में प्रवेश करके ध्यान करना चाहिए या फिर ध्यान धारणा और समाधि, पूर्ण समाधि यह सब गुफा में संभव है। दैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैगायन्ति यं सामगाः । ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥ ( श्रीमद् भागवतम् 12.13.1 ) अनुवाद:- सूत गोस्वामी ने कहा : ब्रह्मा , वरुण , इन्द्र , रुद्र तथा मरुत्गण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों , पद - क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं , सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं , सिद्ध योगी अपने को समाधि में स्थिर करके और अपने को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता - ऐसे भगवान को मैं सादर नमस्कार करता हूँ । फिर भक्ति योगी बनकर उस गुफा में हम भगवान का ध्यान कर सकते हैं। तो फिर उस गुफा में पूरा एकांत है। एकांत का अर्थ यह भी है कि वहां बस एक आप और दूसरे भगवान, तीसरा कोई नहीं है। आपकी सारी उपाधियों से आप मुक्त हो गए। आत्मा रह गए। उस गुफा में और गुफा में कौन रहते हैं? सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥ ( भगवद्गीता 15.15 ) अनुवाद:- मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ। कृष्ण कहे हैं उस ह्रदय में मैं रहता हूं और कठोपनिषद कहता है, यह शरीर एक वृक्ष है और इस वृक्ष पर दो पक्षी रहते हैं एक आत्मा पक्षी है और दूसरा परमात्मा पक्षी है। यह आत्मा परमात्मा का निवास हमारा यह ह्रदय बन जाता है। हरी हरी। प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति । यं श्यामसुन्दरमचिन्त्यगुणस्वरूपं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ (ब्रम्हसंहिता 5.38) *अनुवाद :* *जिनके नेत्रों में भगवत प्रेम रूपी अंजन लगा हुआ है ऐसे भक्त अपने भक्ति पूर्ण नेत्रों से अपने ह्रदय में सदैव उन श्याम सुंदर का दर्शन करते हैं जो अचिंत्य है तथा समस्त गुणों के स्वरूप है । ऐसे गोविंद जो आदि पुरुष है मैं उनका भजन करता हूं । ऐसा ब्रह्मा भी कहे हैं। हरि हरि। जब उस भक्ति और भाव की अवस्था को भी हम प्राप्त करेंगे। *प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन* ऐसे संत, ऐसे साधु ह्रदय में देखते हैं, किसको? वह श्याम सुंदर का दर्शन करते हैं। हरि हरि। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। जप कहां करना चाहिए? गुफा में करना चाहिए। जहां पर शांति हो या प्रशांति हो वहां जप करना चाहिए। ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ ईशोपनिषद स्तुति अनुवाद:- भगवान् पूर्ण हैं और चूँकि वे पूरी तरह से पूर्ण हैं , अतएव उन से होने वाले सारे उद्भव जैसे कि यह दृष्य जगत , पूर्ण इकाई के रूप में परिपूर्ण हैं । पूर्ण से जो कुछ उत्पन्न होता है , वह भी अपने आप में पूर्ण होता है । चूँकि वे सम्पूर्ण हैं , अतएव उनसे यद्यपि न जाने कितनी पूर्ण इकाइयाँ उद्भूत होती हैं , तो भी वे पूर्ण रहते। हम भी पूर्ण हैं भगवान ने भी सारी व्यवस्था करके रखी है। इसी शरीर में बनी हुई गुफा है। करताल भी यह साथ में आप देख सकते हैं और भी सोचा जा सकता है कि हम पूरी तरह से सुसज्जित है। गुफा में एकांत में ध्यान धारणा करनी है। जप तप करना है। गुफा में प्रवेश करो और वहां भगवान भी है। भगवान ने हमको अकेला नहीं छोड़ा है। भगवान हमारे साथ हैं। भगवान हमारा साथ कभी नहीं छोड़ते। घरवाले छोड़ते रहते हैं। फिर जब मृत्यु होती है तो कोई साथ में आता है? नहीं आता। घरवाली भी घर में रहती है। हम जा रहे है। हमारा राम नाम सत्य हो रहा है। कौन कहां तक जाता है, कौन कहां तक जाता है इसका भी वर्णन है घरवाली वहां तक जाती है और वहां तक जाते है। घाट तक कौन जाता है। एक समय तो सारा साथ छूट जाता है। सब हमको छोड़ देते हैं। लेकिन एक व्यक्तित्व हमको कभी नहीं छोड़ते और वह है परमात्मा भगवान, सब समय । पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्। इह संसारे बहुदुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे ॥21॥ ( शंकराचार्यजी द्वारा रचित भज गोविन्दम् ) अनुवाद:- हे परम पूज्य परमात्मा! मुझे अपनी शरण में ले लो। मैं इस जन्म और मृत्यु के चक्कर से मुक्ति प्राप्त करना चाहता हूँ। मुझे इस संसार रूपी विशाल समुद्र को पार करने की शक्ति दो ईश्वर । यह सब हो रहा है, देहांतर प्राप्ति हो रही है, देहांतर हो रहा है, स्थानांतर हो रहा है, लोकांतर हो रहा है। लेकिन एक तथ्य यह है कि भगवान हमारे साथ सदैव रहते हैं। अब तक पता नहीं था। लेकिन अब पता चल रहा है। अन्य योनियों में पता नहीं चलता, हम मनुष्य बने हैं। यह मनुष्य जीवन दुर्लभ है। *दुर्लभ मानव जन्म सत्संगे* इस दुर्लभ मानव जीवन को हम जब सत्संग में बिताते हैं और जो हम सत्संग में आ जाते हैं तो यह समझाते बुझाते हैं हमको। कपिल भगवान ऐसा कहते हैं। जब सत्संग होता है तो भगवान के वीर्य, शौर्य और सुंदरता की कथाएं होती है और भगवान का परिचय दिया जाता है। हमें इस प्रकार अपने हृदय प्रांगण में भगवान का ध्यान करना चाहिए। सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो भवन्ति हृत्कर्णरसायना: कथा: । तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥ २५ ॥ यह विशेष प्रसंग है। वैसे जब हम संतो को मिलते हैं तो प्रसंग बन ही जाता है और ऐसे साधू संग में क्या होता है? संवाद शुरू होता है। संवाद का विषय क्या होता है? भगवान का वीर्य शौर्य इत्यादि इत्यादि। हरि हरि। आज प्रातः काल वैसे पूरी प्रातः काल भी कहो या जप करते समय हम सभी कारणों के कारण भगवान ही है या फिर भगवान का नाम भी कारण बनता है। सभी कारणों का कारण कौन है? भगवान का नाम है। भगवान ही नाम है। नाम जप हम कर रहे थे तब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में उनका स्मरण आ रहा था इसलिए भी स्मरण आ रहा था क्योंकि हम यह लीला कथा पढ़ी और सुनी थी। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गंभीरा में निवास कर रहे हैं और वहां अपने विप्रलंभ अवस्था या भाव में ही रहा रहते थे। हे राधे व्रजदेवीके च ललिते हे नन्दसूनो कुतः श्रीगोवर्धनकल्पपादपतले कालिन्दीवने कुतः । घोषन्ताविति सर्वतो व्रजपुरे खेदैर्महाविह्वलौ वन्दे रूपसनातनौ रघुयुगौ श्रीजीवगोपालकौ || ८ || कहां हो कहां हो। हे राधे व्रजदेवीके च ललिते हे नन्दसूनो। नंद महाराज के पुत्र कहां है? जैसे षठ गोस्वामी वृंद श्रीकृष्ण की खोज में ऐसा सोचते और वृंदावन में सर्वत्र दौड़ते और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु उसी भाव में जगन्नाथ पुरी में गंभीरा में रहते थे। तब विप्रलंभ अवस्था में वह भी कहां है कहां है कृष्ण, कब मिलेंगे कृष्ण? श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ऐसे सारे दरवाजे और खिड़कियां बंद रखी जाती थी और वहां पर गार्ड भी हुआ करते थे। स्वरूप दामोदर है या रामानंद राय हैं बारी-बारी से वह रखवाली करते थे। उनको भय रहा करता था कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु से यहां से निकल कर कही जा सकते हैं, कृष्ण की खोज में। एक विशेष रात्रि की बात है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गंभीरा से बाहर आ ही गए सफलतापूर्वक। यह सब अचिंत्य बातें हैं और भगवान ही ऐसा कर सकते हैं। जैसे हमारा स्टूडियो पूरा बंद है, ताले भी लगे हैं। लेकिन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु बाहर आ गए। यह विषय तो बड़ा ऊंचा और गहरा है। अचिंत्य और गोपनीय भी है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु समुद्र की ओर दौड़ पड़े और वहां वह जब आते हैं और समुद्र का जल जब देखे। तो समुद्र के जल का रंग नीला होता है। कई सारी बड़ी-बड़ी जो बातें होती है नीली होती है । तो समुद्र का जल का रंग भी नीला होता है । कई सारी बड़ी-बड़ी जो बातें होती हैं वह नीली होती हैं । समुद्र का जल नीला होता है । आकाश कैसा होता है ? नीला होता है । और जो पर्वत पहाड़ है तो वह दूर से देखो तो कैसे दिखते हैं ? नीले दिखते हैं । अंततः सब कुछ काला है हम न्यूयॉर्क में ऐसा पढा एक साइन बोर्ड पर तो वह क्या है ? या काला नीला । भगवान है तो समुद्र के जल का रंग देखकर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने सोचा कि यह मेरे श्याम सुंदर ही है या फिर उनको यह भी स्मरण हुआ होगा कि यमुना मैया की ! यह यमुना का ही जल है, यमुना ही है । मैं वृंदावन पहुंच गया तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु समुद्र में कूद पड़े । अकेले हैं उनको वहां रोकने वाला कोई है नहीं । फिर क्या क्या हुआ होगा ? उनको कोई रोकने नहीं तो उस समय पूरी रात चेतन महाप्रभु समुद्र में रहे और क्या कर रहे थे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ? श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन में पहुंच गए । सचमुच वृंदावन पहुंच गए । वैसे वह सपने की बातें हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वप्न देखें और स्वप्न में पहुंच गए वृंदावन पहुंच गए और राधा कृष्ण गोपी कृष्ण की श्रृंगार माधुर्य लीलाओं का वे दर्शन करने लगे या वे भी प्रवेश कर रहे हैं इन लीलाओं में और यह सब जो चैतन्य महाप्रभु का दर्शन करना है या सब सोच है या विचार है या भाव है यह सब राधा के भाव है । चैतन्य महाप्रभु में जो राधा है "श्रीकृष्ण चैतन्य राधाकृष्ण नही अन्य" तो जगन्नाथपुरी में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु राधा बनके ही रहे । वास्तविक में वे राधारानी है तो यहां पहुंचे हैं वृंदावन में । तो कौन ? पहुंची है वैसे राधारानी पहुंची है और राधा रानी उन सब दृश्य का लीला का दर्शन कर रही है साक्षी बन चुकी है श्री कृष्ण की कई सारी लीलाएं । यह सब चैतन्य चरितामृत के अंत्य लीला में एक दिव्य उन्माद नामक एक अध्याय है उसमें ही सारी बातें कृष्ण दास कविराज गोस्वामी लिखे भी हैं । तो जल क्रीड़ा का वर्णन हो रहा है । जल क्रीड़ा या जल कैली कहते हैं । कैली मतलब क्रीडा, कैली मतलब लीला तो रास क्रीडा भी कुछ कुंज विहार भी हुआ । जय राधा माधव, जय कुन्ज बिहारी जय राधा माधव, जय कुन्ज बिहारी जय गोपी जन बल्लभ, जय गिरधर हरी जय गोपी जन बल्लभ, जय गिरधर हरी ॥ जय राधा माधव...॥ यशोदा नंदन, ब्रज जन रंजन यशोदा नंदन, ब्रज जन रंजन जमुना तीर बन चारि, जय कुन्ज बिहारी ॥ जय राधा माधव...॥ मुरली मनोहर करुणा सागर मुरली मनोहर करुणा सागर जय गोवर्धन हरी, जय कुन्ज बिहारी ॥ जय राधा माधव...॥ तो यह विभिन्न लीलाओं की उपरांत जल क्रीड़ा होती है और इतनी सारी गोपियां है राधा रानी भी है तो क्रीडा के समय जैसे रास क्रीडा में जितनी गोपियां है उतने कृष्ण बनते हैं तो यहां जल कैली जल क्रीड़ा में जितनी गोपियां है उतना कृष्ण बनते हैं । एक गोपी एक कृष्ण खेल रहे हैं पानी में खेल रहे हैं । एक दूसरे के ऊपर जल छिड़का रहे हैं । हंसी मजाक और वह वास्तविक में बहुत खुश और अच्छे समय बिताते हैं । उज्जल खेड़ा के उपरांत कुछ ऐसे किनारे आ जाते हैं और सभी गोपियां उनके समेत राधा रानी उसमें नेत्री है लोकेश से कृष्ण का श्रृंगार करती हैं उसका वर्णन है । स्नान भी हुआ और नए वस्त्र भी पहने हुए हैं । हम ऐसे ही कह देते हैं कृष्ण नए वस्त्र पहने हुए हैं उस में विस्तृत वर्णन है कैसे-कैसे वस्त्र पहने कौन से अलंकार पहने । हरि हरि !! और फिर चंदन लेपन भी हुआ और मुकुट धारण भी कराया मोर मुकुट । एक मुरली भी दे दी और फिर, मुझे लगता है कि यह रात्रि का समय होगा तो भोजन की तैयारी होती है और कृष्ण दास कविराज गोस्वामी बड़े विस्तार से इतने सारे प्रकार का उल्लेख करते हैं । जो कृष्ण को सभी खिलाती हैं उस दिन हम भोग आरती में भक्ति विनोद ठाकुर भी कई सारे व्यंजन का उल्लेख किए हैं लेकिन यहां कृष्ण दास कविराज गोस्वामी अब जो भोजन खिलाया जा रहा है वृंदावन में यह जल क्रीड़ा और क्रीडा के अंत में वहां तो काफी विस्तृत वर्णन किया हुआ है कौन-कौन से आइटम्स कौन कौन से व्यंजन छप्पन भोग या उससे भी अधिक । तो भोजन हुआ तो फिर श्री कृष्ण का जो महाप्रसाद है राधा रानी ग्रहण करती है गोपियां ग्रहण करती है फिर शयन का समय हुआ । राधा और कृष्णा एकी एक ही सैया पर कैसे पोहुडते है या लेट जाते हैं विश्राम कर रहे हैं और फिर और गोपियां भी विश्राम कर रहे हैं अपने अपने स्थान पर ऐसा भी वर्णन है और यह सब लीलाएं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु देख रहे हैं और देखते समय पर वे कहां है ? समुद्र में है । जब भक्तों को पता चला कि, कहां है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ? तो जो जिनकी पहरेदारी थी रात की पहरेदारी जगने की वे जब भी जगह होंगे या सुलाया होगा तो भगवान की योग माया ने उनको सुला दिया और वे जब जग गए तो पता चला कि चैतन्य महाप्रभु नहीं है । सारे श्री कृष्णा चेतन महाप्रभु के अंतरंग परिकर फिर भी दौड़ पड़ते हैं सब 10 दिशाओं में । गौरंग ! गौरंग ! तो बहुत समय तक खोज करते रहे कुछ पता नहीं । उनको कोई संकेत नहीं मिला तो धीरे-धीरे समुद्र की ओर जाते हैं । समुद्र के तट पर एक मछुआरा को उन्होंने देखा और वह उसकी हालत तो, वह तो पागल हो गया था और कुछ डरा हुआ भी था और दौड़ रहा था फिर स्वरूप दामोदर, रामानंद राय इत्यादि जो खोज रहे थे चैतन्य महाप्रभु को । उन्होंने जब देखा यह इस मछुआरे को और उस स्थिति में । ऐ ! इसको रोकने का प्रयास किया । पूछा क्या हुआ ? क्या हुआ ? उसमें होना क्या है सब कुछ हुआ । अब मुझे नहीं पूछना, नहीं बता सकता मैं । तो हुआ यह था कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को वह मछुआरा बहुत भाग्यवान था । चैतन्य महाप्रभु ही उसको प्राप्त हुए जब मछली को पकड़ रहा था अपने जाल फेंक दिया और खींच रहा था तो इतना भारी इतना मोटा मछली और जब दिखने लगा तो, सोने की मछली ! यह तो सोने की मछली है । जब स्पर्श किया अपने नोखा में रखने के लिए तो उसी के साथ तो गया काम से । कांपने लगा और सब रोमांच होने लगा सारे अष्ट विकार उनका प्रदर्शन होने लगा और गला गदगद हो उठा और सब तरफ वह दौड़ रहा है इधर-उधर तो ऐसे । तो यह सब उसने बता ही दिया ऐसा ऐसा हुआ । यह जब सुना तो इन भक्तों को लगा, हां ! वे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही होने चाहिए । तो उन्होंने कहा कि हमको वहां ले चलो । नहीं नहीं दुबारा नहीं जाना । वहां नहीं जा सकता नहीं नहीं मुझे वापस मत वहां मत ले जाओ । वह मछली जो भी है वह तो उसको बहुत समझा बुझा के ले गए और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हवा के या जल के तरंग और झोंके के साथ ऐसे कोणार्क तक पहुंचे थे । कहां जगन्नाथ पुरी और कहां कोणार्क तो रात में बहते बहते उनका शरीर उनका विग्रह कोणार्क तक वहां मिले श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु तो अपने ही जगत में पहुंचे हुए तो उनको कोई बाह्य ज्ञान नहीं था । भक्तों ने जोर-जोर से कीर्तन प्रारंभ किया ... हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ और वैसे जब यह भक्त वहां पहुंचे चैतन्य महाप्रभु के पास तो चैतन्य महाप्रभु तो वृंदावन में थे उस समय और जो भी वे देख रहे थे उसी के साथ कुछ कह भी रहे थे भाव विभोर होके तो उसको सुन भी रहे थे भक्त जो वहां उपस्थित थे । तो बहुत समय के कीर्तन के उपरांत, बाह्य ज्ञान देने का प्रयास चल रहा था तो अंततोगत्वा श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को बाह्य ज्ञान जैसे ही हुआ और तब चैतन्य महाप्रभु बड़े क्रोधित हुए, ऐ ! क्यों मुझे जगाया ? मैं तो या मुझे वंचित किया तुम लोगों ने मैं वृंदावन में था । सब कृष्ण लीला का दर्शन कर रहा था और आपने विघ्न डाल दिया । तो सारे दर्शन को आपने बंद कर दिया । आपने बंद कर दिया दूरदर्शन के दृश्य को जो मैं देख रहा था तो फिर उसी के साथ फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को सभी ले आए या चैतन्य महाप्रभु ही स्वयं कीर्तन करते हुए नृत्य करते हुए गंभीरा पहुंच जाते हैं । इस प्रकार यह एक रात की एक बात है । इसको हमने संक्षेप में कहा । तो इस बात का इस लीला का लीला के स्रोत भी यह हरे कृष्ण महामंत्र ही है जब हम जप करते हैं तो यह जप यह हरे कृष्ण हरे कृष्ण हमको स्मरण दिलाता है । कुछ लीलाओं का स्मरण दिलाता है । जो पहले कभी हमने पढ़ी सुनी लीला है या वैसे जीव तो जानता है जीव तो भगवान को जानता है जीत तो भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला से परिचित है जीव जानता है कृष्ण को । बस भूल गया । माया-मुग्ध जीवेर नाहि स्वतः कृष्ण-ज्ञान । जीवेरे कृपाय कैला कृष्ण वेद-पुराण ॥ ( चैतन्य चरितामृत मध्यलीला 20.122 ) अनुवाद:- बद्धजीव अपने खुद के प्रयत्न से अपनी कृष्णभावना को जाग्रत नहीं कर सकता । किन्तु भगवान् कृष्ण ने अहैतुकी कृपावश वैदिक साहित्य तथा इसके पूरक पुराणों का सूजन किया । माया में मुग्ध या माया भुला देती है और फिर हम जब सुनते पढ़ते हैं तो पुनः जीव को यादें आ जाती है और यह हरे कृष्णा महामंत्र का जब हम कीर्तन जप करते हैं यदि हमें पुनः स्मरण दिलाता है । चेतो - दर्पण - मार्जनं भव - महा - दावाग्नि - निर्वापणं श्रेयः -कैरव - चन्द्रिका - वितरणं विद्या - वधू - जीवनम् । आनन्दाम्बुधि - वर्धनं प्रति - पदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्म - स्नपनं परं विजयते श्री - कृष्ण - सङ्कीर्तनम् ॥१२ ॥ ( चैतन्य चरितामृत अंत्यलीला 20.12 ) अनुवाद:- भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम के संकीर्तन की परम विजय हो, जो हृदय रूपी दर्पण को स्वच्छ बना सकता है और भवसागररूपी प्रज्वलित अग्नि के दुःखों का शमन कर सकता है । यह संकीर्तन उस वर्धमान चन्द्रमा के समान है, जो समस्त जीवों के लिए सौभाग्य रूपी श्वेत कमल का वितरण करता है । यह समस्त विद्या का जीवन है । कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन दिव्य जीवन के आनन्दमय सागर विस्तार करता है । यह सबों को शीतलता प्रदान करता है और मनुष्य को प्रति पग पर पूर्ण अमृत का आस्वादन करने में समर्थ बनाता है । होता है । धूल निकल गई जो आच्छादित करती है । जीव के कृष्ण भावना को तो फिर "श्रेयः -कैरव - चन्द्रिका - वितरणं विद्या - वधू - जीवनम्" फिर विद्या, वधू का जीवन है कौन है ? हरि नाम । हरि नाम है विद्या बंधु का जीवन "विद्या - वधू - जीवनम्" । यह हरे कृष्ण महामंत्र का जप, कीर्तन, ध्यान का भी यह फल है कि हमें स्मरण होता है कि हमें स्मरण दिलाता है यह हरिनाम भगवान का भगवान के लीलाओं का भी । हरि हरि !! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !! ॥ हरे कृष्ण ॥

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