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*जप चर्चा* *पंढरपुर धाम से* *9 अक्टूबर 2021* हरे कृष्ण!!! आज इस जप कॉन्फ्रेंस में 880 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! क्या आप तैयार हो? गौड़ीय वैष्णव? हरि! हरि! *भज गौराङ्ग कह गौराङ्गलह गौराङ्गेर नामे रे। ये जन गौराङ्ग भजेसेइ अमार प्राण रे॥* *गौराङ्ग बोलिय दुऽबहु तुलियानचिय नचिय बेदाओ रे॥1॥* *गौराङ्ग भजिले गौराङ्ग जपिले होय दुखेर अबसान रे॥2॥* *भज गौराङ्ग कह गौराङ्ग लह गौराङ्गेर नाम रे। ये जन गौराङ्ग भजे सेइ अमार प्राण रे.. भज गौरांग, गौरांग को भजो, कह गौराङ्ग ,गौराङ्ग का नाम लो।* गौरांग गौरांग जैसे *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।* यह गौरांग का नाम है। *पृथिवीते आछे यत नगरादि ग्राम।सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।।* ( चैतन्य भागवत अन्त्य खंड ४.१.२६) अर्थ:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गांव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा। उन्होंने कहा कि मेरे नाम का प्रचार होगा भज गौराङ्ग कह गौराङ्ग लह गौराङ्गेर नाम रे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण यह नाम लो, भज गौरांग कह गौराङ्ग वैसे हम लोग अलग से भी कहते ही रहते हैं गौरांग! नित्यानंद! नित्यानंद! गौरांग! नित्यानंद! गौरांग! आप भूल गए हो। हरि! हरि! साथ ही साथ इस गीत में कहा है *ये जन गौराङ्ग भजे सेइ अमार प्राण रे।।* जो जन, लोग अथवा जो भक्त गौरांग को भजते हैं अथवा गौरांग का नाम लेते हैं वह मेरे प्राण हैं। वे मुझे अपने प्राणों से भी प्रिय हैं। हरि! हरि! गौरांग को भी भजना है और गौर भक्तों का भी भजन करना है। विशेष रूप से हमें गौर भक्तों का भजन कीर्तन, स्मरण करना चाहिए जो कि गौरांग के स्मरण से कुछ अलग या भिन्न नहीं है। गौरांग का स्मरण करो या फिर गौर भक्तों का स्मरण करो एक ही बात है। वैसे गौरांग का स्मरण आपको गौर भक्तों का स्मरण दिलाएगा और गौर भक्तों का स्मरण करोगे तो गौरांग का स्मरण जरूर होगा। हरि! हरि! हम सोच रहे थे कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के अंग उपांग पार्षद.. हर एक गौर भक्त या एक गौर पार्षद ... *कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्रपार्षदम्। यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैर्यजन्ति हि सुमेधसः।।* ( श्रीमद भागवतम ११.५.३२) कलयुग में बुद्धिमान व्यक्ति ईश्वर के उस अवतार की पूजा करने के लिए सामूहिक कीर्तन संकीर्तन करते हैं जो निरंतर कृष्ण के नाम का गायन करता है यद्यपि उसका वर्ण श्यामल कृष्ण नहीं है किंतु वह साक्षात कृष्ण है वह अपने विश्वासपात्र साथियों की संगत में रहता है। वैसे कुछ दिनों में हम एक तिरोभाव तिथि मनाएंगे। वह तिथि रघुनाथ दास गोस्वामी की होगी। रघुनाथ दास गोस्वामी तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय! कार्तिक प्रारंभ होने से पहले वह तिथि आती है लेकिन कल मैं रघुनाथ दास गोस्वामी के संबंध में कुछ पढ़ और सुन रहा था तो सोचा कि क्यों देरी करें। आज ही उनके विषय में कुछ कहते हैं, रघुनाथ दास गोस्वामी को याद करते हैं। रघुनाथ दास गोस्वामी तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय! रघुनाथ दास गोस्वामी ज्ञान और वैराग्य की मूर्ति थे और वे भक्तिभाव की मूर्ति तो थे ही। विशेष रुप से जहां तक वैराग्य की बाते हैं तो उनका वैराग्य तो अतुलनीय/ अनुपम रहा। रघुनाथ दास गोस्वामी बंगाल में सप्तग्राम नाम के एक गांव में एक जमींदार के पुत्र रूप में जन्मे थे। हरि! हरि! बचपन में ही उनको नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का सङ्ग प्राप्त हुआ। उस समय वे छोटे ही थे। उसी सप्तग्राम में नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर आकर अपना भजन कर रहे थे। संभावना है कि रघुनाथ दास गोस्वामी के पिताश्री ने ही उनको आमंत्रित किया था। बालक रघुनाथ दास वहां पहुंचते जहां पर नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर अपना जप कर रहे थे। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर जैसे साधु का सङ्ग रघुनाथ दास गोस्वामी को प्राप्त हुआ। उसी के साथ उनमें यह दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित हुआ अर्थात ज्ञान उनके हृदय प्रांगण में उदित होने लगा। *विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः | रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ||* ( श्रीमद भगवतगीता २.५९) अनुवाद:- देहधारी जीव इन्द्रियभोग से भले ही निवृत्त हो जाय पर उसमें इन्द्रियभोगों की इच्छा बनी रहती है | लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसे कार्यों को बन्द करने पर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है | वे ऊंचा स्वाद या उच्च विचार का भी अनुभव करने लगे। इसी के साथ जब हम ऊंचे स्वाद का आस्वादन करते हैं तब जो नीच अथवा जो तुच्छ बातें होती हैं, उनमें हमारा वैराग्य उत्पन्न होता है। धीरे-धीरे वह ज्ञानवान और वैराग्य वान भी बन रहे थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु एक समय शांतिपुर में थे। रघुनाथ दास गोस्वामी वहां पर पहुंचे, उसी समय में वे हरे कृष्ण आंदोलन को ज्वाइन करना चाहते थे किंतु श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उनको प्रेरित किया, 'जाओ घर लौटो, यह समय नहीं है। *कृष्णेर संसार कर छाडि’ अनाचार। जीवे दया, कृष्ण-नाम सर्व धर्म-सार॥4॥* अर्थ:- संपूर्ण अनुचित आचरण को त्याग कर, कृष्ण से संबधित अपने कर्तव्यों को सम्पन्न कीजिए। सभी जीवों के प्रति दया करने के लिए कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण सभी धर्मों का सार है। ” अनाचार छोड़कर कृष्ण के लिए संसार करो। जाओ। बेचारे रघुनाथ घर वापस लौट गए। घर क्या उनका महल ही था। उनके पिता जी बड़े ही धनी एक बड़े जमींदार थे। नौका भरकर इनके पास सोने के सिक्के थे। वे काग़जी धनराशि नहीं अपितु वास्तविक सोने के सिक्के गिना करते थे। उनके पिताश्री मजूमदार करोड़पति थे, धनी भी थे और साथ में दानी भी थे। वैसे इनका दान चैतन्य महाप्रभु के पिता श्री जगन्नाथ मिश्र तक पहुंच जाता था। सारे बंगाल भर के भक्त, आचार्य, ब्राह्मण इनको दान दक्षिणा दिया करते थे। रघुनाथ दास गोस्वामी घर लौट आए लेकिन उनका मन घर में बिल्कुल नहीं था। घरवाले तो चाहते थे कि बालक इस उम्र में हरे कृष्ण वाला ना बने, संन्यास न ले। घरवाले सोचते थे कि रूटीन चलता रहे, बालक का विवाह तो होना ही चाहिए, यह होना चाहिए, वह होना चाहिए। वे कहते थे कि हम बालक के बालकों को देखना चाहेंगे। रघुनाथ दास गोस्वामी तो अवसर देख रहे थे कि वे कब पुनः घर छोड़ सकते हैं। तब तक श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी में पहुंच चुके थे और जगन्नाथपुरी में ही रह रहे थे। रघुनाथ दास गोस्वामी ने कई सारे प्रयास किए कि वह घर छोड़कर जगन्नाथ पुरी चले जाए। वे अब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरण चिन्हों का आश्रय चाहते थे। वे महाप्रभु का सानिध्य चाहते थे लेकिन घर वाले छोड़ नहीं रहे थे। उनके घर वालों ने कई गार्ड्स भी रखे थे, देखो, ध्यान दो, यह घर छोड़कर पलायन ना करें। रघुनाथ दास गोस्वामी कई बार घर छोड़ कर गए थे और कई बार चौकीदार/ गार्ड्स उनको पकड़ कर वापस लाए थे। हरि! हरि! उन्होंने उनका विवाह भी कर ही दिया अब उनकी एक सुंदर पत्नी भी थी और धन दौलत का कोई अभाव नहीं था लेकिन रघुनाथ दास गोस्वामी को उनमें कोई भी रुचि नहीं थी, ना कामनी में, ना ही कांचन में। कामिनी और कांचन इस संसार में दो बड़े आकर्षण होते हैं। सुंदर स्त्री और धन दौलत, संपदा यह दोनों ही बहुत बड़ी प्रचुर मात्रा में थे लेकिन रघुनाथ दास गोस्वामी को इनमें बिल्कुल रुचि नहीं थी। हरि! हरि! एक समय आया जब वह नित्यानंद प्रभु को मिलने आए। श्रीचैतन्य महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु को कहा कि बंगाल जाओ, बंगाल में जाकर प्रचार करो। बंगाल में प्रचार की जिम्मेदारी चैतन्य महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु को दे दी। नित्यानंद प्रभु अब पानिहाटी में अपने परिकरों के साथ पहुंचे थे। रघुनाथ दास भी वहां पहुंच गए। (अभी मैं इतने विस्तार से तो नहीं बता पाऊंगा) नित्यानंद प्रभु अपने कुछ परिकरों के साथ गंगा के तट पर पानिहाटी में थे। वे द्वादश गोपालों व अन्यों के साथ बैठे हुए थे। रघुनाथ दास गोस्वामी भी वहां आए और वे भी बैठे हुए थे। किसी ने परिचय दिया कि नित्यानंद प्रभु, रघुनाथ आए हैं, रघुनाथ आया है। तब नित्यानंद प्रभु ने पूछा- कहां है? तब उन्होंने बताया कि वह पीछे बैठा है। तब नित्यानंद प्रभु प्रसन्न नहीं हुए और बोले कि पीछे क्यों बैठा है? क्यों छिपा हुआ है? मैं इसको दंड दूंगा। तब नित्यानंद प्रभु आगे बढ़े और अपना चरण कमल रघुनाथ के सर पर रख दिया। वे रघुनाथ को दंड दे रहे थे, वैसे यह दंड है या वरदान है। मैं उसको दंडित करूंगा, मैं उसे मारूँगा। वे एक अन्य दंड भी साथ में देने वाले थे, वे बोले कि इसे मेरे परिकरों को दही और चिड़ा खिलाना चाहिए, यही इसकी सजा है। रघुनाथ दास तैयार हुए, वहां दही चिड़ा महोत्सव संपन्न हुआ। जिसका विस्तृत वर्णन चैतन्य चरितामृत में भी है। यह दही चिड़ा महोत्सव धीरे धीरे फैल गया। सारे गांव के नागरिक उस महोत्सव में आए, अन्य सारे गांव के लोग भी आए। रघुनाथ दास गोस्वामी ने सबको दही चिडा और दूध चिड़ा खिलाया। दही चिड़ा, दूध चिड़ा महोत्सव में चैतन्य महाप्रभु भी आ गए, नित्यानंद प्रभु ने उनको भी आमंत्रित किया। इस प्रकार सर्वप्रथम रघुनाथ दास गोस्वामी के इस सेवा से नित्यानंद प्रभु ही प्रसन्न हो गए। नित्यानंद प्रभु का आशीर्वाद भी प्राप्त हुआ। नित्यानंद प्रभु जो कि आदिगुरु हैं। *ब्रजेन्द्रनन्दन येइ, शचीसुत हइल सेइ, बलराम हइल निताइ। दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल, ता’र साक्षी जगाइ-माधाइ॥3॥* ( वैष्णव गीत- नरोत्तम दास ठाकुर) अर्थ:- जो व्रजेंद्रनन्दन कृष्ण हैं, वे ही कलियुग में शचीमाता के पुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) रूप में प्रकट हुए और बलराम ही श्रीनित्यानंद बन गये। उन्होंने हरिनाम के द्वारा दीन-हीन, पतितों का उद्धार किया। जगाई तथा मधाई नामक महान पापी इस बात के प्रमाण हैं। बलराम हइल निताइ। वही बलराम, नित्यानंद बने हैं। नित्यानंद प्रभु की कृपा रघुनाथ दास गोस्वामी के ऊपर हुई। अब इसका परिणाम अथवा फल यह निकलने वाला है कि उनको चैतन्य महाप्रभु के चरण प्राप्त होंगे। रघुनाथ दास गोस्वामी वहां से घर लौटे तो सही किन्तु उनके जगन्नाथपुरी जाने के प्रयास तो जारी रहे, उनके प्रयास कई बार असफल भी रहे लेकिन एक दिन उनको सफलता मिल ही गई। रघुनाथ दास गोस्वामी जगन्नाथ पुरी धाम पहुंच गए और चैतन्य महाप्रभु को प्राप्त कर लिए। इस समय श्रीचैतन्य महाप्रभु ने रघुनाथ दास गोस्वामी का घर लौटने की बात नहीं की। इस समय उन्होंने स्वरूप दामोदर जो कि चैतन्य महाप्रभु के अंतरंग परिकर अथवा निज सचिव के रूप उनकी सेवा करते हैं और वे स्वरूप दामोदर जो ललिता सखी के अवतार भी थे। उन स्वरूप दामोदर से चैतन्य महाप्रभु ने कहा हे स्वरूप, रघुनाथ दास गोस्वामी को संभालो, उनकी देखभाल करो, उनको प्रशिक्षण दो और वैसा ही हुआ। रघुनाथ दास गोस्वामी का एक नया नाम ही बन गया स्वरूपे रघु। वे थे तो रघुनाथ लेकिन अब कौन से रघुनाथ थे - 'स्वरूपे रघु' अर्थात स्वरूप गोस्वामी के रघुनाथ। इस प्रकार स्वरूप दामोदर के साथ रघुनाथ दास गोस्वामी का घनिष्ठ संबंध स्थापित हुआ। रघुनाथ दास जब वृंदावन पहुंचेंगे तो रघुनाथ दास गोस्वामी भी कहलाएंगे, अभी तो रघुनाथ दास नाम ही चल रहा है। हरि! हरि! यह नाम मुझे भी अच्छा लगता हैं क्योंकि एक समय मेरे माता-पिता ने भी मेरा नाम रघुनाथ ही रखा था। तत्पश्चात प्रभुपाद ने मुझे लोकनाथ नाम दिया और फिर लोकनाथ स्वामी भी नाम दिया। रघुनाथ का नाम अभी तक रघुनाथ ही चल रहा है, या रघुनाथ दास ही चल रहा है परंतु भविष्य में वे रघुनाथ दास गोस्वामी कहलाएंगे। रघुनाथ दास गोस्वामी, चैतन्य महाप्रभु के साथ में ही रहा करते थे। वह चैतन्य महाप्रभु के परिकर, संगी साथी बन गए थे। स्वरूप दामोदर जिन विभिन्न लीलाओं का दर्शन करते थे/ देखते थे और जिन लीलाओं में रघुनाथ दास गोस्वामी भी साक्षी बन कर रहते थे, वे उन लीलाओं को डायरी में लिखते थे। जिसे मराठी में हम दैदिन्नी भी कहते हैं। वे जिस जिस लीला को देखते थे अथवा सुनते भी थे अर्थात वे जिस जिस लीला में भी नहीं होते थे, वे उसको औरों से सुनते थे, उन्होंने इसका सारा वर्णन अपनी डायरी में करके रखा था जो कि भविष्य में काम आने वाला है। रघुनाथ दास गोस्वामी का वैराग्य देखो, वे सिंह द्वार पर खड़े हो जाते थे। जो भी कोई उनको भिक्षा या दान देता, उसी से अपना गुजारा चलाते थे लेकिन ऐसा करना अब उनको उचित नहीं लग रहा था। वे सोच रहे थे कि जब कोई द्वार की ओर आता है कि वह वहीं से आगे मंदिर में जाने के लिए बढ़ता है और मैं वहां खड़ा सोचता हूं कि यह जरूर मुझे कुछ देने वाला है, यह मुझे कुछ जरूर देगा, कुछ दान दक्षिणा देगा लेकिन जब नहीं देगा तब शायद मुझे अच्छा भी नहीं लगेगा। तब मैं शायद उसके संबंध में कुछ भला बुरा सोच लूंगा। यह सही नहीं है, यह देगा अथवा इसने नहीं दिया, इसको देना चाहिए था। यह दिहाड़ी वाला है या यह अमीर लगता है इसको देना चाहिए था। एक महिला भी जा रही है उसके पास पर्स भी है तो इसके पास कुछ धनराशि भी होनी चाहिए। वह उसे मुझे जरूर देगी लेकिन नहीं दिया। ...' ऐसे विचारों को टालने के लिए रघुनाथ दास गोस्वामी ने वहां द्वार पर खड़े होकर भिक्षा को ग्रहण करना भी छोड़ दिया। अब कैसे गुजारा होगा। हरि! हरि! देखिए! यह जमींदार के बेटे हैं, कितना धन दौलत है इनके पास। आपने सुना ही नौका भरकर इनके घर में सोने के सिक्के थे जिनकी गिनती करते करते हुए वे थक जाते या पसीने पसीने हो जाते थे, वे रघुनाथ भिक्षा मांग रहे थे। हरि !हरि! भिक्षा मांगना भी उन्होंने छोड़ दिया। तब वह क्या खा रहे थे? जगन्नाथ का प्रसाद जो झूठन है या बचा हुआ है अथवा कुछ खराब हुआ है, जिसे लोग फैंक देते थे या मंदिर के व्यवस्थापक भी कूड़ा करकट के डिब्बे में या वैसे फेंक देते थे, जिसे गाय, कुत्ते आकर उसको खाते हैं। रघुनाथ दास गोस्वामी वहां जाने लगे। वे कुत्ते या गायें उस प्रसाद के अवशेष को रघुनाथ के साथ बाँटती थी। जो भी रुखा सूखा या मिट्टी यह, वह होता था, चाहे कितने दिन बासी हो या दुर्गंध अभी आ रही होती थी, रघुनाथ दास गोस्वामी उसी को इकट्ठा करते, उसी को थोड़ा धो लेते, साफ कर लेते और उसको बड़े आनंद से उसका पान करते। उसका आस्वादन करते, ग्रहण करते। *महाप्रसादे गोविन्दे, नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे ।स्वल्पपुण्यवतां राजन् विश्वासो नैव जायते* 1॥[महाभारत] शरीर अविद्या जाल, जडेन्द्रिय ताहे काल, जीवे फेले विषय-सागरे। तारमध्ये जिह्वा अति, लोभमय सुदुर्मति, ताके जेता कठिन संसारे॥2॥ कृष्ण बड दयामय, करिबारे जिह्वा जय, स्वप्रसाद-अन्न दिलो भाई। सेइ अन्नामृत पाओ, राधाकृष्ण-गुण गाओ, प्रेमे डाक चैतन्य-निताई॥3॥ अर्थ (1) गोविन्द के महाप्रसाद, नाम तथा वैष्णव-भक्तों में स्वल्प पुण्यवालों को विश्वास नहीं होता। [महाभारत] (2) शरीर अविद्या का जाल है, जडेन्द्रियाँ जीव की कट्टर शत्रु हैं क्योंकि वे जीव को भौतिक विषयों के भोग के इस सागर में फेंक देती हैं। इन इन्द्रियों में जिह्वा अत्यंत लोभी तथा दुर्मति है, संसार में इसको जीत पान बहुत कठिन है। (3) भगवान् कृष्ण बड़े दयालु हैं और उन्होंने जिह्वा को जीतने हेतु अपना प्रसादन्नन्न दिया है। अब कृपया उस अमृतमय प्रसाद को ग्रहण करो, श्रीश्रीराधाकृष्ण का गुणगान करो तथा प्रेम से चैतन्य निताई! पुकारो। उसी को अमृत मान कर और वैसे अमृत है भी, एक समय चैतन्य महाप्रभु जानना चाह रहे थे कि आजकल रघुनाथ कहां भोजन करता है। कहां पर प्रसाद खाता है? तब किसी ने बताया कि रघुनाथ गोस्वामी मंदिर के पीछे जाते हैं, जहां पर जो भी कुछ कूड़ा करकट के डिब्बे में या वहां पड़ा हुआ प्रसाद होता है, उसी को वे साफ करके खाते हैं। चैतन्य महाप्रभु वहां गए और देखा कि रघुनाथ दास प्रसाद को साफ कर रहा है और वही बगल में बैठ कर महाप्रसादे गोविंदे नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे। स्वल्पपुण्यवतां राजन् विश्वासो नैव जायते.. कर रहा है। वैसे कई लोगों का विश्वास नहीं होता। स्वल्पपुण्यवतां राजन् विश्वासो नैव जायते, जिनकी पुण्याई कम है अर्थात जिनके खजाने में ज़्यादा पुण्याई कमाई नहीं है। उनका क्या होता है? उनका महाप्रसाद में विश्वास नहीं होता वे महाप्रसाद की महिमा को भलीभांति नहीं जानते। महाप्रसादे गोविंदे नाम-ब्रह्मणि वैष्णवे। उनका नाम में विश्वास नहीं होता और वैष्णवे में विश्वास नही होता। वैसे 4 नाम लिए हैं महाप्रसादे अर्थात महाप्रसाद में, गोविंद -गोविंद में, नाम-ब्रह्मणि या नाम ब्रह्म है या नाद ब्रह्म और वैष्णव में विश्वास नहीं होता है। किनका विश्वास नहीं होता। जो स्वल्पपुण्यवतां राजन् है। रघुनाथ दास गोस्वामी बड़े ही पुण्यात्मा थे इसीलिए उनका इतना विश्वास था, श्रद्धा थी महाप्रसाद में। वह नहीं सोचते थे यह कुछ खराब है या.. अन्न परब्रह्म.. बस जगन्नाथ का प्रसाद है, भगवान का प्रसाद है। यह परब्रह्म स्वयं भगवान है, रघुनाथ दास गोस्वामी जब प्रसाद को ग्रहण कर रहे थे तो चैतन्य महाप्रभु ने देखा, चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े, "मुझे भी तो दो, चोर कहीं का, अकेले-अकेले खा रहे हो।" रघुनाथ दास गोस्वामी झट से उठे और दौड़ने लगे। वे नहीं चाहते थे कि ऐसा प्रसाद... महाप्रभु खाए... महाप्रभु को ऐसा प्रसाद नहीं खाना चाहिए। नहीं ...नहीं.. नहीं.. यह आपके लिए उचित नहीं होगा। यह मेरे लिए ठीक है लेकिन आपके लिए नहीं। ऐसा सोचते हुए रघुनाथ दास गोस्वामी दौड़ रहे थे, दूर जाने का प्रयास कर रहे थे किंतु चैतन्य महाप्रभु ने रघुनाथ दास गोस्वामी को पकड़ ही लिया और थोड़ा प्रसाद ले कर ग्रहण किया नाचने लगे। हरि बोल! हरि बोल! हरिबोल! कई सारी लीलाएँ है, जिसमें रघुनाथ दास भी रहे। रघुनाथ दास गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के साथ कई वर्षो तक जगन्नाथपुरी में रहे और डायरी लिखते रहे। तब दुर्देव से वह दिन भी आ गया जब चैतन्य महाप्रभु नहीं रहे। चैतन्य महाप्रभु अंतर्धान हुए अर्थात उन्होंने टोटा गोपीनाथ के विग्रह में प्रवेश कर लिया। फिर उसी के साथ क्या कहना, पूरा नगर या सारा विश्व कहो, गौड़ीय वैष्णव जगत व्याकुल हो गया। *युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत् सर्व गोविन्द-विरहेण मे 7॥* ( शिक्षाष्टकम) अर्थ:- हे गोविन्द! आपके विरह में मुझे एक निमेष काल (पलक झपकने तक का समय) एक युग के बराबर प्रतीत हो रहा है। नेत्रों से मूसलाधार वर्षा के समान निरन्तर अश्रु प्रवाह हो रहा है तथा आपके विरह में मुझे समस्त जगत शून्य ही दीख पड़ता है। पहले तो वे कुछ विरह की व्यथा का अनुभव किया करते थे कि चैतन्य महाप्रभु कहीं बहुत दूर हैं, मैं यहां सप्तग्राम में हूं। चैतन्य महाप्रभु दूर जगन्नाथपुरी में हैं। वे विरह की व्यथा अनुभव किया ही करते थे किंतु अब तो चैतन्य महाप्रभु अब तो और भी दूर चले गए। जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी ... जगन्नाथ स्वामी नयन पथ गामी नहीं रहे, उनके नयनों का पथ का.. अब दर्शन नहीं होगा, अंग संग नहीं होगा। स्वधाम उपगते .. भगवान अपने धाम लौटे तो फिर कितना विरह। पृथ्वी पर है, धरातल पर है लीला खेल रहे हैं हम वहां नहीं हैं तो भी विरह का अनुभव होता ही रहता था लेकिन अब जब चैतन्य महाप्रभु रहे ही नहीं अपनी इस प्रकट लीला को समापन कर दिया तो क्या कहना। तत्पश्चात रघुनाथ दास गोस्वामी ने स्वरूप दामोदर का आश्रय लिया। उनके आश्रय में तो थे ही लेकिन अब चैतन्य महाप्रभु नहीं रहे तो अधिक निकटता उनकी बनी रही परंतु कुछ समय बीता तो स्वरूप दामोदर भी नहीं रहे उनका तिरोभाव हुआ। फिर वह गदाधर पंडित के पास पहुंचे, उनका अंग सङ्ग प्राप्त किया।गदाधर पंडित उनको सांत्वना देते रहे। पहले स्वरूप दामोदर दे रहे थे, तत्पश्चात गदाधर पंडित.. श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के अंतर्ध्यान होने के उपरांत उनके कई सारे पार्षद, परिकर प्रस्थान होते रहे। प्रतिदिन कहो या प्रति सप्ताह। अब यह भी नहीं रहे, वह भी नहीं, वह भी नहीं रहे, यह भी नहीं रहे, नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर तो श्रीचैतन्य महाप्रभु के चलने के पहले ही वे अपने प्राण त्याग चुके थे क्योंकि उन्होंने महाप्रभु के समक्ष प्रस्ताव रखा ही था- 'आप नहीं रहोगे, मैं रहूंगा पीछे? वह बिरह की व्यथा मुझसे सही नहीं जाएगी। अच्छा है कि पहले मुझे भेजो। मैं उस परिस्थिति में मैं नहीं रहना चाहता, आपकी प्रकट लीला का समापन हुआ और मैं बच गया, छूट गया तब..." श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने वैसी व्यवस्था की थी। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर का भी प्रस्थान हुआ । इस प्रकार सारे वैष्णव प्रस्थान कर रहे थे। रघुनाथ दास गोस्वामी सोच रहे थे कि मैं भी जीवित नहीं रहना चाहता, उन्होंने वृन्दावन के लिए प्रस्थान किया कि मैं, वहां जाकर गोवर्धन पहाड़ पर चढ़कर खाई में कूद जाऊंगा और अपनी जान लूंगा। अब रघुनाथ दास गोस्वामी वृंदावन पहुंच गए और रूप सनातन इत्यादि गोस्वामियों से उनका मिलन हुआ। वैसे रघुनाथ क्या सोच रहा है, उनका आत्महत्या का विचार है रूप और सनातन गोस्वामी समझ गए और उन्हें उसको खूब समझाया बुझाया तत्पश्चात उन्होंने वह विचार छोड़ दिया और रघुनाथ दास गोस्वामी वृंदावन में कुछ 40-41 साल रहे। राधा कुंड के तट पर वे रह रहे थे। उस समय का जो काल और परिस्थिति का जो स्मरण होता है, षड् गोस्वामी वृन्द अधिकतर राधा कुंड के तट पर रहा करते थे । कृष्ण दास कविराज गोस्वामी, लोकनाथ गोस्वामी, भूगर्भ गोस्वामी थे और गोवर्धन परिक्रमा हुआ करती थी। कई सारे कार्यकलाप तो होते रहे। रघुनाथ दास गोस्वामी जिन्होंने चैतन्य महाप्रभु की जगन्नाथपुरी में लीला देखी थी और उसको लिख कर भी रखा था। रघुनाथ दास गोस्वामी प्रतिदिन राधा कुंड के तट पर भक्तों को गौर लीला सुनाते थे, जो लीलाएं उन्होंने देखी थी जिसके वे साक्षी थे उसको वह सुनाते थे। उन श्रोताओं में कृष्णदास गोस्वामी भी हुआ करते थे। कृष्णदास गोस्वामी और रघुनाथ गोस्वामी की कुटिया बिल्कुल अगल बगल में ही थी। भविष्य में वैष्णवों ने कृष्णदास कविराज गोस्वामी को विशेष निवेदन किया कि "आप चैतन्य चरितामृत की रचना करो।" राधा मदन मोहन ने भी उन्हें आशीर्वाद दिया और वे तैयार हुए। यहां राधा कुंड के तट पर ही चैतन्य चरितामृत लिखा। यह रघुनाथ दास गोस्वामी के संग से सम्भव हो पाया। यह 40 साल की बात है। षड् गोस्वामी वृंद भी धीरे धीरे वृद्ध हो रहे थे, उनके तिरोभाव होते रहे, अब यह गोस्वामी नहीं रहे तब रघुनाथ दास गोस्वामी कुछ जो अन्न प्रसाद लिया करते थे वह भी छोड़ दिया जब और गोस्वामी नहीं रहे जैसे सनातन गोस्वामी नहीं रहे तो वे अब कुछ कंदमूल फल ही खा कर ही गुजारा करते थे। कुछ दिन हो अर्थात कुछ समय बीत गया यह वैष्णव नहीं रहे। अब केवल दूध व छाछ ही पी रहे थे। यह विरह की व्यथा उनको इतना परेशान कर रही थी। पहले तो चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में नही रहे ,उनके विरह की व्यथा तो थी ही । वहां जगन्नाथपुरी में कई सारे वैष्णव प्रस्थान कर रहे थे और यहां वृंदावन में भी राधा कुंड के तट पर वे यही अनुभव करते रहे। एक समय ऐसा भी आया जब वे दिन में छोटे से दोने में थोड़ा सा छाछ लेते थे। कोई दोना भर के थोड़ा सा छाछ लाता था और वह उसी को ग्रहण करते थे। एक दिन कोई उनको बड़ा दोना भरकर छाछ दे रहे था तब उन्होंने एक से पूछा कि इतना छाछ? सो मच बटर्मिल्क? यह इतना बड़ा दोना कहां से आया? इतने पत्ते कहां से लिए दोना बनाने के लिए? उनको बताया गया कि यह सखी स्थली है ना, गिरिराज की पूर्व दिशा में एक सखी स्थली नाम का स्थान है वहां के कदम्ब के पेड़ के पत्तों से दोना बनाया है तो यह सुनते ही रघुनाथ दास ने दोना फेंक दिया व बड़े क्रोधित हुए। वहां के पत्ते का दोना बनाकर मुझे छाछ पिला रहे हो? वह सखी स्थली तो चंद्रावली का स्थान है। वह अपॉजिट पार्टी है। रघुनाथ दास गोस्वामी रति मंजरी हैं। श्रीकृष्ण की नित्य लीला में वह रति मंजरी हैं। रति मंजरी, राधा रानी की सखी है, राधा रानी की पार्टी के रघुनाथ है। जब उन्होंने सुना कि चंद्रावली की सखी स्थली के पत्ते से दोना बनाकर मुझे यह छाछ पिला रहे हैं तो वह बहुत क्रोधित हुए। इससे उनका भाव स्पष्ट हुआ राइट विंग गोपी, लेफ्ट विंग गोपी। राधा रानी के पक्ष के और चंद्रावली के पक्ष के, रघुनाथ दास गोस्वामी, राधा रानी के पक्ष में थे उन्होंने बर्दाश्त नहीं किया कि वहां के पत्ते के दोने में मुझे छाछ पिला रहे हो। इस प्रकार रघुनाथ दास गोस्वामी का वैराग्य, ज्ञान, भक्ति.. एक समय तो बस यह *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे*।। इसी से उनका भोजन चल रहा था, इसी से जी रहे थे। विरह की व्यथा विरह की ज्वाला अधिक अधिक प्रज्वलित हो ही रही थी। उस मन और भक्ति भाव के स्थिति में रघुनाथ दास गोस्वामी ने पहले भी कुछ ग्रंथ लिखे थे और फिर उन्होंने मन: शिक्षा नाम ग्रंथ की रचना की। गोवर्धन की गौरव गाथा इस ग्रंथ में है। 'दान केली कौमुदी' रघुनाथ दास गोस्वामी की रचना है, अब जीवन का कुछ अंतिम समय भी आ चुका है। उन्होंने सारा खान पान छोड़ दिया है और हरि नाम जप चल रहा है और विरह की व्यथा से मन व्यथित है। ऐसे में उन्होंने एक और ग्रंथ लिखा- 'विलाप कुसुमांजलि' विलाप तो हो ही रहा था, व्यथित तो हो ही रहे थे। अपने सारे भाव अपना सारा विलाप इस विलाप कुसुमांजलि में लिखा। यह उनका अंतिम ग्रंथ था जो उन्होंने लिखा। मैं सोचता हूं कि अक्टूबर की 17 तारीख कार्तिक मास के कुछ दिन पहले ही उनका तिरोभाव हुआ और उनकी समाधि राधा कुंड के तट पर ही है। वहां अखंड कीर्तन होता है। वह राधा गोपी नाथ का मंदिर भी है, रघुनाथ दास गोस्वामी ने जप कीर्तन करते हुए आखिरी सांस ली। वो नाम *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे* उन्होंने इस नाम का कीर्तन किया।। राधा कुंड के तट पर उनकी समाधि पर वहां अखंड जप होता है हरि! हरि! हम रघुनाथ गोस्वामी तिरोभाव तिथि महोत्सव एडवांस में मना रहे हैं और उनको याद कर रहे हैं। ठीक है। हरे कृष्ण!!!

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