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जप चर्चा, इस्कान कैम्प पुना से, 11 अक्टुबर 2021 आज जप चर्चा में 888 भक्त उपस्थित हैं। हरि हरि! गौरांग! आप सभी बड़े उत्साही लग रहे हो।अरे शशि माताजी!अजय गौरांग तुम दिल्ली पहुंचे या माताजी आ गई उदयपुर?आप सब का स्वागत हैं।जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद...गाइये!जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद...जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद। जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद...जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद। हरि हरि!जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद।जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद। इस मे भगवान भी आ गए और भक्त भी आ गए या गुरु भी आ गए और गौरांग भी आ गए और यह चैतन्य महाप्रभु का विशेष स्मरण हैं। जय-जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद।ऐसी प्रार्थना हैं,जब चैतन्य चरितामृत का कुछ पाठ करना होता हैं तो हम ऐसा गाण करते हैं। गीता भागवत के पाठ के प्रारंभ में हम" ऊ नमो भगवते वासुदेवाय" कहते हैं।गौडीय वैष्णवो के कई ग्रंथ हैं,चाहे चैतन्य चरितामृत कहो या चैतन्य भागवत कहो या चैतन्य मंगल कहो,कई ग्रंथ हैं,कई शास्त्र हैं,जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के नाम, रुप,गुण, लीला, धाम का वर्णन करते हैं।उन शास्त्रों के अध्ययन के प्रारंभ में या पाठ के प्रारंभ में या पाठन के प्रारंभ मे हम प्राथनाएं करते हैं,हम पढ़ते हैं या पढाते हैं और सुनाते भी हैं और विशेष रुप से जब हम पढ़ाते हैं फिर हम... जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद। जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद। यह इसलिए भी कहते हैं कि चैतन्य चरित्रमृतकार मतलब चैतन्य चरितामृत कि रचना करने वाले कृष्णदास कविराज गोस्वामी जी ने यह हर अध्याय के प्रारंभ में कई बार लिखा हैं। अध्याय को खोलिये।तो शुरुआत करते हैं। जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद। जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद। और एक और श्लोक भी लिखते हैं, वैसे एक संस्कृत के श्लोक कि रचना करते हैं,हर अध्याय कि शुरुआत एक विशेष श्लोक से होती हैं,वह श्लोक उस अध्याय के भाव या विषय वस्तु का निर्देश करता हैं, हर एक अध्याय कि शुरुआत मे एक श्लोक का प्रथम उल्लेख होता हैं और फिर जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद। जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद। कृष्णदास कविदास गोस्वामी ने भी हर अध्याय के प्रारंभ में पहले श्लोक के आगे वाला दुसरा श्लोक यही लिखा हैं,तो हम भी चैतन्य महाप्रभु की हर कथा के प्रारंभ में जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानंद, जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद कहते हैं, तो चैतन्य चरित्रामृत के प्रारंभ में चैतन्य चरित्रामृत आदि लीला प्रथम अध्याय या प्रथम अध्याय के 14 श्लोक जो हैं, आपकी जानकारी के लिए बता रहा हूं फॉर युवर इंफॉर्मेशन,लोग एफ व्हाय आइ लिखते हैं,क्या इंफॉर्मेशन हैं? यह जो 14 श्लोक हैं, इन श्लोकों को मंगलाचरण कहा हैं। चैतन्य चरितामृत का मंगलाचरण।आदि लीला के प्रथम अध्याय के 14 श्लोक मंगलाचरण हैं।हरि हरि! से मड्ग़लाचरण हय त्रि-विध प्रकार। वस्तु- निर्देश, आशीर्वाद, नमस्कार।। ( चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.22) अनुवाद: - मंगलाचरण (आवाहन) मे तीन विधियाँ निहित है- लक्ष्य- वस्तु को परिभाषित करना, आशीर्वाद देना तथा नमस्कार करना। कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिखते हैं कि मंगलाचरण क्या होता है? मंगल आचरण। मंगलाचरण विच्छेद करेंगे तो मंगल- आचरण, मंगलाचरण। मंगलाचरण में क्या वस्तु निर्देश हैं?इस ग्रंथ में ग्रंथ की विषय वस्तु क्या हैं,इसका उल्लेख मंगलाचरण में होता हैं। वस्तु निर्देश और आशीर्वाद। मंगलाचरण में आशीर्वाद दिए जाते हैं।किसे? श्रोताओं को या जो भी पठण करते हैं। जो पढ़ने वाले हैं चैतन्य चरितामृत या जो भी ग्रंथ मंगलाचरण मे आशीर्वाद होते हैं और मंगलाचरण में होता हैं, नमस्कार,भगवान को नमस्कार, भगवान के भक्तों को नमस्कार, नमस्कार ही नमस्कार।आध्यात्मिक जीवन में नमस्कार का महत्वपूर्ण स्थान हैं, “मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||” (श्रीमद्भगवद्गीता 18.65) अनुवाद: -सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो | "मां नमस्कुरु" भगवान भी कहते हैं,मुझे नमस्कार करो! "कृष्ण जिनका नाम हैं, गोकुल जिनका धाम हैं, ऐसे श्री भगवान को बारंबार प्रणाम हैं"। हरि हरि! श्रीमद्भागवत के अंतिम श्लोक में यह दो बातें करने के लिए कहा हैं, एक तो भगवान का नाम लो और दूसरी बात हैं भगवान को नमस्कार करो! भगवान का नाम लो! "नामसङ्कीर्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम् । प्रणामो दुःखशमनस्तं नमामि हरिं परम् ॥" (श्रीमद्भागवतम् 12.13.23) अनुवाद:-मैं उन भगवान् हरि को सादर नमस्कार करता हूँ जिनके पवित्र नामों का सामूहिक कीर्तन सारे पापों को नष्ट करता है और जिनको नमस्कार करने से सारे भौतिक कष्टों से छुटकारा मिल जाता है। भगवान का नाम लो!हरि नाम क्या करेगा? 'सर्वपापप्रणाशनम्' आपके सारे पापों को नष्ट करेगा, ये हरि का नाम और हरि मे कोई अंतर नही,क्योकि हरि का नाम, हरिनाम का आश्रय लिया मतलब भगवान का आश्रय लिया “सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज | अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||” (श्रीमद्भगवद्गीता 18.66) अनुवाद: -समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत । 'मामेकं शरणं व्रज' मेरी शरण में आओ तो मैं क्या करुंगा? "अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः”मैं तुम्हे सभी पापों से मुक्त कर दूंगा!क्योकि यह भगवान का वचन हैं या संकल्प हैं तो यह पूरा हो जाता हैं यह बात श्रीमद्भागवत के अंतिम श्लोक में लिखी हैं, वहा पर एक तो नाम स्मरण कि बात की हैं और "प्रणामो" प्रणाम करने के बात कही हैं।श्रीमद्भागवत का समापन या सार ही हैं,भगवान का नाम और भगवान को प्रणाम और यह प्रामाणिक बात हैं। मंगलाचरण में नमस्कार,आशीर्वाद और वस्तु निर्देश का उल्लेख होता हैं, हुआ हैं। यह आदि लीला के प्रथम अध्याय के 14 श्लोक मंगलाचरण हैं।मंगलाचरण महत्वपूर्ण होता हैं और क्यों महत्वपूर्ण होता हैं, उसमें निर्देश का उल्लेख होता हैं, विषय वस्तु का, क्या विषय हैं और नमस्कार और आशीर्वाद भी,इन्हीं 14 मंगलाचरण के वचनों में हैं।श्लोक 15 मे मदनमोहन या राधा मदन मोहन,दूसरे राधा गोविंददेव और तीसरे राधा गोपीनाथ इन को नमस्कार किया हैं। इनका स्मरण किया हैं। इन को नमस्कार किया हैं। इन 14 श्लोकों में यह तीन श्लोक नमस्कार के हैं और कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिखते हैं। एइ तिन ठाकुर गौडी़याके करियाछेन आत्मसात्। ए तिरेर चरण वन्दों, तिने मोर नाथ।। (चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.18) अनुवाद: - वृंदावन के इन तीनों के विग्रहों (मदनमोहन,गोविंद तथा गोपीनाथ) ने गौड़ीय वैष्णवों ( चैतन्य महाप्रभु के अनुयायियों) के ह्रदय एवं आत्मा को निमग्न कर दिया हैं। मैं उनके चरणकमलों की पूजा करता हूंँ, क्योंकि वह मेरे हृदय के स्वामी हैं। यह तीन जो भगवान के विग्रह हैं, उनके चरणों कि मैं वंदना करता हूं और यह गौड़ीय वैष्णवों के इष्टदेव हैं। मदनमोहन, गोविंददेव, और गोपीनाथ "तिने मोर नाथ" यह तीन मेरे नाथ हैं। और एक विशेष, सभी विशेष ही हैं,यह मंगलाचरण के वचन किंतु उस में भी एक विशेष मंत्र या श्लोक हैं। अनर्पित-चरीं चिरात्करुणयावतीर्ण: कलौ समर्पयितुमुन्नतोज्ज्वल-रसां स्व-भक्ति-श्रियम्। हरि: पुरट-सुन्दर-द्युति-कदम्ब- सन्दीपित: सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु व: शची- नन्दन।। (श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.4) अनुवाद: -श्रीमती शची देवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके हृदय कि गहराई में दिव्य रूप से विराजमान हों। पिघले सोने कि आभा से दीप्त, वे कलयुग में अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी सेवा के अत्यंत उत्कृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को, जिसे इसके पूर्व व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया था, प्रदान करने के लिए अवतीर्ण हुए हैं। ये आशीर्वाद के वचन हैं, मंगलाचरण का ये आशीर्वाद का वचन हैं। क्या कह रहे हैं कृष्णदास कविराज गोस्वामी "अनर्पित-चरीं चिरात्करुणयावतीर्ण: कलौ"श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कि बात हो रही हैं।"सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु व: शची- नन्दन।।" आप सभी के ह्रदय प्रांगण में शचीनंदन प्रगट हो!,स्पृरित हो!आपको प्रेरणा दे, स्पृर्ति दे, वे गौरांग जो आपके हृदय प्रांगण में विराजमान हैं।"सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु व: शची- नन्दन।।" "जय शचीनंदन जय शचीनंदन जय शचीनंदन गौर हरि।" यही आशीर्वाद हैं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आपको स्फूर्ति दे! और नाम भी तो चैतन्य हैं ही, तो हम जड़ बन गए हैं, हम बद्ध बन गए हैं,तो जड़ के विपरीत होता हैं चैतन्य।एक होता हैं जड़ और दुसरा होता है चैतन्य और इस संसार में तीसरी चीज़ तो होती ही नहीं हैं। इस जड़ जगत में हम भी जड़ बन चुके हैं या प्राणहीन बन चुके हैं। हमें चैतन्य कि आवश्यकता हैं, चैतन्य...!चैतन्य...!और वे चैतन्य हैं निमाई। वैसे निमाई ने जब संन्यास लिया, तो संन्यास समारोह में उनका नामकरण हुआ ,नाम क्या दिया गया? तुम्हारा नाम हैं श्रीकृष्ण चैतन्य।यह नाम चैतन्य महाप्रभु के संबंध में बहुत कुछ कहता हैं।यह श्री कृष्ण चैतन्य क्या करते हैं,"स्फुरतु व: शची- नन्दन" श्रीकृष्ण चैतन्य आप सबको स्पृर्ति दे, प्रेरणा दे, या जीवन दे! "यस्याखिलामीवहभि:सुमड्ग़लै:- वाचो विमिश्रा गुणकर्मजन्मभि:। प्राणन्ति शुम्भन्ति पुनन्ति वै जगत् यास्तव्दिरक्ता: शवशोभना मता:।। (श्रीमद्भागवत 10.38.12) अनुवाद: - भगवान के गुणों, कर्मो तथा अवतारों से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं तथा उत्पन्न समस्त सौभाग्य एवं इन तीनों का वर्णन करने वाले शब्द संसार को जीवन दान देते हैं, उसे सुशोभित रखते हैं और शुद्ध करते हैं। दूसरी ओर उनकी महिमा से भी विहीन शब्द शव कि सजावट करने जैसे होते हैं। भागवत ने कहा है भगवान क्या देते हैं? प्राण देते हैं या जब हम भगवान कि कथा सुनते हैं या भगवान के नाम का उच्चारण करते हैं तब हम कृष्ण भावनाभावित कार्य को अपनाते हैं या नवधा भक्ति को अपनाते हैं, भक्तियोगी बनते हैं।उसी के साथ हमको प्राण प्राप्त होते हैं या हमारे प्राणनाथ प्राप्त होते हैं। हमारे प्राण प्राप्त होते हैं राधाकृष्ण प्राण मोर युगल-किशोर। जीवने मरणे गति आर नाहि मोर॥1।। (नरोत्तमदास ठाकुर रचीत गीत राधाकृष्ण प्राण मोर) अनुवाद:-युगलकिशोर श्री श्री राधा कृष्ण ही मेरे प्राण हैं। जीवन-मरण में उनके अतिरिक्त मेरी अन्य कोई गति नहीं है। राधाकृष्ण हमारे प्राण हैं,नहीं तो इस बद्ध अवस्था में हम तो निष्प्राण हैं। हरि हरि! हम मुर्दे हैं। हम में जान नहीं हैं, तो जान में जान आती हैं। प्रांणंति ऐसा हो ऐसी प्रार्थना कर रहे हैं कृष्णदास कविदास गोस्वामी। "सदा हृदय-कन्दरे" कन्दरे मतलब गुफा। पहाडो में गुफाएं होती हैं, कन्दराएं होती हैं, झरने भी होते हैं,बहुत कुछ होता हैं। हन्तायमद्रिरबला हरिदासवर्यो यद्रामकृष्णचरणस्परशप्रमोदः । मानं तनोति सहगोगणयोस्तयोर्यत् पानीयसूयवसकन्दरकन्दमूलैः ॥ (श्रीमद्भागवत 10.21.18) अनुवाद:-यह गोवर्धन पर्वत समस्त भक्तों में सर्वश्रेष्ठ है । सखियो , यह पर्वत कृष्ण तथा बलराम के साथ ही साथ उनकी गौवों , बछड़ों तथा ग्वालबालों की सभी प्रकार की आवश्यकताओं - पीने का पानी , अति मुलायम घास , गुफाएँ , फल , फूल तथा तरकारियों की पूर्ति करता है । इस तरह यह पर्वत भगवान् का आदर करता है । कृष्ण तथा बलराम के चरणकमलों का स्पर्श पाकर गोवर्धन पर्वत अत्यन्त हर्षित प्रतीत होता हैं। गिरिराज भी कृष्ण-बलराम को देते हैं,गिरिराज कृष्ण बलराम कि सेवा करते हैं।वैसे ही वहा कंदराएं ,गुफाएं हैं,वे भी सेवा करती हैं। शीतलता का अनुभव कराती हैं, बाहर गरमा गरम मामला चल रहा हैं, तो कृष्ण अपने मित्रों के साथ गुफा में प्रवेश करते हैं,जैसे वहा ए. सी. है,एयर कंडीशन गुफा में विश्राम करते हैं। "कन्दरकन्दमूलैः" और कंदमूल, फल,फुल भी ये गिरिराज देते हैं, कंदर की बात चल रही हैं, हम गुफा में रहते हैं, कल भी कह रहे थें।उस गुफा का नाम हैं,हृदय। हृदय नामक गुफा मे हम रहते हैं,मतलब हम आत्मा हैं, आत्मा रहता हैं और साथ में परमात्मा भी रहते हैं। ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। (श्रीमद्भगवद्गीता 18.61) अनुवाद: - हे अर्जुन! परमेश्वर प्रत्येक जीव के ह्रदय में स्थित है और भौतिक शक्ति से निर्मित यन्त्र में सवार कि भांँति बैठे समस्त जीवों को अपनी माया से घुमा (भरमा) रहे हैं। हे अर्जुन! ईश्वर सभी जीवो के हृदय रूपी देश मे रहते हैं,मैं रहता हूंँ? या ईश्वर रहते हैं,कृष्ण ऐसी बात कर रहे हैं मानो और कोई ईश्वर हैं। और कौन सा देश है? हृत्-देशे, हृदय नामक देश में भगवान रहते हैं। कृष्णदास कविराज का यह आशिर्वचन हैं, वे शचीनंदन स्फुरतु व: शची- नन्दन यह तो अंतिम पंक्ति हुई,उस "अनर्पित-चरीं चिरात्करुणयावतीर्ण: कलौ" वचन कि शुरुआत में कह रहे हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दया दिखाई और इस कलयुग में वे प्रकट हुए। कैसे और क्यों, क्या कारण हुआ? उनके प्राकट्य के पीछे क्या कारण है? कोई कारण होता हैं, तो फिर परिणाम होता हैं, कार्य होता हैं। तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए यह परिणाम या कार्य हुआ, इसका कारण क्या है? "करुणया अवतीर्ण: कलौ" उनकी जो करुणा हैं, चैतन्य महाप्रभु करुणा कि मूर्ति हैं या श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु नमो महावदान्याय कृष्णप्रेमप्रदाय ते । कृष्णाय कृष्णचैतन्य - नाम्ने गौरत्विषे नमः ।। अनुवाद:-हे परम करुणामय व दानी अवतार ! आप स्वयं कृष्ण हैं , जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं । आपने श्रीमती राधारानी का गौर वर्ण धारणकिया है और आप कृष्ण के विशुद्ध प्रेम का सर्वत्र वितरण कर रहे हैं । हम आपको सादर नमन करते हैं । दयावान हैं, यह वैशिष्ट्य हैं,यह महाप्रभु का एक विशेष गुण हैं, जब गोलोक में भगवान विराजमान रहते हैं गोलोक वृंदावन में, तो वहां क्या हुआ? श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के हृदय प्रांगण में हम बध्द जीवों कि हालत देख कर दया उमड़ आई, । इसीलिए शास्त्रों में कहा हैं- गोलोकं च परित्यजय लोकानामं तरान कारनात मारकंडय पुरान श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने गोलोक को क्यों त्यागा? गोलोकं च परित्यजय लोकानामं तरान कारनात हम जो यहां दुख: पा रहे हैं,समझो परेशान हैं और भगवान यह जानते ही हैं और उन्होने ही ऐसा संसार बनाया हैं और इसको नाम भी दिया हैं, कैसा संसार हैं? दुखालयम।कैसा संसार हैं? अशाश्वत्म:। तो जो भी यहां हैं वह कैदी हैं, इसको कारगार भी कहां हैं, तो जो कैदी होते हैं वो सुखी नहीं रह सकते हैं।जब वे स्वतंत्र होंगे कारगार से छुट्टी मिलेगी वो मुक्त होंगे तो अपना सामान्य जीवन जी सकते हैं।तो कारगार का जीवन दुखमय और कष्टमय हैं, तो भगवान यह जानते ही हैं,वैसे भगवान तो सदैव दयावान रहते ही हैं, लेकिन जब कलयुग आया तो परेशानियां और भी बढ़ गई। भोग विलास अधिक होने लगे, तो भोग के कारण रोग भी बढ़ने लगे। कोरोनावायरस आ गया। मौसम में बदलाव आने लगे। हमने पृथ्वी का भी तापमान बढ़ा दिया,जिसकी गोद में हम रहते हैं। वह गोद ही हमने गरमा गरम कर दी। तो पृथ्वी माता का तापमान बढ़ रहा हैं, जिसे ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं। यह पृथ्वी गोल हैं और हमारी माता भी हैं। पृथ्वी को बुखार हो गया हैं और यह हमने किया हैं,उसका तापमान बहुत बढ़ गया और यह हमने किया हैं। हमारे कारण हमारी माता परेशान हैं और अगर माता परेशान हो तो फिर बच्चों का क्या होगा? यह सब देखकर चैतन्य महाप्रभु तो "करूणया अवतीर्ण कलौ" अपनी खुद की करुणा की वजह से ही वह अवतीर्ण हुए या करुणावश चैतन्य महाप्रभु वशीभूत हुए।उनके अवतरण का और कोई पर्याय था ही नहीं वह स्वयं ही करुणा की मूर्ति हैं।उस करुणा की वजह से ही चैतन्य महाप्रभु अवतीर्ण हुए।कृष्ण दास कविराज गोस्वामी लिखते हैं कि क्यों, ऐसा क्या कारण हुआ कि चैतन्य महाप्रभु अवतीर्ण हुए,"करूणया अवतीर्ण कलौ"और प्रकट होकर क्या करा उन्होने "अर्पित-चरीं चिरात्" Cc adi 1.4 *अर्पित-चरीं चिरात्करुणयावतीर्ण: कलौ* *समर्पयितुमुन्नतोज्ज्वल-रसां स्व-भक्ति-श्रियम्।* *हरि: पुरट-सुन्दर-द्युति-कदम्ब- सन्दीपित:* *सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु व: शची- नन्दन।।* अनुवाद: -श्रीमती शची देवी के पुत्र के नाम से विख्यात वे महाप्रभु आपके हृदय कि गहराई में दिव्य रूप से विराजमान हों। पिघले सोने कि आभा से दीप्त, वे कलयुग में अपनी अहैतुकी कृपा से अपनी सेवा के अत्यंत उत्कृष्ट तथा दीप्त आध्यात्मिक रस के ज्ञान को, जिसे इसके पूर्व व अन्य किसी अवतार ने प्रदान नहीं किया था, प्रदान करने के लिए अवतीर्ण हुए हैं। महाप्रभु ने ऐसी दान या भेंट दी जो अन्यअर्पित थी यानी कि पहले कभी भी नहीं दी गई थी,ऐसी बात नहीं है कि पहले कभी नहीं दी गई थी बहुत समय पहले दी गई थी उसे पुनः देने के लिए बहुत समय बाद पुनः प्रदान करने के लिए, "अर्पित-चरीं चिरात्" चिरात मतलब बहुत समय बाद प्रदान करने के लिए, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कुछ विशेष भेंट देने के लिए प्रकट हुए तो यह चरीं चिरात् मतलब कितनी काल अवधि के बाद प्रकट हुए। यह तो संभवामि युगे युगे होता हैं।यानी हर युग में भगवान का अवतार होता है किंतु जो अवतारी होते हैं जो कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं,कृष्ण भी अवतारी हैं और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी अवतारी हैं क्योंकि दोनों एक ही हैं। यह अवतारी कलपे कलपे प्रकट होते हैं, युगे युगे नहीं। संभवामि कलपे कलपे, एक कल्प में एक बार श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट होते हैं,कल्प अर्थात ब्रह्मा का 1 दिन। 1 दिन में हजार महायुग होते हैं और उन हजार महा युगों में से एक महायुग के कलियुग में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट होते हैं,पहले कृष्ण द्वापर युग के अंत में प्रकट होते हैं और कलयुग के प्रारंभ में वह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में पुनः प्रकट होते हैं।संभवामि कलपे कलपे होता हैं।यह बात प्रसिद्ध हैं और शास्त्र में कही गई हैं।श्रील प्रभुपाद ने अपने तात्पर्य में इसका पुन: पुन: उल्लेख किया हैं। ब्रह्मा के 1 दिन में भगवान आते हैं। ब्रह्मा के 1 दिन में एक बार कृष्ण प्रकट होते हैं और कलियुग के प्रारंभ में वह श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में पुनः प्रकट होते हैं।श्री कृष्ण प्रकट हुए और फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु। तो यह हुआ कि नहीं चरीं चिरात् बहुत लंबे अंतराल के बाद श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हो रहे हैं। इस प्रकार यह दुर्लभ हैं। चैतन्य महाप्रभु का प्राकट्य दुर्लभ हैं। इसी की ओर वह हमारा ध्यान आकर्षित कर रहे हैं या समझा रहे हैं, कौन समझा रहे हैं?कृष्ण दास कविराज गोस्वामी। *अर्पित-चरीं चिरात्करुणयावतीर्ण: कलौ* और प्रकट हुए तो मतलब कुछ देने के लिए आए। तो क्या दिया चैतन्य महाप्रभु ने?किस उद्देश्य से वह आए? क्या कारण हुआ? यह भी समझाया हैं। लेकिन आए हैं तो क्या देने के लिए आए हैं,"उन्नत उज्जवल रस।उन्होंने उन्नत उज्जवल रस दिया।हमारा जीवन नीरस होता हैं,उसमें कोई रस नहीं होता तो इस नीरसता के स्थान पर हमारे जीवन को रसमय बनाने के लिए चैतन्य महाप्रभु आए, रस युक्त बनाने हेतु आए और रस दिया तो कौन सा रस दे रहे हैं,उन्नत उज्जवल रसां जो सर्वोत्कृष्ट हैं, सर्वोपरि हैं और वह रस माधुर्य रस हैं। जिसके अंतर्गत ओर सारे रस आ जाते हैं।शांत रस,दास्य रस,सख्य रस,वात्सलय रस और श्रृंगार और माधुर्य रस।उन्होंने सभी रसों को दिया।लेकिन प्रधानय रहा माधुर्य रस का।उसको उन्नत उज्जवल रसाम् कहां हैं। तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने "रमया केचिद उपासना वृज वधु वरगाभिर या कलपिता" (चैतन्य मंजूषा) चैतन्य महाप्रभु का यह मत हैं कि वैसे भक्ति करो जैसे गोपियों ने भक्ति करी या राधा ने भक्ति करी।जैसी राधा भक्ति करती हैं। स्वयं भगवान ही आए और वैसे भक्ति करके दिखाई। ऐसी भक्ति करके हम सब को उत्साहित किया, प्रेरित किया कि हम भी वैसे ही भक्ति करें।तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान भक्त बने हैं।कौन से भक्त बने हैं?राधा बने हैं।अगर कोई सर्वोपरि भक्त हैं, तो वह राधा रानी हैं और फिर *हरि: पुरट-सुन्दर-द्युति-कदम्ब- सन्दीपित:* *सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु व: शची- नन्दन।।* कृष्ण दास कविराज गोस्वामी उस आशीर्वचन में यह भी कह रहे हैं,पुरट मतलब सोना। उनकी कांति इतनी सुंदर हैं, जैसे सोने की कांति होती हैं। जैसे सोना चमकता हैं और कैसा सोना?जब सोने को तपाते हैं।तप्त कांचन,कांचन मतलब भी सोना।कैसा सोना?मॉल्टन गोल्ड। जब सोने को तपाते हैं तो उसकी चमक और भी बढ़ जाती है,ऐसे गोरसुंदर की जय। ऐसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु व:। ऐसा आशीर्वाद कृष्ण दास कविराज गोस्वामी ने हमे दिया हैं, हम सबको आशीर्वाद दे रहे हैं। क्या आप स्वीकार करना चाहोगे? हमारी परंपरा भी आशीर्वाद दे रही हैं।आप को आशीर्वाद दे रहे हैं,परंपरा की ओर से, श्रील प्रभुपाद की ओर से कृष्ण दास कविराज गोस्वामी की ओर से,कृपया स्वीकार कीजीए। कृपया मतलब आप कृपालु बनिए।तभी आप स्वीकार करोगे। ठीक हैं मुझे रुकना होगा। हरे कृष्णा

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