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जप चर्चा, 8 अक्टूबर 2021, पंढरपुर धाम. 880 स्थानों से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। कल कि इतने ही भक्त हैं। जय! धन्यवाद आप सब की उपस्थिति के लिए। और आपने किया हुआ संकल्प, कम से कम 16 माला का जप मैं करूंगा, यह संकल्प लिया है। उसको आप पूरा कर रहे हो। इस कॉन्फ्रेंस में आप जप कर रहे हो मतलब, मुझे विश्वास हो जाता है कि, आप जप करते होंगे। बाकी अगर आप दृष्टि से परे हो, सामने नहीं हो, उसका थोड़ा व्यक्ति विचार भी नहीं करता। वैसे आप जप कर रहे हो। अपने संकल्प को पूरा कर रहे हो। इसको सिद्ध करके दिखा रहे हो। आप दिखाते हो इस कॉन्फ्रेंस में। आप जब मेरे साथ भी और संसार भर के वैष्णव के साथ भी जप करते हो। और इसको भगवान तो देखते ही है। और फिर हम भी साक्षी हो जाते हैं और कई सारे भक्त वे भी साक्षी हो जाते हैं। फिर रेकमेंडेशन होगा। आपका भगवत धाम जाना, नहीं जाना, होगा कि नहीं यह जप पर निर्भर करता है। और कुछ करें ना करें, करना ही होता है बहुत कुछ, लेकिन जप तो करना ही है। हर्रेरनामेव केवलम, 64 प्रकार की भक्ति आपने नहीं की है, तो कहां है, नवविधा भक्ती नो प्रकार की भक्ति तो करो। नवविधा भक्ति भी नहीं कर पाए तो फिर 5 जो साधन है वह करो। और अब तक आपको पता होना चाहिए कि पांच महासाधन कौन से हैं। इन सबका भक्तिरसामृत सिंधु में वर्णन हुआ है। और फिर पांच भी नहीं होते हैं तो फिर, हर्रेरनामेव केवलम, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। आज आपने हमारे गुरुकुल के बालको को भी जप करते हुए देखा। कौमारम आचरेत प्राग्यो बड़े भाग्यवान है वह बालक और उनके पालक भी बुद्धिमान होने चाहिए। अपने बच्चों को बचपन से ही गुरुकुल में शिक्षा दे रहे हैं। और अभी बालक जैसे प्रल्हाद महाराज ने सिखाया था गुरुकुल में, अपने मित्रों को कीर्तन और नृत्य करने के लिए श्रवणं कीर्तनम विष्णु स्मरणम यह जो नवविधाभक्ति है इसको कहने नवविधा भक्ती है। प्रल्हाद महाराज भी जो अपने मित्रों से करवाते थे। कौमारम आचरेत प्राग्यो मित्रों यही समय है। कौमारम आचरेत प्राग्यो वह भी बड़ा सुंदर दृश्य था। बालकों को जप करते हुए किसी ने देखा तो लिखा था कमेंट में, लग रहा है कि, चार कुमार जप कर रहे हैं। चतुषकुमार, उनकी वेशभूषा और। हरि हरि, और अर्चविग्रह के दर्शन पद्ममाली प्रभु को भी आभार देना है तो, संचालन कर रहे हैं। आपके अर्चविग्रह के दर्शन के लिए अच्छे से व्यवस्था संचालन कर रहे हैं। विग्रह के नाम के साथ आपका भी नाम, आपके नगर का नाम, आपके देश का नाम। कई सारे थाईलैंड के विग्रहों का दर्शन किए। बर्मा के सभी अर्चविग्रह का दर्शन किए। कन्याकुमारी से लेकर जम्मू कश्मीर तक और द्वारिका से लेकर जगन्नाथपुरी तक कई सारे नगरोके और ग्रामों के भी और सभी अर्चविग्रहों का दर्शन पद्मामाली प्रभु कराएं। वह कैसे दर्शन करा दे अगर आप दर्शन नहीं भेजते। तो जिन्होंने दर्शन भेजा उन सब के भी आभारी हैं। और यह आभार केवल उनके ही मानने नहीं चाहिए जिन्होंने केवल दर्शन किए, आप सबको भी आभार मानने चाहिए। जो जो जुड़े हुए थे, उनका योगदान रहा घर के अर्चविग्रहोके दर्शन कराने में, उनका योगदान रहा। इनमे कुछ मंदिरों के अर्चविग्रहो के भी दर्शन थे। जैसे सिडनी के मंदिर के अर्चविग्रहो का दर्शन हमने किया। आपने भी किया। नाम याद है, सिडनी के मंदिर के सभी अर्चविग्रहो का नाम याद है, प्रभुपादने ही रखा है राधा गोपीनाथ। उनका जब मैंने दर्शन किया, उस दर्शन के तुरंत बाद हुआ वैसे शुभांगी और डॉ श्यामसुंदर प्रभुजी के घर के अर्चविग्रहो का दर्शन के तुरंत बाद उनके सुपुत्र धीरप्रशांत प्रभु जो ऑस्ट्रेलिया में बैठे हैं। उन्होंने भी उनके अर्चविग्रहो का दर्शन कराया। एक के बाद एक ऐसे भगवान की व्यवस्था और किसी की व्यवस्था लेकिन यह क्रम भी अच्छा रहा। सभी अर्चविग्रहो का मैं दर्शन कर रहा था। राधा गोपीनाथ बड़े सुंदर दर्शन रहे। हरि हरि, राधा गोपीनाथ जो है राधा के या गोपियों के नाथ। चित्त आकर्षक, हरि हमारा चित्त तो हर लेते हैं अपने सौंदर्य से। इसीलिए उनको चित्तहरि भी कहते हैं। इसीलिए जब राधा गोपीनाथ का दर्शन में कर रहा था तो, मुझे याद आया। तुरंत इस्कॉन के पहले अर्चविग्रह का जो मैंने दर्शन किया जीवन में। हरे कृष्ण फेस्टिवल आप सबको याद है, होना चाहिए। क्रॉस मैदान 1971 हरे कृष्ण फेस्टिवल पंडाल में मैं गया था। उस समय मंच पर अल्टर बना हुआ था और उस अल्टर पर जो विग्रह है वह राधा गोपीनाथ थे। तो यह पहले अर्चविग्रह है जिनका मैंने दर्शन किया। इस्कॉन के अर्चविग्रह या प्रभुपाद द्वारा स्थापित प्राणप्रतिष्ठितअर्चविग्रह जिन अर्चविग्रह को 1971 फेस्टिवल के तुरंत बाद 1971 मई महीने की बात है। श्रील प्रभुपाद राधा गोपीनाथ की जो विग्रह है अल्टर में थे मंच पर क्रॉस मैदान फेस्टिवल में। उन विग्रहों को श्रील प्रभुपाद अपने साथ ले गए। उन्होंने प्रवास किया। प्रभुपाद अर्चविग्रह को लेकर मलेशिया गए थे। मुझे अच्छे से पता नहीं है वहां दर्शन कराया था कि नहीं। किया भी होगा कोल्लम पूर में कुछ लोगों ने किया होगा। उसके तुरंत बाद यह अर्चविग्रह को सीधे सिडनी ऑस्ट्रेलिया ले गए और उन्होंने वहां वैसे प्राणप्रतिष्ठा की राधा गोपीनाथ की। और उस समय ऑस्ट्रेलिया में हरे कृष्णा। आंदोलन नया नया शुरू हुआ था। और वहां के भक्त भी नए ही थे। कुछ सालों से जुड़े थे इस्कॉन से तो श्रील प्रभुपाद ने उसमें से कुछ भक्तों को ब्राह्मण दीक्षा भी दी। अभी अभी म्लेच्छ थे। चांडाल थे और क्या क्या थे कुछ महीने पहले, कुछ साल पहले। और प्रभुपाद ने उनको ब्राह्मण दीक्षा दी। ऐसे उनमें गुण विकसित हो रहे थे। और फिर प्रभुपाद में उन भक्तों को दे दिया राधा गोपीनाथ को। यहां ले लो राधा गोपीनाथ और संभालो उनकी सेवा करो। और उस समय श्रील प्रभुपाद ने प्रार्थना भी की थी, ऐसे हम लीलामृत में वगैरह पढ़ते हैं या सुनते भी हैं कि, मैं आपको सौंप रहा हूं ऑस्ट्रेलिया की इन ने भक्तों को, आप को संभालेंगे। यह मैं प्रार्थना करता हूं कि, उनको आप ही कुछ बुद्धि दे। शक्ति दे। सामर्थ्य दे ताकि वह आपकी सेवा कर सकते हैं। मैं प्रार्थना करता हूं क्योंकि, वह नए हैं राधा गोपीनाथ की। इस प्रकार वैसे भगवान प्रकट होते रहे सारे संसार भर में। और 100 से अधिक मंदिरों का भी निर्माण श्रील प्रभुपाद ने किया और उसमे विग्रह की स्थापना कि अपने जीवन में। और अब सिर्फ मंदिरों में ही नहीं, भगवान मंदिर तक सीमित नहीं रहे ।भगवान घर-घर तक पहुंच रहे हैं और आपने देखा ही घर अर्चविग्रहो का दर्शन। हरि हरि, भगवान की सेवा करो। अर्चना करो। तो कल यहां पंढरपुर में संपूर्ण महाराष्ट्र दर्शन मंदिर खुल गए। अभी लॉकडाउन नहीं है। हम भी सब, मतलब कई सारे लोग धामवासी और कई स्थानों से आ रहे थे। दौड़ रहे थे विट्ठल भगवान की ओर। हम भी गए हैं। हमारी भी आंखें कुछ भूखी प्यासी थी। विट्ठल भगवान के दर्शन का सौभाग्य बहुत समय के उपरांत 6 महीनों के बाद हुआ। गोपिया तो 6 पलों तक रुक नहीं पाती थी। पलक झपक ने तक उतना भी उनको सहन नहीं होता था। और वह कहते थे बुद्धू कहीं का यह ब्रह्मा उसने ऐसी आंखें दी है। वह सोच रही थी कि, वैसे इन आंखों को खुलने की बंद होने की क्या जरूरत थी। यहां खुली रहती थी तो हम देखती ही रहते। आंखें बंद होती है, खुलती है यह ब्रह्मा अच्छा निर्माता नहीं है। यह ब्रह्मा बुद्धू है। बुद्धिमान नहीं है। हरि हरि, इन विचारों से भगवान कितने सुंदर हैं। इसका भी अंदाजा हम लगा सकते हैं। यह गोपियों के भाव जब हम सुनते हैं। कास्थिमगती वेणुगीतः चैतन्य चरित्रामृत में एक समय स्वरूप दामोदर कहे हैं। जब श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु ने कहा है, भावावेश स्वरूप कहेना गदगद वाणी। आप जानते ही हो, चैतन्य महाप्रभु के साथ में स्वरूप दामोदर रहा करते थे गंभीरा में। यह स्थान बड़ा गंभीर है जगन्नाथपुरी में। चैतन्य महाप्रभु ने कहा गदगद वाणी में। क्या कहा, कर्ण तृष्णाय मरे पड रसायन सुनि ही। स्वरूप दामोदर, कर्ण तृष्णाय मरे यह कान की तृष्णा की बात कर रहे हैं। मेरे कान बड़े लालायित है। और तुम सुना नहीं रहे हो कुछ। कुछ सुनाओ मेरे कानों को प्यास लगी हुई है। कर्ण तृष्णाय मरे, मर रहे हैं मेरे कान। कुछ रसायन, रसभरी बात या कुछ कर्णामृत पिलाओ। कर्णामृत श्रवणामृत अमृत कानों के लिए। उत्सव, नेत्रोत्सव या श्रवणोत्सव पडे रसायन। फिर स्वरूप दामोदर उन्होंने कहा, "सम्मोहिताय चरिताम चलेत त्रैलोक्यम" उन्होंने कृष्ण के सौंदर्य का वर्णन करना प्रारंभ किया। और वह कह रहे हैं। स्वरूप दामोदर जब "कलपदामृत वेणुगीत" कह रहे हैं, वे कृष्ण जब श्यामसुंदर, कृष्णकन्हैया लाल की जय! जब मुरलीवादन करते हैं। मुरली बजाते हैं। और मुरली की नाद जो है वेणुगीत उसके गीत का श्रवण जब गोपिया करते हैं। वेणुगीत यह पूरा अध्याय ही है भागवत में। यह सारी गोपियां मोहित हो जाती है। और कृष्ण से आकृष्ट हो जाते हैं। और कृष्ण के और दौड़ने लगती है। कृष्ण तो परपुरुष हो गए ना। उनका विवाह हो चुका है। किसी अन्य पुरुष के बजाए मुरली और वहां मुरली का नाम सुनते ही दौड़ रही है. अपने पतिदेव हैं उनको वही छोड़ा। सब कुछ छोड़ा। वैसे सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकम शरणमव्रज का कोई उदाहरण है तो गोपिया है। वर्णाश्रम धर्म या स्त्री धर्म, यह धर्म, वह धर्म, कई सारे धर्म है। वर्णाश्रम धर्म भी है क्योंकि कर्तव्य हैं। उनको भी त्यागते हुए सर्वधर्मान्परित्यज्य यह गोपिया दौड़ पड़ती है। उनका ध्वनि का जो पद है, ध्वनि का पद जिस और से वह ध्वनि आ रही हैं। उस पद पर जैसे नयन पथ गामी होता है। जगन्नाथ स्वामी नयनपथगामी मेरे आंखों का जो पद है, पथ है उसमें आप रहे सब समय। मुझे आप दर्शन दे सब समय। यह भी प्रार्थना है। तो नयन पथ के साथ श्रवण पथ भी हैं। जो बात सुनी है, तो गोपिया सुनती है मुरली की नाद तो उस दिशा में दौड़ने लगती है। किस ओर से आ रही है ध्वनि मुरली। कहां होंगे श्यामसुंदर इस समय घूम फिर के वहीं देखती है, सुन लेती हैं। हां इधर भांडीरवन में होना चाहिए। ओह! आज तो मधुबन की ओर से ध्वनि सुनाई दे रहे हैं। तो उस पथ पर वह चलती है। दौड़ती है। त्रैलोक्य सौभगम इदम चलनिरीक्षरूपम ऐसा है कृष्ण का रूप। ऐसा है कृष्ण का सौंदर्य। सौभगम यह संसार का भाग्य है। त्रैलोक्य सौभगम इदम चल निरीक्षरूपम, इस संसार के ब्रह्मांड की शोभा कृष्ण के कारण है। कृष्ण नहीं होते तो यह जग केवल मिट्टी है। फिर मिट्टी से ही बने हैं हमारे रूप, हमारे शरीर इसकी क्या कीमत है। हमारे रूप जो मलमूत्र से बने हैं। यह एक थैला है प्रभुपाद कहां करते थे हमारा शरीर एक थैली है जिसमें मल मूत्र भरा है। और जो नवद्वार की बात की है आपको। इन सारे नवद्वारो से क्या निकलता रहता है, गंदगी निकलती रहती हैं। इसलिए उठते ही पहला काम वही करना होता है। फिर आंँख से क्या निकलता है। नाक से क्या-क्या निकलता है। कान से भी निकलता है और मुख से। मुंह को साफ करना ही पड़ता है। और गुदाद्वार है और मलमूत्र द्वार हैं जो भी अंदर है वही बाहर आता है। थोड़ा यह सारा सौंदर्य सारा चमडी का खेल है। हमारी जो त्वचा है इसका सौंदर्य ज्यादा गहरा नहीं है। कहते हैं, स्किन डीप हमारी सौंदर्य कितना गहरा है कि, स्किन डीप जितनी हमारी चमड़ी त्वचा स्कीम परत है उतना ही सौंदर्य की गहराई है। चमड़ी उतार दोगे तो उसके साथ आप सेल्फी खींच पाओगे। अभी शायद चमड़ी है तो खींच रहे थे सेल्फी। चमड़ी उतार कर फिर आप भूत भूत कहकर दौडोगे वहां से। या नाक बंद करके कहोगे बदबू आ रही हैं। यहां लिक्विड ब्यूटी प्रभुपाद कहा करते थे। उसका भी उदाहरण प्रभुपाद कहां करते थे। कहां यह हमारे रूप और हमारा सौंदर्य तुच्छ हैं। हरि हरि। तो जैसे हम भगवान के सौंदर्य के संबंध में सुनते हैं, उसका ध्यान करते हैं और यह सौंदर्य शाश्वत भी है। कृष्ण शाश्वत सुंदर है। और हम अगर सुंदर है तो भी हमारी सुंदरता उधार ली हुई है। हममें भी कोई सौंदर्य है या इस सृष्टि में भी कोई सौंदर्य है तो भगवान के कारण ही वह सौंदर्य है। हमने उधार लिया हुआ है और ज्यादा समय टिकता भी नहीं। लेकिन कृष्ण का सौंदर्य शाश्वत सौंदर्य है। वे शाश्वत सुंदर है। तो हम जब विग्रह की आराधना करते हैं, हमारा खुद का जो अभिमान है, गर्व है, दर्प है, हमारे खुद के सौंदर्य के संबंध में हमारा जो अहंकार है वह धीरे-धीरे मिटने लगता है। हरि हरि। दंभ, दर्प समझ रहा है यह शब्द दर्प अहंकार। और फिर दर्प है तो दर्पण मैं जब हम देखते हैं तो हमारा दंभ, दर्प बढ़ जाता है दर्पण में देखने से। जो हमारा दर्प बढ़ा दे उसी को दर्पण कहते हैं। वैसे दर्पण में कम देखना चाहिए। हरि हरि। इसीलिए हमारे जो वैष्णव है या ब्रह्मचारी भक्त है जब तिलक लगाना होता है तभी थोड़ा देख लेते हैं। लेकिन उनका जो दर्पण होता है 1 इंच डायमीटर जितना होता है। पूरा चेहरा भी नहीं देख पाते, इसीलिए तिलक लगाते समय उसको ऊपर नीचे करना पड़ता है। तो सावधानी से..। बड़ा दर्पण होगा तो हमारा दर्प बढ़ेगा खुद को देखकर। आपके घरो में तो पूरी दीवार ही एक आईना होता है दर्पण होता है। हरि हरि। और महिलाएं तो अपने पर्स में रखती हैं एक दर्पण रखके चलती है। हरि हरि। तो कृष्ण का दर्शन करो, विग्रह की आराधना करो। तो यह दर्शन करते जाएंगे। इसीलिए कहा भी है सावधान पूर्णिमा की रात्रि है या शरद पूर्णिमा की रात्रि है। कृष्ण केशी घाट पर है। वहां त्रिभंगललित ऐसे खड़े हैं। मुरली को धारण किए हैं। ऐसे कृष्ण को नहीं देखना, ऐसे कृष्ण को देखोगे तो गए काम से। यह संसार का जो आकर्षण है, संसार की जो आसक्ती है वह समाप्त होगी। आप दिल्ली से आए होंगे तो आप दिल्ली नहीं लौटोगे। वही के कृष्ण के हो जाओगे, ऐसे कृष्ण का दर्शन करोगे तो। इसीलिए सावधान। तो भगवान के विग्रह स्वयं भगवान है और यह भगवान है इसका मुंहतोड़ जवाब भी है। ओ भगवान सर्वत्र है। यह वैसे ऐसे ही बहाना है, बहाना है या कुछ तर्क वितर्क है। हम तो उंगली करके दिखाते हैं देखो भगवान को देखो वे वही है। सर्वत्र है पता नहीं, है कि नहीं, सर्वत्र है सर्वत्र है सर्वत्र है। seeing is believing अंग्रेजी में कहावत है। हम तब विश्वास करेंगे जब हम देखेंगे। दिखाओ दिखाओ सर्वत्र हैं और फिर भगवान ज्योति है, तो इससे भी समाधान नहीं होता। लेकिन जब हम देखते हैं तब हमें विश्वास हो जाएगा, भगवान है। बाप दाखव नाहीतर श्राद्ध कर ऐसा मराठी में कहते हैं। दिखाओ, नहीं दिखा सकते तो शायद है ही नहीं, होंगे ही नहीं। लेकिन दिखा सकते हो, तो हम दिखाते हैं। भगवान स्वयं ही वैसे दिखाते हैं, मैं यहां हूं मुझे देखो। सुदुर्दर्शमिदं रूपं दृष्टवानसि यन्मम अर्जुन को कृष्ण ने कहा भगवदगीता के ग्यारहवें अध्याय में। जिस रूप का तुम दर्शन कर रहे हो, हे अर्जुन यह दर्शन दुर्लभ है। देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिण: देवता भी ऐसे दर्शन के लिए तरसते हैं। तो भगवान है, भगवान का रूप है। जो विग्रह है यह केवल प्रतिमा नहीं है या कोई कल्पना नहीं है। भगवान सर्वांगसुंदर सारे अंग वाले। सभी अंग है और वे सभी अंग सुंदर है सर्वांग सुंदर। तो भगवान का रूप भी भगवान का स्वरूप है, यह बताते रहते हैं आपको। नाम भी भगवान का स्वरूप है, रूप भी भगवान का स्वरूप है, गुण भी भगवान का स्वरूप है, लीला भी भगवान का स्वरूप है। अद्वैतम अच्युतम अनादि अनंत रूपम और फिर भगवान के अनंत रूप भी है। रामादि मूर्ति शुक्ला मूर्ति मतलब रूप, श्री विग्रह मूर्ति। वह भगवान का रूप शाश्वत है। यह नहीं कि ओम से वे प्रकट होते हैं। वैसे भगवान सदा के लिए ज्योति या प्रकाश होते हैं और कभी-कभी वह रूप धारण करते हैं, ऐसी बात नहीं है। हरि हरि। अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय: कुछ बुद्धू है कृष्ण कह रहे हैं भगवदगीता में। वैसे भगवान तो अव्यक्त है, उनका कुछ रूप नहीं है, वे ज्योति ही है। अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं अव्यक्त से फिर व्यक्त बन जाते हैं ऐसा समझने वाले, मन्यन्ते ऐसा मानते हैं, माम मेरे संबंध में उनकी ऐसी मान्यता है, अबुद्धया उनको बुद्धि नहीं है। इसलिए आपने कई चित्र वगैरह देखे होंगे उसमें दिखाते हैं पीछे कुछ ज्योति है, प्रकाश है फिर वहां से निकल गए कृष्ण। उस ज्योति से निकल आए उस ब्रह्माज्योति से निकल आए और मुरली बजा रहे हैं। और फिर एक समय क्या होगा आप उधर वापस जाओगे और ज्योति बन जाओगे, ब्रह्म ज्योति बन जाओगे। अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय: तो यह सारी भगवान ने अरगुमेंट्स दी हुई है। इसको हमें समझना चाहिए और प्रचार करते समय हम समझा सकते हैं ,औरों को दिमाग दे सकते हैं। हरि हरि। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। प्रश्न 1 - नोएडा सी ब्रजजनरंजन प्रभुजी द्वारा, जो यह कहते हैं कि ज्योति से भगवान ने स्वरूप धारण किया, वे इस बात को अचिंत्य शक्ति कहते हैं इस बात का खंडन कैसे करें? गुरु महाराज का उत्तर - अचिंत्य, मुझे तो नहीं पता एक्झ्याटली क्या अरगुमेंट है यह अचिंत्य शक्ति है..। बात यह है कि हम कह रहे थे या जो कृष्ण ही कहे भगवान का कहना होता है कि अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् भगवान कहते हैं यह तो मुढ है, वे समझते नहीं है। परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् मेरा परम भाव भी है या फिर परमधाम भी है, वहां मैं रहता भी हूं और वहां मेरा रूप भी है, मैं भगवान हूं। तो वहां से फिर मैं आता हूं। जैसे वहां रहता हूं वैसे यहां भी आता हूं। यह नहीं कि आपके समक्ष आता हू तभी मैं होता हूं। और जब लीला का समापन हुआ 125 वर्षों के उपरांत तो फिर मैं नहीं रहता हूं जैसे था। तो लाइट से मैं नहीं आता हूं। वैसे ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम उसी में फिर भगवान आगे कहे है ब्रह्म का आधार में हू ब्रह्म मेरा आधार नहीं है। ब्रह्म से में उत्पन्न नहीं होता हू मुझसे ब्रह्म उत्पन्न होता है। ब्रह्म मतलब ब्रह्मज्योति। भगवान का रूप इतना तेजस्वी है इसीलिए कहा भी है भगवान कोटी सूर्य समप्रभ। कृष्ण सूर्यसम क्यों कहते हैं? कृष्ण सूर्य के समान है। क्योंकि जैसे सूर्य से प्रकाश निकलता है, तो यह सूर्य देवता है वैसे। सूर्य देवता है उनका रूप है और उनसे प्रकाश निकलता है। तो वह सूर्य का प्रकाश स्वतंत्र तो नहीं है। उसका का स्रोत है वह है जैसे सूर्य देवता। तो वैसे ही ब्रह्मज्योति का स्रोत स्वयं भगवान है। तो उल्टा नहीं है कुछ लोग उल्टा कर देते हैं, उल्टा पल्टा कर देते हैं। तो ब्रह्म से भगवान नहीं भगवान से ब्रह्म है। तो फिर कहां ही है ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते और इसको अद्वैत ज्ञान भी कहा है। यह तीनों अद्वय है या अलग अलग नहीं है या ब्रह्म या परमात्मा भगवान से ही होते हैं। तो पहले भगवान होते हैं। और फिर भगवान की परिभाषा व्याख्या को भी समझना होगा हम समझाते रहते हैं या पराशर मुनि समझाए है। ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः भगवान सौंदर्यवान है, रूपवान है, इसीलिए भगवान कहते हैं। वह रूपवान नहीं होते तो उनको भगवान नहीं कहते हम। तो ब्रह्म, ब्रह्म तो है लेकिन ब्रह्म भगवान नहीं होता। उनके सौंदर्य के कारण फिर ब्रह्म भी भगवान होते हैं। तो कई सारी शक्तियां है, उनका पता नहीं। लोग क्या कहते हैं या ब्रजजनरंजन क्या कह रहे है। शायद यह उत्तर आपको मदद करेगा इसको समझने में। प्रश्न 2 - मॉरिशियस से यशोदा माताजी व्दारा, जिस प्रकार कभी-कभी हम हमारा या किसी का सौंदर्य देख कर गर्व, दंभ या दर्प अनुभव करते हैं। तो उसी प्रकार लोगों में या हम में भौतिक उपलब्धियों का एक दंभ या गर्व आ जाता है। मेरे पास इतना भौतिक वैभव है, तो उसे कैसे हम निकल सकते हैं? गुरु महाराज द्वारा उत्तर - मराठी में एक कहावत है गर्वाचे घर नेहमीच खाली। जो गर्व करता है, मैं ऊंचा पहुंचा हूं ऐसा अहंकार होता है। वह जरूर एक दिन नीचे जाएगा वह गिर जाएगा। यह गारंटी है अभी या बाद में ऐसा होने ही वाला है। आज के आपके गर्व के, दर्प के, दंभ के, अहम के जो विचार हैं। तो जब मृत्यु: सर्वहरश्चाहम तो है ही। अपने यह कमाया, आपने वह कमाया, आप सुंदर मिस यूनिवर्स, मिस इंडिया और फिर प्रकृति आपको बूढ़ा भी बना देती है। फिर आप अपनी सुंदरता को याद करेंगे आप मिस इंडिया थे पर अब वह सुंदरता नहीं है, बूढ़ी हो गई तुम। तो द्वंद्व से भरा हुआ यह जगत है, तो दोनों भी होगा। कच्छ हबू डुबू भाई जो व्यक्ति सुखी है वह दुखी होगा ही, जो धनी है उसका दीवाना निकल के वह गरीब होगा ही इस तरह से। कभी निरोगी है तो रोगी होगा, कोई सुरूप है तो कुरूप बन जाएगा। मृत्यु: सर्वहरश्चाह तो भगवान ने कहा ही है, तो जो जो तुमने कमाया था जिसके कारण तुम्हारा दंभ, दर्प एक क्षण में सारा छीन लिया जाएगा गेट आउट, यह तुम्हारा नहीं है। फिर प्रभुपाद कहते हैं अगर तुम समझते थे कि यह तुम्हारी संपत्ति है, तुम्हारा सौंदर्य है, यह जो भी है तो साथ में ले जाओ ना। इतना प्रयास करके जो धन दौलत तुमने इकट्ठी की। एक व्यक्ति ने जैसे 14 भुवन होते हैं ना तो मुंबई में एक अमीर ने अपने घर के फोर्टीन स्टोरीज है। जैसे चौदा भुवन होते हैं। आपको शायद पता होगा मैं नाम नहीं कहना चाहता। इंडिया के सबसे धनवान व्यक्ति हैं उन्होंने अपना मुंबई में 14 मंजिल वाला घर बनाया है। तो क्या होगा एक दिन? वह बैंक करप्ट होगा। उनकी मृत्यु होने वाली है कि नहीं? और जब मृत्यु होगी तो सब छीन लिया जाएगा। तो क्यों गर्व करें हमारे सौंदर्य के ऊपर, धन दौलत के ऊपर, संपत्ति पोजीशन, यह, वह। इसीलिए सलाह दी जाती है सर्वोपाधि-विनिर्मुक्तं तत्-परत्वेन निर्मलम् इन सारी उपाधियों से मुक्त हो जाओ। हरि हरि। अहं अहं के बजाय त्वं त्वं त्वमेव माता त्वमेव पिता द्रविणं त्वमेव यह संपत्ति भी आपकी हैं, यह सौंदर्य भी आप का दिया हुआ है। आप ही माता हो, आप ही पिता हो, मम सर्व देवदेव आप ही सब कुछ हो या जो भी आपने दिया हुआ है आपका है। त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये जो जो मेरे पास है, हे गोविंद, त्वदीय आपका है यह सारी वस्तुएं जो भी है आपका है। तो अच्छा है कि मरने के बाद छीन लिया जाएगा, तो मुझे कोई क्रेडिट नहीं मिलेगा। तो मरने के पहले थोड़ा उसका लाभ तो उठाता हूं। मैं जो भी संपत्ति है जिसको मैं मेरा मेरा कहता हू उसे मैं अर्पित करता हूं, आपकी सेवा में उसका उपयोग करता हूं। फिर भगवान कितने प्रसन्न होंगे और फिर आपको ऐसी पदवी देंगे। यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम अपने धाम ले जाएंगे फिर सदा के लिए वहां रहो। नहीं तो इस संसार में कभी नर्क में कभी स्वर्ग में यह चलता ही रहता है, अप एंड डाउन राउंड एंड राउंड। उसको रोकना है तो समझ लो। ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।। इसलिए सारी सलाह है। श्री इशोपनिषद कह रहा है ईशावास्यम संसार में जो भी है उसके स्वामी आप हो। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा और उस सारी संपत्ति में से कुछ संपत्ति आप मुझे दिए हो। वह आपकी संपत्ति है और उसका में आपकी सेवा में उपयोग करूंगा। यह कृष्णभावना भावित विचार है या व्यवहार है और जीवन शैली है। यह सब हमको सीखना है कृष्ण भावनाभावित होकर। इस प्रकार हम समाज में परिवर्तन, संसार में परिवर्तन ला सकते हैं। विचारों में क्रांति ला सकते हैं।

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