Hindi

जप चर्चा, पंढरपुर धाम से, 2 अगस्त 2021 हरे कृष्ण! आज जप चर्चा में 892 भक्त सम्मिलित हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल...! श्री चैतन्य मनोभीष्ठं स्थापितं येन भूतले स्वयंरूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदांतिकं (श्री रूप प्रणाम मंत्र) अनुवाद:- श्रील रूप गोस्वामी प्रभुपाद मुझे कब अपने चरण कमलों में शरण प्रदान करेंगे?जिन्होंने इस जगत में भगवान् चैतन्य कि इच्छा के लिए प्रचार अभियान कि स्थापना की है। रुप गोस्वामी प्रभूपाद कि जय...! आज रुप गोस्वामी की रचना पर चर्चा करेंगे , हरि हरि। जिनकें कारण हम रूपानुगा कहलाते हैं।आप कौन हो? उत्तर क्या होगा? या एक उत्तर क्या होगा? हम रूपानुगा हैं। आप कौन हो? कौन हो? रू रुप गोस्वामी,'अनु' पीछे पीछे 'ग' जानेवाले,रूपानुग अर्थात उनका अनुगमन करने वाले।हम सूनते हैं, या गाते रहते हैं।इसको नोट करना और वैसे मै यह भी सोच रहा था कि आप सब मन में ही नोट करते हो। नोटबुक भी रखो। आपको इतना विश्वास हैं अपनी मेमरी या स्मृती के उपर?अपनी मेमरी पर आपको जो घमंड हैं,वह अभी तो चल रहा हैं।किंतु कुछ नई नई बातें होगी तो याद रख सकोगे?आप श्रुतिधर तो नही हो? या हो? श्रुतिधर किसको कहते है, यह भी शायद आपको पता नही होगा। या याद नही होगा तो फिर कैसे उत्तर दोगे कि श्रुतिधर हो या नही तो श्रुतिधर उनहे कहते हैं जिनहे सुनकर सब याद रहता हैं,परतुं हम भूल जाते हैं। याद रहना चाहिये। कुछ तो लिखते रहते है, बाकी तो बैठे रहते हैं और फिर भूल जाते हैं। आप सब एक नोटबुक खरीद ही लो। यहा 900 स्थानो से भक्त उपस्थित हैं तो एक एक नोटबुक पढाई के लिये खरीद ही लो।जिसमे लिख सकते हो, और फिर लिखने के लिये ही बैठे हो जब सून ही रहे हो। कुछ अच्छे पॉईंट्स,कुछ तथ्य, या कोई श्लोक या कुछ सार आप लिखते जाओगे तो फिर आपको निंद भी नही आयेगी। निद्रा देवी आपसे दूर रहेगी, आपको परेशान नही करेगी। आपपें अपना प्रभाव नही डालेगी,जब आप जागृत रहोगे,एकाग्र हो कर सुनोगे। ठीक हैं, हम आगे बढ़ते हैं। छय वेग दमि’, छय दोष शोधि’, छय गुण देह दासे। छय सत्संग, देह’ हे आमाय, बसेछि संगेर आशे॥2॥ (श्रील भक्ति विनोद ठाकुर विरचित -ओहे! वैष्णव ठाकुर) अनुवाद:-आप कृपापूर्वक मेरे छः वेगों का दमन करने में मेरी सहायता करें, तथा मेरे छः दोषों को सुधारकर मुझे छः गुण प्रदान करें। हे वैष्णव ठाकुर! छः प्रकार का सत्संग प्रदान करें जिसमे दो भक्त परस्पर आदान-प्रदान करते हैं। मैं आपके निकट आपका संग प्राप्त करने की आशा से आया हूँ। "ओहे! वैष्णव ठाकुर" हे वैष्णव ठाकुर क्या करो? तो यहा चार बातो का जिक्र किया हैं। हे वैष्णव हमको चार बाते आप से चाहिये।और वह चार बाते जो है, या प्रकार हैं या श्रेणीया है उसमे फिर उसके छह-छह अंग हैं या उसके प्रकार हैं। हर एक एक के छह-छह विभाग हैं या प्रकार हैं।"छय वेग दमि"।वेग, वेगों कि बात हो रही हैं। मैं छह वेगो का दमण करना चाहता हूँ। "छय दोष शोधि" इस गीत मैं जो चार बातो का जिक्र हुआ हैं, या मांग कि हैं, और हर चार में फिर और छ: छ: मांगे हैं या प्रकार हैं, विभाग हैं।गीत का ये जो भाग हैं, इसका आधार उपदेशामृत हैं। उपदेशामृत के लेखक रूप गोस्वामी हैं, अब हम रूप गोस्वामी के ओर मुड रहे है।यहा रूप गोस्वामी के उपदेशामृत के जो प्रथम चार श्लोक हैं, वचन हैं, उपदेशामृत हैं, अमृत बिंदू हैं यहा उसका उल्लेख हो रहा हैं, इसको हमको पढना हैं, सीखना हैं।ये चार कौन कौंनसे अमृत बिंदू हैं। वैसे जब आप भक्तिशास्त्री कोर्स जॉईन करते हो, किया हैं किसी ने? कर रहे हो? कुछ हाथ उपर हो रहे हैं, तो उसमे भी उपदेशामृत का अध्ययन होता हैं। ठीक हैं पुरुषोत्तम! ( उपस्थित भक्तो को प पू लोकनाथ महाराज पुछ रहे हैं) आप तंत्रज्ञान के सहारे हाथ उपर कर रहे हो,आप को पता है कैसे हैंड रेज करना होता हैं, वाह कई लोगों को पता हैं। ऑस्ट्रेलिया के लोगों को तो पता ही होगा कैसे हैंड रेज करते हैं। एक तरीके से दिखाना होता हैं, यह तो कोई भी कर सकता हैं। लेकिन कंप्यूटर के स्क्रीन पर हाथ दिख रहे हैं।यहां भी सीखना ठीक हैं। यह सीखना अच्छा हैं।यह एक अध्याय हैं, ताकि अगर कभी अगर चर्चा हो रही हो तो किस किस को समझ रहा हैं कौन इसके पक्ष में हैं और कौन इसके विरुद्ध हैं,इसका पता लगवा सकते हैं। तो इसको भी सीख लो।अभी मैं अपने विषय की तरफ बढ़ता हूं। समय कम हैं, हाथ नीचे करिए।बहुत अच्छा।आप लोग एक्सपर्ट बन रहे हो। उपदेशामृत के प्रथम चार श्लोको पर बात करेंगें, उपदेशामृत पर कुछ बात होने वाली हैं, चर्चा होने वाली हैं,या हमारा ध्यान आकर्षित किया जा रहा हैं। तो यह आप लिख सकते हो।हम, आप कोन हो? हम रूपानुग हैं, तो आपने लिख लिया रूपानुग। रूपानूगा मतलब क्या होता हैं ,रूप गोस्वामी के अनुयायी को रूपानुग कहते हैं,आप ऐसा नोट कर सकते हैं।कुछ लिख सकते हैं, कुछ श्लोक लिख सकते हैं। कई लोग लॅपटॉप लेके बैठ गये हैं, तो आप टाईप कर सकते हो। हमारे पास समय कम हैं और ये जो चार श्लोक हैं, यह चार अमृतबिंदू हैं।और फिर आपके लिये होमवर्क भी होगा। इस के लिये आपके पास उपदेशामृत होना चाहिए,क्या यह ग्रंथ हैं, आपके पास? इसकी भी मैं चर्चा करुंगा। आप सभी के पास श्रील प्रभूपाद के सभी ग्रंथ होने चाहिए! अखबार के ढेर की बजाय,इन किताबो का ढेर लगा दो,और अखबार को आग या उसको गटर मे फेक दो।अखबार या और कूछ ग्राम कथा,ये तो चलता ही राहता हैं, ये कचरा हैं, उसके बजाय श्रील प्रभूपाद के दिव्य ग्रंथ,गीता, भागवत, चैतन्य चरितामृत,उपदेशामृत, भक्तीरसामृतसिंधु इत्यादी इत्यादि ग्रंथो को खरीद लो! आपके धन का सदुपयोग होगा, आपके धनराशी का उपयोग होगा। आप बी.बी.टी.से ग्रंथो को खरीद लो! यह भी टॉपिक नही हैं, आजका। आपके पास ग्रंथ होने चाहिये।इससे आपके धनराशी का सदुपयोग होगा।आपने ग्रंथ खरीद लिये, आपके धन का,समय का,टाइम का सदुपयोग होगा।आप के जीवन का सदुपयोग होगा।जब आप इन ग्रंथों को पढोगे आप भगवान के साथ रहोगे।उसी के साथ आप धीरे-धीरे कृष्णभावनाभावित बनने वाले हो।पग पग पर हर शब्द,हर वाक्य,हर वचन एक एक परिच्छेद आप पढ़ते जाओगे तो आप भगवान के साथ, भगवान के अधिक निकट पहुंच जाओगे।भगवान आप में आपकी भावना में प्रवेश करेंगे। "श्री रुक्मिण्युवाच श्रुत्वा गुणान्भुवनसुन्दर श्रृण्वतां निर्विश्य कर्णविवरैर्हरतोड्ग़तापम्। रुपं दृशां दृशिमतामखिलार्थलाभं त्वय्यच्युताविशति चित्तमपत्रपं मे।।" (श्रीमद्भागवतम् 10.52.37) अनुवाद: - [ब्राह्मण द्वारा पढ़े जा रहे अपने पत्र में] श्री रुक्मिणी ने कहा: हे जगतों के सौंदर्य,आपके गुणों के विषय में सुनकर जो कि सुनने वालों के कानों में प्रवेश करके उनके शारीरिक ताप को दूर कर देते हैं और आप के सौंदर्य के बारे में सुनकर कि वह देखने वाले की सारी दृष्टि संबंधी इच्छाओं को पूरा करता है, हे कृष्ण, मैं अपना निर्लज्ज मन आप पर स्थिर कर दिया है। "निर्विश्य कर्णविवरैर्हरतोड्ग़तापम्।" ऐसे रुक्मिणी महारानी ने कहा "श्रुत्वा गुणा" मैं जब आपके गुणों को सुनती हूं, हे भुवनसुंदर!,"गुणान्भुवनसुन्दर श्रृण्वतां निर्विश्य" कर्णविवरैर्हरतोड्ग़तापम्।" मेरे अंग का जो ताप हैं ,बुखार जैसी बात है ताप, दिमाग ठंडा हो जाता हैं। रुक्मणी महारानी कह रही हैं कि उनका दिमाग ठंडा हो जाता था,वह स्थिर हो जाती थी, क्या करने से?जब वह भगवान के गुणों का वर्णन सुनती या पढती थी। "निर्विश्य कर्णविवरैर्हरत" कर्णरंद्रौ से प्रवेश हो रहा है ,मानो कृष्ण ही प्रवेश कर रहे हैं, आत्मा को छू रहे हैं या फिर आत्मा के कान सुन रहे हैं,आत्मा के कान सुन रहे हैं,आत्मा की आंखें देख रही हैं। जीव जागो! जीव जागो! क्या जागो? जीव जागो! हमारा लक्ष्य तो आत्मा की आंखें, आत्मा का कान, आत्मा की नासिका को जगाना हैं,उनको भगवान की सेवा में लगाना हैं सर्वोपाधि- विनिर्मुक्तं तत्परत्वेन निर्मलम्। हृषीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिरुच्यते।। (श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 19.170) अनुवाद: - भक्ति का अर्थ है समस्त इंद्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इंद्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान् कि सेवा करता है तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं। मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् कि सेवा में लगे रहे ने मात्र से उसकी इंद्रियां शुद्ध हो जाती हैं। हृषीकेण हृषीकेश-सेवनं भक्तिरुच्यते।।इसी का नाम हैं, भक्ति और इसलिए भगवान का नाम हैं,हृषिकेश।हमारी इंद्रियां के स्वामी। अंततोगत्वा हमारा लक्ष्य यह है कि आत्मा की इंद्रियां,आत्मा भगवान की सेवा में, भाव और भक्ति के साथ लगे। हरि हरि! तो पहला जो श्लोक हैं "वाचो वेगं मनस: क्रोधवेगं जिव्हावेगमुदरोपस्थ वेगम्। एतान्वेगान् यो विषहेत धीर: सर्वामपीमां पृथिवीं स शिष्यात्।।" (श्रीउपदेशामृत श्लोक 1) अनुवाद: - वह धीर व्यक्ति जो वाणी के वेग को, मन कि मांगों को,क्रोध कि क्रियाओं को तथा जीभ, उधर एवं जननेन्द्रियों के वेगो को सहन कर सकता है,वह सारे संसार में शिष्य बनाने के लिए योग्य हैं। वेग होते हैं वेग, आवेग। यहा छ: प्रकार के वेग कहे गये हैं।'छय वेग दमि’, उस गीत में था।ओहे! वैष्णव ठाकुर 'छय वेग दमि’, मैं चाहता हूँ कि इन छ: वेगो का दमन हो जाए, जो हमको ढकेलते है, उनका दमन हो जाए। उनका जो हमको ढकेलना होता हैं, तो जीवन में वाचों वेगं, हमारी वाचा, वाचो वेगं, मनसा: मन का आवेग, हम पर मन का प्रभाव, क्रोधवेगं हम क्रोधीत होते हैं,तो क्रोध हम पर नियंत्रन करता है। "जिव्हावेगमुदरोपस्थ वेगम्।" जिव्हा, उदर,जननेंद्रिय प्रभुपाद लिखते हैं,इसमें से तीन वेगम् एक कतार में हैं,एक जीव्हा हैं,जो खाने के उपयोग में आती हैं,और जीव्हा के दो प्रकार हैं।एक तो हैं,वाणी। वाचो जो बोलने के काम में आती हैं,जीव्ह वेगम् कहा हैं, तो यह खाने की बात हैं। तो तीन वेगं एक तो पहले खाना और फिर खुब खाके जब अत्याहार से पेट भर गया तो उदर वेगम् और उपस्थ वेगम् तो फिर जननेंद्रिय सक्रिय हो जाती हैं ,उसमें आवेग आ जाता हैं और “अर्जुन उवाच अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः | अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ||” (श्रीमद्भगवद्गीता 3.36) अनुवाद: -अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो | "अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः || ”और हम नहीं चाहते हुए भी हम कुछ ऐसा कार्य कर बैठते हैं। हमसे अपराध होता हैं, पाप होता हैं।हमसे पाप यह अलग अलग छ: वेगं करवाते हैं। वाचो वेगं में बोलने और खाने कि बात हैं। इतना ही कहुंँगा हमारे पास समय नहीं हैं।यह छ: वेगं हैं। वेग को वैसे गती भी कहा जाता हैं, यह सब गती से जा रहा हैं, इसे रोकथाम लगाना हैं, यह जो आवेग हैं, हम को ढकलने वाले हैं और, हमको त्वरित प्रभावित करने वाले और फिर "अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः | ”हमसे तुच्छ कार्य करवाने वाले, ये छेह वेग हैं। इतना आप समझिए।वह कोन हैं जो इन वेगो से मुक्त हैं? वेग या आवेग भी कहते हैं,जो व्यक्ति वेग से प्रभावित नहीं हैं, वही व्यक्ति गुरु बन सकता हैं। गुरु बनने की पात्रता या अधिकार तभी प्राप्त होगा जब व्यक्ति का वेग पर नियंत्रण हो खैर अब मैं आगे बढ़ूगा, वक्त ज्यादा नहीं हैं यह पहला शलोक था। अब दूसरा हैं- *अत्याहारः प्रयासश्च प्रजल्पो नियमाग्रहः ।* *जनसङ्गश्च लौल्यं च षड्भिर्भक्तिर्विनश्यति ।।* षड्भिर्भक्तिर्विनश्यति - षड्भि मतलाब इन छ: से भीह मतलब ये संस्कृत हैं या कह सकते हैं इनके द्वारा । षड्भि तो इन छ: से क्या होता हैं, र्भक्तिर्विनश्यति - भक्ति का विनाश हो जाता हैं।आप चाहते हैं कि भक्ति का विनाश हो?आप नहीं चाहते ना। तो समझो कि कौन कौन से प्रकार आपकी भक्ति को नाश कर सकती हैं। तो छह बातें है, श्लोक सांख्य २ अत्याहारः - अतिआहार नंबर एक, प्रयासश्च - और अति प्रयास, आवश्यकता से अधिक प्रयास करते रहना, प्रजल्पो - गपशप या बाक्ते करते रहना,इधर उधर की बात, राजनीति की बातें, इसको प्रजल्प कहते हैं,।तीसरा प्रकार हैं। नियमाग्रहः - तो नियम का आग्रह करना या पालन करना। किसी नियम का बिना कुछ जाने या नहीं जानते हुए भी किसी नियम पे अधिक जोर देना । आवश्यकता से ज्यादा जोर देना,किसी प्रकार का अतिवादी होना। पांचवा हैं जनसङ्गश्च - तो इसपर पूरे तात्पर्य भी लिखे हैं श्रील प्रभुपाद ने, हमे इसको समझने के लिए इसको पढ़ना होगा।एक एक प्रकार से नाम गिना जा रहा हैं। या श्लोक में छ: प्रकार कहे हैं। छ:-छ: करके चार श्लोको में इसी लिए तात्पर्य महतवपूर्ण हैं।तात्पर्य या जिसको भावार्थ भी कहते हैं,जिसकी मदद से हम समझ सकते हैं। पांचवा हैं, जनसंगस्य अर्थात अभक्तों का संग, मायावी लोगों का संग और लोलुपता मतलब तीव्र इच्छा और तीव्र इच्छाए भौतिक ही होती हैं अगर तीव्रेन भक्तियोगेन हैं तो ठीक हैं।परंतु यहां माया के भक्तों की बात की गई हैं,कली के चेले, जो भौतिक चीजें चाहते हैं,अगर भौतिक चीजों के लिए प्रबल इच्छा हैं तो उसी को लोलुपता कहा हैं लोलयम्। तो यह 6 प्रकार हैं, षड्भिर्भक्तिर्विनश्यति, जो हमारी भक्ति भाव का नाश करते हैं। तीसरा हैं, उपदेशामृत का तीसरा श्लोक *उत्साहान्निश्चयाद्धैर्यात्तत्तत्कर्मप्रवर्तनात् ।* *सङ्गत्यागात्सतो वृत्तेः षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति ॥ ३ ॥* इसमें कहा हैं षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति - तो आप अपनी किताब में लिख सकते है कुछ महत्वपूर्ण शब्द - फल और सफल। फल आप सब जानते हो। सफल क्यों कहते हैं? स अलग हैं फल अलग हैं। सफल कहेंगे तो,फल के साथ। अगर फल प्राप्त हुआ तो सफल। सफलता प्राप्त हुई, यश प्राप्त हुआ। निष्फल - फल प्राप्त नहीं हुआ। तो निष्फल और सफल। तो फल तो रहेगा ही, स जोड़ दिया तो सफल और नही जोड़ा तो निष्फल। तो यहाँ कौनसे छ: प्रकार हैं?जिनसे क्या होगा? षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति - पहले षड्भिर्भक्तिर्विनश्यति था और अब षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति हैं। _*इसी को भी फिर हेय और उपाधेय कहते है हेय मतलब जो निष्फल हैं मतलब त्याजय - जिसको त्यागना चाहिए । और उपाधेय मतलब जिनको अपनाना चाहिए या स्वीकारना चाहिए। उपयोगी और निरुपयोगी ऐसे शब्द भी हैं। आपको अगर शास्त्रों का सचमुच अध्ययन करना है तो यह शब्द भी सीखने होंगे। समझना होगा इन शब्दों को भी। हरि हरि। तो वो कौनसे छ: प्रकार हैं, जिनसे भक्ति का विकास होता हैं? या हमारी उन्नति होगी या प्रगति होगी। एक प्रगति है और दूसरी अधोगति हैं। गति मतलब जाना या आगे बढ़ना या लेकिन दोनों शब्दों में अर्थ बदलते हैं,गति तो गति ही हैं, दोनों शब्दों में। अधोगति और प्रगति। प्रगति मतलब उन्नति और अधोगति मतलब - आधो मतलब आधा - या नीचे। और गति मतलब जाना,तो व्याकरण के संधि के नियम के अनुसार अधोगति मतलब नीचे जा रहे है। तो हम निचे जा रहे हैं,गिर रहे हैं। तो दूसरा जो श्लोक था उसमे अधोगति की बात हैं। और इस श्लोक षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति - में सफलता की बात हैं , उन्नति की बात हैं , प्रगति की बात कही हैं। तो कैसे होगी प्रगति या क्या क्या करना होगा जिससे प्रगति होगी? भक्ति में प्रगति की बात चल रही हैं या आधयात्मिक जीवन में प्रगति, सफलता उन्नति की बात चल रही हैं। साफल्य शब्द भी आता हैं, साफल्य कहो या सफलता कहो एक ही बात हैं।तो वो ६ प्रकार है उत्साह, निश्चय, धैर्यात्त - आपने इन ६ में से ३ को एक साथ कई बार सुना। तो व्यक्ति को उत्सहित होना चाहिए। निश्चयी होना चाहिए। उत्साह हैं, निश्चय हैं, धैर्य हैं और फिर क्या तत तत् कर्मप्रवर्तनात्। भक्ति के जो अलग अलग तथ्य हैं साधन हैं, उनको अपनाने से परिवर्तन होता हैं।इसलिए कहा गया तत तत कर्मप्रवर्तनात्। ये ४ प्रकार हुआ। ऐसा करने से और सङ्गत्यागात और संग का त्याग करेंगे तो परिवर्तन होगा।संग के भी दो प्रकार होते हैं। एक हो गया सत्संग और दूसरे को कहेंगे असत्संग - असत मतलब झूट मूठ का और सतसंग में सत तो भगवान हैं,ॐ तत सत। तो भगवन के साथ जोड़ने वाला संग, जिस संग के साथ हम भगवन के साथ जुड़ जाये, उसको कहेंगे सत्संग या वही हैं साधुसंग। तो दूसरे श्लोक में था असतसंग - जनसङ्गश्च होगा तो षड्भिर्भक्तिर्विनश्यति -इसे आप लिख सकते हैं,अगर जनता का संग होगा, मायावी दुनियादारी लोगो का संग होगा, कामी क्रोधी लोभी लोगो का संग होगा तो षड्भिर्भक्तिर्विनश्यति - भक्ति का विनाश हो जायेगा। लेकिन भक्ति का विकास या उन्नति होगी क्या करने से? सङ्गत्यागात असत संग त्यागने से,मायावी संग त्यागने से,भक्तिः प्रसिध्यति और मायावी संग अपनाने से षड्भिर्भक्तिर्विनश्यति - आप लिख सकते हैं। हरि हरि ।। तो पाँच प्रकार हो गए और फिर सतो वृत्तेः - उसी को दूसरे शब्दों में, असत्संग को त्यागने के लिए कहा हैं।यहाँ तो ठीक हैं, असत संग तो त्याग दिया हमने अब कोई संग को अपनाना चाहिए या नहीं तो सत्संग - सतो वृत्तेः - साधु संग या भक्त संग वैष्णव संग को अपनाने से भक्ति में प्रगति होगी। भक्तीवृक्षा कार्यक्रम में जाने से, या मंदिर में जाने से, भक्तो के संग में जाने से, या भक्तो की इष्टोगोस्ति में जाने से, उनका संग करने से, उनकी सलाह लेने से भक्ति में प्रगति होगी।हमारे काउंसलर को हमने संपर्क किया सलाह किया तो ये हुआ सतो वृत्तेः। तो ये ६ प्रकार थे षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति - हमारी भक्ति में सफलता, उन्नति, प्रगति आप चाहते हो की नहीं ? तो चौथा श्लोक षड्विधं प्रीतिलक्षणम् - *ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति ।* *भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम् ॥ ४ ॥* तो इस श्लोक में भी छ: बातें बताई गयी हैं। षड्विधं प्रीतिलक्षणम् - प्रीति के लक्षण छ: हैं। छ: लक्षणों से पता चलेगा की आपका भगवद्भक्तो में प्रेम हैं या नही । वैष्णवों में प्रेम हैं या नही। वैष्णव के मध्य में प्रेम होंना चाहिए।और वो छ: प्रकार की लेंन देन कौनसी हैं? ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम् - तो ददाति प्रतिगृह्णाति - छ: को फिर २-२ में बाटा गया तो - ददाति प्रतिगृह्णाति - भक्तो को कुछ भेंट देना या उनके पास किसी चीज़ का अभाव हैं तो उनकी मदद करना, तो ददाति प्रतिगृह्णाति लेन देन की बात हैं। आदान-प्रदान करने की बात हैं। भेंट दो भेंट लो। सिर्फ लेना अच्छी बात नहीं हैं।केवल लेते जाओ और देने का नाम ना लो, यह प्रीति का लक्षण नहीं हैं।प्रीति हैं, देना और फिर लेना भी। आगे गुह्यमाख्याति पृच्छति - दिल की बात या कोई साक्षात्कार की बात या हो सकता हैं, कोई दिल में चुबने वाली बात,गुहयम कहा हैं - गोपनीय बात अख्याति मतलब कहना, किसी भक्त को जिसमे हमारा विश्वास हैं, हमारा मित्र हैं और फिर पूछना भी पृच्छति। तो यहाँ विचारो की लेन देन हैं। तो यहाँ कोई संवाद या कोई दिल की बात या विचारो के लेन देन की बात या कोई समस्या की बात हो सकती हैं। और हम कोई राय ले सकते हैं कि अब क्या करना चाहिए? ऐसी स्तिथि में क्या करें?क्या आप बता सकते हों? या कोई खुशखबरी बाँटना। तो यह सब। अब हर दिन प्रातकाल: में ज़ूम पर यह सत्र चल रहा हैं।जपा चर्चा भी होती हैं।ऐसे किसी को आप सुना सकते हो और उनसे भी कुछ सुन सकते हों,वो भी आपको कुछ बताएँगे।तो इसी प्रकार, भक्तो में संग संवाद होंना चाहिए, बातचीत होनी चाहिए और बातचीत से आपसी सामंजस्य भी बढ़ता हैं। ये बातचीत बंद नहीं होनी चाहिए। और फिर भुङ्क्ते भोजयते चैव - भुङ्क्ते जो प्रसाद को ग्रहण करे और या औरों ने आपको प्रसाद दिया या आपको उनके घर बुलाया और प्रसाद खिलाया और फिर अपने घर से अपने विग्रह का अपने घर से भोग लगाया हुआ प्रसाद आप भी उनके घर लेकर गये, उनको दिया या आपने उनको अपने घर बुलाया और उनको प्रसाद खिलाया। ये प्रसाद का लेन देन ये एक बड़ा प्रीति का लक्षण हैं इससे हमारे वैष्णवो के साथ सम्बन्ध और भी घनिष्ठ बन जाते हैं। प्रसाद साथ में बैठकर खाना और खिलाना इसमें बड़ा जादू हैं।भगवान इससे ऐसा कुछ करते हैं कि प्रसाद खाने, खिलाने से हमारे सम्बन्धो में सुधार होता हैं।अगर आप ऐसा करोगे तो मैत्री पूर्ण व्यवहार होने लगेंगे, हमारा एक दुसरे में विश्वास बढ़ेगा,तो हमारे जीवन में प्रसाद की बहुत बड़ी भूमिका हैं। ठीक हैं, तो अब हम यही रुकते हैं।उपदेशामृत के प्रथम जो यह ४ श्लोक हैं,हर श्लोक में ६-६ बातें बताई गयी हैं। और ये बहुत ही उपयोगी है। हमारे आध्यात्मिक जीवन की सफलता या निष्फलता इसी पर निर्भर हैं।हमारी प्रगति या अधोगति इसी पर निर्भर हैं।तो हम अधोगति तो नहीं चाहते और हमारे प्रयास निष्फल हो ऐसा भी नहीं चाहते। तो हमको इन सब बातो को भलीभांति पढ़ के याद रखना चाहिए। क्युकी आपको प्रचारक भी बनना हैं। जारे देखो तारे कहो कृष्णा उपदेश करना हैं की नहीं? यह तो हमारा धर्म हैं, कि जो जो हम सीखते हैं या जो हम समझ रहे हैं ये सभी बातें हमे औरो को बतानी हैं और उनको सीखाना हैं,समझाना हैं। और इसी के साथ कृष्णाभावना का प्रचार होगा। और इसी के साथ संसार के अधिक लोग जो आपके रिश्तेदार या आपके पडोसी,आपके मित्र उनका कल्याण होगा वे भी कृष्णाभावनाभावित बनेंगे। और उनका जीवन सफल होगा। भारत भूमि ते होइलो मनुष्य जन्म जार। जन्म सार्थक करि, कर पर उपकार।। भारत में जन्मे हो और जीवन की सार्थकता चाहते हो। जीवन अर्थपूर्ण हो तो कर पर उपकार । चैतन्य महाप्रभु ने कहा हैं कि उपकार करो , औरो पर उपकार करो। तो जब हम जारे देखो तारे कहो कृष्णा उपदेश करेंगे तो यही सबसे बड़ा उपकार होगा। और हम जब जारे देखो तारे कहो कृष्णा उपदेश करते है, तो हम औरो को कृष्णा को ही दे देते हैं। और लोगो को जब कृष्णा मिल गए तो फिर और क्या रह गया प्राप्त होना?जो कृष्णा पूर्णं अदा: पूर्णम इदाम् हैं,तो पूर्ण को ही आपने दे दिया। तो अपना जीवन सफल बनाने के लिए भी हमे ये जारे देखो तारे कहो कृष्णा उपदेश करना चाहिए। हरे कृष्णा।।

English

Russian