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जप चर्चा दिनांक 4 नवम्बर 2020 हरे कृष्ण! आपका स्वागत है और वर्चुअल ब्रजमंडल परिक्रमा में भी आपका स्वागत है। हम परिक्रमा में जा रहे हैं, उस समय हमारा ऐसा भाव हो सकता है या होना भी चाहिए कि हम कृष्ण को खोज रहे हैं, कृष्ण से मिलना चाहते हैं, कृष्ण का दर्शन चाहते हैं। इसलिए हम जा रहे हैं जैसे एक समय गोपियां एक वन से दूसरे वन कृष्ण को खोजती हुई जा रही थी। आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृन्दावनं रम्या काचिदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता। श्रीमद् भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान् श्री चैतन्य महाप्रभोर्मत तत्रादरो न परः।। ( चैतन्य मंज्जुषा) अनुवाद:- भगवान व्रजेन्द्रनंदन श्री कृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभवयुक्त उनका श्रीधाम वृंदावन आराध्य वस्तु है। व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी, वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है। श्रीमद्भागवत ग्रंथ ही निर्मल शब्द प्रमाण है और प्रेम ही पुरुषार्थ है- यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धांत हम लोगों के लिए परम आदरणीय है। वैसा ही गोपी जैसा भाव हमारे अंदर हो। हरि! हरि! ऐसा भाव कहां से आएगा? वैसे आत्मा का ऐसा भाव है। आत्मा हमारे मूल स्वरूप में मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः ( श्रीमद् भागवतं २.१०.६) अनुवाद:- परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर जीवात्मा के रूप की स्थायी स्थिति 'मुक्ति' है। आत्मा का ऐसा भाव है, उसी को जागृत करने का प्रयास ही हमारी साधना है। साधना के अंतर्गत ही यह वर्चुअल ब्रज मंडल परिक्रमा भी साधना है। ताकि हमारे स्वरूप का जो मूलभाव है वह पुनः जागृत हो, विकसित हो, प्रकाशित हो। परिक्रमा अब मथुरा से मधुवन जाने वाली है। मधुवन की जय! एक प्रकार की गणना से मधुवन, द्वादश वनों में पहला वन बन जाता है। हरि! हरि! नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान् कामानर्हते विड्भुजां ये। तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धयेतद्यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम्।। (श्रीमद् भागवतं ५.५.१) अनुवाद:- भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों से कहा : हे पुत्रों, इस संसार के समस्त देहधारियों में जिसे मनुष्य देह प्राप्त हुई है, उसे इंद्रियतृप्ति के लिए ही दिन-रात कठिन श्रम नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा तो मल खाने वाले कुकर सूकर भी कर लेते हैं। मनुष्य को चाहिए कि भक्ति का दिव्य पद प्राप्त करने के लिए वह अपने आपको तपस्या में लगाएं। ऐसा करने से उसका हृदय शुद्ध हो जाता है और जब वह इस पद को प्राप्त कर लेता है, तो उसे शाश्वत जीवन का आनंद मिलता है, जो भौतिक आनंद से परे है और अनवरत टिकने वाला है। कठोर तपस्या से ध्रुव महाराज की चेतना / भावना का शुद्धिकरण हुआ। भावना पूर्ण विकसित हुई। नारद मुनि से ओम नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र भी प्राप्त किया था। नारद मुनि उनके गुरु बने। वह भगवान से मिलना चाहते थे। इसलिए भगवान ने गुरु को भेजा, ताकि गुरु उन्हें भगवान् से मिलवाएं। नारद मुनि ने पूरा उपदेश किया तत्पश्चात ध्रुव अपनी साधना में लगे। केवल 6 महीनों में ध्रुव ने भगवान को अपने धाम अर्थात वैकुंठ से मधुवन में पधारने के लिए मजबूर किया। हरि! हरि! भगवान को आना ही पड़ा! ध्रुव महाराज ने रिकॉर्ड ब्रेक किया। भगवान का दर्शन केवल 6 महीने में प्राप्त किया। उन्होंने ऐसी कठोर तपस्या व साधना की। इस मंत्र का उच्चारण भी किया। तब भगवान ने प्रकट होकर ध्रुव महाराज को मधुवन में दर्शन दिया। यह सतयुग की बात है। त्रेता युग में भगवान पुनः मधुवन में प्रकट हुए। वह शत्रुघ्न भगवान थे। भगवान राम भी भगवान हैं। लक्ष्मण भी भगवान हैं। भरत भी भगवान हैं। शत्रुघ्न भी भगवान हैं। राम ने शत्रुघ्न भगवान को वृंदावन भेजा और तत्पश्चात वे मधुवन पहुंचे। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥८॥ ( श्रीमद् भगवतगीता ४.८) अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ। उन्होंने वहां रहने वाले लवणासुर का वध किया। लवणासुर एक प्रसिद्ध असुर था, जिसने मधुवन को अपना अड्डा बनाया हुआ था। लवणासुर की गुफा अब भी मधुवन में है। जब हम वहां जाते हैं तब नीचे गुफा है और ऊपर हम बैठते हैं। आज प्रातः कालीन नाश्ता प्रसाद भी वहीं मधुवन में होगा। भगवान् त्रेतायुग में प्रकट हुए। भगवान् शत्रुघ्न का मधवन में मंदिर भी है, जरूर दर्शन कीजिए। मधुवन में सभी भक्त परिक्रमा के दौरान भगवान् शत्रुघ्न के विग्रह का जरूर दर्शन करते हैं। द्वापर युग में तो भगवान वृंदावन आ ही गए अर्थात वृंदावन में प्रकट हुए। मधुवन में एक विशेष कुंड हैं, जिसे कृष्ण कुंड कहते हैं, यहां पर कृष्ण, बलराम और उनके मित्र अपनी गायों को जल पिलाने के लिए लाया करते थे। ब्रज के कुंडों का यह भी एक उपयोग है। गोचारण लीला, ब्रज मंडल में सर्वत्र होती है। गाय वहां की हरी घास अथवा हरियाली खाती है। जब पीने का समय आता है तो उस वन के किसी बगल वाले किसी कुंड में जाकर जलपान करती हैं। ऐसा है ब्रजमंडल, जो सबको सुखी रखता है। सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। नित्यो नित्यानां चेतनाश्चेतनानाम् एको बहूनां यो विद्धाति कामान्। तमात्मस्थं येअनुपश्यन्ति धीराः तेषां शान्तिः शाशवती नेतरेषाम्।। (कठोपनिषद २.२.१३) अनुवाद:- परम भगवान नित्य हैं और जीवात्मागण भी नित्य हैं। परम भगवान सचेतन हैं। सभी जीवात्मा भी सचेतन हैं। परंतु अंतर यह है कि एक परम भगवान सभी जीवात्माओं के जीवन की आवश्यकताओं को पूर्ण करते हैं। जो भक्तगण उस आत्मतुष्ट परम भगवान को निरंतर देखते रहते हैं या निरंतर स्मरण करते हैं, उन्हें ही शांति प्राप्त होती है, अन्यों को नहीं। सभी की इच्छा, कामना, आवश्यकता की पूर्ति करने वाला एक ही है। कृष्ण ने ब्रजमंडल में ऐसी व्यवस्था की है कि सब की आवश्यकताएं पूरी हो जाती हैं। गाय वहीं पर हरी घास खाती हैं और जलपान करती हैं। वहां का कुंड प्रसिद्ध है। जब मधुवन में निवास होता है तब भक्त उसी पवित्र कुंड में स्नान करते हैं, गोते भी लगाते हैं अथवा उस कुंड में स्नान/तैरने का आनंद भी लूटते हैं। भगवान कृष्ण भी उस कुंड में जरूर स्नान किया करते होंगे और आजकल कर भी रहे हैं। भगवान की नित्य लीला तो संपन्न होती ही रहती है। हर कुंड का जल गाय पीती है और हर कुंड में कृष्ण अपने मित्रों के साथ स्नान भी करते हैं। हो सकता है कभी गोपियों के साथ या कभी राधा के साथ भी । 'मधुवन में राधिका नाचे' नृत्य के उपरांत वे पसीने पसीने हो जाती हैं और फिर थकान भी महसूस करती हैं। तत्पश्चात जल अथवा जलाशय में प्रवेश करते हैं चाहे यमुना का जल हो या राधाकुंड का जल हो या अन्य कुंडो का जल हो। जलकेलि अर्थात जल- जल में और केलि मतलब लीला अर्थात जल में लीलाएं संपन्न होती हैं। इसी मधुवन में एक दिन कृष्ण अपने मित्रों के साथ गाय चरा रहे थे और ताल वन की ओर से मधुवन की तरफ हवा बह रही थी। हरि! हरि! हवा में आहहह! महक/ सुगंध थी। भगवान के मित्रों ने उसको सूंघ लिया तो वे समझ गए कि यह किसकी सुगंध है। ताल वन में जो ताल वृक्ष हैं अथवा ताल वृक्ष पर जो फल हैं, जो पके थे, उन्हीं पके फलों की गंध हवा/ वायु के साथ मधुवन तक पहुंच रही थी। सुगंध को सूंघने से भगवान के मित्रों के मुंह में कुछ पानी आने लगा। सभी हठ लेकर बैठ गए कि हमें वह फल खिलाओ ना, हम वह फल खाना चाहते हैं। तब कृष्ण और बलराम सारे मित्रों को लेकर मधुवन के बगल में स्थित वन अर्थात ताल वन में गए। द्वादश काननों ने तालवन दूसरे नंबर पर है। इस प्रकार ऐसी कई सारी लीलाएं मधुवन में संपन्न हुई जब द्वापर युग में कृष्ण प्रकट हुए। द्वापर के उपरांत कलियुग आ गया। कलियुग में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय! जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए थे और चैतन्य महाप्रभु वृंदावन आए तब आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृन्दावनं रम्या काचिदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता। श्रीमद् भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान् श्री चैतन्य महाप्रभोर्मत तत्रादरो न परः।। ( चैतन्य मंज्जुषा) अनुवाद:-भगवान व्रजेन्द्रनंदन श्री कृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभवयुक्त उनका श्रीधाम वृंदावन आराध्य वस्तु है। व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी, वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है। श्रीमद्भागवत ग्रंथ ही निर्मल शब्द प्रमाण है और प्रेम ही पुरुषार्थ है- यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धांत हम लोगों के लिए परम आदरणीय है। उनका मन था कि बृजेंद्र नंदन की आराधना होनी चाहिए। साथ में और किसकी आराधना होनी चाहिए? और कौन आराध्य है? कौन आराधनीय है? धाम आराधनीय है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने धाम की आराधना की। कैसे की? उन्होंने परिक्रमा करते हुए धाम की आराधना की। धाम की सेवा की, वृंदावन में या नवद्वीप में परिक्रमा करना इसको पादसेवनम भी कहा जाता है। श्रवणं कीर्तनं विष्णो: समरणं पादसेवनम। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।। इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्र्चेन्नवलक्षणा। क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येअ्धीतमुत्तमम। प्रल्हाद महाराज ने कहा: भगवान विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रुप, साज सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान के चरण कमलों की सेवा करना, षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान की सादर पूजा करना, भगवान को प्रार्थना अर्पण करना, उनका दास बनना, भगवान को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना (अर्थात मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना) शुद्ध भक्ति की यह नौ विधियां स्वीकार की गई है। जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है, उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए, क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है। नवधा भक्ति में परिक्रमा करना पादसेवनम कहलाता है। जब श्री चैतन्य महाप्रभु पहले मथुरा में पहुंचे और विश्राम घाट पर स्नान किया। वहां से कृष्ण जन्मस्थान पर गए और केशव देव का दर्शन किया। एक लोकल ब्राह्मण, चैतन्य महाप्रभु के पंडा अथवा गाइड बने। उसने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को मथुरा मंडल का दर्शन करवाया। चारों दिक्पालों की स्थलियों पर ले गया, तत्पश्चात सप्तर्षी टीला पर ले गया कुब्जा के भवन, कृष्ण जन्मस्थान आदि ऐसे सारे स्थान जब वह दिखा रहा था तब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के मन में ब्रज मंडल परिक्रमा करने की इच्छा जगी, उस ब्राह्मण ने कहा, क्यों नही! मैं आपको ब्रजमंडल की परिक्रमा करवाता हूं। यह मधुवन वह पहला स्थान था जहां पर वह, चैतन्य महाप्रभु को लेकर आया था। इस प्रकार चारों युगों में भगवान मधुवन में प्रकट हुए हैं अर्थात भगवान की लीलाएं संपन्न हुई है। मधुवन की जय! वैसे और भी लीला कथाएं हैं। हमारा जो ब्रज मंडल दर्शन ग्रंथ है, उसमें पढ़िएगा। हरि! हरि! आप भागवतम में भी ध्रुव महाराज का चरित्र पढ़ सकते हो। श्रील प्रभुपाद की श्री कृष्णा पुस्तक पढ़ो और वर्चुअल परिक्रमा भी ज्वाइन कीजिए। हम जो कुछ कह रहे हैं,आप वह स्थान देखोगे भी अर्थात उनका दर्शन होगा और ऑडियो विजुअल भी है अथवा उसको सुनोगे भी। सुनोगे और देखोगे भी। सीइंग इज बेलीविंग, जब आप देखोगे तो फिर विश्वास होगा। विश्वास बढेगा। इस परिक्रमा को मिस मत करना। आपकी सुविधा के लिए परिक्रमा हेतु हमारी टीम के और भी प्रयास चल रहे हैं। जिससे आपको और अधिक पूर्ण एक्सपीरियंस मिले, पिछले कई महीनों से ब्रज मंडल परिक्रमा में नियुक्त की हुई टीम अर्थात वैष्णवों का समूह कड़ी मेहनत कर रही है। वे पूर्ण तपस्या कर रहे हैं। वे इस प्रयास से जरूर लाभान्वित होंगे। वैसे वे आपके लिए वैष्णव सेवा कर रहे हैं। वैष्णव सेवन ताकि आप परिक्रमा कर पाओ । आपको उनका आभारी होना होगा जो आपके पास, आपके घर में वृंदावन पहुंचा रहे हैं, सारे वनों को पहुंचा रहे हैं। सारी परिक्रमा को पहुंचा रहे है। ओके हरे कृष्ण!

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