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हरे कृष्ण! जप चर्चा पंढरपुर धाम से, 3 नवम्बर 2020 हरे कृष्ण । आप सभी का स्वागत है । परिक्रमा का कोणसा दिन चल रहा है ? तिसरा या चौथा ? परिक्रमा मथुरा में पहुंची है , इस तरह से अन्यस्थान की तैयारी भी हो रही है । मथुरा धाम की जय । कृष्ण भी अब मथुरा में प्रवेश करेंगे जन्में तो कब के थे , 10 - 11 वर्ष पूर्व जन्में थे फिर वहां से रातों-रात गोकुल में प्रस्थान किया । गोकुल में 3 वर्ष और 8 महीने रहे ऐसा विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर का कहना है , और फिर आए हैं वृंदावन में , वहां पधार चुके हैं । दीपावली के दिन प्रस्थान किया , गोकुल को छोड़कर , जमुना पार करके वृंदावन आये और फिर वहा रहे 10 - 11 साल के वह हुये थे , वहां पर अक्रूर पहुंचे हैं और उनको रथ में बिठा के उन्होंने मथुरा के लिए प्रस्थान किया है । उनका रथ अक्रूर घाट तक पहुंचा हैं , अक्रूर घाट पर या एक स्थान पर , जमुना के तट पर उन्होंने उस रथ को थोड़ा रोख लिया , कृष्ण बलराम रथ में बैठे रहे और अक्रूर ने जमुना में प्रवेश किया , वहां उन्होंने स्नान किया , जमुना मैया की जय । ध्यान ही कर रहे थे , गायत्री का मन ही मन में जप कर रहे थे , तब ध्यान अवस्था में अंक्रूर जी ने यह देखा , दर्शन किया या अनुभव किया , उनको आभास हुआ , आभास क्या वैसे उन्होंने देखा ही । ध्यान में देखा कि वह अनंत अशेष है , अनंतशैय्या है । अनंत शेष है और उन पर पहूड़े हुए हैं , लेटे हूये है , कृष्ण भगवान चतुर्भुज मूर्ती या वासुदेव कहिए और लक्ष्मी उनके चरणों की सेवा कर रही है और नारद आदी , शिवा आदि ब्रह्मा , वरुणेंद्र चंद्र इंद्र सभी प्रार्थना कर रहे हैं । सूत उयाच यं ब्रह्मा वरुणेन्द्रुब्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै-बैदै:* *साङ्गपदक्रमोपनिषदैगायन्ति यं सामगाः। ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥ (श्रीमद भागवत 12.13.1) *अनुवाद :* सूत गोस्वामी ने कहा : बरहमा, वरुण, इन्द्र, रुद्र तथा मरुत्गण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों, पद-क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं, सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं, सिद्ध योगी अपने को समाधि में स्थिर करके और अपने को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता-ऐसे भगवान् को में सादर नमस्कार करता हूँ। तब अकृर के मन मे ऐसा विचार आया , "मैंने कृष्ण बलराम को देखा क्या ?, वह कृष्ण बलराम ही बने हैं , बलराम बने हैं अनंत अशेष और कृष्ण बने हैं चतुर्भुज मूर्ति , विष्णू या वासुदेव " तब झट से वह नदी से बाहर आकर रथ की ओर जाकर देखते हैं तो कृष्ण बलराम तो वैसे ही बैठे हैं , फिर वह तो बैठे थे । उनकी सांत्वना , समाधान तो हुआ थोड़ा , इतना परिश्रम और असुविधा भी कहो । सावधानी के साथ वह कृष्ण बलराम को वहां तक लाए थे , जमुना के तट पर लाए थे और मथुरा ज्यादा दूर नहीं थी वहां से तो पुनः जाकर वह जमुना में प्रवेश करते हैं और पुनः भी देखते हैं कि वही तो दृश्य है वहां पर , वहां पर भी वही दृश्य है , अनंतशेष भी है , चतुर्भुज मूर्ति भी है और साथ ही साथ कृष्ण बलराम भी विराजमान है । कृष्णा बलराम तो है ही , कृष्ण बलराम को मथुरा के और वह लेकर जा रहे हैं । संक्षिप्त में यह सिद्धांत की बात है या तत्व की बात है । *जन्म कर्म च दिव्यम एवं योगी तत्वत:* ऐसा भगवान ने कहा है । तत्व की बात , सिद्धांत की बात , ऐसा चैतन्य चरितामृत मे कहा है। सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस। इहा हुइते कृष्णे लागे सुदृढ़ मानस ।। (चैतन्य चरितामृत आदी 2.117) *अनुवाद :* निष्ठापूर्ण जिज्ञासु को चाहिए कि ऐसे सिद्धान्तों की व्याख्या को बिवादास्पद मानकर उनकी उपेक्षा न करे, क्योंकि ऐसी व्याख्याओं से मन दृढ़ होता है। इस तरह मनुष्य का मन श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्त होता है। यह सिद्धांत को समझने में आलस्य नहीं करना चाहिए , भगवान की लीला को सिद्धांत के अनुसार , तत्व के अनुसार समझना चाहिए । यह हुआ क्या है ? उस समय से इस स्थान का नाम हुआ अकृर घाट । भागवत मे इसी स्थान पर अक्रूर की प्रार्थनाये भी है । इसी स्थान पर अकृरने भगवान से प्रार्थना की थी , जब वह देख रहे थे , दर्शन कर रहे थे। अनंतशैय्या है और चतुर्भुज मूर्ति है टब अकृर ने प्रार्थना की है भागवत में कई सारी प्रार्थनाये है , स्तुतीयां है । उसमें से 1 अक्रुर की प्रसिद्ध प्रार्थना , स्तुती है , उस समय से इंस स्थान का नाम हुआ अक्रूर घाट । आप जब जाओगे , परिक्रमा में गये तो थे तब आपने उस घाट का दर्शन किया होंगा । वहां कृष्ण बलराम घाट भी है वैसे कृष्ण बलराम और अक्रूर का वहां दर्शन है और यह अकृर घाट जो स्थान है यह वृंदावन और मथुरा की सीमा मानी जाती है , पीछे रह गया वृंदावन अक्रूर जैसे आगे बढते है वहां से वहां से मथुरा में प्रवेश होता है । एक बात आपने सुनी होगी , वृंदावन को छोड़कर भगवान एक पक भी बाहर नहीं जाते । भगवान , *कृष्णास्तू भगवान स्वयं* जो है , वह वृंदावन में रहते हैं और वृंदावन से बाहर भी जाते हैं , बाहर जाने वाले वह फिर मथुरा के कृष्ण बन जाते हैं फिर आगे द्वारका के कृष्ण बनने वाले हैं । अक्रूर जब रथ को हाकते हुए कृष्ण बलराम को मथुरा में प्रवेश कर रहे थे , उनको ले जा रहे थे तो कृष्ण बलराम वैसे ही दिख रहे थे जैसे वृंदावन के कृष्ण बलराम दिखते थे , दर्शन तो वैसा ही है , उनका रूप तो वैसा ही दिखता है किंतु उनकी भागवत्ता की दृष्टि से कुछ बदलाव हुआ है । जैसे दूसरे तत्व का है , जब भगवान द्वारका में भगवान पूर्ण होते हैं और मथुरा में कृष्ण पूर्ण तर होते हैं मतलब अधिक पूर्ण होते हैं और वृंदावन में कृष्ण पूर्णतम होते हैं ।आप समझ रहे हो ? पूर्ण , पूर्णतर , पूर्णतम । वृंदावन के पूर्णतम कृष्ण वृंदावन मे रह जाते हैं और वह पूर्णतर बनके मथुरा में प्रवेश करते हैं और वहा भी लीला संपन्न होने वाली है । जब ऐसे मथुरा में जन्मे ही थे फिर वह मथुरा के कृष्ण वासुदेव है और वृंदावन के कृष्ण , कृष्ण है ऐसा यह भेद है और भेद नहीं भी है , यह सब अचित्य भेदाभेद की बातें हैं । हरि हरि । *मथुरा धाम की जय ।* मथुरा में जैसे ही प्रवेश हुआ है और फिर यह सब बातें हैं , मथुरा में भगवान का स्वागत और भगवान बलराम के साथ और अन्य ग्वाल बाल भी पीछे से आए थे वह भी जुट गए , नंद बाबा के साथ बृजवासी भी मथुरा आए हैं । कृष्ण जब भ्रमण कर रहे थे , मथुरा जैसी नगरी उन्होंने कभी भी नहीं देखी थी , वृंदावन में तो ग्राम है , गांव है , वन है लेकिन मथुरा तो नगरी है ,शहर है , इस नगर का भ्रमण हो रहा है । यह हमको भी याद है , ऐसा होता ही है , हम भी जब पहली बार गांव से शहर गए वह शहर 10 मील दूरी पर था मेरे गांव से , लेकिन 13 साल की उम्र हूई तो हमने पहली बार शहर देखा जो 10 किलोमीटर दूरी पर था । और फिर शहर की शोभा हम भी देख रहे थे , वहा की इमारते कहो या वहां के रास्ते कहो और क्या कहना ? जीवन में पहली बार हमने इलेक्ट्रिसिटी देखी , दिये (बल्ब) जल रहे हैं और कई सारी गाड़ियां हैं । हमने तो सिर्फ बैलगाड़ी देखी थी वहां मोटर गाड़ी भी थी और मैं जब अपने मित्रों के साथ तासगाव नगरी देख रहा था , वैसे सभी बालक ऐसे देखते रहते थे , आश्चर्य लगता है जब बड़े शहर को देखते हैं । कृष्णा भी कोई अपवाद नहीं है , कृष्ण भी बालसुलभ लीला खेल रहे हैं ,अपने लीलासे वह भी दर्शा रहे है कि मैं भी बालक हूं , मैं भी इस मथुरा नगरी को देखना चाहता हूं वह देख रहे थे , कृष्ण बलराम और उनके मित्र हब मथुरा देख रहे थे तब उनकी आरती उतारी जा रही थी , मथुरा वासी कृष्ण बलराम की आरती उतार रहे थे । वृंदावन में कोई कृष्ण बलराम की आरती नहीं उतरता था । वृंदावन में तो यशोदा कान पकड़ती है या छड़ी लेकर डराती है । यहा मथुरा में भगवान की पहचान भिन्न है , भगवान महान है ,भगवान वैभव की खान है , वैभव से संपन्न है ऐसा ज्ञान मथुरा वासियों का है तो वह आरती उतार रहे हैं । हरि हरि । कृष्ण बलराम जब मथुरा में पहुंच चुके हैं और अब वह जाना चाहते हैं , उनको रंगमंच की ओर जाना है जहा कुस्ती का मैदान कंस मथुरा नरेश ने बनाया है । कृष्णा बलराम सोच रहे थे कि जैसा देश वैसा भेष होना चाहिए । हम इस मथुरा प्रदेश में पहुंच है तो यहां का भेष हो , हम ऐसा भेष करें और उन्होंने वहां के धोबी को देखा वह बहुत सारे वस्त्र धोकेे , लेकर जा रहा था । तो उन्होंने मांगे कि ," कुछ वस्त्र दीजिए , पहनने के लिए ।" उसने कहा , " यह वस्त्र , मथुरा नरेश कंस महाराज के हैं और तुम उनके वस्त्र की मांग कर रहे हो ।" (हंसते हुए ) भगवान ने एक तमाचा तो नहीं मारा , उंहोणे हथेली से लेकिन गर्दन को खींचा और उसीके साथ वह नहीं रहा , उसके प्राण चले गये। और भी धोबी थे, वे अपने वस्त्र जो थे वहीं फेंक के वहां पर गए और श्री कृष्ण बलराम और उनके मित्रों ने अपने पसंद के वस्त्र पहन लिए और जा रहे थे। लेकीन कृष्ण बलराम और उनके मित्र तो बालक थे और यह वस्त्र तो बड़े लोगों के, राजा के थे तो उनको वहां बैठ नहीं रहे थे। तो आगे जाकर उनको एक टेलरिंग शॉप ( दर्जी का दुकान ) मिला उस टेलर ( दर्जी ) ने भगवान के नाप अनुसार वस्त्र अच्छे से बना दिए। और फिर आगे बढ़े तो एक फूल के दुकान में फूल की माला की बिक्री हो रही थी तो उस दुकान के मालिक ने बिना पूछे ही कृष्ण बलराम और उनके मित्रों को मालाएं अर्पित की, लेकिन कृष्ण बलराम चाहते थे कि वस्त्र तो हो गए, तो फिर माला भी तो चाहिए! सुदामा ऐसा कुछ नाम है में भूल गया, तो शायद उसको पता चला होगा कि, जब धोबी वस्त्र नहीं दे रहा तो भगवान ने उसका क्या हाल बना दिया उसका प्राण ही ले लिया तो फूल वाले ने बेचारेने बिन मांगे ही मालाएं अर्पित की, पुष्पवृष्टि की और फिर भगवान ने विशेष कृपा भी की है। अब और आगे बढ़ते है तो कृष्ण बलराम ने देखा कि, टेडी मेडी कुब्जा जा रही है और उसके हाथ में चंदन है। अलग-अलग रंग और चंदन मिलाके वह कंस की सेवा में उसे लेकर जा रही थी मेहल कि और, तो अब वस्त्र भी ठीक से थे, मालाएं भी पहनी है अब कमी तो चंदन लेपन की ही थी, तो कुब्जा ने कृष्णा और बलराम के विग्रह का चंदन लेपन किया। और इसके साथ कुब्जा पर भगवान बड़े प्रसन्न थे, भगवान ने उपहार दिया या पुरस्कृत किए। क्या किया भगवान ने? तो कृष्ण ने अपने चरणों से उसके शरीर को उठा दिया तो जो कुब्जा टेढ़ी-मेढ़ी थी , वह सीधी हो गई! वह सुंदर दिखने लगी! फिर आप कृष्ण बलराम आगे बढ़ रहे हैं उनको जहां पर कुश्ती का मैदान है वहां पर पहुंचना है। जहां पर मुष्ठी और जानवी जैसे बड़े बड़े पहलवान और कुवलयापीड़ ये सब कृष्ण बलराम के प्रतीक्षा में है। तो कृष्ण और बलराम आगे बढ़ रहे हैं तो रास्ते में उन्होंने देखा कि, धनूरयज्ञ हो रहा है। कंस को एक विशेष धनुष्य प्राप्त हुआ था उस की पूजा चल रही थी तो कृष्ण और बलराम वह देख रहे थे, तो आगे बढ़कर जैसे ही उन्होंने वह धनुष उठाया तो उस धनुष के दो टुकड़े हो गए, तो कृष्ण ने अपने पास एक रखा और बलराम को कहा कि, तुम अपने पास एक रखो! तो वहां पर जो उपस्थित पुरोहित और जो भी मंत्री वगैरा थे या फिर सैनिक थे वे कृष्ण बलराम की और आगे बढ़कर उनको दंडित करना चाह रहे थे और उनसे कहना चाहते थे कि क्या किया आपने ? हम यज्ञ कर रहे थे और आप ने धनुष तोड़ दिया! तो कृष्ण और बलराम ने जो धनुष था उसका एक एक टुकड़ा अपने हाथ में लिया हुआ था उसी के साथ उनके सर फोड़के सबको लिटाया। और जब धनुष तोड़ा तो उसके आवाज को कंस ने सुना और उसको बताया गया था जब उसको धनुष दिया गया था दान में कि, जो इस धनुष को तोड़ेगा तो समझ लेना वही व्यक्ति तुम्हारे रीढ़ की हड्डी तोड़ेगा और तुम्हारा सर फोड़ेगा! तो कंस को पता चला कि, यह धनुष टूटने की आवाज या ध्वनि को मैं सुन रहा हूं तो अब मेरी मृत्यु निकट आ रही है! उसको पता चला कि, यह कृष्ण बलराम जिनको मैंने अक्रूर की मदद से बुलाया यह उन्हीं की करतूत होगी, मेरी मृत्यु अब और निकट पहुंच गई है। फिर भी यह सोच रहा था कि, रास्ते में कुवलयापीड़ भी है। वह सोच रहा था कि इस पृथ्वी पर कुवलयापीड़ जैसा बलवान हाथी और कोई नहीं है। यह हाथी कंसको जरासंध ने दहेज में दिया हुआ था। उसको कुवलयापीड़ को कंस रास्ते में खड़ा किए थे, रंगमंच के द्वार पर ही उसने कुवलयापीड़ को खड़ा किया था ताकि जब यह दो बालक आएंगे तो, कुवलयापीड़ अपने पैरों के नीचे उनको कुचल डालेगा यह आपने सुंड से पीटेगा, गिराएगा, मार देगा ऐसा विश्वास था कंस का। तो अब कृष्ण बलराम और कुवलयापीड़ के मध्य में युद्ध हो रहा है हरि हरि। और फिर कृष्ण ने कुवलयापीड़ का भी वध किया। कुवलयापीड़ धड़ाम करके गिरा है! इस घटनाक्रम का सुखदेव गोस्वामी वर्णन किए है कि, केसे कृष्णा और कुवलयापीड़ लड़े। तो कृष्ण और बलराम ने उस कुवलयापीड़ का एक-एक दात उखाड़ के निकाला और अपने कंधे पर रखकर कृष्ण बलराम उस रंगमंच की और कुश्ती का जो मंच था, उस मैदान का जो प्रवेश द्वार था वहां से प्रवेश किए। और कंस ने देखा कि, बालक तो छोटे है लेकिन कोकुवलयापीड़ के मोटे दांत को लेकर वह प्रवेश कर रहे है तो कंस तो समझ गया कि, इन्होंने कुवलयापीड़बलिया का भी कल्याण कर दिया है और उसकी जान ले ली है, अब मेरी जान बची है। तो वहां पर जो उपस्थित थे उन सभी के अलग-अलग भाव का भी वर्णन आता है। स्त्रियां है, बुजुर्ग लोग है और कई प्रकार के लोग है तो उन्होंने भिन्न-भिन्न समझा या कृष्ण और बलराम का अनुभव किया। और कंस ने भी अनुभव किया कि, यह मेरी मृत्यु है! और कुश्ती शुरू हो गई। तो कृष्ण और बलराम में जो पांच विशेष योद्धा या पहलवान थे चल, कौशल मुश्टी तो इन सभी को परास्त किया और उनकी जान उस रंगमंच में चली गई। और फिर और भी कई पहलवान से जो कतार में खड़े हुए थे वे वहां से भाग गए। तो कृष्ण जब कंस मामा की और आगे बढ़े तो वह एक बड़े सिहासन पर विराजमान थे और कृष्ण ने कंस को पीछे घसीट लिया और उन्हें कुछ ज्यादा करना नहीं पड़ा थोड़ी सी कुश्ती हुई और सब समाप्त! मामा नहीं रहे! कंस के कंक इत्यादि 8 भाई थे, वे आगे बढ़े तो फिर बलराम ने कंस के भाइयों का वध किया। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! उसी के साथ फिर पुष्पवृष्टि हुई। एक अग्रगण्य दुष्ट का संहार हुआ! सारे संसार को हर्ष हुआ देवता पुष्पपुष्टि करने लगे, अप्सराओं ने नृत्य किया, गंधर्व गीत गा रहे है। हरि हरि। तो कृष्ण कंस के शरीर को मथुरा में घसीटते हुए ले कर जा रहे है और दिखा रहे है, देखो! उसे एक चूहे जैसा पकड़ कर सभी को दिखा रहे थे और कह रहे थे, अब निर्भर हो जाओ अब डरने की कोई जरूरत नहीं! और ऐसा भी सुनने को आता है कि, यमुना के तट पर कुछ क्षण के लिए विश्राम किया है और उसी के उपरांत अपने माता पिता यानी देवकी और वसुदेव के साथ मिलन हुआ है। जब कृष्ण जन्मे थे तभी उनसे मिले थे, और बलराम तो मिले भी नहीं थे, उनका तो गर्भातरन हुआ था। उनका सातवां पुत्र बलराम तो उनसे पहली बार मिल रहे थे। और कृष्ण दूसरी बार मिले थे लेकिन पहली बार कुछ घंटों या मिनटों के लिए ही मिले थे। अब 11 वर्षों के उपरांत देवकी और वसुदेव अपने अपत्यों को मिल रहे थे, उनका पुनः मिलन हुआ है। और अब कृष्ण बलराम मथुरा में ही रहने वाले है देवकी और वसुदेव के साथ। मथुरा धाम की जय! कृष्ण बलराम की जय! वसुदेव देवकी की जय! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! ठीक है! तो परिक्रमा भी देखते रहो, सुनते रहो! यह भी कार्तिक व्रत का एक अंग है। और यह प्रातकालीन जप और यह जपा टॉक जो चल रहा है। और दामोदर मास में दीपदान कर रहे हो? चंद्रिका माताजी आरवदे में हो या दुबई में है? और भक्तों को भी इस जापा टॉक में जोड़ो और सायंकाल के परिक्रमा में भी जोड़ो! और उनके दीपदान भी करवाओ! बेंगलुरु में तो हो रहा है। और लोगों पर कृपा करो उनको भी दामोदर दे दो! ले लो दामोदर, ले लो कृष्ण! ठिक है। हरे कृष्ण!

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