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जप चर्चा, 31 दिसंबर 2021, रेवदंडा. गौरांग! 1052 स्थानो से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। गुरु महाराज कांफ्रेंस में एक भक्त को संबोधित करते हुए, "आप भी एक स्थान से हो।" ठीक है, सुप्रभातम, आप सब का स्वागत और अभिनंदन है। जपा कॉन्फ्रेंस से जुड़ने के लिए, आपका संग देने के लिए, आपकी उपस्थिति के लिए आपका जितना अभिनंदन करें इस संबंध में वह कम ही होगा। श्रीभगवान का ऐश्वर्य भगवदगीता, श्रीमद् भगवदगीता की जय! गीता जयंती महोत्सव की जय! पराशर मुनि उन्होंने भगवान के षडऐश्वर्य का उल्लेख किया है। वह विश्व प्रसिद्ध वचन है, *ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसा: श्रीय: ज्ञान वैराग्ययोश चैव सन्नम भग इतिंगना।।* प्रभुपाद उसका बारंबार उदाहरण देते रहते हैं। भगवान के षडऐश्वर्य, वह षडऐश्वर्य पूर्ण है, इसलिए उनको भगवान कहते हैं। भग मतलब, भग इस शब्द का भावार्थ ऐश्वर्य है। वैभव है या विभूति है। गौरव कहिए तो भी सही है। तो वह षडऐश्वर्य जिसमें ज्ञान भी है। ज्ञान भगवान का ऐश्वर्य है। भगवान ज्ञानवान है इसलिए उनको भगवान कहते हैं। वह सौंदर्य की खान है इसीलिए उनको भगवान कहते हैं। सौंदर्यवान कहो या भगवान कहो दोनों ही एक ही है, इसलिए उनको भगवान कहते हैं। वह वैराग्य की खान हैं वैराग्य की तो कोई सीमा ही नहीं है। चैतन्य महाप्रभु के रूप में उन्होंने संन्यास लिया। भगवान ने लिया संन्यास। वह वैराग्य की मूर्ति है। “मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति, जहां तक वैराग्य की बात है मेरे बराबर की बैरागी या उससे उंचा कोई संभव ही नहीं है। इस प्रकार जो ऐश्वर्य या संपत्ति है। धन संपदा है। उसमें सिर्फ कृष्ण नंबर वन है। उनसे आगे कोई नहीं है। वह अकेले ही नंबर वन है। भगवान धनवान है इसलिए उनको भगवान कहते हैं। ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य भगवान का वीर्य या शौर्य, तो हो गए कुछ 5-6 होने चाहिए। इसको मैं संक्षिप्त में बताना तो चाहता था लेकिन ऐश्वर्य की ओर मुड़ना है। यह मुख्य मुख्य ऐश्वर्य है। इसीलिए उनको भगवान कहते हैं. या फिर जैसे मैंने कहा वे ज्ञानवान है इसलिए उनको भगवान कहते हैं। या फिर भगवदगीता में कहां है, भगवानुवाच जो भगवानुवाच वहा आसानीसे ज्ञानवानुवाच कहा जा सकता है। वह ज्ञानवान भगवान, उनके मुखारविंद से निकले हुए वचन है भगवदगीता का ज्ञान। फिर क्या कहना इस गीता की महिमा। ज्ञानवान भगवान ने कहे हुए यह वचन है। जब यह कह रहे थे, उसी के अंतर्गत दसवें अध्याय में उन्होंने अपने और कुछ वैभव का उल्लेख किया है। अर्जुन को सुना रहे हैं ताकि, अर्जुन समझेगा भगवान को। समझेगा कौन है भगवान और वह समझ कर फिर अर्जुन और कृष्णभावनाभावित होगा। कृष्ण कौन है, कृष्ण अपना परिचय दे रहे हैं। कृष्ण केवल कृष्ण से ही सीमित नहीं है। कृष्ण और भी क्या क्या बहुत कुछ है। कृष्ण कृष्ण कृष्ण कृष्ण यह मैं हूं ,यह मैं हूं, यह मैं हूं। इस ब्रह्मांड के कई वस्तु है या व्यक्ति हैं। घटनाएं हैं। यह मैं हूं तो पूरे संसार का ध्यान करते हुए ब्रह्मांड का या ब्रह्मांडो का कहना होगा। यह भी भगवान का वैभव हुआ, यानी यह या फिर कहते कहते दसवें अध्याय को कब पढ़ुंगा, अनंतकोटी ब्रम्हांडनायक हो गया कि नहीं। भगवान का वैभव कैसे हैं, भगवान अनंतकोटी ब्रम्हांड के नायक है। मोटे मोटे नाम गिनते हैं, वैसे गिनना और कहना और थोड़ा आगे दौड़ना कठिन है। क्योंकि यहां और वैभव है। विभूति हैं। ऐश्वर्या है वह सुनने मात्र से हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। इस संबंध में अधिक चिंतन करने के लिए अधिक मजबूर करता है। कैसा है यहां सर्वाकर्षक यकर्षति सःकृष्ण इसीलिए दौड़ना एक वैभव से दूसरी वैभव की ओर दौड़ना होगा। कठिन है फिर भी प्रयास करना होगा। तो ध्यान पूर्वक सुनिए। श्रद्धापूर्वक सुनिए। एकाग्र बुद्धि से, कुशाग्र बुद्धि से सुनिए ताकि, सुनते ही आपको यह छूएगा यह वैभव। कुछ ध्वनित होगा। कुछ भाव उत्पन्न करेगा, ध्यानपूर्वक सुनने से श्रद्धा पूर्वक सुनने से यह भाव उदित होंगे। या हम कृष्णभावना भावेश होंगे हम जैसे जैसे सुनते जाएंगे हम केवल नाम ही गिन रहे हैं या भाष्य सुनाने के लिए अधिक समय नहीं है। आदित्यानामहं विष्णु आदित्यो मे जो द्वादश आदित्य है, उसमें विष्णु मैं हूं। उसमें जो विष्णु है व्दादश आदित्यो में जो विष्णु है वह विष्णु मैं हूं। र्ज्योतिषां रविरंशुमान्, जितने भी ज्योतिया है ज्योति है उसमें रवि या सूर्य में हूं। है कि नहीं है? जो है, सही है वही भगवान कह रहे हैं।नक्षत्राणामहं शशी, नक्षत्रों में मैं चंद्र हूं। वेदानां सामवेदोऽस्मि, चार वेदों में सामवेद में हूं। यह नहीं कि और वेद में नहीं हूं। यह नहीं कि और नक्षत्र में नहीं हूं। लेकिन उनमें भी विशेष नक्षत्र कहो या उन वेदों में विशेष वेद कहो सामवेद में हूं। देवानामस्मि वासवः और देवों में इंद्र देवेंद्र मैं हूं। इन्द्रियाणां मनश्र्चास्मि कल बता रहे थे हमारे इंद्रियों में मनषष्ठानि इंद्रियानी छठवां या सिक्सथ सेंस छठवां इंद्रिय मन है। तो वह मन मैं हूं। आप जानते हो मन कितना बलवान है। कितना चंचल है। यह मन भी मैं हूं। और है कैसे प्रकृति पृष्ठ अदा आठ प्रकार के प्रकृति या हैं उसमें से मन बुद्धि अहंकार जो सूक्ष्म प्रकृतिरष्टधा है। वह मन मैं हूं या मेरी शक्ति है। वैसे समझ भी सकते हैं कैसे मन भगवान का वैभव है। रुद्राणां शंकरश्र्चास्मि एकादश या 11 रूद्र है उसमें शिव या शंकर मैं हूं, भगवान कहते हैं। मेरू: शिखरिणामहम्, कई सारे पर्वत य पहाड़ है। पृथ्वी पर, ब्रह्मांड में है उसमें जो मेरु पर्वत है मैं हुं। उसी के साथ वैसे खगोल का पता चलता है। एक होता है भूगोल पृथ्वी गोलाकार है। यह कब से लिखा है पृथ्वी गोल है लेकिन आजकल कई लोग समझते हैं या मुस्लिम लोग पृथ्वी सपाट है। अभी अभी डिस्कवरी हुई एकसौ दोसौ साल पहले वैज्ञानिकों ने डिस्कवर किया पृथ्वी आकृति में गोल है। हरि बोल, क्या मूर्खता है। यह भूगोल है, यह तो सदियों से पता है। वेदिक कल्चर के संस्कृति के जो जन हैं भूगोल भी है या खगोल भी है। तो दोनों गोल है। पृथ्वी गोल है और खगोल ब्रह्मांड भी गोल है। उसमें मेरु पर्वत भी है। वह मैं हूं भगवान कहते हैं। पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् | कई सारे पुरोहित है। पुरोहित कहते हैं फिर जो औरों का हित चाहते हैं। औरों के हित की बात कहते हैं सुनाते हैं। उसी प्रकार का मार्गदर्शन करते हैं या फिर यज्ञ भी करते होंगे उनको पुरोहित कहते हैं। पुरोहित शब्द भी कैसा है, पुरोहित आगे रखते हैं औरों का हित, यजमान का हित। पुरोहितों में बृहस्पति जो देवताओं के गुरु हैं, मार्गदर्शक है, वह बृहस्पति मैं हूं भगवान कहते हैं। सेनानीनामहं स्कन्दः सेनानायक को में, मैं कार्तिकेय हूं। हरि हरि, यह शिव जी के पुत्र हैं कार्तिकेय। यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि, यह काम की बात है। और यज्ञ में जप यज्ञ में हूं। हरि बोल! जो हम हररोज करते हैं। अभी अभी कर रहे थे।, जप और करने वाले हैं। जप दिन में तो यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि आर्य समाज के जनता तो सिर्फ यज्ञ ही करते हैं, लेकिन वह कर्मकांडीय यज्ञ है। यज्ञो के भी कई प्रकार है भाइयों, मित्रों, बहनों। तो उन यज्ञो में जप यज्ञ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे यह यज्ञ सर्वश्रेष्ठ है। एक तो यह यज्ञ है, आप समझिए यह यज्ञ है। हरि हरि। यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः कृष्ण ही कहे है गीता में। हमारे सारे कर्म कृत्य किसके लिए होने चाहिए? यज्ञार्थात यज्ञ के लिए हमारे सारे प्रयत्न होने चाहिए। वैसे यज्ञ तो भगवान ही है। उनको यज्ञपुरुष भी कहते हैं। भगवान का एक नाम है यज्ञ पुरुष। तो यज्ञार्थात कर्म यज्ञ के लिए कर्म करना चाहिए। मतलब यज्ञ पुरुष के लिए, भगवान के लिए कर्म करना चाहिए, कृत्य करना चाहिए। यत्करोषि.. तत्कुरुष्व मदर्पणम् भी कहे हैं कृष्ण, जो भी करते हो वह मुझे अर्पित करो। अन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः तो तुमने किया हुआ कृत्य अगर यज्ञार्थात यज्ञ के लिए नहीं, भगवान के लिए नहीं तो लोकोऽयं कर्मबन्धनः बंधन में फस जाओगे। बद्ध बनोगे और बद्ध बनोगे तो सावधान। यज्ञ में जप यज्ञ में हूं। तो करते जाइए जप और यह जप तप भी है। स्थावराणां हिमालयः तो भारी कोई वस्तु है, भारी समझते हो या स्टेशनरी कहते हैं। एक मोबाइल और एक स्टेशनरी होता है। संसार में दो प्रकार की वस्तुएं होती है। मोबाइल समझते हो, एक स्थान से दूसरे स्थान पर हम ले जा सकते हैं उठाकर। लेकिन कुछ बातें स्थावर है, स्थित है, अपने स्थान से वह अलग नहीं होती। उन को हटाना कठिन है, भारी है, स्थित है। तो उनमे नंबर वन है हिमालय स्थावराणां हिमालयः भगवान कह रहे थे या भगवान का स्मरण दिलाता है वह हिमालय। भगवान का प्रतिनिधित्व करता है वह हिमालय। हिमालय भगवान का वैभव है। हम जब पदयात्रा में थे तब हमने अनुभव किया है ऐसे। पदयात्रा करते हुए हम जब बद्रिकाश्रम जा रहे थे, हरिद्वार से बद्रिकाश्रम। तो भगवान के वैभवो की सूची जो भगवान यहा कह रहे है दसवें अध्याय में। उसमें हिमालय हैं, अब गंगा का नाम भी आगे आने वाला है अगर हमारे पास समय है और सूर्य का ज्योति यों में रवि में हू सूर्य। तो सूर्य, गंगा और हिमालय। तो जब हम पदयात्रा करते हुए हरिद्वार ऋषिकेश से बद्रिकाश्रम जा रहे थे, तो कई दिनों तक यह यात्रा चलती रही। तो वहां प्रमुख तीन ही दर्शन है। सभी और देखू तो हिमालय ही हिमालय। हिमालय की शिखर या चोटी है, पत्थर है, चट्टाने हैं, तो सर्वत्र हैं हिमालय। और फिर नीचे देखो तो गंगा बह रही है। और फिर ऊपर देखो तो क्या दिखता है? सूर्य है। तो उस पूरी यात्रा में हम इन तीनों का ही दर्शन कर रहे थे। अधिकतर इन्हीं का ही दर्शन था, एक हिमालय, एक गंगा और सूर्य। और यही हमको कृष्णभावना भावित बना रहे थे। कृष्ण का स्मरण दिला रहे थे। तो यह कृष्ण के वैभव है, विभूति है, गौरव है भगवान का इन बातों में तो स्थावराणां हिमालयः। अश्र्वत्थः सर्ववृक्षाणां सभी वृक्षो में पीपल का वृक्ष अश्र्वत्थः में हूं। देवर्षीणां च नारदः तो देवर्षी यों में नारद में हूं भगवान कह रहे हैं। उच्चैःश्रवसमश्वानां सभी घोड़े जितने भी है ब्रह्मांड में या जहां भी है उसमें उच्चैःश्रव नाम का घोड़ा मैं हूं। जब समुद्र मंथन हुआ तो उसमें उत्पन्न हुआ घोड़ा में हूं। और यह घोड़ा मिला किसको? कौन थे? बली महाराज, घोड़ा दिया बली महाराज को। और उसी मंथन से निकला एक हाथी भी और उसका नाम था ऐरावत, वह मिला इंद्र को। देखिए कैसे बटवारा हो रहा है। तो आगे उसी वाक्य में कृष्ण कहे ऐरावतं गजेन्द्राणां गजेंद्रो में या हाथीयों में ऐरावत में हू। नराणां च नराधिपम् मनुष्यों में जो राजा है वह मैं हूं। आयुधानामहं वज्रं जितने भी हथियार है उसमें वज्र में हूं। धेनूनामस्मि कामधुक् जितनी भी गायें हैं उसमें सुरभि गाय में हूं। सर्पाणामस्मि वासुकि: जितने भी सर्प है उसमें वासुकी मैं हूं। वासुकी नाम का नाग है, सर्प है। जिसकी मदद से यह मंथन भी हुआ था। अनन्तश्चास्मि नागानां ओर नागों में अनन्त भगवान ही है अनन्त। यह तो स्वयं भगवान ही है। और तो वैभव वैभव की बात है लेकिन यहां तो अनन्त तो स्वयं भगवान ही हैं। यम: संयमतामहम् समस्त नियमन कर्ताओ मे..........( नो ओडियो फॉर वन एंड हाफ मिनट ) अध्यात्मविद्या विद्यानां जितनी विद्या है अध्यात्म विद्या, आत्मा से संबंधित, परमात्मा के संबंध की विद्या मैं हूं, वेदांत कृत वेदविद कृष्णा कहे है। अक्षराणामकारोऽस्मि तो जितने भी अक्षर हैं उसमें अ अक्षर मैं हूं। अहमेवाक्षय: कालो मैं काल हूं, शाश्वत काल में हूं। और मृत्युः सर्वहरश्चाहम सब कुछ हरने वाला, आप कमाते जाओ और फिर मैं आऊंगा। आपने अगर वह समर्पण नहीं किया है, आपने इसको कमाया है। त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये आपने ऐसा नहीं किया है तो मैं आकर हरश्चाहम मैं सब हर लूंगा और लात मार कर भगा दूंगा तुम्हें। मृत्युः सर्वहरश्चाहम तुमको भी घर से बाहर किया जाएगा या संपत्ति से अलग किया जाएगा। तुम जो अहं मम अहं मम कह रहे थे उसका विनाश करने वाला मृत्यु में हूं, सावधान। गायत्री छन्दसामहम् तो कई प्रकार के छंद है, उसमें गायत्री छंद में हूं। मासानां मार्गशीर्षोअहं महीनों में, मासों में मार्गशीर्ष महिना में हूं। यह तो मासों की बात हुई फिर ऋतुओं में बारह मास होते हैं और छह ऋतु होते हैं। तो ऋतु मे ऋतुनां कुसुमाकरः अहं कुसुम मतलब फूल। तो वसंत ऋतु में हूं, जब फूल ही फूल सर्वत्र खिलते हैं। वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि वृष्णी वंश जो है, उसमें वासुदेव में हूं। पाण्डवानां धनञ्जय: तो पांडवों में अर्जुन में हूं। अर्जुन को ही सुना रहे हैं। मुनीनामप्यहं व्यास: और मुनियों में व्यास मुनि में हूं। ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ज्ञानियों का ज्ञान में हूं। तो आप समझ सकते हो, इसमें भाष्य की कोई आवश्यकता नहीं है। भगवान ज्ञान नहीं देते। ज्ञान वैसे हम से पहले ज्ञान होता है बाद में हम जन्म लेते हैं। तो ज्ञान शाश्वत है। तो ज्ञानियों का ज्ञान में हूं। और इतना ही अभी कहेंगे भगवान और फिर कहेंगे नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप मेरे विभूतियों का, ऐश्वर्य का, वैभव का कोई अंत नहीं है। मैंने जो भी अभी यह कहा है यह संकेत मात्र है। संकेत किया है मैंने, थोड़ी हिंट ही दे दी। लेकिन यह नहीं समझना मैंने जितना कहा है यह जो सूची लिस्ट बनाई और सुनाई तुमको उतना ही वैभव नहीं है। यह तो नमूना पेश किया मैंने। एकांशेन स्थितो जगत् और यह जितने भी सारे वैभव मैंने कहे यह तो मेरे अंश है। अंश समझते हो? अंश है। मैं अंशी हूं और यह सब अंश है। मैं और भी बहुत कुछ हूं इनके अलावा जो जो मैंने कहा, जो जो वैभव गिनाए। हरि हरि। तो फिर यह जो भी बातें कृष्ण ने कहीं, वैभवो का उल्लेख किया। उसका दर्शन भी कराएंगे। उसका प्रात्यक्षिक होगा अगले अध्याय में विराट रूप विश्वरूप। जो जो कहा भगवान ने मैं यह हूं मैं वह हूं। दिखाओ.. तो भगवान ने दिखाया। तो हो गए विराट रूप धारण किए विश्वरूप। संभावना है कि हम कल विराट रूप का दर्शन करेंगे। और आज जो जो बातें कही उनको देखेंगे या कृष्ण दिखाएंगे, अर्जुन देखेंगे, हम भी देखेंगे। श्रीमद्भगवद्गीता की जय। गीता जयंती महोत्सव की जय। कृष्ण अर्जुन की जय। श्रील प्रभुपाद की जय। कुरुक्षेत्र धाम की जय। भगवद्गीता वितरण मैराथॉन की जय। गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल। और भगवद्गीता वितरकों की जय।

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