Hindi

जप चर्चा दिनांक 15 अप्रैल 2020 हरि हरि! हरि बोल! गौरांगा! (जय) श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु नित्यानंद । श्री अद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौर भक्तवृंद ॥ हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। तो आज शिवरात्रि है, मायापुर जगन्नाथ मंदिर में आज मना रहे है। वहां पर शिवलिंग भी है और श्रीमंतिनी पार्वती जी भी है। तो वहां पर उनका नित्य निवास भी है, शिव और पार्वती जी का। वे धाम के नित्य निवासी है, श्री अद्वैताचार्य भी सदा शिव है। सदा शिव महाविष्णु के विस्तार है। महाविष्णु, गर्भोदकशायी विष्णु, क्षीरोदकशायी विष्णु , इन तीन विष्णु को जो जनता है वो मुख्य होगा, ऐसा भी कहा गया है। ये महाविष्णु संकर्षण के विस्तार है और महाविष्णु के विस्तार सदा शिव है। हरि हरि! तो देवी धाम, महेश धाम, हरि धाम, अयोध्या धाम, गोलोक धाम ये क्रम है। तो एक के उपर एक धाम है, देवी तो पार्वती का नाम है और देवी धाम मतलब पार्वती जी का धाम। फिर महेश धाम, महेश मतलब अद्वैताचार्य, वैसे अधिकतर हम सुनते है की अद्वैताचार्य जी महाविष्णु के विस्तार या अवतार है। और साथ ही साथ वे सदा शिव के अवतार है मगर महाविष्णु बन जाते है सदा शिव और सदा शिव बन जाते है अद्वैताचार्य। अद्वैताचार्य प्रभु की जय। तो सदा शिव,अद्वैताचार्य के रूप में प्रकट होकर पंच तत्त्व के सदस्य बन जाते है। पंच तत्त्वातकम कृष्णम भक्त रूप स्वरुपकम। भक्तावताराम भक्ताख्यम नमामि भक्ति शक्तिकम।। तो जिनको भक्ताअवतार कहा गया है वो अद्वैताचार्य है। हरि हरि! अद्वैत, मतलब अद्वैताचार्य, वे भगवान से भिन्न नहीं है इसलिए अद्वैत। अद्वैतवाद की बात नहीं है, निराकार या निर्गुण की बात नहीं है, अद्वैतवाद, निर्वेशवाद की बात नहीं है। अद्वैताचार्य, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु से भिन्न नहीं है। वैसे भी हम कल भी कह रहे थे और शास्त्रों में भी कहा गया है, सत्य ही है। वैष्णवानाम यथा शम्भू। तो वो वैष्णव है और वैष्णव की क्या पहचान है? जानते है और मानते है की वैष्णव श्रेष्ठ है, सर्वोपरी है, वासुदेव सर्वमिति, ऐसा ज्ञान होता है, ऐसी समझ होती है वैष्णवो की। इसलिए उनको वैष्णव कहते है। विष्णु के आराधकों को वैष्णव कहते है। तो फिर, वैष्णवानाम यथा शम्भू, शिवजी अगर - मगर तो नही, वे है ही महा वैष्णव। महादेव! वे वैष्णव है तो क्या करते होगे? विष्णु की आराधना करते होगे अन्यथा कैसे वैष्णव। भागवत के अनुसार वे वैष्णव है, वैष्णवानाम यथा शम्भू, ये भागवत का कथन है या वचन है। वे है ही विष्णु के आराधक। तो ये है लंबी कहानी, कहानी तो नही, इसे अल्प ज्ञान कहो या तत्व ज्ञान कहो। अलग - अलग तत्त्व होते है, जैसे शिव तत्त्व। शिव जीव नही है, हम जीव है तो जीव तत्त्व हुआ। और शिव विष्णु भी नही है, तो वह कौन हुए? शिव, शिव ही है और उनके तत्त्व का नाम हुआ शिव तत्त्व। विष्णु है क्षीरम, क्षीरम यथा दधी विकार - विशेष योगात ( ब्रह्म संहिता ५.५४)। विष्णु अगर दूध है तो शिवजी दही है। दूध से दही बनता है लेकिन दही से दूध नहीं बन सकता। तो दही का श्रोत दूध है, वैसे ही शिवजी के श्रोत विष्णु जी है। शिवजी का अपना तत्त्व है, शिव तत्त्व। तो ये शिवजी ही वैष्णव कहलाते है, वैष्णवता उनमें हैं, उनके कई सारे कार्यकलाप वैष्णव जैसे है। तो शिव जी विष्णु की आराधना करते है या संकर्षण भगवान की आराधना करते है। संकर्षण। इसलिए हम देखते है कि वे ध्यान अवस्था में बैठे रहते है और माला करते रहते है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। पंचमुखी महादेव राम राम हरे हरे। उनका अलग से भी कोई मंत्र होगा जिसके द्वारा वे संकर्षण भगवान की आराधना या उपासना करते है। तो वे जिस संकर्षण की आराधना करते है वे संकर्षण जी के विस्तार है और उनको अनंतशेष कहा जाता है। अनंतशेष! बलराम जी के पांच विस्तार है जिसे कृष्णदास कविराज गोस्वामी, चैतन्य चरितामृत के प्रारम्भ में समझाते है। संकर्षण, महाविष्णु, गर्भोदकशायी विष्णु, क्षीरोदकशायी विष्णु , अनंतशेष। तो जो पांचवे विस्तार है अनंतशेष या सहस्त्रवदन, जो सारे संसार को, श्रृष्टि को या नक्षत्रों को अपने फनो पे धारण करते हैं, उनकी आराधना करते है शिवजी। और जब प्रलय का समय आता है, प्रलयकाल! तब प्रलय केवल शिवजी नही करते जैसे श्रृष्टि केवल ब्रह्माजी नही करते, क्योंकि शुरुआत तो भगवान करते है जिसे सर्ग कहा गया है। उसी प्रकार विसर्ग कहा गया है, जैसे मान लो किसी देश की रचना करना, तो भगवान शुरुआत करते है श्रृष्टि की फिर उस काम को ब्रह्माजी आगे बढ़ाते है। तो श्रृष्टि की रचना में भगवान की भी हिस्सेदारी हुई। तो श्रृष्टि की रचना भगवान और ब्रह्मा जी करते है ठीक उसी प्रकार अनंतशेष जी की मदद से शिवजी इस श्रृष्टि का संहार या विनाश या प्रलय करते है। शिवजी भगवान से मदद के लिए प्रार्थना करते है, अनंतशेष या सहस्त्रवदन जी के मुखारविंदो या फनो से ज्वाला निकलती है और प्रलय का कारण बनती है। तो फिर सारी पृथ्वी तथा १४ भुवानो की प्रलय हो जाती है। चार प्रकार की प्रलय बताई गई है भागवत में, आंशिक प्रलय, महाप्रलय आदि। तो ये शिवजी और अनंतशेष जी मिल जुलकर ये काम करते है। ये शिवजी जो है वे सदा शिव नही है। शिवजी के भी अलग-अलग विस्तार है, ११ रुद्र है, ११ रुद्राणी है और रुद्रद्वीप में इन सभी का निवास स्थान है। तो ये जो महेश धाम है और शिवजी दही है, दूध नही है लेकिन दूध से उनका संबंध है, वे विष्णु तत्त्व या जीव तत्त्व भी नही है, वे शिव तत्त्व है। लेकिन अन्य देवता जो है वो जीव है, जैसे ब्रह्मा! आप ब्रह्मा बन सकते हो लेकिन शिव नही बन सकते। शिव तो शिव है, विष्णु बनने का तो प्रश्न ही नहीं है लेकिन जीव ब्रह्मा बन सकता है मगर शिव नही बन सकता है। तो जो स्वर्ग के वासी है वो जीवात्मा है। शिवजी का जो धाम है शिवलोक या महेश धाम उसका आधा भाग वैकुंठ लोक में है और नीचे का आधा भाग इस ब्रह्माण्ड या भौतिक जगत का हिस्सा है। तो सदा शिव वैकुंठ वाले हिस्से में रहते है, वह बिलकुल वैकुंठ जैसा है। और महेश धाम के नीचे के भाग में, काल भैरव या तांडव नृत्य करने वाले या प्रलय करने वाले शिवजी रहते है। तो जब हम कहते है की अद्वैताचार्य सदा शिव है, तो इसका मतलब यह हुआ कि वे वैकुंठ के निवासी है। बाकी शिव, सदा शिव नही रहते, शिव मतलब पवित्र या मंगल या मांगलयपूर्ण। एक तो जंगल में मंगल होता है, लेकिन जब विनाश होता है तो मंगल में जंगल हो जाता है। विनाश का कार्य करते है शिवजी जो तमोगुण में होता है। और फिर शिवजी के साथ भूत, पिसाच, उनके संगी या उनकी पूरी मंडली रहती है। इस प्रकार शिवजी, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के आंदोलन के अंग बने है अद्वैताचार्य जी के रूप में। ११०० या १२०० वर्ष पूर्व वे शंकराचार्य भी बने थे। शंकर बने शंकराचार्य। उन्होंने फिर अद्वैत का प्रचार भी किया भगवान के आदेश अनुसार, इसमें उनकी कोई गलती नही है। उनकी गलती माफ है। फिर वही शंकर ५०० वर्ष पूर्व, चैतन्य महाप्रभु के आंदोलन में अद्वैताचार्य बने। पुनः आचार्य बने, शंकराचार्य से अद्वैताचार्य। वे दयालु है, शिवजी वैष्णव है तो उनकी दया से ही, वैसे नरोत्तमदास ठाकुर कहे, दया करो सीतापति अद्वैत गोसाइ । तव कृपाबळे पाई चैतन्य निताई ॥ ४॥ दया करो, हम पर भी दया करो है सीतापति, सीतापति मतलब सीताठाकुरानी, अद्वैताचार्य जी की भार्या सीताठाकुरानी। आप अद्वैत गोसाई, आप भगवान से अभिन्न है और आप की कृपा से ही चैतन्य और निताई की प्राप्ति संभव है। अद्वैताचार्य जी को हम बद्ध जीवों पर दया आई और वे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य से ५० वर्ष पूर्व अवतीर्ण हुऐ। इसलिए उनकी दाढ़ी है और उसके बाल सफेद है। उन्होंने संसार की स्थति देखी और क्या देखा, यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४.७॥ (भगवद गीता) अद्वैताचार्य जी ने इस संसार का अवलोकन किया, परीक्षण या निरीक्षण किया तथा वे इस निष्कर्ष पे पहुंचे की क्या हुआ है, धर्मस्य ग्लानि हुई है, धर्म की ग्लानि हुई है। धर्म का ह्रास और भगवान के प्राकट्य का समय आ चुका है। अब इस संसार को केवल भगवान ही बचा सकते हैं। तो इस प्रकार अद्वैताचार्य जी हुंकार के साथ भगवान से प्रार्थना किए शांतिपुर में। वे गंगा के तट पर सालिकराम और तुलसी दल से भगवान की प्रार्थना करते थे। इस तरह उन्होंने भगवान को पुकारा और फिर भगवान चले आए। जब भगवान का प्राकट्य हुआ तो उस समय अद्वैताचार्य शांतिपुर में ही थे और हरिदास ठाकुर भी वही थे शांतिपुर क्षेत्र में, और ये दोनो नृत्य करने लगे और किसी को पता नहीं लगा, लोगो ने पूछा आप लोग बहुत हर्षित लग रहे हो और आज तो कोई विशेष तिथी या प्रसिद्ध घटना भी नही है। उनके हर्ष, उल्लास, कीर्तन या नर्तन के कारण था गौरांगा या निमाई का प्राकट्य! हरि हरि! तो एसे संबंध है सदा शिव तथा अद्वैताचार्य जी के। हरि हरि! तो हमे भगवान सदा शिव को धन्यवाद देना चाहिए जो अद्वैताचार्य के रूप में प्रकट हुए। सदा शिवजी का आभार, अद्वैताचार्य जी का आभार। तव कृपाबळे पाई चैतन्य निताई, यदि अद्वैताचार्य जी नहीं होते तो क्या होता? तो गौर निताई का प्राकट्य नही होता, इस प्रकार हम सभी के कल्याण हेतु वे गौर निताई को इस संसार में ले आए। इसलिए हम भी मायापुर आ गए है और मायापुर में हमारे होने के कारण है सदा शिव या अद्वैताचार्य। और भी बहुत सारे कारण बन जाते है। श्रील प्रभुपाद की जय! तो कीर्तन और जप करते रहो। महाशिवरात्रि महोत्सव की जय। निताई गौर प्रेमानंदे, हरि हरि बोल!!

English

Russian