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दिनांक 13 सितंबर 2019 हरे कृष्ण!!! (आज की यह जप चर्चा , कल की जप चर्चा का अग्रिम् भाग है। कल गुरु महाराज अष्टांग योग के विषय में बता रहे थे। गुरु महाराज हमें विस्तारपूर्वक यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा के विषय में बता चुके हैं। आज, कल जहाँ से हमने रोका था, अब आगे निरंतरता....) हम अष्टांग योग का पालन कर सकते हैं, भक्ति योगी प्रत्येक स्थिति में भगवान के और अधिक समीप पहुंचता हैं। हम जिस स्थिति में होते हैं अर्थात जिस जिस अंग या नियम का पालन करते हैं, वैसे- वैसे ही हम भगवान के समीप होते जाते हैं। हम प्रारंभ यम, नियम से करते हैं, तत्पश्चात आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि और भगवान के अधिक समीप पहुँचते जाते हैं परंतु हमें इन सभी अंगों को ठीक प्रकार से सम्पन्न करना चाहिए। सर्वप्रथम हमें यह समझना चाहिए, ये अंग क्या हैं ? हमें पता होना चाहिए कि यम में कौन कौन से निषेध हैं और हमारे लिए क्या-क्या नियम हैं। जैसे हमें आसन करते हुए, किस प्रकार के आसन पर बैठना चाहिए ? आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार क्या होता है? जब हमें इन सभी अंगों के विषय में पता होगा तभी हम ठीक प्रकार से उन्हें सम्पन्न कर पाएंगे। यदि हम ठीक प्रकार से नही भी सम्पन्न कर पा रहे हैं, हमें प्रत्येक दिन उस अंग को ठीक से सम्पन्न करने के लिए प्रयास करना चाहिए कि मैं किस प्रकार से प्राणायाम ठीक प्रकार से कर सकता हूँ, किस प्रकार से मैं अपने प्रत्याहार को ठीक कर सकता हूँ या मैं किस प्रकार से यम नियम का पालन ठीक प्रकार से कर सकता हूँ। हमें उसके लिए प्रयास करना चाहिए। जब कृष्ण हमारे इस प्रयास को देखते हैं, वह हमें बुद्धि प्रदान करते हैं। तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।। जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं। मामुपयान्ति ते अर्थात जो मेरे समीप आता है। मैं उन्हें बुद्धि देता हूँ जिससे वह सही और गलत में भेद कर सकें। बुद्धि प्राप्त होने से हमारे ह्रदय में ज्ञान प्रकाशित होगा। चक्षु-दान दिलो ये़इ, जन्मे जन्मे प्रभु सेइ, दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित। गुरू हमारे हृदय में दिव्य ज्ञान प्रकाशित करते हैं और हमें पता चल जाता है कि सही क्या है और गलत क्या है। यदि हम वास्तव में जानना चाहते हैं कि यह कैसे करना है,क्या यह सही है या गलत और हमें उत्तर मिलता है। भगवान के पास हमारे प्रश्नों के उत्तर देने का अलग ही तरीका होता है। वे हमें शास्त्रों के माध्यम से,भक्तों के माध्यम से उत्तर देते हैं और कई बार हमारे स्वयं के हृदय में अचानक से कुछ विचार आता है, हमें हमारे प्रश्न का उत्तर मिल जाता है। इस प्रकार से कुछ माध्यम है जिसके द्वारा भगवान हमारे प्रश्नों के उत्तर देते हैं। हरि! हरि! (जिस समय यह कॉन्फ्रेंस हो रही थी, उस समय गुरु महाराज कह रहे थे कि अभी श्रृंगार आरती का समय हो रहा है। हम पिछले कुछ समय से ज़ूम के माघ्यम से यह जपा कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं। रूस में जपा कॉन्फ्रेंस के समय उस दिन महाराज के पास बैठे एक भक्त ने प्रश्न पूछा ) प्रश्न:- हम हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हैं, क्या हमें जप शुरू करने से पहले पंचतत्व का प्रणाम मंत्र बोलना चाहिए ? गुरु महाराज - हमें प्रत्येक माला प्रारंभ करने से पहले पंच तत्व को प्रणाम करना चाहिए व उनका प्रणाम मंत्र बोलना चाहिए। श्रील प्रभुपाद जी कहते थे कि यह भी महामंत्र है, हरे कृष्ण महामंत्र और पंचतत्व महामंत्र। जय श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु नित्यानंद। श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि-गौर-भक्त-वृन्द।। हम हरे कृष्ण महामंत्र का जप प्रारंभ करने से पूर्व पंचतत्व प्रणाम मंत्र बोलते हैं जिसके माध्यम से हम पंचतत्व को प्रणाम करते हैं एवं उनकी कृपा हेतु याचना करते हैं। हम यह प्रार्थना करते हैं कि हम हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते समय अपराधों से बचें रहें। चैतन्य महाप्रभु अत्यंत दयालु हैं और वे अकेले नहीं हैं, वे अपने सभी पार्षदों के साथ आए हैं। हम उनसे उनकी दया के लिए याचना करते हैं। हम उनकी दया के बिना सफल नहीं हो सकते और हम उनसे उनकी दया की भीख मांगते हैं। पतितपावन हेतु तव अवतार। मोसम पतित प्रभु ना पाइबे आर।। महाप्रभु पतितों को पावन करने के लिए प्रसिद्ध हैं। पतितों का उद्धार करने के लिए चैतन्य महाप्रभु का अवतार हुआ है। हम उनसे प्रार्थना करते हैं कि आप कहीं पर भी देख लीजिए परंतु मेरे जैसा पतित और कहीं नहीं मिलेगा, कृपा आप मुझे शुद्ध कीजिए। हम चैतन्य महाप्रभु और पंचतत्व से यही निवेदन करते हैं कि हम हरे कृष्ण महामंत्र का जप ध्यानपूर्वक कर सकें। पंचतत्व में गौर भक्त वृन्द भी सम्म्मलित हैं। श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द में श्रीवास अग्रणी हैं। अन्य सभी भी पंचतत्व के अंग हैं, हम उनको भी सम्पर्क करते हैं। उन गौर भक्त वृन्द में हमारे गुरु महाराज या वरिष्ठ भक्त सभी आ जाते हैं और हम उनसे भी सम्पर्क कर उनकी कृपा के लिए याचना कर सकते हैं। भक्तों से याचना करना अत्यंत ही महत्वपूर्ण है। वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृपा-सिन्धुभ्य एव च। पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः।। यहाँ पतितानां पावनेभ्यो शब्द आता है जिसका अर्थ है कि वे भी पतितों को पावन करते हैं। वे भी हम पतितों का उद्धार करने की क्षमता रखते हैं। इसलिए हम वैष्णवों को भी अप्रोच (सम्पर्क) करते हैं कि आप हमें अपनी कृपा प्रदान कीजिए जिससे हम भक्ति में आगे बढ़ सकें और हम अपराध रहित नाम जप कर सकें। (इस प्रश्न का उत्तर देने के बाद गुरु महाराज पूछते हैं कि क्या आप इस प्रश्न के उत्तर से संतुष्ट हैं ? क्या आप में से किसी और का कोई प्रश्न है ? गुरु महाराज कॉन्फ्रेंस में कह रहे थे कि हम कल भी जप करेंगे और कल हम जप चर्चा न करके प्रश्न उत्तर का सत्र कर सकते हैं।) प्रश्न:- हमें जप करते समय भगवान के नाम पर या रूप पर ध्यान देना चाहिए? गुरु महाराज - भगवान का नाम ध्वनि तरंग है अर्थात वह कृष्ण है।भगवान का रूप भी कृष्ण है। हम हरिनाम का जप करते हैं, वह नाम है, नाम से रूप आता है,रूप से गुण आता है,गुण से लीला आती है, इस प्रकार धीरे धीरे भगवान के भक्त और धाम आते हैं। भगवान को अपनी लीला सम्पन्न करने के लिए भक्तों की आवश्यकता होती है अर्थात भगवान अकेले लीला सम्पन्न नहीं करते हैं, उन्हें पार्षद भी चाहिए होते हैं। भगवान को लीला सम्पन्न करने के लिए स्थान भी चाहिए। वे हवा में लीला नहीं करते अपितु भगवान का एक धाम होता है जहां वे अपनी लीलाओं को सम्पन्न करते हैं। यह नाम, रूप, गुण, लीला, भगवान के भक्त, धाम आदि सभी कृष्ण से अभिन्न हैं, नाम और रूप कृष्ण से अभिन्न है। क्या मैं नाम पर ध्यान केंद्रित करुं या मैं उनके रूप पर ध्यान केंद्रित करुं ? या दोनों पर ध्यान करूँ या उनके विग्रहों का ध्यान करूँ? प्रश्न अत्यंत अज्ञानता के कारण पूछा गया प्रश्न है। हमें सदैव ध्यान रखना चाहिए कि भगवान का रूप और नाम दोनों एक ही हैं। नाम चिन्तामणिः कृष्णश्चैतन्य रस विग्रहः। पूर्णः शुद्धो नित्य-मुक्तोअ्भिन्नत्वान्नाम नामिनोः।। अ्भिन्नत्वान्नाम नामिनोः अर्थात नाम और नामी अभिन्न है, इनमें कोई अंतर नहीं है। नाम नाम है और नामी अर्थात भगवान स्वयं हैं, अभिन्न है, दोनों एक ही है। कृष्ण और कृष्ण के नाम, दोनों में कोई भेद नहीं है। जब आप हरि नाम का जप करते हैं, तब आप नाम को सुनते हैं अर्थात उसका श्रवण करते हैं। उसके परिणामस्वरूप भगवान के रूप का ध्यान करते हैं, नाम एक व्यक्तित्व है। हम नाम प्रभु अथवा हरि नाम प्रभु कहते हैं अतः हरिनाम एक व्यक्तित्व है। जैसा कि हम कहते हैं कृष्ण प्रभु। प्रभु अर्थात स्वामी। आप मेरे मालिक हैं, आप मेरे स्वामी हैं और मैं आपका दास हूं। वास्तव में प्रभु स्वयं कृष्ण हैं। हमें भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, भक्त, धाम आदि के विषय में उनका चिंतन करना चाहिए। जैसे जैसे हम जप करते हैं, हमें इन सब का भी चिंतन होता है। हमें राधा रानी, गोपियां, ललिता, विशाखा आदि का चिंतन होता है क्योंकि ये भी भगवान के भक्त हैं। माधुर्य मम चित आकर्षितः। हमें हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते समय हरिनाम प्रभु से यह प्रार्थना करनी चाहिए कि आप अपने माधुर्य से मेरे चित्त को अपनी ओर आकर्षित कीजिए। भगवान का ऐश्वर्य अत्यंत ही विशाल है, भगवतगीता के 10वें अध्याय में भगवान के षड् ऐश्वर्य का वर्णन आता है जैसे वीर, यश, ज्ञान, वैराग्य, धन सभी भगवान के ऐश्वर्य हैं। हम जप करने वाले साधक हैं, हम हरे कृष्ण महामंत्र का जप करते हुए भगवान से प्रार्थना करते हैं कि वे हमारे चित्त को अपने माधुर्य से आकर्षित करे। श्री गोपाल गुरु गोस्वामी जी ने हरे कृष्ण महामंत्र पर अत्यंत ही सुंदर टीका लिखी है, वह टीका एक प्रकार से प्रार्थना है, उन्होंने प्रत्येक शब्द पर अपनी एक टीका दी है। हरे कृष्ण महामंत्र में जो प्रथम हरे आता है, उस पर उनकी टीका है अर्थात इसका क्या अर्थ है।कृष्ण का क्या अर्थ है? उस पर भी टीका है, पुनः हरे की टीका, फिर कृष्ण की टीका,फिर कृष्ण कृष्ण इन दोनों की टीका, फिर हरे हरे की टीका प्रत्येक शब्द का क्या अर्थ है। इस पर उन्होनें अत्यंत ही सुंदर टीका दी है। वे भगवान से प्रार्थना करते हुए कहते हैं कि माधुर्य माम् चित्त आकर्षितः अर्थात भगवान आप अपने माधुर्य से मेरे चित्त को आकर्षित कीजिए। भगवान के पास कई प्रकार के माधुर्य हैं रूप माधुर्य, वेणु माधुर्य, लीला माधुर्य एक प्रकार से कहा जाए तो भगवान माधुर्य की खान हैं। अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरं। ह्रदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम्।। (श्रीमधुराष्टकम श्लोक १) भगवान का सब कुछ मधुर है उनका चलना मधुर है, उनका बोलना मधुर है, उनके हाथ मधुर हैं,उनके चरण मधुर हैं। और वे इन सभी माधुर्यों के मालिक हैं। मधुरापति भगवान इन सभी माधुर्यों से हमारे चित्त को अपनी ओर आकर्षित करें। हमें भगवान से ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए। ' सेवा योग्यम कुरु' हम भगवान से प्रार्थना करते हैं कि मुझे अपनी भक्ति सेवा में संलग्न कीजिए।श्रील प्रभुपाद जी, गोपाल गुरु गोस्वामी जी की टीका को अत्यंत सरल रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत करते हैं। प्रभुपाद जी इस सम्पूर्ण टीका का अत्यंत सरल अनुवाद करते हुए कहते हैं कि हमारी प्रार्थना यह होनी चाहिए,"हे परम भगवान श्री कृष्ण!, हे श्रीमती राधारानी! मैं आपका सेवक हूँ। कृपया आप मुझे अपनी सेवा में संलग्न कीजिए।" सेवा योग्यम कुरु' मुझे आप अपनी सेवा लायक बनाइए। एइ निवेदन धर, सखीर अनुगत करो। सेवा-अधिकार दिये करो निज दासी तुलसी! कृष्णप्रेयसी नमो नमः (श्री तुलसी आरती श्लोक ४) तुलसी महारानी, भगवान श्री कृष्ण को अत्यंत प्रिय है। हम उनसे प्रार्थना करते हैं कि आप हमें श्री कृष्ण राधा की सेवा का अधिकार दीजिए और हमें उनके दास और दासी बनाइए। हरिनाम का जप करते समय भी हम यही प्रार्थना करते हैं। हरे कृष्ण महामंत्र ही सभी प्रार्थनाओं का स्रोत है अर्थात हरे कृष्ण महामंत्र से सभी प्रार्थनाएँ निकलती हैं। जब हम हरे कृष्ण कहते हैं, हम अपनी सभी प्रार्थनाएँ कह देते हैं जो कुछ भी कहने लायक है, मात्र हरे कृष्ण महामंत्र कहने से हम बोल देते हैं। हरे कृष्ण जोकि राधा कृष्ण हैं, उनमें सबकुछ समाहित है। इसमें वह सारा ज्ञान सम्मलित है जो बाइबिल के 1.1 में आता है " जब जगत आरंभ हुआ था तब एक शब्द था, वह शब्द परमेश्वर था, अर्थात प्रारंभ में केवल एक शब्द था और वह भगवान के साथ था। अर्थात वह शब्द भगवान ही था। वह शब्द हरे कृष्ण महामंत्र हो सकता है। वह हरे कृष्ण शब्द स्वयं भगवान है क्योंकि नाम ही भगवान है। श्रील प्रभुपाद विस्तार से इसके विषय में बताते हैं कि नाम रिक्त नहीं है। इस जगत में नाम और वस्तु दोनों में भेद होता है, दोनों अलग अलग होती हैं। प्रभुपाद उदाहरण दे कर बताते हैं कि यदि आप प्यासे हैं और यदि आप केवल पानी! पानी! कहते हैं। इससे आपकी प्यास नहीं मिट सकती। इसी प्रकार से यदि आप मीठे आम खाना चाहते हैं और आप कहते हैं, आम! आम! इससे आप आमों के स्वाद का अनुभव नहीं कर सकते हैं। आम अलग है और केवल आम आम कहना अलग है। इस जगत में नाम और नामी अलग अलग होते हैं परंतु आध्यात्मिक जगत में हरे कृष्ण और कृष्ण स्वयं दोनों एक ही हैं, ये दोनों अभिन्न हैं। (गुरु महाराज कहते हैं कि अब हमारे फ़ोन की बैटरी लो हो रही है।) हम इस जप कॉन्फ्रेंस को यहीं पर विराम देंगे। और कल पुनः हम जप करेंगे। हरे कृष्ण!!!

English

13 SEPTEMBER 2019 ( Part 3) KRSNA’S NAME IS NON-DIFFERENT FROM HIS FORM Go closer to the Lord. Be with the Lord. He is coming. When you follow yam niyam,asan pranayam pratyahar dhyan dharna, samadhi you are going higher and higher and getting closer and closer. Wherever we go, we have to do to the right things at all these different levels. At every step we have to watch out whether we are doing it correctly. We are endeavouring all the time to do it right. Day after day when we are endeavouring, then Krsna will give us intelligence. tesam satata-yuktanam bhajatam priti-purvakam dadami buddhi-yogam tam yena mam upayanti te Translation:  To those who are constantly devoted to serving Me with love, I give the understanding by which they can come to Me. (BG10.10) So that upayanti will come closer. That divine intelligence in right, intelligent direction and with the power of discrimination to reveal Krsna. caksu-dan dilo jei, janme janme prabhu sei, divya jnan hrde prokasito prema-bhakti jaha hoite, avidya vinasa jate, vede gay jahara carito He opens my darkened eyes and fills my heart with transcendental knowledge. He is my Lord birth after birth. From him ecstatic prema emanates; by him ignorance is destroyed. The Vedic scriptures sing of his character.(Verse 3,Guru Vandana) Our spiritual master will reveal it into our heart. We are really wanting to know how to do this right, whether it is right or wrong, then you will be provided with the answer. God has His ways to get back to you or reciprocate with you, respond to you, through some devotees, through some scripture, or when you read something. It clicks suddenly. Suddenly some light comes, Oh! now I know. Question: Should we chant Panhatattva pranam mantra before we start chanting? Answer: The mantra to Pancatattva should be chanted. Srila Prabhupada would say that the Pancatattva mantra is also a maha-mantra. Hare Krishna maha- mantra and Pancatattva Maha-mantra. So Pancatattva maha-mantra is chanted before we start chanting Hare Krishna. We pray for Their Mercy, to chant without offences, to chant with attention, or to forgive us for any offences we have committed. Caitanya Mahaprabhu is kinder and He is not alone. He has come with the whole team. Without Their mercy, we would not be successful. We beg for Their Mercy. patita-pavana-hetu tava avatara mo sama patita prabhu na paibe are (From Prarthana, by Srila Narottama Dasa Thakura - Verse 2) You are patit pavan and I am patit. Patit pavan - purification, you purify me. I am patit and you do pavan, purify me. mo sama patita prabhu na paibe are. Pancatattva also includes Gaur Bhakta Vrinda. Srivasa Adi Gaur Bhakta Vrnda is headed by Srivas. All the others are also part of the Pancatattva. We could also approach those devotees - the spiritual master or some other senior devotees. Approaching them and beg for their Mercy. We say: vancha-kalpatarubhyash cha kripa-sindhubhya eva cha patitanam pavanebhyo vaishnavebhyo namo namah ( Vaisnava pranam mantra) Same thing is here. Vancha kalpataru.… Patit - fallen, pavanebhyo - purify. You are competent to lift me up, purify me O! Vaisnava Any other questions? Or I was thinking , tomorrow also we will do Japa. We could do some questions-answers session. We will not do Japa-talk, but have a dialogue. So come with your question. We will take one quick question from the back. Question: While chanting should we concentrate on the name or the form of the Lord? Answer: Sound is Krsna and form is Krsna . So what we chant is the name. From name comes the form then comes the qualities of Krsna then the pastimes of Krsna. In order to perform pastimes, Krsna requires devotees, His associates. Also to have pastimes of Krsna He doesn't play pastimes in the air. He does that on land , His abode or dhama , which is all part of Krsna, non different from Krsna. So name and form are non different. Should I just focus on form? The name or on the form? The very question is ignorant. Because of ignorance it arises. The understanding is that, 'name is form'. nama cintamanih krsnas caitanya-rasa-vigrahah purnah suddho nitya-mukto bhinnatvan nama-naminoh TRANSLATION: The holy name of Krsna is transcendentally blissful. It bestows all spiritual benedictions, for it is Krsna Himself, the reservoir of all pleasure. Krsna’s name is complete, and it is the form of all transcendental mellows. It is not a material name under any condition, and it is no less powerful than Krsna Himself. Since Krsna’s name is not contaminated by the material qualities, there is no question of its being involved with maya. Krsna name is always liberated and spiritual; it is never conditioned by the laws of material nature. This is because the name of Krsna and Krsna Himself are identical.(CC Madhya-lila 17.133) Name and form are abhinna. Bhinna means different. Abhinna means non-different. Nama namino, there is no difference between nama and nami. Nama is name, and nami is Krsna the Lord. His name is Krsna. And he is Krsna. Name and He are non different. When you are hearing, you should be meditating on the form of the Lord. Nama is Nama Prabhu.The name is a person that is why we say Nama Prabhu, Krsna Prabhu. We should feel , I am a soul and He is my Prabhu, my Lord. Name and He are non different. We should be meditating on name form, qualities, pastimes, abode and devotees. Radharani is a devotee. Gopis are devotees. Lalita Vishakha are devotees. When we are chanting 'Hare Krishna', we are praying to the holy name. By your own sweet opulences which are of various kinds, mam cittam, my consciousness be attracted , by your opulences. Lord's opulences are, described in whole tenth chapter of Bhagavad-gita. There various opulences are described. The six opulences are that He has full strength, full fame, wealth, knowledge, beauty and renunciation. These are all His opulences. The chanter is saying, which we talked while mentioning commentary of Gopal Guru Goswami. He has written a commentary on the Hare Krishna maha-mantra and this is his commentary. The commentary is a prayer which is explaining each name. Hare , he is explaining , ' O Lord! Let my mind be attracted to you. madhurya, I want to be attracted by your madhurya. Lord Sri Krsna has rupa-madhurya. His form is Madhur. adharam madhuram vadanam madhuram nayanam madhuram hasitam madhuram hrdayam madhuram gamanam madhuram madhuradhi-pater akhilam madhuram TRANSLATION 1) His lips are sweet, His face is sweet His eyes are sweet, His smile is sweet His heart is sweet, His gait is sweet—Everything is sweet about the Emperor of sweetness! (Sri Madhurastakam Verse 1) Everything about You is sweet. You are ‘madhuradhipati’, the Reservoir of all sweetness. His form , rupam madhuram, rupa-madhurya , venu- madhurya, leela- madhurya, prema-madhurya. Krsna is known for this four madhuryas. Very distinguished features of the Lord. I want to be attracted by all these opulences. Seva yogyam kuru. Please engage me in your devotional service. Srila Prabhupad simplified this commentary. He explained, while chanting devotee is thinking , 'lord! or o Radharani ! I am yours. Please engage me in your devotional service.' Seva yogyam kuru. Make me fit to serve You. ei nivedana dhara, sakhira anugata koro seva-adhikara diye koro nija dasi Tulasi Krishna preyasi name namah I beg you to make me a follower of the cowherd damsels of Vraja. Please give me the privilege of devotional service and make me your own maidservant. (Tulasi Kirtana, Verse 4)   Tulasi is very dear to Krsna. He likes her. Make me eligible. This is also a part of the prayer, while chanting the holy names. All these thoughts , they emanate from Hare Krishna Hare Krishna…… When we say Hare Krishna we have said everything. Everything that could be said or spoken, is uttered when we say Hare Krishna because this Hare Krishna which is Radha-Krsna contains everything. It contains all the knowledge that exists. John 1:1 is the first verse in the opening chapter of the Gospel of John of the Bible which reads: In the beginning was the Word, and the Word was with God, and the Word was God. In the beginning there was the word - shabda and that was with the Lord. That word could be Hare Krishna. That word is God and the Bible says the word is God. So Hare Krishna is God. It is not just the empty word. Prabhupada explains, ‘ In this world the name and the object are two different things. If you are thirsty and you go on saying Water! Water! Water! That won't quench your thirst. Or if you want to eat some sweet mango and you go on saying, Mango! Mango! You are not going to experience the sweetness of the mango as the word mango and the actual mango are different. But here the name is the object - Hare Krishna Hare Krishna is Krsna.

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