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*जप चर्चा* *पंढरपुर धाम से* *दिनांक 11 दिसम्बर 2021* हरे कृष्ण!!! आज इस जपा कॉन्फेंस में एक हजार स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित हैं।हरिबोल! महामुनि! और बाकी सब भी क्या आप थोड़ी चर्चा के लिए तैयार हो? अभी हम आपको दिखा रहे थे कि जब हम एक हजार प्रतिभागी कहते हैं तो प्रतिभागी तो अधिक होते हैं। कई स्थानों पर एक एक ही होते हैं लेकिन मैं देख रहा हूँ कि किसी किसी स्थान पर दो-दो भक्त भी बैठे हैं। और कहीं पर जॉइंट फैमिली ( संयुक्त परिवार) भी जप कर रहे हैं। कहीं पर हमारे बेस के पांच, दस या बीस भक्त मिलकर भी जप करते हैं व हमारे मंदिरों के 50 या 100 भक्त भी एक साथ जप करते हुए दिख रहे हैं। कुछ दिनों से हम आपको दिखा रहे थे। यह नहीं समझना कि आप अकेले ही हो। मैं अकेला ही पागल हूं जो जप कर रहा हूं, अन्य भी कई सारे पगले बाबा इस संसार में हैं। हरि नाम में हमारा विश्वास बढ़ता है, जब हम देखते हैं कि और ( दूसरे) भी जप कर रहे हैं। केवल भारत के ही भक्त या मनुष्य ही नहीं या थाईलैंड या मॉरीशस इस लैंड के, उस लैंड से अन्य भी जप कर रहे हैं। हरि नाम में हमारी श्रद्धा बढ़ती है। हम जो जप कर रहे हैं, यह सही है। सही होना चाहिए, कई सारे लोग जप कर रहे हैं। सर्वत्र जप हो रहा है। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* हम जप को सुनते हैं, हम हरे कृष्ण महामंत्र को सुनते हैं। मुझे गोपियों की याद आ रही थी। जब गोपियां श्री कृष्ण के वेणु नाद को सुनती हैं तब गोपियों ने कई सारी बातें कही हैं। श्रीमद्भागवतं के दसवें स्कंध में 21 वां अध्याय है, इसमें गोपियों के भाव स्पष्ट व प्रकट हैं। जब कृष्ण मुरली बजाते हैं और गोपियां सुनती हैं तब ब्रज में सर्वत्र खलबली मच जाती है। देखो! देखो! कृष्ण मुरली बजा रहे हैं। गोपियां मुरली की नाद को सुन तो रही हैं लेकिन उनको कृष्ण याद आते हैं अर्थात गोपियों को, कृष्ण की यादें सताती हैं। जब गोपियाँ भगवान की मुरली की नाद को सुनती हैं तब जो भी सामने है, गोपियां उनको गले लगाती हैं। वे कृष्ण के संबंध में बहुत कुछ कहना चाहती हैं। किन्तु *तद्वर्णयितुमारब्धाः स्मरन्तयः कृष्णचेष्टितम्। नाशकन्समरवेगेन विक्षिप्तमनसो नृप।।* ( श्रीमद् भागवतं 10.21.4) अनुवाद:- गोपियाँ कृष्ण के विषय में बातें करने लगी किन्तु जब उन्होंने कृष्ण के कार्यकलापों का स्मरण किया तो हे राजन, काम ने उनके मनों को विचलित कर दिया जिससे वे कुछ भी न कह पायी। उनमें जो समरवेगेन या काम का वेग (कही समर और कही काम भी लिखा होता है जैसे वृंदावन में काम वन लिखा हुआ है। यह काम वन नहीं है, यह प्रेम वन है। वैकुंठ या गोलोक का काम, 'प्रेम' ही है।) गोपियाँ जब मुरली की नाद सुनती हैं तब उनमें प्रेम का उद्वेग होता है। बहुत से भाव उदित होते हैं लेकिन कह नहीं पाती। फिर वे कल्पना करती हैं।( यह मनोकल्पना नही है) इस मुरली की नाद को जब अन्य ब्रजवासी सुनते हैं तब उन पर कैसा प्रभाव पड़ता है, वहीं इस वेणु गीत नाम के अध्याय में उनके कथन, वक्तव्य अथवा चर्चा का विषय है। गाय जब सुनती हैं, (गोपियां अपना अनुभव या आंखों देखा अनुभव भी हो सकता है, वह देखती भी होगी) *गावश्र्च कृष्णमुखनिर्गतवेणुगीत-पीयूषमुत्तभितर्णपुटैः पिबन्त्यः। शावाः स्नुतस्तनपयः कवलाः स्म तस्थु-र्गोविन्दमात्मनि द्हशाश्रुकलाः स्पृशन्तयः।।* (श्रीमद् भागवतं १०.२१.१३) अनुवाद:- गौवें अपने नलिकारूपी दोनों कानों को उठाये हुए कृष्ण के मुख से निकले वेणुगीत के अमृत का पान कर रही हैं। बछड़े अपने माताओं के गीले स्तनों से निकले दूध को मुख में भरे भरे स्थिर खड़े रहते हैं। जब वे अपने अश्रुपूरित नेत्रों से गोविंद को अपने भीतर ले आते हैं और अपने ह्रदयों में उनका आलिंगन करते हैं। जब कृष्ण मुखारविंद से वह अधरामृत को मुरली के माध्यम से छिड़काते हैं, व उसको फैलाते हैं तब मुरली की ध्वनि मुरली की नाद दूर-दूर तक पहुंच जाती है। पीयूषमुत्तभितकर्णपुटैः पिबन्त्यः, अर्थात गोपियां कहती हैं कि गाय जब मुरली की नाद को सुनती हैं, वे अपने कानों को ऊपर उठा लेती हैं। आप जानते हो कि साधारणतया गाय अथवा पशुओं के कान ऐसे नीचे की ओर लटके रहते हैं। वे हिलते रहते हैं। पशुओं अथवा गाय के कान हमारे कान जैसे नहीं होते, हमारे कान तो स्थिर होते हैं। उन्हें हाथ से हिलाना पड़ता है किंतु गाय अपने कान हिला सकती है। विशेष रूप से जब कोई ध्वनि उत्पन्न होती है अथवा आवाज आती है तब वे उसकी ओर अपने कान करती हैं। गोपियां कह रही हैं कि जब मुरली की नाद का पीयूष अथवा अमृत गाय अपने कानों में धारण करती हैं। तब गाय अपने कानों में धारण करने के लिए अपने कानों को ऊपर उठाती है। अगर ऐसे नीचे रखती तो क्या होता तो वह सारा अमृत नीचे गिर जाता। उस अमृत की एक बूंद भी नीचे ना गिरे इसके लिए वे गाय अपने कानों को ऊपर करती हैं। ऐसा लगता है कि मानो कानों का प्याला बनाती हैं। (आप प्याला जानते हो) अमृत का पान करती रहती है। कर्णपुटैः पिबन्त्यः, पीयूष अर्थात अमृत को पीती रहती हैं। *शावाः स्नुतस्तनपयः कवलाः स्म तस्थु-र्गोविन्दमात्मनि द्हशाश्रुकलाः स्पृशन्तयः* वैसे यह अनुभव गायों का है। अब बछड़ों का भी उल्लेख हो रहा है उनको यह मुरली की नाद कैसे प्रभावित करती है। गोपियां अपना अनुभव आगे कह रही हैं कि इस मुरली की नाद को जब बछड़े सुनते हैं , वे बछड़े जो अपनी अपनी माता का दूध पी रहे थे अर्थात उनके मुख में गाय का स्तन है अथवा वे दूध पी रहे थे। इतने में उनको मुरली की नाद सुनाई देती है, तब वे स्तनपान करना बंद करते हैं और उनका मुख जो स्तन के दूध से भरा था, उसको पीना भी भूल जाते हैं। वे स्तब्ध होते हैं। वे बस मुरली को सुनते ही रहते हैं, उनका खान-पान बंद हो जाता है। *र्गोविन्दमात्मनि द्हशाश्रुकलाः स्पृशन्तयः* गाय भी और बछड़े भी अपने अंतःकरण में दर्शन करते हैं। वे मुरली की नाद को सुन रहे हैं कि कृष्ण कहीं दूर वन में हैं। यह शरद काल का ही वर्णन हो रहा है । मुरली की नाद के श्रवण से वे अपने अंतःकरण में दर्शन करते हैं। जब दर्शन हो रहा है तब वे द्हशाश्रुकलाः स्पृशन्तयः अर्थात आंसू बहाने लगते हैं। बछड़े आंसू बहा रहे हैं। गायों का भी यही हाल है क्योंकि दोनों ही सुन रहे हैं अर्थात गौमाता भी सुन रही है और बछड़े भी सुन रहे हैं और दोनों ही रोमांचित हो रहे हैं। यह लक्षण उनमें दिखाई दे रहे हैं। गाय और बछड़े मन ही मन में दर्शन कर रहे हैं। *प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन सन्तः सदैव हृदयेषु विलोकयन्ति। यं श्यामसुन्दरमचिन्तयगुणस्वरूपंगोविंदमादिपुरूषं तमहं भजामि।।* ( ब्रह्म- संहिता श्लोक ५.३८) अनुवाद:- जो स्वयं श्यामसुंदर श्रीकृष्ण हैं, जिनके अनेकानेक अचिन्त्य गुण हैं तथा जिनका शुद्ध भक्त प्रेम के अंजन से रञ्जित भक्ति के नेत्रों द्वारा अपने अंतरह्रदय में दर्शन करते हैं, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूँ। इस वचन में ब्रह्मा जी, संतो की बात कर रहे हैं किन्तु वृंदावन के गाय और बछड़े कुछ कम संत नहीं है। वे भी संत हैं, वे भी महात्मा है। वैसे वृंदावन के गाय, बछड़े, पशु ,चराचर सभी व्यक्ति हैं, सभी संत हैं, सभी भक्त हैं। यह इन गायों का वात्सल्य है। वात्सल्य रस में गाय कृष्ण को अपना बछड़ा समझती है और कृष्ण से उनका वैसा ही प्रेम है। जैसे वह अपने बछड़े से प्रेम करती हैं। कृष्ण मानो एक बछड़ा ही है। एक विशेष बछड़ा (वेरी स्पेशल सुप्रीम काफ) प्रेमाञ्जनच्छुरितभक्तिविलोचनेन अर्थात गाय और बछड़ा के नेत्रों से प्रेम के अश्रु की धाराएं बह रही हैं। हरि! हरि! हम गोपियों के शब्दों में गायों के भाव अर्थात गायों और बछड़ों की भक्ति का प्रदर्शन या दर्शन भी कर सकते हैं। इन शब्दों का उच्चारण गोपियां तब कर रही है जब उन्होंने मुरली की नाद को सुना। हमारे लिए यह जो *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* कि जो नाद अथवा ध्वनि है। हमारे लिए यही मुरली की नाद है। देख लीजिए, यह लक्ष्य है। मुरली की नाद हम सुनेंगे तो क्या होना चाहिए ?हरि! हरि! *नाम्नामकारि बहुधा निजसर्वशक्ति- स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः। एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नाऽनुरागः॥2॥* (श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.16) अर्थ:- हे भगवान्! आपका अकेला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मंगल करने वाला है। कृष्ण, गोविन्द जैसे आपके लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृत नामों में अपनी समस्त अप्राकृत शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई नियम भी नहीं है। प्रभो! आपने तो अपनी कृपा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा अत्यन्त ही सरलता से भगवत्-प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दुर्भाग्यशाली हूँ कि आपके नाम में मेरा तनिक भी अनुराग नहीं है। भगवान ने अपनी सारी शक्ति इस हरि नाम में भरी हुई है। भगवान ने स्वयं को ही इस मंत्र में भरा है। यह महामंत्र अपनी शक्ति, अपनी भक्ति के भाव से भरा हुआ है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ही कहते हैं- *नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्गद्-रुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥6॥* ( शिक्षाष्टकम) अर्थ:- हे प्रभो! आपका नाम-कीर्तन करते हुए, कब मेरे नेत्र अविरल प्रेमाश्रुओं की धारा से विभूषित होंगे? कब आपके नाम-उच्चारण करने मात्र से ही मेरा कण्ठ गद्गद् वाक्यों से रुद्ध हो जाएगा और मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा? इन गायों का या बछड़ों का जो हाल हो रहा है वह होता ही रहता है। यह प्रतिदिन की बात है। ऐसा नहीं है कि वह एक बार, एकदा, एक समय ऐसा हुआ। यह पुनः पुनः ऐसा होता ही रहता है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने भाव व्यक्त कर रहे हैं। हमें करने नहीं आते इसलिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपने आचरण से हमें सिखा रहे हैं। *अपनी आचारी प्रभु ज्वेरे शिखायाअपना वनकाका ये से जिरजाने भजया* (2) *जगत भारिया गेला जगई मधैय नित्यानंद वन बयाय शिष्य संप्रदाय* (3) *अच्छे दिन थाके वेश हय चिंता ही वैष्णवेरा उचिता नहीं थाक दया होना* (4) *माधुर्य कादम्बिनी ग्रांड चक्रवर्ती गया सिद्धांत देखा तथा किबा तार रे* (1) आत्मा आत्माओं को सिखाने के लिए प्रभु स्वयं उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जो निर्जना भजन करता है वह बस अपने आप को धोखा देता है। (2) दुनिया अब जगैस और मधेसियों से भरी हो गई है। भगवान नित्यानंद के वंश ने अपने शिष्यों की संख्या बढ़ा दी है। (3) भोजन करना, सोना, वस्त्र धारण करना और बेफिक्र रहना वैष्णव के लिए उचित नहीं है, क्योंकि यह दया के बिना है। (4) श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर द्वारा लिखित ग्रंथ "माधुर्य कादम्बिनी" के अनुसार, देखें कि निष्कर्ष क्या है और उनका निर्णय क्या है। वे हमें सिखा रहे हैं कि हमें प्रार्थना करनी चाहिए। नयनं गलदश्रुधारया, जब हम जप करेंगे तब कब उन गाय और बछड़े के जैसे नयनं गलदश्रुधारया होगा? वदनं गद्गद्-रुद्धया गिरा कब होगा? पुलकैर्निचितं वपुः कदा अर्थात हमारा शरीर पुलकित कब होगा? यह प्रश्न है। ऐसे प्रश्न पूछने चाहिए? क्यों नहीं हो रहा है? कब होगा? वह दिन कब आएगा? कभी हबो वो दिन आमार। वह दिन हमारे जीवन में कब आएगा। हरेनाम में रुचि, अपराधे गूची अर्थात हरि नाम में रुचि कब बढ़ेगी और हम अपराध कब छोड़ेंगे? ठुकरायेंगे , अपने मन व जीवन से उनको उखाड़ कर फेंक देंगे। हमारा वह दिन कब आएगा। हरि! हरि! *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे, हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे!!* हम इस जपा सेशन में यही अभ्यास करते हैं। अभ्यास से क्या आशा है? प्रेक्टिस मेक ए मैन वूमेन परफेक्ट। स्त्री व पुरुष जो भी प्रैक्टिस(अभ्यास) करेंगे, भगवान् उनको परफेक्शन देने के लिए तैयार है। हमारी तरफ से प्रयास होना चाहिए। गॉड हेल्प दोज़ हूस हेल्प दैमसेल्फ। अंग्रेजी में ऐसी कहावत है। भगवान उनकी सहायता करते हैं, जो प्रयास करते हैं। जो स्वयं को सहायता देते हैं या प्रयास करते हैं। हमारे प्रयासों का फल जरूर मिलेगा लेकिन प्रयास जरूर करना चाहिए। प्रयत्न करना हमारे हाथ में है। फल भगवान के हाथ में है। जैसे यशोदा मैया के हाथ में या पैर में प्रयत्न करना ही था। वह प्रयत्न करता रही, करती रही। जब तक यशोदा ने कृष्ण को पकड़ा नही तब तक प्रयत्न को छोड़ा नहीं। वैसे कृष्ण पकड़ में तब आए, जब कृष्ण ने यशोदा का प्रयत्न देखा। यशोदा के प्रयास को देखा और वे प्रसन्न हो गए। तत्पश्चात स्वबन्धनेः पकड़ना उद्देश्य नहीं था, कृष्ण को उखल के साथ बांधना भी था। उसमें भी प्रयास, पहले तो पकड़ने के लिए दौड़ रही थी। पकड़ तो लिया लेकिन बाद में ऊखल के साथ बांधना था, उसमें कितने सारे प्रयास करने पड़े। कितनी सारी रस्सी प्राप्त व इकट्ठी करनी पड़ी। दो उंगलियां छोटी पड़ रही थी। एक उंगली यशोदा का प्रयत्न व दूसरी कृष्ण की कृपा थी। फिर वह स्व बंधन में आ गए। आइए हम अपनी तरफ से पूरा प्रयास करते हैं। तब यश की गारंटी है। *चेतोदर्पणमार्जनं भवमहादावाग्नि-निर्वापणं श्रेयः कैरवचन्द्रिकावितरणं विद्यावधूजीवनम् आनन्दाम्बुधिवर्धनं प्रतिपदं पूर्णामृतास्वादनं सर्वात्मस्नपनं परं विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम्॥1॥* ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला 20.12) अर्थ:- श्रीकृष्ण-संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन-यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह मंगलरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृत विद्यारूपी वधु का यही जीवन है। यह आनन्द के समुद्र की वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृष्ण-नाम हमारे द्वारा नित्य वांछित पूर्णामृत का हमें आस्वादन कराता है। चैतन्य महाप्रभु ने ही यश की गारंटी दी हुई है। प्रयत्न करते रहो, जप करते रहो। प्रभुपाद की पुस्तकों का वितरण करते रहो। गीता जयंती का महीना है। भगवत गीता यथारूप के प्रचार को बढ़ाना है। अधिक अधिक जीवों के पास गीता को पहुंचाना है। यह प्रयास भी जब कृष्ण देखेंगे, वे प्रसन्न होंगे और वह हमें कृष्ण प्रेम देंगे। फिर हम चख लेंगे। यह साधना और सेवा है। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* यह साधना है और फिर दिन भर में सेवा है। वैसे हरे कृष्ण हरे कृष्ण साधना भी है और सेवा भी है। साधन भी है और साध्य भी है। यह सेवा भी हमको करनी है, हम सेवक हैं। इस महीने में इस्कॉन के भक्त और प्रभुपाद के अनुयायी.. आप प्रभुपाद के अनुयायी हो या नही?? यस! आप हो तो इसे सिद्ध करके दिखा दो। प्रभुपाद चाहते थे कि उनके ग्रंथों का वितरण हो और विशेष रूप से इस महीने में गीता का वितरण हो। पुस्तकों का वितरण करो। पुस्तकों का वितरण करो, पुस्तकों का वितरण करो। श्रील प्रभुपाद की जय!!! हरिनाम संकीर्तन की जय !!! गीता जयंती महोत्सव की जय !!! दिव्य ग्रंथ वितरण कार्यक्रम की जय !!! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!!

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