Hindi

जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक 29 मई 2021 हरि हरि! विफले जनम गोङाइनु। मनुष्य जनम पाइया, राधाकृष्ण ना भजिया, जानिया शुनिया विष खाइनु॥1॥ गोलोकेर प्रेमधन, हरिनाम संकीर्तन, रति ना जन्मिल केने ताय। संसार-विषानले, दिवानिशि हिया ज्वले, जुडाइते ना कैनु उपाय॥2॥ ब्रजेन्द्रनन्दन येइ, शचीसुत हइल सेइ, बलराम हइल निताइ। दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल, ता’र साक्षी जगाइ-माधाइ॥3॥ हा हा प्रभु नन्दसुत, वृषभानु-सुता-युत, करुणा करह एइ बार। नरोत्तमदास कय, ना ठेलिह राङ्गा पाय, तोमा बिना के आछे आमार॥4॥ अर्थ (1) हे भगवान्‌ हरि! मैंने अपना जन्म विफल ही गवाँ दिया। मनुष्य देह प्राप्त करके भी मैंने राधा-कृष्ण का भजन नहीं किया। जानबूझ कर मैंने विषपान कर लिया है। (2) गोलोकधाम का ‘प्रेमधन’ हरिनाम संकीर्तन के रूप में इस संसार में उतरा है, किन्तु फिर भी मुझमें इसके प्रति रति उत्पन्न क्यों नहीं हुई? मेरा हृदय दिन-रात संसाराग्नि में जलता है, और इससे मुक्त होने का कोई उपाय मुझे नहीं सूझता। (3) जो व्रजेंद्रनन्दन कृष्ण हैं, वे ही कलियुग में शचीमाता के पुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) रूप में प्रकट हुए, और बलराम ही श्रीनित्यानंद बन गये। उन्होंने हरिनाम के द्वारा दीन-हीन, पतितों का उद्धार किया। जगाई तथा मधाई नामक महान पापी इस बात के प्रमाण हैं। (4) श्रील नरोत्तमदास ठाकुर प्रार्थना करते हैं, ‘‘हे नंदसुत श्रीकृष्ण! हे वृषभानुनन्दिनी! कृपया इस बार मुझ पर अपनी करुणा करो! हे प्रभु! कृपया मुझे अपने लालिमायुक्त चरणकमलों से दूर न हटाना, क्योंकि आपके अतिरिक्त मेरा अन्य कौन है?’’ आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 812 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। आप तैयार हो? जय जय श्रीकृष्णचैतन्य नित्यानन्द। जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥ अर्थ- श्रीचैतन्यमहाप्रभु की जय हो, श्री नित्यानन्दप्रभु की जय हो। श्री अद्वैतआचार्य की जय हो और श्रीगौरचंद्र के समस्त भक्तों की जय हो। अब हम शिक्षाष्टक को आगे बढ़ाते हैं अथवा इसका रसास्वादन करते हैं। वैसे हम इसका रसास्वादन कुछ दिनों से कर ही रहे हैं। श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु ने गंभीरा में शिक्षाष्टक का रसास्वादन किया और उन्होंने उस रस को शेयर( बांटा) भी किया अर्थात उन्होंने अपने भाव व्यक्त करते हुए शिक्षाष्टक का आस्वादन स्वरूप दामोदर और रामानंद राय के साथ बांटा। स्वरूप दामोदर और रामानंद राय कितने भाग्यवान पुरुष थे लेकिन हम भी कुछ कम भाग्यवान नहीं है। चैतन्य महाप्रभु ने जिस रस का आस्वादन करवाया अथवा रस को पिलाया,उसे चैतन्य महाप्रभु स्वयं पी भी रहे थे, पिला भी रहे थे। हरि हरि। हम उसको महाप्रसाद कहते हैं। भगवान जो अन्न ग्रहण करते हैं, तत्पश्चात उनका जो उच्चिष्ट छूट जाता है अथवा भगवान् छोड़ देते हैं, जब हम उसको ग्रहण करते हैं, तब वह महाप्रसाद हुआ। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं ही रसास्वादन कर रहे हैं। ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्ममाख्याति पृष्छति । भुड.कते भोजयते चैव षडविधम प्रीति-लक्षणम ॥ ( श्रीउपदेशामृत श्लोक संख्या 4) अनुवाद: दान में उपहार देना, दान-स्वरूप उपहार स्वीकार करना, विश्वास में आकर अपने मन की बातें प्रकट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, प्रसाद ग्रहण करना तथा प्रसाद अर्पित करना - भक्तों के आपस में प्रेमपूर्ण व्यवहार के ये छह लक्षण हैं। गुह्ममाख्याति पृष्छति भी हो रहा है। वे गुह्ममाख्याति पृष्छति सुना रहे हैं, पूछ रहे हैं। वही रस, चैतन्य चरितामृत की रचना कर कृष्ण दास कविराज गोस्वामी हमारे साथ कर रहे हैं अथवा उन्होंने किया है। इसका एक पूरा अध्याय ही चैतन्य चरितामृत की अन्त्य लीला में अध्याय 20 में दिया गया है। पठन पाठन। वे हम से इस अध्याय का पाठ करवा रहे हैं। इसी के साथ हम सभी या मैं भी आस्वादन कर रहा हूं और वह आस्वादन मैं आपके साथ शेयर कर रहा हूं। आपको भी आस्वादन करना होगा। कर रहे हो या नहीं? कर रहे हो? इसमें रस है? यदि नहीं है तो नहीं सुनाएंगे? यह कोई बेल रस है नही है। हरि! हरि! यह रस है या नहीं? आपको मंजूर है कि यह रस है। इसको आप पीजिए। इसका पान कीजिए। किसको पान करना है आत्मा को पिलाना है। केवल कान में नहीं डालना है। कर्णो के माध्यम से इसको आत्मा तक पहुंचाना है। केवल कंठ तक नहीं पहुंचाना है कि कंठस्थ हो गया। हम कहते रहते हैं, जैसा कि शास्त्र भी कहते हैं कि हृदयांगम करो। हृदयांगम करो।हृदय में हम रहते हैं। सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च | वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् || ( श्रीमद् भगवत् गीता १५.१५) अनुवाद:- मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ । भगवान् कृष्ण ने भी कहा कि- मैं भी हृदय प्रांगण में रहता हूं। कठोपनिषद कहता है कि हमारे हृदय में (दूसरी बात शुरू हो गई) दो पक्षी रहते हैं, एक परमात्मा पक्षी है व एक आत्मा पक्षी है। एक है विभु आत्मा, एक है अणु आत्मा। हम हृदय में रहते हैं इसलिए हमें ह्रदय आत्मा तक इस रस को पहुंचाना है। इसके लिए हमें ध्यानपूर्वक श्रवण करना होगा। ताकि इस रस का कण- कण हम तक पहुंच जाए।हरि हरि। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का यह सातवां शिक्षाष्टक है। आप नंबर गिन रहे हो? कुछ तो लिख भी रहे हैं। हो सकता है कि कुछ या अधिकतर भक्तों के स्मृति पटल पर मैं ही कुछ लिख रहा हूं या मैं सुना रहा हूँ। लेकिन मैं कौन होता हैं। मैं तो केवल शुद्र जीव हूं। चैतन्य महाप्रभु ही लिख रहे हैं या कृष्ण दास कविराज गोस्वामी लिख रहे हैं अथवा श्रील प्रभुपाद लिख रहे हैं। यदि हम उनको ध्यान पूर्वक सुनेंगे तो सीधी बात हमारे ह्र्दय प्रांगण में पहुंच जाती है। हमारे अंतःकरण में स्मृति पटल है, पटल मतलब पर्दा स्क्रीन। वहां यह सब बातें लिखी जाती हैं, अंकित होती है। उसकी छाप होती है। हरि! हरि! चैतन्य महाप्रभु ने भी कहा है- युगायितं निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम्। शून्यायितं जगत्‌ सर्व गोविन्द-विरहेण मे॥7॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्तय लीला 20.39) अनुवाद : हे गोविन्द, आपके वियोग में एक क्षण मुझे एक युग सा प्रतीत हो रहा है। मेरे नेत्रों से वर्षाधारा के समान अश्रु की धाराएं प्रवाहित हो रही हैं और मैं सारे जगत् को शून्य सा देखता हूँ। हरि! हरि! यह कल से आगे की बात है। यह भावों का खेल है। कल आपको बताया था कि छठवें और सातवें शिक्षाष्टक में भाव भक्ति का उल्लेख हुआ है। भाव भक्ति, साधना भक्ति से ऊपर का स्तर व स्थिति, श्रेणी है। कल वाले श्लोक में भाव व्यक्त हुए ही थे। नयनें गलदश्रु-धारया वदने गद्गद-रुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्तय लीला 20.36) अनुवाद : हे प्रभु, कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए मेरे नेत्र प्रवहमान अश्रुओं से पूरित होकर सुशोभित होंगे? कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए दिव्य आनन्द में मेरी वाणी अवरूद्ध होगी और मेरे शरीर में रोमांच उत्पन्न होगा?' चैतन्य महाप्रभु ने व्याख्या की है। हमनें भी उसको आगे समझाया था। यह भाव और इन भावों का आंदोलन भी हमने कहा था। यह आंदोलन और भी बढ़ता है उसकी लहरें, तरंगे या कोई सुनामी, कोई साइक्लोन भी नहीं (कुछ दिन पहले साइक्लोन आया था। सुनामी, साइक्लोन से खतरनाक भयानक होता है। आपको याद है कि 10 या 15 साल पहले सुनामी आई थी इंडोनेशिया से मोरिशियस तक पहुंच गई थी,साउथ इंडिया मद्रास तक भी आई थी। सुनामी के कारण हिन्द महा सागर में खलबली मच गई थी।) साइक्लोन से बढ़कर सुनामी होती है। कल वाले छठवें श्लोक के भाव से भी ऊंचा भाव, ऊंची लहरें व तरंगों का वर्णन आज चैतन्य महाप्रभु ने सातवें शिक्षाष्टक का उल्लेख किया है। युगायितम निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम् शून्यायित जगत्सर्वम गोविन्द - विरहेण मे ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्तय लीला 20.39) अनुवाद: हे गोविन्द, आपके वियोग में एक क्षण मुझे एक युग सा प्रतीत हो रहा है । मेरे नेत्रों से वर्षाधारा के समान अश्रु की धाराएं प्रवाहित हो रही हैं और मैं सारे जगत् को शून्य सा देखता हूँ। अब तो हद हो गई अब इसमें कृष्ण को मिस करने की बात, कृष्ण इतने याद आ रहे हैं। इतना स्मरण हो रहा है किंतु मिलन नहीं हो रहा है, वे दर्शन नहीं दे रहे हैं। उनके संबंध में श्रवणं कीर्तनं हो रहा है। श्रीप्रह्लाद उवाचः श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ ( श्रीमद् भागवतम् ७.५.२३) प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप , साज - सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना, भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना, भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना ) - शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है । श्रवणं कीर्तनं से स्मरण होता है, उनकी यादें सताती हैं। मिलन के लिए उत्कंठा बढ़ती है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं युगायित निमेषेण। निमेष एक कालावधि है। सेकंड का एक अंश है, यहां शब्दार्थ में एक क्षण लिखा है। निमेषेण मतलब एक क्षण लेकिन यहां तो पूरा क्षण भी नही है। अटति यद्भवानह्नि काननं त्रुटि युगायते त्वामपश्यताम् । कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षता पक्ष्मकृदशाम् ॥ ( श्रीमद्भागवतगम 10.31.15) अनुवाद:- जब आप दिन के समय जंगल चले जाते हैं, तो क्षण का एक अल्पांश भी हमें युग सरीखा लगता है क्योंकि हम आपको देख नहीं पा्तीं और जब हम आपके सुन्दर मुख को जो घुंघराले बालों से सुशोभित होने के कारण इतना सुन्दर लगता है, देखती भी हैं, तो ये हमारी पलकें हमारे आनन्द में बधक बनती हैं, जिन्हें मूर्ख सृष्टा ने बनाया है। गोपियों ने गोपी गीत में अपने भाव व्यक्त किए हैं। श्रीमद् भागवत के दसवें स्थान में गोपी गीत का वर्णन है। गोपी गीत में गोपियों ने कहा कि त्रुटि युगायते त्वामपश्यताम् कहा है, चैतन्य महाप्रभु भी कहते हैं। वैसे चैतन्य महाप्रभु यहां गोपी भाव अथवा राधा भाव में ही कह रहे हैं। वह गोपी गीत में भी राधा साथ में है। त्रुटि युगायते त्रुटि मतलब वैसे शब्दार्थ में दिया गया है, मैनें पढ़ा है, उसका कुछ एक क्षण के विभाजन करो अर्थात कुछ उसके 1500 टुकड़े करो। सही संख्या मुझे याद नहीं आ रही है, लेकिन लगभग ऐसा ही है। 1 सेकंड के 1000 से अधिक, उसमें से एक उठा लो, वह जो कालावधि है, वह त्रुटि है। गोपियों के लिए त्रुटि युगायते आए थे। उनके लिए यह कई युगों जैसी है। त्वामपश्यताम्। आपके दर्शन नहीं होने से, आपको नहीं देखने से लग रहा हैं कि त्रुटि युगायते, युगायितम निमेषेण इस निमेष का कुछ अंश युग जैसा लग रहा है। यह विरह की व्यथा भी है। यहां विप्रलंभ स्थिति का भी वर्णन है। यह सब भक्ति रसामृत सिंधु में रूपगोस्वामी ने वर्णन किया है। एक होता है - संभोग अर्थात भगवान के साथ मिलना। विप्रलंभ स्थिति। विप्रलंभ स्थिति- यह मन की स्थिति है। यह भाव की भी स्थिति है। प्रेम भक्ति का स्तर भाव भक्ति के कुछ दूर नही है। आज का जो शिक्षाष्टक का श्लोक है, प्रेम की बात करेगा। प्रेम भक्ति भाव भक्ति चल रही है या विरह की व्यथा का वर्णन हो रहा है। युगायितम निमेषेण चक्षुषा प्रावृषायितम् शून्यायित जगत्सर्वम गोविन्द - विरहेण मे ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्तय लीला 20.39) अनुवाद : हे गोविन्द, आपके वियोग में एक क्षण मुझे एक युग सा प्रतीत हो रहा है। मेरे नेत्रों से वर्षाधारा के समान अश्रु की धाराएं प्रवाहित हो रही हैं और मैं सारे जगत् को शून्य सा देखता हूँ। एक एक क्षण या क्षण का भी अंश युग जैसा लग रहा है। चक्षुषा प्रावृषायितम्। महाप्रभु पहले वाले अष्टक में कहते हैं - नयनं गलदश्रुधारया वदनं गद्‌गद्‌-रुद्धया गिरा। पुलकैर्निचितं वपुः कदा तव नाम-ग्रहणे भविष्यति ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्तय लीला २०.३६) अनुवाद: हे प्रभु, कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए मेरे नेत्र प्रवाहमान अश्रुओं से पूरित होकर सुशोभित होंगे? कब आपके पवित्र नाम का कीर्तन करते हुए दिव्य आनन्द में मेरी वाणी अवरूद्ध होगी और मेरे शरीर में रोमांच उत्पन्न होगा?' महाप्रभु ने अश्रुधारा की बात वहां की है।अश्रुबिंदु की बात नही की। एक बिंदु और तत्पश्चात दूसरा बिंदु,अश्रुधारा। वैसी बात् है। अखंड धारा बह रही है, बिंदु बिंदु नहीं। अश्रुबिंदु नहीं, यहां तो वृष्टि की बात हो रही हैं। चक्षुषा प्रावृषायितम् मेरे आंखों से मूसलाधार वर्षा हो रही है। यह क्यों हो रहा है? शून्यायित जगत्सर्वं गोविन्द - विरहेण मे अर्थात गोविंद के बिना यह जगत् शून्य अथवा जीरो है। कृष्ण नाम-सुधा करिया पान, जुड़ाओ भकतिविनोद-प्राण। नाम बिना किछु नाहिक आर, चौदाभुवन-माझे॥8॥ अर्थ श्रीभक्तिविनोद ठाकुर कहते हैं- आप लोग कृष्ण नाम रुपी अमृत का पान करें जिससे कि मुझे सान्त्वना प्राप्त हो। इन चौदह भुवनों में श्रीहरि के नाम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। भक्ति विनोद ठाकुर ऐसा गाते हैं। नाम के बिना इस संसार में कुछ नहीं है। नाम बिना किछु नाहिक आर, चौदाभुवन-माझे चौदह भुवनों में श्रीहरि के नाम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। बाकी तो बेकार है। सार तो भगवान् का नाम है। यदि भगवान् नहीं है तब सारा जगत् शून्य है। भगवान् के बिना शून्य है। जैसे प्रभुपाद भी कहा करते थे। हमनें जो भी उपलब्धि प्राप्ति, धन दौलत इत्यादि हम इकठ्ठा करते हैं एक एक जीरो है, सब जीरो है उनके सामने एक नहीं है। सामने यदि एक नहीं है , तो एक जीरो, दूसरा जीरो, तीसरा जीरो। यह कमाई यह उपलब्धि यह प्राप्ति यह वह... सब एक बड़ा जीरो बन जाती है। वैसे भी यह संसार गोल है। गोल कहो या भूगोल, खगोल कहो यह एक बड़ा शून्य ही है। गोविन्द अथवा कृष्ण के बिना राधा कृष्ण के बिना, हरे कृष्ण हरे कृष्ण के बिना शून्य है। कुछ नहीं है। जो भी है, मुझे कोई परवाह नहीं है, मुझे उसकी जरूरत नहीं है। मुझे तो भगवान् चाहिए, मुझे तो गोविन्द चाहिए। गोविंद ही मेरे प्राण हैं। राधाकृष्ण प्राण मोर युगल-किशोर। जीवने मरणे गति आर नाहि मोर॥ ( नरोत्तम दास ठाकुर द्वारा रचित गीत) अर्थ:- युगलकिशोर श्री श्री राधा कृष्ण ही मेरे प्राण हैं। जीवन-मरण में उनके अतिरिक्त मेरी अन्य कोई गति नहीं है। चैतन्य महाप्रभु ने इस शिक्षाष्टक में अपने कुछ भाव व्यक्त किए हैं। उदगे दिवस ना याय , ' क्षण ' हैल ' युग ' - सम । वर्षार मेघ - प्राय अश्रु वरिषे नयन ।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.४०) अनुवाद : उद्वेग के कारण मेरा दिन नहीं कटता , क्योंकि हर क्षण मुझे एक युग जैसा प्रतीत होता है । निरन्तर अश्रुपात करने से मेरी आँखें वर्षा ऋतु के बादलों जैसी बनी हुई हैं । उद्वेग, खेद के कारण समय बीत नहीं रहा है। ( समय होता तो बताते लेकिन अब.. हमारा समय भी..) जब हम परेशान व दुखी होते हैं, कोई कष्ट होता है। तब लगता है कि समय बीत नहीं रहा है। जब हम किसी प्यारे दुलारे की प्रतीक्षा में होते हैं, सभी को लगता है कि क्या घड़ी बंद है क्या? उनको तो सात बजे आना था? घड़ी काम नहीं कर रही है। हम ऐसे ही कुछ अनुभव भौतिक जगत् में करते ही रहते हैं। वह अनुभव, आध्यात्मिक जगत् के अनुभवों की छाया है। उदगे दिवस ना याय। वैसे भी अंग्रेजी में कहते हैं। 'व्हेन यू हैव फन। व्हेन यू आर् इन गुड़ टाइम, टाइम फ्लाई।' समय का पता भी नहीं चलता। अरे सात बज भी गए। अभी अभी तो हमनें शुरुवात की थी। अभी अभी तो मिलन हो रहा था, बातचीत कर रहे थे, यह हो रहा था, वह हो रहा था। समय बीत गया? व्हेन वी हैव बैड टाइम, टाइम स्टिल.. तब ऐसा लगता है कि इस विरह की अवस्था में मानो घड़ी चल ही नहीं रही है। विरह की इतनी व्यथा का अनुभव या फिर दोनों प्रिय या प्रिया भी इस विरह की व्यथा से ग्रस्त होते हैं, तब लगता है कि युगायितम निमेषेण । समय बीत नहीं रहा।क्षण ' हैल ' युग ' - सम । बंगला भाषा में एक् क्षण युग के समान हुआ। वर्षार मेघ - प्राय अश्रु वरिषे नयन मानसून की वर्षा जैसे, नयनों से अश्रु बह रहे हैं। गोविन्द - बिरहे शून्य ह - इल त्रिभुवन । तुषानले पोड़े , —येन ना याय जीवन ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.४१) अनुवाद गोविन्द के विरह के कारण तीनों जगत् शून्य बन चुके हैं। मुझे ऐसा लगता है कि मैं जीवित ही मन्द अग्नि में जला जा रहा हूँ । गोविंद के बिना यह सारा त्रिभुवन शून्य है।तुषानले पोड़े , —येन ना याय जीवन । नले मतलब अग्नि।पोड़े मतलब मैं आग में गिरा तो हूँ लेकिन यह अग्नि शायद मंद है। इसलिए मैं झट से जल कर भस्म नही हो रहा हूँ। यह आग मुझे धीरे धीरे क्यों जला रही है। तुषानले मंद अग्नि मुझे धीरे धीरे ही जला रही है। अच्छा होता यदि एक क्षण में मुझे यह राख बना देती। कृष्ण उदासीन ह - इला करिते परीक्षण । सखी सब कहे , - ' कृष्णे कर उपेक्षण ' ।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.४२) अनुवाद : भगवान् कृष्ण मेरे प्रेम की परीक्षा लेने के लिए मुझसे उदासीन हो गये हैं और मेरी सखियाँ कहती हैं , ' अच्छा हो कि तुम कृष्ण की उपेक्षा करो । " यह गोपी भाव है, राधाभाव है। कृष्ण उदासीन ह - इला। कृष्ण हमसे उदासीन हुए हैं या हमसे नाराज हैं और शायद हमारी परीक्षा ले रहे हैं। दर्शन न देकर हमारी परीक्षा ले रहे हैं।सखी सब कहे , - ' कृष्णे कर उपेक्षण। कुछ क्षणों के लिए गोपियां सोचती हैं कि वे हमें भूल सकते हैं। हमें वृन्दावन में छोड़ कर मथुरा जा सकते हैं। वे मथुरा की स्त्रियों से प्रसन्न हैं। हमें तो भूल गए हैं। वे अगर भूल सकते हैं, तब हम क्यों नहीं भूल सकती। हम भी सब कृष्ण को भूल जाएंगी। कौन कौन हमारे पक्ष में है अपना हाथ उठाइए। गोपियाँ प्रस्ताव रखती हैं कि कौन कौन कृष्ण को भूलना चाहती हैं, हाथ ऊपर करो। कृष्ण भूल सकते हैं, तो हम भी भूल सकती हैं। यह उपेक्षा की बात है। ऐसा विचार तो आ जाता है। वे भूल सकते हैं तो हम क्यों नहीं भूले। भूलने के प्रस्ताव को लेकर किसी का हाथ ऊपर नहीं होता। पुनः कृष्ण याद आते हैं। भूलने का प्रयास करने पर भी भूल नहीं सकती। हमारे लिए तो प्रयास करने की जरूरत ही नहीं है। क्या हमें कृष्ण को भूलने के लिए प्रयास करने की आवश्यकता है? हम तो पहले ही भूल चुके हैं, हमें तो आदत पड़ी हुई है। हम तो भगवान् को भूलने में एकदम् एक्सपर्ट ( कुशल) हैं। जहां तक भूलने की बात है, हम नम्बर एक हैं। माया है, ये है, वो है.. कौन परवाह करता है? ऐसे लोगों के लिए वैसे यह भाव राधा या गोपी का भाव समझना कठिन भी है। कुछ अचिन्त्य बातें भी हैं। हरि हरि! एतेक चिन्तिते राधार निर्मल हृदय । स्वाभाविक प्रेमार स्वभाव करिल उदय ।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.४३) अनुवाद: जब श्रीमती राधारानी इस प्रकार सोच रही थीं , तब उनमें स्वाभाविक प्रेम के गुण प्रकट हो गये , क्योंकि उनका हृदय शुद्ध था। ऐसा सोच ही रही थी कि चलो चलो, हम कृष्ण की उपेक्षा करते हैं, ऐसा कुछ विचार था। एतेक चिन्तिते राधार निर्मल हृदय स्वाभाविक प्रेमार स्वभाव करिल उदय , उनके ह्रदय में और प्रेम उदित हुआ और स्मरण उदित हुआ। पुनः वही बात अर्थात मिलन के लिए उत्कंठित हो गयी। भूलने की बात सोच रही थी।लेकिन कैसे भूल सकती हैं। भूल नहीं सकती। ईर्ष्या , उत्कण्ठा , दैन्य , प्रीढ़ि , विनय । एत भाव एक - ठात्रि करिन उदय ।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.४४) अनुवाद- फिर तुरन्त ही ईर्ष्या, अत्यन्त उत्कण्ठा, दैन्य , उत्साह तथा विनय के भाव - लक्षण एक साथ प्रकट हो उठे । तब एक साथ यह सारे भाव ईर्ष्या हो गए, लेकिन यह दिव्य अथवा आलौकिक ईर्ष्या है। यह संसार वाली सांसारिक ईर्ष्या नहीं है। उत्कंठा बढ़ गयी। भक्त अथवा गोपियां अधिक उत्कंठित हो गयी और भक्त भी उत्कंठित हो सकते हैं। वात्सल्य भाव वाले या संख्य रस वाले भी उत्कंठित हो सकते हैं और दैन्य उदित हुआ। दैन्य समझते हो? अच्छा शब्द है। दीन। दीनता से शब्द दैन्य बनता है। दीनहीन यत छिल, हरिनामे उद्धारिल, ता’र साक्षी जगाइ-माधाइ॥3॥ अर्थ:- जो व्रजेंद्रनन्दन कृष्ण हैं, वे ही कलियुग में शचीमाता के पुत्र (श्रीचैतन्य महाप्रभु) रूप में प्रकट हुए और बलराम ही श्रीनित्यानंद बन गये। उन्होंने हरिनाम के द्वारा दीन-हीन, पतितों का उद्धार किया। जगाई तथा मधाई नामक महान पापी इस बात के प्रमाण हैं। तृणादपि सु - नीचेन तरोरिव सहिष्णुना । अमानिना मान - देन कीर्तनीयः सदा हरिः ।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत २०.२१) अनुवाद : जो अपने आपको घास से भी तुच्छ मानता है , जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है तथा जो निजी सम्मान न चाहकर अन्यों को आदर देने के लिए सदैव तत्पर रहता है , वह सदैव भगवान के पवित्र नाम का कीर्तन अत्यन्त सुगमता से कर सकता है । ' यह दीनता की बातें है। गर्वित या दर्भ भी कहते हैं। जब हम दर्पण में देखते हैं (दर्पण जानते हो) दर्पण में देखने से हमारा दर्भ बढ़ जाता है। मैं मिस यूनिवर्स हूँ, मैं यह हूँ, वह हूँ। केवल मैं ही तो हूँ। यह जो विचार है। हमारा अहंकार हमारा दर्प/ दम्भ एक नीच भाव अथवा नीच विचार है। दर्पण में देखने से हमें वह दर्प दिखता है। इसलिए दर्पण जो हमें दिखाए हमारा दर्प या जो हमारे दम्भ को बढ़ाये, यह विकार है। हमारे मन की स्थिति है। गोपियों का दर्प बढ़ गया। फिर कभी कभी दंभी बन जाती हैं। राधा रूठ जाती है, मान करके बैठती है। राधा रानी का नाम अथवा एक परिचय माननी है। जो मान करती है। आप जानते हो कि स्त्रियां भी समय समय पर मान करके बैठी रहती हैं। यह प्रतिदिन घर में चलता रहता है। हरि हरि। विनयी भाव भी बढ़ गया। सारे भाव एक साथ आन्दोलित हो रहे हैं। यह भाव भक्ति है। यह भाव भक्ति का लक्षण है। यह सारे दिव्य व अलौकिक भाव है, उनके नाम वैसे ही हैं-ईर्ष्या, दर्प आदि। कभी क्रोध आना,भगवान् कैसे क्रोधित हुए। हरि हरि। यह सब दिव्य भाव व गुण हैं। एत भावे राधार मन अस्थिर ह - इला । सखी - गण - आगे प्रादि - लोक ये पडिला ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत २०.४५) अनुवाद उस भाव में श्रीमती राधारानी का मन क्षुब्ध था , अतएव उन्होंने अपनी गोपी - सखियों से उत्तम भक्ति का एक श्लोक कहा । जब यह सब ईर्ष्या, उत्कंठा, दैन्यता आदि भाव और प्रकट हुए, इससे राधा, गोपियों या भक्तों का मन अस्थिर् होता है। वे और कुछ बोलने लगती हैं अपने भाव व्यक्त करने लगती हैं। सेड़ भावे प्रभु सेड़ श्लोक उच्चारिला । श्लोक उच्चारिते तद्रूप आपने ह - इला ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.४६) अनुवाद: भाव के उस उन्माद में श्रीचैतन्य महाप्रभु ने वह श्लोक सुनाया और ज्योंही उन्होंने श्लोक पढ़ा , उन्हें लगा कि वे श्रीमती राधारानी हैं । यह भाव जो उठे हैं, उन भावों के अनुसार विचार भी हो रहे हैं। वे विचार मुख से व्यक्त भी होने वाले हैं। पहले मन में विचार उठते हैं तत्पश्चात मुख से प्रकट होते हैं अर्थात उनका स्रोत हमारा मन होता है, आत्मा में होता है। अंतःकरण में कुछ विचार उठते हैं फिर मन के स्तर पर, वाचा के स्तर पर होते हैं। एवं कायेन मनसा वचसा च मनोगतम् । परिचर्यमाणो भगवाम्भक्तिमत्परिचर्यया ॥ पुंसाममायिनां सम्यग्भजतां भाववर्धनः । श्रेयो दिशल्यभिमतं यद्धादिषु देहिनाम् ॥ ( श्रीमद् भगगवतं 4.8.59) अनुवाद:- इस प्रकार जो कोई गम्भीरता तथा निष्ठा से अपने मन, वचन तथा शरीर से भगवान् की भक्ति करता है और जो बताई गई भक्ति - विधियों के कार्यों में मग्न रहता है , उसे उसकी इच्छानुसार भगवान् वर देते हैं । यदि भक्त भौतिक संसार में धर्म , अर्थ , काम भौतिक संसार से मोक्ष चाहता तो भगवान् इन फलों को प्रदान करते हैं । हम वाचा से उनको कहते हैं। मन मे कई सारे विचार उदित हो रहे हैं। उन विचारों का मुख से उच्चारण होगा, वे विचार अंतिम और आठंवा शिक्षाष्टक होगा। उन विचारों की यह अभिव्यक्ति होगी अब राधारानी कहेगी। वे कौन से विचार हैं, कल सुनाएंगे। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

English

Russian