Hindi

जप चर्चा, 1 अक्टूबर 2021, पंढरपुर धाम. हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। आज जप कॉन्फ्रेंस में 877 स्थानों से भक्त जुड़ गए हैं। हरे कृष्ण, ऋषिकेन ऋषिकेश सेवया हमारे इंद्रियों का जब हम ऋषिकेश भगवान ऋषिकेश के सेवा में जब उपयोग करते हैं उसको भक्ति कहते हैं। ऋषिक मतलब इंद्रिय।ऋषिक मतलब इंद्रिय क्या? गुरु महाराज एक भक्त को संबोधित करते हुए प्रश्न कर रहे हैं। इंद्रिय और इस इंद्रियों के स्वामी भगवान ही है। हमारे इंद्रियों के स्वामी भगवान हैं। हमने उधार ली हुए हैं भगवान ने हमको इंद्रिय दी हुई है। हमारी तो है नहीं इंद्रिय तो हमारी है नहीं, भगवान की है। यह शरीर हमारा नहीं है। हम तो कहते रहते हैं। हमारा चलता रहता है। यह शरीर तो भगवान का है या भगवान ने दिया हुआ है। इंद्रिय भगवान ने दी हुई है। भगवान इंद्रियों के स्वामी हैं। जब इन इंद्रियों का शरीर में इंद्रिय है, शरीर इन इंद्रियों से बना हुआ है। नवद्वारे पुरेदेही नैव नवद्वार वाला उसमें से कुछ इंद्रिय है, कर्मेंद्रिय, ज्ञानेंद्रिय। इन इंद्रियों का उपयोग प्रयोग हम भगवान की सेवा में करते हैं, उसी का नाम भक्ति है। हम कान से सुन रहे थे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।ँ और कौन सा इंद्रिय व्यस्त था? हम देख भी रहे थे। सुंदर विग्रह को। सुंदरलाला शचीर दुलारा सुंदरलाल या शामसुंदर या गौरसुंदर उनको हम अपने इंद्रियों से, आंखों से देख रहे थे। आंखें भी इंद्रियां है। और फिर मनषष्ठानी इंद्रियानी मन को भी इंद्रिय कहां है। मनषष्ठानी इंद्रियानी मन है छठवां इंद्रिय। पांच इंद्रिय आप जानते हो, ज्ञानइंद्रिया और फिर मनषष्ठानी इंद्रियानी या तो मान छठवां इंद्रिय है या 11 वा इंद्रिय है। मन की भी गणना या गिनती कहो, इंद्रियों में की हुई है। उस मन को भी हम भगवान की सेवा में लगा रहे हैं। लगा रहे थे कि नहीं पता नहीं लगाना तो चाहिए था। हमको ध्यान करना है। ध्यान मन से होता है। इसी से होता है फिर इंद्रिय निग्रह। आत्म संयम। उसको श्रीकृष्ण गीता में कहे हैं शमौ दमोस्तपःशमौ दमोस्तपः शमौ मतलब मन का नियंत्रण। दम पंचइंद्रिय कहे। जब हम इंद्रियों का प्रयोग उपयोग भगवान की सेवा में करते हैं तो उसी के साथ इंद्रिय निग्रह, इंद्रियों और मन पर भी नियंत्रण होता है। इंद्रियों पर नियंत्रण या मन पर नियंत्रण मतलब, आप चुप बैठो, कुछ नहीं करो, निष्क्रिय हो जाओ, ऐसी तो बात नहीं है। इंद्रियों का सही उपयोग करें। भगवान की सेवा में उपयोग करें। वही है उसी के साथ होता है फिर मन पर नियंत्रण। देखना बंद नहीं करना है या सुनना बंद नहीं करना है। मुख को कुछ ताला नहीं लगाना है। मुंह खोलना ही नहीं आपका, यह बात नहीं है। आपका मुंह खोलो अपनी जीवा का सदुपयोग करो। श्रील प्रभुपाद कहां करते थे, आपके जिव्हा का कंपन होना चाहिए। जब हम जब करते हैं तो जिव्हा में कंपन होना चाहिए। या ऐसे इतना ध्यान पूर्वक जप करो। हरि हरि, ताकि भगवान आपके जिव्हा नृत्त्य करने लगे। और उसी के साथ हमारे मन की जो चांचल्य है चंचलता मन चंचलम हे मन कृष्ण अर्जुन ने भी शिकायत की। आप लोग तो करते ही रहते हो। मन दौड़ता है। इधर उधर दौड़ता है। सारे संसार का भ्रमण करता है। तो फिर प्रयास वही भी है हम लोग साधक हैं। इस मन की जो चंचलता है, मन को स्थिर करना है। मन को एकाग्र करना है। यह करने के लिए फिर बुद्धि का उपयोग करना है। ताकि भगवान पर मन एकाग्र हो। ध्यान मतलब, ध्यान मतलब एकाग्र भगवान पर पूरी तरह से ध्यान केंद्रित करना है। भगवान के ऊपर, भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम के ऊपर। विग्रहो का दर्शन करते हैं। दर्शन करते समय, उस समय तो हम और कुछ नहीं करते हैं। हम ध्यानपूर्वक दर्शन कर रहे हैं। या भगवान को देख लिया तो चल ही रहा है, महामंत्र का जप कर रहे हैं। भगवान का दर्शन विग्रह का दर्शन भी कर रहे हैं। कृष्ण के संबंध में विचार भी आएंगे। कृष्ण फिर ऐसे बुद्धि भी देंगे। तधामि बुद्धि योगंतम विचार भी देंगे। या दिव्य ज्ञान हृदे प्रकाशित हृदय प्रांगण में कोई दिव्य ज्ञान प्रकाशित होगा। जब हम दर्शन कर रहे हैं। दर्शन के साथ श्रवण हो रहा है या दर्शन कर रहे हैं तो भगवान की स्तुति करनी होती है। प्रार्थना करनी होती है। हरि हरि, मैं तो यह सोचता रहता हूं बस। सोचो इसके बारे में, वह जो हम भगवान का दर्शन करते हैं तो भगवान की हम आराधना भी करते हैं। श्रीविग्रहाराधननित्यनाम्ना श्रृंगार तनमंदिरमार्जनादो विग्रह की आराधना करते हैं, तो श्रृंगार करते हैं। विग्रह का पुजारी बनते हैं। ब्राम्हण बनते हैं। हमको जरूर करनी चाहिए विग्रह की आराधना। ब्रह्मचारी के लिए भी संन्यासियों के लिए भी। श्रील प्रभुपाद भी करते रहे और हमारे सभी आचार्य वह भी करते रहे। उन्होंने अर्चविग्रहो कि सेवा की है। शीला स्वामी नामक आचार्य हुए हमारी उन्होंने नरसिंह स्वामी की आराधना की है। नरसिंह का प्रसाद कहां उन्हें। हरे कृष्ण, पहले राधा गोविंद की आराधना करते थे रूप गोस्वामी। और राधा मदनमोहन की आराधना करते थे सनातन गोस्वामी। राधादामोदर की आराधना करते थे जीव गोस्वामी। भक्ति में विनोद ठाकुर आराधना करते थे गौर गदादर या अपने भगवान कि, हरि हरि विग्रह की आराधना जब हम करते हैं या, उनका श्रृंगार करते हैं। उनको माल्यार्पण करते हैं। उसी के साथ और भी शोभा बढ़ती है ना, भगवान का सौंदर्य। एक बार श्रील प्रभुपाद ने मुझे भी प्रमुख पुजारी बनाया, राधा रासबिहारी हरे कृष्ण लैंड मुंबई में। मैं कुछ साल भर की हुआ था इस्कॉन ज्वाइन करके। 1 साल ही हुआ था श्रील प्रभुपाद ने मुझे ब्राह्मण दीक्षा दी। और राधा रासबिहारी की आराधना किया करते थे। इसके पहले मैंने आपको बताया था। अंततोगत्वा जब भगवान का श्रृंगार पूरा हुआ। माल्यार्पण भी हुआ। विग्रह को और फिर मुकुट भी पहनाते हैं। और फिर दर्शन खुलता है। भगवान को आईना दिखाते हैं. और भगवान जब अपने सौंदर्य को आईने में देखते हैं। मुझे याद है, मैं भगवान की ओर राधा रासबहारी की ओर देखता था। इनको पसंद है ना, आज का श्रृंगार। या मुझसे प्रसन्न है ये, जैसे मैंने श्रृंगार किया। हम उनके चेहरे की ओर देखते थे जब भगवान अपना चेहरा आईने में देख रहे हैं। क्या वे प्रसन्न है? चेहरा मन का सूचक है कहते हैं। अपने मन के विचार या भाव प्रकाशित होते हैं, कहां से? चेहरे से प्रकाशित होते हैं। हम देखने का प्रयास करते थे, समझने का प्रयास करते थे. भगवान प्रसन्न तो है हमने जो आराधना की, श्रृंगार किया। और इसी के साथ फिर हमारी भी शोभा बढ़ती है, हमारा भी श्रृंगार हो जाता है। साधवः साधुभूषणाः हम भी आभुषित होते हैं. वैसे वह आभूषण है क्षमाः दमाः वह भी है और अजातशत्रवः शान्ताः. सब समझाना पड़ेगा आपको अजातशत्रवः हमारा कोई शत्रु ही नहीं है या हमारा कोई हो सकता है लेकिन हम किसी के शत्रु नहीं है, यह आभूषण है। सुह्रदः सर्वभूतानां और हम सभी जीवो के सुह्रद है या मित्र है। तो साधवः साधुभूषणाः ऐसे गुणों से हम आभुषित हो जाते हैं, भगवान की आराधना करने से। इसको ऐसे भी समझाया जाता है जब हम या आप में से कोई भी विशेष रुप से माताए बहुत समय बिताती है आईने के सामने। वह तो अपने शरीर का श्रृंगार करती है, उसी के साथ आईने में जो है अपना प्रतिबिंब उसका भी श्रृंगार हो जाता है। आपने यहां पर बिंदी लगाई तो आईने में जब देखते हो रूप उसको भी लग जाती है बिंदी। आपने काजल अपने आंखों में लगाया तो आईने मैं भी जो रूप है जिसको आप देखते हैं उसके आंख में भी काजल लग जाता है। तो फिर और भी वस्त्र है, श्रृंगार है मेकअप जो चलता रहता है। जो आपने अपने खुद के शरीर का किया। लेकिन आईने में जो रूप है उसका भी श्रृंगार उसी के साथ हो जाता है। तो वैसे ही हो जाता है भगवान का जब हम श्रृंगार करते हैं। भगवान का रुप मूल है, हम तो है एक प्रतिबिंब। भगवान का श्रृंगार करने से वैसे हमारा भी श्रृंगार हो जाता है, हमारी भी शोभा बढ़ती है, हम भी आभूषणों से सुसज्जित होते हैं। आप समझ गए यह जो उदाहरण है? आईने में देखकर जब आप श्रृंगार करते हैं तो आईने में जो रूप है प्रतिबिंब है उसका भी श्रृगार हो जाता है। उसी प्रकार जब हम भगवान का श्रृंगार, भगवान की आराधना करते हैं, भगवान की शोभा बढ़ाते हैं उनको नटवर बना देते हैं, नटों में श्रेष्ठ नटवर। बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकार बिभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् । रन्ध्रान्वेणोरधरसुधयापूरयन्गोपवृन्दैर् वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद्गीतकीर्तिः ।। यह सब कृष्ण के श्रृंगार के आइटम। यह सब कृष्ण पहने हैं। बर्हापीडं नटवरवपुः पगड़ी पहनते हैं या मोर पहनते हैं। फिर मोर पंख भी होता है। पितांबर वस्त्र धारण करते हैं पीताम्बरा अरविंद नेत्रात। वंशी विभुषित करा वंशी धारण करने से उनके हाथों की शोभा बढ़ती है। वैजयन्तीं च मालाम् भगवान वैजयंती माला पहनते हैं। और फिर वन में जाते हैं तो वनमाला पहनते हैं। और वह फुल अगर पद्म फुल है तो उनको पद्ममाली कहते हैं, वनमाली कहते हैं पद्ममाली कहते हैं। इसी के साथ भगवान नटवर बन जाते हैं, नट मतलब एक्टर। नटो नाट्यधरो यथा जैसे कुंती महारानी ने कहा.. कृष्ण क्या करते हैं? जैसे एक ही व्यक्ति अलग अलग भूमिका निभाता है, अलग-अलग सिनेमा में एक ही व्यक्ति होता है। कभी इडियट बनता है, तो कभी क्या बनता है, तो कभी क्या बनता है। कृष्ण को भी कहा है नट वे भी एक्टर है। कभी नरसिम्ह बनते हैं, कभी वराह बनते हैं, तो कभी वामन बनते हैं। बन गए त्रिविक्रम बन गए है, तो अलग-अलग प्रकार के श्रृंगार भी है अलग-अलग प्रकार के हथियार भी धारण करते है। ऐसे भगवान की जब हम आराधना करते हैं और साथ-साथ मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु करते हैं तो भगवान के गुण हमने आ जाते हैं। हम भी गुणवान हो जाते हैं, गुणों से सुसज्जित होते हैं। तितिक्षवः कारुणिकाः सुहृदः सर्वदेहिनाम् तितिक्षु सहनशील बनते हैं हम सहनशीलता आ जाती हैं। कारुणिकाः औरों के प्रति करुणा का प्रदर्शन करेंगे हम और यह है साधवः साधुभूषणाः यह साधु के लक्षण है, आभूषण है। और विग्रह की आराधना से यह भी बात पक्की हो जाती है भगवान का रूप है। यह भूल जाओ निराकार निर्गुण। तो भगवान का रूप है यह बात मन में दृढ़ हो जाती हैं, रूप वाले भगवान हैं। देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः इस रूप का दर्शन करने की देवता भी महत्वाकांक्षा रखते हैं। भगवद् गीता के ग्यारहवें अध्याय के अंत में श्री कृष्ण कहे। अपने रूप के संबंध में कह रहे हैं जिस रूप को तुम देख रहे हो अर्जुन, वैसे मैंने विश्वरूप भी दिखाया तुमको ग्यारहवें अध्याय में। लेकिन तुमको पसंद नहीं आया, तब तुम डर रहे थे तुमने कहा अरे रे मिटा दो इसको नॉर्मल हो जाओ भगवान नॉर्मल दर्शन। यह थोड़ा कुछ भिन्न दर्शन है। तो भगवान फिर चतुर्भुज बने तो उससे भी अर्जुन प्रसन्न नहीं थे। फिर भगवान फाइनली द्विभुज रूप धारण किए। द्विभुज, चतुर्भुज, षड़भुज चैतन्य महाप्रभु ने षड़भुज दर्शन दिखाया। तो द्विभुज दर्शन दिखाते हुए कृष्ण फिर कहे थे देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनकाङ्क्षिणः सुदुर्दर्शमिदं रुपं और इस रूप का दर्शन दुर्लभ है। दृष्टवानसि तुम जो देख रहे हो यह बड़ा दुर्लभ है इस रूप का दर्शन। देवता भी तरसते हैं इस रूप का दर्शन करने के लिए। इस प्रकार यह विग्रह आराधना की महिमा। तो जप के समय हम दर्शन भी कर रहे थे फिर स्मरण भी कर रहे थे या वह दर्शन हमको कुछ स्मरण दिला रहे थे। कई प्रकार के स्मरण। दर्शन तो कर रहे थे रूप का लेकिन फिर भगवान के गुण का भी स्मरण होता है, भगवान की लीला का भी स्मरण होता है, भगवान के धाम का भी स्मरण होता है, भगवान के भक्तों का स्मरण होता है। हरि हरि। तो आपके क्या विचार है? जैसे आप भी दर्शन करते हुए जप भी कर रहे थे। आपके मन में क्या विचार आ रहे थे या कौन से विग्रह आप को सबसे अधिक पसंद आए। या कोई देख भी रहे थे स्कॉटलैंड के गौर निताई मुझे पसंद आए श्यामलांगी ने लिखा मैंने दर्शन किया था उनका मैं गई थी वहा। मैंने जब उनको देखा गौर निताई के दर्शन मुझे बहुत पसंद आए। और मणिपुर के राधा-कृष्ण याद है आपको? जिस प्रकार का मुकुट पहने हैं। राधा रानी तो ऐसी साड़ी थी गोल। मणिपुर में माताएं भी पहनती है तो राधा रानी को भी वैसे साड़ी पहनाई जाती है वहां। सब समय पर नहीं लेकिन कुछ विशेष उत्सवो पर। मैं गया था वहां उस विग्रह की जब प्राण प्रतिष्ठा हुई, तो मैं भी था वहां। भक्ति स्वरूप दामोदर महाराज के साथ। भक्ति स्वरूप दामोदर महाराज की जय। मेरे गुरु भ्राता वे मणिपुर के थे। तो उन्होंने जब विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा की तो हम भी थे उस समारोह में और उस दिन भी वैसा ही श्रृंगार था, जैसा आज हमने देखा। और आपने कहां-कहां पंचतत्व का दर्शन किए? आपको याद है। ठीक है, चलो थोड़ा संवाद करते हैं। आप में से कोई अपने विचार कहना चाहते हैं? मैंने अपने विचार तो कह दिया। कुछ विचार जो मेरे मन में आ रहे थे या उनके दर्शन करने के उपरांत आए या मैं जब बोलने लगा तब आए। प्रभुपाद चाहते थे कि हमें स्वतंत्र रूप से विचारशील बनना चाहिए। हम भी कुछ सोचना सीखें। और कुछ नए लोग भी बोल सकते हैं। जो अपने विचारों को छुपाते रहते हैं या बोलते नहीं। बोलने से पता चलता है। आप जैसा अपने विचारों को आप जब व्यक्त करते हैं वाणी से।

English

Russian