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जप चर्चा
21 अगस्त 2020
पंढरपुर धाम
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
आप पर कृष्ण की कृपा है की, आप यह हरे कृष्णा महामंत्र का जप कर रहे हो। जप करना या जप एक यज्ञ है। जपयज्ञ है। संकीर्तन यज्ञ है। जप करते हुए हम आराधना करते है। यजन्ती सुमेधसः हम गौड़िय वैष्णव है। आपको पता है ना, गौड़िय वैष्णव की क्या श्रेष्ठता या क्या वैशिष्ट्य है। गौड़िय वैष्णव वे कहलाते हैं, जो राधा के आराधक होते हैं। राधा कृष्ण में से हम राधा की आराधना करते हैं। हिंदू जगत में या और जगत में भगवान की आराधना या कृष्ण की आराधना करते हैं, किंतु गौड़िय वैष्णव राधा की आराधना करते हैं।
हरि हरि! जो अनाया राधिकानुनम जो राधा कृष्ण की आराधना करती हैं। उस राधा की गौड़िय वैष्णव आराधना करते हैं।
हरि हरि! राधा की जो भक्ति, राधा का जो भाव है। वह भक्ति का एक लक्षण है कृष्ण आकर्षिनी। भक्तिरसामृत सिंधु में पढ़ा है, भक्ति के 6 लक्षण उसमें से एक है कृष्ण आकर्षिनी। भक्ति कैसे होती है कृष्ण आकर्षिनी। राधा के भक्ति से कृष्ण आकृष्ट होते हैं हम भक्ति करते हैं तो कृष्ण हमारे भक्ति से आकृष्ट होते हैं यह भक्ति का प्रभाव या भक्ति भाव का परिणाम कहो। भगवान आकृष्ट हो जाते हैं और फिर क्या कहना जब राधारानी भगवान की आराधना करती है तो उस भक्ति से या वह भक्ति राधा की भक्ति कृष्ण को आकृष्ट करती है। हमारी भक्ति से भगवान आकृष्ट होते होंगे ही या फिर होते हैं, किंतु सबसे अधिक आकृष्ट होते हैं कृष्ण राधारानी के भक्ति से। राधारानी की जो भक्ति हैं राधारानी की भक्ति या भाव जो है इसको महाभाव राधा ठाकुर कहां ही है। वह अद्वितीय है दूसरा कोई बराबरी नहीं कर सकता राधा के भाव और भक्ति का। हरि हरि और सृष्टि में सिर्फ एक ही राधा है, यहां पर कोई और राधा नहीं है।
एक ही राधा और यह राधा ऐसी है राधा और इस राधा के भाव और भक्ति से भगवान इतने आकृष्ट होते हैं कि भगवान को भी अचरज लगता है। राधा की भाव, भक्ति और प्रेम इससे भगवान इतने आकृष्ट अचंभित होते हैं। अचरज लगता है। और फिर भगवान यह भी सोचते हैं की, अगली बार जब प्रकट होंगे गोलोक में निर्धार करते हैं या तय करते हैं, "पुनः जब में प्रकट होवुंगा, तो यह भाव लेकर प्रकट होवुंगा"। यह जो राधा का भाव है तो राधा का भाव वाला मैं बनूंगा। तो फिर मैं राधा को समझ सकता हूं। राधा को समझने के लिये। राधा के भक्ति भाव प्रेम को समझने के लिये। राधा जब इतना सारा भाव प्रकट करती है इतना सारा प्रेम करती है। तो वह प्रेम करते समय राधा जब प्रेम करती है कृष्ण से, तो उसका क्या अनुभव होता होगा। राधा जब मुझसे प्रेम करती हैं तो उसका क्या अनुभव होगा। क्या लीलायें करती है। क्या सोचती है राधा इसको भी मैं समझना चाहता हूं। ऐसा विचार करके ही भगवान प्रकट हुए।
श्रीकृष्ण चैतन्यमहाप्रभु की जय! चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य के पीछे जो गोपनीय कारण रहा। व्यक्तिगत कारण रहा और तो अन्य कारण होते ही हैं।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ (BG 4.8)
अनुवाद: भक्तों का उद्धार करने के लिए और दुष्टों के विनाश के लिए और धर्म की पुनर्स्थापना के लिए मैं युगों युगों में प्रकट होता हूं
यह तो जनरल कारण होते ही हैं। इस उद्देश्य के कारण भगवान प्रकट होते है। धर्मासंस्थापनार्थाय किंतु इस समय भगवान प्रकट हुए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और यह एक कारण है जो प्रधान या मुख्य कारण है, बाकी कारण गौन है।जैसे धर्मासंस्थापनार्थाय या परित्राणाय साधुनांं। चैतन्य महाप्रभु के लिए मुख्य कारण तो यही है कि वह राधा को समझना चाहते हैं। उनके लिए रहस्यमयी बात है राधा। राधा का भाव, राधा के विचार, राधा का अनुभव यही जानने के उद्देश्य से
राधा-भाव-द्युति-सुविलतं नौमी कृष्ण-स्वरुपम् ।।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के स्वरूप को रूप को हम प्रणाम करते हैं। कैसा है वह स्वरूप
राधा-भाव-द्युति-सुविलतं। राधा भाव या राधा कांति। राधा का भाव या राधा कि कांंति को स्वीकार करके प्रकट हो गये श्रीकृष्ण चैतन्यमहाप्रभु। राधा भाव को तो समझते हैं, राधाद्युति मतलब कांति। राधा की कांति को लेकर बन गए गौरांग। गौरंगी अभी बन गई है गौरंग। कम स कम राधा के भाव को भाव ही मुख्य होता है। व्यक्ति का भाव, कृष्णभावना भावित हम होते हैं। इन भावोंं से पहचान होती है व्यक्ति की कैसा भाव है।
यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥
(BG 8.6)
अनुवादः हे कौंतेय मृत्यु के समय मनुष्य जिस भाव का स्मरण करता है उन्हीं भावों की निसंदेह प्राप्ति करता है।
हरि हरि मृत्यु के समय किस प्रकार का भाव है। आपका उसी से निर्धारित होगा हमारा अगला जन्म, अगला जीवन। हमारे जीवन का सार भाव ही होता है हमारे भावनाएं विचार इच्छाये। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु राधा का भाव को अपनाए। राधा के कांति को अपनाए। और हुए हो गौरांग! गौरांग, गौरांग श्यामलता आप नहीं कह रहे ह।
हरि हरि! गौरंगा जग जाओ। खुद को तरोताजा करो और कहो गौरांग। हां ललिताराधा कहो गौरांग। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जो आदि लीला जो मायापुर में संपन्न हुई। और मध्य लीला 6 सालों तक संपन्न हुई भारत का भ्रमण किए और ठीक है। श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु धर्मासंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे धर्म की स्थापना के लिए प्रकट हुए थे। गौरांग श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु अपनेे कर्तव्य का पालन किया। और सारे भारत का भ्रमण, दक्षिण भारत भी था, झारखंड से लेकर उत्तर भारत होते हुए 6 साल चैतन्य महाप्रभुु ने मध्य लीला की। और फिर आदि लीला, मध्यय लीला के उपरांत अंत्य लीला। अंत्य लीला मतलब अंतर्धान होने के एक दिन एक घंटा या कुछ समय पहलेे की बात नहीं। या फिर अंतिम संस्कार अंत्य लीला ऐसा नहीं है। अंत्य लीलाएं मतलब चैतन्य महाप्रभु की जगन्नाथ पुरी की लीला। 18 वर्षों तक श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी मेंं लीला कर रहे थे। जगन्नाथपुरी मेंं जो चैतन्य महाप्रभु का वास्तव्य या रहे चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में। तो उस समय चैतन्य महाप्रभु बस उनका राधा भाव ही चल रहा था। राधा भाव में ही आ गए और अहर्निक राधा भाव में ही रहा करते थे। फिर जगन्नाथ रथ यात्रा है तो भी राधा भाव में कीर्तन करते थे और उस गंभीरा में स्वरूप दामोदर और राय रामानंद जो ललिता और विशाखा के अवतार थे। राय रामानंद और स्वरूप दामोदर जिन के सानिध्य में पूरी रात भर राधा भाव में या गीत गोविंद को सुना करते थे, कृष्ण कर्णामृत को सुना करते थे, भागवत को सुना करते थे, वही प्रसंग अधिकतर राधा कृष्ण लीला के। राधा भाव की पुष्टि के लिए उनके भावों की पुष्टि हो ऐसा ही श्रवण कीर्तन वह किया करते थे। और फिर हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। कीर्तन और नृत्य करते तो भी यह हरे कृष्ण महामंत्र भी उसी राधा भाव या गोपी भाव का पोषण करता है।यह उस भाव को जगाता है उसका पोषण करता है उसको दृढ़ करता है हमारी भावों को या स्थित स्थिर करता है, गोपी भाव राधा भाव को। हरि हरि। वैसे हमको भी राधा भाव वाले या गोपी भाव वाले बनना है ऐसे भी महाप्रभु की शिक्षा है।
आराध्यो भगवान व्रजेश तनयस तद्धाम वृंदावनम।
रम्या काचिद उपासना व्रजवधु वर्गे न या कल्पित। श्रीमद भागवतम प्रमाणम अमलम प्रेम पुमार्थो महान।
श्री चैतन्य महाप्रभौर मतं इदं तत्रादरह ना परह।।
( विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के चैतन्य मंजूषा से)
यही तो बात है हम गौड़िय वैष्णव है तो हम आराधना करते हैं, राधा की आराधना करते हैं, या राधा और गोपियों जैसी आराधना करते हैं। तो उनके भाव वाले बनके किंचित उसका गंध भी हो तो पर्याप्त है। पूरा का पूरा हम राधा का भाव हम तो अनुभव नहीं कर सकते, भगवान नहीं कर सकते भगवान को मुश्किल जाता है। तो राधा के भाव को पूर्णतया भली-भांति समझना तो हम क्षुद्ध जीव क्या समझ सकते हैं, कितने भाव को अपना सकते हैं हमारी जितनी क्षमता है उतना राधा भाव या गोपी भाव हमको भी जगाना है। और फिर हम गौड़िय वैष्णव बन जाएंगे तो राधा की आराधना करते हुए। जब हम जप करते हैं, हरे कृष्ण महामंत्र का जप करना भी राधा भाव गोपी भाव भक्ति भाव या ब्रज का जो भाव है उसको जगाना है और उसका पोषण करना है उसको दृढ करना है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु यही कर रहे थे जगन्नाथपुरी में अठारह साल । और फिर पूरी रात भर वह, ऐसे चैतन्य चरितामृत में लिखा है, अपना ही अष्टक शिक्षाष्टक पूरी एक रात में एक ही शिक्षाष्टक का वे स्मरण और आस्वादन किया करते थे उसी भाव में।
अयि नन्दतनुज किङ्करं
पतितं मां विषमे भवाम्बुधौ।
कृपया तव पादपंकज-
स्थितधूलीसदृशं विचिन्तय॥5॥
अनुवाद - हे नन्दतनुज (कृष्ण)! मैं तो आपका नित्य किंकर (दास) हूँ, किन्तु किसी न किसी प्रकार से मैं जन्म-मृत्युरूपी सागर में गिर पड़ा हूँ। कृपया इस विषम मृत्युसागर से मेरा उद्धार करके अपने चरणकमलों की धूलि का कण बना लीजिए।
यह भाव लेकर वह पूरी रात उसी में तल्लीन उसी में मग्र होकर रहा करते थे। या फिर उसी भाव को वर्धित या पोषित और स्थित करने के लिए फिर स्वरूप दामोदर राय रामानंद और और कथाएं और और ली लीलाएं उनको सुनाते थे।
नयनं गलदश्रुधारया
वदनं गद्गद्-रुद्धया गिरा।
पुलकैर्निचितं वपुः कदा
तव नाम-ग्रहणे भविष्यति॥6॥
अनुवाद - हे प्रभो! आपका नाम-कीर्तन करते हुए, कब मेरे नेत्र अविरल प्रेमाश्रुओं की धारा से विभूषित होंगे? कब आपके नाम-उच्चारण करने मात्र से ही मेरा कण्ठ गद्गद् वाक्यों से रुद्ध हो जाएगा और मेरा शरीर रोमांचित हो उठेगा?
पूरी रात भर, बस ऐसा कब होगा, ऐसा कब होगा, क्या होगा? नयनं गलदश्रुधारया मैं जब जप करूंगा तब तव नाम-ग्रहणे भविष्यति मैं जब आपके नाम का उच्चारण करूंगा तब ऐसा कब होगा, कब वह दिन मेरा होगा।
कबे ह’बे बोलो से-दिन आमार!
(आमार) अपराध घुचि’, शुद्ध नामे रुचि,
कृपा-बले ह’बे हृदये संचार॥1॥
अनुवाद- हे भगवान्! कृपया मुझे बताएँ कि वह दिन कब आएगा जब मैं नाम-अपराध से मुक्त हो जाऊँगा कब आपकी कृपा से मैं भगवान् के पवित्र नाम जप का रसास्वादन करने में समर्थ बन पाऊँगा?
यह गीत भी है वह कब होगा मैं अपराधों से मुक्त कब हो जाऊंगा मैं खूब अपराधी हूं, नाम अपराधी भी हूं, वैष्णव अपराधी भी हूं, कब कब मैं मुक्त हो जाऊंगा ऐसे अपराधों से। और फिर मुझे हरिनाम में रुचि कब प्राप्त होगी। और हरिनाम का उच्चारण करते समय इन आंखों से आंसू कब बहने लगेंगे, शरीर रोमांचित कब होगा। तो इस तरह से या फिर
आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा-
मदर्शनार्न्महतां करोतु वा।
यथा तथा वा विदधातु लम्पटो
मत्प्राणनाथस्तु स एव नापरः॥8॥
अनुवाद - एकमात्र श्रीकृष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे मेरे लिए यथानुरूप ही बने रहेंगे, चाहे वे मेरा गाढ़-आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मुझे मर्माहत करें। वे लम्पट कुछ भी क्यों न करें- वे तो सभी कुछ करने में पूर्ण स्वतंत्र हैं क्योंकि श्रीकृष्ण मेरे नित्य, प्रतिबन्धरहित आराध्य प्राणेश्वर हैं।
यह आठवां जो अष्टक है, भाष्यकारों ने लिखा है कि यह आठवां जो शिक्षाष्टक है तो चैतन्य महाप्रभु एक के बाद एक के बाद एक शिक्षाष्टक जो कहते हैं, या उनका स्मरण करते हैं आस्वादन करते हैं, करते-करते जब आठवें तक पहुंच जाते हैं तो उनका राधा भाव पूर्ण जागृत हुआ है और राधा भाव में ही बोल रहे हैं। आठवें शिक्षाष्टक का जो भाव है यह राधा का भाव है राधा ही बोल रही है। आश्लिष्य वा पादरतां पिनष्टु मा-मदर्शनार्न्महतां करोतु वा जो भी ठुकरा दो या प्यार करो जैसे आप की भाषा में, आप की नहीं दुनिया की भाषा में बोलते हो।
चिंता नहीं है आप मर्माहत आप कर सकते हो, आप मुझे आपके चरणों के नीचे कुचल सकते हो। जैसे लगे आप करो, आप लंपट हो आप मुक्त हो कुछ भी करने के लिए, हर चीज करने के लिए। दर्शन दो या फिर नहीं भी दो आपकी मर्जी। संयोग हो, वियोग हो, संभोग हो, विप्रलंभ स्थिति हो, लेकिन हर स्थिति में मत्प्राणनाथस्तु स एव नापर यह बात पक्की है। आप मेरे नाथ हो मेरे प्राणनाथ आप ही हो, नापरः और कोई नहीं कोई भी नहीं हो सकता। यह आठवां जो अष्टक है यह राधा भाव है। तो इस भावों में ही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु तल्लीन थे। तो इसको अंतिम लीलाएं कहां गया है। कृष्णदास कविराज गोस्वामी इसका विस्तृत वर्णन किए हैं, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के राधा भाव का, फिर विरह के व्यथा का भी। हरि हरि। गौरांग। तो फिर हम कह सकते हैं, भगवान भी आराधना किए, राधा कि आराधना किए, भगवान भी राधा को चाहते हैं। और तो कभी-कभी वे उनके चरणों में गिरते है, हे राधे अपना चरण मेरे मस्तक पर ही रखो ऐसा भाव व्यक्त करते हैं, जो गीत गोविंद में लिखा है। तो ऐसी है राधा ऐसी है महिमा राधा की। इस महिमा का गुणगान भगवान ने किया है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के अवतार में। और वही भक्ति जो गौड़िय वैष्णव की श्रेष्ठता है, वैशिष्ट्य है, हम को सिखाएं हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु। यद्यदाचरति श्रेष्ठस्त सर्वश्रेष्ठ भगवान ही हैं, कृष्ण है, वह बनते हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और सिखाते हैं भक्ति करनी है तो ऐसी भक्ति करो।
उन्होंने करके दिखाएं, सिखाएं। हरि हरि। तो हरे कृष्ण महामंत्र का जप करना यह वही भक्ति का प्रकार है। हां फिर और भी हम राधा कृष्ण के विग्रह की आराधना करते हैं, तो वहां भी राधा की आराधना हम करते हैं। या फिर चैतन्य चरिता मृत को पढ़ते हैं, इसमें भी अंतिम लीलाओं को जब पढ़ते हैं जगन्नाथपुरी में जो संपन्न हुई है अंतिम लीला को पढ़ते हैं तो यह भी राधा की आराधना है। हरि हरि। और यह राधा का भाव या राधा कृष्ण की लीलाएं कहो उसका वर्णन भागवत में बहुत कम है पंच अध्याय पांच ही अध्यायो में शुकदेव गोस्वामी ने कहा हैं रासपंचाध्याय। किंतु और कई सारे अध्याय में चैतन्य चरिता मृत में यह राधा भाव, या फिर राधा कृष्ण लीला ही कहो चैतन्य चरिता मृत मैं प्राप्त होती है। और राधा भाव परकीया भावे जहां ब्रजेते प्रचार अब परकीय भाव उसमें भी परकीय भाव जैसे राधा और गोपियों का जो भाव है वह परकीय भाव है, स्वकीय भाव से श्रेष्ठ परकीय भाव।
द्वारिका में स्वकीय भाव वृंदावन में परकीय भाव। तो परकीय भाव से और कोई भाव ऊंचा नहीं है। तो यह जो प्रेम का भाव, प्रेम की कहानी जो है जो चैतन्य चरितामृत में जिसका अधिक वर्णन या विस्तृत वर्णन है भागवतम की अपेक्षा। इसीलिए श्रील प्रभुपाद कहां करतेे थे भागवतम का अध्ययन यदि ग्रेजुएशन है तो चैतन्य चरिता मृत का अध्ययन पोस्ट ग्रेजुएशन है। क्यों? क्योंकि यह कठिन विषय है। प्रेम का विषय है राधा कृष्ण के राधा कृष्ण प्रणय- विकृतिर ल्हादिनी शक्तिर अस्माद राधा कृष्ण के मध्य का जो प्रणय है, प्रेम। यह विषय संसार के जो कामीजन है संसार के भुक्ति मुक्ति सिद्धि कामी जो है उनके लिए कठिन है यह प्रेमी, प्रिय और प्रियक राधा कृष्ण जो एक दूसरे के प्रेमी है यह विषय कठिन है कमियों के लिए यह कठिन है। इसीलिए इसको पोस्ट ग्रेजुएशन कहां है, ऊंचे भाव है। हरि हरि। तो ऐसे राधा रानी का जन्म दिन आ रहा है, राधाष्टमी। इसीलिए राधा के संबंधित हम चर्चा करते रहेंगे। ठीक है हम यहां रुकेंगे। हरे कृष्ण।