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*जप चर्चा* *05 -01-2022* *भगवद्गीता से* हरे कृष्ण ! आज 1040 स्थानों से भक्त इस जप में सम्मिलित हैं। मैं आपका वेलकम कर रहा हूं किंतु वेलकम तो मेरा ही हो रहा है हरि हरि !आप सभी का स्वागत है और फाइनली आप सबका वेलकम बैकुंठ में हो या गोलोक में हो, आपका स्वागत कृष्ण करेंगे और वे इस प्रतीक्षा में हैं की वे मिलेंगे और अन्य भक्त भी रहेंगे। *सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।।* ( श्रीमद भगवद्गीता 9.14) अनुवाद - ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढ़ संकल्प के साथ प्रयास करते हुए मुझे नमस्कार करते हुये भक्ति भाव से निरन्तर मेरी पूजा करते हैं। मैं कुछ कुछ ऐसा सोच रहा था, भगवत गीता में भगवान ने कहा है जप के संबंध में कीर्तन के संबंध में । सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः मेरा सतत कीर्तन कीजिए जैसे "कीर्तनीय सदा हरि" चैतन्य महाप्रभु ने कहा है और श्रीकृष्ण ने भी कहा है। सततं कीर्तयन्तो माम , कीर्तन और कैसे करना है ? यतन्तश्च दृढव्रताः प्रयत्न पूर्वक जैसे उत्साह निश्चयात धैर्यात होता है उपदेशामृत में, यहाँ कृष्ण भी कह रहे हैं। जय श्री कृष्ण ! जय श्री कृष्ण ! कौन कह रहे हैं श्रीकृष्ण कह रहे हैं। जो हम भी कह रहे हैं। सततं कीर्तयन्तो मां, कीर्तन करें और कैसा करें, यतन्तश्च दृढव्रताः यत्न पूर्वक, प्रयत्न पूर्वक और दृढ़ श्रद्धा के साथ, यहाँ ऐसा कृष्ण ने कहा, फिर हमारी बारी आती है जैसा उन्होंने कहा वैसा हमें करना है। जिनको प्राप्त करना है वह बता रहे हैं। कैसे उनको प्राप्त किया जाए। पूरा सेमिनार तो नहीं दिया है लेकिन एक वाक्य ठीक है कीर्तन करने के लिए, आगे कृष्ण ने कहा है। *धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः |मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय ||* ( श्रीमद भगवद्गीता 1.1) अनुवाद- धृतराष्ट्र ने कहा -- हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ? यह दूसरा विचार है इसके संबंध में, गीता प्रारंभ होती है धृतराष्ट्र उवाच! के साथ और वे कहते हैं धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे, बस केवल कुरुक्षेत्र कह सकते थे या हरियाणा में जो कुरुक्षेत्र है ऐसा कुछ कह सकते थे। हरियाणा को कहते हैं हरि का ,जहां आना हुआ , "हरियाणा " तो हरियाणा में है "कुरुक्षेत्र "लेकिन उसको धर्म क्षेत्र क्यों कहा जानबूझकर या मजबूरी भी है। धृतराष्ट्र ने कहा, धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे ऐसा युद्ध कहां हो रहा है कुरुक्षेत्र में हो रहा है लेकिन कैसे कुरुक्षेत्र में? धर्म क्षेत्र में , तो धृतराष्ट्र चिंतित हैं वैसे पूछ भी रहे ही हैं मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय, संजय! बता दो मेरे पुत्र और पांडु के पुत्र, ऐसा कहकर उन्होंने भेद भी देखा है "पंडिता समदर्शिना" नहीं हो रहा है। उनकी दृष्टि में दोष है, द्वंद है, मेरे पुत्र और पांडू के पुत्र इसी के साथ धृतराष्ट्र का परिचय भी होता है, पहचान होती है ऐसा भेदभाव करने वाले या पक्षपात करने वाले धृतराष्ट्र की और उनको चिंता है कुरुक्षेत्र, जो धर्म क्षेत्र है लेकिन मेरे पुत्र धार्मिक नहीं हैं। यह कुरुक्षेत्र का जो धर्म होना है या धर्म क्षेत्र है यह संभावना है कि यह मेरे पुत्रों के लिए अनुकूल नहीं है क्योंकि मेरे पुत्र धार्मिक नहीं है। ऐसी उनके मन में शंका है संशय है और अपने पुत्रों को भी जानते हुए, कि दुर्योधन और दुशासन दुष्ट भी हैं। उनके पुत्रों के नाम भी देख लो कैसे हैं दुर्योधन ! दुशासन! अतः उनको यह कहना पड़ा कि यह धर्म क्षेत्र है। धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे उन्होंने पूछा किमकुर्वत सञ्जय, संजय बता दो या वैसे रनिंग कमेंट्री चल रही है कुरुक्षेत्र का दृश्य संजय देख रहे हैं। वहां की बातों को सुन रहे हैं वहां के जो भी योद्धा हैं और कृष्ण अर्जुन भी हैं उनके मन के विचारों को भी वह समझ रहे हैं। अब अर्जुन क्या सोच रहा है और दुर्योधन का क्या विचार है यहां तक का ज्ञान हो रहा था संजय को, उनके विचारों को भी सुना रहे थे राजा धृतराष्ट्र को , कि वे ऐसा सोच रहे हैं या वैसा सोच रहे हैं अब यह हो रहा है अब वह हो रहा है। प्रश्न पूछा जा रहा है किम कुर्वत ? क्या क्या हुआ इस युद्ध में, युद्ध में क्या होना होता है। जीत होती है या हार होती है दोनों में से एक होता है। उनके प्रश्न पूछने के पीछे का हेतु क्या है कि मेरे पुत्रों की जीत हो रही है कि नहीं और दुर्देव से कुरुक्षेत्र युद्ध क्षेत्र है वहां युद्ध हो रहा है। इंडिया-पाकिस्तान के क्रिकेट मैच अगर रावलपिंडी में हो रहा है तो भारतीय थोड़ा चिंतित होते हैं और वहां के खिलाड़ी (पाकिस्तान के) इंडिया में खेल रहे हैं तब उन्हें चिंता होती है। अतः इस प्रश्न का उत्तर गीता के पहले श्लोक में जो प्रश्न पूछा है उसका उत्तर गीता के अंतिम श्लोक में है। पहले श्लोक में प्रश्न पूछा है किसकी जीत हार हो रही है बताओ संजय ? संजय उवाच, संजय ने कहा, *यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: |तत्र श्रीर्विजयो भूतिध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥* (श्रीमद भगवद्गीता 18.78) अनुवाद - हे राजन् ! जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीं पर ऐश्वर्य , अलौकिक शक्ति, तथा नीति भी निश्चित रहती है- ऐसा मेरा मत है। अर्थात जहां कौन-कौन है? अर्जुन और कृष्ण की जोड़ी जहां है, भगवान और उनके भक्त जिस पक्ष में हैं तत्र मतलब वहां , श्रीर्विजयो विजय, अर्जुन विजयी होंगे, ऐसा कोई 45 मिनटों के अंदर या अंत में, कृष्ण का उत्तर दिया जा रहा है। अर्थात 45 मिनट तक यह संवाद चलता रहा और युद्ध अभी शुरू भी नहीं हुआ है और संजय पहले ही कह रहे हैं कि उनकी जीत होने वाली है। क्योंकि वह जानते हैं ऐसा ही होता है, जब खुदा मंजूरे होता है या वैसे कृष्ण ने दिखाया भी ( इन द मीन टाइम) उस विश्वरूप में दिखाया क्या हाल हो रहा है शत्रु के सैन्य का ,वैसे कहां भी कि तुम पांडव तो बचोगे बाकी सब फिनिश, *परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||* (श्रीमद भगवद्गीता 4.8) अनुवाद- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ | विनाशाय च दुष्कृताम्, मै विनाश करूंगा संभवामि युगे युगे, मैं प्रकट होता हूं। यह भी दिखाया है इस युद्ध का भविष्य या परिणाम विश्वरूप में दिखाया ही है और फिर संजय कह भी रहे हैं संजय बड़े अनुभवी हैं। एक्सपीरियंसड रियलाइजड , क्योंकि वे जानते हैं "यतो धर्मा ततो जया" एक सिद्धांत है। जहां धर्म है वहां जीत है। यता तत: जहां धर्म वहां जीत, विजय, बड़ी प्रसिद्ध है महाभारत की, अर्जुन जो कृष्ण भक्त हैं येषाम पक्षे जनार्दनः जिस पक्ष में जनार्दन है उस पक्ष की जीत होती है। आप किस पक्ष को पसंद करोगे अगर जीत चाहते हो और कोई पराजय चाहता है, अभी तक तो हम किसी को भी नहीं मिले जो पराजय चाहता हो। अर्थात वही जीतेगा जो कृष्ण के पक्ष में होगा। इसीलिए हम कभी-कभी कहते हैं और आज भी कह रहे हैं वोट फॉर..... कृष्ण ! वोट फॉर...... कृष्ण! , एमपी को या उस एमएलए को आप अपना मत दो जो कृष्ण भक्त हैं। वे आपके द्वार पर आते हैं ना , मत मांगने के लिए, गीता के अंत में गीता की शुरुआत , धृतराष्ट्र उवाच से है और गीता के समापन या उसको संहार भी कहते हैं संजय उवाच से है। अंतिम चार पांच वचन संजय के ही हैं। अब यह कॉन्क्लूज़न होगा कनक्लूडिंग स्टेटमेंट संजय के हैं। उसमें अपनी इमानदारी से, ऑनेस्टी इस द बेस्ट पॉलिसी लोग कहते हैं। उन्होंने कहा, *व्यासप्रसादाच्छुतवानेतद्गुह्रामहं परम् । योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयत: स्वयम् ।।* (श्रीमद भगवद्गीता 18.75) अनुवाद - व्यासजी की कृपा से मैंने ये परम गुह्य बातें कृष्ण के मुख से अर्जुन के प्रति कही जाती हुई सुनी। मैं जो भी सुन रहा हूं देख रहा हूं यह कैसे संभव हो रहा है? व्यासप्रसादाद यह कोई मेरी स्वयं की क्षमता, मैं किसी के ऊपर निर्भर नहीं हूं। आई एम इंडिपेंडेंट, ऐसी बात नहीं है। संजय बता रहे हैं यह संभव हो पाया मेरा देखना, सुनना और समझना, कुरुक्षेत्र का जो दृश्य है या जो भी घटनाक्रम हो रहा है व्यासप्रसादाच्छुतवानेतद्गुह्रामहं , इसको कैसे समझें ? महाभारत में समझाया है उन दिनों में व्यास देव, वह भी महाभारत के एक पात्र थे। एक व्यक्तित्व है उन दिनों में महाभारत का जो काल है इतिहास ही है। श्रील व्यास देव वहां प्रकट हुए हैं और इस महाभारत के इतिहास हिस्टोरियन स्वयं भगवान हैं "व्यास देव" जो कि शक्त्यावेश अवतार है। उन्होंने महाभारत लिखा उन्होंने ही वैसे भगवद्गीता भी लिखी (भगवत गीता कहने वाले भगवान श्रीकृष्ण हैं ) लेकिन, लिखने वाले कौन हैं, ऐसा नहीं है कि कोई सेक्रेटरी ने टाइपिंग किया उसका लेखक सेक्रेटरी नहीं होगा। हम भी कुछ पत्र डिक्टेशन देते हैं तब हमारे सेक्रेटरी का नाम नहीं आता है। यहाँ गणेश जी ने कुछ सेवा की गणेश गुफा में बैठकर, व्यास गुफा में व्यास ने , फिर व्यास देव गए थे धृतराष्ट्र से मिले थे उन्होंने प्रस्ताव रखा था कि आप चाहोगे तो मैं आपको दृष्टि दे सकता हूं क्योंकि वह अंधे थे जन्मांध थे ताकि कुरुक्षेत्र में जो घटनाक्रम घटने वाला है वह आप स्वयं देख सकते हो, आपको दृष्टि दे दूं मैं, किन्तु धृतराष्ट्र ने साफ इनकार किया नहीं ! नहीं ! क्योंकि वह जानते थे मेरे पुत्रों का क्या हाल होना है। यह कृष्ण ही क्या हाल करेंगे। "विनाशाय च दुष्कृतम्" इनका जॉब डिस्क्रिप्शन है ऐसा करते हैं और मेरे पुत्र दुष्ट हैं। इसलिए मैं अपनी आंखों से मेरे पुत्रों का संहार होते हुए विनाश होते हुए नहीं देखना चाहता हूं। नहीं नहीं मुझे आंखें मत दीजिए , मुझे अंधा ही रहने दीजिए। जब धृतराष्ट्र ने इनकार किया वह दृष्टि नहीं चाहते थे देखना नहीं चाहते थे तब श्रील व्यास देव ने विशेष कृपा और कृपा दृष्टि या ऐसी दृष्टि संजय को दी। धृतराष्ट्र के इनकार करने के उपरांत संजय जो धृतराष्ट्र के सचिव मंत्री रहे उन दिनों में व्यास देव ने उनको यह सारी देखने की सुनने की समझने की क्षमता दी, दूरदर्शन दिया, दूर से ही दृश्य देखने की क्षमता संजय को प्राप्त हुई। श्रील व्यास देव ने दी थी ऐसी क्षमता ऐसी सामर्थ्य, इसीलिए यहां संजय भगवत गीता के अंतिम कुछ श्लोकों में, व्यासप्रसादाच्छुतवान, व्यास देव के प्रसाद से मैंने सुना, मैंने गीता सुनी। अर्जुन सुन रहे थे गीता और वैसे वहां एक वृक्ष भी था "अक्षय वट" उसने भी सुना वह भी अक्षय हुआ अमर हुआ और आज भी है और तीसरे है संजय वैसे कह सकते हैं कि तीन पार्टी सुन रही थी। तीसरे संजय और साथ में यह भी कह रहे हैं। "तद्गुह्रामहं परम्योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात्कथयत: स्वयम्" पहले कहा व्यास प्रसादाद व्यास देव की कृपा से मैं इस भगवत गीता के वचन जो की गुह्य भी है गोपनीय भी है "तद्गुह्रामहं परम्योगं यह योग का शास्त्र है। भगवत गीता योगेश्वर आत किस से सुना, सुना तो गया व्यास देव की कृपा से लेकिन मैं सुन रहा था कृष्ण को योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात कितने शब्दों का उपयोग किया है। इसी के साथ यह कन्फर्मेशन हो रहा है गीता किसने कही भगवान उवाच और उस पर संजय भी अपना स्टैंप मार रहे हैं। यस ! यस ! श्री भगवान उवाच, क्योंकि मैंने यह भगवत गीता सुनी योगेश्वर से, कृष्ण के मुखारविंद से तो उनको नाम भी दे रहे हैं और साक्षात श्री कृष्ण से मैंने यह गीता का संदेश उपदेश सुना है। पूछते ही रहते हैं कृष्ण अर्जुन का संवाद तो हुआ पुराने जमाने में, ऐसे सेक्रेटरी स्टेनोग्राफर हुआ करते थे, शॉर्टहैंड फटाफट लिखते थे। ऐसा कोई था क्या ? कृष्ण अर्जुन बोल रहे थे और उस वक्त आजकल के टेप रिकॉर्ड तो थे नहीं, ऐसा कोई प्रश्न नहीं पूछेगा लेकिन वहां पर तो कोई था नहीं, तब वैसे संवाद ज्यूँ के त्युं एज इट इज़ ,रिकॉर्डिंग कैसे हुआ ? अरे भाई व्यास की कृपा से, यदि संजय सुन सकते हैं तो फिर स्वयं व्यास देव को क्या परेशानी है। उस समय जहां भी थे उन्होंने भी सुनी होगी कि नहीं और वह श्रुतिधर, एक एक अक्षर, एक एक शब्द, एक एक वाक्य उन्होंने जो जो सुना वैसा रिप्रोडक्शन उसको रिपीट करना उनके लिए कोई कठिनाई नहीं है। यह तो श्रुतिधर् मनुष्य भी करते रहे हैं। गुरु परंपरा प्राप्त श्रील व्यास देव ने भी सुना उस संवाद को, संदेश को, उपदेश को और उन्होंने महाभारत के बीच में या महाभारत में , भगवत गीता का भी समावेश किया। महाभारत के भीष्म पर्व के 18 अध्याय हैं। अठारह पदों में से एक पर्व है "भीष्म पर्व " उसके यह अध्याय शायद 25 से लेकर 42 तक, वैसे और भी इस पर्व में अध्याय हैं। उसमें से 18 अध्याय भगवत गीता महाभारत के हैं हरि हरि ! *तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे: । विस्मयो मे महाराजन्हृष्यामि च पुन: पुन: ।।* (श्रीमद भगवद्गीता 18.77) अनुवाद - हे राजन् ! भगवान् कृष्ण के अद्भुत रूप का स्मरण करते ही मै अधिकाधिक आश्र्चर्य चकित होता हूँ और पुनः पुनः हो रहा हूँ। तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरे , कृष्ण अर्जुन का संवाद उनको समापन के बाद भी ध्वनित हो ही रहा है। उसको सुन ही रहे हैं उसका स्मरण कर रहे हैं या जैसे वह सुन रहे हैं उसी के साथ उनको संस्मृत्य संस्मृत्य स्मरण कर कर के, उसका परिणाम क्या ? रूपमत्यद्भुतं हरे: भगवान के अद्भुत रूप का उनको दर्शन हो रहा है। गीता के वचन स्मरण दिला रहे हैं दर्शन दिला रहे हैं गीता की जो वक्ता कृष्ण हैं, उन के मुखारविंद से यह वाणी निकली, उस रूप का उनको स्मरण हो रहा है और यह भी लक्ष्य है भगवान के रूप का, दर्शन या गीता श्रवण, कीर्तन प्रचार , प्रसार यह जो भगवत गीता का वितरण कर रहे हैं जब गीता पढ़ेंगे तब उनको दर्शन होगा और अन्य लोगों को भी जीवन में, भगवान का दर्शन हो, उसके लिए गीता लो और गीता पढ़ो ऐसा निवेदन आप सभी कर रहे हो और करते रहिए। गौर प्रेमानंदे !

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