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हरे कृष्ण जप चर्चा पंढरपुर धाम से, 29 दिसंबर 2020 हरे कृष्ण । 774 स्थानो से आज जप हो रहा है । गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल । गौर हरी बोल । गीता वाटप हो रहा है । भगवत गीता डिसटीब्यूशन मैराथन है , ठीक है । हरि हरि । जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद । जय अद्वैतचंद्र जय गौर भक्तवृंद ।। भज गौरांग गौरांग गौरांगेर नाम रे । जे जन गौरांगेर भजे तेही हमार प्राण रे ।। भज गौरांग गौरांग गौरांगेर नाम रे । जो गौरांग को भजते है , गौरांग को भजने वाले आप सभी गौर भक्त हमारा प्राण वे , हमारे प्राण है । समझते हो ? रायमाधव समझते हो ? हिंदी तो समझते होंगे ? इसमें जो कहा जा रहा है । जे जन गौरांग भजे , जो लोग गौरांग को भजते हैं वह लोग , वह भक्त , वह गौर भक्त मेरे प्राण है । वह बात है ही , राधा कृष्ण प्राण युगल किशोर । जीवने मरने गति और नाही कौन ।। राधा कृष्ण प्राण मुर । राधा कृष्ण मेरे प्राण है । मुर मतलब मेरे , राधा कृष्ण मेरे प्राण है । यह भी सत्य है , यह भी सच है , राधाकृष्ण मेरे प्राण है । इस गीत में कहां है जो राधा कृष्ण को भजने वाले जो भक्त हैं , जो गौरांग प्रभु को भजने वाले जो भक्त है वह मेरे प्राण है । यह भी और उचा सत्य हुआ और भी अधिक गोपनीय प्रसंग हुआ । राधा कृष्ण तो मेरे प्राण है ही किंतु राधा कृष्ण को भजने वाले जो भक्त है वह भी मेरे प्राण है । हरि हरि । साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम् । मदन्यत्ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ॥ (श्रीमद भागवत 9.4.68 ) अनुवाद : शुद्ध भक्त सदैव मेरे हृदय में रहता है और मैं शुद्ध भक्त के हृदय में सदैव रहता हूँ । मेरे भक्त मर सिवाय और कुछ नहीं जानते और मैं उनके अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता । भगवान भी कहते हैं , ऐसे साधु को मैं अपने ह्रदय में धारण करता हूं । साधु के ह्रदय में मैं हूं और मेरे ह्रदय में साधु है । मैने मेरे हृदय में उन्हे सुरक्षित रखा है , वह मुझे प्रिय है । श्रीभगवानुवाच अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज । साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ॥ ( श्रीमद भागवत 9.4.63 ) अनुवाद: भगवान् ने उस ब्राह्मण से कहा : मैं पूर्णतः अपने भक्तों के वश में हूँ । निस्सन्देह , मैं तनिक भी स्वतंत्र नहीं हूँ । चूँकि मेरे भक्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः रहित होते हैं अतएव मैं उनके हृदयों में ही निवास करता हूँ । मुझे मेरे भक्त ही नहीं , मेरे भक्तों के भक्त भी अत्यन्त प्रिय हैं । अमरीश महाराज का जो प्रसंग भागवत में आया है । अहं भक्तपराधीनो मैं पराधीन हूं । मैं पर अधीन हूं । मैं औरों के अधीन हूं , स्वतंत्र रही हूं । आप किसके अधीन हो भगवान ? अहम भक्त पराधीन मतलब मैं भक्तों के अधीन हूं । यह भगवान की प्रिति है कि वह भक्तों के अधीन है । जिनके अधीन भगवान है वह भक्त ही मेरे प्राण है । जेई जन गौरांगेर भजे सेई हमार प्राण । हरि हरि । तभी हमारा प्रेम पूरा हुआ । राधा कृष्ण से हमने प्रेम किया , गौरंग महाप्रभु की जय । किंतु जब तक हम गौर भक्तों से प्रेम नहीं करते तब तक हमारा प्रेम कुछ अधूरा सा ही रहता है । भक्तेर भक्तजन प्रिय । मुझे प्रिय है , केवल भक्त ही प्रिय नहीं है । कृष्ण कहते हैं , भक्तेर भक्त , जो मेरे भक्तों के भक्त हैं या मेरे भक्तों के जो जन हैं वह मुझे प्रिय है । ऐसा प्रेम भी कृष्ण दर्शाते हैं , दिखाते हैं । जैसे प्रेम भगवान करते हैं भक्तों से भगवान प्रेम करते हैं जो भक्त भगवान को इतने प्रिय है , अति प्रिय है उनसे मैं प्रेम करता हू , उनसे हमे भी प्रेम करना हैं । भक्तों से भगवान प्रेम करते है भक्त प्रेम , एक समय ऐसी स्पर्धा भी चलती रहती है । कौन अधिक प्रेम करता है ? कृष्ण भगवान भक्तों से प्रेम करते हैं और भक्त भगवान से प्रेम करते हैं । और यह देखा जाता है , कहां जाता है राधा कृष्ण के मध्य भी स्पर्धा होती है । राधा कृष्ण की स्पर्धा में कृष्णा पगडा खाली होता है । यह कृष्ण अनुभव करते है कि राधा हमसे कितना प्रेम करती है तो उस प्रेम को जानने के लिए फिर भगवान को अवतार लेना पढ़ता हैं , वह अवतार लेते हैं , इतना सारा प्रेम राधा मुझसे करती है । कृष्णा चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट होते हैं , अनुभव करते हैं । राधा कृष्ण - प्रणय - विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह - भेदं गतौ तौ । चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ब - द्युति - सुवलितं नौमि कृष्ण - स्वरूपम् ॥ राधा - भाव अनुवाद : श्री राधा और कृष्ण के प्रेम - व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं , किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है । अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ , क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं । " उस स्वरूप को मेरा नमस्कार और यह स्वरूप श्री कृष्णचैतन्य महाप्रभु का स्वरूप है ,जो राधा भाव और राधा की कांति धारण कि हैं वह श्री गौरांग कहलाते हैं । हरि हरि । राधा से भी कृष्ण का प्रेम है , राधा भक्त है , राधा भगवान की शक्ति है । शक्ति बनती है व्यक्ति , भगवान से प्रेम करती है और भगवान उनसे प्रेम करते हैं और फिर कहा है , तात्पर्य : वेद हमें सूचित करते हैं न तस्य कार्य करणं च विद्यते न तत्समश्चाभ्याधिकश्च दृश्यते । परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च ॥ ( श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.८ ) पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् नारायण सर्वशक्तिमान हैं । उनकी शक्तियाँ विविध हैं , अतएव वे अपने धाम में बने रहने में समर्थ हैं और बिना प्रयत्न के वे तीन गुणों - सत्त्वगुण , रजोगुण तथा तमोगुण - की अन्योन्य क्रिया के माध्यम से सम्पूर्ण विराट जगत का अधीक्षण तथा संचालन कर सकते हैं । इन क्रियाओं से विभिन्न रूप , शरीर , कार्य तथा परिवर्तन उत्पन्न होते रहते हैं और वे भलीभाँति घटित होते हैं । चूँकि भगवान् पूर्ण हैं , इसलिए हर कार्य इस तरह चलता रहता है मानो वे प्रत्यक्ष रूप से निरीक्षण कर रहे हों तथा उसमें भाग ले रहे हों । किन्तु नास्तिक लोग तीन गुणों से प्रच्छन्न होने के कारण नारायण को समस्त कार्यों के परम कारण के रूप में नहीं देख सकते । पराश्येर शक्तीर विविधैव पराश मतलब भगवान की शक्ती वैविद्ध्यपूर्ण है । उनके शक्ति मे विविधता है , भगवान की सारी शक्तीया है । हम भी भगवान की शक्ति है , इसीलिए भगवान शक्तिवान कहलाते हैं । शक्तिमान या शक्तीवान कहो एक ही बात है , लेकिन शक्तिमान कहते है ।शक्तिमान क्यो कहते हैं ? क्योंकि उनकी शक्तियां है , वह शक्तियों से युक्त है इसलिए भगवान को शक्तिमान कहते हैं । हम भी , जीव भी भगवान की शक्ति हैं । जितने भी जीव हैं यह जो हम कह रहे हैं औरों का विचार नहीं करते और कौन सी शक्ति है ? और कौन सी शक्ति के कारण भगवान शक्तिमान कहलाते हैं ? तुम , मैं , आपके कारण , जो आप सुन रहे हो , मैं जो कह रहा हूं , हमारे कारण , हम भगवान की शक्ति है , मैं भगवान की शक्ति हू , तुम भगवान की शक्ति हो । यह सारी शक्तियों के कारण इस सारी शक्तियों से युक्त है भगवान इसलिए वह शक्तिमान कहलाते हैं । राधा रानी जो भगवान की शक्ती है , उस राधा रानी से भगवान प्रेम करते है । भगवान और जीव भी एक दुसरे से प्रेम करते है । हरी हरी । वैसे केवल राधा रानी ही उनसे प्रेम करती हैं , गोपिया प्रेम नहीं करती । नंद बाबा यशोदा प्रेम नहीं करते , या फिर नंदबाबा और यशोदा ही प्रेम करते है श्री कृष्ण से , व्रज के गोकुल या गोलोक के सभी जो जीव है , जो बुजुर्ग है , स्त्री पुरुष है वह सभी श्री कृष्ण प्रेम करते है । यह सब देखा गया और फिर श्री कृष्ण के मित्र भी श्री कृष्ण से प्रेम करते हैं , केवल मधुर मंगल ही प्रेम नहीं करता श्री कृष्णसे या केवल श्रीदामा ही नहीं करते , श्री कृष्णके सभी मित्र प्रेम करते हैं । हम भी तो सभी दास भगवान से प्रेम करते हैं और कृष्ण उनसे प्रेम करते हैं । तो इस प्रकार हम सभी का भगवान से संबंध है जो भगवान के हैं , सभी जीव जो एक-एक शक्ति है तटस्थ शक्ति हैं उनका भगवान के साथ सदैव शाश्वत प्रेम है , संबंध है और प्रेम का संबंध है । हरी हरी । भगवान और यह सब जीव इनमे हमेशा स्पर्धा चलती है , होनी चाहीये मतलब कौन अधिक प्रेम करता है ?कृष्ण हमसे अधिक प्रेम करते है या मैं कृष्ण से अधिक प्रेम करता हू । हरि हरि । यह जो प्रेमी जीव है , प्रेमी भक्त है उनसे भी प्रेम करना है । प्रिया और प्रियतम , प्रिया और प्रियतम , प्रियतम है श्री कृष्णा , प्रिया है राधा लेकिन फिर भी सभी जिवो पर , सभी व्यक्तियों का भगवान से ऐसा संबंध है । तुलसी कृष्णप्रियसी नमो नम: । तुलसी प्रियसी है और हम भी भगवान से प्रेम करते हैं । उन से प्रेम करने वाले हम सभी प्रिया है , भगवान की शक्ति है तो कहा जा सकता है । शक्ति यह स्त्रीलिंग में है वह भी प्रिया है । श्री कृष्ण प्रियतम है और हम उनकी प्रिया है शक्तियां हैं । हम व्यक्ति हैं तो हमें श्री कृष्ण से भी प्रेम करना है , हमारा यही धर्म है और साथ-साथ कृष्ण के भक्तों से भी प्रेम करना है , कृष्ण की भी सेवा करनी है और कृष्ण के भक्तों की भी सेवा करनी है । आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधनं परम्। तस्मात्परतरं देवि तदीयानां समर्चनम् ॥ (चैतन्य चरितामृत मध्य 11.31 ) अनुवाद *( शिवजी ने दुर्गा देवी से कहा :)हे देवी, यद्यपि वेदों में देवताओं की पूजा की संस्तुति की गई है, लेकिन भगवान् विष्णु की पूजा सर्वोपरि है। किन्तु भगवान् विष्णु की सेवा से भी बढ़कर है उन वैष्णबों की सेवा, जो भगवान् विष्णु से सम्बन्धित हैं।" शिव पार्वती से एक सिद्धांत का विधान कहते हैं । श्री शिव उवाच , शंकर उवाच , क्या उवाच ? (जी हंसते ) आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधनं परम् जो भी मेरे आराध्य है वह स्वयं आराध्य विष्णु आराधते परम , विष्णु की आराधना एक तो है विष्णु आराध्य , और जब विष्णु कहा तो फिर विष्णु तत्व हम को समझना चाहिए । विष्णु समझते तो फिर कृष्ण आराध्य नहीं है ? राम आराध्य नहीं है ? नरसिम्हा आराध्य नहीं है ? यहां तो विष्णू कहां जा रहा है । क्या विष्णु कहना पर्याप्त है ? विष्णु कहा तो भगवान के सारे अवतार का उल्लेख हुआ । बैकुंठ कहा तो फिर गोलोक का भी उल्लेख हुआ । कई स्थानो पर वैकुंठ कहां जाता है लेकिन उसी के साथ गोलोक का भी उल्लेख होता है । शास्त्र में ब्रह्म , ब्रह्म कहां है , कई स्थानो पर ब्रम्ह कहां है हमको ब्रह्म सुनते ही भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए , ब्रह्मा जो हम शास्त्र में पढ़ते हैं , वेदों में पुराने में ब्रह्म मतलब भगवान विष्णु है । विष्णु आराध्य परम , आराध्य है तो बात ऐसी है वैसे शिव जी कह रहे हैं , तस्मात्परतरं देवि तदीयानां समर्चनम् शिव जी कह रहे हैं कि मैं तो कहां की , आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधनं परम् विष्णु की आराधना परम आराधना है किंतु इस आराधना से भी श्रेष्ठ आराधना है , ऐसा उनके कहने का तात्पर्य है । वह कौन सी है ? तदीयानां समर्चनम् तदीय मतलब उनके , कृष्ण के जो भक्त हैं , तदुयों की आराधना समर्चंनम यह संपूर्ण आराधना है । सर्वश्रेष्ठ आराधना कहने का तात्पर्य है परतर् गुड बेटर बेस्ट जो भी है । बेस्ट या वर्स्ट । आराधनानां सर्वेषां विष्णोराराधनं परम्। तस्मात्परतरं देवि तदीयानां समर्चनम् ॥ यह भक्तों की आराधना , तुलसी की आराधना भी है या गंगा की आराधना , गाय की आराधना , गंगा की सेवा और जो तदिय है भगवान के वह , ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः | मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति || (भगवद्गीता 15.7) अनुवाद : इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों के घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है । भगवान गीता में समझाते हैं , गीता जयंती का समय है ,इस बारे मे काफी बाते कही जा रही है । गीता में भी है और शास्त्रों में भी समझाया है , भागवत में भी समझाया है लेकिन भगवत गीता में उसका जड़ है, मूल है , धर्म है भागवतम आदी ग्रथो मे उसका विस्तार है , शाखा है , उपशाखा है । यहां पर महत्वपूर्ण सिद्धांत की बात है , भागवत ने कहा है गीता में कहा है , कि भक्तों के एक , कनीष्ठ अधिकारी , अच्छा आप लिख रहे हो (हसते हुये) अंग्रेजी में शब्दांतर कर रहे है ,थर्ड क्लास (हसते हुये) मतलब कनिष्ठ अधिकारी , जो केवल भगवान की आराधना करते हैं और भगवान के भक्तों की परवाह नहीं करते , भक्तों की परवाह ही नहीं करते हैं , भक्तों की सेवा भी नहीं करते , भक्तों की कोई उन्हें चिंता नहीं या भक्तों का चिंतन नहीं करते भगवान का ही चिंतन करते हैं ऐसे भक्तों को भक्त तो कहा है लेकिन कनिष्ठ अधिकारी कहां है , थर्ड क्लास कहां है । भगवान की आराधना अगर आप बढिया से करोगे किंतु भक्तों से कुछ लेना देना नहीं होता , भक्तों से ईर्ष्या , करोगे , नफरत करोगे , द्वेष होगा । भगवान से प्रेम और भक्तों से द्वेष करेंगे , अपराध करेंगे , वैष्णव अपराध करेंगे । मनसा अपराध , मनसे , वाचा से , काया से अपराध यह थर्ड क्लास भक्त है । जो सेकंड क्लास भक्त हैं , हम चाहते है की आप प्रयास करें कि कम से कम शुरुवात करे , वैसे लक्ष तों है कि उत्तम अधिकारी बनना । कनिष्ठ अधिकारी , मध्यम अधिकारी ओर उत्तम अधिकारी , यह तीन श्रेणीया श्रीमद भागवत के 11 वे स्कद मे बताई है । नवंयोगेंद्र उस मे यह चर्चा है । श्रील प्रभुपाद ने इस को बताया है वह कहते हैं वह उपदेशामृत के स्कँद भी लाये है । हमारी जो कनिष्ठ मानसिकता है वह समस्या उत्पन्न करती है । हमे बनना तो है उत्तम अधिकारी पर कमी से कमी मध्यम अधिकारी तो बनना ही चाहीये । मध्यम अधिकारी बने फिर उत्तम अधिकारी बने पर कनिष्ठ ना बने रहे । उच्च श्रेणी को प्राप्त करो कम से कम मध्यम अधिकारी तो बनो। प्रकृत भक्त नहीं रहना है! प्रकृत भक्त हमें यानी इस्कॉन को नहीं चाहिए, प्रभुपाद को नहीं चाहिएं। तो जो मध्यम वर्ग के भक्त क्या करते है? ईस्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च । प्रेममैत्रीकृषोपेक्षा यः करोति स मध्यमः ॥ श्रीमद भागवत ११.२.४६ द्वितीय कोटि का भक्त, जो मध्यम अधिकारी कहलाता है, भगवान् को अपना प्रेम अर्पित करता है, वह भगवान् के समस्त भक्तों का निष्ठावान मित्र होता है, वह अज्ञानी व्यक्तियों पर दया करता है जो अबोध है और उनकी उपेक्षा करता है, जो भगवान् से द्वेष रखते हैं। प्रेम, मैत्री, कृपा, अपेक्षा यह चार प्रकार के भाव या चार प्रकार के आदान-प्रदान होते है, चार प्रकार के व्यक्तित्व होते है। मध्यम श्रेणी के भक्त ईश्वर से प्रेम करते है, ईश्वर यानी परमेश्वर! हमें परमेश्वर से, कृष्ण से प्रेम करना चाहिए! ईश्वर के आधीन जो है मतलब भक्त, तदधीनेषु उनसे मित्रता करनी चाहिए, मित्रता का व्यवहार होना चाहिए। मैत्री भी प्रेम ही है! हम बात कर रहे की भक्तों से प्रेम करना चाहिए लेकिन यहां तो मैत्री की बात चल रही है, मैत्री ही प्रेम है! मित्रता प्रेम का ही एक नाम है। ईस्वरे तदधीनेषु बालिशेषु मतलब बालक जैसे जो सीधे साधे और भोले-भाले, श्रद्धालु जो लोग है, जिनके संपर्क में हम आते है उनसे क्या करना चाहिए? उनपर कृपा करनी चाहिए! भगवान से क्या करना चाहिए? भगवान से प्रेम करना चाहिए! भक्तों से क्या करना चाहिए? भक्तों से प्रेम या मैत्री करनी चाहिए! और श्रद्धालु लोगों पर कृपा करनी चाहिए या उनपर दया दिखानी चाहिए। और जो और एक वर्ग है द्वेष करने वाले! विष्णु और वैष्णव से द्वेष करने वाले जो नालायक लोग है, आसुरी प्रवृत्ति के जो लोग है, उनसे क्या करना चाहिए? उनकी उपेक्षा करनी चाहिए! अपेक्षा तो नहीं कर सकते तो उनकी उपेक्षा करनी चाहिए। उपेक्षा यानी उनसे दूर रहना चाहिए। ऐसे लोगों से दूर रहो जो कृष्ण और वैष्णव के चरणों में अपराध करते है। ऐसे जो अश्वर्य प्रवृत्ति के लोग है इनकी काफी बड़ी संख्या है इस संसार में, उनसे दूर रहो! तो ऐसा करने वाला भक्त मध्यम अधिकारी के श्रेणी में आता है। इतना ही कहते है, वैसे तो फिर उत्तम अधिकारी भी होते है जो सभी से प्रेम करते है जो उनसे प्रेम नहीं करता उनसे भी प्रेम करते है। अगर कोई उन्हें गाली गलौज कर रहा है फिर भी उनकी उपेक्षा नहीं करते, उनसे संपर्क बनाए रखने की और प्रेम करने की कोशिश करते है। ऐसे तो नहीं समझाएंगे लेकिन यह भी एक भक्ति का स्तर है। ठीक है। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। आप कहेंगे कि गीता के संबंध में तो आज महाराज कुछ नहीं कहे। क्यों नहीं कहे? लेकिन गीता तो आधार है! तो जो भी कहा है सच ही कहा है, सच के अलावा कुछ नहीं कहा! जिसको आप सुने हो या कोई लिख भी रहे थे तो इसके ऊपर विचार करो। विचार क्या करना है, स्वीकार करो! मैं चाहता तो नहीं लेकिन मैं अभी कुछ और कहने जा रहा हूं। हरि हरि। महात्मा गांधी ने एक प्रयोग किया, उन्होंने एक आत्म चरित्र लिखा है जिसका शीर्षक का नाम है My experiments with truth सत्य के साथ मेरे प्रयोग जो महात्मा गांधी ने किया ऐसा नहीं करना होता है! सत्य के साथ प्रयोग नहीं करना होता है! सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव | न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः || भगवतगीता १०.१४ अनुवाद हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ | हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं | सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव अर्जुन का यह मत था जब उन्होंने, जब कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन कृष्ण के मत सुन रहे थे तो दसवें अध्याय में जब सुनते सुनते दसवें अध्याय तक सुन रहे थे तब अर्जुन ने कहा कि आप जो भी कह रहे हो वह सत्य कह रहे हो और यह सब मुझे मंजूर है! ऐसा नहीं कहा कि आपने जो कहा उसके साथ प्रयोग करके देखूंगा या सच है या झूठ है उसका पता लगालूंगा और उसके बाद मंजूर करूंगा। लेकिन महात्मा गांधी ने यह किया तो प्रभुपाद इसके ऊपर कहते है कि, आपको सत्य का पता नहीं चलेगा आपका बस परीक्षण और निरीक्षण ही चलता रहेगा, भगवान ने यह बात कही है तो और आगे क्या प्रयोग करोगे? यह सब पहले ही हो चुका है! तो ऐसी मूर्खता नहीं करनी चाहिए। ऐसा महात्मा नहीं बनना चाहिए जो सत्य के साथ कुछ खेल करे या मानोधर्म करे। और यही होता है यही तो समस्या है। श्रील प्रभुपाद ऐसा नहीं किए है, सत्य के साथ कुछ खेल या प्रयोग नहीं किए है। इसीलिए संस्करण को नाम दिए भगवतगीता, कैसी भगवद गीता? As it is यथारूप! बाकी लोग प्रयोग करते रहते है उसमें अपनी बातें डालते रहते है और मूल सत्य को आच्छादित कर देते है भगवान ने जो कहा है, वह हम तक पहुंचता ही नहीं या फिर लोग पहुंचने ही नहीं देते! और यही समस्या है! इसीलिए कोई भक्त नहीं बन रहा है, कृष्ण के शरण में नहीं आ रहा है। जत मत तत पत भगवान का एक मत और गीता पर प्रवचन देने वालों का दूसरा ही मत! तो सावधान रहिए। और फिर as it is या यथारूप प्रचार करो। सत्य को सुनो और उसका प्रचार करो! सत्य को सुनते सुनते और कहते कहते आपको साक्षात्कार हो जाएगा। सत्य की परीक्षा नहीं लेनी है। हरि हरि। आपके मन में कई सारे विचार उठे होंगे, या फिर कुछ प्रश्न होंगे, या फिर कुछ साक्षात्कार हो सकते है। हमने जो कहा, यह तो सत्य नहीं है! ऐसा भी किसी किसी को लग सकता है। लेकिन यह सही है, सत्य है! मन में संकल्प या विकल्प होते रहते है। आपके विचार या साक्षात्कार आप लिख सकते हो। ठीक है। हरि हरि। हरे कृष्ण!

English

29 December 2020 Be dear to Krsna - love and serve His devotees Hare Krsna. Devotees from over 785 locations are chanting with us right now. Bhajo Gauranga, Kaha Gauranga, laha Gaurangera nama re, Je jana Gauranga bhaje se amara prana re... Those who chant and sing the names of Sri Gauranga are my life and soul... Radha Krsna Prana mora yugala kisor - this is another song. Radha and Krsna are my life and soul, mora means my life. Devotees who are always engaged in devotional services are my life and soul. Those who sing about Gauranga are my life. This is confidential. Those devotees who take the name of Radha and Krsna are my life. Even Krsna says that such devotees are My life and soul. I live in their hearts and they live in Mine. I become dependent on them. Even though being the Supreme Personality He says that He is dependent on such great devotees. Such devotees who are so dear to Krsna should be our life and soul. Krsna says the devotees of His devotees are actually His devotees. sādhavo hṛdayaṁ mahyaṁ (ŚB 9.4.6) I am in the heart of my devotee and my devotee is in my heart. ahaṁ bhakta-parādhīno (SB 9.4.63) Krsna says, “I am indebted to My devotees. I am not independent.” He is dependent on His devotees. He says those whom He is dependant upon are His life. “I have kept My devotees safe in My heart.” This is the love between Krsna and His devotees. They are dear to him. This is like a competition between Krsna and His devotees as to who can love more. The devotees love Krsna and Krsna loves them back and this goes on increasing, but finally it is Krsna who loses the competition. We must also love the devotees of Krsna. mamaivāṁśo jīva-loke jīva-bhūtaḥ sanātanaḥ manaḥ-ṣaṣṭhānīndriyāṇi prakṛti-sthāni karṣati Translation The living entities in this conditioned world are My eternal fragmental parts. Due to conditioned life, they are struggling very hard with the six senses, which include the mind. (BG 15.7) To taste this love for Krsna, Krsna has to take the mood of Srimati Radharani and appeared as Sri Krsna Caitanya. Srimati Radharani is Krsna's energy. To feel the love of Radharani and the devotees for Krsna, Krsna takes the form of Caitanya Mahaprabhu. My namaskar to this Svarup of Caitanya Mahaprabhu! Radha’s bhava is present here and that is why we call Him Gauranga. Radha is a devotee of Krsna, His friend. She is a friend, but loves Krsna and God loves Radha. Krsna has many energies. We, the jivas are also His energy. He is Saktiman. If someone asks why is the Lord called powerful, we can say that it is because of all of us. We are His potencies. na tasya kāryaṁ karaṇaṁ ca vidyate na tat-samaś cābhyadhikaś ca dṛśyate parāsya śaktir vividhaiva śrūyate svābhāvikī jñāna-bala-kriyā ca Translation Nārāyaṇa, the Supreme Personality of Godhead, is almighty, omnipotent. He has multifarious energies, and therefore He is able to remain in His own abode and without endeavor supervise and manipulate the entire cosmic manifestation through the interaction of the three modes of material nature—sattva-guṇa, rajo-guṇa and tamo-guṇa. These interactions create different forms, bodies, activities and changes, which all occur perfectly. Because the Lord is perfect, everything works as if He were directly supervising and taking part in it. Atheistic men, however, being covered by the three modes of material nature, cannot see Nārāyaṇa to be the supreme cause behind all activities. (Śvetāśvatara Upaniṣad 6.8) There is a loving relationship between Krsna and every Jiva. It is not that only Srimati Radharani loves Him. The Gopis love Him. Nanda Maharaja and Yasoda Maiya love Him. The eyes of Krsna also love Krsna. His friends like Madhu Mangal, Sridama and all His friends also love Him. All His friends, devotees, servants love Him. Krsna also loves them. We all have a relationship with Krsna and we belong to Him. The nature of every Jiva is to be a servant of Krsna. Eternally we all have a loving relationship with Krsna. The level of love differs. We must always love the devotees who love Krsna and engage in His devotional services. Krsna is the man and we are all the females. This is the only dharma - loving and serving Krsna and His devotees. There is a competition, We love Krsna more or Krsna loves us more. The bhakta is the lover and we must love them also. The lover and the beloved is the relationship. Sri Krsna is the beloved and we are the lovers. Loving Krsna, to love His devotees, serve Him and His devotees is our dharma. ārādhanānāṁ sarveṣāṁ viṣṇor ārādhanaṁ param tasmāt parataraṁ devi tadīyānāṁ samarcanam Translation "Lord Śiva told the goddess Durgā, 'My dear Devī, although the Vedas recommend worship of demigods, the worship of Lord Viṣṇu is topmost. However, above the worship of Lord Viṣṇu is the rendering of service to Vaiṣṇavas, who are related to Lord Viṣṇu.' (CC Madhya 11.31) Lord Shiva discloses a special principle to Srimati Parvati - among all the worshipable the highest is Visnu. Visnu here means Krsna, Rama, Narsimha all his avatars are included. If Vaikuntha is mentioned then Goloka is included, if Brahma is said then it means Bhagavan, Krsna. He says that Visnu's worship is the highest of all. He continues that even higher than the worship of Visnu is the worship of His devotees. We must not get confused with the Brahma we mentioned. Brahma means Para Brahma, Bhagavan, here the word paramatama shows the superlative degree, the highest. It’s the supreme prayer which is to to Krsna. It’s the best. Service to His devotees or worship of His devotees means service to cows, service to Tulasi, or Ganga, senior devotees’ seva. This is in fact a very important principle. Krsna says in Bhagavad Gita and also in Srimad Bhagavatam. It’s also elaborated in other sastras. The devotees who worship Krsna, but do not care for the devotees, don't serve or love or remember His devotees, are third class devotees. Loving the Lord and hating the devotees or being envious of them is not acceptable. This doesn't work. Offending devotees makes one a third class devotee (Kanista Adhikari). They love the Lord and hate the devotee. This is Vaisnava apradha. They would commit a variety of sins. Above this is Madhyam Adhikari or the second class devotee. Srila Prabhupada wanted every person who has joined ISKCON to be situated at least on the second class devotee level. Our aim is to be a first class devotee (Uttama Adhikari) but at least we must reach and be situated on the level of the second class devotee. What does a second class devotee do? These classifications are in the Srimad Bhagavatam 11 Canto. Srila Prabhupada mentions it in various places including Nectar of Instruction. We should get to the higher level as a devotee. There are 4 types of exchanges. Loving the Lord Loving and befriending those who are devoted to Sri Krsna. Taking care of the innocent neophyte devotees and showing them mercy Avoid association of those who are envious of Krsna, devotees and who keep offending Krsna and His devotees. The world is full of such people. We must love the devotees of the lord. Friendship is also a form of love. To be situated on the level of a second class devotee one must keep in mind these 4 principles. The first class devotees are even more loving. They do not discriminate on any grounds. We must love and have friendship with Krsna and His devotees. Stay away from those who have demonic tendencies. We must stay away from those who commit sins against Krsna and devotees. One who does this is a second class devotee. While Uttama Adhikari or first class devotees are those who love all, even those who spread poison and hatred. They love those who love and also those who hate, envy, or even blaspheme. Think and accept this. īśvare tad-adhīneṣu bāliśeṣu dviṣatsu ca prema-maitrī-kṛpopekṣā yaḥ karoti sa madhyamaḥ Translation An intermediate or second-class devotee, called madhyama-adhikārī, offers his love to the Supreme Personality of Godhead, is a sincere friend to all the devotees of the Lord, shows mercy to ignorant people who are innocent and disregards those who are envious of the Supreme Personality of Godhead. (SB 11.2.46) So now you know about this. Some of you have noted while hearing. Think about this. Mahatma Gandhi has written a book, 'My Experiments with Truth'. But you must not do what he did. You must not experiment with truth. Arjuna says, “ O Krsna, I accept all that you say.” sarvam etad ṛtaṁ manye yan māṁ vadasi keśava na hi te bhagavan vyaktiṁ vidur devā na dānavāḥ Translation O Kṛṣṇa, I totally accept as truth all that You have told me. Neither the gods nor demons, O Lord, know Thy personality. (BG 10.41) We must not have that attitude that Krsna says something and we will try and experiment to find out whether it is true or not. This is foolishness. When the Supreme Person is saying something we must have full faith. Others usually misinterpret the words of Krsna to propagate their own thoughts. We must not do this. Mahatma Gandhi did it, by thinking and then writing this book. Prabhupada says by doing so you have not found the truth, but are experimenting with it. Only exploration and experimentation is going on. The main point is that when Krsna has said something, what further experimentation is required? Such foolishness must not be done. You should not become such a mahatma, where there is some game with the truth. Practising religion based on your own thoughts is incorrect. This is the trouble. Prabhupada has not played with the truth with his words, that’s why the name given to his Bhagavad Gita is Bhagavad Gita As it Is. Other people keep on experimenting and keep on inserting their own thoughts. They distort and dilute the truth. They don’t allow the essence of what Krsna wanted us to know, to reach us. That is the reason why people are not becoming devotees. They are not surrendering to Krsna. Listen to the truth, accept the truth and preach the truth as it is. As you preach the truth, you will get realisations of the truth. You don’t have to test the truth. You have heard what Krsna has said now think about it and share it with others. Hare Krishna! Gaura premanande Hari Haribol!

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