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जप चर्चा
दिनांक ३० दिसम्बर २०२०
हरे कृष्ण!
आज 786 स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित हैं । हरिबोल!
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय...
कहिए, आप नहीं कह रहे हो।
आप सभी कहिए।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय...
फ़ूड फ़ॉर थॉट (मस्तिष्क के लिए भोजन)फ़ूड फ़ॉर बैली ( पेट के लिए भोजन) तो चलता ही रहता है। पेट भरते ही रहते हैं। भरते रहो, प्रसाद ग्रहण करते रहो लेकिन प्रसाद के साथ फ़ूड फ़ॉर थॉट( मस्तिष्क के लिए कुछ खाद्य) अथवा बुद्धि का पोषण अथवा बुद्धि की पुष्टि भी करो। उससे फिर तुष्टि अथवा संतुष्टि भी होगी।
भगवतगीता में भगवानुवाच सब फ़ूड फ़ॉर थॉट हैं।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् । ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।
( श्रीमद् भगवतगीता १०.१०)
अनुवाद:- जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं।
भगवान इसे 'ददामि बुद्धियोगं' भी कहते हैं, मैं बुद्धि देता हूँ। जब हम भगवतगीता के वचन पढेंगे तो हम बुद्धिमान होंगें। हम बुद्धू हैं, 'बुद्धू कहीं का'। हम बुद्धिमान होंगे अथवा हम उच्च विचार के भी होंगे। हमें कैसा होना है? हमें उच्च विचार वाला होना है। हमें नीच नहीं रहना है। 'नीच कहीं का', अपितु हमें उच्च विचार वाला बनना है। भगवान के विचार उच्च विचार हैं। श्रीकृष्ण के सभी विचार जो उन्होंने प्रस्तुत किए हैं, उच्च विचार हैं। गीता के तीसरे अध्याय के अंत में ( यदि आपके पास भगवत गीता है तो आप खोल सकते हो) अर्जुन ने एक प्रश्न पूछा है। वह प्रश्न भी महत्वपूर्ण है। हम इतने बुद्धू हैं कि हमें प्रश्न पूछने भी नहीं आते। हमें कैसे प्रश्न पूछने चाहिए, यह हम अर्जुन से सीख सकते हैं या भगवतगीता से सीख सकते हैं। इसीलिए भगवतगीता देखो, पढ़ो और सुनो कि अर्जुन कैसे प्रश्न पूछते हैं? यह निरीक्षण है कि अर्जुन ने भगवतगीता में 16 मुख्य प्रश्न पूछे हैं। यदि हम अर्जुन जैसे प्रश्न पूछ सकते हैं अथवा हमारे जीवन में अर्जुन जैसा ही प्रश्न है अर्थात जैसा कि अर्जुन ने प्रश्न पूछे थे, तब स्वाभाविक रुप से हम भी वैसे ही प्रश्न पूछ सकते हैं।
यदि हमारे जीवन में ऐसे प्रश्न चिन्ह खड़े हो रहे हैं, तभी हम भगवान के दिए हुए उत्तर समझ पाएंगे। हमारे भी अर्जुन जैसा प्रश्न होना अनिवार्य है। हर एक के जीवन में होना भी चाहिए और होता भी है। हमारा प्रवास (यात्रा) चलता रहता है और मार्ग में ऐसे प्रश्न खड़े हो जाते हैं। यदि हमारा भी प्रश्न वैसा है, जैसा अर्जुन ने पूछा था, तब भगवान का दिया हुआ उत्तर हमें समझ में आएगा कि हम पात्र हैं या हम उस उत्तर के लिए तैयार हैं जो भगवान ने दिया है। तब हम उसको समझने के लिए योग्य पात्र बनेंगे। यदि अर्जुन जैसा हमारा भी प्रश्न है, तब भगवान ने जो उत्तर दिए हैं, वह हमें भी समझ में आएंगे। समय तो ज़्यादा नहीं है,
भगवतगीता में तीसरे अध्याय का श्लोक ३६ एक बहुत ही प्रसिद्ध प्रश्न है। हमें भी ऐसे प्रश्न पूछने आने चाहिए। ऐसा प्रश्न हमारा होना चाहिए।
क्या प्रश्न है?
अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः।अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।
( श्री मद् भगवतगीता ३.३६)
अनुवाद:-अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो।
आपने पहले कभी सुना होगा? हम इस प्रश्न का जिक्र करते ही रहते हैं। अर्जुन ने क्या कहा? हम संक्षिप्त में कहेंगे।
अथ केन प्रयुक्तोऽयं- अर्जुन पूछ रहे हैं कि मुझे कौन प्रेरित कर रहा है अथवा करता है जिसके द्वारा पापं चरति अर्थात मुझ से पाप हो जाता है। मैं पाप करता हूँ अथवा मुझे पाप करने के लिए कौन प्रेरित करता है? मुझ से कौन पाप करवाता है?
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः - अनिच्छन्नपि अर्थात 'इच्छा नहीं होते हुए भी' करता हूँ वार्ष्णेय- कृष्ण को सम्बोधित करते हुए कहा है। 'बलादिव नियोजितः' पाप करने की इच्छा नहीं है, ऐसा करना सही नहीं है, नहीं करना चाहिए। यदि ऐसा कोई विचार आ भी रहा है। तो भी कुछ बलादिव नियोजितः- कोई मुझसे बल पूर्वक पाप करवाता ही है। मैं परास्त हो जाता हूँ। मुझे कोई हरा देता है। उस संघर्ष में मेरा पराजय होता है। नहीं! नहीं! ऐसा नहीं करना चाहिए। ऐसा विचार तो आता है कि ऐसा पाप ना करो किन्तु बलादिव नियोजितः कोई बलपूर्वक पाप करवाता है।अथ केन - वो कौन है? किसके द्वारा यह होता है? इसके उत्तर में भगवान कह रहे हैं
श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ।।
( श्रीमद् भगवतगीता ३.३७)
अनुवाद:- श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है।
देखने में लगता है कि अर्जुन ने एक ही वाक्य में प्रश्न पूछा है , लेकिन यह विशेष प्रश्न है। तत्पश्चात भगवान उत्तर में कहेंगे। भगवान इस श्लोक में कुछ ही शब्द कह रहे हैं, वैसे भगवान इसके उत्तर में आगे भी कहेंगे।
भगवान इसका उत्तर कई श्लोकों में कहते जाएंगे। अध्याय के अंत तक इसका उत्तर अथवा इसका जवाब चलता ही रहेगा। श्रीकृष्ण, उस उत्तर का प्रारंभ कर रहे हैं कि तुमनें पूछा कि मुझसे कौन पाप करवाता है।
'काम एष क्रोध एष' - भगवान ने नाम लिया। भगवान् ने नाम बताया। हे अर्जुन, वो काम और क्रोध है, और भी नाम लेने चाहिए थे लेकिन यहाँ पर नहीं लिए। काम क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्यं- यह छह नाम तो लिए ही ही जा सकते थे। भगवान अर्जुन को कहते हैं कि ये छह तुमसे पाप करवाते हैं।
काम एष क्रोध एष - यह काम है, यह क्रोध है। यही पाप करवाने वाला है। भगवान इस काम और क्रोध का थोड़ा और परिचय देते हुए कहते हैं कि रजोगुणसमुद्भवः अर्थात यह काम और क्रोध रजो गुण से उत्पन्न होते हैं।
महाशनो महापाप्मा - ये बड़े पापी है। श्रील प्रभुपाद शब्दार्थ में लिखते हैं कि महा, अशन: - श्रीकृष्ण ने इस शब्द का प्रयोग किया है। यहां संधि हुई है, महा अर्थात महान्, अशन अर्थात भक्षण। इसे सर्व भक्षी कहा है। जितना भी खिलाओ, पेट भरने वाला नहीं है, काम ऐसा सर्वभक्षी है। इस काम को जितना भी खिलाओ और मांगेंगे और चाहिए और चाहिए।
वैसे हम उदाहरण देते ही रहते हैं संसार में आग जल रही है। उस आग में ऊपर से तेल, पेट्रोल या घी डाल रहे हो तो अग्नि बुझने वाली नहीं है, अग्नि तो भड़केगी ही अग्नि भी सर्वभक्षी होती है। जितना खिलाओ, उसकी आग उतनी ही बढ़ती जाती है। इसलिए भगवान कहते हैं
महाशनो- यह सर्वभक्षी है। यह काम, क्रोध, लोभ - लोभ का कभी पेट भरता है क्या? लोभी कभी प्रसन्न होता है?लोभी तो लालची होता है। मुझे और चाहिए और चाहिए। लोभ का कोई अंत ही नहीं है। सारे शत्रु ऐसे ही हैं । यह षड् रिपु है ( शत्रु)। भगवान यहाँ यह भी कह रहे हैं। (हम नोट कर सकते हैं) काम रजोगुण से उत्पन्न होता है, ये सर्वभक्षी भी है। यह विद्धयेनमिह वैरिणम् है।
विद्धि मतलब ( नोट करो - दिमाग में या कहीं लिख लो, क्या लिखोगे )विद्धयेनमिह वैरिणम्- यह काम तुम्हारा वैरी (शुत्र) है। एक नम्बर का वैरी( शुत्र) है। दुनिया तो नहीं जानती, वो आई लव यू आदि कहती रहती हैं अर्थात सम्भ्रमित होकर काम को ही प्रेम समझती है। संसार के काम को समझती है कि हम प्रेम कर रहे हैं। तुम तो कामी हो, प्रेमी नहीं हो। प्रेम तो दिव्य होता है।
राधा कृष्ण प्राण मोर...
राधा कृष्ण से प्रेम होता है अर्थात वे भी हमसे प्रेम करते हैं। भक्तों से प्रेम अर्थात एक जीव का दूसरे जीव के साथ जो प्रेम होता है, वह प्रेम होता है। प्रेम अलौकिक दिव्य होता है लेकिन शरीर के साथ अर्थात एक शरीर का दूसरे शरीर के साथ तथाकथित प्रेम नहीं होता अपितु वह काम होता है। वह आई लव यू नही अपितु आई लसटी ऑफ यू होता है। मैं तो कामी हूँ मैं प्रेमी नही हूँ, मैं कामी हूं।
कृपया नोट कीजिये - अगर हम यह समझते हैं तो हम भगवतगीता समझ गए लेकिन हम कहां समझते हैं ?
भगवान कह रहे हैं, हमारा ऐसा प्रश्न ही नहीं है। यदि हम अर्जुन जैसा प्रश्न पूछते हैं तब हमें उत्तर समझ में आएगा। भगवान ने कहा- विद्धयेनमिह वैरिणम् - काम तुम्हारा वैरी अथवा शत्रु है। क्रोध भी शत्रु है, ये मोटे मोटे चांडाल चौकड़ी है। काम और प्रेम में भेद है, जमीन और आसमान का अंतर है। कौन जानता है? सभी काम को ही प्रेम समझते हैं, यही तो समस्या है।
विद्धयेनमिह वैरिणम्- भगवान कह रहे हैं कि यह तुम्हारा शत्रु है। हम शत्रु को ही गले लगाते हैं अथवा शत्रु को ही आमंत्रित करते हैं अथवा हम शत्रु को खोजते रहते हैं। हरि! हरि!
यह सर्वभक्षी शत्रु हमारा भक्षण करता है लेकिन प्रेम हमारा रक्षण करेगा, पोषण करेगा परंतु काम हमारा भक्षण करेगा। यह फ़ूड फ़ॉर थॉट( मष्तिष्क के लिए भोजन) है। हरि! हरि!
अभी तो समय नही है, भगवान ने जो कहा आप इसे पढ़िएगा। आगे के जो श्लोक हैं, वह भी उत्तर है। एक श्लोक में यह उत्तर अभी पूर्ण नहीं हुआ है। अब आगे पढ़ो।
भगवान कहने वाले हैं। हरि! हरि!
यह जो शत्रु है, इस शत्रु का अड्डा कहाँ है। इस शत्रु का बेस कहां है? भगवान हमें यह बताएंगे, भगवान कहते हैं कि हमारे इस स्थूल और सूक्ष्म शरीर में
मन, इन्द्रिय और बुद्धि में यह तीन स्थान है, जहाँ यह शत्रु रहता है।
भगवतगीता में श्लोक ३.४० में कह रहे हैं कि
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते। एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ।।
( श्री मद् भगवतगीता ३.४०)
अनुवाद:- इन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि इस काम के निवासस्थान हैं | इनके द्वारा यह काम जीवात्मा के वास्तविक ज्ञान को ढक कर उसे मोहित कर लेता है।
आपने शत्रु का नाम तो सुन लिया। भगवान ने शत्रु का नाम तो बता दिया। काम शत्रु है, क्रोध शत्रु है,लोभ शत्रु है ,मोह शत्रु है लेकिन नाम सुनने से काम नहीं बनेगा। यह शत्रु कहां रहता है?
उसका पता क्या है?
भगवान ने पता बता दिया है जिससे आप वहाँ पहुंच कर हमला कर सको।
( कृपया नोट कीजिए)
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः | मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु सः || (श्रीमद भगवद्गीता ३.४२)
अनुवाद:- कर्मेन्द्रियाँ जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से बढ़कर है, बुद्धि मन से भी उच्च है और वह (आत्मा) बुद्धि से भी बढ़कर है ।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धि- फिर उपाय क्या है? थोड़ा संक्षिप्त में ही कहा जा रहा है। श्रीकृष्ण ने भी सूत्र रुप में उत्तर दिया। हम भी अति संक्षिप्त करके यहाँ सुना रहे हैं। वैसे यह समझने के लिए श्लोक और वचन भी हैं,उसका शब्दार्थ भी है, उसका भाषान्तर भी है। प्रभुपाद ने भी उसके भावार्थ और तात्पर्य लिखे हैं सब पढ़ना होगा। पढ़ कर फ़िर चिंतन करना होगा या फिर पुनः पुनः पढ़ना होगा जिससे हम भली भांति समझ जाएं। हमें साक्षात्कार अथवा अनुभव होगा।
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ | पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् ।।
( श्री मद् भगवतगीता ३.४१)
अनुवाद:- इसलिए हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! प्रारम्भ में ही इन्द्रियों को वश में करके इस पाप के महान प्रतीक (काम) का दमन करो और ज्ञान तथा आत्म-साक्षात्कार के इस विनाशकर्ता का वध करो ।
भगवान् रण नीति बता रहे हैं। उपाय क्या है? हमनें शत्रु का नाम बता दिया। शत्रु का स्थान कहां रहता है- ये भी बता दिया। अब आगे बताइए, हम कैसे उस पर आक्रमण करें? कैसे हल्ला करें? हल्ला बोल या हमला करें ।
श्री कृष्ण कह रहे हैं।
इन्द्रियाण्यादौ - प्रारंभ करो और प्रारंभ कहाँ से होना चाहिए। इन्द्रियाण्यादौ नियम्य, इन्द्रिया पांच हैं , इसलिए बहुवचन में इन्द्रियाणि कहां है। इन्द्रियाणि अर्थात पांच इंद्रिय- नियांन अर्थात नियंत्रण, इन्द्रियों पर नियंत्रण रखो। यहाँ से प्रारंभ करो।इन्द्रियाण्यादौ - सेंस ( इन्द्रियों) पर नियंत्रण करो, तत्पश्चात मन पर नियंत्रण करो, फिर बुद्धि पर नियंत्रण करो। शत्रुओं के तीन निवास स्थान हैं। इन्द्रियों में इन्द्रियां स्थान है, दूसरा स्थान मन है। तीसरा बुद्धि है। भगवान कह रहे हैं कि इन्द्रियाण्यादौ से प्रारंभ करो।
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च |ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ||
(श्री मद् भगवतगीता १८.४२)
अनुवाद:- शान्तिप्रियता, आत्मसंयम, तपस्या, पवित्रता, सहिष्णुता, सत्यनिष्ठा, ज्ञान,विज्ञान तथा धार्मिकता – ये सारे स्वाभाविक गुण हैं, जिनके द्वारा ब्राह्मण कर्मकरते हैं।
भगवान् ब्राह्मणों के लक्षण बताते समय १८वें अध्याय में कहते हैं कि शमो दम अर्थात इन्द्रियों पर नियंत्रण और दम अर्थात मन पर नियंत्रण करो।
इन्द्रिय निग्रहः, मन निग्रहः, बुद्धि निग्रहः का चेतोदर्पणमार्जनम अर्थात बुद्धि को शुद्ध करना होगा। हरि! हरि!
भगवान कहते हैं 'पाप्मानं प्रजहि ह्येनं' अर्थात
उसकी हत्या ही करनी है। प्रारंभ में कुछ दमन से होगा लेकिन लक्ष्य क्या है शत्रु को जान से मारो, आधा नहीं मारना। उसे जीवित नहीं रखना। प्रजहि 'किल हिम'( उसे मार डालो) जिससे
उसका कोई नामो निशान ना बचे। हमें काम क्रोध रहित बनना है। हरि हरि!
तत्पश्चात कृष्ण कहते हैं
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु सः ।।
( श्रीमद् भगवतगीता ३.४२)
अनुवाद:- कर्मेन्द्रियाँ जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से बढ़कर है, बुद्धि मन से भी उच्च है और वह (आत्मा) बुद्धि से भी बढ़कर है ।
इन्द्रियों के विषय से श्रेष्ठ इन्द्रियां है। इन्द्रियों से श्रेष्ठ मन है। इन्द्रियेभ्यः परं मनः - मनसस्तु परा बुद्धि अर्थात मन से श्रेष्ठ बुद्धि है। आप समझ रहे हो? इन्द्रियों, मन, बुद्धि इन तीन स्थानों पर यह शत्रु रहता है। इन्द्रियों में रहता है, मन में रहता है, बुद्धि में रहता है।
भगवान् कह रहे हैं कि इन्द्रियों से श्रेष्ठ मन है, मन से श्रेष्ठ बुद्धि है। 'र्यो बुद्धे: परतस्तु सः' अर्थात बुद्धि से श्रेष्ठ है वह, और वह कौन है? वह आत्मा है। आत्मा से श्रेष्ठ परमात्मा हैं जो कि आत्मा के बगल अर्थात पास में ही है। हरि! हरि!
एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्ताभ्यात्मानमात्मना। जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ।।
( श्री मद् भगवतगीता ३.४३)
अनुवाद:- हे महाबाहु अर्जुन! अपने आपको भौतिक इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि से परे जान कर और मन को सावधान आध्यात्मिक बुद्धि (कृष्णभावनामृत) से स्थिर करके आध्यात्मिक शक्ति द्वारा इस काम-रूपी दुर्जेय शत्रु को जीतो |
श्रीकृष्ण इस अध्याय के निष्कर्ष में कह रहे हैं कि हे महाबाहु अर्जुन! अपने आप को भौतिक इन्द्रियों, मन, बुद्धि से परे जानो, तुम आत्मा हो, तुम अपने को इन्द्रियों, मन, बुद्धि से परे या श्रेष्ठ जानकर मन को सावधानी पूर्वक आध्यात्मिक बुद्धि की मदद से मन को स्थिर करके आध्यात्मिक शक्ति द्वारा इस कामरूपी दुर्जय शत्रु को जीतो।
विजय पाना कठिन है, कठिन है लेकिन असंभव नहीं है। इस दुर्जय शत्रु को जीतो। भगवान् कहते हैं
'जहि शत्रुं' यही शत्रु को कैसे जीतोगे अथवा मारोगे । आप सभी पुनः इसका अध्ययन करो, इतना भी समझ में आएगा तो यह जीवन सफल हो जाएगा।
यत्र योगेश्र्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः | तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवो नीतिर्मतिर्मम ।।
( श्री मद् भगवतगीता १८.७८)
अनुवाद:- जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण हैं और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है | ऐसा मेरा मत है।
कृष्ण के वचन, गीता के वचन सुनकर जो अमल करता है, वह ही जीतेगा। भगवतगीता में संजय कहते हैं कि तत्र श्रीर्विजयो- वहाँ जीत की गारंटी है। परम विजेतय श्रीकृष्ण संकीर्तनं।
अब यहां वाणी को विराम देते हैं ।
हरे कृष्ण!