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*जप चर्चा* *22 -12 -2021* *भगवद्गीता अध्याय-4* हरे कृष्ण ! 1033 स्थानों से भक्त आज जप में सम्मिलित हैं। अर्जुन ने क्या प्रश्न पूछा ? भगवत गीता अध्याय 4 अर्जुन उवाच “अर्जुन उवाच *अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः |कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति ।।* (श्रीमद्भगवद्गीता 4.4) अनुवाद- अर्जुन ने कहा – सूर्यदेव विवस्वान् आप से पहले हो चुके (ज्येष्ठ) हैं, तो फिर मैं कैसे समझूँ कि प्रारम्भ में भी आपने उन्हें इस विद्या का उपदेश दिया था | जो भी उन्होंने कृष्ण से सुना था उनके मन में प्रश्न उठा है वह कह रहे हैं ऐ ! ऐ ! यह क्या डींग मार रहे हो *अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः* विवस्वान का जन्म तो बहुत पहले का हुआ है। यहां श्रील प्रभुपाद के तात्पर्य में समझाया है की विवस्वान कब हुए, त्रेता युग में हुए, अपरं भवतो जन्म और अपरम अभी-अभी का, भवतो मतलब आपका, हे श्रीकृष्ण आपका जन्म तो अभी अभी हुआ है हम तो भाई-भाई हैं। वी आर ब्रदर्स लगभग हम एक ही उम्र वाले हैं। आप समझ रहे हो कि वह क्या प्रश्न पूछ रहे हैं? परं जन्म विवस्वतः विवस्वान का जन्म बहुत पहले हुआ और आपका जन्म अभी हुआ है। आप कुरुक्षेत्र में आए हो आप 100 साल के हो और विवस्वान थे लाखों वर्ष पूर्व, कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति , हमें बताइए मैं कैसे समझ सकता हूं यह स्वीकार कर सकता हूं कथमेतद्वि जिस बात को जानीयां मैं स्वीकार कर लूंगा, किस बात को? त्वमादौ, बहुत पहले कभी प्रोक्तवानिति , यह सारी बातें आपने पहले विवस्वान को सुनाई थी। अभी-अभी आपने कहा, श्री भगवानुवाच *इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् |विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 4.1) अनुवाद - भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – मैंने इस अमर योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया | पहले श्लोक में आपने कहा अब चौथे श्लोक में मैं कह रहा हूं आपसे पूछ रहा हूं प्रोक्तवानहमव्ययम् मैंने कहा विवस्वान को यह सारी बातें या मैंने यह गीता का ज्ञान विवस्वान को दिया , किन्तु यह मुझे समझ में नहीं आ रहा है कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति , इति मतलब दिस मच या जिस बात को समझना भिन्न है कैसे समझा जाए, आप समझ गए अर्जुन का प्रश्न वेरी नाइस, बहुत अच्छा प्रश्न है स्वाभाविक है आप भी यदि अर्जुन के स्थान पर होते तब आप भी ऐसा ही प्रश्न करते या वैसे आप की ओर से ही अर्जुन से यह प्रश्न पूछवाया है श्रीकृष्ण ने, कहो कहो इससे संसार का कोई भी बद्ध जीव या सम्भ्रमित जीव ऐसा ही प्रश्न पूछेगा, उनकी की ओर से बोलो अर्जुन, इस प्रश्न को कृष्ण के द्वारा बुलवाया गया है। क्योंकि उसका उत्तर देना चाहते हैं वह समझाना चाहते हैं अर्जुन को कृष्ण कौन हैं ? भगवान कौन हैं? के आमी ? श्रीभगवान उवाच अगले श्लोक में कृष्ण उत्तर देंगे या दे रहे हैं। श्रीभगवानुवाच *बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन | तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 4.5) अनुवाद- श्रीभगवान् ने कहा – तुम्हारे तथा मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं | मुझे तो उन सबका स्मरण है, किन्तु हे परंतप! तुम्हें उनका स्मरण नहीं रह सकता है | यहां अर्जुन को परन्तप कह रहे हैं परन्तप अर्थात शत्रुओं का दमन करने वाले या दमन करने वाले को परंतप कहते हैं और यहां वे अर्जुन हैं और भी कोई हो सकते हैं परंतु यहाँ कृष्ण कैसे उत्तर दे रहे हैं "बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन" बड़ी सरल संस्कृत है आप पढियेगा संस्कृत सीखिएगा, क्या-क्या भाषा मिक्स भाषा, कन्नड़ भाषा, यह भाषा, कई भाषा मातृभाषा और कृष्ण आपकी माता है या कृष्ण पिता है और मातृभाषा सीखो या सारे भाषाओं की जननी (मदर ऑफ ऑल लैंग्वेजेस) संस्कृत भाषा है। इसको भी थोड़ा पढ़िए, थोड़ा सीखिए प्रयास कीजिए प्रयत्न होना चाहिए , मदद होगी शास्त्रों को समझने में, यह जो खजाना है ज्ञान का भंडार है, लेकिन खजाना है तो उसको लॉक में रखा है। तिजोरी में रखा है, कैसी तिजोरी? यह कुंजी है। यह जो संस्कृत भाषा है यह चाबी है। जिसके पास ये चाबी है उसको ही यह खजाना मिलेगा। उसको भली-भांति समझेंगे, भावार्थ, गूढ़ अर्थ बड़ी सरल बात है। *बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन* अभी-अभी परन्तप कहा था और अभी यहां कह रहे हैं, हे अर्जुन! इसी एक ही श्लोक में एक ही वचन में या एक ही वाक्य में कृष्ण को परंतप भी कहा है और अर्जुन ने भी कहा है तो क्या कहा अर्जुन से तुम्हारे और मेरे बहुत जन्म बीत चुके हैं बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि व्यतीत किए हुए हैं, बिताए हैं बहुत सारे जन्म मैंने और तब तुम्हारे भी क्योंकि आगे तुम्हारे और मेरे बहुत सारे जन्म हो चुके हैं फिर समस्या क्या है ? तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप उन जन्मों को जो बहुत सारे हैं सर्वाणि सारे के सारे जन्मों को तान्यहं वेद मैं तो जानता हूं मुझे याद है। लेकिन समस्या क्या है? न त्वं वेत्थ परन्तप लेकिन तुम हे अर्जुन इसको नहीं जानते हो तुम भूल चुके हो, दिस इज द प्रॉब्लम बद्ध जीव की यह समस्या है। वह सोचता है कि यही जन्म मेरा पहला जन्म है और फिर दिस इज़ द लास्ट बर्थ, दिस बॉडी इज़ फिनिश्ड, एवरीथिंग इज फिनिश्ड , *यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।* (चार्वाक दर्शन) अनुवाद - जब तक जीवित रहे तब तक सुखपूर्वक जिये । ऋण करके भी घी पिये । अर्थात् सुख-भोग के लिए जो भी उपाय करने पड़ें उन्हें करे । ऐसा ज्ञान है संसार के सारे जीव ऐसे ही अज्ञानी हैं। कृष्ण कह रहे हैं और यह कहानी और हकीकत केवल अर्जुन की ही नहीं है केवल अर्जुन ही नहीं भूले हैं। सारे संसार के सभी जीव अपने पूर्व जन्मों को भूल चुके हैं। उनको पता ही नहीं है कि वह पहले भी इस संसार में थे और उनके भी जन्म हुए हैं। अर्जुन उसी माला की एक मणि है। जब हम आगे पढ़ेंगे तब कृष्ण कहने वाले हैं *सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च | वेदैश्र्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ||* श्रीमद्भगवद्गीता 15.15 अनुवाद- मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीन हूँ और मुझ से ही स्मृति, ज्ञान तथा विस्मृति होती है | मैं ही वेदों के द्वारा जानने योग्य हूँ | निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलनकर्ता तथा समस्त वेदों का जानने वाला हूँ | मैं सभी के ह्रदय प्रांगण में विराजमान रहता हूं और विराजमान रहकर क्या करता हूं मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च, मत्तः मतलब क्या मुझसे मत्त: स्मृति, जीव को मुझ से ज्ञान प्राप्त होता है। मुझ परमात्मा से मैं जो उनके हृदय प्रांगण में विराजमान हूं मुझसे मत्त: स्मृति मुझसे जीव को स्मृति मिलती है। याद होता है ज्ञान प्राप्त होता है। अपोहनं च तीसरी बार है तीन बातें कहीं हैं। स्मृति, ज्ञान, अपोहनं, मतलब भूल जाना (फॉरगेटफूलनेस) यह मेरे कारण होता है। मैं भुला देता हूं नहीं तो फिर जीना मुश्किल होगा। आपको सारे जन्मों की याद आएगी तो क्या क्या नहीं कह सकते कि क्या समस्या खड़ी हो सकती हैं। आप कल्पना कर सकते हो, जीना भी मुश्किल होगा, इसीलिए भगवान भुला देते हैं सभी को जब से सृष्टि प्रारंभ हुई है तब से भुला देना, कुछ याद दिलाना, कुछ ज्ञान, कुछ अज्ञान, इसका सारा कंट्रोल श्रीकृष्ण का है। अनुमंता च साक्षी च, इसी गीता में है मेरी अनुमति से यह होता है और इन सब बातों का मैं साक्षी हूं। आई एम ए परमिटर मैं परमिशन देता हूं और मैं साक्षी हूं। बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन | तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप इतना समझ में आया ना,अर्जुन को तो आया होगा, क्योंकि अभी वह ध्यान पूर्वक सुन रहे थे सो नहीं रहे थे। इसीलिए कृष्ण ने फिर आगे की बात सुनाई है। वैसे अर्जुन जैसे ही सुनते थे ऑन द स्पॉट ही उनको साक्षात्कार होता था उनको समझ में आता था। ऐसे 45 मिनटों में जो गीता का प्रवचन है कालावधि है उतने समय में ही सेल्फ रिलाइजेशन उनका कृष्ण रिलाइजेशन गॉड रिलाइजेशन, "गॉड इज कृष्ण" संपूर्ण हुआ 45 मिनट में, अतः जैसे कृष्ण सुना रहे हैं उनको समझ में आ रहा है। साक्षात्कार हो रहा है। अनुभव हो रहा है। कैसे सुनी होगी उन्होंने भगवत गीता कितनी श्रद्धा और भक्ति और ध्यान पूर्वक और फिर आगे कृष्ण उत्तर में कहते हैं और जो की आज *अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्र्वरोऽपि सन् | प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।।* (श्रीमद्भगवद्गीता 4.6) अनुवाद- यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और यद्यपि मैं समस्त जीवों का स्वामी हूँ, तो भी प्रत्येक युग में मैं अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होता हूँ | वैसे पूरा प्रवचन एक श्लोक का 1 घंटे में होता है श्रील प्रभुपाद ने जैसे व्यवस्था की है। एक श्लोक लेते हैं हम लोग भगवतम की कक्षा मॉर्निंग में होती है और कम से कम ( इन गुड ओल्ड डेज) पुराने अच्छे दिनों में , हमारे या प्रभुपाद के समय अभी भी जारी है कई स्थानों पर प्रातः काल में भागवतम पर कक्षा और सायं काल में भगवत गीता की कक्षा एवरीडे शाम को, हम अटेंड करते थे प्रभुपाद के समय, एक श्लोक भगवतम का प्रातः काल में और एक श्लोक सांयकाल को भगवत गीता से , वैसा यहां प्रवचन हम नहीं दे रहे हैं। एक एक श्लोक पर क्योंकि हमारे पास घंटा नहीं है और अजोऽपि कृष्ण अपना परिचय दे रहे हैं कि मैं कौन हूं कैसा हूं अज मैंने आपको कई बार सिखाया है अ मतलब नहीं, ज मतलब जन्म, दो अक्षर "अ" और दूसरा अक्षर "ज" मैं अजन्मा हूं मतलब मेरा कभी जन्म नहीं होता और अजोऽपि ऐसा होते हुए भी अजन्मा होते हुए भी सन्नव्ययात्मा मैं परमात्मा हूं यह कैसा है ? परमात्मा अवव्ययी हैं। व्यय मतलब खर्च करना और अव्यय मतलब खर्च नहीं होता, अव्यय कभी घटता नहीं, मैं जैसा हूं वैसे का वैसा ही रहता हूं। बढ़ता ही हूं लेकिन घटता नहीं हूं। इसीलिए अव्यय बहुत महत्वपूर्ण शब्द है शास्त्रों में सर्वत्र इसका उपयोग या उल्लेख होता है। अच्छा है एक ही बार समझ लिया तो उसको लागू कर सकते हैं अलग-अलग परिस्थिति में, या संदर्भ में, एक मैं अज हूं अजन्मा हूं अब यही आत्मा ऐसा होते हुए भी भूतानामीश्र्वरोऽपि और सभी जीवो का मैं ईश्वर हूं। देखिए यह क्या-क्या कृष्ण कह रहे हैं। अब बहुत बार कृष्ण को कहने की आवश्यकता नहीं कृष्ण ने कहा भूतानामीश्र्वरोऽपि तो हम हैं भूत या जीव और हमारे ईश्वर हैं कृष्ण, परमेश्वर हैं। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया, फिर मैं क्या करता हूं सम्भवाम्यात्ममायया , शुरुआत में कहा मैं अज अजन्मा अव्ययी आत्मा होते हुए भी और भूतों का ईश्वर भी हूं। क्या करता हूं संभवामि, भव मतलब होना हरि हरि ! बिल्व मंगल ठाकुर उठो, सोये हो खोया कि नहीं दिस इज़ द प्रॉब्लम संभवामि भव् मतलब होना, भवामि मतलब होता हूं और संभव मतलब सम्यक प्रकार से मैं होता हूं प्रकट होता हूं। कैसे? आत्ममायया, माया मतलब माया, मायया जब आता है तो माया के द्वारा, माया, से मैं क्या करता हूं आत्ममायया या मेरी माया से मतलब यहां योग माया समझना होगा वैसे दूसरी माया भी उन्हीं की है। माया के दो प्रकार हैं एक योग माया और दूसरी है महामाया , हमारे जो जन्म होते हैं संसार में हमारे हैं या आपके हैं सब के कैसे होते हैं महामाया, महामाया हमको अलग-अलग जन्म देती है लेकिन भगवान का जो जन्म है वह कैसे होता है सम्भवाम्यात्ममायया मेरी माया से, खुद की माया से, मतलब लगभग स्वेच्छा से ही अपनी इच्छा से ही, मैं जबर्दस्ती नहीं मुझ पर कोई थोपा नहीं जाता यह जन्म, *दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया | मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 7.14) अनुवाद- प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है | किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं | वह माया दूसरी है इसको लांघना कठिन है इत्यादि इत्यादि , वैसे तो दोनों ही माया कृष्ण की ही है लेकिन यहां जिस माया का उल्लेख कर रहे हैं सम्भवाम्यात्ममायया अपनी माया से अपनी योग माया से मैं प्रकट होता हूं। इतना कहकर अब कृष्ण ने कहा कि मैं कैसे प्रकट होता हूं कि मैं कैसे जन्म लेता हूं अब कृष्ण कहेंगे अगले श्लोक में वेरी फेमस वर्स चौथा अध्याय चल रहा है याद रखिए और सातवां श्लोक चल रहा है। *यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत | अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 4.7) अनुवाद- हे भरतवंशी! जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब तब मैं अवतार लेता हूँ | अधिकतर हिंदुओं को कुछ ही श्लोक पता होते हैं उनमें से यह एक श्लोक है। इसमें भी कृष्ण कहेंगे पहले तो कहा कि मैं कैसे प्रकट होता हूं सम्भवाम्यात्ममायया अब वह कह रहे हैं कि मैं कब प्रकट होता हूं। मैं कब अवतार लेता हूं, आगे कहने वाले हैं मेरे जन्म को अवतार कहते हैं। सातवें श्लोक में कहते हैं कब-कब में जन्म लेता हूं इसीलिए कह रहे हैं यदा यदा मतलब जब जब कदा कदा यह अंत में दा है मतलब इस समय का उल्लेख होता है। काल का उल्लेख होता है तब दा होता है दूसरा धा होता है दुरविधा धा अलग है और यह द है एकदा ,यदा कदा, तदा सर्वदा, "यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत" और यह भारत कौन है? अर्जुन है। अभी अभी कहा था अर्जुन को परंतप और अभी भारत कह रहे हैं। आपको बताया था थोड़ा होमवर्क कीजिए और अर्जुन के जितने भी नाम हैं संबोधन हैं उनकी सूची बनाइए। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् श्रील प्रभुपाद ने भाषांतर में लिखा है। हे भारतवंशी ! जब भी और जहां भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है तब तब मैं अवतार लेता हूं। यदा यदा ही धर्मस्य, ग्लानि मतलब धर्म की होती है ग्लानि और फिर धर्म का ह्रास हुआ, धर्म घट गया और साथ में क्या हुआ था अभ्युत्थानमधर्मस्य ग्लानि, ऐसे शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं कृष्ण और अधर्मस्य उत्थान समझ में आ रहा है धर्म की होती है ग्लानि और अधर्म का होता है उत्थान अधर्म फैलता है। अधर्म का बोलबाला होता है। जब एक ही साथ यह दोनों परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं तब यदा यदा तथा तथा , सृजाम्यहम् पहले उन्होंने कहा था संभवामि और अब कह रहे हैं सृजाम्यहम् एक ही बात है संभवामि सृजाम्यहम् प्रकट होता हूं। मैं अवतार लेता हूं और इतना कहते हुए मुझे अब अपनी वाणी को विराम देना ही होगा। *परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।।* (श्रीमद्भगवद्गीता 4.8) अनुवाद- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ | *परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्* यह दोनो श्लोक साथ में रहते हैं। यदा यदा ही धर्मस्य सातवां श्लोक और आठवा श्लोक परित्राणाय साधुनाम, छठवे श्लोक में कहा कि मैं कैसे प्रकट होता हूं। सातवें श्लोक में कहा कि मैं कब प्रकट होता हूं। अब कृष्ण कहेंगे कि मैं क्यों प्रकट होता हूं या प्रकट होकर मैं क्या करता हूं। क्या करने के लिए किस उद्देश्य से तो परित्राणाय साधुनाम, साधुओं की रक्षा दुष्टों का संहार और धर्मसंस्थापनार्थाय धर्म की स्थापना के लिए, संभवामि मैं प्रकट होता हूं बारंबार हर युग में, तुम जो पूछ रहे थे मुझे यह मैं कैसे समझ सकता हूं कि आपने इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्, कभी बहुत पहले यह ज्ञान विवस्वान को दिया था मैं कैसे समझ सकता हूं। आपका जन्म अभी-अभी हुआ है आप ऐसा पूछ रहे थे और जो ऐसा पूछ रहे थे इसका स्पष्टीकरण कृष्ण दे रहे हैं नहीं नहीं मैं अभी भी हूं लेकिन पहले भी था और बारंबार में प्रकट होता हूं और वैसे तुम भी प्रकट होते हो लेकिन तुम तो भूल गए हो मैं नहीं भूलता ठीक है, अब तो याद रखिए आप। निताई गौर प्रेमानंदे ! हरि हरि बोल !

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