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जप चर्चा,
12 फरवरी 2021,
पंढरपुर धाम.
ओम नमो भगवते वासुदेवाय श्रीमद्भागवत से कल कहीं हुई बातों को आगे बढ़ाएंगे, सुनाएंगे। ऐसी बात कही थी मैंने और फिर कहा भी, ओम नमो भगवते वासुदेवाय वैसे कहते रहना चाहिए, ओम नमो भगवते वासुदेवाय। वासुदेव को नमस्कार या कृष्ण को नमस्कार, बारंबार प्रणाम है। यही जीवन है प्रणाममय जीवन।
श्रील शुकदेव गोस्वामी की जय! शुकदेव गोस्वामी पधार चुके हैं गंगा के तट पर, हस्तिनापुर के बाहर। हस्तिनापुर जो उनकी राजधानी रही, वह सम्राट रहे राजा परीक्षित। राजा परीक्षित भी स्वयं ही वहां पधार चुके हैं। केवल राजा परीक्षित ही नहीं कई सारे ब्रह्मर्षि, राजर्षि, देवर्षि वहां पहुंचे हैं। और जब विचारविमर्श रहा था कि अब क्या करना चाहिए राजा परीक्षित को। मृयमानष्यः अभी जो मरने ही वाले हैं 7 दिनों में। राजा परीक्षित को क्या करना चाहिए? यह समय कैसे बिताना चाहिए? इस पर जब विचारविमर्श ही नहीं हो रहा था वादविवाद भी चल रहा था। कई प्रस्ताव रखे जा रहे थे। इतने में वहां पहुंच गए, यहां मैं जब कह रहा हूं पहुंच गए, तो मुझे विचार आ रहा था कि पहुंचाए गए शुकदेव गोस्वामी को। भगवान ने ऐसे व्यवस्था की उस स्थल पर शुकदेव गोस्वामी को पहुंचाए भगवान। जैसे ही दृष्टिपथ में आ गए शुकदेव गोस्वामी वहां पधार रहे हैं।
वहां के सभी उपस्थित जन, राजा परीक्षित भी राजा परीक्षित कौन होते हैं शुकदेव गोस्वामी के समक्ष, वे सभी के सभी खड़े हो गए शुकदेव गोस्वामी की अगवानी करने। शुकदेव गोस्वामी का स्वागत, सत्कार, सम्मान करने हेतु वे सभी उठ गए। हरि हरि, ऐसा सत्कार, सम्मान करने वालों में अग्रगण्य कौन हैं? सम्राट परीक्षित। और संसार भर के राजनेता भी हैं। ब्रह्मर्षि, राजर्षि, श्रील व्यासदेव भी है। नारदमुनि भी वहां है। सूत गोस्वामी भी वहां थे। यह सारे महानुभाव शुकदेव गोस्वामी के सत्कार, सम्मान हेतु जब खड़े हो गए। और यह जब हस्तिनापुर के जनता ने देखा, हस्तिनापुर के कुछ जन, कुछ नर, कुछ नारियां, कुछ बच्चे शुकदेव गोस्वामी के पीछे पीछे आ रहे हैं। हंसी मजाक हो रहा था सुखदेव गोस्वामी को देखकर। कोई शिखा खींच रहा था। ऊपर से कोई माताएं कचरा फेंक रहे हैं। कोई थूक रहा है। शुकदेव गोस्वामी को वह नहीं समझ पा रहे थे।
वैष्णवेर क्रियामद्रा विग्ये न भुजाय वैष्णव को और उसमें भी शुकदेव गोस्वामी महावैष्णव महाभागवत उनको कौन समझ सकता है। उनकी क्रिया को, उनकी मुद्रा को और फिर भाव का तो कहना ही क्या। वह तो सभी समय ए पागल कहीं का, बाल भी नहीं बनाए, वस्त्र भी नहीं पहना है और यहां जड़वाद है कोई बाह्य ज्ञान भी नहीं है इसको। अपने में मस्त हैं। कभी हंसता है तो कभी रोता है। कभी स्तंभित होते हैं। कभी उनका गला गदगद हो उठता है। ऐसे श्रील शुकदेव गोस्वामी महाभागवत जो वहां पधारे हैं। उस सभा स्थल पर जहां ऐसे शुकदेव गोस्वामी का जिनको समझे नहीं थे। समझ नहीं रहे थे कुछ हस्तिनापुर के जन। उन्होंने जब देखा कौन-कौन और किस तरह से स्वागत कर रहे हैंऋ उनको अचरज हुआ वे अचंभित रह गए। बाप रे बाप हम को कहां पता था, ऐसे सम्मानीय महाभागवत शुकदेव गोस्वामी है। बेचारे वह लोग शर्मिंदा होकर अपना सर झुका कर वहां से प्रस्थान कर दिए। उस समय श्रील व्यासदेव आसन ग्रहण कर चुके हैं। और सभी उपस्थित जन महाजन उन्होंने अपने-अपने स्थान ग्रहण कर लिए हैं। तब राजा परीक्षित ने इन शब्दों में उनकी स्तुति और स्वागत किया। और यहां प्रथम स्कंध के 19 वां अध्याय अंतिम अध्याय में राजा परीक्षित में इस प्रकार कहां। परीक्षित उवाच
येषां सस्मरणात् पुंंसां सद्यः शुध्दयन्ति वै गृहाः।
किं पुर्नदर्शनस्पर्शपादशोचसानादिभिः।।
( श्रीमद भागवतम 1.19.33)
अनुवाद आप केवल स्मरण मात्र से ही हमारे घर उसी क्षण पवित्र हो जाते हैं। तो फिर आपके दर्शन से, आपका स्पर्श करने से, आपके पवित्र चरणों की सेवा करने से और आपको बैठने के लिए आसन देने से क्या क्या हो सकता है!
इसको हम संक्षिप्त में कहेंगे कि, राजा परीक्षित ने क्या कहा। उन्होंने कहा कि जिनके के संस्मरण मात्र से मतलब शुकदेव गोस्वामी जैसे महानुभव के महाभागवतके संस्मरण से। येषां सस्मरणात् सद्यः शुध्दयन्ति वै गृहाः सद्यः मतलब तत्क्षण शुध्दयन्ति मतलब शुद्ध होते हैं। पवित्र होते हैं। गृहाः जो गृही है गृृहस्थ या वैसे कोई भी है जो भी है वह स्मरण करेंगे शुकदेव गोस्वामी का येषां सस्मरणात् शुध्दयन्ति शुद्ध होंगे। सद्यः तुरंत तत्क्षण ऐसे शुकदेव गोस्वामी महाराज की जय! और फिर आगे उन्होंने कहा शुकदेव गोस्वामी संस्मरणात् हरि हरि, सम्वित स्मरण फिर यह भी कहना आता है कि, शुकदेव गोस्वामी का स्मरण किया। और फिर उन्होंने कहीं भी भागवत की कथा का स्मरण नहीं किया। तो फिर वहां संस्मरण नहीं हुआ। भागवत कथा का ही संस्मरण है या फिर इनका संस्मरण ही हमें भगवान का है संस्मरण दिलाता है। और यहां भक्तों का वैशिष्ट्य भी होता है। भक्तों का दर्शन करो। भक्तों का स्मरण करो। तो ही भगवान का स्मरण दिलाते हैं। ऐसे श्रील शुकदेव गोस्वामी जैसे महान भक्तों का संस्मरण हमारे शुद्धि का कारण बनता है। राजा परीक्षित आगे कहा किंं पुनः संस्मरण मात्र से शुद्धि हैं तो फिर किंं क्या कहना। किसका क्या कहना, पुर्नदर्शन फिर अगर उनके दर्शन ही हो जाए। और फिर स्पर्श भी। हम उनके चरणों का स्पर्श भी कर सकते हैं, तो फिर किंं क्या कहना। पादशौच पाद प्रक्षालन का अवसर प्राप्त हो। और उनके चरणों का जल, चरण धोए उनके तो चरणामृत ही कहो। जब हम छिड़काएंगे अपने सिर के ऊपर और फिर उसका पान करेंगे तो फिर शुद्धि का क्या कहना।
आसनादिविही और अगर ऐसे महात्मा को हम बैठने के लिए आसन दे सकते हैं। आदि विही हम फिर उनका माल्यार्पण करेंगे। और फिर और सेवा करेंगे। जलपान होगा। भोजन खिलाएंगे और अंगसंग प्राप्त होगा। और फिर उनकेे मुख से कथा भी सुन सकते हैं। भगवान की कथा भी सुन सकतेे हैं तो फिर क्या कहना। किंं पुनः राजा परीक्षित कह रहे हैं संस्मरण मात्र से ही शुद्धि है तो फिर दर्शन स्पर्श और पादसेवन। आसनादिविही तो फिर आसन आदि भी से और कितनी शुद्धि होगी। हमारे कल्पना से परे हैं ऐसा ही भाव या विचार राजा परीक्षित का है। तो वे शुकदेव गोस्वामी अब भागवत कथा प्रारंभ कर रहे हैं। उसके पहले प्रश्न पूछा कल आपको बताया था राजा परीक्षित ने पूछा हुआ प्रश्न और वह प्रश्न भी सम प्रश्न है। इस प्रश्न का वह स्वागत भी किए हैं वरीयानेष ते प्रश्न: शुकदेव गोस्वामी ने उस प्रश्न को सुनते ही क्या कहा हां बढ़िया प्रश्न है। बढ़िया वरीयानेष ते प्रश्न: तुमने जो प्रश्न पूछा है वह उत्तम प्रश्न है उसका स्वागत है। हरि हरि। हर चीज की व्याख्या हो जाती है तो वह प्रश्न था। अत: पृच्छामि संसिद्धिं योगिनां परमं गुरुम् योगियों के परम गुरु या योगियों में गुरु शुकदेव गोस्वामी महाराज मेरा प्रश्न है, पुरुषस्येह यत्कार्यं म्रियमाणस्य सर्वथा कहिए तो सही इस संसार में पुरुष का और कैसे पुरुष म्रियमाणस्य जो मरने जा रहा है जिसकी मृत्यु निश्चित है, यत्कार्यं उसको क्या कार्य करना चाहिए? यच्छ्रोतव्यमथो जप्यं यत्कर्तव्यं नृभि: प्रभो और इस प्रश्न को थोड़ा विस्तार से भी राजा परीक्षित कह रहे हैं।
यह भी कहिए कि यच्छ्रोतव्यम उस व्यक्ति को क्या सुनना चाहिए? कैसा जप या किस मंत्र का जप करना चाहिए? स्मर्तव्यं किस का स्मरण करना चाहिए? भजनीयं किस का भजन आराधना करनी चाहिए? वा ब्रूहि यद्वा विपर्ययम् तो इसके संबंध मे जो भी विधि है वह तो सुनाओ गे ही सुनाइए और निषेध की बात भी। इसकी आराधना करनी है इसकी नहीं करनी है। यह जप का मंत्र सही है यह सही नहीं है इस प्रकार विधि और निषेध कहिए। इसी से वैसे शास्त्र पूर्ण होते हैं केवल विधि ही नहीं निषेध भी होता है। निषेध का ज्ञान भी अनिवार्य है, इसको हम डुज एंड डोंट्स (do's and don'ts ) भी कहते हैंं। इतना ही प्रश्न पूछा तो इस प्रश्न का उत्तर सात दिवस देतेेे रहे। अब कुछ ही क्षण शेष है अब तो उन क्षणों में इस कथा के अंतिम दिन का अंतिम समय है और राजा परीक्षित का अंत भी निकट, निकटतर, निकटतम पहुंच रहा है। तब शुकदेव गोस्वामी जो बात कहे थे कहे होंगे वह निश्चित ही निष्कर्ष मेंं जो बात कह रहेेे हैं वह महत्वपूर्ण होगी या अब तक कही हुई बातों का सार या निचोड़ ही होगा। वैसे कई बाते हैं तो यह द्वादश स्कंध के तृतीय अध्याय की बात चल रही हैै।इस द्वादश स्कंध के तृतीय अध्याय के अंत में वैसे कली का आगमन कली केेे लक्षणों का वर्णन किए हैं। और उसके उपरांत अब वह कह रहेेे हैं पुंसां कलिकृतान् दोषान् कली के जो दोष है कली के लक्षणों का वर्णन किए हैं, उल्लेख किया है। और सावधान कहे हैं, ऐसा है कली सावधान। तो यह जो दोष है कली के जो दोष है, कली की जो बुराई है,
सर्वान् हरति चित्तस्थो भगवान् पुरुषोत्तम: यह शुकदेव गोस्वामी कह रहे हैं। भगवान हर लेंगे यह कली के जो दोष है, यह तुम्हारे विचारोंं में, तुम्हारे भावनाओं मे जो घुल मिल चुके हैं भगवान उनको अलग करेंगे। उन विचारों को, उन भावो को, दुष्ट प्रवृत्ति को, वैसी वासनाओं को। भगवान् पुरुषोत्तम: कैसे हैं भगवान पुरुषोत्तम:। चित्तस्थो तुम्हारे चित्त में स्थित हुए भगवान उन सारे दोषों को हर लेंगे। इसको चेतो दर्पण मार्जनम परम विजयते श्रीकृष्ण संकीर्तनम भी कहतेेेे हैं। हरि नाम ही क्या करेगा चित्त मे कृष्ण भावना भावित होंगेेे, कृष्ण की स्थापना की, कृष्ण के नाम की, हरे कृष्ण मंत्र की स्थापना की तुमने अपने चित्त मे। इसी के साथ चेतो दर्पण मार्जनम चैतन्य महाप्रभु के शब्दों में, और यहां शुकदेव गोस्वामी के शब्दों में सर्वान् हरति कलिकृतान् दोषान् सर्वान् हरति कलयुग के सभी दोष जो है उनको हर लेंगे। भगवान हरि जो हरते हैं, इसीलिए भगवान का एक नाम हरि है। और फिर शुकदेव गोस्वामी आगे कह रहेेे है मुझे.. रुकना
भी है कुछ मिनटों में। तो यहां पर यह जो कलेर्दोषनिधे राजन शुकदेव गोस्वामी कह रहे हैं। उन्होंने ही कली के दोषों का सारा वर्णन करने के उपरांत शुकदेव गोस्वामी कह रहेेे हैं कलेर्दोषनिधे यह कलयुग तो दोषों का खजाना है, भंडार है। हर एक दुर्गुणों से दोषों से पूर्ण है यह कलयुग, कलि का काल। अस्ति ह्येको महान् गुण: किंतु एक महान गुण हैै। वह कौन सा कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत् देखिए यह भागवत धर्म हैैै। श्रीमद्भागवत में महा भागवत शुकदेव गोस्वामी यह भागवत धर्म का प्रवचन जो सुना रहे हैं। तो यह धर्म कलि कालेर धर्म हरि नाम संकीर्तन इस बात को शुकदेव गोस्वामी समझा रहे हैं राजा परीक्षित को। कलयुग के प्रारंभ में तो कीर्तनादेव कृष्णस्य बस कृष्ण का कीर्तन मुक्तसङ्ग: व्यक्ति संग से मतलब असत्संग से मुक्त होगा। असत् संग त्यागात एइ वैष्णव आचार ऐसा आदेश उपदेश होता हैै। असत् संग त्यागो जो असत् संग को त्यागता है यही है पहचान वैष्णव की। संग त्यागात वैष्णव आचार तो शुकदेव गोस्वामी वही कह रहेेे हैं। लेकिन असत् संग को त्यागेंगे कैसे कीर्तनादेव कृष्णस्य कृष्ण का कीर्तन करेंगेे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
तो समय तो हो गया, लेकिन केवल एक छोटी सी बात। बात तो वैसे मोटी है लेकिन कुछ चंद शब्दों में हम कहेंगे। यहां हमारे आचार्यों ने कमेंट्री में कहां है जैसे समाज में या देश में जो समाज कंटक होते हैं जिससे कांटा चुभता है। ऐसे जन या ऐसे लोग ऐसे कई लोग भी हो सकते हैं तो उन सबको केवल एक राजा ही क्या करता है उनका विरोध करता है या जो भी उनको दंडित करते हैं, गिरफ्तार करते हैं, अपने कारागार में डाल सकते हैं, यहां तक कि उनको फांसी दे सकते हैं। जैसे एक राजा अनेक दोषी लोगों को दंडित करता है और उन को दंडित करके वैसे समाज को मुक्त करता है, उनके कष्टों से या परेशानियों से। एक राजा अनेकों को संभालता है अनेक दोषी व्यक्ति योंको विनाशायच दुशकृताम विनाश करता है, दुष्टों का संहार करते हैं। भगवान भी करते हैं जब जब भगवान अवतार लेते हैं और राजा भगवान का प्रतिनिधि होता है। भगवान का ही कार्य राजा आगे बढ़ाते हैं। वे धर्म की स्थापना करते हैं और वे भी परित्राणाय साधुनाम करना यह भी राजा का कर्तव्य होता हैं, क्षत्रियों का कर्तव्य होता है। और विनाशायच दुशकृताम दुष्टों का संहार करना उसी के साथ धर्म की स्थापना करना यह क्षत्रियों का धर्म होता है। इसलिए कभी-कभी धर्म युद्ध खेलते हैं और धर्म की स्थापना करते हैं। तो वैसे ही यहां कली के दोष अनेक है, तो अनेक दोषों को संभालता है हरि का नाम संभालता है या उसका विनाश करता है। कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुण: तो इस पर भाष्य लिखे हैं हमारे आचार्य वृंद। कलेर्दोषनिधे कली के दोष ही दोष है कई अनेक दोष है लेकिन हरिनाम फिर एक है। दोष अनेक है हरी नाम एक हैं। हरेर नामैंव केवलम तो यह हरि नाम जो स्वयं भगवान ही है वह क्या करेंगे मुक्तसङ्ग: परं व्रजेत् संसार के लोगों को, संसार को मुक्त करेंगे या बचाएंगे रक्षा करेंगे उन दोषों से, उन दोषी जनों से। ठीक है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
तो इस प्रकार कलयुग के धर्म की स्थापना और कलयुग का धर्म कौन सा है यह बात भी शुकदेव गोस्वामी यहां भागवत कथा के निष्कर्ष में कहे हैं।
निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।