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जप चर्चा दिनांक २५ नवम्बर २०२० हरे कृष्ण!

गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! आज 728 स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं। हरि बोल!

आप कहाँ हो? घर में बैठे हो या परिक्रमा में पहुंच गए। परिक्रमा तो प्रारंभ हो गयी है। हरि! हरि! ब्रज मण्डल की जय! आजकल जपा टॉक में हमारे यही टॉपिक( विषय) चल रहे हैं। ब्रज मंडल परिक्रमा या ब्रज मंडल विषय या राधा कृष्ण विषय या राधा कृष्ण के नाम का विषय कहो या रूप अथवा गुण अथवा लीला का विषय कहो। धाम का विषय तो है ही। ब्रज मंडल वृंदावन धाम की जय! हरि! हरि!

हम परिक्रमा में ज्वाइन भी करते हैं ताकि हम इन टॉपिक्स के विषय में सुन सके।

श्रीराधिका-माधवयोर्‌अपार- माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम् प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥5॥ ( श्री श्री गुर्वाष्टक)

अर्थ:- श्रीगुरुदेव श्रीराधा-माधव के अनन्त गुण, रूप तथा मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ।

हमारे पूर्ववर्ती आचार्य भी ऐसा करते रहे हैं इसीलिए वे प्रसिद्ध हैं। श्रीराधिका-माधवयोर्‌अपार- श्री राधा माधव की माधुर्य, अपार, अनन्त लीला। वह भी माधुर्य लीला है। श्रीराधिका-माधवयोर्‌अपार - श्री वृंदावन में केवल सिर्फ माधुर्य लीला ही संपन्न होती है या माधुर्य लीला का प्राधान्य है। माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम् अर्थात माधुर्य-लीला के गुणों का वर्णन, सौंदर्य का वर्णन प्रसिद्ध है। कोई तुलना ही नहीं है। श्रीराम भी, श्री कृष्ण की बराबरी नहीं कर सकते हैं। हम उनके सौंदर्य की बात करते हैं। 'गुण-रूप-नाम्नाम्' - नाम तो है ही।

कृष्ण जिनका नाम है, गोकुल जिनका धाम है।

तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते तुण्डावली - लब्धये कर्ण - क्रोड - कड़म्बिनी घटयते कर्णार्बुदेभ्यः स्पृहाम् । चेत : -प्राङ्गण - सङ्गिनी विजयते सर्वेन्द्रियाणां कृति नो जाने जनिता कियद्भिरमृतैः कृष्णेति वर्ण - द्वयी ॥९९ ॥

अनुवाद " मैं नहीं जानता हूँ कि कृष् - ण ' के दो अक्षरों ने कितना अमृत उत्पन्न किया है । जब कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण किया जाता है , तो यह मुख के भीतर नृत्य करता प्रतीत होता है । तब हमें अनेकानेक मुखों की इच्छा होने लगती है। जब वही नाम कानों के छिद्रों में प्रविष्ट होता है , तो हमारी इच्छा करोड़ों कानों के लिए होने लगती है। और जब यह नाम हृदय के आँगन में नृत्य करता है , तब यह मन की गतिविधियों को जीत लेता है , जिससे सारी इन्द्रियाँ जड़ हो जाती हैं । "

रूप गोस्वामी कहते हैं नो जाने जनिता कियद्भिरमृतैः कृष्णेति वर्ण - द्वयी अर्थात यह नाम ना जाने कितना सारे अमृत से युक्त है। वर्ण - द्वयी कृष् एक वर्ण हुआ और ण् दूसरा वर्ण हुआ। कृष्णेति वर्ण - द्वयी। हरि! हरि!

ब्रज मंडल परिक्रमा में यही चर्चाएं होती हैं। हम इस चर्चा के श्रवण के लिए ही परिक्रमा करते हैं। परिक्रमा का मुख्य उद्देश्य यही है कि हम यहां पहुंच गए, वहां पहुंच गए, वहां पहुंच गए,... वहां भगवान् की लीला कथा का श्रवण करो। भगवान ने वहाँ कुछ विशेष गुणों का दर्शन प्रदर्शन किया है, उसको सुनो।

'केशी घाट' पर नहीं जाना। यदि गए तो वहां कृष्ण का दर्शन नहीं करना। वैसे आपकी मर्जी है, आप कर सकते हो लेकिन यदि कृष्ण का दर्शन करोगे तो फिर सारा संसार आपके लिए समाप्त हो जाएगा। सारे संसार को खो बैठोगे। आप परिक्रमा में आए हो लेकिन यदि आपने कृष्ण का दर्शन केशी घाट पर किया या यहां किया या वहां किया, तब आप दिल्ली नहीं लौट पाओगे और ना ही नागपुर लौटने या कहीं आने जाने अथवा लौटने का विचार नहीं होगा। यदि ऐसा विचार चाहते हो तब आप ब्रज मंडल में जरूर जाओ और भगवान का दर्शन जी भर कर करो।

परिक्रमा का उद्देश्य श्रवण कीर्तन है। श्रवण कीर्तन का उद्देश्य विष्णु स्मरण है।

श्रीप्रह्लाद उवाच श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥२३ ॥ इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥२४ ॥ अनुवाद:-

प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज - सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना , उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) -शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।

केवल स्मरण ही नहीं अपितु भगवान का दर्शन करना भी उद्देश्य है। हम परिक्रमा में जा रहे हैं क्योंकि हम भगवान से मिलना चाहते हैं। भगवान का दर्शन करना चाहते हैं। कहां मिलेंगे? कहां मिलेंगे? हम इस उद्देश्य और इस आशा के साथ वनात वनम अर्थात एक वन से दूसरे वन, दूसरे वन से तीसरे वन... जैसे गोपियां खोज रही थी, उसी भाव के साथ हम रागानुग भक्ति करते हैं। हम रागानुग भक्ति का अवलंबन करते हैं। जब हम ब्रज मंडल परिक्रमा में जाते हैं और श्रवण करते हैं। तब हम श्रवण के साथ स्मरण और दर्शन करना चाहते हैं, तब यही रागानुग भक्ति भी है। हम कल माट में थे। कल रात्रि पड़ाव का स्थान माट था। जहां पर मिट्टी के पात्र बनाए जाते हैं। वह स्थान माट कहलाता है। भांडीरवन में माट है। वहां बने हुए मिट्टी के पात्रों को सारे ब्रज में एक्सपोर्ट या बिक्री अथवा वितरण करते होंगे अथवा फैलाते होंगे।

ब्रजवासी का जीवन बड़ा सादा जीवन नैसर्गिक जीवन होता है। नैसर्गिक जो उत्पादन है अर्थात पात्र अथवा बर्तन अथवा घड़े हैं, उसका बहुत उपयोग होता है। बृजवासी उसका बहुत उपयोग करते थे और आज भी उसका प्रयोग नित्य लीला में करते हैं। हम भी जब गांव में जन्मे थे। हमनें भी गांव में मिट्टी के बर्तनों का उपयोग किया। मिट्टी के बर्तनों में भोजन पकता था। मिट्टी के बर्तनों में बने भोजन की तुलना अन्य पात्रों में बने हुए भोजन से नहीं की जा सकती। जगन्नाथ पुरी में जगन्नाथ जी का भोजन इतना सारा बनता है, वह मिट्टी के बर्तनों में ही बनता है। इस प्रकार ब्रज वासियों का सिंपल लिविंग, नेचुरल लिविंग प्रकृति पर निर्भर रहा करते थे। इसलिए उनका जीवन स्वस्थ भी रहता था।

यदि हम ब्रज मंडल परिक्रमा में जा रहे हैं, हमें यह भी सीखना होगा। ब्रज वासियों का स्वभाविक नैसर्गिक जीवन है, वे सीधे सादे भोले भाले ब्रजवासी हैं। हम तो चालू लोग हैं। हम कब भोले भाले बनेगें। गोपियां भोली भाली व सरल हैं। वहां के गुणों से प्रभावित होकर भक्तों के स्वभाव के संबंध में सुनकर हम प्रभावित होना होगा। हमें संकल्प लेना चाहिए कि मैं यह करूंगा, यह नहीं करूंगा, मेरा स्पेशली सिंपल लिविंग होगा हाई थिंकिंग होगा। माट में सादा जीवन की भी कुछ शिक्षा मिलती है। ओके। हमने वह पाठ पढ़ लिया, सीख लिया। आशा है कि आप कुछ सीखे अथवा समझे हो। कोई संकल्प भी किया होगा। आगे बढ़ते हैं,आज प्रातः काल माट से परिक्रमा प्रारंभ हुई। आज वैसे परिक्रमा माट से मानसरोवर तक जाएगी। रास्ते में हम रुकेंगे या मान लो कि हम पहुंच गए हैं।

हम लगभग 7:00 बजे दूसरे स्थान बेलवन पहुंच ही जाते हैं। हमनें एक नए वन में भी प्रवेश किया। हम भांडीरवन अथवा भद्र वन में थे। यमुना को पार किया।भद्र बन में थे, भद्र वन से भांडीरवन में हम पहुंचे और आज प्रातः काल बेलवन में आ गए। यह दसवां वन है। इस वन को श्रीवन भी कहते हैं। वैसे कठिन भी होता है। एक वन समाप्त हुआ, दूसरा वन प्रारंभ हुआ। विधि के अनुसार हम नए वन में प्रवेश करते समय पिछले वन को प्रणाम करते हैं और फिर विनम्र भाव के साथ नए वन में प्रवेश करते हैं।

मायापुर में, नवद्वीप के रुद्रद्वीप में एक बेलपुकुर नाम का स्थान है।

पुकुर मतलब सरोवर या तालाब। पुकुर एक बंगला शब्द है। पुकुर कई सारे पुकुर होते हैं। वहाँ बेलपुकुर नाम का स्थान है। वह बेलपुकुर वृंदावन का बेलवन है क्योंकि वृंदावन और मायापुर दो अलग धाम नहीं है। यह एक ही है, इन दोनों धामों में काफी समानता है। वृंदावन का बेलवन मायापुर , नवद्वीप का बेलपुकुर। अन्य भी कई सारे संबंध है। यह वृंदावन की स्थली और वृंदावन का गोकुल, मायापुर का योगपीठ है। मथुरा, वृंदावन की नवद्वीप में चांद कांजी की समाधी जहाँ है। हरि! हरि!

बेलपुकुर अथवा बेलवन में भगवान् बेल के फल के साथ खेलते भी थे। वे बेल को ही गेंद बनाते और अपने मित्रों के साथ खेलते थे। हरि! हरि! वे बेल को खाते भी होंगे। बेल जूस बड़ा लाभदायक होता है। हरि हरि! बेल के पत्तों का उपयोग शिवजी की अर्चना में होता है। जैसे तुलसी, कृष्ण या विष्णुतत्वों के चरणों में अर्पित की जाती है। वैसे ही बेल को शिवजी के चरणों या शिवजी की सेवा अथवा अर्चना में अर्पित करते हैं। लेकिन महत्वपूर्ण बात इस बेलवन की है। इस बेलवन को श्रीवन भी कहते हैं अर्थात बेलवन का दूसरा नाम श्रीवन भी है। यह श्री अथवा लक्ष्मी का वन है। यहाँ लक्ष्मी बहुत समय से तपस्या

कर रही है। हम 34 वर्षों से परिक्रमा आ-जा ही रहे हैं, तब से हम देख ही रहे हैं इतना ही नहीं जब ५०० वर्ष पूर्व चैतन्य महाप्रभु परिक्रमा में गए तब परिक्रमा करने के पहले ही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस बेलवन की लीला कथा वैंकट भट्ट के साथ कर रहे थे। वैंकट भट्ट, जो गोपाल भट्ट गोस्वामी के पिताश्री थे, उनके साथ श्री चैतन्य महाप्रभु श्रीवन की चर्चा कर रहे थे। लक्ष्मी नित्य ही इस वन में इस आशा में उनकी तपस्या कर रही हैं कि उनका भी माधुर्य लीला अथवा रास क्रीड़ा में प्रवेश हो लेकिन वह सफल नहीं हो पा रही हैं। श्री रंगम में चैतन्य महाप्रभु ने वैंकट भट्ट के साथ इसकी चर्चा की।

आप चैतन्य चरितामृत में पढ़िएगा, यह बड़ा मधुर संवाद है और इसमें गहरा तत्व भी छिपा हुआ है। यदि आप उसको पढ़ोगे, उस गोपनीय तत्व के रहस्य का उदघाटन होगा। संक्षिप्त में हम इतना ही कह सकते हैं, यह आपके लिए होमवर्क है। आप इसे चैतन्य चरितामृत की मध्य लीला के 7 या 8 वें अध्याय में पढ़ सकते हो। चैतन्य महाप्रभु की दक्षिण भारत की यात्रा नामक एक बड़ा अध्याय है। चैतन्य महाप्रभु जब श्रीरंगम में थे, वहाँ का वर्णन आप पढ़िएगा। आप नोट करो और उसे पढ़ो, इन बातों को थोड़ा समझो। हमें केवल तत्वों को समझना है। लीला तो सुन ली

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः | त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन || (श्रीमद भगवद्गीता 4.9)

अनुवाद: हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है।

भगवान् कहते हैं कि मेरे जन्म की लीला, कर्म और लीलाओं को तत्त्वत: जानना चाहिए। तत्त्वत: जानने वाले ही लीला को तत्त्वत: जानना है। फिर उसका फल है

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन अर्थात भगवद्धाम लौटेंगे। भगवत प्राप्ति होगी। यही हमारे आचार्य सिखाते हैं वे तत्व, सिद्धान्त ,भक्ति सिद्धान्त या भक्ति वेदान्त सिखाते हैं। संक्षिप्त में सबक, सीख अथवा तत्व यह है। लक्ष्मी तपस्या तो कर रही हैं किंतु उनको कृष्ण प्राप्ति नहीं हो रही है। उनको भगवान की माधुर्य लीलाओं में रास क्रीड़ा में प्रवेश प्राप्त नहीं हो रहा है। लक्ष्मी क्या गलती कर रही हैं? अर्थात उनका क्या कसूर है? उनकी साधना अथवा तपस्या में क्या त्रुटि रह रही है?

चैतन्य महाप्रभु और वैंकट भट्ट के संवाद में आप पढ़ोगे, चैतन्य महाप्रभु समझाते हैं कि वह सेवा नही करती। हे राधाकृष्ण, मुझे सेवा अधिकारी दीजिये और मुझे अपनी सेविका बनाएं।

एइ निवेदन धर, सखीर अनुगत कर। सेवा-अधिकार दिये कर निज दासी।। ( तुलसी वंदना)

अर्थ:-आपके चरणों में मेरा यही निवेदन है कि मुझे किसी ब्रजगोपी की अनुचरी बना दीजिए तथा सेवा का अधिकार देकर मुझे आपकी निज दासी बनने का अवसर दीजिए।

जब हम प्रतिदिन तुलसी आरती गाते हैं, आप गाते हो या नहीं? गाना चाहिए। तुलसी की आरती करनी चाहिए। श्रील प्रभुपाद ने गौड़ीय वैष्णव परम्परा में हमें यह सिखाया की तुलसी की आराधना अथवा अर्चना अनिवार्य है। जब हम तुलसी की आरती गाते हैं तब हम कहते हैं कि 'एइ निवेदन धर, सखीर अनुगत कर' अर्थात हे तुलसी महारानी, यह मेरा निवेदन है कि मुझे राधा रानी, सखियों, गोपियों , मंजिरियों का अनुगतय प्राप्त हो।

वैसे और भाव वाले भी भक्त हैं, उनका अनुगतय भी है, वो भी बातें हैं ही। हरि! हरि! अनुगत अर्थात किसी का अनुसरण करना। उसको ही अनुगतय कहते हैं। अनु मतलब पीछे जाना अथवा अनुसरण करना। किसी का अनुसरण करना, अनुगतय कहलाता है। लक्ष्मी ऐसा अनुगतय स्वीकार नही करती है। हरि! हरि!

यदि वृंदावन में आराधना करनी है तो ब्रजेन्द्रनंदन की आराधना या फिर राधा कृष्ण की आराधना करनी होगी। इस रासक्रीड़ा में प्रवेश के लिए दो बातों की आवश्यकता है।

राधा कृष्ण - प्रणय - विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह - भेदं गतौ तौ । चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं राधा- भाव - द्युति - सुवलितं नौमि कृष्ण - स्वरूपम् ॥ ( श्री चैतन्य चरितामृत आदि लीला श्लोक १.५)

अनुवाद " श्री राधा और कृष्ण के प्रेम - व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं , किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है। अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ , क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं।" श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी राधा भाव को जानना चाहते थे, इसलिए भगवान प्रकट हुए थे। कई सारी बातें कही जा रही हैं। सभी सम्बंधित हैं, इसलिए भी कही जा रही हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु, राधा भाव अर्थात राधा को जानना चाह रहे थे। वे राधा का अनुगतय चाहते थे इसलिए भगवान ने राधाभाव को अपनाया। उन्होंने केवल राधाभाव ही नहीं, राधा की कांति अथवा रुप को भी अपनाया। पूरे रूप को तो नहीं, कांति को अपनाया इसलिए चैतन्य महाप्रभु, गौरांग बन गए, गौरांगी राधा की अंग की कांति को अपनाया, लक्ष्मी यह नहीं कर रही हैं। वह राधाभाव अथवा गोपी भाव को नहीं अपना रही हैं।

अपना ही लक्ष्मी का रूप, सौन्दर्य, आभूषण अथवा वैभव है, वह उसको भी त्यागना नहीं चाह रही है। जैसे गोपियां भोली भाली होती हैं। हरि! हरि! उनके भावों का क्या कहना, जब वे मुरली की नाद् को सुनती हैं तब सब ठप्प हो जाता है।यदि वस्त्र पहनने हैं, तब वो भी उल्टे सुलटे पहनती हैं क्योंकि उन्हें कृष्ण के पास जाना है, वह दौड़ना प्रारंभ करती हैं, लेकिन लक्ष्मी ऐसा नहीं करती। यदि भगवान् मुरली बजा रहे हैं, बजाने दो, अभी मैं तैयार नहीं हूं। मेरा पूरा श्रृंगार नहीं हुआ है। आइने के सामने बैठी रहेगी। साज श्रृंगार चल रहा है, मैं तैयार नहीं हूं।' भाव में अंतर है। दो बातों की आवश्यकता है, एक भाव और रुप भी। गोपी जैसा रुप भी, आज ही हम आगे बढ़ेगें। आज का पड़ाव वैसे मान सरोवर में हैं। वहाँ पर शिवजी पहुंचे। वे भी कृष्ण की रासलीला में प्रवेश करना चाह रहे थे। तब उन्हें, जहाँ रास क्रीड़ा सम्पन्न हो रही थी, के द्वार पर रोका गया था। गोपियां- कहाँ जा रहे हो? शिव जी बोले- रास क्रीड़ा में। गोपियां बोली- ऐसी वेषभूषा के साथ, आप मुंड माला पहने हो, कानों में बिच्छु लटक रहे हैं और गले में सर्प है, ऐसे रास क्रीड़ा में जाओगे?

नहीं! सम्भव नहीं है। यदि आपका रुप गोपी जैसा है, तभी सम्भव है। गोपियों ने उनको वहाँ एक सरोवर दिखाया। मान सरोवर- यहाँ स्नान करो, तब आप गोपी जैसे रुप को प्राप्त करोगे। फिर आ जाना, आपको अनुमति है, तब शिवजी ने वैसा ही किया। मानसरोवर में डुबकी लगाई, तब सु-स्वागतम । तब शिवजी गोपेश्वर महादेव बने, उनका नाम गोपेश्वर हुआ। वे भी अन्य गोपियों के संग कृष्ण के साथ रास क्रीड़ा खेलें। गोपी जैसा भाव और गोपी जैसा रुप आवश्यक अथवा अनिवार्य है। यह सीखो और समझो। हमारी परंपरा और भक्ति का जो प्रकार है अर्थात हम जो भक्ति करते हैं, उस भक्ति का नाम ही रागानुग भक्ति साधन है। एक वैधी भक्ति होती है - विधि विधानों वाली। दूसरी यह रागानुग- किसी भक्त को अपना आदर्श मान कर समझ कर, उनके चरण कमलों का अनुसरण करते हुए भक्ति करना अर्थात भाव भक्ति करना। वह भाव सख्य भाव या वात्सल्य भाव या माधुर्य भाव भी हो सकता है।

यह भाव कहो या रस कहो। एक ही बात है। माधुर्य रस या वात्सल्य रस या सांख्य रस या भक्ति कहो। माधुर्य भक्ति या वात्सल्य भक्ति या सांख्य भक्ति। वैसे गौड़ीय वैष्णव परम्परा की जो शिक्षाएं है, उससे वृंदावन में प्रवेश है, गोलोक में प्रवेश है। कई सारे वैकुंठ धाम पड़े हैं वहाँ। वहाँ भी जा सकते हो और जाते हैं किन्तु हम गौड़ीय वैष्णव, ब्रज मंडल की परिक्रमा कर रहे हैं। कई सारे धार्मिक लोग या साधक या अन्य परम्परा वाले या श्री परम्परा वाले उनको ब्रजमंडल से ज़्यादा प्रेम नहीं है। वे वैसे भागवत को स्वीकार तो करते हैं लेकिन भागवत पुराण के बजाय विष्णु पुराण ही पढ़ते रहेंगे। वैंकट भट्ट जिनके साथ चैतन्य महाप्रभु का संवाद हुआ था, वे भी लक्ष्मी नारायण के भक्त थे। इसलिए भी चैतन्य महाप्रभु ने उनसे कहा- तुम्हारी लक्ष्मी, हमारे कृष्ण का संग चाहती है। यह उचित नही है, अपने पति नारायण को छोड़कर वह कृष्ण का संग चाहती है। कृष्ण को चाहती है, क्या यह सही है? इसमें पतिव्रत्य तो नही रहा। इस प्रकार हास्य विनोद् की भाषा में दोषारोपण हो रहा था। हरि! हरि!

समय तो हो गया। आप ब्रज मंडल दर्शन को पढ़ लो। आपके पास ब्रज मंडल दर्शन है? कितने हैं? दो हैं, दोनों के पास एक एक है, एक ही पर्याप्त है। जिनके पास नही है , वो प्राप्त करो। ब्रज मंडल दर्शन पुस्तक अब हिंदी में उपलब्ध है लेकिन मराठी में अभी तक नहीं बना है लेकिन रशियन भाषा में प्रिन्ट होने जा रहा है। बंगाली मे स्क्रिप्ट तैयार है और नेपाली भाषा में भाषान्तर हो रहा है। स्पेनिश और हिब्रू ऐसे ही कुछ ६-७ भाषाओं में ब्रजमण्डल दर्शन का अनुवाद हो रहा है या हो चुका है या प्रिंटिंग होने जा रहा है। उस ग्रंथ को यदि नहीं है, तो स्वीकार करो अथवा प्राप्त करो।

मान सरोवर का नाम मान सरोवर क्यों पड़ा? यह भी आप उस ग्रंथ को पढ़ कर पता लगवा सकते हो।

वैसे श्रील गौर किशोर दास बाबा जी महाराज का तिरोभाव तिथि महोत्सव भी आज ही है।

नमो गौरकिशोराय साक्षाद्वैराग्यमूर्तये । विप्रलम्भरसाम्बोधे पादाम्बुजाय ते नमः ।। (श्रील गौरकिशोरदास बाबाजी प्रणति मंत्र)

अर्थ:- मैं श्रील गौर किशोर दास बाबा जी महाराज के चरणकमलों को सादर प्रणाम करता हूँ, जो साक्षात त्याग- स्वरूप हैं। वे हमेशा कृष्ण के वियोग तथा गहन प्रेम में तल्लीन रहते हैं।

हम उनके चरणों में ऐसी प्रार्थना करते हैं।गौरकिशोरदास बाबाजी महाराज वैराग्य की मूर्ति थे। वे वैराग्यवान थे।

नमो गौरकिशोराय साक्षाद्वैराग्यमूर्तये - वे साक्षात वैराग्य की मूर्ति थे।विप्रलम्भरसाम्बोधे-विप्रलम्भ नाम की एक स्थिति है, जो कि सर्वोच्च स्थिति है। वे ऐसी स्थिति अथवा भावों को प्राप्त थे अथवा अनुभव किया करते थे। वह विरह की अवस्था में भगवान् के विरह का अनुभव किया करते थे। वैसे हम गौडीय वैष्णव विप्रलम्भ अवस्था - विरह तीव्र अर्थात

जब विरह भाव की तीव्रता का अनुभव करते हैं उसे विप्रलम्भ कहते हैं। योग( मिलन) और वियोग या संभोग या फिर कोई विप्रलम्भ।

संभोग- जब हम भगवान के साथ मिलते हैं अथवा मिलन होता है, तब आलिंगन भी हो सकता है, जब भगवान का अंग संग प्राप्त हो रहा है वह भी एक स्थिति है उसको हम संभोग कहो या मिलन या मिलन का आनंद कहा जाए।

इतीद्दक्‌स्वलीलाभिरानंद कुण्डे स्वघोषं निमज्जन्तमाख्यापयन्तम्। तदीयेशितज्ञेषु भक्तैर्जितत्वं पुनः प्रेमतस्तं शतावृत्ति वन्दे॥3॥ अर्थ:- जो ऐसी बाल्य-लीलाओं के द्वारा गोकुलवासियों को आनन्द-सरोवरों में डुबोते रहते हैं, और अपने ऐश्वर्य-ज्ञान में मग्न अपने भावों के प्रति यह तथ्य प्रकाशित करते हैं कि उन्हें भय-आदर की धारणाओं से मुक्त अंतरंग प्रेमी भक्तों द्वारा ही जीता जा सकता है, उन भगवान्‌ दामोदर को मं कोटि-कोटि प्रणाम करता हूँ।

लीलाओं के श्रवण से या कृष्ण के साथ मिलन से आनंद के कुंड भर जाते हैं। उससे भी उच्च स्तर अवस्था है-भावों की अवस्था। वह विप्रलम्भ अवस्था कहलाती है जिसका अनुभव भक्त वियोग में करते हैं। हमारे आचार्य गौर किशोर दास बाबाजी महाराज भी ऐसी विप्रलम्भ मन की स्थिति में ही तल्लीन रहा करते थे। यह अवस्था कृष्ण चेतना की उच्च अवस्था स्थिति है भाव भक्ति है। विप्रलम्भरसाम्बोधे अर्थात रस का सागर अथवा प्रेम के सागर में गोते लगाया करते थे। पादाम्बुजाय ते नमः ऐसे श्रील गौर किशोर दास बाबा जी महाराज के चरण कमल पादाम्बुज चरणारविन्द में हमारा नमस्कार प्रणाम।

जे आनिल प्रेमधन करुणा प्रचुर। हेन प्रभु कोथा गेला गौर किशोर ठाकुर॥1॥ अर्थ:- अहो! जो अप्राकृत प्रेम का धन लेकर आये थे तथा जो करुणा के भंडार थे ऐसे आचार्य ठाकुर (श्रीनिवासआचार्य) कहाँ चले गये?

गौर किशोर ठाकुर ने आज के ही दिन प्रस्थान किया था। आज का दिन उनका तिरोभाव दिवस है। वैसे उनकी समाधि मायापुर में है। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर उनके शिष्य थे। गौड़ीय मठ के संस्थापक श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने श्री चैतन्य गौड़ीय मठ के मुख्यालय जो कि इस्कॉन मंदिर से कुछ ही दूरी पर है योगपीठ से आधा किलोमीटर दूर होगा, वहां अपने गुरुदेव गौर किशोर बाबा जी महाराज को समाधिस्त किया अर्थात वहां उनका समाधि मंदिर बनवाया और उनकी समाधि स्थापित की। वैसे तो उनकी वपू मायापुर समाधि में स्थापित हुई है लेकिन गौर किशोर दास बाबा जी महाराज की पुष्प समाधि राधा कुंड के तट पर है, जहां श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर गौड़ीय मठों में से एक मठ की स्थापना की। उन्होंने 64 मठ स्थापित किए। उनमें से एक मठ भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने राधा कुंड के तट पर स्थापित किया था । उस राधा कुंड पर स्थापित गौड़ीय मठ में श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज ने गौर किशोर दास बाबाजी महाराज की पुष्प समाधि भी की। गौर किशोर महाराज बृजवासी बने। वह साधन भक्ति कर रहे थे किंतु फिर वे वृंदावन से मायापुर नवद्वीप गए और नवद्वीप में ही रहे। दोनों धाम ब्रज धाम और नवद्वीप धाम के साथ गौर किशोर दास बाबा जी महाराज का संबंध रहा। वे इन दोनों धामों में रहे। इसलिए भी हम कह सकते हैं कि श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने अपने गुरु महाराज की समाधि नवद्वीप में भी और ब्रज मंडल में भी स्थापित की है। ठीक है।

हम यहां वाणी को विराम देते हैं। गौर किशोर दास बाबाजी महाराज की जय! हरे कृष्ण!

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