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*जप चर्चा* *वृन्दावन धाम से* *दिनांक 04 सितंबर 2021* हरे कृष्ण!!! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 777 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। आप सब का स्वागत है, हमारे साथ रशिया के भक्त जप कर रहे हैं। यूक्रेन से अर्जुन भी जप कर रहे हैं, इसी तरह से हमारे साथ थाईलैंड, नेपाल, बांग्लादेश, बर्मा और संसार के अन्य स्थानों से भी भक्त जप करते हैं, वे प्रसन्न हैं। ओजस्विनी गोपी, यूक्रेन से नियमित रूप से हमारे साथ जप करती हैं। हरि! हरि! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।। आइए, कुछ कृष्ण कथा करते हैं। आप सुनना चाहोगे? लीला कथा तो नहीं होगी लेकिन कृष्ण के संबंध में बातें अथवा चर्चा होगी, वह भी कृष्ण कथा ही है। वैसे इस संसार में दो प्रकार की कथाएं होती हैं- एक का नाम है ग्राम कथा अर्थात गांव, नगर की कथा जो आप अखबारों में पढ़ते होंगे (आप तो शायद अखबार नहीं पढ़ते, सुनते होंगे।) सारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, प्रिंट मीडिया, सारा इंटरनेट ग्राम कथा से भरा पड़ा है। यह हलकट कथाएं अर्थात हल्की व सस्ती कथाएं जो राजनीति, आंतकवादियों की कथाओं या अफगान में क्या हो रहा है, उसकी कथाओं अथवा समाचारों इत्यादि से भरी होती है। शास्त्रज्ञों जिनको हम प्रत्यक्षवादी कहते हैं। संसार के अधिकतर लोग प्रत्यक्षवादी होते हैं। जो भी सामने दिखता है अर्थात जो भी हो रहा है व घटनाएं घट रही हैं, प्रत्यक्ष वादी उसको देखते हैं व उसके विषय में बोलते रहते हैं। यह सब ग्राम कथाएं हुई, यह सारा संसार ग्राम कथा से भरा पड़ा है। हरि! हरि! संसार भर में एक तो ग्राम कथाएं चलती रहती हैं। जैसा कि बताया- संसार में दो प्रकार की कथाएं होती हैं एक है- ग्राम कथा व दूसरी कथा है - राम कथा अथवा कृष्ण कथा । पहली ग्राम कथा को हम माया की कथा भी कह सकते हैं और दूसरी कृष्ण की कथा कहलाती है। बस यह दो ही संसार में कथाएं होती हैं। एक माया है, एक कृष्ण है। माया के संबंध की कथा अर्थात माया के मायावी कार्यकलाप की कथा होती है और कृष्ण के कृष्णमयी कार्यकलाप होते हैं। सावधान! इस ग्राम कथा से सावधान! ग्राम कथा से थोड़ा हटकर रहो, थोड़ा दूर रहो या ग्राम कथा करने वालों से भी थोड़ा दूर रहो। *असत्सङ्ग-त्याग,-एड़ वैष्णव-आचार ।स्त्री-सङ्गी'-एक असाधु, 'कृष्णाभक्त' आर ॥* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.८७) अनुवाद:- वैष्णव को सामान्य लोगों की संगति से हमेशा बचना चाहिए। सामान्य लोग बुरी तरह से भौतिकता में, विशेषतया स्त्रियों में आसक्त रहते हैं। वैष्णवों को उन लोगों की भी संगति से बचना चाहिए, जो कृष्ण-भक्त नहीं हैं।" असत्सङ्ग अर्थात मायावी सङ्ग या ग्राम कथा कहने वालों के सङ्ग से दूर रहो। ऐसा वैष्णव का आचरण होता है। ऐसा ही वैष्णव का परिचय भी होता है। *असत्सङ्ग-त्याग,-एड़ वैष्णव-आचार।* तब हमें किसका संग करना चाहिए ? ग्राम कथा से दूर रहे और कृष्ण कथा या राम कथा के निकट जाए। *काहार निकटे गेले पाप दूरे जाय। एमन दयाल प्रभु केबा कोथा पाय ? ।।* (श्रीवैष्णव - विज्ञप्ति) अनुवाद - किसकी शरण में जानेपर पाप दूर हों अर्थात् केवलमात्र आप ही ऐसे दयालु हैं । आप जैसा दयालु किसे और कहाँ मिलेगा ? वैष्णव के संबंध में हमारे वैष्णव आचार्य लिखते हैं, एक असत्सङ्ग होता है, दूसरा सत्संग होता है, संतों का संग, भक्तों का सङ्ग, वैष्णवों का सङ्ग, गुरुजनों का संग यह अनिवार्य व अति आवश्यक है। *साधु-सङ्ग', 'साधु-सड्ग-सर्व-शास्त्रे कय। लव-मात्र साधु-सड़गे सर्व-सिद्धि हय ॥* ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.54) अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण-भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है।" हमें साधु संग करना चाहिए साधुओं का सङ्ग या साध्वी का सङ्ग अर्थात अगर स्त्री साधु है तो साध्वी का सङ्ग करना चाहिए।प्रभुपाद कई बार कह भी चुके हैं कि उन्होंने अंतरराष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ की स्थापना इसलिए की है ताकि लोगों को संग मिले, लोगों को सत्संग मिले। इस उद्देश्य से श्रीलप्रभुपाद ने संघ की स्थापना की। इन शब्दों को भी सीखो, समझो। सङ्ग, व संघ, संघ अर्थात संगठन, इस्कॉन एक संघ है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, इसको भी संघ कहते हैं, लोग संगठित हो जाते हैं। इस संघ में जो सङ्ग प्राप्त होता है, वही साधु संग है। *काहार निकटे गेले पापे दुरे जाए*। इस प्रकार संतों की संगति करेंगे या ऐसे संतों के अधिक पास जाएंगे तब उससे 'पापे दुरे जाए ' अर्थात पाप दूर हो जाएंगे अर्थात हमसें पाप के विचार दूर होने लगते हैं। भक्तों का सङ्ग करने से वे हमें छोड़ते हैं। हरि! हरि! वैसे भक्त ही हमको भगवान का संग देते हैं अथवा भगवान का परिचय देते हैं, भगवान में रुचि बढ़ाते हैं। संतो या भक्तों से जब हम सुनते हैं तब *नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम 'साध्य" कभु नय। श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.107 अनुवाद:- कृष्ण के प्रति शुद्ध प्रेम जीवों के हृदयों में नित्य स्थापित रहता है। यह ऐसी वस्तु नहीं है, जिसे किसी अन्य स्रोत से प्राप्त किया जाए। जब श्रवण तथा कीर्तन से हृदय शुद्ध हो जाता है, तब यह प्रेम स्वाभाविक रूप से जाग्रत हो उठता है।" हम जो जीव हैं और भगवान से जो हमारा प्रेम है, वह प्रेम अभी आच्छादित है, वह श्रवण करने से उदित अथवा प्रकट होगा। उसका प्रदर्शन होगा। श्रवण करने से जीव की भगवान के साथ कुछ लेनदेन अर्थात कुछ लविंग डीलिंग होती है। *श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय* जब हम कृष्ण के संबंध में सुनेंगे या कृष्ण का नाम सुनेंगे, तब श्रीकृष्ण के गुणों की चर्चा होगी, उनकी लीला कथा होगी, उनकी धाम कथा होगी। हम उनके परिकरों के चरित्रों को सुनेंगे। उनके परिकर चरित्रवान हैं। कृष्ण का चरित्र है, राम का चरित्र है। यह सब सुनते सुनते हम जीवों में भी जो गुण हैं, वे प्रकट अथवा उदित होंगे। हम कृष्ण से अधिक अधिक आकृष्ट होंगे। हम कृष्ण से आकृष्ट होंगे और इसी के साथ हम माया से दूर जाएंगे अथवा हटेंगे। हरि! हरि! *नित्य-सिद्ध कृष्ण-प्रेम 'साध्य" कभु नय।श्रवणादि-शद्ध-चित्ते करये उदय ।* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.107) हमें कृष्ण प्रेम प्राप्त होगा। उसी के साथ हम काम से मुक्त होंगे। जैसा कि हमने कहा कि संसार में दो ही बातें हैं अथवा दो ही व्यक्तित्व हैं। एक कृष्ण है, दूसरी है माया ।उसी प्रकार इस संसार में एक है प्रेम, दूसरा है काम, प्रेम और काम, लव एंड लस्ट। तीसरी चीज नहीं है लेकिन यह प्रेम कृष्ण प्रेम है। माया का काम मायावी चीज है। भुक्ति कामी, मुक्ति कामी, सिद्धि कामी सब काम हुए अर्थात भुक्ति की कामना, मुक्ति की कामना, सिद्धि की कामना कामवासना हुई। कृष्ण भक्त निष्काम होते हैं। कृष्ण भक्त निष्काम अतएव शांत अतः कृष्ण भक्त निष्काम होते हैं। अतएव वे शांत भी होते हैं। हरि! हरि! धीरे धीरे वह गुणातीत हो जाते हैं अर्थात गुणों से परे पहुंच जाते हैं। हरि! हरि! कल मैं श्रील प्रभुपाद को सुन रहा था। जब तक हममें राजसिकता है तब तक सतोगुण में कभी तमोगुण, कभी रजोगुण का मिश्रण होता रहता है। हम तमोगुण में शोक करते रहते हैं। तमोगुण हमें शोकाकुल बनाता है। जब सतोगुण के साथ रजोगुण मिल जाता है, तब हम कुछ आशा आकांक्षा बनाए रखते हैं। रजोगुण के कारण हमारी इच्छाएं, कामवासनाएं अधिक तीव्र हो जाती हैं। भगवत् गीता के तृतीय अध्याय के अंत में कृष्ण कहते ही हैं श्री भगवानुवाच *काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ||* ( श्रीमद् भगवत् गीता 3.37) अनुवाद:- श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है | रजोगुण से काम और क्रोध उत्पन्न होता है। जब तक हमारे अंदर काम की प्रबलता है तब तक हम तमोगुण में शोक करते रहते हैं। *ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति | समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ||* ( श्रीमद् भगवत गीता 18.54) अनुवाद:- इस प्रकार जो दिव्य पद पर स्थित है, वह तुरन्त परब्रह्म का अनुभव करता है और पूर्णतया प्रसन्न हो जाता है | वह न तो कभी शोक करता है, न किसी वस्तु की कामना करता है | वह प्रत्येक जीव पर समभाव रखता है | उस अवस्था में वह मेरी शुद्ध भक्ति को प्राप्त करता है | भविष्य में वे कुछ प्राप्त करना चाहते हैं। मैंने इतना प्राप्त किया है औऱ इतना प्राप्त करूंगा। यह रजोगुण का खेल है। हमें यह समझना भी चाहिए कि तमोगुण क्या करता है अथवा हमारे साथ कैसे डील करता है। तमोगुणी क्या करते हैं? उनके क्या विचार होते हैं? अथवा उनके किस प्रकार के कार्यकलाप होते हैं। तमोगुण हमसे शोक कराता है। रजोगुण हम में प्रतियोगिता का भाव लाता है। जैसे उससे मैं अधिक कमाऊंगा। हरि! हरि! जब हम गुणातीत पहुंचेंगे, तब हमारे कार्य कलाप रजोगुण, तमोगुण, सतोगुण से परे होंगे। सतोगुण में न शोचति न काङ्क्षति थोड़ा कम् होता है। व्यक्ति धीरे धीरे शांत होने लगता है। सतोगुण में शांति है। 'स्वामी जी', 'शांति नहीं है'' शांति नहीं है।' ऐसा हमें सुनने को मिलता ही है। आप भी भक्त हो, साधु हो, संत हो या बनने का प्रयास हो रहा है। शायद आपको भी कभी-कभी थोड़ा शांत देखकर लोग आपसे कभी-कभी पूछते होंगे, हमारे जीवन में शांति नहीं है। इसका अर्थ है कि आप तमोगुणी हो इसीलिए शांत नहीं हो, आप रजोगुणी हो इसीलिए आप शांत नहीं हो। थोड़े सतोगुणी बन जाओ। भागवतम् में वर्णन है कि *त्वं नः सन्दर्शितो धात्रा दुस्तरं निस्तितीर्षताम् । कलिं सत्त्वहरं पुंसां कर्णधार इवार्णवम् ॥* ( श्रीमद् भागवतम् १.१.२२) अनुवाद:- हम मानते हैं कि दैवी इच्छा ने हमें आपसे मिलाया है , जिससे मनुष्यों के सत्त्व का नाश करने वाले उस कलि रूप दुर्लंघ्य सागर को तरने की इच्छा रखने वाले हम सब आपको नौका के कप्तान के रूप में ग्रहण कर सकें । कलिं सत्त्वहरं पुंसां - पुंसां मतलब मनुष्यों का। यह कलयुग क्या बिगड़ता है सत्त्वहरं, यह कलयुग हमारे अंदर जो सात्विकता अथवा अच्छाई अथवा सदाचार है अर्थात सात्विकता है, सात्विक आहार या सात्विक विचार भी है इनको हर लेता है, चुरा लेता है यह कलिकाल इनको चुरा लेता है। हमें शांत होना है, तो सात्विक होना होगा किन्तु इस सतोगुण में कुछ मिश्रण होता ही रहता है। कभी रजोगुण का, कभी तमोगुण का। भगवत गीता में कृष्ण कहते हैं इन तीनों गुणों की आपस में कुछ प्रतियोगिता चलती रहती है। मराठी में कहते हैं अपना वर्चस्व अथवा अपना आधिपत्य जमाने का प्रयास हर गुण का होता है। कभी कभी तमोगुण अन्य दो गुणों का दमन करता है। तब व्यक्ति के सारे विचार, कार्यकलाप तमोगुणी होते रहते हैं तो रजो गुण व सतोगुण का पराजय होता है। वे होते तो हैं लेकिन वे कुछ नहीं कर पाते। इसी प्रकार जब रजोगुण टेकओवर करता है अर्थात वह सर्वोपरि होता है और वह इन तीनों के ऊपर पहुंच जाता है। तब व्यक्ति राजसिक कृत्य करता है। सतोगुण में व्यक्ति सात्विकता को मेंटेन कर पाता है अर्थात जब वह रजोगुण, तमोगुण का दमन करता है तब व्यक्ति सात्विक कहलाता है। जो ब्राह्मण होते हैं, वे सात्विक होते हैं। क्षत्रिय राजसिक होते हैं लेकिन उनमें थोड़ी सात्विकता भी होती है। चारों वर्णों का विभाजन हो चुका है। *चातुवर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः | तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम् ||* ( श्रीमद् भगवत गीता 4.13) अनुवाद:- प्रकृति के तीनों गुणों और उनसे संबंध कर्म के अनुसार मेरे द्वारा मानव समाज के चार विभाग रचे गये | यद्यपि मैं इस व्यवस्था का सृष्टा हूँ, किन्तु तुम यह जान लो कि मैं इतने पर भी अव्यय अकर्ता हूँ । चातुवर्ण्यं मया सृष्टं भगवान् कहते हैं कि चातुवर्ण्यं की सृष्टि मैंने की हुई है। इसको भी समझना चाहिए। कृष्ण ने की हुई है इतना तो समझ गए लेकिन कैसे अर्थात उन्होंने किस प्रकार चातुवर्ण्यं का विभाजन किया हुआ है? गुणकर्मविभागशः अर्थात उन्होंने व्यक्ति के गुण और कर्मों के अनुसार विभाजन बताया है। चातुवर्ण्यं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र यह वर्ण है और ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास आश्रम है। इस प्रकार भगवान ने वर्णाश्रम पद्धति बनाई हैं जिसे कभी-कभी वर्णाश्रम धर्म भी कहते हैं। गुणकर्मविभागशः अर्थात व्यक्ति के जन्म के अनुसार नहीं अपितु गुणकर्मविभागशः अर्थात रजोगुण, तमोगुण, सतोगुण अर्थात उसमें कौन से गुण की प्रधानता है। यदि उसमें सतोगुण की प्रधानता है तो वह ब्राह्मण है। *कलौ शूद्रसम्भवः।* ( सकन्ध पुराण) अनुवाद:- कलियुग में जन्मजात सभी शूद्र हैं। पुनः भागवतम् में कहा है- कलौ शूद्रसम्भवः। कलौ मतलब कलयुग में, शूद्रसम्भवः- संभवा मतलब होना। कलयुग में कौन होंगे? कलयुग में अधिकतर शूद्र होंगे। अधिकतर संसार की आबादी शूद्रों की है। वैसे शूद्रों से भी अधिक निम्न जाति के लोग हैं जिनको यवन अथवा म्लेच्छ कहते हैं। *किरात हूणान्ध्र - पुलिन्द पुल्कशा आभीर - शुम्भा यवनाः खसादयः । येऽन्ये च पापा यदपाश्रयाश्रयाः शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः ॥* ( श्रीमद् भगवतगीता 2.4.18) अनुवाद:- किरात , हूण , आन्ध्र , पुलिन्द , पुल्कश , आभीर , शुम्भ , यवन , खस आदि जातियों के सदस्य तथा अन्य लोग , जो पाप कर्मों में लिप्त रहते हुए परम शक्तिशाली भगवान् के भक्तों की शरण ग्रहण करके शुद्ध हो सकते हैं , मैं उन भगवान् को सादर नमस्कार करता हूँ। श्रीमद्भागवत में और भी सूची दी हुई है। वे लोग शूद्र भी नहीं है। शूद्र तो बहुत बड़ी पदवी हो गई। शूद्र भी वर्णाश्रम पद्धति के अंतर्गत है, शूद्र होना कोई खराब चीज नहीं है। शूद्र भी भगवान की सेवा करता है। यह शूद्र जो दूसरे वर्ण वासी हैं, उनकी सहायता करता है। शूद्र ब्राह्मणों की , क्षत्रियों, वैश्यों की मदद करता है। वह टीम का हिस्सा है, शूद्र उस वर्णाश्रम धर्म के अंतर्गत हैं, शूद्र भी ठीक हैं। जिस प्रकार पैर होते हैं, पैरों का कुछ उपयोग होता है। वह हमारे शरीर का अंग है, ऐसा नहीं है कि पैरों में कुछ चोट आई या कुछ हुआ तो हम उसका ख्याल नहीं रखते। हम उसको ठीक करते हैं या नहीं या उसको ख्याल करते हैं कि नहीं कि यह तो पैर है, मुझे इसकी परवाह नहीं? पैर में कुछ हुआ जैसे कांटा चुभ गया या चोट लग गई.. यह तो पैर है, कोई चिंता नहीं। नहीं। हम ऐसा नही करते, वैसे तुलना तो की हुई है। शूद्रों की तुलना पैर के साथ की हुई है, वैश्यों की तुलना पेट के साथ, क्षत्रियों की तुलना भुजाओं के साथ और ब्राह्मणों की तुलना सिर के साथ। लेकिन केवल सतोगुण ही बनना भी जीवन का लक्ष्य नहीं है। तमोगुणी तो नहीं ही रहना चाहिए, रजोगुण भी नहीं रहना चाहिए। अंततोगत्वा सतोगुण से भी ऊंचा उठना है और परे पहुंचना है क्योंकि माया त्रिगुणमयी है। *दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ||* (श्रीमद् भगवतगीता 7.14) अनुवाद:- प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है | किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं। माया गुणमयी है। माया तमोगुणी है,रजोगुणी है, सतोगुणी है। सतगुण भी माया का एक भाग अथवा अंग अथवा गुण हैं। हमें इन तीन गुणों से परे पहुंचना है। ओम शांति शांति शांति हम यह तीन बार क्यों कहते हैं? तमोगुण से मुक्ति, रजोगुण से मुक्ति, सतोगुण से भी मुक्ति, इसलिए हम ओम शांति शांति शांति कहते हैं। ऐसा व्यक्ति जिस गुण को प्राप्त करता है, वह शुद्ध सत्व को प्राप्त करता है। एक शुद्ध सत्व गुण भी है। एक सतोगुण, एक रजोगुण, एक तमोगुण है और इन तीन गुणों से परे एक और गुण है। वह गुणातीत है। शास्त्रों में उसका नाम शुद्ध सत्व दिया गया है। दूसरा तो सत्व है, वह शुद्ध नहीं है। वह अशुद्ध हो सकता है। वह तमोगुण, रजोगुण के मिश्रण से हो सकता है। लेकिन शुद्ध सत्व मतलब उसमें सतोगुण का भी गंध नहीं है, तमोगुण, रजोगुण तो है ही नहीं लेकिन शुद्ध सत्व में सतोगुण का भी गंध नहीं है। वही गुणातीत है, वही कृष्ण भावना की अवस्था है अर्थात कृष्ण भावना भावित होना। कृष्ण भगवत गीता में कहते हैं- *दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया |मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ||* (श्रीमद् भगवतगीता 7.14) पहले तो कहा- दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया अर्थात जो माया है, एक तो त्रिगुणमयी माया है और इसका उल्लंघन करना कठिन है अर्थात इसका जो अधिपत्य अथवा नियंत्रण है, इससे बचना बहुत कठिन है। कृष्ण आगे कहते हैं मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते। लेकिन जो मेरी शरण में आता है, ऐसा व्यक्ति माया से तर सकता है। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* नामाश्रय मतलब नाम का आश्रय लेना मतलब कृष्ण का ही आश्रय लेना जिससे हम माया से बच सकते हैं। यदि हमनें कृष्ण का सङ्ग किया, नाम का उच्चारण किया तो फिर हमें माया छू नहीं सकती और हम माया से बच सकते हैं। यह सारा नाम कीर्तन प्रधान विधि अथवा उपाय है। उसी के साथ जुड़े हुए हैं। नित्यम भागवत सेव्या। *सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा । यस्याः श्रवण मात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत ।।* ( श्रीमद्भागवत महात्म्य 3.25 ) अनुवाद - भागवत की कथा का सदा सर्वदा सेवन करना चाहिए , श्रवण करना चाहिए इसके श्रवण मात्र से भगवान श्रीहरि हृदय में आकर विराजमान हो जाते हैं । भक्तिरसामृत सिंधु में भक्ति के पांच प्रधान साधन दिए गए हैं। हम उसका अवलंबन करने से मायातीत अर्थात माया से परे पहुंच सकते हैं। उनमें पहला है- श्रीमद् भागवत कथा का श्रवण, विग्रह आराधन। साधु सङ्ग नाम कीर्तन (मैं क्रम से नहीं कह रहा हूं लेकिन ज़्यादा फर्क तो नहीं पड़ता है।) चौथा है मथुरा वास या धाम वास और पांचवा- विग्रह आराधना। (आपने नोट किया? नोट नहीं किया या याद नहीं करोगे तो आप करोगे भी नहीं। क्या करना है? यही पता नहीं चला तो क्या करोगे? इसीलिए याद रखना होगा, लिखना होगा या अन्यों से पूछना होगा की हम भूल गए हैं। भक्तिरसामृत सिंधु पुनः पढ़ना होगा किंतु जब हमारे पास श्रवण का अवसर है, तब हमें कम से कम उसको ध्यानपूर्वक सुनना और पढ़ना चाहिए। बाद में उसका मनन भी करना चाहिए। ) अतः इस प्रकार पांच महासाधन हैं। ये वे महासाधन हैं जिससे हम माया से तर सकते हैं, माया से बच सकते हैं। वे महा साधन हैं- साधु संग कहो, यहां से भी शुरुआत हो सकती है। साधु का सङ्ग होता है तत्पश्चात नाम कीर्तन, भागवत श्रवण, विग्रह आराधना और धाम वास होता है। मंदिर में जो रहने वाले जो हमारे भक्त हैं, वे तो भाग्यवान हैं। भगवान के साथ ही रहते हैं अथवा भगवत धाम में रहते हैं। हमारा नोएडा मंदिर जिसे गोविंद धाम भी कहते हैं। अलग-अलग मंदिरों के अलग-अलग नाम भी देते हैं। प्रभुपाद ने लॉस एंजेलिस के मंदिर को न्यू द्वारिका नाम दिया । सैन फ्रांसिस्को के मंदिर को न्यू जगन्नाथ पुरी दिया। इसी प्रकार अलग अलग मंदिरों को न्यू मायापुर, न्यू गोकुलधाम, न्यू वृंदावन नाम दिए। ऐसे धामों में विश्व भर से हमारे फुल टाइम भक्त रहते हैं किंतु जो मंदिर में नहीं रहते , वे अपने घर का मंदिर बना सकते हैं। घर का मंदिर बनाओ। ऐसे घर में रहो तब आपका धाम वास हो रहा है। आप धाम में रह रहे हो। यहां विग्रह है, ठाकुर है, तब ठाकुर बाड़ी हो गई। तत्पश्चात उन को केंद्र में रखते हुए आपकी सारी लाइफस्टाइल अथवा दिनचर्या होनी चाहिए। भगवान को जगाना भी है - उठी उठी गोपाला..... जैसे कि यशोदा जगाती है वैसे आप भी अपने लाला को या जो भी आपके इष्टदेव हैं -गौर निताई हो सकते हैं, जगन्नाथ हो सकते हैं। उनको उठाओ। कोई उदयपुर से दर्शन करवा भी रहा है- राधा-कृष्ण भी हैं, गौर निताई भी हैं लेकिन दुर्गा का ग्रह कोई विशेष धाम तो नहीं हुआ। वैसे हम दैवी धाम में तो रहते ही हैं। सारे ब्रह्मांड को ही दैवी धाम कहा है लेकिन हमें इस धाम से परे जाना है। इस संसार के जो देवता हैं उनका मंदिर बनाया तो कोई धाम तो नहीं हुआ। हरि! हरि! धाम तो इस संसार से परे है। *परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः | यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ||* (श्रीमद् भगवतगीता 8.20) अनुवाद: इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यय प्रकृति है, जो शाश्र्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है | यह परा (श्रेष्ठ) और कभी न नाश होने वाली है | जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता। जहां कृष्ण रहते हैं, जहां राम रहते हैं, वह धाम बन जाता है और वहां के धामी होते है। धाम के होते हैं धामी। हरि! हरि! जिनकी हम आराधना करेंगे, हम उनके धाम जाएंगे । ऐसा कृष्ण ने कहा है, आप इसको भी समझ जाओ। *यान्ति देवव्रता देवान्पितॄन्यान्ति पितृव्रताः| भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम् ||* (श्रीमद् भगवत गीता 9.25) अनुवाद:- जो देवताओं की पूजा करते हैं, वे देवताओं के बीच जन्म लेंगे, जो पितरों को पूजते हैं, वे पितरों के पास जाते हैं, जो भूत-प्रेतों की उपासना करते हैं, वे उन्हीं के बीच जन्म लेते हैं और जो मेरी पूजा करते हैं वे मेरे साथ निवास करते हैं | देवी देवता की पूजा करनी है तो करते रहो। कौन रोकता है आपको लेकिन यह समझ जाओ कि आप इस संसार से माया के चंगुल से मुक्त होने वाले नहीं हो। देवी देवता के पुजारी देव लोक जाएंगे मतलब स्वर्ग जाएंगे। बस वहीं तक पहुंच है। *पितॄन्यान्ति पितृव्रताः* जो पितरों की पूजा करते हैं, वह पितृ लोक जाएंगे, वे भी इसी लोक में ही हैं अर्थात वे भी ऐसी ब्रह्मांड में ही हैं और भूतानि यान्ति भूतेज्या अर्थात भूतों की पूजा करने वाले मंत्र यंत्र तंत्र करने वाले भी तो कुछ कम नहीं है, वे वहां उपासना करेंगे। यह भी समझाया है कि देवी देवता की पूजा सत्व गुण में होती है और पितरों की पूजा रजोगुण ही करते हैं। भूत पिशाच की आराधना तमोगुणी करते हैं। लेकिन जो गुणातीत होते हैं वह इन तीन गुणों से परे होते हैं। यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्। जो मेरी आराधना करते हैं,वह मेरे धाम आएँगे यह भगवत गीता का वचन है। श्री भगवान उवाच चल रहा है। कृष्ण समझा रहे हैं कि जो मेरी आराधना करते हैं, वह मेरे धाम आएंगे। जो अन्य देवता की करते हैं वे उनके धाम जाएंगे, ब्रह्मलोक जाओ, गणेश लोक जाओ, इस लोक में जाओ या उस लोक में जाओ। आप पर है, क्या यह स्पष्ट है? मैं सोचता हूं कि अब मुझे यहीं पर विराम देना होगा। हरे कृष्ण!!!

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