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27 दिसंबर 2021 1028 स्थानों से भक्त हमारे साथ जप कर रहे हैं। गौरंगा।। श्री कृष्ण अर्जुन की जय।। ओम नमो भगवाते वासुदेवायः ।। कई बार मैं ये सोच रहा था गीता के विशेष चार श्लोक चतुश्लोकी है। भागवत गीता श्लोक 8,9,10,11 चार श्लोक की बाते हो रही है पिछले कुछ दिनों से। इन में देख रहे हो आप कौन सा श्लोक है। आपके लिए होमवर्क मैं दे रहा था आज इस श्लोक को पढ़ो आज उस श्लोक पढ़ो, तो ये महत्वपूर्ण श्लोक है। अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते | इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है | जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं | 10 . 8 अब याद करो कंठस्थ करो फिर अंततोगत्वा हृदय आंत करो इन श्लोको को ये भी कहा जा रहा था। मैं तो कहता देता हूँ पर आप करते हो। हरी हरी।। भगवान भी तो चाहते हैं की हम पढ़ें इसलिए तो भगवान ने गीता सुनाई क्योंकि जीव सुनेगा भगवान को और याद रखेगा समझेगा भगवान क्या कह रहे हैं। हरी हरी।। सुनो सुनो कृष्णा ने क्या कहा है । अभी कुछ लोग भगवत गीता भी खोल रहे हैं ये अच्छा है तो दसवां अध्याय चल रहा है और श्लोक चल रहा है 8,9,10,11 अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते | इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है | जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं | 10 . 8 तो कुछ भक्त हमारे साथ भी बोल रहे हैं और उनके होंठ भी हिल रहे हैं मैं देख रहा हूँ। फिर भगवान क्या कहे - मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ।। मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परं संतोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं | 10.9 फिर आगे क्या कहें - तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् | ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।। जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं | 10.10 और फिर आज इस के साथ आगे की बात करेंगे कृष्णा - तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः | नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ।। मैं उन पर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ | 10.11 तो ये चौथे श्लोक को समझते हैं इसी को भी संस्मरण भी कहते हैं की क्या कहा भगवान ने सुन तो लिया क्या कहा किंतु समझना भी तो जरूरी है। इति मत्वा भजन्ते मां - समझकर फिर भजन करना है। तेषामेवानुकम्पार्थम - श्रील प्रभुपाद भाषांतर में कहते हैं मैं उन पर विशेष कृपा करने हेतु उनके हृदय में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाश मान दीपक के द्वारा अगयान जन अंधकार को दूर करता हुं। कितनी बड़ी बात बड़ी बात भगवान कह रहे हैं अपने दिल की बात कह रहे हैं । या कल कुछ दिमाग की बात दिमाग से कह रहे थे - ददामि बुद्धियोगं तं - उनको मैं बुद्धि देता हूँ। 10 श्लोक में कह रहे थे और आज कह रहे हैं उनको तो मैं अपना हृदय देता हूँ बुद्धि देता हूँ, हृदय देता हूँ। ददामि बुद्धियोगं और एव अनुकम्पा-अर्थम् ।। अनुकंपा - उनको देख के ये जीव मेरे ही है और उनको जब मैं देखता हूँ इस संसार में कैसे फंसे हैं दुखी है तो मेरे मन में या मेरे हृदय में उनके प्रति अनुकंपा उत्पन्न होती है। मेरा दिल भी अनुकंपित होता है और द्रिता से भर जाता है | मैं उनकी ओर दौड़ता हूँ बचाओ!! बचाओ!! कोई है?? कृप्या बचाओ भगवान के लिए। कभी-कभी भगवान भी याद आते हैं । तेषाम् - नोट कीजिए इस शब्द को तेषाम् - ऐसे भक्त जिन्होंने अभी फिर किया हुआ है मुझे समझ रहे हैं अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते | इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।। मैं समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूँ, प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उद्भूत है | जो बुद्धिमान यह भलीभाँति जानते हैं, वे मेरी प्रेमाभक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं | 10.8 ऐसे समझने वाले भक्त और फिर क्या करें - बोधयन्तः परस्परम् - उनका चिट मेरी ओर जा रहा है मुझे याद कर रहे हैं - कथयन्तश्र्च मां नित्यं - मेरी कथा कर रहे हैं तो मैंने कहा भी है ही ना जहां मेरी कथा होती है कीर्तन होता है | तत्र तिष्ठामि नारद - पद्म पुराण 6.92.22 जहाँ मेरे भक्त एकत्रित होते हैं और कीर्तन करते हैं मुझे याद करते हैं प्रार्थना करते हैं | वहाँ में पहुंचता हूँ| तेषाम् - कृष्णा कह रहे हैं उन पर मैं अनुकंपा करता हूँ | पहले तो बुद्धि देता हूँ कहा लेकिन फिर बुद्धि से काम नहीं बनेगा और भी कुछ चाहिए तो मैं अनुकंपा भी करता हूँ मैं दया भी दिखाता हूँ| दसवे श्लोक मे ददामि बुद्धियोगं मैं बुद्धि देता हूं और फिर अब दया भी करता हूं | भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्र्वरम् | सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति || मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परं भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है | 5.29 क्योंकि मैंने कहा ही है इस अध्याय के पहले वाले अध्याय के अंत में मैंने कहा | सुहृदं सर्वभूतानां - मैं सभी जीवों का सुहृदं - परम मित्र हूँ | मित्र की क्या पहचान है ? ज़रूरत में काम आने वाला दोस्त ही सच्चा दोस्त होता है कहते हैं। वही फ्रेंड है जब हमारी कोई नीड है कोई जरूरत है सहायता चाहिए तो जो व्यक्ति आगे बढ़ता है, मदद करता है| मदद के लिए आगे आता है सहायता करता है तो वही तो फ्रेंड है| सुनिए और समझिए कृष्णा क्या कह रहे हैं | अज्ञान-जम् तमः नाशयामि - कि तुम्हारे अगयान से उत्पन्न जो अंधेरा है अंधाकार है उसका मैं नाश करता हूँ |तुम तो जो स्कूल कॉलेज से ज्ञान प्राप्त कर रहे हो ज्ञान नहीं है |वो तो अज्ञान है वो अविद्या है| विद्या नहीं है इस अविद्या को मैं नष्ट करता हूँ | अज्ञान-जम् तमः नाशयामि - और मैं कैसे करता हूँ| मैं तुमसे दूर तो नहीं हूँ | जैसे मैं अर्जुन के समक्ष था वहाँ धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र तो वैसे ही मैं यहाँ हृदय प्रांगण में हृदय नाम का प्रांगण या हृदय नाम का आंगन | वो रणआंगन था | कुरुक्षेत्र था रण का आंगन | रण मतलब युद्ध का आंगन | क्रीडांगन भी होता है |हृदय भी एक आंगन है और इस आंगन में हम दोनों साथ में है मैं और तुम् हे! जीव | कटौपनिषाद में कहा है - ये की यह शरीर है एक वृक्ष और इसमे दो पंछी बैठे हैं एक आत्मा रूपी पंछी और एक परमात्मा रूपी पंछी | जैसे वहाँ आमने सामने थे कृष्ण और अर्जुन तो यहाँ पे भी हृदय प्रांगण में हम आमने सामने है| मैं ही तो हूँ अनुमानता साक्षी और सुहृदम हृदय में बैठा हुआ तुम्हारा मित्र | नाशयामि आत्म-भाव स्थः तुम्हारे हृदय प्रांगण में | मैं उन पर विशेष कृपा करते हेतु उनके हृदय में वास करता हूँ| प्रभुपाद भाषांतर में लिख रहे है - मैं उन पर विशेष कृपा करने के हेतु उनके हृदयों में वास करते हुए ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूँ | ज्ञानदीपेन ज्ञान का दीपक जलाता हूँ जैसे आप दियासलाई माचिस से दिया जलाते हो तो दीपक जलते ही अंधकार दूर-दूर भागता है| प्रकाश और अंधेरा एक साथ रह ही नहीं सकते| जहाँ प्रकाश है वहाँ नाशयाम्यात्मभावस्थो अंधकार नष्ट होता है| मैं करता हूँ ज्ञानदीपेन - ज्ञान का दीपक मैं जलाता हूँ | ज्ञानदीपेन भास्वता - प्रकाशमान हूँ | हरी हरी || ये कृपा है, भगवान ने अर्जुन के हृदय प्रांगण में ज्ञान की ज्योति जलाई पहुँचाई और फिर उसको दिखने लगा यथारूप या फिर जैसे हुआ की गीता सुनाई अर्जुन को तो क्या हुआ तमसो माँ ज्योतिरगमया - अंधेरे में मत रहो ज्योति की ओर जाओ प्रकाश की ओर जाओ मतलब कृष्ण की ओर जाओ कृष्ण प्रकाश हैं| प्रकाश कृष्ण हे| प्रकाश की ओर जाओ मतलब भगवान ओर जाओ और भगवान की ओर जाना मतलब प्रकाश की ओर जाना क्योंकि कृष्णा कैसे है? कृष्ण सूर्य सम - कृष्ण-सू़र्य़-सम;माया हय अन्धकार। य़ाहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार।। (श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला, 22.31) अनुवाद:-कृष्ण सूर्य के समान हैं और माया अंधकार के समान हैं। जहांँ कहीं सूर्यप्रकाश है वहांँ अंधकार नहीं हो सकता। ज्योंही भक्त कृष्णभावनामृत नाता है, त्योंही माया का अंधकार (बहिरंगा शक्ति का प्रभाव) तुरंत नष्ट हो जाता हैं। तो हम कृष्ण जो सूर्य सम है| यानी कोटि-कोटि सूर्यों के समान है कृष्णा के बारे में कहा है| कृष्णा से कितना सूर्य प्रकाश आता है? कोटि सू़र्य़-सम प्रकाश - कोटी कोटी सूर्य के समान प्रकाश और ये ज्ञान का प्रकाश तो भगवान देते हैं बुद्धि इन श्लोकों में कहा है और भगवान दृष्टि भी देते हैं| तो यही हुआ ना? चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः तो ये सारी कृष्ण की व्यवस्था है| नाशयाम्यात्मभावस्थो - मतलब अहम नाशयामि - इसका सर्वनाम क्या है? अहम है| अहमनाशयामि - में नाश करता हु - ज्ञानदीपेन भास्वता | लेकिन हम प्रैक्टिकली वैसे होते हुए देखते तो नहीं है| कृष्ण हमको ज्ञान नहीं दे रहे हैं| हमारे अंधकार को मान नहीं मिटा रहे हैं और कोई मिटा रहा है तो ये सारी व्यवस्था भगवान की है| गुरुजन ही आते हैं| कोई उसमें से मार्गदर्शक गुरु होते हैं तो कोई शिक्षा गुरु होते हैं कोई दीक्षा ग्रह होते हैं और भगवान स्वयं भी गुरु है| कृष्णवंदे जगद्गुरु और कौन सी गुरु चेति गुरु तो ये सारे भगवान की व्यवस्था है| तो ददामि बुद्धियोगं वहाँ भी अहम ददामि बुद्धियोगं कहा और नाशयाम्यात्मभावस्थो कहा तो यहाँ भी अहम् नाशयामि तो भगवान ये सारी भगवान की व्यवस्था है| मैं ये सोच रहा था हमारे आचार्य हैं और फिर हमारे फाउंडर आचार्य रहे उन्होंने ऐसी व्यवस्था करी है या ऐसी सोच रखी या फिर मैं कहूंगा कि भगवान ने ही कृष्ण ने ही उनको ऐसी बुद्धि दी ददामि बुद्धियोगं - कृष्ण ने उनको ऐसी बुद्धि दी और प्रेम भी दिया कृपा भी की प्रभुपाद के ऊपर कृपा की द्रष्टि इतनी सारी तो फिर प्रभुपाद हो गए कृपा की मूर्ति हो गए नित्यलीला नित्य लीला प्रविष्ट कृष्ण कृपामूर्ति भक्ति वेदांत स्वामी श्रीला प्रभुपाद की जय!! कृष्ण कृपा की मूर्ति| तो भगवान ने दी हुई उस बुद्धि का और कृप्या का प्रदर्शन किए श्रीला प्रभुपाद तो ये गीता जो हम तक पहुंच रही है, पहुंची हुई है| है की नहीं? कम से कम इस कांफ्रेंस में जो है उनके सबके पास तो आई है| गीता है? गीता पढ़ते हो? तो फिर आपके पास आराम से कह सकते हैं| अभी तो लाखों करोड़ों लोगों के पास जो गीता है पहुँच चुकी है या पहुंचाई जा रही है कृष्णा तो कह रहे हैं| अहम् नाशयामि आत्म-भाव स्थः - मैं इस ज्ञान का प्रकाश फैलता हूँ मैं बुद्धि देता हूँ लेकिन मैं को तो हम देख नहीं रहे हैं ऐसा करते हुए| उनकी ओर से फिर करते हैं भक्त करते हैं और उसमें कोई अंतर नहीं है भगवान ने किया या श्रीला प्रभुपाद ने किया या और उसी कार्य को फिर आप कर रहे हो| अभी आप उस गीता के वितरक बनें हो - सही है कि नहीं है? वितरक बनें हो की नहीं ? इधर उधर सब जगह आप जो गीता का वितरक कर रहे हो और इस गीता को जब लोग पड़ेंगे तो वैसे कृष्ण ने जो अर्जुन को भागवत गीता सुनाई उसकी सफलता किसमें है| कृष्णा उस गीता को अर्जुन तक सीमित नहीं रखना चाहते थे नहीं नहीं कृष्णा ऐसा नहीं सोच रहे थे अर्जुन को मुक्त नहीं करना चाहते थे नहीं अर्जुन ने कहा कि – अर्जुन उवाच नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत | स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया | आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ | 18.73 मैं सफल हो गया मेरा काम हो गया | कृष्णा ऐसा सोच ही नहीं सकते | कृष्ण तो इस संसार में जो दु:खालयमशाश्र्वतम् - जो परेशान है| उन सबके पास मेरा संदेश मेरा उपदेश पहुंचना चाहिए ये कृष्णा सोच रहे थे| तो अब जब गीता पहुंचती हैं घर घर जा रही है पहुँच रही है| पदार्थाः संस्थिता भूमौ बीजहीनास्तुषा यथा । विप्रैर्भागवतीवार्त्ता गेहे गेहे जने जने - भागवत महात्म्य: 70 या पद्म पुराण 6.193.73 आप पहुंचा रहे हो तो ये भी इसका भी श्रेय कृष्ण को जाता है| कृष्ण की ओर से हम कर रहे हैं या कृष्णा ने प्रभुपाद को बुद्धि दी और फिर प्रभुपाद ने हम बुद्धों को बुद्धिमान बनाने का सफल प्रयास भी हो रहा है| हमको भी बुद्धि मिल रही है| भगवान कहे - ददामि बुद्धियोगं - में बुद्धि देता हूँ और हम सुन रहे हैं भगवान बुद्धि देते हैं आपको बुद्धि दे ताकि आप इस गीता को सुनें समझे और साथ ही साथ गीता का वितरण करें| ऐसी बुद्धि आपको भगवान दे तो फिर जो यहाँ बात हो रही है| ददामि बुद्धियोगं मैं बुद्धि देता हूँ और तेषामेवानुकम्पार्थम तो दोनों की आवश्यकता है हृदय और दिमाग दोनों की आवश्यकता है| दिमाग भी चाहिए और हृदय भी चाहिए| तो भगवत गीता वितरण के लिए है वही वितरण करेंगे जो थोड़ा दयालु हैं| गीता का वितरण करना मतलब दया का प्रदर्शन है और जहाँ भी दया है भगवान के कारण ही है| तो आइए इन चारों श्लोको को हम थोड़ा भला भाती सुने और समझे और यहाँ जो बुद्धियोगं बुद्धि देने की और दया की बात हुई है| तो हम देखना चाहेंगे और भगवान देखना चाहेंगे कि कुछ बुद्धिमान बन रहे हैं| कि कुछ पल्ले पड़ रहा है और साथ में कुछ उनके मन में भी दया उत्पन हो रही है| देखना चाहेंगे और जब हम स्कोर सुनते हैं उससे भी पता चलता है| कृष्ण ये भजेई सेई हयाता चतुर - श्रील प्रभुपाद द्वारा गीत: वो चतुर हैं बुद्धिमान है जो कृष्ण का भजन करता है| कई दिनों में भगवद्गीता इस ज्ञान का ये गीता का वितरण करना ये कोई व्यापार नहीं है| यह हमारा पारिवारिक व्यवसाय है - श्रील प्रभुपाद ने कहा ऐसा समझाया है लेकिन ये कोई सांसारिक व्यवसाय नहीं है ये भक्ति है एक सेवा है ये एक भजन है भजन का रहस्य है| हरी हरी | | निताई गौर प्रेमानंद हरी हरी बोल| | श्रीमद भगवद गीता यथारूप की जय | गीता जयंती महोत्सव की जय | श्रील प्रभुपाद की जय कुरुक्षेत्र धाम की जय | श्री कृष्ण अर्जुन की जय | भगवत गीता वितरण कार्यक्रम की जय | गौर प्रेमानंद हरी हरी बोल |

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