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*जप चर्चा* *लाल गोविन्द प्रभु द्वारा* *दिनांक 19 फरवरी 2022* हरे कृष्ण!!! *श्रीमद्भगवतं पुराणममलं यद्वैष्णवानां प्रियं यस्मिन् पारमहंस्यमेकममलं ज्ञानं परं गीयते। तत्र ज्ञानविरागभक्तिसहितं नैष्कर्म्यमाविष्टंकृतं तच्छृण्वन् सुपठन् विचारणपरो भक्त्या विमुच्येन्नर: ।।* ( श्रीमद् भागवतम १२.१३.१८) अनुवाद:- श्रीमद-भागवतम् निर्मल पुराण है। यह वैष्णवों को अत्यंत प्रिय है क्योंकि यह परमहंसों के शुद्ध और सर्वोच्च ज्ञान का वर्णन करने वाला है। यह भागवत समस्त भौतिक कर्म से छूटने के साधन के साथ ही दिव्य ज्ञान, त्याग और भक्ति की विधियों को प्रकाशित करता है। जो कोई भी श्रीमद-भागवतम को गम्भीरतापूर्वक समझने का प्रयास करता है, जो समुचित ढंग से श्रवण करता है और भक्तिपूर्वक उसे कहता है, वह पूर्ण रूप से मुक्त हो जाता है। हरे कृष्ण!!! पुनः एक बार आप सभी भक्तों का स्वागत है। आप सभी भक्तों के चरणों में प्रणाम करते हुए परम पूज्य लोकनाथ गोस्वामी महाराज जी के चरणों से आशीर्वाद मंगल कामना लेते हुए दूसरे सत्र की ओर हम सब आगे बढ़ते हैं। जैसे कि श्रीरामचंद्र प्रभु ने कहा था कि आपको भागवत महिमा के ऊपर बोलना है। गत्र सत्र में हमनें श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध से भागवत प्राकट्य की कथा के द्वारा भागवत की महिमा का श्रवण किया था ।श्री श्रीमद्भागवत के प्राकट्य की बात जब सूत जी ने कही, तब नैमिषारण्य के ऋषि-मुनियों ने बहुत सुंदर प्रश्न पूछा जो समझने लायक है। नैमिषारण्य के शौनक आदि ऋषि कहते हैं कि एक बात हमें समझ में नहीं आती है कि शुकदेव गोस्वामी परम विरक्त थे। शुकदेव गोस्वामी को विरक्त चूड़ामणि कहा जाता है। मुनिनाम गुरू: , सबसे उत्तम, विरक्त थे। इतनी विरक्ति कि जब किसी बालक का जन्म होता है तब जन्म से उसे मां चाहिए होती है। हम सब का अनुभव है। जिस बालक का जन्म हुआ हो, उस बालक को और कुछ ना मिले, चलेगा, लेकिन उसे मां तो चाहिए। मां थोड़ी देर के लिए ही दूर होती है तो बालक रोने लगता है। शौनक आदि ऋषियों ने पूछा कि जो सूत गोस्वामी परम विरक्त थे, जिन्होंने जन्म लेते ही अपनी मां को छोड़ दिया, अपने बाबा को छोड़ दिया, अपना घर, समाज संसार सब कुछ छोड़कर वन में चले गए, ऐसे परम विरक्त चूड़ामणि ने श्रीव्यास मुनि के चरणों में बैठकर भागवत क्यों सुना? श्री शुकदेव गोस्वामी ने भागवत सुना ही नहीं अपितु भागवत को पढ़ा, भागवत को लिखा, उस भागवत के श्लोकों के ऊपर बड़ा मंथन एवं मनन किया। इतना बड़ा विरक्त आदमी यह पढ़ने लिखने की फजीहत में क्यों फसा? जो सब कुछ छोड़ छाड़ कर निकल चुका था, उसे यह सब मगजमारी करने की क्या जरूरत थी। भागवत को पढ़ना, लिखना, स्मरण करना, मंथन करना आखिर क्यों? तब इसका उत्तर देते हुए सूत जी कहते हैं- यह बात सत्य है कि शुकदेव गोस्वामी परम विरक्त हैं लेकिन दूसरी ओर श्रीमद्भागवत में भगवान श्रीकृष्ण के गुण, रूप, लीला की चर्चा की गई है। श्रीमद्भागवत में बताए हुए भगवान श्रीकृष्ण के गुण, रूप, लीला इतनी मधुर हैं, इतनी दिव्य है कि इस दुनिया का कोई भी आदमी श्रीमद्भागवत से आकृष्ट हुए बिना रह नहीं सकता। सूत उवाच *आत्मारामाश्र्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे। कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः।।* ( श्रीमद् भागवतम १.७.१०) अर्थ:- सूत गोस्वामी ने कहा: जो आत्मा में आनंद लेते हैं, ऐसे विभिन्न प्रकार के आत्माराम और विशेष रूप से जो आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर स्थापित हो चुके हैं, ऐसे आत्माराम यद्यपि समस्त प्रकार के भौतिक बंधनों से मुक्त हो चुके हैं। फिर भी भगवान की अनन्य भक्तिमय सेवा में संलग्न होने के इच्छुक रहते हैं। इसका अर्थ यह हुआ है कि भगवान में दिव्य गुण हैं, अतएव वे मुक्तात्माओं सहित प्रत्येक व्यक्ति को आकर्षित कर सकते हैं। जो हरि हैं, यह जो कृष्ण हैं, उनके गुण ही कुछ ऐसे हैं, उनकी लीला ही कुछ ऐसी है कि दुनिया का कितना भी वैरागी आदमी क्यों ना हो, जब उन कृष्ण की लीला को सुनता है, पढ़ता है तो वह आकृष्ट हो ही जाता है। नहीं तो शुकदेव गोस्वामी ... यह भी शुकदेव गोस्वामी की लीला थी। शुकदेव जी, आध्यात्म जगत के राधा रानी के निकटतम पार्षद हैं लेकिन शुकदेव गोस्वामी लीला के अनुसार जन्म से ब्रह्मवादी थे। ब्रह्मवादी अर्थात शुकदेव जी अपना घर बार सब छोड़कर वन में चले गए और ब्रह्मनंद में मगन हो गए। निराकार ब्रह्म में आसक्त हो गए। ब्रह्म समाधि का परम आनंद ले रहे थे लेकिन उस समय जब उनके कान में भागवतम के दो श्लोक पड़े *बर्हापीडं नटवरवपु: कर्णयो: कर्णिकारं बिभ्रद्वास: कनककपिशं वैजयंती च मालाम् ।* *रंध्रान्वेणोरधरसुधया पुरयन्गोपवृन्दैर् वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्ति: ।।* ( श्रीमद् भागवतम १०.२१.५) अनुवाद:- अपने सिर पर मोर-पंख का आभूषण, अपने कानों पर नीले रंग के कर्णिकारा फूल, सोने के समान चमकीले पीले वस्त्र, और वैजयंती माला धारण किये हुए, भगवान कृष्ण ने सबसे महान नर्तक के रूप में अपने दिव्य रूप को प्रदर्शित करते हुए वृंदावन के वन में प्रवेश करके अपने पदचिन्हों से इसे रमणीक बना दिया। उन्होंने अपने होठों के अमृत से अपनी बांसुरी के छिद्रों को भर दिया और ग्वालबालों ने उनके यश का गान किया। कृष्ण के रूप का वर्णन शुकदेव गोस्वामी के कान में गया। एक श्लोक भगवान श्री कृष्ण के गुण का वर्णन *अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिघांसयापाययदप्यसाध्वी। लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम ॥* ( श्रीमद भागवतं ३.२.२३) अनुवाद:- अहो, भला मैं उनसे अधिक दयालु किसी और की शरण कैसे ग्रहण करूँगा, जिन्होंने एक राक्षसी [पूतना] को माँ का स्थान दिया, हालाँकि वह विश्वासघाती थी और उसने अपने स्तन से पिलाए जाने के लिए घातक जहर तैयार किया था? जो राक्षसी पूतना कृष्ण को जान से मारने के लिए आई थी, उस राक्षसी को कृष्ण ने अपनी मां बना लिया और धात्री की गति प्रदान कर दी।'कं वा दयालु' इनसे बड़ा दयालु इस जगत में कौन हो सकता है। ऐसे सुंदर सुंदर भगवान श्री कृष्ण के गुण और रूप श्रीमद्भागवत में वर्णित है। इसीलिए शुकदेव जैसे परमानंद में स्थित व्यक्ति भी भागवत से आकृष्ट हो गए। कहते हैं आत्मारामाश्र्च मुनयो। आत्माराम समझते हैं? जिसको बाहर से किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है, जो अपने आप में ही संतुष्ट है, जो अपने आप में ही प्रसन्न हैं। खुश हैं। हमारा क्या है? हमें जब तक बाहर से कोई वस्तु ना मिले तब तक हम सुखी नहीं होते। हमें बाहर से कुछ भोजन चाहिए, कुछ ना कुछ बाहर से चाहिए लेकिन आत्माराम का अर्थ होता है जो अपनी आत्मा में ही संतुष्ट है। अपनी आत्मा में ही रमण करता है। ऐसे आत्माराम मुक्त काम जीव भी जब कृष्ण के बारे में सुनते हैं तो कृष्ण के पीछे पागल हो जाते हैं। ऐसा ही हुआ श्री शुकदेव गोस्वामी के साथ जो विरक्त थे लेकिन कृष्ण की रूप, गुण, लीला भागवत के इस वचन को सुनकर शुकदेव जी आसक्त हो गए। पुनः व्यास मुनि के पास आए और बहुत अच्छे से शुकदेव गोस्वामी ने इस भागवत को पढ़ा, सुना और आत्मसात किया। इसलिए बहुत सुंदर भागवत महात्मय के अंदर कहा जाता है।( आप श्लोक नीचे देख सकते हैं) *स्वर्गे सत्ये च कैलासे वैकुण्ठे नास्त्ययं रसः। अतः पिबन्तु सद्भाग्या मा मा मुञ्चत कर्हिचित् ।* यह भागवत महात्म्य का बड़ा दुर्लभ श्लोक है। इसीलिए कहते हैं कि भागवत का जो रस है, यह भागवत रस स्वर्ग में भी नहीं है। यह भागवत का रस ब्रह्मलोक में भी नहीं है। हमारी पृथ्वी पर, इस धरती पर, विशेष कर करके श्रील प्रभुपाद जी की कृपा से हमारे इस्कॉन में, हमारे पवित्र ब्रह्म गौड़ीय मतधारा में जिस प्रकार से शुद्ध विशुद्ध भागवत को समझा जा सकता है और समझाया जाता है, यह रस दुनिया में कहीं नहीं है। अरे! दुनिया छोड़ो, स्वर्ग में भी नहीं है। इसलिए भागवत के पंचम स्कंध में स्वर्ग के देवता भगवान से स्तुति करते हैं कि हे प्रभु, हम तो देवता बनकर घाटे में पड़ गए हैं। खाली फोकट हम देवता बने। वास्तव में यदि आप हम पर कृपा करो तो हमें दूसरा जन्म पृथ्वी पर चाहिए। हमें मनुष्य बनना है और मनुष्य बनकर आप की कथा सुननी है। हमें भागवत सुनना है। बहुत सुंदर यहां सूत जी कहते हैं स्वर्गे, सत्ये अर्थात ब्रह्मलोक में, च कैलासे अर्थात कैलाश लोक में, वैकुंठे अर्थात वैकुंठ में भी नास्त्ययं रसः यह जो मेरे सामने भागवत है ना, यह भागवत का रस ना स्वर्ग में है, ना सत्ये में हैं, ना कैलाश में है, ना बैकुंठ में है। भागवत का रस वैकुंठ में भी नहीं है। वैकुंठ भी घाटे में रह जाएगा। मुझे तत्कालीन कबीर जी की घटना याद आती है। एक बार क्या हुआ कि कबीर दास जी को लेने के लिए भगवान के पार्षद आए। शंख, चक्र, गदा,पदम्, पीतांबर धारण किए हुए भगवान के पार्षद कबीर दास जी के सामने आए और कहा- चलो, विमान में बैठो । हम आपको वैकुंठ ले जाने आए हैं। कबीर दास जी रोने लगे। ऐसा वर्णन है कि कबीरदास रोने लगे। राम बुलावा, भेजिया, दिया कबीरा रोय... कहते हैं कि राम बुलावा भेजिया,दिया कबीरा रोय। भगवान के पार्षदों को देखकर कबीर दास जी रोने लगे। भगवान के पार्षद कहते हैं कि कबीर दास जी आप रोए मत। हम आपको नरक में ले जाने के लिए नहीं आए अपितु हम आपको वैकुंठ ले जाने के लिए आए हैं। आपकी उर्ध्वगति हो रही है, आप वैकुंठ में जा रहे हैं। कबीरदास जी कहते हैं कि इसलिए तो रोना आ रहा है। पार्षद बोले- क्यों? तब कबीरदास जी कहते हैं- राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय.. जो सुख है सत्संग में, सो वैकुंठ में न होय। जो सुख है सत्संग में, सो वैकुंठ में न होय। वैकुंठ में नहीं होय। वह तो बैकुंठ में भी नहीं मिलेगा। इसलिए कबीर रोते हैं। इसीलिए इस श्लोक में यही कहा जा रहा है- यह भागवत का जो रस है, *स्वर्गै नास्ति, ब्रह्मलोके नास्ति, वैकुंठे नास्ति, कैलासे नास्ति*.. इसीलिए अतः पिबन्तु सद्भाग्या हे सद्भागियों! श्रील प्रभुपाद यहां अनुवाद करते हैं- 'वेरी वेरी फार्च्यूनेट पर्सन' हम लोग बहुत भाग्यशाली हैं क्योंकि जो रस स्वर्ग में नहीं है, सत्य में नहीं है, कैलाश व बैकुंठ में नहीं है, वो रस हमें प्रभुपाद जी की कृपा से प्रतिदिन रोज इस्कॉन संस्था में प्राप्त होता है। इसलिए हे भाग्यशालियों, हे सद्भाग्य! अतः पिबन्तु.. इस भागवत रस को पी लीजिए। हे भाग्यशालियों! इस रस को पी लीजिए। *मा मा मुञ्चत कर्हिचित्।* संस्कृत में मां मतलब नहीं। कर्हिचित् अर्थात कभी भी इस रस को मत छोड़िए। चाहे कुछ भी हो जाए, जीवन में सारे कार्य छोड़ने पड़े लेकिन भागवत रस को मत छोड़िए। इस प्रकार से श्रीमद्भागवत के रस की महिमा वर्णित होती है। आज हमनें श्रीमद्भागवत के बारहवें स्कंध का तेरवहें अध्याय का 18 नंबर श्लोक लिया है। इस श्लोक में सूतजी कहते हैं- *श्रीमद्भागवतं पुराणममलं यद्वैष्णवानां प्रियं यस्मिन पारमहंस्यमेकममलं ज्ञानं परं गीयते। तत्र ज्ञानविरागभक्तिसहितं नैष्कर्म्यमाविष्कृतं तच्छृण्वन् सुपठन् विचारणपरो भक्तया विमुच्येन्नरः।।* भागवत की बड़ी सुंदर महिमा है। यह भागवत कैसा है? 'श्रीमद्भागवतं पुराणममलं'एक एक शब्द को थोड़ा सा समझने का प्रयास करें तो सबसे पहला शब्द है श्रीमद्भागवतं । मत अर्थात युक्त। यह भागवत कैसा है? श्री से युक्त। वेद व्यास मुनि ने असंख्य शास्त्र लिखे हैं लेकिन मैं आपको प्रश्न पूछूं कि उस व्यास मुनि के द्वारा लिखे हुए असंख्य शास्त्रों में यह श्रीमद् शब्द जो है इसे केवल दो ग्रंथ के आगे लगाया गया है। यह श्रीमद् शब्द व्यास मुनि के असंख्य ग्रंथ, असंख्य शास्त्रों में रचना में केवल दो ग्रंथों में श्रीमद् शब्द है। वे दो ग्रंथ हैं- श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीमद्भागवतं । देखिए! शिव पुराण केवल शिव पुराण है। उसे श्रीमद् शिव पुराण नहीं कहते या गरुड़ पुराण को श्रीमद् गरुड़ पुराण नहीं कहते। सब केवल पुराण हैं लेकिन दो ग्रंथ ऐसे हैं जिनके आगे श्रीमद् शब्द लगाया गया है और हमारा सौभाग्य श्रील प्रभुपाद जी ने ये दोनों ग्रंथ प्रतिदिन हमारे इस्कॉन मंदिरों में प्रतिस्थापित कर दिया। सुबह श्रीमद्भागवत और शाम को भगवत गीता। अच्छा इन दोनों ग्रंथों के आगे श्रीमद् शब्द क्यों लगाया गया? श्रीमद् शब्द इसलिए क्योंकि इन सारे ग्रंथों में दो ग्रंथ ऐसे हैं जो श्री के मुख से निकले हैं। श्री मतलब भगवान के मुख से निकले हैं। बाकी सभी ग्रंथ ऋषि मुनियों के मुख से, साधु-संतों के मुख से निकले हैं। लेकिन यह दो ग्रंथ स्वयं भगवान् के मुख से निकले हैं। *गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता।।* हमें गौरव होना चाहिए। हमें प्राउड फील करना चाहिए कि हमने जिस ग्रंथ का आश्रय लिया है ना, इस ग्रन्थ के वक्ता डायरेक्ट भगवान कृष्ण हैं। यह भागवत कुछ और नहीं, यह भगवान का अधरामृत है। जैसे गोपी गीत में गोपियों ने मांग की है कि अपने अधरामृत का पान कराइए, वह अधरामृत और कुछ नहीं, श्रीमद्भागवत और गीता ही श्रीकृष्ण का का अधरामृत है। क्योंकि यह स्वयं श्रीकृष्ण के मुख से प्रकट हुआ है। भगवत गीता के विषय में आप सब जानते ही हैं कि कुरुक्षेत्र के प्रांगण में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सुनाई थी। श्रीमद्भागवतं भी स्वयं सर्वप्रथम भगवान ने अपने मुख से प्रकट की। बहुत सारे आचार्यों ने श्रीमद्भागवतं के बहुत सारे अर्थ किए हैं। श्री अर्थात सौभाग्य, श्री अर्थात सुंदरता। श्रीमद्भागवतं को सुनने वाला व्यक्ति सौभाग्यशाली हो जाता है। सुंदर हो जाता है, कीर्तिमान/ यशोमान हो जाता है। अब थोड़ा आगे बढ़ते हैं। यह श्रीमद्भागवत कैसा है? पुराणतिलकं। पहले भागवत का अर्थ क्या है? यह भी समझ लीजिए। श्रीमद् का अर्थ समझा। भागवत में से भ के बाद मात्रा निकाल देंगे तो बचेगा भगवत। भगवत अर्थात भगवान। यदि उसमें मात्रा जोड़ देते हैं तब भागवत हो जाता है। भागवत अर्थात भगवान के या भगवान् का। जैसे हम कहते हैं वसुदेव। वसुदेव मतलब कृष्ण के पिता। वासुदेव अर्थात वसुदेव के पुत्र। ऐसे ही भगवत अर्थात भगवान्। भागवत अर्थात भगवान् का। भागवत अर्थात यह जो ग्रंथ है, यह भगवान का ग्रंथ है। इस ग्रंथ में भगवान के जितने भी भक्त हैं, उन भक्तों के चरित्रों का वर्णन है। 'श्रीमद्भागवतं पुराणतिलकं' यह भागवत कैसा है? सारे पुराणों का तिलक है। व्यासमुनि ने 18 पुराण लिखें। उन 18 पुराणों का मुकुट मणि सरताज यदि कोई है तो श्रीमद्भागवतं है। व्यास मुनि ने सारे ग्रंथ, सारे पुराण लिखंश और भागवत जब उन्होंने लिखा तो उन्होंने कलम छोड़ दी। आपकी जानकारी के लिए भागवतं लिखने के बाद श्रीलव्यास देव जी ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा। यह अल्टीमेट ग्रंथ है। इस ग्रंथ के बाद किसी ग्रंथ को लिखने की आवश्यकता ही नहीं रही। अंत में व्यास मुनि ने एक श्लोक धर दिया। यह समझना बड़ा जरूरी है। श्रील व्यास मुनि कहते हैं कि अब तक आप बहुत सारे वेद, पुराण पढ़ते थे। वह ठीक था लेकिन अब आपको किसी भी अन्य वेद पुराणों को पढ़ने की जरूरत नहीं है क्योंकि अब भागवत प्रकट हो चुका है। अब जब भागवत प्रकट हो चुका है तो अन्य वेद पुराण मत पढ़िए। यदि पढ़ोगे तो स्वयं व्यास मुनि पदम पुराण में लिखते हैं भागवत को छोड़कर अन्य पुराण पढ़ोगे तो बुद्धि भ्रमित हो जाएगी। भक्तों हमें भी इसका अनुभव है। हमनें तो अभ्यास के लिए इन पुराणों को पढ़ा है। आप किसी भी पुराण को पढ़ेगें केवल संशय और भ्रम पैदा होगा। स्वयं व्यास मुनि इस बात का इजहार करते हैं किं अन्य पुराणों को पढ़ने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि अब भागवत प्रकट हो चुकी है। भागवतं के प्रारंभ में वेदव्यास जी ने स्वीकार भी किया। वे कहते हैं *धर्म: प्रोज्तकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम्। श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वर: सद्यो हृद्यवरुध्यतेअत्र कृतिभि: शुश्रूषुभिस्तत्त्क्षपणात्।।* ( श्र मदभागवत 1.1.2) अनुवाद:- भौतिक रूप से प्रेरित सभी धार्मिक गतिविधियों को पूरी तरह से खारिज करते हुए, यह भागवत पुराण उच्चतम सत्य को प्रतिपादित करता है, जो उन भक्तों द्वारा समझा जा सकता है जो पूरी तरह से शुद्ध हैं। सर्वोच्च सत्य सभी के कल्याण के लिए भ्रम से अलग वास्तविकता है। ऐसा सत्य त्रिगुणात्मक दुखों का नाश करता है। महान ऋषि व्यासदेव [उनकी परिपक्वता में] द्वारा संकलित यह सुंदर भागवतम, ईश्वर प्राप्ति के लिए अपने आप में पर्याप्त है। किसी और शास्त्र की क्या जरूरत? जैसे ही कोई ध्यान से और विनम्रता से भागवतम के संदेश को सुनता है, ज्ञान की इस संस्कृति के द्वारा सर्वोच्च भगवान उसके हृदय में स्थापित हो जाते हैं। मैंने अब तक जितने भी ग्रंथ लिखे, उनमें कपट धर्म का वर्णन किया है लेकिन अब जो भागवत लिखने जा रहा हूं, उसमें कपट धर्म का वर्णन नहीं है। कैतव धर्म का वर्णन नहीं है। मैं आत्म धर्म का वर्णन करने जा रहा हूं। श्रीमद्भागवतं पुराणममलं। आगे क्या कहते हैं यद्वैष्णवानां प्रियं। यह भागवत समस्त वैष्णवों का धन है। भक्तों! हम सब वैष्णव हैं और हम सब वैष्णव का वास्तविक धन श्रीमद्भागवतं है। यदि भागवत ना हो तो हम सब कंगाल हैं। अब ज़्यादा क्या बताऊं? इसमें तो बहुत कुछ बोला जा सकता है लेकिन कुछ दिन के बाद महाशिवरात्रि का पर्व है। देवाधिदेव महादेव सजने वाले हैं। महाशिवरात्रि का पर्व हो और वैष्णव की चर्चा हो तो आप देख सकते हैं प्रथम लाइन में वैष्णव नाम धनं। दुनिया में लोग शिव जी का परिचय गांजा पीने वाले, भांग पीने वाले, धतूरा लेने वाले यह सब सांसारिक परिचय हैं लेकिन भागवती परिचय, शिवजी का परिचय क्या है? *निम्नगानां यथा गंङ्गा देवानामच्युतो यथा। वैष्णवानां यथा शंभु: पुराणानामिदं तथा।।* ( श्रीमद् भागवतम १२.१३.१६) अनुवाद:- जिस तरह गंगा, समुद्र की ओर बहने वाली समस्त नदियों में सबसे बड़ी है, भगवान् अच्युत देवों में सर्वोच्च हैं और भगवान् शम्भु ( शिव) वैष्णवों में सबसे बड़े हैं, उसी तरह श्रीमद्भागवत समस्त पुराणों में सर्वोपरि है। जैसे भारत में अनेकों नदियां हैं, उन सभी में नदियों में श्रेष्ठ गंगा है। 33 करोड़ देवी देवता हैं, उन सभी देवताओं में श्रेष्ठ विष्णु हैं। अठारह पुराणों की संख्या है लेकिन सभी पुराणों में श्रेष्ठ भागवत है। ठीक उसी प्रकार इस दुनिया में करोड़ों करोड़ों वैष्णव है उन सभी वैष्णव के सिरमोर श्री वैष्णवानां यथा शम्भुः। श्रीदेवाधिदेव महादेव सभी वैष्णवों में श्रेष्ठ अथवा सिरमोर है। यहां पर कहा गया है *श्रीमद्भागवतं पुराणतिलकं यद्वैष्णवानां प्रियं*। यह भागवत वैष्णवों का धन है। सभी वैष्णव के शिरोमणि कौन है? देवाधिदेव महादेव। अब महादेव के जीवन में देख लीजिए। रामायण में लिखा है कि रात दिन शिवजी श्रीमद्भागवतं का आश्रय किए हैं। भक्तों! कल के इतिहास का मुझे तत्कालीन एक बिंदु याद आ रहा है कि हमारे दक्षिण भारत में बहुत सुंदर भक्त हुए। उस भक्त का नाम था पुनथानंद। आपने कभी सुना होगा, यह पुनथानंद दक्षिण भारतीय भक्त थे । यह राधा कृष्ण के भक्त हुए। पुनथानंद, भागवत को बहुत सुंदर गाते थे, बहुत सुंदर भागवत को पढ़ते थे। उनके साथ हमेशा भागवत होता था। वे जब भागवत का पाठ करते तो लोग झूमने लगते थे। विचरण करते करते वे उत्तर केरल कोटियूर में पहुंचे। केरल में एक स्थान कोटियूर है। वहां पर शिव जी का बहुत सुंदर मंदिर है। वह मंदिर साल में एक या दो महीने के लिए ही खुलता है। फिर साल भर वह मंदिर बंद रहता है। यह विचरण करते करते केरल में कोटियूर में पहुंचे। उन दिनों में यह शिव जी का मंदिर खुला था। ये उस मंदिर में पहुंचे और हाथ में भागवत थी। भागवत पढ़ने लगे, वहां पर जो लोकल भक्त थे, वे कहने लगे यह तो बहुत अच्छा भागवत पढ़ते हैं। उन्होंने कहा- पुनथानंद जी, आप जब तक यहां पर हो। तब तक आप यहां भागवत पढ़िए, अब पुनथानंद जी भागवत पढ़ने लगे। भक्तों! भागवत पढ़ते-पढ़ते वे भागवत के दशम स्कंध में पहुंचे। दशम स्कंध में एक लीला है- द्वारिका लीला में भगवान श्रीकृष्ण रुक्मिणी के साथ एक दिन कमरे में बैठे हैं और कृष्ण रुक्मिणी से थोड़ा सा प्रेम कलह करते हैं। रुक्मिणी बेड पर बैठी हैं। कृष्ण बेड से खड़े होकर थोड़ा आगे चलने लगे। कृष्ण कहते हैं कि रुक्मिणी मुझे ऐसा लगता है कि तुमने बहुत बड़ी गलती कर दी है। तब रुक्मिणी बेड से खड़ी हो जाती है, बोलती है कि आपको ऐसा क्यों लगता है? कृष्ण ने कहा कि रुक्मिणी तुमने मुझे पत्र लिखा। पत्र लिखने से पहले कुछ सोचा भी नहीं। तुमने मेरे साथ विवाह किया, मेरे में ऐसा क्या है, तुम सोचती हो कि मैं बहुत सुंदर हूं पर मैं तो काले रंग का हूं। कोई गोरे चिट्टे रंग के लड़कें के साथ शादी करती। एक काले के साथ शादी कर ली। तुमने ऐसा सोचा कि मेरा बैकग्राउंड बड़ा अच्छा है, तुम कम से कम मेरा बैकग्राउंड तो चेक करती। मैंने चोरी के अलावा कुछ नहीं किया, बचपन में माखन की चोरी की, बड़ा हुआ तो गोपियों का चीर चुराया, मेरा तो बैकग्राउंड भी कोई ठीक नहीं है। मेरा रूप भी काला है, तुम अगर ऐसा सोचती हो कि मेरा फ्रेंड सर्कल अच्छा होगा। यह रुक्मिणी सुन रही है, कृष्ण धीरे-धीरे आगे चलते हुए कह रहे हैं-"तुम सोचती हो, मेरा फ्रेंड सर्कल बहुत अच्छा होगा। फिर हम पार्टी करेंगे, इंजॉय करेंगे, मेरा फ्रेंड भी घूम फिर कर पोरबंदर का सुदामा है, वो भी भिखारी कंगाल आदमी है। ना तो मेरा फ्रेंड सर्कल ठीक है और मेरा रूप भी काला है, मेरा बैकग्राउंड नहीं है। रुक्मिणी अब शादी की है तो कल बच्चे भी होंगे। जब बच्चे बड़े होंगे तो मामा के घर पर जाना चाहेंगे। मामा अच्छे लगते हैं ना! हमारे बच्चों को मामा से कुछ लेना-देना ही नहीं क्योंकि मेरी तेरे भाई रुक्मी के साथ दुश्मनी है। इसलिए बच्चे बेचारे मामा के घर पर भी नहीं जा पाएंगे। उससे अच्छा है रुक्मिणी एक काम करो। अभी भी ज्यादा समय नहीं हुआ है, मैं तुम्हें वापस कौंडिन्यपुर छोड़ आता हूं। जब इस प्रकार कृष्ण ने कहा- पीछे धड़ाम करके आवाज आई। कृष्ण मुड़कर देखते हैं कि रुक्मिणी पीछे मूर्छित होकर गिर गई है। कृष्ण दौड़ कर गए, रुक्मिणी के ऊपर जल छिड़का और रुक्मिणी को कहा- अरे! रुक्मिणी! मैं तो मजाक कर रहा था। जैसे तैसे रुक्मिणी को होश आया और कहा कि आज के बाद ऐसा मजाक मत करना। तब कृष्ण ने कहा-'हे रुक्मिणी! गृहस्थ जीवन के दो तो आनंद है।' यह भागवत के वचन बोल रहा हूं।' एक तो छोटे-छोटे बच्चों की तोतली बोली सुनना।' चाचा, मामा, पापा बच्चे बोलते हैं ना। दूसरा है- 'रूठी हुई पत्नी को मनाना।' गृहस्थों का यही तो आनंद है। मैं कुछ आनंद करने जा रहा था, तुम तो मूर्छित होकर ही गिर गई। इस प्रकार भागवत की कथा पुनथानंद उस केरल के कोटियूर शिव जी के मंदिर में सुना रहे थे। जब उन्होंने इस अध्याय को पूर्ण किया। उन्होंने कहा- आज का दिन समाप्त हुआ। तब वहां के पंडितों ने कहा कि "एक काम करो, भागवत यहीं पर रख दो। कल तुम्हें यहीं पर आना है। यहां पर एक बुकमार्क रख दो। कल आकर यहां से आगे 61वें अध्याय से शुरू कर देना। पुनथानंद ने कहा- ठीक है। भागवत रख दी और घर पर गए, अब दूसरे दिन सुबह आए, सारे श्रोता बैठे हैं। वह जो बुकमार्क था- जो हमनें रुक्मिणी की कथा सुनी थी, वह पूर्ण हो चुकी थी लेकिन वह बुकमार्क किसी ने आगे कर दिया था। पुनथानंद समझ नहीं पाए कि मैंने तो यह अंत में रखा था। आगे बुकमार्क कैसे आ गया। सोचा कि चलो जो भी है, जहां बुकमार्क है, वहीं से शुरू करते हैं, ऑल गोइंग फॉर मेकअप कर लिया फिर से यह रुक्मिणी की कथा शुरू हुई। किस प्रकार से रुक्मिणी रूठी और कृष्ण ने जाकर मनाया। तत्पश्चात पूरा दिन समाप्त हो गया। कथा समाप्त हुई, बुकमार्क रखा, बंद करके घर पर गए। अगले दिन आए तो फिर से बुकमार्क आगे आ गया था, एक महीने तक निरन्तर यह चलता रहा। कोटियूर के उस शिवजी के मंदिर में एक महीने तक एक ही कथा होती रही अर्थात एक ही अध्याय की कथा चली। अब मंदिर बंद होने वाला था। मंदिर का लास्ट दिन था। अब मंदिर एक साल के बाद खुलेगा। सब लोग ने तैयारी कर दी। साफ सफाई कर दी। मंदिर बंद कर दिया, सब लोग बाहर निकले। पुनथानंद बाहर निकला, नदी पार करके उस पार पहुंचा। तब पता चला- अरे बाप रे! एक महीने तक मैं भागवत साथ नहीं लेता था क्योंकि दूसरे दिन मुझे मंदिर में जाना होता था लेकिन कल तो मंदिर जाना नहीं है। एक साल के बाद मंदिर खुलेगा, मेरा भागवत मंदिर में छूट गया। पुनथानंद ने नदी पार की और दौड़कर मंदिर में आया, देखा तो मंदिर बंद। अध्यक्ष के पास गए, मैनेजमेंट के पास गए, टेंपल कमांडर सबको एकत्रित किया कि मेरा भागवत अंदर है। सब ने बोला- मंदिर नहीं खुलेगा। पुनथानंद ने कहा- एक महीने हमने सेवा की है तो इतना तो कर दो, भागवत तो हमें बाहर दे दो। मेरा जीवन यद्वैष्णवानां प्रियं। हमारा धन ही तो भागवत है, हमें भागवत वापस कर दो। यह सब लोग जब मंदिर खोलने गए तब अंदर देखा कि कुछ आवाज आ रही है। टेंपल कमांडर, अध्यक्ष सबने देखा कि कुछ आवाज आ रही है। जहां की होल होता है ना अर्थात जहां चाबी डाल कर खोलना होता है। वहां छोटा सा जो छिद्र होता है। उन लोगों ने देखा अद्भुत दृश्य।( मैं किस बिंदु पर बोल रहा हूं।) *यद्वैष्णवानां प्रियं धनं* वैष्णवों का धन भागवत है। उस छिद्र से क्या देखा? देवाधिदेव महादेव शिव जी प्रकट हो चके हैं, शिवजी के बाजू में पार्वती बैठी हैं। उनकी गोद में गणेश जी बैठे हैं, उनके बगल में कार्तिकेय बैठे हैं व सारे शिव जी के गण बैठे हैं और शिव जी भगवतकथा बोल रहे हैं। एक महीने तक तो पुनथानंद ने कथा सुनाई। महीने के बाद जब भागवत सुननी थी तो सुनाने वाला कोई नहीं तो शिवजी बैठ गए। शिवजी कथा सुनाने लगे। ( यह लोग देख रहे हैं।) कथा समाप्त हुई। शिव जी ने कहा- श्रीमद्भागवत पुराण की जय! बताओ! पार्वती, आपको कैसा लगा? तब पार्वती कहती हैं- पतिदेव! वैसे तो ठीक है। कथा बहुत अच्छी लगी लेकिन पुनथानंद ने जैसी कथा कही, ऐसा आपने जमाया नहीं। शिव जी ने कहा- ऐसे कैसे? मैं तो वैष्णवानां यथा शम्भुः। मैं तो वैष्णवों में भी शिरोमणि हूं। पार्वती ने कहा- गणेश से पूछ लो। मेरी गोद में बैठा है (मेजॉरिटी वोटिंग होता है ना, जब इस प्रकार से संशय होता है) बच्चे भी मां के पक्ष में ही होते हैं। ध्यान रखना, अपने घर में वालों में जब मां-बाप का युद्ध होता है ना, बच्चे मां के साथ चले जाते हैं। गणेश जी ने कहा- पापा! पापा! मम्मी बराबर कह रही है। यह कथा जो एक महीने से पुनथानंद सुना रहा था, ऐसी कथा आप नहीं सुना रहे हैं। कार्तिकेय से पूछा, शिव गणों ने भी कहा- नहीं महाराज! बात तो सही है। कल तक जो उसने सुनाया, बड़ा आनंद आ रहा था। आप सुना रहे हैं लेकिन ठीक-ठाक हो रहा है। फिर तो बहुत सुंदर प्रसंग है, सारे भक्तों की आंखों से आंसू आ गए। वहां पर साबित हुआ कि शिव जी का प्राण धन श्रीमद् भागवतम है। शिवजी निरंतर श्रीमद्भागवत सुनते हैं। वह जो बुकमार्क का चक्कर था ना- शिवजी को भागवत का यह प्रसंग बहुत पसंद था। इसलिए शिवजी पुनथानंद जी जब कथा समाप्त करके बुकमार्क रखते थे तो रात को शिवजी उठाकर उसे आगे रख देते थे ताकि एक ही कथा को वो एक महीने तक सुन सके। इस प्रकार श्रीमद्भागवत पुराण तिलकं यद्वैष्णवानां धन। मैं 2 मिनट में यह श्लोक पूर्ण कर दूं। *यस्मिन पारमहंस्यमेकममलं ज्ञानं परं गीयते।* श्रीमद्भागवतं में बड़े-बड़े परमहंस... । (आप परमहंस जानते हैं? परमहंस उसे कहते हैं जो सत् और असत् का भेद जानता है। सत् क्या है? असत् क्या है? उस में अंतर क्या है? उसका भेद जानते हैं। उसे परमहंस कहते हैं।)बड़े-बड़े परमहंसों के लिए जो ग्रहणीय ज्ञान होता है। वह ज्ञान श्रीमद्भागवतं में वर्णन किया गया है। इतना ही नहीं तत्र ज्ञान विराग भक्तिसहितं.. इस भागवत में ज्ञान, वैराग्य और भक्ति है। यह भागवत जब हम सुनते हैं तो भक्ति, ज्ञान, वैराग्य नाचने लगते हैं और यह प्रसंग भागवत महात्म्य में है कि किस प्रकार से भक्ति महारानी बूढ़ी हो गई। ज्ञान वैराग्य रुद्ध हो गए थे और कोई उपाय नहीं बचे। सारे वेद का पाठ किया फिर भी कुछ नहीं हुआ। तब नारद मुनि ने आयोजन किया, सनकादि ने कथा कही और भागवत के द्वारा भक्ति, ज्ञान, वैराग्य तृप्त हुए और बिल्कुल जवान हो गए। हम और आप यदि भागवत पढ़ेंगे, सुनेंगे तब हमारे जीवन में भक्ति, ज्ञान, वैराग्य बढ़ जाएगा।। 'नैष्कर्म्यमाविष्कृतं' श्रीमद्भागवत को पढ़ने से धीरे धीरे सारी कामना/ वासना दूर हो जाएगी। हम साधक भक्तों के लिए चौथी लाइन बड़ी महत्वपूर्ण है। हम लोग एक पॉइंट में बहुत मार खाते हैं। वो है कि श्रीमद्भागवत को कैसे स्वीकार करना है। कहते हैं कि *तच्छृण्वन्* भागवत को सुनना है। सबसे पहले सुनना है। कई बार कुछ लोग होते हैं ना, भागवत को सुनते हैं और नोट्स बनाते हैं। नहीं! देखिए जब भागवत बोलने वाला बोलता है, वह शब्द सीधा दिल में आ रहा है। जो शब्द दिल में जा रहा है उसे पेपर पर मत लो। पेपर में लोगे तो पेपर में ही रह जाएगा, सबसे पहले सुनो, ध्यान पूर्वक सुनो। सब कुछ छोड़छाड़ कर उस रस का आस्वादन करो। जब तक हम रस नहीं पिएंगे तो हम दूसरों को नहीं पिला पाएंगे। इसलिए बहुत अच्छे से 'श्रृण्वन' सुनो। अच्छे से भागवत को सुनो, तत्पश्चात सुपठन अर्थात पढ़ो। अब लिखने की बात आ रही है, एक बार सुन लिया। अब तो माया देवी की कृपा है। ये रिकॉर्डिंग का जमाना है। एक बार अच्छे से सुन लिया। तब नोट बनाए, फिर लिखे पढ़े, वह सेकंड टाइम में होता है। पहले टाइम तो केवल सुनो, आनंद से सुनो। सुनना है आनंद लेना है। तच्छृण्वन् सुपठन। केवल पठन् नहीं लिखा है। चौथी लाइन में देख सकते हैं सुपठन लिखा है, बहुत अच्छे से भागवत को पढ़ना चाहिए। स्कूल में जैसे सब्जेक्ट पढ़ते हैं। जैसे हमारे जीवन में, मैं तो ऐसे ही करता हूं। हमारी दैनिक जीवन में एक श्रवण का सब्जेक्ट होना चाहिए, केवल सुनेंगे। दूसरा कुछ एक डेढ़ घंटा सुपठन अर्थात केवल पढ़ेंगे। पढ़ने का टाइम अलग होता है, सुनने का अलग होता है। हम जहां मार खाते हैं ना, वह तीसरे पॉइंट पर है। हम लोग भागवत सुन भी लेते हैं। इनमें से जो प्रचारक हैं जो प्रचार करते हैं वे भागवत को पढ़ भी लेते हैं लेकिन मार कहां खाते हैं। विचारणपरो। हम इस पर विचार नहीं करते हैं। हमने सुना पढ़ा। नोट्स बनाएं और फिर प्रचार। सुना, पढ़ा और प्रचार। हमारा यह चल रहा है लेकिन उसके बीच हम लोग एक चीज मिस कर रहे हैं। वह जो मिस कर रहे हैं, वह है विचारणपरो। विचार, हम जो भागवत सुनते हैं, पढ़ते हैं, उस पर विचार होना चाहिए। उस पर मन में मंथन होना चाहिए। जितना हम विचार करेंगे ना, भक्तों ! वह सब्जेक्ट उतना ही क्लियर होगा। उतना रस और आनंद आप स्वयं को आएगा। उतना ही रस और आनंद हम दूसरों को दे सकते हैं। हमारे षड् गोस्वामीगण यही करते थे, विचार करते थे। हम लोग खासकर मैं मेरे जैसों की बात कर रहा हूं। सुनते हैं, पढ़ते हैं और सीधा बोल देते हैं लेकिन उस बीच में विचार। इसे रसास्वादन कहते हैं। श्रीमद्भागवत का स्वयं रसास्वादन करना है। भागवत का आस्वादन करना है। यदि भक्त लोग ऐसा करेंगे तो अंतिम शब्द है विमुच्येन्नरः अर्थात विशेष रूप से मुच्यत। विशेष रूप से मुच्यत का अर्थ होता है कि हमारा जो स्वरूप है, हम अपने स्वरूप में आ जाएंगे। *मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितः।* ( श्रीमद्भागवतं २.१०.६) अनुवाद:- परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर जीवात्मा के रूप की स्थायी स्थिति मुक्ति है। हम अपने स्वरूप में स्थित हो जाएंगे अर्थात भगवान के साथ संबंध जुड़ जाएगा और उस संबंध के अनुसार हमारा स्वरूप प्रकट हो जाएगा। उस सेवा में लग जाएंगे। भगवत प्रेम और भगवत धाम प्राप्त हो जाएगा। यह संक्षिप्त में श्रीमद् भागवत जी की महिमा है। जितना भी हमारे पास समय था, सामर्थ्यता थी। हमने आप सबके बीच में प्रस्तुत किया। आप सभी भक्त/ बड़े साधक भक्त साधना करके तुरंत हम जो भी सुनते हैं, वह बड़े अच्छे से समझ में आता है और याद भी रह जाता है। आप सब प्रतिदिन इस प्रकार से भागवत सुनते हैं, आप सब बड़े सौभाग्यशाली हैं। मैं विशेष धन्यवाद करूंगा जो इस कार्यक्रम को चलाते हैं। सारे ऑर्गेनाइजर को और साथ ही साथ परम पूज्य लोकनाथ गोस्वामी महाराजश्री को। महाराज श्री की हम पर बड़ी कृपा है। वास्तव में परम पूज्य लोकनाथ गोस्वामी महाराज ने हमें भागवत सेवा में लगाए रखा है। वह हमें अनेकों जगह पर भेजते हैं, आप यहां कथा कीजिए। यहां कथा कीजिए। जीवन में कभी उत्साह कम होता है, तब महाराज श्री से मिलते हैं। महाराज जी के चंद वचन हमें उत्साह से भर देते हैं। एक दिन मैं महाराज जी से मिला और मैंने कहा, महाराज जी! आप इतना ट्रेवल कर रहे हैं, इतना घूम रहे हैं। इतना कोई नहीं करता। आप रेस्ट कीजिए। अब हम लोग थोड़ा तैयार हो गए हैं, अब हम लोग प्रीचिंग करेंगे। आप आराम कीजिए, तब महाराज जी ने इतना ही कहा- ध्यान से सुनियेगा। आराम तो अब गोलोक वृंदावन जाने के बाद ही होगा। इस जीवन में आराम नहीं होगा। ऐसे ऐसे शब्द जो है ना। इससे उत्साह बढ़ता है, पावर बढ़ता है। गुरु महाराज की कृपा बनी रहे और इसी प्रकार हरि नाम और भागवत के आश्रय में बने रहे। ऐसे प्रभुपाद और भगवान के चरणों में कामना करते हुए यहीं पर वाणी को विराम देता हूं। ग्रंथराज श्रीमद्भागवतं महापुराण की जय! जगद्गुरु श्रील प्रभुपाद की जय! परम पूज्य लोकनाथ गोस्वामी महाराज की जय! निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!! हरे कृष्ण!!!

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