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जप चर्चा, पंढरपुर धाम से, 21 जून 2021 हरे कृष्ण! नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने। श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्री अद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गोर भक्त वृंद।हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलं| कलौ नास्त्यैव नास्त्यैव नास्त्यैव गतिरन्यथा|| नमो महा-वदान्याय, कृष्ण प्रेम प्रदायते। कृष्णाय कृष्ण चैतन्य, नामने गोर-तविशे नमः ॥ ओअम् अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः। मैं यहां इस सेशन को विराम देने का विचार कर रहा हूं। मैंने अपनी 64 माला का जप आपके समक्ष ही अभी अभी कुछ समय पहले पूर्ण किया हैं हरि हरि! आज के मेरे 64 माला का वैशिष्ट्य यह रहा कि मैंने अपनी 64 माला एक साथ अखंड पूरे की।मुझे नहीं याद कि आज से पहले मैंने कभी भी अपनी माला ऐसे एक साथ अखंड ही 64 माला की हो।मैं निरंतर जप करता रहा।हरि नाम प्रभु की जय।यहां रुकने के लिए,हमारे साथ जप करने के लिए आप सभी का शुक्रिया।आप में से बहुत से लोग आ रहे थे और जा रहे थे,लेकिन ज्यादातर तो यहीं रुक कर जप कर रहे थे। आप में से अधिकतर ने ही मेरा साथ दिया, इसके लिए आप सभी का धन्यवाद। इसके लिए मैं अपनी प्रसन्नता भी वक्त व्यक्त करता हूं। हरि हरि!अब मैं कुछ पठन-पाठन करूंगा।इससे विषयांतरण तो नहीं कह सकते क्योंकि विषय तो वही हैं। पहले हरि नाम चल रहा था,अब हरि कथा का श्रवण करेंगे और पढ़ेंगे।पठन-पाठन करेंगे।आज सचमुच ही उपवास हो रहा हैं। वैसे तो हर एकादशी उपवास होता ही हैं। लेकिन आज निर्जला उपवास हो रहा हैं।आज जल भी नहीं ले रहे हैं।आज जल भी नहीं ग्रहण करना।कोशिश कीजिए की जलपान भी न करें। जलपान नहीं कर सकते लेकिन अमृतपान तो चल ही रहा हैं।हरि नामामृत का अमृत पान तो चल ही रहा हैं।कौन सा पान अच्छा हैं? जलपान या अमृत पान।हरि हरि! शुकदेव गोस्वामी जब कथा सुना रहे थे,जब दसवें स्कंध की कथा का प्रारंभ हुआ,तो शुकदेव गोस्वामी ने आराम करने का संकेत किया।चलो थोड़ा आराम करते हैं।या तुम अब आराम करो।थोड़ा जलपान करो।इसके लिए क्या राजा परीक्षित तैयार थे?नहीं बिल्कुल नहीं।उनका प्रत्युत्तर यह रहा कि इस जलपान ने हीं तो मेरे जीवन को बिगाड़ दिया हैं।इसी की वजह से मुझे मृत्यु प्राप्त हो रही हैं।मुझे उस दिन प्यास लगी थी और मैं जल की खोज में था और खोजते खोजते शमीक ऋषि के आश्रम पर गया।मुझे जल चाहिए। थोड़ा जल तो दो।लेकिन किसी ने जल नहीं दिया और फिर राजा परीक्षित ने जो भी किया हम जानते ही हैं।उन्होंने सर्प को गले में लटकाया और उनके पुत्र श्रृंगी आए और उन्हें श्राप दिया।यह सब सोचकर राजा परीक्षित ने कहा कि अगर उस दिन मुझे उस जल की चाह नहीं होती। तो मैं इस आपत्ति में नहीं फसता और पुण: आप जल पीने के लिए कह रहे हो।नहीं नहीं। अब और जलपान नहीं करना या कुछ भी खाना पीना नहीं हैं। आप तो मुझे अमृत पिला रहे हो तो मुझे जल की क्या चिंता?इस अमृत के समक्ष उस जल का क्या मूल्यांकन हैं।हरि हरि!इसीलिए यह अमृत पान करते रहो।अमृत के कई प्रकार हैं।यह नामामृत एक प्रकार का अमृत हैं और भी अमृत हैं।दर्शनामृत,कथामृत भी हैं।कई प्रकार के अमृत है़ं। अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरम् । हृदयं मधुरं गमनं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ 1 ॥ वचनं मधुरं चरितं मधुरं वसनं मधुरं वलितं मधुरम् । चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ 2 ॥ वेणुमधुरो रेणुर्मधुरः पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ । नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ।। 3 ।। गीतं मधुरं पीतं मधुरं भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम् । रूपं मधुरं तिलकं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ 4 ॥ करणं मधुरं तरणं मधुरं हरणं मधुरं रमणं मधुरम् । वमितं मधुरं शमितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ 5 ॥ गुञ्जा मधुरा माला मधुरा यमुना मधुरा वीची मधुरा । सलिलं मधुरं कमलं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ 6 ॥ गोपी मधुरा लीला मधुरा युक्तं मधुरं मुक्तं मधुरम् । दृष्टं मधुरं शिष्टं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ 7 ॥ गोपा मधुरा गावो मधुरा यष्टिर्मधुरा सृष्टिर्मधुरा । दलितं मधुरं फलितं मधुरं मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ 8 ॥ भगवान से संबंधित सब कुछ अमृत ही हैं।कृष्ण मधुर हैं।उनका नाम मिश्री की तरह हैं।जैसे मिश्री को आप कही से भी खाओ।ऊपर से,नीचे से,बगल से,पूरब,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण कहीं से भी खाओ।मिश्री मीठी ही लगेगी।क्योंकि मिश्री का स्वाद मीठा होता हैं। वैसे ही कृष्ण भी, कृष्ण का नाम,लीला,कथा या धाम सब मीठा हैं। उनका वदनम् मीठा हैं।वह जो भोजन करते हैं,उसके बाद भगवान विश्राम करते हैं। वह भी मीठा हैं।भगवान जब श्रीरंगम में विश्राम करते हैं,तो उनको देखने के लिए लोग दूर-दूर से पहुंच जाते हैं।हरि हरि!तो जपते रहिए और इस अमृत से प्रसन्न रहिए।एक बार अगर आपकी आत्मा इस अमृत से संतुष्ट हो गयी तो आपके शरीर को फिर पानी कि ज़रुरत नहीं,फिर आपको खाना भी नहीं चाहिए होगा।आपको‌ यह शरीर भी नही चाहिए होगा।आप खुश होगें,आपकी आत्मा कृष्ण के साथ खुश होगी। ना होगा शरीर, ना होगी भूख।नही तो हमेशा आपको इस शरीर के रखरखाव में बहुत कष्ट करने पडते हैं।आपका दिन-रात इसके रखरखाव में जाता हैं।आप बस शरीर कि सेवा में ही व्यस्त रहते हैं। आज यह विषय बंद हो गया हैं। भविष्य में शरीर कि जरुरत नहीं है जप करिये! "हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।" "हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।" और खुश रहिये। बहुत हो गई भूख और प्यास।अगर हमारी आत्मा,नही हम हमारी आत्मा नहीं कह सकते।आत्मा हैं, तो दो बातें हैं। एक मै हुआ और एक हमारी आत्मा हुई। ऐसी बात नहीं हैं कि आत्मा का शरीर हैं। अहम और मम। यह हमारी आत्मा नहीं हैं। मैं आत्मा हूं।यह सही समझ हैं।भूख प्यास जो शरीर की मांगे हैं और इस भूख प्यास को बुझाने के लिए कितना ही प्रयास हम न जाने कब से कर रहे हैं और भूख प्यास तो कभी बुझते नहीं।कभी शांति नहीं मिलती।कभी पेट भरता हैं,तो हमे लगता हैं कि कुछ समय के लिए भर गया हैं।परंतु भरते भरते ही खाली होने लगता हैं। इस संसार का ऐसा ही स्वभाव हैं। खाली होना, भर जाना, खाली होना, भर जाना। यह इस संसार का द्वंद हैं।जन्म जन्मांतर से हमारा इस पेट को भरने का प्रयास चल रहा हैं। पेट भरने के लिए इस शरीर कि व्यवस्था,परिवार की व्यवस्था,कर्मठ प्रयास,उग्र प्रयास करना पड़ता हैं। इतने हम व्यस्त हो जाते हैं कि मरने के लिए समय नहीं हैं। यह सत्य बात हैं। आपको अधिक पता हैं।मैं तो थयोरिटीकल बोल रहा हूँ लेकिन आप तो प्रैक्टिकल हैं। आपको ज्यादा अनुभव हैं।रात दिन लगे रहो। किस के लिए?पेट की पूजा के लिए। हम पेटू बन जाते हैं।हरि हरि! आत्मा का पेट भर दो! अमृत को खिलाओ पिलाओ। आत्मा जब तृप्त होगी और तृप्त तो होगी ही। होती ही हैं,जैसे शरीर मांग करता हैं,वैसे ही यह भी मांग करती हैं,इसे खिलाते पीलाते जाओ।ऐसा करने से जब आत्मा तृप्त हो जाती हैं तो- “जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः | त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन||” (श्रीमद्भगवद्गीता 4.9) अनुवाद: -हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है | हमारा पुनर्जन्म नहीं होगा और इस संसार के चक्र का हो गया पूर्ण विराम।यह सब कुछ संभव हैं।पहले हो चुका हैं। अब हमारी बारी हैं। इस सुअवसर सा अर्थपूर्ण जीवन हमें प्राप्त हुआ हैं। आज का दिन महान हैं। निर्जला एकादशी हैं। साल भर की जितनी एकादशी होती हैं, उसका पालन करने में हमसे अगर कोई भूलचूक हुई तो इसको करने से सब पूर्ण हो जाएंंगी।ऐसी चूकभूल पांडवों के समय में भी हुआ करती थी।भीम प्रभु को इसमे भी उपवास बहुत कठिन हो जाता था। उनका शरीर ही ऐसा था कि उसकी बड़ी मांग रहती थीं। उनके शरीर कि मांग बहुत थी, इस कारण वह एकादशी व्रत नहीं कर पाते थे।उनसे कुछ अपराध होते थे। कुछ नियमों का पालन नहीं होता था।तो फिर भगवान ने उनसे कहा कि कम से कम एक एकादशी का तो पालन करो।भीम के कारण हमें यह एकादशी मिली हैं, और इससे हमें बड़े फायदे हो रहे हैं।इस एकादशी को हम अच्छे से पूर्ण करेंगे।यह उपवास कि बात हैं।नहीं खाना नहीं पीना यह तो एक नियम हैं ही,लेकिन मुख्य नियम तो उपवास मतलब भगवान के पास, भगवान के पास,अधिक अधिक और अधिक पास पहुंचने का यह शुभ अवसर हैं। एकादशी के दिन ना खाना खाना हैं, ना सोना हैं। ऐसे भी कुछ करते हैं। पद्ममाली प्रभु आज प्रातकाल: में कह रहे थे कि कुछ लोग एकादशी के रात्रि को गांव में पूरी रात भर भजन गाते रहते हैं।तुकाराम महाराज के अभंग लगाते रहते हैं। हम भी जब बच्चे थे तो हम भी बड़ों के साथ पूरी रात भर जग कर भजन कीर्तन मे सम्मिलित होते थे।यह भी एक विधी हैं।खाना नहीं, सोना नहीं। हम आत्मा की जो मांग है, उसकी पूर्ति करते रहते हैं। आज चूल्हा जलाने कि आवश्यकता नहीं हैं। रामलीला रसोई को ताला लगाया हैं या रसोई को छुट्टी दी?आज समय ही समय हैं,अगर खान पान ही नहीं हैं, तो फिर मल मूत्र विसर्जन इत्यादि में भी हमारा समय नही बीतता हैं।वह भी बचता हैं‌। और जब पेट भरता हैं, तो नींद आ जाती हैं। पेट खाली हैं, तो नींद नहीं आती। हम लोग देखते ही रहते हैं, पेट में कौवे चिल्लाते हैं, वह हमें जगाते हैं। बाकि एकादशी में भी अन्न तो हम खाते नहीं। दाल इत्यादि नहीं खाते। और फिर आज के दिन तो कुछ भी नहीं लेतें,जल भी नही, इस प्रकार शरीर की जो सारी मांग हैं, वह पूरी शून्य करा कर हम मुक्त हो जाते हैं।आज बस आत्मा का ख्याल करते रहो। आत्मा की खुराक, खान-पान की ओर ध्यान दो। यही तो बात हैं आत्मा कब से भूखा और प्यासा हैं। इस चमड़ी के पेट को या इस को खिलाते पिलाते हम इतने व्यस्त रहें हैं कि हमने आत्मा के पेट कि ओर ध्यान ही नहीं दिया। हरि हरि! और आत्मा को भगवान से अलग किया, वियोग हुआ, योग होना चाहिए था, वियोग हुआ और इसीलिए हम लोग दुखी हैं। लगता है कि हमारा शरीर दुखी हैं, मन दुखी हैं। उसका आधार हैं आत्मा,आत्मा दुखी हैं। उसको हमने भगवान से अलग किया हैं । भगवान को अपने देश में छोड़ के हम परदेस आ गए। यह ब्रह्मांड परदेस हैं। हम परदेसी हुए और भूल गए।स्वयं को भूल गए,भगवान को भूल गए, इसीलिए हम दुखी हैं। वैसे आत्मा दुखी हैं,लेकिन हमे लगता हैं कि शरीर दुखी हैं। हमे लगता हैं, शरीर की कुछ मांग है, नहीं मांग तो आत्मा की है और वह मांग हैं,"कृष्ण"। आत्मा को कौन चाहिए? आत्मा को चाहिए, "कृष्ण"। बस।जैसे मछली को क्या चाहिए होता है? ज़ल चाहिए होता हैं। वैसे आत्मा को चाहिए,"कृष्ण"। लेकिन हम माया को देते रहते हैं, माया को खिलाते पिलाते रहते हैं और फिर यही हैं, यह सब देहात्म बुद्धि हैं।हम भगवान को भूल गए और स्वयं को भी भूल गए।मैं आत्मा हूं।इस बात को ही भूल गए। इस सत्य को, तत्व को ही भूल गए।हमने शरीर को बनाया और बस शरीर की सेवा करते रहो। उस शरीर के साथ सब जोड़ दिया। यह सारी इंद्रिया जोड़ दी हैं, फिर इंद्रियों के विषय हैं, इंद्रियों में लगी हुई आग और फिर हाय हाय हाय हाय यह सारा भ्रम हैं।यह सारा भ्रम हैं। "माया-मुग्ध जीवेर नाहि स्वतः कृष्ण-ज्ञान।" "जीवेरे कृपाय कैला कृष्ण वेद-पुराण ॥" (श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 20.122) अनुवाद: -बद्धजीव अपने खुद के प्रयत्न से अपनी कृष्णभावना को जाग्रत नहीं कर सकता। किन्तु भगवान् कृष्ण ने अहैतुकी कृपावश वैदिक साहित्य तथा इसके पूरक पुराणों का सूजन किया। अब तक तो हम भूले भटके जीव थे,लेकिन भगवान कि कृपा से हमारा चयन हो चुका हैं और आज के इस एकादशी के दिन हम कुछ समय से, बहुत समय से लगे हुएं है। दुनिया क्या क्या कर रही हैं और हम, हम तो हरे कृष्ण हरे राम कर रहे हैं। दम मारो दम..दुनिया दम मार रही हैं, बोलो सुबह शाम...क्या, क्या पी रही हैं,क्या क्या खा रही हैं और हम लोग अमृतपान कर रहे हैं। इसको भाग्य नहीं कहोगे तो किसको भाग्य कहोगे! यही है... "ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव । गुरु - कृष्ण - प्रसादे पाय भक्ति - लता - बीज ।।" (श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला19.151) अनुवाद:-“ सारे जीव अपने - अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में घूम रहे । हैं । इनमें से कुछ उच्च ग्रह - मण्डलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह - मण्डलों को । ऐसे करोड़ों भटक र जीवों में से कोई एक अत्यन्त भाग्यशाली होता है , जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है । कृष्ण तथा गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रूपी लता के बीज को प्राप्त करता है । कुछ समझ में आ रहा हैं कि कैसे आप भाग्यवान हो?हो कि नहीं? ठीक हैं। आपका जप आपको और आगे बढ़ाना हैं या फिर और साधना, सेवा हैं‌। तो लगे रहो। बीच में मैंने अंग्रेजी बोलना बंद कर दिया कुछ और भी भक्त आए थें।ऑस्ट्रेलियन,अफ्रीकन, यूक्रेन, यूरोप से भक्तो ने ज्वाइन किया था। दिन का समय हैं‌। तो...ठीक हैं। गोरांग! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! निर्जला एकादशी महोत्सव कि जय! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कि जय! श्रील प्रभुपाद कि जय! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

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