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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक 12 मई 2021 हरे कृष्ण!!! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 881 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरिबोल!!! हरे कृष्ण!!! आप सब का स्वागत है। आप कुछ समय से जप तो कर ही रहे हो। जब हम जप करते हैं तब हम कृष्ण को पुकारते हैं और कृष्ण प्रकट हो जाते हैं। तब हम उन प्रकट हुए श्रीकृष्ण को संबोधित कर सकते हैं अथवा हमनें नाम के रूप में जिन श्रीकृष्ण को प्रकट कराया है, हम उनके साथ संवाद कर सकते हैं। कलि काले नाम रूपे कृष्ण अवतार। नाम हइते हय सर्व जगत निस्तार ।। (चैतन्य चरितामृत 1.17.22) अनुवाद:- मनुष्य उसका निश्चित रूप से उद्धार हो जाता है । इस कलियुग में भगवान् के पवित्र नाम अर्थात् हरे कृष्ण महामन्त्र भगवान् कृष्ण का अवतार है। केवल पवित्र नाम के कीर्तन से भगवान् की प्रत्यक्ष संगति कर सकता है। जो कोई भी ऐसा करता है , नाम के रूप में कृष्ण और राधा भी प्रकट होते हैं अथवा अवतार लेते हैं। तब हम उस राधा कृष्ण को प्रार्थना कर सकते हैं या उनका स्तूतिगान अथवा उनको नमस्कार कर सकते हैं। ऐसे श्रीभगवान को बारंबार प्रणाम है। श्रीराधिका-माधवयोर्‌अपार-माधुर्य-लीला-गुण-रूप-नाम्नाम् प्रतिक्षणाऽऽस्वादन-लोलुपस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्॥5॥ ( श्री श्री गुर्वाष्टक) अनुवाद:- श्रीगुरुदेव श्रीराधा-माधव के अनन्त गुण, रूप तथा मधुर लीलाओं के विषय में श्रवण व कीर्तन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसास्वादन करने के लिए सदैव उत्सुक रहते हैं। वे प्रतिक्षण इनका रसावस्वादन करने की आकांक्षा करते हैं। ऐसे श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। उस प्रकट हुए राधा माधव कहो या राधा गोविंद या राधा मदन मोहन या राधा गोपीनाथ अथवा राधा गोपाल या राधा पंढरीनाथ कहो, उनके कई नाम हैं। कृष्ण से बात करो। अपना दिल खोलो या अपनी कोई व्यथा है, तो वह भी कृष्ण राधा के साथ शेयर करो। यदि कोई खुशियां है, उनके साथ अपनी खुशियां भी मनाओ। कृष्ण को कहो। हरि! हरि! हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। यह भगवान् है। तुण्डे ताण्डविनी रतिं वितनुते तुण्डावली - लब्धये कर्ण - क्रोड़ - कडुम्बिनी घटयते कर्णार्बुदेभ्यः स्पृहाम् । चेतः - प्राङ्गण - सङ्गिनी विजयते सर्वेन्द्रियाणां नो जाने जनिता कियद्धिरमृतैः कृष्णेति वर्ण - द्वयी ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला १.९९) अनुवाद " मैं नहीं जानता हूँ कि ' कृष् - ण के दो अक्षरों ने कितना अमृत उत्पन्न किया है। जब कृष्ण के पवित्र नाम का उच्चारण किया जाता है, तो यह मुख के भीतर नृत्य करता प्रतीत होता है। तब हमें अनेकानेक मुखों की इच्छा होने लगती है । जब वही नाम कानों के छिद्रों में प्रविष्ट होता है, तो हमारी इच्छा करोड़ों कानों के लिए होने लगती है और जब यह नाम हृदय के आँगन में नृत्य करता है, तब यह मन की गतिविधियों को जीत लेता है, जिससे सारी इन्द्रियाँ जड़ हो जाती हैं । " इन दो अक्षरों में कितना सारा आनंद भरा हुआ है। हरि! हरि! इसे अक्षर कहो या नाम कहो अथवा पूरा मंत्र कहो, यह सच्चिदानंद विग्रह अवतार है। हमें इसका अनुभव करना है। यह कोई खोखले शब्द नहीं है। ये निर्जीव अक्षर अथवा शब्द नहीं है, यह सजीव है। सच्चिदानंद हैं। नाम चिन्तामणि, कृष्ण चैतन्य रस विग्रह। पूर्ण,नित्य, सिद्ध, मुक्त, अभिनत्वात नाम नामीनो ।। (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 17.133) अनुवाद : भगवान का नाम चिन्तामणि के समान है, यह चेतना से परिपूर्ण है। यह हरिनाम पूर्ण, नित्य, शुद्ध तथा मुक्त हैं। भगवान तथा भगवान के नाम दोनों अभिन्न हैं । ऐसा भी कहा है, भगवान् का नाम चिंतामणि है। ब्रह्मा जी ने भी ऐसा कहा है। चिन्तामणिप्रकरसद्यसु कल्पवृक्ष-लक्षावृतेषु सुरभीरभिपालयन्तम् । लक्ष्मीसहस्रशतसम्भ्रमसेव्यमानं गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि।। ( ब्रह्म संहिता ५.२९) अनुवाद-जहाँ लक्ष-लक्ष कल्पवृक्ष तथा मणिमय भवनसमूह विद्यमान हैं, जहाँ असंख्य कामधेनु गौएँ हैं, शत-सहस्त्र अर्थात् हजारों-हजारों लक्ष्मियाँ-गोपियाँ प्रीतिपूर्वक जिस परम पुरुषकी सेवा कर रही हैं, ऐसे आदिपुरुष श्रीगोविन्दका मैं भजन करता हूँ। भगवान् का धाम कैसा है? चिन्तामणिप्रकरसद्यसु चिंतामणि धाम और नाम भी चिंतामणि है। 'नाम चिन्तामणि, कृष्ण चैतन्य रस विग्रह' । चैतन्य की मूर्ति है चैतन्य। इस महामन्त्र में चेतन है अर्थात यह मंत्र चेतन हैं। एक होता है जड़ और दूसरा होता है चेतन। 'चैतन्य रस विग्रह' रस की खान है। रसो वै सः रसं ह्येवायं लब्धवानन्दी भवति। (तैत्तिरीय उपनिषद २.७.१) अनुवाद:- पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् दिव्य रसों के आगर हैं या साक्षात रस हैं। उन्हें प्राप्त करके ही आत्मा वास्तविक रूप में, दिव्य रूप से आनंदित बनता है। वेदों , उपनिषदों में कृष्ण को ऐसा कहा है 'रसो वै सः।' स: अर्थात भगवान्। वै रस हैं। रसामृतसिंधु हैं। रस की मूर्ति हैं। रस विग्रह हैं। विग्रह कहो या मूर्ति कहो, एक ही बात है या फिर रसखान कहो, वही बात है। भगवान का नाम नित्य है। उनका नाम भी नित्य है। हमारा शरीर नित्य नहीं होता। शरीर समाप्त हुआ तो नाम भी समाप्त हुआ। भगवान् नित्य हैं, शाश्वत् हैं। सत चित आनन्द हैं। सत अर्थात शाश्वत। भगवान सत अर्थात शाश्वत हैं, चित हैं या चैतन्य की मूर्ति हैं। चित्त मतलब पूर्ण ही है। फुल ऑफ नॉलेज (सम्पूर्ण ज्ञान) है। आनन्द से पूर्ण हैं । नित्य और शुद्ध हैं, यह नाम शुद्ध है। यह नाम जप हमें शुद्ध बनाएगा। जब हम इस शुद्ध नाम के संपर्क में आएंगे तब ही हम शुद्ध होंगे और शुद्ध नाम जप करेंगे। यह नाम कृष्ण है। कृष्ण-सू़र्य़-सम;माया हय अन्धकार। य़ाहाँ कृष्ण, ताहाँ नाहि मायार अधिकार।। (श्रीचैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला, 22.31) अनुवाद:-कृष्ण सूर्य के समान हैं और माया अंधकार के समान है। जहांँ कहीं सूर्यप्रकाश है वहांँ अंधकार नहीं हो सकता। ज्योंही भक्त कृष्णभावनामृत अपनाता है, त्योंही माया का अंधकार (बहिरंगा शक्ति का प्रभाव) तुरंत नष्ट हो जाता है। जैसे सूर्य की किरणें, सारे संसार को स्वच्छ कर देती हैं। यदि कहीं मल मूत्र का भी विसर्जन हुआ है या यह हुआ है, वह हुआ है।तब सूर्य की किरणें उसको तपाती भी हैं और उसमें जो अशुद्धि अथवा खराबी होती है, उसको सुधार देती हैं। कृष्ण सूर्य सम हैं और यह नाम कृष्ण है। जब हम जप या कीर्तन करते हैं, तब हम इस नाम रूपी कृष्ण के सम्पर्क में आते हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। जब हमसे ध्यानपूर्वक, श्रद्धापूर्वक, प्रेमपूर्वक कीर्तन व जप तब हम नित्य शुद्ध होंगें अर्थात हमारा शुद्धिकरण पूर्ण होगा। तत्पश्चात हमारा नाम जप शुद्ध नाम जप होगा। भगवान तो शुद्ध हैं ही, भगवान का नाम भी शुद्ध है ही और हम इस जपयोग के माध्यम से उनके संपर्क में आएंगे, तब हम भी शुद्ध होंगे। योगायोग, हम भगवान् के सामने होंगे। भगवान् की शक्ति, भक्ति, ध्यान भी का आवाहन हमारी ओर होगा अथवा हमारी और संक्रमण होगा। नाम्नामकारि बहुधा निज - सर्व - शक्तिस् तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः । एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः ।। ( श्री चैतन्य चरितामृत २०.१६) अनुवाद " हे प्रभु , हे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् , आपके पवित्र नाम में जीव के लिए सर्व सौभाग्य निहित है , अत : आपके अनेक नाम हैं यथा कृष्ण तथा गोविन्द , जिनके द्वारा आप अपना विस्तार करते हैं । आपने अपने इन नामों में अपनी सारी शक्तियाँ भर दी हैं और उनका स्मरण करने के लिए कोई निश्चित नियम भी नहीं है । हे प्रभु , यद्यपि आप अपने पवित्र नामों की उदारतापूर्वक शिक्षा देकर पतित बद्ध जीवों पर ऐसी कृपा करते हैं , किन्तु मैं इतना अभागा हूँ कि मैं पवित्र नाम का जप करते समय अपराध करता हूँ , अतः मुझ में जप करने के लिए अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाता है । इस हरि नाम में शक्ति है। हम उस शक्ति से युक्त होंगे। उस भक्ति की शक्ति अथवा भगवान की शक्ति से युक्त होंगे। भगवान् मतलब शक्तिमान। नित्य, शुद्ध, मुक्त यह नाम की परिभाषा कहो या नाम का महात्मय। इस वचन में भी कहा गया है। नाम चिन्तामणि, कृष्ण चैतन्य रस विग्रह। पूर्ण,नित्य, सिद्ध, मुक्त, अभिनत्वात नाम नामीनो ।। (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 17.133) अनुवाद : भगवान का नाम चिन्तामणि के समान है, यह चेतना से परिपूर्ण है। यह हरिनाम पूर्ण, नित्य, शुद्ध तथा मुक्त है । भगवान तथा भगवान के नाम दोनों अभिन्न हैं । नित्य, शुद्ध तथा मुक्त- यह नाम के सारे विशिष्ट या विशेषण भी हैं। नाम कैसा है? नित्य व शुद्ध है, नाम कैसा है? मुक्त है। नाम भी मुक्त है। इसलिए जो स्वयं ही मुक्त है, वह अन्यों को मुक्त कर सकता है। नाम मुक्त है, भगवान् मुक्त हैं। वे जपकर्ता को भी मुक्त करेंगे। हम मुक्त होंगे। हम मुक्त होंगे मतलब क्या होता है, नहीं कहेंगे। जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः । त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन ॥ ( श्रीमद् भगवक्तगीता ४.९) अनुवाद:- हे अर्जुन! जो मेरे अविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है। अंततोगत्वा हम जीवनमुक्त भी हो सकते हैं। जीवित तो हैं, इसी संसार में भी हैं, इसी शरीर में भी है। किन्तु मुक्त है। मुक्त किससे है? ये षड् रिपु से भी मुक्त हैं, हमारे छह अलग-अलग शत्रु हैं। श्रीभगवानुवाच काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ।। ( श्रीमद् भगवतगीता ३.३७) अनुवाद: श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है। कृष्ण ने कहा है- अर्जुन नोट करो, नोट करो, प्लीज नोट करो। विद्धयेनमिह वैरिणम् यह जो काम है, वैरी है, वैरी। वह तुम्हारा मित्र नहीं है, उसको गले मत लगाओ। आई लव यू मत कहो। यह समझो कि यह तुम्हारा शत्रु है। मित्र नहीं है, दूर रहो। कृष्ण आगे कहते हैं, यही इसको ठार करो। मराठी में कहते हैं, इसकी जान लो। यह काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य हमारे शत्रु है। हम भगवान् के नाम अथवा कृष्ण के नाम का आश्रय लेंगे। जीवन अनित्य जानह सार ताहे नाना-विध विपद-भार। नामाश्रय करि’ यतने तुमि, थाकह आपन काजे॥6॥ ( उदिल अरुण- श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित) अर्थ: निश्चित रूप से इतना जान लो कि एक तो यह जीवन अनित्य है तथा उस पर भी इस मानव जीवन में नाना प्रकार की विपदाएँ हैं। अतः तुम यत्नपूर्वक भगवान्‌ के पवित्र नाम का आश्रय ग्रहण करो तथा केवल जीवन निर्वाह के निमित अपना नियत कर्म या सांसारिक व्यवहार करो। उन शत्रुओं को भगवान संभालेंगे। हमारे बस का रोग नहीं है। बस! हम क्या कर सकते हैं। कृष्ण ने कहा ही है- दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया । मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ।। ( श्रीमद् भगवक्तगीता ७.१४) अनुवाद: प्रकृति के तीन गुणों वाली इस मेरी दैवी शक्ति को पार कर पाना कठिन है। किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं। मेरी माया बड़ी जबरदस्त है, इसके साथ लड़ना, इसके चंगुल से बचना या माया को अकेले परास्त करना, ऐसा न तो हुआ है और ना ही होगा। सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।। ( श्रीमद् भगवक्तगीता १८.६६) अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत। इसलिए मामेकं शरणं व्रज- मेरी शरण में आओ फिर मैं माया को संभाल लूंगा। माया मेरी है ना, मेरी माया है। मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् | हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ।। ( श्रीमद् भगवतगीता ९.१०) अनुवाद: हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं। इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है। बस तुम अपना धर्म करो। सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।। मेरी शरण में आओ, फिर मैं संभाल लूंगा। अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः मैं तुम्हें इस काम, क्रोध, लोभ, मद्, मात्सर्य से मुक्त करूंगा। मैं परास्त करूंगा। नित्य, शुद्ध, मुक्त और आगे कहा है कि नाम पूर्ण है - ॐ पूर्ण मदः, पूर्णमिदं ,पूर्णात पूर्ण मुदच्यते, पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेववशिष्यते ( ईशोपनिषद) अनुवाद :भगवान पूर्ण हैं और पूर्ण से जो भी उत्पन्न होता है वह भी पूर्ण है । भगवान् का नाम पूर्ण है। यदि यही नाम ले लिया हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। तो हम तो पूर्ण हैं। इसमें अन्य सारे नामों का उच्चारण भी हुआ। अन्य सारे भगवान के अवतारों , अंशों, अंशाशो के भी नाम का उच्चारण हुआ। नाम चिन्तामणि, कृष्ण चैतन्य रस विग्रह। पूर्ण,नित्य, सिद्ध, मुक्त, अभिनत्वात नाम नामीनो ।। (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 17.133) अनुवाद : भगवान का नाम चिन्तामणि के समान है, यह चेतना से परिपूर्ण हैं। यह हरिनाम पूर्ण, नित्य, शुद्ध तथा मुक्त है । भगवान तथा भगवान के नाम दोनों अभिन्न हैं। यह सारी सिद्धांत की बातें हैं। अभिनत्वात। नाम और नामी। हरे कृष्ण, हरे कृष्ण -यह नाम है। नामी कौन है? नामी कृष्ण हैं, नाम कृष्ण हैं। किसका नाम कृष्ण है? कृष्ण का नाम कृष्ण हैं। जैसे सुख और सुखी, सुख एक अनुभव या विशिष्ट है। जिसके पास सुख है, उसे सुखी कहते हैं। सुख सुखी, दुख दुखी, धन धनी वैसे ही नाम नामी। नाम नाम है। नामी मतलब वह व्यक्ति अथवा श्री कृष्ण का व्यक्तित्व है। उनका नाम कृष्ण हैं। नाम और व्यक्तित्व। नाम मतलब नाम और नामी अर्थात व्यक्तित्व। यहां पर कहा गया है कि 'अभिनत्वात नाम नामीनो' इसलिए जब भगवान का नाम पुकारा जाता है, जो कि नाम से अभिन्न है तब भगवान प्रकट हो जाते हैं। जब द्रौपदी ने पुकारा- हे कृष्ण! गोविंद! क्या उस सभा में कृष्ण थे? नही थे। किंतु नाम पुकारते ही उन्होंने द्रोपदी की रक्षा की। द्रोपदी की लाज बचाई, कई मील लंबी साड़ी सप्लाई की। इतनी लंबी साड़ी संसार में किसी हैंडलूम में न तो बनी है और न ही बन सकती है। भगवान एक लंबी साड़ी सप्लाई करते गए और बेचारा और मूर्ख दुशासन (नाम भी क्या है? देखो, दुशासन!) को परास्त किया। नाम को पुकारते ही नामी प्रकट हुए। पुकारा नाम को और प्रकट हुए नामी। ऐसा नहीं कि एक ही बार नाम पुकारा गया और कृष्ण प्रकट हुए। कृष्ण ऐसे ही प्रकट होते हैं। द्रोपदी जैसे भावों के साथ असहाय हो कोई पुकारे। अन्य किसी का सहारा नही है। डॉक्टर का इंजीनियर का वकील का पड़ोसी का, देहापत्य कलत्रादिष्यात्म सैन्येष्वसत्स्वपि । तेषां प्रमनो निधनं पश्यन्नपि न पश्यति ॥ ( श्रीमद् भागवतम २.१.४) अनुवाद:- आत्मतत्त्व से विहीन व्यक्ति जीवन की समस्याओं के विषय में जिज्ञासा नहीं करते , क्योंकि वे शरीर, बच्चे तथा पत्नी रूपी विनाशोन्मुख सैनिकों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं। पर्याप्त अनुभवी होने के बावजूद भी वे अपने अवश्यंभावी मृत्यु को नहीं देख पाते । शुकदेव गोस्वामी ने कहा कि यह सारा तो झूठ- मुठ का सैन्य है भाई। यह देह तुम्हारा, ये अपत्य, यह बाल बच्चे पत्नी इत्यादि यह सब तो झूठ मुठ का सैन्य है। कृष्ण जब सहायता करेंगे, तब पूर्ण सहायता होगी। इसलिए भी हम कह रहे हैं कि डॉक्टर की केयर (देखभाल) भी ठीक है, लेकिन उनकी अपनी एक सीमा है। डॉक्टर फिर अंत में कहते हैं कि हमारे हाथ खड़े हैं, हम कुछ नहीं कर सकते, अब सब कुछ भगवान पर निर्भर करता है अथवा आगे भगवान की मर्जी। ये दोनों के कॉन्बिनेशन (संयोग) से है। भगवान की सहायता करने वाले भगवान ही हैं। इस प्रकार यह नाम की महिमा भी है। जब उनका संस्मरण हो, उसको याद करें, समझे, नाम को समझें। यदि नाम को समझेंगे तभी नामी को समझेंगे और नामी का भगवत साक्षात्कार होगा। ठीक है। मैं आपके लिए कामना करता हूं कि आप सफल यशस्वी जप करने वाले बनो। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!!

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