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*हरे कृष्ण !!* *जप चर्चा* *पंढरपुर धाम* *दिनांक 13 मई 2021* आज 864 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं । आप तैयार नहीं हो ! आप सभी रुकना नहीं चाहते हो । यह दोनों भी अमृत है । 'नामामृत' और 'गौर कथा अमृत' । नाम भी अमृत है लीला भी अमृत है । *श्रीप्रह्लाद उवाच श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।* *अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ 23 ॥* *इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा ।* *क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ 24 ॥* (श्रीमद भागवतम् 7.5.23-24 ) *अनुवाद:-* प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज - सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना , उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) -शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है । श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं इन नाम का श्रवण कीर्तन या जिला का श्रवण कीर्तन एक ही है । नाम ही है लीला । नाम है भगवान , लीला भी है भगवान और रूप तो है ही भगवान आप जानते हो । फिर कीर्तन हम नाम का करें या रूप का करे कीर्तन या लीला का कीर्तन या धाम का कीर्तन, परीकरो का कीर्तन यह सभी हरि कीर्तन ही है या कृष्ण कीर्तन ही है । यही है *श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं* I इस श्रवण का स्मृति फल स्मरण में होना ही चाहिए / होता है *श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं* । *जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद ;* *जयअद्वेत-चंद्र जय गोर भक्त वृंद ।* मतलब आप समझ गए मैं कुछ चैतन्य चरितामृत से पढ़ने जा रहा हूं । हां आपका अंदाजा ठीक है । कुछ दिनों पहले हम शिक्षा अष्टक की बात कर रहे थे । चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाएं और उसका है अष्टक या 8 शिक्षाएं शिक्षा अष्टकम । यह चैतन्य चरितामृत के अंतिम लीला के अंत में इसकी रचना हुई है या उसका उल्लेख हुआ है । इसीलिए मैं कह रहा था कि यह कुछ सार ही होना चाहिए जो अंत में कहा जा रहा है । यह महत्वपूर्ण होता है । कृष्णा दास कविराज गोस्वामी चैतन्य चरितामृत की रचना समापन इस शिक्षा अष्टक के साथ करते हैं । वैसे भी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के लीलाएं हरिनाम हरिनाम का गौरव गाथा गाती है । हरि हरि !! यह चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य मैं हरी नाम का महिमा वर्धित किया हुआ है । *परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |* *धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||* ( भगवत् गीता 4.8 ) *अनुवाद:-* भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ | धर्म की स्थापना हेतु मैं प्रकट होता हूं तो इससे स्पष्ट हुआ ही चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए क्यों ? *"धर्मसंस्थापनार्थाय" ।* कौन सा धर्म है कलियुग का ? *हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् ।* *कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥* ( चैतन्य चरितामृत आदि लीला 17.21 ) *अनुवाद:-* “ इस कलियुग में आत्म - साक्षात्कार के लिए भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन , भगवान् के पवित्र नाम के कीर्तन के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है , अन्य कोई उपाय नहीं है । " यह तो पहले बता चुके हैं । वैदिक वांग्मय या शास्त्र या कलि संतरण उपनिषद; तो यह वेद वाणी है ही और वेद वाणी सत्य होती है । *सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव ।* *न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः ॥* ( भगवत् गीता 10.14 ) *अनुवाद:-* हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूँ | हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं | यह बात है । आप जो भी कहते हो अर्जुन ने कहा सत्य ही कहते हो । सत्य के अलावा आप कुछ नहीं कहते हो । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वेद के वाणी अनुसार उन्होंने हरि नाम संकीर्तन धर्म की स्थापना की है । और वही बातें शिक्षा अष्टक से हम समझते हैं । यह है शिक्षा चैतन्य महाप्रभु की । या हरेर्नामैव केवलम् यह शिक्षा है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की । या उचित होगा अगर हम कहते हैं ; श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु शिक्षा अष्टक मैं और फिर यह जो शिक्षा अष्टक के अध्याय जो है अंतिम लीला चैतन्य चरितामृत का 20 अध्याय इसमें चैतन्य महाप्रभु की शिक्षाएं और श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु का भाष्य , शिक्षा अष्टक के ऊपर कहा हुआ भाष्य का उल्लेख है । तो पढ़ते हैं आगे ...यह में 2 दिन पहले पढा हुआ था उस अध्याय को । *सेई सेई भावे निज - श्लोक पढ़िया ।* *श्लोकेर अर्थ आस्वादये दुइ - बन्धु लञा ॥* ( चैतन्य चरितामृत अंतलीला 20.6 ) *अनुवाद:-* वे अपने बनाये श्लोक सुनाते और उनके अर्थ तथा भाव बतलाते । इस तरह वे अपने इन दो मित्रों के साथ उनका आस्वादन करके आनन्द लेते । अंतिम अध्याय का 6टा श्लोक कहा है 2 बंधुओं को साथ लेकर । कौन 2 बंधु ? स्वरूप दामोदर और राय रामानंद । स्वरूप दामोदर है ललिता और राय रामानंद है विशाखा । इनको दो बंदूक कहां है इस गोर लीला में । कृष्ण लीला में यह दोनों सखियां हैं और फिर सखियां राधा रानी की होती हैं , सखा होते हैं कृष्ण के । तो यह दोनों सखियां हे राधा रानी के यहां चैतन्य महाप्रभु के अंतिम लीलाओं में जगन्नाथपुरी में , गंभीरा में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अब राधा भाव में ही है । राधा महाभावा ठाकुरानी राधा , उसी भाव का आस्वादन कर रहे हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु राधा भाव । *राधा कृष्ण-प्रणय- विकृतिर्ह्लादिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह- भेदं गतौ तौ ।* *चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्द्वयं चै क्यमाप्तं राधा-भाव-द्युति-सुवलिंत नौमि कृष्ण-स्वरूपम् ॥* (चैतन्य चरितामृत आदिलीला 1.5 ) *अनुवाद:-* श्री राधा तथा कृष्ण की माधुर्य लीलाएँ भगवान की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्या अभिव्यक्तियाँ है । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अभिन्न हैं , किंतु उन्होंने अपने आपको अनादि काल से पृथक कर रखा है । अब यह दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्री कृष्ण चैतन्य के रूप में मिलकर एक हो गए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूं, जो साक्षात कृष्ण होते हुए भी श्रीमती राधा रानी के भाव तथा अंगकान्ति के साथ प्रकट हुए हैं । तो इन 2 बंधुओं को साथ में लेकर ... *श्लोकेर अर्थ आस्वादये* और श्लोकों का आस्वादन कर रहे हैं । यह जो 8 श्लोक है शिक्षा अष्टक के उसका आस्वादन कर रहे हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । *कोन दिने कोन भावे श्लोक - पठन ।* *सेइ लोक आस्वादिते रात्रि - जागरण ॥* ( चैतन्य चरितामृत अंतलीला 20.7 ) *अनुवाद:-* कभी - कभी महाप्रभु किसी विशेष भाव में डूब जाते और उससे सम्बन्धित लोक सुनाकर तथा उसका आस्वादन करते हुए रातभर जगे रहते । तो यह हर रात्रि की बात है । हर रात्रि को इनमें से एक श्लोक या शिक्षा अष्टक से एक श्लोक को ; *"कोन दिने कोन भावे श्लोक - पठन"* *"सेइ लोक आस्वादिते रात्रि - जागरण"* पहले इस श्लोक का भाव हो रात्रि को जिस प्रकार का मनोदशा या भावनाएं उदित हो रहे होंगे तो उसके अनुसार शिक्षा अष्टक में से या उसके अनुरूप श्लोक का चयन करते श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और *श्लोक-पठन* उस श्लोक का पाठ करते या उस श्लोक के जो भाव है उसी भवसागर में फिर वह गोते लगाते । और इस प्रकार उनकी रात्रि जागरण उस भाव का आस्वादन करते-करते उस भाव के जो तरंगे हैं उसमें तेरे ते , गोते लगाते ; पूरी रात बीत जाती है श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की । *आस्वादन करते हुए रातभर हर्षे प्रभु कहेन , - " शुन स्वरूप - राम - राय ।* *नाम - सङ्कीर्तन - कलौ परम उपाय ॥* ( चैतन्य चरितामृत अंतलीला 20.8 ) *अनुवाद:-* श्री चैतन्य महाप्रभु ने परम हर्ष में कहा , “ हे स्वरूप दामोदर तथा रामानन्द राय , तुम मुझसे जान लो कि इस कलियुग में पवित्र नामों का कीर्तन ही मुक्ति का सर्वसुलभ साधन है । तो उसी भाव में जो अलग-अलग उदित हो रहे हैं किसी एक रात को चैतन्य महाप्रभु ने अपने दोनों बंधुओं को *हर्षे प्रभु कहे* हर्ष और उल्लास के साथ उन्होंने कहा *शुन स्वरूप - राम - राय ।* उन दोनों को संबोधित करते हुए । यह नहीं कि वह सुन नहीं रहे थे , लेकिन सुनो सुनो का कहने के पीछे तात्पर्य यह है कि सुनो सुनो यह बात बहुत महत्वपूर्ण है । ध्यानपूर्वक सुनो; मैं अभी जो कुछ कहने जा रहा हूं *"शुन स्वरूप - राम - राय "* *"नाम - सङ्कीर्तन - कलौ परम उपाय"* I और दोनों बंधुओं का ध्यान आकृष्ट करते हुए उन्होंने देखा कि वह और गौर के साथ सुन रहे हैं । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने वहां गंभीरा में अपने दोनों बंधुओं से कह रहे हैं "नाम संकीर्तन" हे राय रामानंद हे स्वरूप दामोदर *"नाम - सङ्कीर्तन - कलौ परम उपाय"* I कलियुग में परम उपाय एक ही है नाम संकीर्तन । तो शास्त्र का वाणी है ही । *"हरेर्नाम हरेर्नाम हरेर्नामैव केवलम् ।* *कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥"* एसे बच्चन है शास्त्रों में । *इति षोडशकं नाम्नां कलिकल्मष नाशनम् ।* *नातः परतरोपाय सर्व वेदेषु दृश्यते ॥* ( कलि संतरण उपनिषद ) यह जो 16 शब्दों वाला ,32 अक्षर यह जो महामंत्र है *"कलिकल्मष नाशनम्"* कली के कल्मष नाश करने वाला है । *कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान्गुणः ।* *कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत् ॥* ( श्रीमद भागवतम् 12.3.51 ) *अनुवाद:-* हे राजन् , यद्यपि कलियुग दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण है केवल हरे कृष्ण महामंत्र का कीर्तन करने से मनुष्य भवबन्धन से मुक्त हो जाता है और दिव्य धाम को प्राप्त होता है । कलियुग में तो भागवत कहता है दोष ही दोष होंगे किंतु *अस्ति ह्येको* हे एक महान गुण इस कलयुग का *"कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत्"* यह शास्त्र के वानी है ही और यहां स्वयं भगवान ... *एते चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।* *इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥* ( श्रीमद भागवतम् 1.3.28 ) *अनुवाद:-* उपयुक्त सारे अवतार या तो भगवान के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंत ( कलाएं ) हैं, लेकिन श्री कृष्णा तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान है । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों को द्वारा उपद्रव किए जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान; भगवान से बढ़कर *"श्री कृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण ना ही अन्य"* वह कह रहे हैं कलयुग में एक ही उपाय है राय रामानंद हे स्वरूप दामोदर और वह है नाम संकीर्तन । तो यह चैतन्य महाप्रभु की दिल की बाते है या सत्य वचन है ये । तो ऐसी है भगवान की कार्यनीति । जो कहते हैं ... *मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।* *हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥* ( भगवत् गीता 9.10 ) *अनुवाद:-* हे कुन्तीपुत्र! यह भौतिक प्रकृति मेरी शक्तियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कार्य करती है, जिससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्न होते हैं | इसके शासन में यह जगत् बारम्बार सृजित और विनष्ट होता रहता है | मेरी अध्यक्षता के अनुसार यह सारा संसार चलता है । वे अपने विचार, योजना बता रहे हैं राय रामानंद और स्वरूप दामोदर से । आपने सुनी बात ? सुन रहे हो ? आपको हम कहेंगे सुनो सुनो !! श्यामवनवाली , राधाचरण , कृष्णकांत नागपुर से सुनो सुनो !! क्या सुनो ? वही बात सुनो जो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु राय रामानंद और स्वरूप दामोदर को सुनाएं । अच्छा होता कि उस समय आप सुनते । 500 वर्ष पूर्व लेकिन ठीक है दूरर्देव से उस समय नहीं सुने किंतु अब तो सुनो ! निशा अवसर प्राप्त कर आए हैं श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु । जो छोड़ दिए हैं 500 वर्ष पूर्व जो चैतन्य महाप्रभु सुनाया करते थे उपदेश या शिक्षाष्टक उसका भाष्य तो अब तुम सकते हैं हम । चैतन्य महाप्रभु सुना रहे हैं ! यह चैतन्य चरितामृत एक माध्यम है या चैतन्य चरितामृत ही चैतन्य महाप्रभु ही है यह दोनों अभिन्न है । लगता तो है कि यह जूम कॉन्फ्रेंस हो रही है ,इसमें कोई वक्ता है , वह ये सुना रहे हैं । हम सुन रहे हैं ! लेकिन इसको भूल भी सकते हैं । यह सारी जो व्यवस्था का उद्देश्य है यही है कि भगवान का संदेश, श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की उपदेश ,शिक्षाष्टक हम तक पहुंचे और पहुंच रहा है । तो फिर चैतन्य महाप्रभु 500 वर्ष पूर्व गंभीरा में राय रामानंद और स्वरूप दामोदर को बात सुनाई तो वैसे ही बात , वैसी घटना घट रही है । वही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु मुझे और आप को सुना रहे हैं । भगवान बहुत व्यक्तिगत है । उन्होंने जो कहा था लिखा जा चुका है चैतन्य चरितामृत के रूप में । उसकी रचना हो चुकी है । और फिर "शब्द योनीत्वात् " वह शब्द बनते हैं स्रोत । शास्त्र बनते हैं स्रोत, उद्गम । और हम उन्हीं बातों को आज भी सुन सकते हैं या "शास्त्र चक्षुशा" शास्त्र का पहनो चश्मा देखो और सुनो भी । 500 वर्ष पुरानी, पुराना जो दृश्य है और संवाद है और यह संवाद या भगवान की लीला यह समझ है कि यह शाश्वत है । "पूरा अपि नवम" पुराण की बातें कभी पुरानी नहीं होती । "पूरा अपि नवम" पुरानी और प्राचीन होते हुए भी यह नई सी रहती है । क्योंकि वह शाश्वत है । समझ लो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आपसे बात कर रहे हैं । या श्रीला प्रभुपाद भी इस बात पर जोर दिया करते थे । भगवत् गीता के संबंध में । अर्जुन ने 5000 वर्ष पूर्व भगवत् गीता सुनी और वही भगवत् गीता उपलब्ध है । अगर आज हम सुनते हैं पढ़ते हैं भगवत् गीता यथारूप में तो अंतर नहीं है । अर्जुन ने गीता सुनि कुरुक्षेत्र के मैदान में । और हम सुन रहे हैं अपने घर बैठे बैठे । या हो सकता है हमारा घर कोई कुरुक्षेत्र हो सकता है कुछ घर में ! कुछ युद्ध होते रहते हैं छोटे-मोटे लड़ाइयां चलती रहती हैं तो उस हिसाब से यह कुरुक्षेत्र हुआ । तो वही संवाद गीता पढ़ते हो तो ...श्री भगवान उवाच अपने स्थान पर है ही ; अर्जुन के स्थान पर हमें बिठाना चाहिए और समझना चाहिए कि यह बात मुझे सुना रहे हैं । वैसे भी अर्जुन ने जो प्रश्न है वह अर्जुन के नहीं है , यह प्रश्न मेरे, आपके , तुम्हारे अर्जुन ने पूछे हैं । और इसके उत्तर उस समय अर्जुन को दिए लेकिन यह उत्तर हमारे लिए हैं । और जो उत्तर में कहा वह सत्य है तो उस समय भी लागू था और आज भी वही लागू होता है । वैसे ही यह चैतन्य महाप्रभु की बातें खासकर कि यह जो शिक्षाष्टक का रसास्वादन श्री कृष्णा चैतन्य महाप्रभु कर रहे हैं यह शिक्षा अष्टक के भाष्य सुना रहे हैं चैतन्य महाप्रभु । इसे हम सीधे सुन पा रहे हैं । तो यह हो गई ! क्या हो गई ? *ब्रह्माण्ड भ्रमिते कोन भाग्यवान् जीव ।* *गुरु - कृष्ण - प्रसादे पाय भक्ति - लता - बीज ॥* ( चैतन्य चरित्रामृत मध्यलीला 19.151 ) *अनुवाद:-* सारे जीव अपने - अपने कर्मों के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में घूम रहे । हैं । इनमें से कुछ उच्च ग्रह - मण्डलों को जाते हैं और कुछ निम्न ग्रह - मण्डलों को । ऐसे करोड़ों भटक र जीवों में से कोई एक अत्यन्त भाग्यशाली होता है , जिसे कृष्ण की कृपा से अधिकृत गुरु का सान्निध्य प्राप्त करने का अवसर मिलता है । कृष्ण तथा गुरु दोनों की कृपा से ऐसा व्यक्ति भक्ति रूपी लता के बीज को प्राप्त करता है । तो भगवान ने श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ऐसी योजनाएं ,ऐसी परिस्थिति हमारे जीवन में उत्पन्न किए हैं ताकि हम उनको सुने ; उनको सुन रहे हैं । हरि हरि !! ठीक है !आगे पढ़ेंगे ...यह शिक्षाष्टक का भाष्य । *॥ निताई गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल ॥*

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