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*जप चर्चा* अनंत शेष प्रभु द्वारा *दिनांक 15 जनवरी 2022* हरे कृष्ण!!! *ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।* *नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते लोकनाथ – स्वामिन् इति नामिने।।* हरे कृष्ण!!! यह शब्दार्थ कहना उचित नहीं होगा, अनुचित ही है यदि हम कहें कि हर्ष का विषय है कि आप सभी उपस्थित हैं। भगवान करें, कभी ऐसा अवसर ना आए। हालांकि महाराज जी सदैव चाहते हैं। महाराज जी का अपने शिष्यों के प्रति विशेष वात्सल्य भाव है। जैसे माता अपने बालक को चलते हुए देखकर प्रसन्न होते हैं, वैसे ही महाराज जी अपने शिष्यों को बहुत अधिक प्रोत्साहित करते हैं परंतु हम विकल्प नहीं है। हम चाहते हैं कि हम सदैव गुरु महाराज के मुख से ही श्रवण करें और सदैव उनका सानिध्य प्राप्त करें। चूंकि गुरु महाराज की इच्छा अथवा उनका आदेश है। हालांकि यहां पर कई वरिष्ठ वैष्णव हैं। उनके बीच में मुझे कहा जाना। मंी इसको बार-बार टाल रहा था किंतु महाराज का आदेश है इसलिए हम भगवद गीता महात्म्य के विषय में थोड़ा श्रवण करेंगे। जिस प्रकार से श्रीमद् भागवत पुराण का महात्म्य पदम पुराण व स्कंध पुराण में आता है। जैसे ही गीता का महात्म्य पदम् पुराण में सर्वविदित है। वैसे ही भगवत गीता का एक महात्म्य वराह पुराण के अंदर भी आता है। हालांकि देखा जाए कि गीता के महात्म्य के विषय में कहा जाता है कि *कृष्णो जानाति वै सम्यक किश्चित कुंती सुतह फलम् व्यासो वा व्यासपुत्रो वा याज्ञवल्क्यो था मैथिलाः* अर्थ:- निश्चित रूप से भगवान श्रीकृष्ण उन महिमाओं के पूर्ण ज्ञान में हैं; और इसलिए कुंती का पुत्र अर्जुन उनके बारे में जानता है; और व्यासदेव, शुकदेव, याज्ञवल्क्य और संत राजा जनक भी। प्रश्न पूछा गया कि गीता के महत्व को कौन जानता है? क्या हम गीता के महत्व को जानते हैं। नहीं। कृष्णो जानाति वै सम्यक किश्चित कुंती सुतह फलम् व्यासो वा व्यासपुत्रो वा याज्ञवल्क्यो था मैथिलाः वास्तविकता में कृष्ण ही हैं जो गीता के महत्व को जानते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता और कुछ नहीं हैं, स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के ह्रदय के भाव हैं। जिस प्रकार हम हमेशा गुरु महाराज के ह्रदय की भावनाओं को सुनते हैं। इसे मन की बात कह सकते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण अपने भक्तों से प्रेम करते हैं। भगवान् का अपने भक्तों के प्रति वात्सल्य है। यह जो भक्त वत्सलता है अर्थात भगवान् अपने भक्तों के गुणों को जिसमें महिमान्वित करते हैं, वह भगवद्गीता है। भगवद्गीता और कुछ नहीं है। स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो भगवान् श्रीकृष्ण का भक्तों के प्रति जो प्रेम है, वह भगवद्गीता है। भक्तों के ह्रदय में भगवान् के प्रति जो प्रेम होता है, वह भागवत है। श्रीकृष्ण का भक्तों के प्रति जो प्रेम है, वह गीता है। भक्तों के ह्रदय में भगवान् के प्रति जो प्रेम है वह भागवत है। उन समस्त भक्तों में जो सर्वश्रेष्ठ है, वह श्रीमती राधारानी है। श्रीमति राधारानी के ह्रदय में जो प्रेम है, वह चैतन्य चरितामृत है। इस प्रकार से इन तीन ग्रंथों के विषय में कहा जाता है। यहां पर सूत शौनक उवाच अर्थात सूत शौनक संवाद में कहा जा रहा है। कृष्णो जानाति वै सम्यक किश्चित कुंती एव च। वास्तविक रूप से देखा जाए तो भगवान् श्री कृष्ण इस गीता के महत्व को जानते हैं। कुछ प्रमाण में देखा जाए तो अर्जुन भी जानते हैं। व्यासो वा व्यासपुत्रो वा याज्ञवल्क्यो था मैथिलाः श्रील व्यासदेव जानते हैं और श्रील व्यासदेव के पुत्र श्री शुकदेव गोस्वामी जानते हैं। याज्ञवल्क और मिथलेश अर्थात राजा जनक जानते हैं। *अन्ये श्रवणताः श्रुत्व लौके संकीर्तयन्ति च तस्मात किंचित वाद्धमयत्रय व्यासेव स्यन माया श्रुतम्* ( 4) अर्थ:- औरों ने भी, जिन्होंने श्रीगीता की थोड़ी-सी महिमा सुनी है, वे उन्हें गाने में लगे हुए हैं। इसलिए अब मैं श्री गीता की महिमा के बारे में बात करूंगा जैसा कि मैंने उन्हें व्यासदेव से सुना था: *तस्मात किंचित वाद्धमयत्रय व्यासेव स्य मयन क्षुत्रुम।* सूत गोस्वामी यहां पर कह रहे हैं कि अन्य श्रवन्तः क्षुत्रुवा अर्थात सुनी सुनाई बात जिसे कहा जाता है। अन्य भक्त सुन सुन कर इसका वर्णन करते हैं। जैसा कि हम कर रहे हैं।(अतएव कौन जानते हैं। )श्रील व्यासदेव जो जानते हैं, वहीं श्रेष्ठ प्रमाण कहा गया है। उन्हीं के शब्दों में वराह पुराण में भगवान् और पृथ्वी माताजी के बीच जो संवाद हुआ है, वहां पर भी गीता महात्म्य के विषय में बतलाया गया है। वहां वर्णन आता है कि पृथ्वी माता, भगवान् नारायण से प्रश्न पूछती है गीता माहात्म्यं धरो उवाच *भगवान परमेसन भक्तिर अव्यभिचारिणी प्रारब्धं भुज्यमानस्यकथं भवति हे प्रभो* धरा अर्थात पृथ्वी माता भगवान् से पूछती हैं- हे परम् भगवान् आपकी अनन्य भक्ति हम कैसे कर सकते हैं। ( विशेष रूप से किनके लिए पूछा जा रहा है? ) इस संसार में जो अपने प्रारब्ध का भोग, भोग रहे हैं, ऐसे लोग कैसे वास्तविक भगवान् की अनन्य भक्ति प्राप्त कर सकते हैं। यह स्वयं भगवान् के अपने वचन हैं। इससे श्रेष्ठ कौन महिमा बता सकता है। श्री विष्णु उवाच भगवान् विष्णु कह रहे हैं:- *प्रारब्धं भुजोमान्य हि गीता अभ्यासे रत्तासदा: स: मुक्त सुखी लोके कर्मणा न उप लिप्यते।* (कितने सुंदर वचन हैं।) प्रारब्धं भुज्जोमान्य अर्थात अपने प्रारब्ध को भोगते हुए आपको एक विशेष कार्य करना है। यहां गीता के साथ तीन शब्द जुड़ गए है। गीता अभ्यास रत:सदा। यहां केवल गीता नहीं कहा है, गीता को केवल पढ़ना नहीं है, गीता का अभ्यास कहा गया है। जब आप उसको अच्छी प्रकार से आत्मसात करते हुए गंभीरतापूर्वक पढ़ते हो जिस प्रकार से एक विद्यार्थी अपने पाठ्य क्रम को पढ़ता है। वैसे ही जब आप भगवद्गीता को पढ़ते हो अथवा अभ्यास रत: होते हो। रत: शब्द का अर्थ होता है आसक्त होना। जैसे इस संसार में कोई पुरुष व स्त्री के बीच तथाकथित प्रेम हो जाता है। पुरुष स्त्री से या स्त्री पुरष से इतना आसक्त हो जाता है कि यदि उसका विछोह हो जाए तो प्राण त्यागने के लिए तैयार हो जाता है। वैसे ही यदि जब जीवन में गीता अभ्यास इतना अधिक होने लगे। यदि गीता अभ्यास ना हो तो जैसे जल के बिना मछली व्याकुल हो जाती है, वैसे ही हमारी व्याकुलता हो जाये, उसको रता: कहा गया है। गीता अभ्यास रत:सदा, जो सदा भगवद्गीता के अभ्यास में आसक्त होते हैं। अगर आपने यह गुण प्राप्त कर लिया तो परिणाम क्या है - स: मुक्त: पहला शब्द भगवान् ने जो कहा कि वो मुक्त है। जीते जी वो अपने जीवन में मुक्त हो जाता है। वह मुक्त भी है और प्रारब्ध भोगते समय प्रारब्ध का प्रभाव भी उस पर नहीं पड़ता। *स: मुक्ता सः सुखी लोके कर्मणा न उपलीप्यते महा पापति पापानि गीताध्यायी करोति चेत न किंचित स्पृश्यते तस्य नलिनी दलम अंभासा* अर्थ:-वह मुक्त है, वह प्रसन्न है। वह अपने कार्यों से कभी नहीं फंसा है। संभावना है कि गीता का अध्ययन करने वाला व्यक्ति भयानक पाप करता है, वह कमल के पत्ते के समान अप्रभावित रहता है जो पानी की एक बूंद से भी अछूता रहता है। कर्मणा न उपलीप्यते अर्थात कर्म का बंधन उसे कभी भी नहीं लगेगा। कितनी विशेष महिमा है। ऐसे कई वचन हैं। महा पापति पापानि गीताध्यायी करोति चेत न किंचित स्पृश्यते तस्य नलिनी दलम अंभास भगवान दृष्टांत देकर बतलाते हैं कि जिस प्रकार कमल का पुष्प जल में रहता है अर्थात कमल का जो पत्ता होता है, वह जल को स्पर्श नहीं करता। उसी प्रकार यदि शब्दों को ध्यान से समझा जाए तो भाव को आप समझ सकते हो पहले हमनें समझा कि गीता अभ्यास: रत: सदा अर्थात सदा गीता के अभ्यास में आसक्त हो। दूसरा शब्द यहां पर है- गीता ध्यानम पहले तो अभ्यास कहा गया है दूसरा गीता पर आपका ध्यान? अर्थात जब गीता चिंतन का विषय बन जाए। गीता में जो भगवान् के वचन हैं जब आप उसका ध्यान करने लगते हैं- महापापा पापति पापानि चेत न किंचित स्पृश्यते तब बड़े से बड़ा पाप स्पर्श नहीं करता। कितने सुंदर शब्द हैं। गीता का ध्यान आपके जीवन में बुलेटप्रूफ़ जैकेट बन जाता है। गीता का ध्यान करने से पहली बात, जीव मुक्त हो जाता है। दूसरा वह सुखी रहता है, वह कर्म से लिप्त नही होता। आगे कहा जाए उसको पाप स्पर्श नहीं कर पाते। जिस घर में नियमित रूप से भगवद्गीता रखी जा रही है, भगवद्गीता पढ़ी जा रही है, उस घर उस स्थान की महिमा क्या है? *गीता पुस्तकं यत्र नित्य पाठस च वर्तते तत्र सर्वाणी तीर्थनि प्रयागदिनी भुतले अर्थ:- जहां भी गीता की पवित्र पुस्तक मौजूद है और लगातार गाया जाता है, वहां इस दुनिया के सभी पवित्र स्थान, जैसे प्रयाग और अन्य, सभी मौजूद हैं। यदि घर पर भगवद्गीता को रखा जाता है और नियमित रूप से पाठ किया जाता है। हमनें पहले दो बिंदु समझे एक आसक्ति के साथ रत, दूसरा ध्यान अगर इतना नहीं तो कम से कम पाठ तो करें। केवल गीता का पाठ जिस घर में होता है, तत्र सर्वाणि तीर्थानि। सारे ब्रह्मांड के तीर्थ एक साथ उस घर में वास करते हैं। वो कितना पवित्र स्थान बन जाता है। केवल इतना ही नहीं, पाठ नहीं तो कम से कम गीता रख तो दो। केवल रखने से उसका परिणाम... *निवसन्ति सदा देहे, देहे- सीसा पी- सर्वदा सर्वे देवा: च रसयो, योगिना देह: रक्षक:।।* अर्थ:- जो लगातार गीता का अध्ययन करता है, उसके लिए देवता, ऋषि और योगी सभी मृत्यु के समय भी शरीर में संरक्षक के रूप में रहते हैं *गोपालो बाल कृष्ण पि नारद ध्रुव परसादैह साहयो जायते शीघ्रम यत्र गीता प्रवर्तते* अर्थ:- जहाँ भी गीता गाई जाती है, कृपालु चरवाहे श्रीकृष्ण अपने साथियों नारद, ध्रुव और अन्यों के साथ एक मित्र के रूप में तेजी से प्रकट होते हैं। जो संस्कृत जानते हैं, वे थोड़ा बहुत समझ गए होंगे। यत्र गीता प्रवर्तते अर्थात जहां पर गीता केवल विराजमान की जाती है। साहयो जायते शीघ्रम अर्थात वहां पर उस जीव को मदद करने के तुरंत सभी देव, ऋषि, योगी, समस्त नाग, साक्षात गोपाल बाल कृष्ण आ जाते हैं। भगवान् के समस्त भक्त गण उस जीव की सहायता करने के लिए तैयार हो जाते हैं। जो केवल अपने घर में गीता को विराजमान करते हैं। अब यहां पर प्रश्न आता है कि भक्त लोग गीता का इतना प्रचार भी कर रहे हैं। इसके विषय में भगवान् ने कुछ कहा है। हाँ। भगवान् ने कहा है - *यत्र गीता विचारस्य च पठनम, पाठनम तत्र मोदते तत्र श्रीकृष्ण भगवान राधाय सह।* अर्थ:- जहाँ भी गीता शास्त्र की चर्चा, अध्ययन और शिक्षा की जाती है, वहाँ परम भगवान श्रीकृष्ण, श्रीमती राधारानी के साथ, बहुत खुशी के साथ आते हैं। जहां पर गीता पर विचार किया जाता है। गीता के शब्दों पर विचार जैसे यहां आपस में चर्चा हो रही है। जैसे भगवान् कहते हैं *मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् | कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ||* (श्रीमद भगवतगीता १०.९) अर्थ:- मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परम सन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं | पठनम/ पाठनम। जैसे भक्ति शास्त्री कोर्स इत्यादि होते हैं, जहां पर गीता का विचार किया जा रहा है। गीता को पढ़ा जा रहा है। गीता को पढ़ाया जा रहा है। सब भक्त बैठ कर गीता को सुन रहे हैं। भगवान् नारायण स्वयं पृथ्वी से कह रहे हैं कि हे पृथ्वी *तत्र अहम निश्चितं निवासामि सदैव अर्थात मैं सदा वहां पर रहता हूँ, जहाँ पर गीता का प्रचार होता है। श्रीमद्भगवतगीता की जय!!!* हे पृथ्वी और मैं क्या कहूँ। गीता आश्रय अहम तिष्ठामि। वास्तविक रूप से मैं स्वयं भगवद्गीता का आश्रय लेता हूँ। गीता मे च उत्तम ग्रहम। ग्रहम मतलब घर होता है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरा सबसे अच्छा घर कौन सा है। भगवद्गीता ही मेरा घर है। *गीताज्ञानम उपाश्रित्य त्रिलोके पालयम अहम।* इस गीता के ज्ञान का आश्रय लेकर मैं तीनों लोकों का पालन करता हूँ। आगे वे कह रहे हैं कि थोड़ा भी यदि कोई इन गीता के शब्दों को नियमित रूप से पढ़ता है। *यो अष्टदश: जपेन नित्यम नरो निश्चल मनास: ज्ञान सिद्धिम् सा लभते ततो यति परम पदम्* अर्थ:- जो व्यक्ति चंचल मन से नियमित रूप से इन गोपनीय पवित्र नामों का जप करता है, दिव्य ज्ञान में पूर्णता प्राप्त करता है और अंत में सर्वोच्च गंतव्य को प्राप्त होता है। जो लोग इस भगवत गीता के 18 अध्यायों का जपा नित्यम करते हैं। केवल हरे कृष्ण भक्त ही नहीं, अपितु बाहर के भी लोगों को भी देखें उनकी नियम साधना में होता है। वे अठारह अध्यायों का पाठ करते हैं। नियमित पाठ करने में बहुत अधिक समय नहीं लगता। लगभग 1-1/2 घंटे में ही कुछ भक्त कर लेते हैं। जो निश्चल मन से गीता के 18 अध्यायों का पाठ करता है। ज्ञान सिद्धिम सुलभयते अर्थात उसे ज्ञान की सिद्धि प्राप्त हो जाती है। ज्ञान की सिद्धि क्या है? *बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ||* ( श्रीमद भगवतगीता ७.१९ )” अनुवाद अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है | भगवान, भगवत गीता में कहते हैं कि ज्ञान की सिद्धि यह है कि श्रीकृष्ण ही सर्वस्य हैं।यह जान लेना। यदि कोई पूरा पढ़ नहीं पाता है। वह अट्ठारह अध्यायों की बजाय केवल 9 अध्याय ही पढ़ लेता है तो... *पथे समर्थः संपूर्णने तद अर्धम पथम् आचरेत् तदा गोदाना जम् पुण्यम लभ्यते नेत्र संशयः* अर्थ:- अगर कोई पूरी गीता नहीं गा सकता है, तो उसका आधा गाना गाया जाना चाहिए। तब निःसंदेह गायों का दान करने से प्राप्त पुण्य की प्राप्ति होगी। अगर पूरा पाठ ना करके आधे ही पाठ कर ले तो उसे गोदान के बराबर फल प्राप्त होता है। यदि 9 अध्याय भी नहीं हो पा रहे हैं तो उसको तीन तीन भागों में बाँट ले 6-6-6 अर्थात पहले दिन आपने छह अध्याय किए दूसरे दिन छह तत्पश्चात तीसरे दिन 6 अध्याय। यदि इतना भी आप पढ़ लेते हैं। *त्रिभागम् पठमनस तू, सोम यज्ञ फलम् लभेत। सदांसं जपमानस तू गंगा स्नान फलम् लभ्येत।।* अर्थ:- एक तिहाई गीता के जप से सोम यज्ञ का फल प्राप्त होता है और एक छठा भाग जप करने से गंगा में स्नान करने के फल की प्राप्ति होती है। उतना भी आपने कर लिया तो हरिद्वार में जाकर गंगा में स्नान करने का फल प्राप्त होता है। अभी ठंड है तो स्नान के विषय में ना कहा जाए। आपने 6 अध्याय पढ़ लिए तो गंगा स्नान का फल आपको मिलता है। वास्तव में हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि कितना बड़ा सौभाग्य है जो हमने अपने जीवन में इस गीता को प्राप्त किया है। श्रील प्रभुपाद जी की कृपा से। अच्छा यदि इतना नहीं तो तीन अध्याय तो कर सकते हैं। 3 अध्याय मतलब 6 भाग हो गए। प्रातकाल उठे, जप किया और तीन अध्यायों को आपने पढ़ लिए तो सोम यज्ञ आदि इन का फल प्राप्त होता है। अच्छा तीन अध्याय नही तो एक अध्याय का ही नियम रख लो भाई *एकम अध्यायकम् नित्यं पठते भक्ति संयुताः। रुद्र लोकं अवप्नोति गणो भूत्वा वसे चिरम्।।* अर्थ:- जो प्रतिदिन एक अध्याय भक्ति के साथ गाता है, वह भगवान शिव के सहयोगी के रूप में पहचाना जाएगा और वह अथाह समय के लिए भगवान शिव के निवास में निवास प्राप्त करेगा। इसमें भी कोई नुकसान नहीं है कोई यदि एक अध्याय भी नियमित रूप से पढ़ता है तो वह रूद्र लोक अर्थात शिवजी के सानिध्य को प्राप्त करता है। कोई कल्पना कर सकता है। हम लोग प्रतिदिन गुरु महाराज के सानिध्य में नाम जप करते हैं। साक्षात शिवजी जो निरंतर *राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे। सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने॥* का जप करते हैं। रूद्रं मतलब जो निरंतर भगवान के नाम में निरंतर क्रंदन करता हो। उसे रूद्र कहते हैं, शिवजी के नाम की व्याख्या में यह बार बताई जाती है। ऐसा शिवजी का सानिध्य उसे प्राप्त होता है जो केवल गीता का एक अध्याय पढ़ लेता है। यदि एक अध्याय भी नहीं पढ़ सकते तो एक श्लोक तो पढ़ ही सकते हैं। *अध्यायर्धाम च पदम वा नित्यम् येः पथते जनः प्राप्नोति रवि लोकं सा मन्वन्तरा समः सतम्* अर्थ:- जो व्यक्ति प्रतिदिन आधा या केवल एक चौथाई अध्याय गाता है, वह सौ मनु के समय के लिए सूर्य के निवास में निवास प्राप्त करेगा। कितनी विशेष बात कही है। आपने एक नियम रखा कि गीता का एक ही श्लोक मैं प्रतिदिन पढ़ लूंगा जिसने इतना भी कर लिया तो कहा गया है मन्वंतर (मन्वंतर का मतलब आप जानते हैं। लगभग 71 चतुर्युग का एक मन्वंतर होता है) इतने काल तक यह निश्चित है कि वह मनुष्य योनि से नीचे नहीं गिरेगा। यह बहुत बड़ी सिद्धि है। निम्न योनि में ना जाना और मनुष्यता प्राप्त करना सरल नहीं है। वह उसे मन्वंतर तक प्राप्त हो जाता है और यदि कोई गीता का अभ्यास कर रहा है तो उसके बारे में कहा जाता है। *गीताभ्यसं पुनः कृत्वा लभते मुक्तिम् उत्तमम्।* गीता के अभ्यास से उत्तम मुक्ति अर्थात प्रेमाभक्ति प्राप्त होती है। कुछ लोग भगवान गीता के विषय में कहते हैं कि वे पढ़ नहीं पाते, उन्हें सुनने में अच्छा लगता है। यदि आपको पढ़ना नहीं आता केवल गीता को सुनने में आपकी आसक्ति है। उनके विषय में क्या कहा जाता है गीता अर्थ श्रवणसक्त महापापा युतो पि वावैकुंठम् समवप्नोति विष्णु सह मोदयते कितना सुंदर शब्द है। गीता के श्रवण में आसक्ति, गीता सुनने में ना मिले तो उसके प्राण निकलने लगे। मैनें आज गीता नही सुनी ऐसी जिसकी जीवन की अवस्था हो जाए, बडे से बड़ा पापी भी क्यों न हो, उसे गीता के श्रवण में आसक्ति होने से वैकुण्ठ की प्राप्ति होती है और भगवान् विष्णु के नित्य लीला विलास में भाग लेता है। हरिबोल!!! (मैं पढ़ने जा रहा हूँ तो एक एक वचन एक एक शब्द खुलते ही जा रहे हैं।।) *गीता अर्थम् ध्यायते नित्यकृत्वा कर्मणी भूरिसाहजीवनमुक्तः सा विज्ञानोदेह न्ते परमं पदम्* पहला जो श्लोक था, लगभग वैसा ही अठारहवां श्लोक भी है। जो गीता के अर्थ का ध्यान करता है। गीता का श्लोक होता है, उस श्लोक का अर्थ होता है। उन श्लोकों का चिंतन करना जैसे हम गुरु महाराज से श्रवण करते हैं हम देखते हैं किस प्रकार गुरु महाराज अर्थों के ऊपर चिंतन करते हैं। *गीता अर्थम् ध्यायते नित्यकृत्वा कर्मणी भूरिसाहजीवन मुक्तः सा विज्ञानो देहन्ते परमं पदम्* जो गीता का ध्यान करता है वह इस संसार का सबसे श्रेष्ठ व्यक्ति है। वह जीवन मुक्त है, आगे इसी बात को कहा जा रहा है। *ये श्र्वन्ति पठन्ति एव गीता शास्त्रम् अहर निसम न ते वै मानुषा ज्ञान देवा रुपा न संशयः* अर्थ:- जो लोग दिन-रात गीता सुनते और गाते हैं, उन्हें कभी भी केवल मनुष्य के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए। निःसंदेह वे इस संसार में देवता के समान हैं। जो अहर्निश दिन रात सुबह शाम श्र्वन्ति पठन्ति एव गीता शास्त्रम् अर्थात जो गीता के शास्त्र को सुनते हैं, पढ़ते हैं। समझ लेना चाहिए वह मनुष्य नहीं है। वे सब वास्तविक देव हैं। आगे कहा जा रहा है ऐसे जो भक्त होते हैं जो निरंतर दिन-रात गीता का अध्ययन करते हैं। अर्थात उनको इतना दिन भर गीता का ध्यान होने लगा कि सपने में भी गीता के वचन आने लगते हैं। गच्छन मतलब चलते समय गीता के वचन, वदन मतलब बोलते समय जब आप सांसारिक लोगों से बात करते हैं तो बोलते समय व्यवहार में गीत आने लगती है। बोलने में गीता के वचन आपके व्यवहार में आने लगते हैं। तिष्टन अर्थात जहां भी आप खड़े हैं ,सोते समय, बोलते समय, खड़े रहते समय भी गीता के शब्दों का यथार्थ चिंतन करते हैं तब भगवान की नित्य लीला में प्रवेश करते हैं। *गीता पथम् च श्रवणम् ये करोति दिने दिने कृतवो वाजिमेधाद्यः कृतस तेना सा दक्षिणः* अर्थ:- जो व्यक्ति प्रतिदिन गीता को सुनता और गाता है, उसे सभी यज्ञों जैसे अश्वमेध और अन्य को पूरा करने वाला माना जाता है, जिसमें यज्ञोपवीत प्राप्त करना भी शामिल है। ऐसे कई वचन हैं पर क्षमा कीजिए। मेरा समय हो चुका है, मुझे और भी कुछ अन्य बात कहनी थी। इस प्रकार यहां पर गीता की विशेष महिमा बताई गई है। हम सभी का विशेष सौभाग्य है कि हम लगभग पिछले डेढ़ महीने से भगवत गीता पर गुरु महाराज जी के सानिध्य में निरंतर गीता के शब्दों का चिंतन विचार कर रहा है। गुरु महाराज विशेष रूप से सभी को प्रोत्साहित कर रहे थे। ग्रंथ वितरण के विषय में पहले ही मैंने कुछ स्थानों पर कहा है जब गुरु महाराज ने आदेश दिया था । जिस तरह से भगवान के भिन्न-भिन्न अवतार होते हैं जो हमें कृपा देते हैं। लेकिन रामचन्द्र की कृपा हम सभी को सहजता से प्राप्त नहीं होती है। हालांकि भगवान रामचन्द्र बहुत करुणामय व दयालु है परंतु भगवान कहते हैं *सकृदेव प्रपन्नो यस्तवास्मीति च याचते । अभयं सर्वदा तस्मै ददाम्येतद्व्रतं मम ॥* ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 22.34) अनुवाद " यह मेरा व्रत है कि यदि कोई यह कहकर एक बार भी मेरे शरणागत होता है कि , " हे प्रभु ! आज से मैं आपका हूँ " और अभय के लिए मुझसे प्रार्थना करता है, तो मैं उस व्यक्ति को तुरन्त अभय प्रदान करता हूँ और वह उस समय से सदैव सुरक्षित रहता है । " कोई एक बार मेरी शरण में आ जाए और वह कह दे कि हे भगवान, मैं आपका हूं। भगवान रामचंद्र पूर्ण शरणागति चाहते हैं। जिस समय विभीषण आया तब भगवान ने उसे स्वीकार किया। भगवान ने वानरों को स्वीकार किया, जो भगवान रामचंद्र के शरणागत होता है। भगवान उसे स्वीकार करते हैं। उस पर कृपा करते हैं। वही भगवान श्रीकृष्ण के रूप में द्वापर में आए। तब भगवान् ने कहा *ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ||* अर्थ:- जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है। भगवान का हिसाब उतना ही रहता जितना आप मेरे पास आओगे, उतना ही मैं आपको आदान प्रदान करूंगा। भगवान् कहते हैं- *सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||* ( श्रीमद भगवद्गीता 18.66) अनुवाद:- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत । समस्त धर्मों का परित्याग करके पूर्ण रूप से मेरी शरण लो। वास्तविक देखा जाए भगवान रामचंद्र, भगवान कृष्ण की कृपा उन्हें प्राप्त होती है, जो पूर्ण शरणागत हों। हम श्रील भक्ति विनोद ठाकुर और चैतन्य महाप्रभु के शब्दों को देखें तो पता चलता है कि शरणागत शब्द बहुत गहरा है। सहज नही है। *षडंग शरणागति हइबे याँहार। ताँहार प्रार्थना शुने श्री-नन्द-कुमार॥* ( भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा रचित) अर्थ:- कृष्ण, जो कि नन्द महाराज के पुत्र हैं, उन लोगों की प्रार्थनाएँ सुनते हैं जिन्होंने शरणागति के इन छः सिद्धांतों को आत्मसात् कर लिया है। भगवान् श्रीकृष्ण उनकी प्रार्थना सुनते हैं,जो षडंग शरणागत होते हैं। हमारी तो शरणागति है भी नहीं, तो हम जैसों के लिए कौन हैं जो कि शरणागत नही हैं। परन्तु कम से कम भगवान् के पास आए हैं। आप ऐसे जीव हो, मैं तो ऐसा नहीं हूं। कितने ऐसे जीव हैं जो भगवान के पास चल कर आते हैं शरणागति नहीं जानते हैं, भक्ति नहीं जानते हैं, ऐसे जीवों के लिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय!!! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु इतने करुणामय हैं जो शरणागति नहीं जानता, समर्पण नहीं जानता है, जिसका हृदय पवित्र नहीं है, शुद्ध नहीं है। जो केवल कृष्ण भावना अमृत में आ गया है और हाथ ऊपर कर भगवान का नाम लेता है , बस इससे आप मुक्त हो सकते हो। यह है तीसरी कैटेगरी (वर्ग) है लेकिन कुछ ऐसे जीव हैं, ( यह हमारी कैटेगरी है) जो भगवान के पास भी आना नहीं चाहते हैं। भगवान को प्राप्त ही नहीं करना चाहते। एक वर्ग होता है इंटरेस्टेड पीपल (रुचि दिखाने वाले लोगों) का और दूसरा वर्ग होता है अनइंटरेस्टेड पीपल (रुचि ना रखने वाले लोगों का) जो वास्तविक भगवान में रुचि रखते ही नहीं हैं। जैसे सार्वभौम भट्टाचार्य, प्रकाशा नंद सरस्वती, रामानंद राय कुछ विशेष भक्त हैं जिन्होंने चैतन्य महाप्रभु की कृपा को प्राप्त किया। अंततः चैतन्य महाप्रभु चाहते थे कि समस्त जीवों पर कृपा हो। तब श्रीचैतन्य महाप्रभु ने नित्यानंद प्रभु से कहा- *ताहाँ सिद्धि करे – हेन अन्ये ना देखिये । आमार ' दुष्कर ' कर्म , तोमा हैते हुये ।।* ( श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 16.65) अनुवाद:- श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा , " तुम वह कार्य कर सकते हो , जिसे मैं भी नहीं कर सकता । तुम्हारे अतिरिक्त मुझे गौड़देश में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिल सकता , जो मेरे उद्देश्य को वहाँ पूरा कर सके । " हे नित्यानंद, जो मैं नहीं कर सकता, वह कार्य तुम कर सकते हो। कौन सा कार्य? प्रसिद्ध वचन है *प्रभुर अज्ञाय, भाइ, प्रति घरे जाय मागि एइ भिक्षा बोलो ‘कृष्ण, ‘भजकृष्ण, कर कृष्ण-शिक्षा॥* अर्थ:- हे सच्चे, वफादार व्यक्तियों, हे श्रद्धावान, विश्वसनीय लोगों, हे भाइयों! भगवान् के आदेश पर, मैं आपसे यह भिक्षा माँगता हूँ, “कृपया कृष्ण के नाम का उच्चारण कीजिए, कृष्ण की आराधना कीजिए और कृष्ण की शिक्षाओं का अनुसरण कीजिए। ” *सुनो सुनो नित्यानंद , सुनो हरिदास सर्वत्र आमार आज्ञा कोरोहो प्रकाश* ( चैतन्य भागवत् मध्यखंड 13.8 ) अनुवाद : - सुनो सुनो नित्यानंद ! सुनो , हरिदास ! हर जगह मेरी आज्ञा का प्रचार करो ! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का जो यह विशेष आदेश है , मैं लगभग पिछले डेढ़ महीनों से इसी शब्द पर विचार चिंतन कर रहा हूं। इसीलिए पुन: पुन: यही विचार आ रहे हैं । चैतन्य महाप्रभु ने जब नित्यानंद प्रभु को कहा था प्रति घरे जाये.. प्रति घरे का मतलब क्या उसमें सिर्फ बंगाल के घर थे? या महाराष्ट्र के सब घर उसमें आते हैं? या उसमें ऑस्ट्रेलिया के घर आते हैं? या उसमें मोरिशियस के घर आते हैं। जब नित्यानंद प्रभु को चैतन्य महाप्रभु से आदेश मिला कि प्रति घरे जाओ। यह बहुत महत्वपूर्ण शब्द है। प्रत्येक घर में तुम्हें जाना है। इसका वास्तविक जो अर्थ है जो लोग वास्तव रूप से इंटरेस्टेड नहीं है जिनको बिल्कुल भी भगवान में रुचि नहीं है। भगवत भक्ति में रुचि नहीं है जिनकी भगवत प्राप्ति की कोई इच्छा नहीं है ऐसे लोगों पर कृपा करने के लिए इस धरातल पर नित्यानंद प्रभु ने जन्म लिया। श्री नित्यानंद प्रभु की जय! निताई की करुणा जो है, वह अनइंटरेस्टेड पीपल के लिए है। जो बिल्कुल इंटरेस्ट नहीं लेते हैं जो बिल्कुल नहीं चाहते, उनके घर में जाकर भक्ति दी जाती है। वही श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती महाराज और श्रील प्रभुपाद ने उस नित्यानंद प्रभु की कृपा को ही एक मूर्तिमान स्वरूप दिया है जोकि है श्रील प्रभुपाद जी के ग्रंथ। श्रील प्रभुपाद ट्रांसडेंटल बुक डिस्ट्रीब्यूशन की जय!!! वास्तव में हम नहीं जानते कि हम अनजाने में क्या करते हैं। जो लोग इन ग्रंथों को लेकर बाहर जाते हैं, जब मैं इस बात पर विचार कर रहा हूं तो मेरे मन में कुछ अलग ही भाव आ रहे थे। प्रात: काल जब मैं नाम जप के समय चिंतन करने लगा। जिस तरह से भक्त लोग प्रार्थना करते हैं, आपने सुना है। कब वह दिन आएगा जब मैं यमुना के तट पर रहूंगा। कब वह दिन आएगा जब मैं गोवर्धन का दर्शन करूंगा, कब वह दिन आएगा जब मैं राधा कृष्ण की लीला का दर्शन करूंगा। आप वास्तविक ग्रंथ वितरण की महिमा को नहीं जानते। यदि आप जान ले तो किंचित मात्र मन में क्या भावना आएगी कि कब वह दिन आएगा जब श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों को हाथ में लेकर रास्ते खड़ा होऊंगा। कब हम उस ग्रंथ वितरण की महिमा को समझ पाएंगे? जिस तरह से एक समय श्रील प्रभुपाद को उनके एक शिष्य ने पूछा कि प्रभुपाद, हम रोज गुरु वंदना में कहते हैं। *निकुञ्ज-युनो रति-केलि-सिद्धयै या यालिभिर् युक्तिर् अपेक्षणीया तत्राति-दक्ष्याद् अतिवल्लभस्य वन्दे गुरोः श्रीचरणारविन्दम्।।* ( श्री गुर्वाष्टक) अर्थ:- श्रीगुरुदेव अतिप्रिय हैं, क्योंकि वे वृन्दावन के निकुंजों में श्रीश्रीराधा-कृष्ण की माधुर्य लीलाओं को अत्यन्त श्रेष्ठता से सम्पन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार का आयोजन करती हुई गोपियों की सहायता करने में निपुण हैं। ऐसे श्री गुरुदेव के चरणकमलों में मैं सादर वन्दना करता हूँ। हम उन गुरु के चरण कमलों की वंदना करते हैं जो भगवान राधा कृष्ण की नित्य व अन्तरंग लीला में राधा कृष्ण को सहायता करते हैं। एक भक्त ने पूछा प्रभुपाद इसका अर्थ क्या हुआ। श्रील प्रभुपाद ने कहा कि ग्रंथों को उठाओ, बाहर जाकर रास्ते में वितरण करो। यही इसका अर्थ है। कभी लगता है कि श्रील प्रभुपाद ने इसमें यह क्या कहा है लेकिन इसमें बहुत गहरा अर्थ बताया गया है। वास्तव में यह बहुत ही अंतरंग सेवा है। आप ग्रंथो को लेकर इस संसार में जो बहुत ही अनिच्छा वाले जीव हैं, उनके पास जब जा रहे हैं तब आप ऐसी कृपा प्राप्त करते हैं। प्रबोधानंद सरस्वती के शब्दों में कहा जाता है। *यथा यथा गौरा पादरविंदे विन्देता भक्तिम कृत पुण्य राशी: तथा तथोस्तसर्पती हृदयकस्मात राधापदाभोजा सुधाम्बुराशीः* ( चैतन्य चन्द्रामृत ८८) वास्तव में चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख सेवक कौन हैं। श्री नित्यानंद प्रभु ही चैतन्य महाप्रभु के एकमात्र सेवक हैं। नित्यानंद प्रभु की कृपा की मूर्ति श्रील प्रभुपाद हैं। जैसे नित्यानंद प्रभु घर घर गए, वैसे ही श्रील प्रभुपाद भारत को छोड़कर न्यूयॉर्क गए । वास्तव आदेश प्रति घरे जाओ यही भावना तो श्रील प्रभुपाद की थी। लोग रूचि नहीं लेते थे, ना ही उन्होंने आमंत्रण दिया था। श्रील प्रभुपाद ने वहां पर जाकर इन ग्रंथों को पहुंचाया है। चैतन्य महाप्रभु , नित्यानंद प्रभु और श्रील प्रभुपाद के माध्यम से जो ग्रंथ वितरण की सेवा करता हो उनके लिए तो क्या कहा जाता है। राधापदाभोजा सुधाम्बुराशीः अर्थात अचानक बिना किसी प्रयास के श्री वृंदावन धाम में श्रीमती राधा रानी के चरण कमलों की निज सेवा का उसे अधिकार प्राप्त होता है। इससे आगे बढ़कर और मैं क्या कहूं। ऐसे बहुत सारी बातें हैं और क्या कहूं। क्षमा चाहता हूं। मेरे स्वभाव को जानकर मुझे 4,5 मिनट अतिरिक्त दिए गए थे । आप सब भक्तों का बहुत बहुत धन्यवाद। क्षमा चाहता हूं थोड़ा 5 मिनट अधिक हो गए। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* वैसे कुछ लीला और कथा भी थी परंतु समय का अभाव है, भविष्य में फिर कभी आपकी सेवा में सुनाएंगे। हरे कृष्ण!!!

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