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*जप चर्चा*
*वृन्दावन धाम से*
*28 अगस्त 2021*
हरे कृष्ण!!!
आज इस जप कॉन्फ्रेंस में 722 स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं।
गौर प्रेमानंदे, हरि हरि बोल!!!
कृष्ण कन्हैया लाल की जय! हाथी घोड़ा पालकी
कृष्ण कन्हैया लाल की ..
नंद के घर... क्या हुआ? कुछ हुआ या नहीं?
नंद के घर आनंद भयो। वैसे अभी होने वाला है, हर साल होता है। केवल दो दिन ही दूर हैं, वृंदावन धाम की जय!
वैसे आज भी हम लगभग सवा सात बजे तक ही जप चर्चा करेंगे। आजकल ऐसे ही होने वाला है, कल भी और परसों भी क्योंकि मुझे मंदिर के प्रोग्राम में भी सम्मिलित होना है।
अभी पदमाली प्रभु भी घोषणा करेंगे कि 8:00 बजे कथा होगी। अभी थोड़ी कथा होगी व 8:00 बजे पुनः जन्माष्टमी के उपलक्ष में कृष्ण कथा होगी। इस्कॉन कानपुर द्वारा आयोजित कृष्ण कथा में मैं भी 8:00 बजे से 9:30 तक कथा करूंगा। अभी तो छोटी कथा होगी बाद में आठ बजे से लंबी कथा होगी।
यह हम कुछ दिनों से स्मरण कर रहे हैं श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु मथुरा- वृंदावन में.. ..
(कृष्ण दास कविराज गोस्वामी चैतन्य महाप्रभु के संबंध में लिखते हैं)
*नीलाचले छिला यैछे प्रेमावेश मन । वृन्दावन याइते पथे हैल शत - गुण ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत १७.२२६)
अनुवाद:- श्रीचैतन्य महाप्रभु का मन जगनाथ पुरी में प्रेमावेश में मग्न था , किन्तु जब वे वृन्दावन के मार्ग से होकर निकल रहे थे, तब वह प्रेम सैकड़ों गुना बढ़ गया।
जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नीलांचल में रहते थे, तब यदि वहां वे वृंदावन का स्मरण अथवा वृंदावन के संबंध में कोई बात सुनते तब उनमें प्रेम का आवेश हो जाता। श्रीकृष्ण चैतन्य वृन्दावन के विषय में सुनते ही भावविभोर हो जाते थे।
*वृंदावन याइते पथे हैल शत-गुण*
वृन्दावन धाम की जय!
जब वे वृन्दावन की ओर आने लगे, वृन्दावन के मार्ग में उनमें 100 गुणा प्रेमावेश बढ़ गया। महाप्रभु में वृंदावन के स्मरण अथवा श्रवण मात्र से जितना प्रेम का आवेश जगन्नाथपुरी में हुआ करता था, रास्ते में वह प्रेम आवेश 100 गुना बढ़ गया।
*सहस्त्र - गुण प्रेम बाड़े मथुरा दरशने । लक्ष - गुण प्रेम बाड़े, भ्रमेन यबे वने ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 17.227)
अनुवाद:- जब महाप्रभु ने मथुरा देखा तो उनका प्रेम हजार गुणा बढ़ गया, किन्तु जब वे वृन्दावन के जंगलों में घूम रहे थे, तब वह लाख गुणा बढ़ गया ।
जब महाप्रभु मथुरा में पहुंच गए तब मथुरा के दर्शन से उनका भाव अथवा प्रेम एक 1000 गुणा अधिक हो गया।
*लक्ष - गुण प्रेम बाड़े , भ्रमेन यबे वने*
तत्पश्चात जब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने वृंदावन की यात्रा प्रारंभ की। यह उनका भक्ति भाव अथवा प्रेम भाव कहा जाए अथवा उनकी कृष्णभावनामृत चेतना अथवा वृंदावन की भक्ति भाव, वह उनमें एक लाख गुणा बढ़ गया। मथुरा से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने द्वादश काननों की यात्रा प्रारंभ की, वह मधुबन गए, वहां से ताल वन गए, कुमुद वन गए, तत्पश्चात वृंदावन गए। क्या आपको यह सब नाम याद हैं? यह पवित्र नाम हैं इसलिए इन नामों को सुनने मात्र से हम भी पवित्र हो जाते हैं। तत्पश्चात चौथा वन है, यमुना के पश्चिमी तट पर (वेस्टर्न बैंक ऑफ़ यमुना चल रहा) मधुबन से ताल वन, ताल वन से कुमद वन और वहां से वृंदावन आते हैं। वृंदावन से कामवन जाते हैं और कामवन से खादिर वन की यात्रा करते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु, वहां जो संपन्न हुई लीलाओं का श्रवण स्मरण करते हैं। इस प्रकार उनका भक्ति भाव लक्ष्य गुण अर्थात लाख गुना अधिक बढ़ जाता है। तत्पश्चात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु यमुना को पार करते हैं। तब वे भद्रवन जाते हैं जिस वन में भगवान ने वत्सासुर का वध किया था। तत्पश्चात चैतन्य महाप्रभु, भद्रवन से आगे बढ़ते हैं और भांडीरवन जाते हैं। भांडीरवन वही वन है जहां राधा कृष्ण का विवाह भी हुआ था। वहां से वे अगले वन बेलवन अर्थात श्रीवन भी जाते हैं। जहां लक्ष्मी जी तपस्या कर रही हैं। वहां से लोहवन अर्थात जहां भगवान् ने लोहाजंग असुर का वध किया था। लोहवन से आगे द्वादश काननों का अंतिम वन महावन अथवा गोकुल है। गोकुलधाम की जय!!
वहीं पर बलदेव नामक स्थान भी है, वहां बलदेव के विग्रह का दर्शन भी है। गोकुल में ब्रह्मांड घाट है। वहां क्या-क्या नहीं है? श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गोकुल धाम की यात्रा करते हैं । यह चैतन्य महाप्रभु का इस ब्रज यात्रा में बिल्कुल अंतिम पड़ाव रहता है। जब हम लोग भी ब्रजमंडल परिक्रमा करते हैं तब हम श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरण चिन्हों का अनुसरण करते हुए उन्हीं वनों में से, व उसी क्रम में उसी मार्ग पर जिस पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गए थे, उसी मार्ग से हम लोग भी चौरासी कोस की ब्रज मंडल परिक्रमा करते हैं, जो कि कार्तिक मास में इस्कॉन द्वारा आयोजित होती है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गोकुल से रावल गांव जाते हैं, रावल राधा रानी का जन्म स्थान है। सभी वनों की यात्रा करने का फल है, यह हमें राधा रानी के चरणों तक पहुंचा देती है। हम रावल गांव पहुंचते हैं और वहां की धूलि को हम अपने मस्तक पर उठाते हैं।
*राधे तेरे चरणों की यदि धूल मिल जाए तो तकदीर बदल जाए*..
हरि !हरि! तब परिक्रमा का फल राधा रानी के गांव में रहने का ही है, वैसे एक रात वहां रहते भी हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं राधा रानी अथवा राधा भाव में ही प्रकट हुए हैं।
श्रीकृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य। गौरांग!!!
रावल गांव में वे स्वयं ही राधारानी के भाव में रहे!! उन्हें लगा यह मेरा गांव है, मैं राधा रानी हूं।
*राधा कृष्ण - प्रणय - विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह - भेदं गतौ तौ । चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ब - द्युति - सुवलितं नौमि कृष्ण - स्वरूपम् ॥* राधा - भाव
(श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 1.5)
अनुवाद " श्री राधा और कृष्ण के प्रेम - व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं, किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है। अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ, क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं । "
राधा रानी के कारण ही तो कृष्ण अब गौर वर्ण के बने हैं। वे श्यामसुंदर थे, अब वे गौर सुंदर बने हैं। राधारानी के अंग के रंग को श्रीकृष्ण ने अपनाया है।
*अन्तः कृष्णं बहिरं दर्शिताङ्गादि - वैभवम् । कलौ सङ्कीर्तनाद्यैः स्म कृष्ण - चैतन्यमाश्रिताः ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला 3.81)
अनुवाद:- मैं भगवान् श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आश्रय ग्रहण करता हूँ , जो बाहर से गौर वर्ण के हैं, किन्तु भीतर से स्वयं कृष्ण हैं । इस कलियुग में वे भगवान् के पवित्र नाम का संकीर्तन करके अपने विस्तारों अर्थात् अपने अंगों तथा उपागों का प्रदर्शन करते हैं ।
कृष्ण छिपे रहे और बाहर से राधारानी के वर्ण को लिया।
*तप्तकाञ्चनगौराङ्गि राधे वृन्दावनेश्वरि। वृषभानुसुते देवी प्रणमामि हरिप्रिये।।*
राधारानी गौरांगी हैं, इसलिए वे हमारे गौरांग हैं। राधारानी के कारण वे गौरांगी के गांव में रहे। वहां रावल गांव में गौरांगी अथवा राधारानी के भाव में ही रहे।
अन्तोगत्वा वे पुनः विश्राम घाट लौटे हैं। जहां से उन्होंने यात्रा प्रारंभ की।
ब्रज मंडल की यात्रा का प्रारंभ औपचारिक दृष्टि से मथुरा के विश्राम घाट से होता है। चैतन्य महाप्रभु ने वैसे ही विश्राम घाट से प्रारंभ हुई यात्रा का समापन वही पर किया है। वहां से अक्रूर घाट रहने के लिए गए हैं ।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु रहने अथवा निर्जन भजन करने के लिए वहां गए हैं।
*ढुले ढुले गोरा-चांद हरि गुण गाइ आसिया वृंदावने नाचे गौर राय॥1॥*
*वृंदावनेर तरुर लता प्रेमे कोय हरिकथा निकुञ्जेर पखि गुलि हरिनाम सुनाई॥2॥*
*गौर बोले हरि हरि शारी बोले हरि हरि मुखे मुखे शुक शारी हरिनाम गाइ॥3॥*
*हरिनामे मत्त होये हरिणा आसिछे देय मयूर मयूरी प्रेमे नाचिया खेलाय॥4॥*
*प्राणे हरि ध्याने हरि हरि बोलो वदन भोरि हरिनाम गेये गेये रसे गले जाइ॥5॥*
*आसिया जमुनार कुले नाचे हरि हरि बोले जमुना उठोले एसे चरण धोयाइ॥6॥*
अर्थ
(1) चन्द्रमा सदृश भगवान् गौरा चाँद, नृत्य करते हुए, इधर-उधर झूलते हुए, और भगवान् हरि की महिमा का गुणगान करते हुए, वृन्दावन में पहुँचते हैं।
(2) वृन्दावन के वृक्षों को अलंकृत करती हुई उनमें लिपटी हुई लताएँ परम आनन्दित प्रेम से भाव विह्वल हो गई है, और वे भगवान् हरि की महिमा व यश के विषय में बोल रही हैं। पक्षियों के झुण्ड जो वृक्षों के समूह में या बगीचों मे रहते हैं, भगवान् हरि के नाम का गान कर रहे हैं।
(3) भगवान् गौर कहते हैं, “हरि! हरि!”, एक मादा तोता (शुक) उत्तर देती है, “हरि! हरि!” और तब सारे नर एवं मादा तोते सब साथ मिलकर, जोर से हरि के नाम का सहगान करते है।
(4) पवित्र भगवन्नाम द्वारा नशे में मद होकर, हिरन वन से बाहर आ जाता है। मोर व मोरनियाँ परम आनन्दित प्रेमपूर्ण भाव में भाव विभोर होकर नृत्य कर रहे हैं तथा उल्लासपूर्ण क्रीड़ा कर रहे हैं।
(5) भगवान् हरि उनके हृदय में हैं, भगवान् हरि उनके ध्यान में हैं, और वे अपनी वाणी (आवाज) से सदा हरि के नाम का उच्चारण करते हैं। गौर चाँद परम आनन्दित प्रेम पूर्ण भाव के मधुर, रसीली, मनोरम ध्वनि द्वारा नशे में मस्त हैं और हरिनाम गाते-गाते भूमि पर घूमते हुए लुढ़कते हैं।
(6) यमुना नदी के तट पर पहुँच कर, वह “हरि! हरि!” का उच्चारण करते हुए अति उत्साहित होकर नृत्य करते हैं। माता यमुना इतनी अधिक प्रेमानन्द से भाव विभोर हो जाती हैं कि वे उठती हैं और भगवान् गौरांग के चरण धोने के लिए आगे आती हैं।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ढुले ढुले अर्थात डोलायमान हैं और
हरि गुण गाइ अर्थात हरि का गुण भी गा रहे हैं।
आसिया वृंदावने, नाचे गौर राय
वे वृंदावन में आकर कीर्तन और नृत्य कर रहे हैं। नाचे गोरा राम श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वृंदावन में आकर कीर्तन और नृत्य कर रहे हैं।
'वृंदावनेर तरुर लता प्रेमे कोय हरिकथा '
अर्थात
वृंदावन की लता, वेली भी हरि कथा करती है। हरि हरि! सभी हरि हरि बोलते हैं। निकुञ्जेर पखि गुलि हरिनाम सुनाई अर्थात निकुंज के पक्षी पखि गुलि अर्थात पक्षियों के समूह भी भगवान के गुण गाते हैं।
झारखंड जंगल में तो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उन को प्रेरित किया और वे सभी झारखंड वन में नृत्य और कीर्तन कर रहे थे। जमीन पर पशु और आसमान में पक्षी को देखकर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को वृंदावन का स्मरण हुआ था लेकिन अभी महाप्रभु वृंदावन में ही हैं। वृंदावन के पशु पक्षी सदा के लिए कृष्ण भावना भावित होते हैं। वे भी हरि का गुण गाते ही रहते हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उनको प्रेरित नहीं किया अथवा उनको कुछ सिखाया नहीं है। वृंदावन के पशु पक्षी किसी साधना से सिद्ध नहीं हुए। वे तो स्वभाविक रूप से कृष्ण भावना भावित हैं। गौर बोले हरि हरि
शारी बोले हरि हरि
मुखे मुखे शुक शारी
हरिनाम गाइ
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जब हरि हरि कहते, तब उनको सुनने वाले भी हरि हरि बोलते। क्या आप हरि हरि बोल रहे हो? आप लोग बोल रहे हैं। बहुत अच्छा! वेरी गुड!
मुखे मुखे शुक शारी हरिनाम गाइ
हरिनामे मत्त होये
हरिणा आसिछे देय
मयूर मयूरी प्रेमे
नाचिया खेलाय।
हरि नाम में मद् कुछ हिरन भी वहां आ गए। वे भी गा रहे हैं। मयूर मयूरी प्रेमे
नाचिया खेलाय।
मयूर भी आ गए, कई सारी मयूरी भी आ गई। कई सारे मयूर वा मयूरी आ गई वे अपने नृत्य के लिए प्रसिद्ध हैं। कभी-कभी जब भक्त नाचते हैं, तब लोग या अन्य भक्त कहते हैं कि 'ही इस डांसिंग लाइक ए पीकॉक' अर्थात वह भक्त मोर जैसा नृत्य कर रहा है। मोर नृत्य के लिए प्रसिद्ध है।
मयूर, श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के पास पहुंचे और नाचिया खेलाय और नाच रहे हैं खेल रहे हैं।
प्राणे हरि ध्याने हरि
हरि बोलो वदन भोरि
हरिनाम गेये गेये
रसे गले जाइ
प्राण में हरि, ध्यान में हरि। हरि हरि। हरि बोलो वदन भोरि
*हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।*
कैसे बोलो बदन भरी। मुख भर के बोलो। मुख को भरने से पहले जी भर कर और कंठ भर के आत्मा की पुकार ह्र्दय से प्रारंभ होगी, कंठ में पहुंचेगी और कंठ से मुख में पहुंचेगी। मुख खोलो और बोलो- हरि! हरि!
हरिनाम गेये गेये
रसे गले जाइ
ऐसा कीर्तन करते-करते श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु यमुना के तट पर पहुंच गए। उन्होंने सात वनों की यात्रा की। सात वनों की यात्रा की और पांच वन अवशेष हैं। बीच में है यमुना मैया। यमुना के तट पर जब चैतन्य महाप्रभु पहुंचे।
आसिया जमुनार कुले
नाचे हरि हरि बोले
जमुना उठोले एसे
चरण धोयाइ॥
यमुना के तट पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हरि हरि कहते हुए अथवा हरि हरि नाम गाते हुए नृत्य कर रहे हैं। ऐसे हरि को गौर हरि को यमुना मैया ने देखा ।
जमुना उठोले एसे
चरण धोयाइ।
यमुना ने सोचा कि मेरे प्रभु मेरे प्राणनाथ पहुंच चुके हैं। जब वे जन्माष्टमी की मध्य रात्रि को जन्मे थे। जब वसुदेव इनको ले जा रहे थे तब उस समय भी मथुरा नगर से बाहर आए तो वहां पर भी यमुना मैया ने उनके दर्शन किए। वहां पर भी यमुना मैया ने वासुदेव को देखा था। जब कृष्ण कुछ ही घंटों के थे, उनकी आयु कितनी थी ? अभी लगभग 2 ही घण्टों के थे। अब मध्यरात्रि को उनका जन्म हुआ। हो सकता है कि वह एक-दो घंटे में वहां पर पहुंचे। यमुना को क्रॉस कर रहे थे। यमुना ने कृष्ण अष्टमी की रात्रि को, कृष्ण को अब पुनः देख रही है। कृष्ण जमुना में खूब खेलते और और उनकी जलकेली तो होती रही। वे गोरांगा गौर सुंदर के रूप में पहुंचे हैं। जब यमुना ने चैतन्य महाप्रभु को देखा तब यमुना सोच रही है ।
सुस्वागतम गोरांग
सुस्वागतम निमाई।।
वह दूर से खड़ी होकर केवल स्वागत स्वागत ही नहीं कह रही है, यमुना मैया गौरांग महाप्रभु की ओर दौड़ पड़ी है। उसकी लहरें तरंगे चैतन्य महाप्रभु के चरण धोए आगे बढ़ी है और आगे बढ़ते समय यमुना में कई सारे कमल के पुष्प भी खिलते हैं। उसको हाथ में लिया हुआ है। वैसे यमुना केवल जल ही नहीं है यमुना एक व्यक्ति अथवा पर्सनैलिटी भी है। वही आगे कालिंदी बनने वाली है, द्वारिका में पटरानी बनेगी। यहां पर गौरांग महाप्रभु का यमुना ने स्वागत किया है, उनके चरण धोती है। उनको पुष्प देती अथवा, अर्पित करती है। उन्होंने श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के हाथ में भी दिए होंगे और चरणों में भी अर्पित किए होंगे।
ढुले ढुले गोरा-चांद
हरि गुण गाइ
आसिया वृंदावने
नाचे गौर राय
हरि हरि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय।
श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की खुद की लीलाएं भी वहां संपन्न हुई। वृंदावन में श्यामसुंदर ने अपनी लीलाएं संपन्न की ही थी और अब श्यामसुंदर गौर सुंदर के रुप में पधारे हैं, अब उनकी लीला वृंदावन में संपन्न हो रही है। वैसे गौरांग चैतन्य महाप्रभु एक भक्त के रूप में भी यात्रा करने आए हैं, दर्शन करने आए हैं, यात्री बन कर आए हैं लेकिन वे साथ में भगवान भी हैं, भक्त भी हैं अथवा भक्त की भूमिका निभा रहे हैं। वे भक्त के रूप में वृंदावन की यात्रा दर्शन, परिक्रमा भी कर रहे हैं। साथ ही साथ वे स्वयं भगवान तो हैं ही।
*श्रीकृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नहे अन्य*
वृंदावन में उनकी लीलाएं जो संपन्न हुई उसके विषय में श्रील कृष्ण दास कविराज गोस्वामी, चैतन्य चरितामृत के मध्य लीला अध्याय 17 और 18 में चैतन्य महाप्रभु में लिखते हैं कि मैं चैतन्य महाप्रभु की यात्रा अर्थात उनकी लीलाओं का हावभाव का वर्णन कुछ तो कर रहा हूं लेकिन यह सारी लीलाएं सागर के समान हैं अथवा यह लीला का सिंधु भी है, मैं तो उसमें से कुछ बिंदु ही आपको प्रस्तुत कर रहा हूं। क्योंकि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने हर क्षण, भाव भक्ति व प्रेम के गोते लगाए। राधा कृष्ण प्रणय के मन में जो विकार विचार आए अथवा जो भी हावभाव रहे इसके वर्णन के विषय में वे कहते हैं मैं तो नहीं कर सकता , यदि कोई कर सकता है, तो अनंत शेष कर सकते हैं। जो सहस्त्र वदन है ,अनंत शेष को करने दो, वे कर सकते हैं। वे प्रयत्न कर सकते हैं।
उनकी सभी लीलाओं के वर्णन को लिखने के विषय में वे कहते हैं।
*वृन्दावने हैल प्रभुर यतेक प्रेमेर विकार । कोटि - ग्रन्थे ' अनन्त ' लिखेन ताहार विस्तार ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 17.231)
अनुवाद- वृन्दावन में श्रीचैतन्य महाप्रभु को प्रेम - विकार की जो अनुभूति हुई , उसका विशद वर्णन करने के लिए भगवान् अनन्त लाखों ग्रन्थों की रचना करते हैं ।
*तबु लिखिबारे नारे तार एक कण । उद्देश करिते करि दिग्दरशन ॥*
( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 17.232)
अनुवाद- चूंकि भगवान् अनन्त स्वयं इन लीलाओं के एक अंश का भी वर्णन नहीं कर सकते , अत : मैं तो केवल दिशा - निर्देश ही कर रहा हूँ ।
मैं तो एक कण लिख रहा हूं या आपको दे रहा हूं। चैतन्य महाप्रभु की वृंदावन की लीलाएं और उनके भक्ति भाव का प्रदर्शन उनके भक्ति का विकार और विचार के कोटि-कोटि ग्रंथ हो सकते हैं। हरि! हरि! श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय! जय श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के वृंदावन यात्रा की जय!
आप भी इसको पढ़िए। चैतन्य चरितामृत में मध्य लीला या श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की वृंदावन की यात्रा, जिसमें हमें वृंदावन का परिचय होता है। चैतन्य महाप्रभु की दृष्टि में वृंदावन कैसा है, महाप्रभु ने कैसे देखा, क्या अनुभव किया, उसका कुछ कुछ वर्णन है। ठीक है, अब मैं अपनी वाणी को यहीं विराम देता हूँ। यथासंभव पुनः 8:00 बजे मिलेंगे।
हरे कृष्ण!!!