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जप चर्चा 10 फरवरी, 2022 हरे कृष्ण हरि हरि बोल। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। वन थाउजेंड वन हंड्रेड सिक्सटिन स्थानों से जप कर रहे हैं। हरि बोल स्वागत है। आप जप करते जाइये, नॉट नाउ अभी नहीं प्रतिदिन, भगवान का पीछा करते रहिए और अपने जीवन में, अपने मन में, हृदय प्रांगण में हरि नाम की स्थापना कीजिए। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || (श्री मद्भगवत गीता 4.8) अनुवाद - भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ| श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु इसी हरि नाम धर्म की स्थापना के लिए प्रकट हुए। नाम बिना किछु नाहिक आर चौदह भुवन माझे (श्रील भक्ति विनोद ठाकुर कृत गीतावली से) अनुवाद – इन चौदह भुवनों में हरि नाम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर भी कहा करते थे, अपने गीत में उन्होंने गाया भी है। इस हरि नाम भगवान को संभाल कर रखिए। जतन के साथ संभाल कर रखिए। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे भक्ति विनोद ठाकुर का कहना था कि इन चौदह भुवनों में नाम के बिना और कुछ नहीं है। हरि नाम प्रभु की जय। नाम नाचे जीव नाचे नाचे प्रेम धन - नाम नाचता है। हम नाम का उच्चारण करते हैं तो नाम नाचता है। नाम नाचता है मतलब नाम भगवान है भगवान नाचते हैं या नामी नाचते हैं। जीव नाचे और उसके साथ फिर जीव भी इस नाम का उच्चारण करने वाला जीव भी नाचता है। हरिनाम प्रभु की जय। ये जपा कॉन्फ्रेंस चला रहे हैं और जपा टॉक भी है तो इसके पीछे का उद्देश्य हरि नाम की आराधना ही है। हरि नाम का सानिध्य हरि नाम का पीछा किसी भी हालत में नहीं छोड़ना है। गृह थाको वने थाको, सदा हरि बले डाको। सूखे दुःखे भूलो नाको, वदने हरिनाम कोरो रे।। (श्रील भक्ति विनोद ठाकुर कृत गीतावली से) अनुवाद – हे भाइयों, आप लोग भी घर में रहें या वन में (अर्थात गृहस्थाश्रम में रहें या त्यागी आश्रम में) अथवा सुख में रहें या दुःख में, सदैव भगवान का कीर्तन करें। सुख में दुःख में हरि नाम को मत भूलिए। वैसे आज एक महान दिन भी है श्री माधवाचार्य तिरोभाव तिथि महोत्सव की जय। आप समझ ही गए तिरोभाव तिथि डिसअपीरियंस डे। माधवाचार्य ब्रहम मध्व गौड़ीय संप्रदाय, हम भी मध्व संप्रदाय के ही हैं। हमारे संप्रदाय के आचार्य माधवाचार्य जिसके प्रथम आचार्य हैं ब्रह्मा और कलयुग में ब्रह्मा प्रकट हुए तो उन्होंने भी नाम जप भी किया और बन गए वे नामाचार्य ब्रह्म हरिदास ठाकुर। ब्रह्मा की परंपरा में यह भगवान की व्यवस्था है चार संप्रदाय या परंपराएं भगवान ने स्थापित की है। सृष्टि के प्रारंभ से ही चलती आ रही है। संप्रदाय कहिए या परंपरा कहिए एक ही बात है। कृष्ण ने कहा है – एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः। स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप|| (श्री मद्भगवत गीता 4.2) अनुवाद - इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु - परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई , अत: यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है। ज्ञान को प्राप्त करना है तो परंपरा में प्राप्त करना चाहिए यही भगवान की व्यवस्था है और पद्म पुराण में लिखा है – सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फला मताः। (पद्म पुराण) अनुवाद:- यदि कोई मान्यता प्राप्त गुरु शिष्य परंपरा का अनुसरण नहीं करता तो उसका मंत्र या उसकी दीक्षा निष्फल है। संप्रदाय के बाहर या विपरित विरोध में कोई मंत्र है तो विफल है, एक सफला एक विफल सफल विफल। इन परंपराओं का संप्रदायों का बड़ा ही महत्व है। कर्म के सिद्धांत को बनाए रखना या पुनः उनकी स्थापना करना। स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप – कल के प्रभाव से कुछ दोष या बदलाव आता रहता है। काल बलवान है तो पुनः सुव्यवस्था या परंपरा के सिद्धांतों की पुनः स्थापना के लिए आचार्य समय-समय पर प्रकट होते रहते हैं- जैसे मधवाचार्य कुछ 800 वर्ष पूर्व प्रकट हुए। आचार्य हो तो मधवाचार्य जैसे आचार्य हो। मधवाचार्य उडुपी के थे उडुपी आप जानते हैं कर्नाटक उडुपी नामक प्रसिद्ध और वहां पर उडुपी कृष्ण भी कहते हैं। और वहां के उडुपी कृष्ण भी प्रसिद्ध है। जिस कृष्ण की स्थापना करने वाले मधवाचार्य ही रहे। मधवाचार्य का जन्म तो उडुपी से कोई 8 किलोमीटर दूर हुआ था। उनके पिता का नाम श्री मध्यगेह था। यह प्रतिदिन उडुपी जाया करते थे। भगवान से प्रार्थना करने के लिए कि मुझे विशेष पुत्र रत्न प्राप्त हो। भगवान ने उनकी प्रार्थना सुनी। एक दिन एक भक्त मंदिर के प्रांगण के व्रज स्तम्भ पर चढ़े और वहां से घोषणा करी कि स्वयं वायु देवता किसी प्रदेश में या उडुपी प्रदेश में जन्म लेंगे, प्रकट होंगे। धर्म की पुनः या धर्म के सिद्धांत की पुनः स्थापना करेंगे। ऐसी घोषणा हुई सभी ने सुनी मध्य गेह ने भी सुनी तो उन्होंने मान लिया कि जिस पुत्र के सम्बन्ध में घोषणा हुई यह मेरा ही पुत्र होगा और वैसा ही हुआ। उनका नाम उन्होंने वसुदेव रखा। वसुदेव कृष्ण पांच साल के थे तो इनकी दीक्षा हुई हमें यहां आठ साल रुकना पड़ता है उपनयन होता है गायत्री मंत्र प्राप्त होता है। यह बालक पांच साल का था तो दीक्षित हुए और शिक्षा प्राप्त करने लगे। अच्युत प्रेक्ष नाम के एक महान विद्वान या संत उडुपी के उन से शिक्षा ग्रहण करने लगे और वे कोई ग्यारह साल के ही थे तो वे वैराग्य वान बने, न्यान से ही वैराग्य भी प्राप्त होता है। वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः। जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ॥ ( श्री मद भागवतम 1.2.7) अनुवाद - भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति करने से मनुष्य तुरन्त ही अहेतुक ज्ञान तथा संसार से वैराग्य प्राप्त कर लेता है। इस सिद्धांत के अनुसार अच्युत प्रेक्ष गुरु महाराज की कृपा से हृदय प्रांगण में या जीवन में भक्ति उदित हुई। भक्ति का फल ज्ञान और वैराग्य भी है। ग्यारह साल की अवस्था में वसुदेव ने सन्यास लिया। हम इकहत्तर साल के भी हो जाते हैं तो भी सन्यास का नाम नहीं लेते हैं। वे ग्यारह साल के थे तब सन्यासी बने। नाम हुआ पूर्णप्रज्ञ अच्युत प्रेक्ष ने नाम दिया अपने शिष्य को सन्यासी शिष्य को पूर्णप्रज्ञ न्य मतलब ज्ञान पूर्णज्ञान। हमें यह समझ आना चाहिए कि उन्हें कितना ज्ञान प्राप्त हुआ। वे केवल नाम के ही पूर्णप्रज्ञ नहीं थे। पूर्ण ज्ञानवान हुए और जब वे चालीस दिन के सन्यासी थे तो उन्होंने उडुपी में एक उस समय के प्रकांड विद्वान किंतु वे परंपरा से जुड़े नहीं थे, से शास्त्रार्थ करना चाहते थे। तीन दिनों तक बहुत बड़ी सभा एकत्रित हुई। उस जमाने के क्षेत्र के सभी विद्वान वहां उपस्थित थे और तीन दिनों तक यह विद्वान शास्त्रार्थ करना चाहते थे, अपने ज्ञान का प्रदर्शन कर रहे थे। तीन दिनों के उपरांत उन्होंने कहा - आप में से कोई है जो मेरी बातों का खंडन करें या विरोध करें। पूर्णप्रज्ञ ने कहा – हाँ मैं हूँ। तो ये मधवाचार्य पूर्णप्रज्ञ उनका नाम, सन्यास दीक्षा का नाम। उनकी विद्वता का क्या कहना, पूर्णप्रज्ञ तो नाम भी मिला और पूर्णप्रज्ञ तो वे थे ही। उसी के साथ वे श्रुति धर्म भी थे तो उस व्यक्ति ने, विद्वान ने जो तीन दिनों तक जो कहते ही रहे, कुछ बकते ही रहे मधवाचार्य को उनकी एक एक बात को दोहराते तीन दिन पहले जो बातें कही थी, दो दिन पहले कल जो बातें कहीं एज इट इज उन बातों को वे कहते मधवाचार्य और उस बातों का खंडन करते मुंडन करतेपरास्त करते। मधवाचार्य विजय घोषित किए गए। मधवाचार्य की ख्याति सर्वत्र फैल गई। ग्यारह साल का बालक इतना प्रकांड विद्वान और उन्होंने उस विद्वान को परास्त किया। उसके उपरांत अच्युतप्रेक्ष उनके गुरु महाराज ने उनका नाम आनंदतीर्थ रखा। पूर्णप्रज्ञ हुए आनंदतीर्थ। यह मधवाचार्य के अलग-अलग नाम है। बेसिकली मधवाचार्य के प्राकट्य का उद्देश्य अद्वैतवाद का खंडन करना था, शंकराचार्य का मत। वैसे यहां शंकराचार्य कुछ आठ पीढ़ी शताब्दी में हुए। रामानुजाचार्य से पहले एक हजार वर्ष पूर्व इस धरातल पर थे। शंकराचार्य ने कहा है- मायावादमसच्छास्त्रं प्रच्छन्नं बौधमुच्यते। (पद्म पुराण) अनुवाद – मायावाद आदि असत शास्त्र को प्रच्छन्न बौध कहते है। मायावाद एक असत शास्त्र है ऐसा प्रभुपाद ने कहा है। ऐसे श्री शंकर ने ही कहा है मायावाद असत शास्त्र है, शंकर पार्वती से कह रहे है कि कलयुग में प्रकट होकर मायावती नाम के सिद्धांत का प्रचार करूंगा। इस मायावाद, निर्गुणवाद, को परास्त करने के उद्देश्य से भी, भगवान ने चारों संप्रदाय के आचार्य प्रकट करवाएं हैं और उनसे यह कार्य करवाए हैं। रामानुजाचार्य, मधवाचार्य, निंबार्काचार्य, विष्णु स्वामी। इनके प्राकट्य का या प्रचार का एक उद्देश्य मायावाद का खंडन करना है, मायावाद के संबंध में श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा है- जीवेर निस्तार लागि" सुत्र कैल ब्यास। मायावादि-भाष्य शुनिले हय सर्वनाश ॥ ( चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 6.169) अनुवाद - श्रील व्यासदेव ने बद्धजीवों के उद्धार हेतु वेदान्त-दर्शन प्रस्तुत किया, किन्तु यदि कोई व्यक्ति शंकराचार्य का भाष्य सुनता है, तो उसका सर्वनाश हो जाता है। मधवाचार्य ने पूरे भारत का भ्रमण किया, जहां भी गए वहां पर अद्वैतवाद का खंडन किया। जैन और बौध तो नास्तिकवाद है, ये भगवान को मानते ही नहीं, शायद आपने सुना या समझा होगा की नहीं। ये नास्तिक है। जैन और बुद्ध भगवान नामक कोई सत्ता है नहीं मानते है। इनको भारत भर में परास्त करते हुए मधवाचार्य बद्रिकाश्रम तक पहुँच जाते है। बद्रिकाश्रम में श्रील व्यास देव के उनको दर्शन होते है। आप जानते हो बद्रिकाश्रम श्रील व्यास देव का धाम हैं, वहां गुफा है जहाँ वे निवास करते है। वहां उनको साक्षात् दर्शन हुए, व्यास देव के साथ मुलाकात हुई, वार्तालाप हुआ। उनको केवल दर्शन ही नहीं हुए उनका श्रील व्यासदेव के साथ सम्भाषण भी हुआ। मधवाचार्य के परंपरा का नाम क्या है? ब्रह्म, व्यास, मध्व और फिर गौडीय, हम लोग गौडीय वैष्णव संप्रदाय के । मधवाचर्या को श्रील व्यास देव ने दर्शन दिए। श्रील व्यास देव जो भगवान के अवतार, सभी शास्त्रों के रचीयता और मधवाचार्य की भगवत गीता का जो भाष्य है उसको श्रील व्यास देव ने मान्यता दी, उसको स्वीकार किया। मधवाचार्य कि भगवत गीता की कॉमेंट्री प्रसिद्ध है जिसे व्यास दैव ने मान्यता दी है। मधवाचार्य बड़े बलवान थे वे वायु के अवतार हैं। इस सृष्टि में बलवानों में वायु बलवान है और मधवाचार्य बड़े बलवान थे। वे ज्ञान वान भी थे और बलवान भी थे। वे शारीरिक दृष्टि से बलवान थे। एक समय एक बाघ ने मधवाचार्य के सन्यासी शिष्य पर हमला किया। मधवाचार्य वहीं पर थे वे आगे बढ़े और बाघ और शिष्य के बीच में भी आए। वे बाघ के साथ में लड़े और बाघ वहां से पलायन कर गया। जब कुत्ते आपस में लड़ते हैं तो परास्त कुत्ता अपनी पूंछ को पीछे के पैर में दबाते हुए भाग जाता हैं ठीक उसी की तरह बाघ भी वहां से चला गया। एक समय की बात है इसमे उनके शक्ति सामर्थ्य का प्रदर्शन हैं एक बोट अरब सागर में द्वारका से उडुपी की ओर आ रही थी। मधवाचार्य समुद्र के तट पर थे लेकिन उस समय अचानक आंधी तूफान शुरू हुआ और यह नौका डगमग हो रही थी। आप लोग कल्पना कर सकते हो और डूबने की स्थिति में थी तो जो सामान ढोकर ला रहे थे वे बचाओ बचाओ पुकारने लगे तो मधवाचार्य ने मदद करी मधवाचार्य जो वायु देवता प्रकट हुए आचार्य के रूप में आंधी तूफान जो चल रही थी उसको उन्होंने शांत किया। इससे सभी को आश्वस्त और प्रसन्नता भी हुई। उन्होंने मधवाचार्य को जहाज में रखे आइटम में से एक भेंट दी। उन्होंने कहा धन्यवाद और उस भेंट को सिर पर ढोकर ले आए और खोलकर देखते हैं तो उसमें कृष्ण के विग्रह है। उसी कृष्ण की उन्होंने उडुपी में स्थापना करी और वे श्री कृष्ण, उडुपी कृष्ण के नाम से प्रसिद्ध हुए। मधवाचार्य ने इस विग्रह कि खूब अर्चना, आराधना करी विधि विधान के साथ लगन के साथ उडुपी कृष्ण की आराधना करते। इस बात से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी प्रसन्न थे। आप जानते हो कि चैतन्य महाप्रभु के अनुसार चार संप्रदाय है हर संप्रदाय से दो – दो जो अच्छे गुण हैं उनको स्वीकार किया है तो चैतन्य महाप्रभु ने मधवाचार्य संप्रदाय से एक तो अर्चना- विग्रह की आराधना को आदर्श रहा उसको स्वीकार किया और दूसरा है मायावाद का खंडन। मधवाचार्य का जैसे हम चित्र देखते हैं या दर्शन करते हैं उनकी दो उंगलियां या तो विक्ट्री भी कहिए उसको मायावाद को डिफीट किया तो विक्ट्री का ही प्रदर्शन है या वह कह रहे हैं कि एक नहीं दो – दो जीवात्मा है। भगवान है और दोनों सास्वत है इस बात के साथ उन्होंने द्वैतवात सिद्धांत की स्थापना करी। यदि वे ऐसा कार्य नहीं करते तो हमारा पूरा भारत वर्ष मायावाद से ग्रस्त अभी कुछ है बचा हुआ है लेकिन मधवाचार्य के समय रामानुजाचार्य के समय हाल बहुत बुरा था। इन चारों आचार्यों ने मधवाचार्य द लीडर मायावाद के खंडन की बात है मायावाद को परास्त करने की बात है तो इन चारों आचार्य ने संप्रदाय के चारों आचार्य ने मधवाचार्य इज द बेस्ट। मधवाचार्य लीडिंग आचार्य जब मायावाद के खंडन की बातें आती है इसीलिए चैतन्य महाप्रभु ने मायावाद की खंडन की बातों को अपने संप्रदाय में मतलब गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय में स्वीकार किया और हम भी ऐसा ही करते हैं। परंपरा में मायावाद भाष्य से दूर रहते हैं । तुकाराम महाराज अपने अभंग में कहते हैं - ‘अद्वैत अति वाणी, न को माझा काणी’ अनुवाद - अद्वेत की जो वाणी हैं, वचन है वह मैं अपने कान से नहीं सुनना चाहता हूं। श्रील प्रभुपाद भी अपने तात्पर्य में अपने प्रवचन में कहते ही रहते हैं। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर वे सिंह गुरु कहलाते थे, किसलिए ? वे भी मायावाद को परास्त करते रहे । अपने यात्रा और प्रचार में वे मायावाद को टारगेट करते थे इसीलिए वे सिंह गुरु कहलाए। ऐसे मधवाचार्य और भी ऐसी कई बातें हैं। आज पूरा संसार मधवाचार्य संप्रदाय और गौडीय संप्रदाय संसार भर में मधवाचार्य के तिरोभाव तिथि उत्सव मना रहे हैं। हम प्रार्थना करते हैं कि उन सभी को शक्ति, बुद्धि दे। उनके दिए हुए सिद्धांत को हम भी कुछ समझ सके और यथासंभव उनका प्रचार प्रसार करते रहे ऐसा प्रमेय रत्नावली नामक ग्रन्थ बलदेव विद्याभूषण लिखते है कि गौडीय वैष्णव संप्रदाय और मधवाचार्य संप्रदाय दोनों अलग अलग सिद्धांत हैं दोनों भिन्न भी हैं। हम गौडीय हैं । दो सिद्धांत दोनों में एक हैं। मध्वाचार्य संप्रदाय के आचार्य लक्ष्मीपति तीर्थ, माधवाचार्य व रामानुजाचार्य में डेढ़ सौ दो सौ वर्षों का अंतर हैं। माधवाचार्य के बाद सात आठ आचार्य रहे होंगे। लक्ष्मी तीर्थ के शिष्य बने माधवेन्द्र पूरी, माधवेन्द्र पूरी के साथ माधवाचार्य संप्रदाय की एक और शाखा बनी और उस शाखा का नाम हुआ ब्रह्म मध्व गौडीय संप्रदाय। माधवेंद्र पुरी के शिष्य हुए ईश्वर पुरी और ईश्वर पुरी के शिष्य हुए भगवान श्री कृष्णा चैतन्य महाप्रभु बने और फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने ब्रह्मा मध्व गौड़ीय संप्रदाय में प्रकट होकर गौडीय संप्रदाय का प्रचार किया। हमारे यह सिद्धांत हैं जो विशेष हैं और चारों संप्रदायों आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता । श्रीमद भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान् श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतामिदं तत्रादशे नः परः ।। (चैतन्य मंज्जुषा) अनुवाद : भगवान व्रजेन्द्रन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभव युक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है । व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी , वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है । श्रीमद् भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्दप्रमाण है एवं प्रेम ही परम पुरुषार्थ है - यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धान्त हम लोगों के लिए परम आदरणीय है। इस मंत्र में श्लोक में चैतन्य महाप्रभु का मत है, गौडीय वैष्णव का सिद्धांत है। इन सिद्धांतों के कारण हम बन गए ब्रह्म मध्व गौडीय वैष्णव। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु कि परंपरा में आने वाले वैष्णव। उनके चरणों में प्रार्थना हैं कि हम भी विचार करें जो बातें उन्होंने संसार को सिखाई, समझाई । चेतन महाप्रभु ने दो बातों को स्वीकार किया मायावाद का खंडन, विग्रह आराधना। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल

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