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*जप चर्चा* *09 -02 -2022* (भीष्म अष्ठमी के उपलक्ष्य में ) (श्रीमान धमर्राज प्रभु द्वारा) *ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरुवे नम : ।।* *श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले । स्वयं रूप: कदा मह्यंददाति स्वपदान्न्तिकम् ।।* *नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने ।* *नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ॥* *श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु नित्यानन्द।श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द।।* *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* हरे कृष्ण ! सर्वप्रथम मैं अपने आदरणीय गुरु महाराज के श्री चरणों में दंडवत प्रणाम अर्पण करता हूं और साथ ही साथ जो वैष्णव भक्त वृन्द हैं उनके चरणों में भी मैं अपना प्रणाम अर्पित करता हूं। आज भी कल की तरह ही जो की भीष्म अष्टमी थी तो आज भी हम यह 2 दिन का सत्र जारी रखेंगे। कल जैसे कि भीष्म देव क्या थे ?अपने पूर्व जन्म में वसु थे और किस प्रकार उन्होंने वशिष्ठ मुनि की नंदिनी गाय की चोरी की, बाद में श्राप के रूप में या सजा के रूप में उनको इस भूमि पर जन्म लेना पड़ा और फिर बाद में किस प्रकार का जीवन रहा यह हमने देखा। आज मुझे कहा गया है कि भीष्म देव किस प्रकार अपने जीवन के द्वारा क्या शिक्षा एक साधक के रूप में हमको देते हैं। जैसे हम लोग एक भक्त हैं इस्कॉन के भक्त हैं तो हम लोगों को क्या शिक्षा उनसे प्राप्त होती है हमें आज उसकी चर्चा करनी है। यह महत्वपूर्ण है कि जैसे ही हम भीष्म देव का नाम सुनते हैं तो उनकी भीषण प्रतिज्ञा हम को ध्यान में आती है या जिन्होंने एक निश्चय के साथ अपनी प्रतिज्ञा को निभाया बहुत ही सरल भक्तिमय जीवन में क्योंकि श्रील रूप गोस्वामी उपदेशामृत में बताते हैं। *उत्साहात्निश्वयाद्धैर्यात् तत्त्कर्मप्रवर्तनात् । सङ्गत्यागात्सतो बृत्तेः वह्मिर्भक्ति:प्रसिध्यति ॥* (उपदेशामृत - 3) अनुवाद- भक्ति को सम्पन्न करने में छह सिद्धांत अनुकूल होते हैं : (१) उत्साही बने रहना (२) निश्चय के साथ प्रयास करना (३) धैर्यवान होना (४) नियामक सिद्धांतों के अनुसार कर्म करना ( यथा श्रवणं, कीर्तनं, विष्णो: स्मरणम्--कृष्ण का श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण करना) (५) अभक्तों की संगत छोड़ देना तथा ( ६ ) पूर्ववर्ती आचार्यों के चरणचिह्नों पर चलना। ये छहों सिद्धान्त निस्सन्देह शुद्ध भक्ति की पूर्ण सफलता के प्रति आश्वस्त करते हैं। वह बताते हैं की भक्ति में उत्साह निश्चय और दृढ़ता बहुत जरूरी है और पूरे जीवन का यदि हम उनका चरित्र पढ़ते हैं सुनते हैं यह समझते हैं तब निश्चित रूप से यह स्वीकार करना ही चाहिए भीष्म देव अपने पूरे जीवन के प्रवास में अपने सफर में बहुत ही फाइन कार्य करते हैं क्योंकि भीष्म देव भगवान विष्णु के भक्त जो कि एक महाजन भी हैं उनमें यह उत्साह हर समय पाया जाता है और जो निश्चय था उन्होंने जो प्रतिज्ञा की थी की आजीवन ब्रह्मचारी रहूंगा। उस प्रतिज्ञा को निभाने के लिए उनका जो दृढ़ निश्चय था तो बहुत ही उसकी सराहना की जाती है और एक विशेष गुण पाया जाता है त्याग की भावना, वैसे देखा जाए शांतनु महाराज के सबसे बड़े पुत्र होने के नाते वे राजा बनने वाले थे। कितना सुनहरा अवसर था गोल्डन अपॉर्चुनिटी, उनके लिए किंतु फिर भी उन्होंने अपने पिता को प्रसन्न करने के लिए क्या किया? उन्होंने इस का त्याग कर दिया कि मुझे भविष्य में राजा नहीं बनना है उस विचार को भी उन्होंने त्याग दिया और उन्होंने पूर्ण रूप से इसे स्वीकार किया कि मुझे क्या करना है बस यहां पर जो मैंने स्वीकार किया है ब्रह्मचारी व्रत का, उसका मुझे आजीवन पालन करना है। इसी प्रकार से जो त्याग है। मंदिर में भक्त हैं वह देखते हैं कभी-कभी जैसे कोई पद मिल जाता है ऐसी स्थिति में आज हमारे पास पद हो या ना हो हमें क्या करना चाहिए यदि हमारे पास में पद हो तो हमें उसका त्याग भी करना पड़ता है या पद हमारे पास होता भी नहीं है ऐसे हर स्थिति परिस्थिति में हमें भगवान की भक्ति में लगे रहना चाहिए। आज हमें यह मिलेगा कल हमें वह मिलेगा या कुछ मिलेगा भी नहीं जैसे एक कहावत भी है "कभी गाली कभी थाली दोनों प्रेम से खाली" कोई भी स्थिति हो हमें हर समय भक्ति में लगे रहना है। भीष्म देव के इस उदाहरण से हमें हर समय यह स्मरण रखना चाहिए, भीष्म देव किसी भी परिस्थिति में हों हर समय संतुष्ट रहते थे। दूसरा उदाहरण है जैसे जब वो बाण शैया पर थे और वे बहुत अधिक किसी सुखासन में नहीं थे चलो आराम से लेटे हैं, वे बहुत ही कठिन परिस्थिति में थे और ऐसी कठिन परिस्थिति में मिलने के लिए जब उनसे ऋषि मुनि आने लगे, क्योंकि उनको पता लगा कि भीष्म देव अभी अपना प्राण त्यागने वाले हैं इसलिए उनसे मिलने के लिए और उनका दर्शन करने के लिए लोग अलग-अलग स्थानों से आ रहे थे ऐसी विशेष स्थिति में भी उन्होंने भागवत में एक श्लोक आता है *तान् समेतान् महाभागानुपलभ्य वसूत्तमः । पूजयामास धर्मज्ञो देशकालविभागवित् ॥* ॥ (श्रीमदभागवतम १. ९. ९ ) अनुवाद- आठ वसुओं में सर्वश्रेष्ठ भीष्मदेव ने वहाँ पर एकत्र हुए समस्त महान् तथा शक्तिसम्पन्न ऋषियों का स्वागत किया , क्योंकि भीष्मदेव को देश तथा काल के अनुसार समस्त धार्मिक नियमों की भलीभाँति जानकारी थी । यह बताते हैं कि अलग-अलग स्थिति में भी अर्थात उस स्थिति में भी भीष्म देव ने उनका स्वागत किया जबकि वह हाथ भी नहीं जोड़ सकते थे किसी को प्रणाम भी नहीं कर पाते थे ऐसी स्थिति होने के बाद भी उन्होंने भली-भांति सबका स्वागत किया। कैसे स्वागत किया? श्रील प्रभुपाद बताते हैं कि उनके स्वागत करने का तरीका क्या था "मृदु वचन" प्रभुपाद बताते हैं कि जब हमारे यहां कोई अतिथि आते हैं उनका स्वागत करने के लिए हमें क्या करना चाहिए ? उनको प्रणाम करना चाहिए और मृदु वाणी से बोलना चाहिए और फिर बाद में उनको आसन देना चाहिए, जल देना चाहिए, उसको कुछ खिलाना चाहिए यहां तक कि श्रील प्रभुपाद बताते हैं कि हमारी वैदिक संस्कृति में यह भी बताया गया है यदि हमारे घर में शत्रु भी आ जाए ,उसका भी हमें इस प्रकार से स्वागत करना चाहिए कि शत्रु भी शत्रुता भूल जाए। यहां पर भी सुनते वह सारी चीजों को करने में समर्थ नहीं थे फिर भी उन्होंने क्या किया, धर्मज्ञो देशकालविभागवित् उन्हें पता था कि यदि इस वक्त स्वागत करना है तो मधुर वचन के द्वारा उन्होंने सभी का स्वागत किया। यहां तक कि जब भगवान श्रीकृष्ण भी आए , उन्होंने वहां पर उनको दंडवत प्रणाम नहीं किया अपितु बहुत ही सुंदर मुस्कान उनके मुख पर थी और वहां पर लिखा है कि उन्होंने विधिवत पूजा की, अब देखिए विधिवत यहां पर उस वक्त यह नहीं कि उनकी आरती करनी चाहिए यह पूजा करनी चाहिए, यहां पर विधिवत कहा गया है कि उन्होंने हृदय से जिसमें अत्यधिक तीव्र भाव था उनका स्वागत करने का, इसीलिए उन्होंने क्या किया ? उन्होंने सभी चीजें अपने ह्रदय से ही अर्पित की भगवान के चरणों में और ऋषि-मुनियों के साथ में भी, उन्होंने ऐसा ही किया सबका स्वागत किया इसीलिए हम देख सकते हैं कि उनमें विशेष गुण हैं "मानद" जैसे कि 26 गुण हैं तो उनमें से एक है मानद अर्थात सब को सम्मान देना, इसी प्रकार जब हम देखते हैं कि हम मंदिर में रह रहे हैं और अलग-अलग प्रकार से भक्त आ रहे हैं उनका भी हमें समुचित तरह से स्वागत करना चाहिए और जो घर में रहने वाले भक्त हैं उनको भी चाहिए कि जैसे कि कोई अतिथि आता है तो अतिथि देवो भव: कहा है। पहले कोई मैसेज नहीं दे सकते थे और ऐसे ही आ जाते थे। अब मैसेज दे कर आते हैं तो हम कह देते हैं कि अभी तो हम यहां पर नहीं हैं जबकि होते वही हैं लेकिन फिर भी कहते हैं कि आज हम आउट ऑफ स्टेशन है। लेकिन आपने जैसा कि सुना भी होगा शुकदेव गोस्वामी परीक्षित महाराज को भागवतम के पांचवे स्कंध के अंत में नरकों का वर्णन करते हैं। उसमें एक ऐसा भी नर्क है यदि कोई अतिथि घर पर आता है तो उसको अच्छी तरह से मतलब स्वागत में हंसी भी नहीं, बल्कि कुटिल दृष्टि डालते हैं। तो उन्हें ऐसे नर्क में जाना पड़ता है जहां पर अलग-अलग प्रकार के पक्षी होते हैं और वह क्या करते हैं उनकी आंखों को निकाल लेते हैं क्यों ?क्योंकि वह कहते हैं कि तुम्हारी यह वही आंखें हैं जिन्होंने अतिथियों पर वक्र दृष्टि या कुटिल दृष्टि डाली थी। इस प्रकार से हम समझ सकते हैं कि भीष्म देव यह कह सकते थे कि मैं किस प्रकार अभी स्वागत कर सकता हूं इस अवस्था में, मैं तो पडा हुआ हूं मैं अभी वयोवृद्ध हूं और मृत्यु शैया पर हूं और वह भी साधारण नहीं है बाणो की शैया है किंतु फिर भी उन्होंने क्या किया, उन सभी का विशेष रूप से स्वागत किया और उनसे कुछ अपेक्षा नहीं की, हमें भी वैष्णव के प्रति, गुरुजनों के प्रति अथवा जो अन्य नए लोग हैं उनके प्रति हर समय सम्मान की भावना रखना बहुत आवश्यक है। हमें एक और भी शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए भीष्म देव जब स्वयं ही इतनी कष्ट स्थिति में हैं तभी उन्होंने युधिष्ठिर महाराज से क्या कहा, कि आप बहुत कष्ट पूर्ण स्थिति में हो और बहुत दुख झेल रहे हो आप सभी लोगों ने बहुत ही दुख का अनुभव अपने संपूर्ण जीवन में किया, कुंती महारानी ने भी अपने संपूर्ण जीवन में दुख का अनुभव किया, आप पांडवों को हर समय कष्ट मिला। लेकिन हमें क्या करना चाहिए हमें हर समय सहन करना चाहिए और साथ ही साथ सांत्वना भी दे रहे हैं कह रहे हैं कि भगवान की अचिन्त्य योजना के कारण यह सब कुछ हुआ है इसीलिए किसी पर उंगली नहीं उठा रहे हैं किसी को जिम्मेदार नहीं ठहरा रहे हैं स्वयं को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। जैसे श्रील प्रभुपाद अपने शिष्यों को बताते हैं कि किस प्रकार से सब्जी कटिंग करना है वह सिखा रहे थे कि किचन में, नए-नए दिनों में एक शिष्य की उंगली कट गई , उसने पूछा श्रील प्रभुपाद यह कैसे हो गया मेरी उंगली कट गई क्यों ? जब की आपने जैसे बताया था मैं तो वैसा ही कर रहा हूं मैं तो नाम जप कर रहा हूं तो फिर ऐसे कैसे हुआ ? प्रभुपाद ने कहा कि आप नाम जप कर रहे हो इसीलिए केवल उंगली ही कटी है वास्तव में तो आज आप का गला कटने वाला था। इस प्रकार से श्रील प्रभुपाद हमें बताते हैं कि हमें किस प्रकार सहिष्णु होना चाहिए, किस प्रकार वह हमें बताते हैं कि हर चीज के पीछे भगवान की योजना है,भगवान की अचिंत्य योजना है, हमें यह स्वीकार करना चाहिए। इस प्रकार भीष्म देव ने हमें यह शिक्षा प्रदान की हमारे जीवन में कुछ ना कुछ उतार-चढ़ाव होते ही रहते हैं फिर भी हमें डटे रहना चाहिए चलो यह तो भगवान की योजना ही है भगवान जो चाहते हैं वही होता है उसके बाद भीष्म देव युधिष्ठिर महाराज को यह बताते हैं जो तुम्हारे साथ में खड़े हुए हैं कृष्ण, यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं है जिनको अपना सगा संबंधी या अलग-अलग रिश्ते से देख रहे हो, यह स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं। अर्थात उनको भ्रम में नहीं डाला बल्कि स्पष्ट रूप से उन्होंने बताया यह तत्व वेता हैं। इसलिए हमें भी घुमा फिरा कर नहीं बताना चाहिए कि यह हो सकता है वह हो सकता है श्री कृष्ण दास कविराज गोस्वामी चैतन्य चरित्रामृत में बताते हैं। *सिद्धान्त बलिया चित्ते ना कर अलस।इहा हुइते कृष्णे लागे सुदृढ़ मानस ।।* ( चैतन्य चरितामृत 2 .117) अनुवाद-निष्ठापूर्ण जिज्ञासु को चाहिए कि ऐसे सिद्धान्तों की व्याख्या को विवादास्पद मानकर उनकी उपेक्षा न करे, क्योंकि ऐसी व्याख्याओं से मन दृढ़ होता है। इस तरह मनुष्य का मन श्रीकृष्ण के प्रति अनुरक्त होता है। हमें कृष्ण के सिद्धांत के तत्व को समझने के लिए अलग नहीं करना चाहिए हमें क्या करना चाहिए हर स्थिति में तत्व को समझने के लिए लालायित रहना चाहिए जिससे कि हमारा मन कृष्ण में शुद्ध रूप से स्थापित हो जाएगा। इसीलिए श्रील प्रभुपाद भी जब भी अवसर मिलता था तुरंत ही शास्त्रों से प्रमाण देते थे श्लोक का उच्चारण करते थे। विदेशों में भी सब लोग आश्चर्यचकित होते थे। एक बार श्रील प्रभुपाद जा रहे थे एयरपोर्ट में थे तो वहां पर एक कैप्टन मिला उसने पूछा कि भगवान कौन हैं? फिर प्रभुपाद ने तुरंत ही बताया *ईश्वरः परमः कृष्णः सच्चिदानन्दविग्रहः । अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम् ॥* (ब्रम्हसंहिता ५. १) अनुवाद - सच्चिदानन्दविग्रह श्रीगोविन्द कृष्ण ही परमेश्वर हैं वे अनादि, सबके आदि और समस्त कारणोंके कारण हैं तुरंत ही उन्होंने श्लोक बताया और फिर अनुवाद बताया, फिर प्रभुपाद ने कहा कि हमारी संस्था का नाम क्या होगा "इंटरनेशनल सोसायटी फॉर कृष्ण कॉन्शसनेस" किसी ने कहा श्रील प्रभुपाद हम कृष्ण का नाम लेने की जगह है गॉड कॉन्शसनेस कहेंगे तो ज्यादा अच्छा रहेगा सभी को अच्छा लगेगा। श्रील प्रभुपाद ने कहा, नहीं ! नहीं! गॉड तो कृष्ण हैं। कृष्ण ही सुप्रीम पर्सनैलिटी ऑफ गॉड हेड हैं। जब गॉड कृष्ण ही हैं तो हम कृष्ण का नाम ही क्यों ना लें। घुमा फिरा कर बताने की जरूरत ही क्या है कृष्ण है और वही बताना है। इस प्रकार से हम सीख सकते हैं यदि हमें कहीं ज्ञान देना है या बताना है कृष्ण ही भगवान हैं। *एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् । इन्द्रारिव्याकुलं लोकं मृडयन्ति युगे युगे ॥* (श्रीमद भागवतम १. ३ २८) अनुवाद- उपर्युक्त सारे अवतार या तो भगवान् के पूर्ण अंश या पूर्णांश के अंश ( कलाएं ) हैं, लेकिन श्रीकृष्ण तो आदि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् हैं । वे सब विभिन्न लोकों में नास्तिकों द्वारा उपद्रव किये जाने पर प्रकट होते हैं । भगवान् आस्तिकों की रक्षा करने के लिए अवतरित होते हैं । यहां तक की शुकदेव गोस्वामी ने भी स्पष्ट रूप से कहा है कि कृष्ण ही भगवान हैं और भीष्मदेव इतने दयालु हैं कि कह रहे हैं इतने कष्ट में आपने रखा है तो कैसे आप दयालु हो सकते हैं ? लेकिन नहीं उन्होंने कहा बहुत दयालु हैं और मुझ पर कृपा करने के लिए यहां भी पहुंच गए और देखिए देखते हैं विदुर के संवाद में उद्धव कहते हैं विदुर जी से कृष्ण इतने दयालु हैं *अहो बकी यं स्तनकालकूटं जिघांसयापाययदप्यसाध्वी । लेभे गतिं धात्र्युचितां ततोऽन्यं कं वा दयालुं शरणं व्रजेम ॥* (श्रीमद भागवतम ३. २. २३) अनुवाद- ओह , भला मैं उनसे अधिक दयालु किसी और की शरण कैसे ग्रहण करूँगा जिन्होंने उस असुरिनी ( पूतना ) को माता का पद प्रदान किया , यद्यपि वह कृतघ्न थी और उसने अपने स्तन से पिलाए जाने के लिए घातक विष तैयार किया था ? और कौन दयालु हो सकता है कृष्ण के अलावा, क्यों? क्या खासियत है उनमें? तो बताते हैं कि जो पूतना अपने स्तन में कालकूट का जहर लगा कर आई है कृष्ण को मारने के उद्देश्य से, कृष्ण ने यह नहीं देखा कि यह जहर लगा कर आई है उन्होंने यह देखा कि अरे यह तो मुझे स्तनपान करा रही है। यह तो मेरी मां है धात्री है। धात्री का स्थान दिया और इस प्रकार कहा कि इससे दयालु और कौन है जिसकी मैं शरण ग्रहण करू, हर तरह से उनकी शरण ग्रहण करनी चाहिए हमें और उनकी शरण में रहना चाहिए। जैसे ब्रह्मा जी स्तुति करते हुए कहते हैं भगवान की *तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् । हृद्वाग्वपुभिर्विदधन्नमस्ते जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥* (श्रीमदभागवतम १०. १४. ८) अनुवाद- हे प्रभु जो व्यक्ति अपने विगत दुष्कर्मों के फलों को धैर्यपूर्वक सहते हुए तथा अपने मन, वाणी तथा शरीर से आपको नमस्कार करते हुए सत्यनिष्ठा से आपकी अहैतुकी कृपा प्रदत्त किये जाने की प्रतीक्षा करता है , वह अवश्य ही मोक्ष का भागी होता है क्योंकि यह उसका अधिकार बन जाता है । ब्रह्मा जी कहते हैं कि कृष्ण आपके जो शुद्ध भक्त हैं वह क्या करते हैं हर समय तत्तेऽनुकम्पां कितना भी दुख क्यों ना आए कितना भी संघर्ष क्यों ना हो क्या सोचते हैं कि आपकी कृपा है, वह क्या करते हैं बड़े धैर्य के साथ में सहन करते हैं और कहते हैं कि यह सब कुछ जो भी हो रहा है वह सब कुछ मेरे ही कर्मों के कारण मुझे कष्ट हो रहा है और इतना ही कह कर नहीं छोड़ते बल्कि कहते हैं अपने हृदय से वाणी से और शरीर से, भगवान की स्तुति उनकी सेवा जारी रखना छोड़ते नहीं हैं। ऐसी स्थिति में क्या है जीवेर मुक्ति, ऐसी स्थिति में जो ऐसा सोचता है वह बताते हैं कि ऐसा व्यक्ति आपके धाम में जाने का अधिकारी बन जाता है। जिस प्रकार पिता की संपत्ति पुत्र को मिल ही जाती है इसी प्रकार आप के धाम में जाने का क्या होता है दाये भाक उसका अधिकार बन जाता है क्योंकि वह पुत्र है आपका और पुत्र अपने पिता की संपत्ति को प्राप्त करने का अधिकारी होता है। किंतु कौन सा पुत्र ?जो पुत्र अपने पिता की आज्ञा का पालन करता है पिता जो कहते हैं उसको सुनता है। इसी प्रकार आपका जो शुद्ध भक्त है वह भी हर प्रकार से कष्ट को सहते हुए आपकी ही भक्ति करता है आप की शरण में रहता है। यह हमें भीष्म देव के उदाहरण के द्वारा देखने को मिलता है। हमारे जीवन में भी ऐसे प्रसंग आए होंगे आ रहे होंगे या आएंगे भी, भविष्य में भूत वर्तमान भविष्य कब कौन सा फल उदित हो जाए, पता नहीं होता। ऐसी हर स्थिति में हम को भगवान की शरण में रहना चाहिए उनका नामों का उच्चारण करते हुए और युधिष्ठिर महाराज ने उनसे पूछा भीष्म देव, जो विभिन्न धार्मिक कृत्य हैं उनके जो अनिवार्य सिद्धांतों के बारे में पूछ रहे थे उनको बताते हैं सभी मनुष्यों की जो अलग-अलग प्रकार की योग्यताएं हैं सही में विशेष रुप से क्या योग्यता होनी चाहिए ? उसका भी वर्णन करते हैं और जिन योग्यताओं का वर्णन करते हैं वह सभी योग्यताएं भीष्म देव् में स्वयं भी हैं इसीलिए वह बताते हैं कि क्या योग्यता होनी चाहिए। उसमें से एक है सत्य बोलना चाहिए। भगवान ही सत्य हैं यह मानना चाहिए सत्य वचन ही बोलना चाहिए। कभी-कभी सत्य को अलग-अलग रूपों में लिया जाता है किंतु यहां पर जो बताया गया है विशेषकर परम भगवान के विषय में है कि उनके विषय में वास्तविक रुप से सत्य बताना चाहिए लोगों को और दूसरा उन्होंने कहा क्षमा करना, वैष्णव का बहुत विशेष गुण माना जाता है और श्रील प्रभुपाद भी बताते हैं कि क्षमा करना ब्राह्मणों या वैष्णव का गुण है क्योंकि क्षमा वही कर सकता है जो कि सहनशील है यदि सहनशील है तभी वह सहन करता है वह अपने मन में कुछ नहीं रख सकता इसीलिए क्षमा कर देता है। एक बार मुझे स्मरण हो रहा है बहुत वर्षों पहले की बात है अब गुरु महाराज और हमारी मीटिंग हो रही थी अलग-अलग भक्त बैठे हुए थे और एक भक्त उनमें से ऐसा था जो कि किसी कारण से छोड़कर चला गया था इस्कॉन छोड़ कर गया था ऐसा ही शायद कुछ था तो हम सभी कह रहे थे कि क्या करना चाहिए। इतना अनुकूल भाव से चर्चा नहीं हो रही थी हम सब की, तब गुरु महाराज जो कि हम सब की बातें सुन रहे थे उन्होंने कहा कोई बात नहीं यदि उसने छोड़ दिया है जो भी है चाहे वह मुझे छोड़ दे किंतु मैं उसे हर समय अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लूंगा ऐसा गुरु महाराज बात करते हैं। हम यह सोच भी नहीं सकते हैं कि किस प्रकार गुरु महाराज ने उसे सहन किया और क्षमा किया, भले क्यों ना उसने दुर्व्यवहार किया शिष्य के रूप में, उन्होंने उसे हर समय स्वीकार किया अतः क्षमा करना यह बहुत ही आवश्यक है। क्षमा करने से जैसा कि कहा गया है कि यह कनिष्ठ अधिकारी है मध्यम अधिकारी है या उत्तम अधिकारी है उसमें जो कनिष्ठ स्तर के भक्त हैं वह मध्यम स्तर तक तभी पहुंच सकते हैं जब उनमें एक क्षमा नाम का गुण आ जाता है। क्यों क्षमा गुण इतना महत्वपूर्ण है क्योंकि जब हम क्षमा करते हैं तब हम अपने मन में कुछ भी नहीं रखते उसके बारे में,अलग से अर्थात कोई भी गलत धारणा रखता है तो वह सदैव कनिष्ठ स्तर पर ही रहता है क्योंकि गलत धारणा मन में भी है तो वह उसके मुख से भी निकलेगी उसके व्यवहार से भी आएगी इस प्रकार से चर्चा होगी, तो क्या होगा वह कुछ कंप्लेन करेंगे यह सब कनिष्ठ भक्तों का लक्षण है। किंतु जो मध्यम अधिकारी होता है वह क्या करता है उस भक्तों को क्षमा कर देता है। उससे क्या होता है कि उसके मन में किसी भी प्रकार की दुर्भावना या बदले की भावना से नहीं जुड़ा होता है यह सब कुछ नहीं होता फिर धीरे-धीरे भगवान से प्रेम करता है जो नए लोग हैं उन पर कृपा करता है और जो भक्त हैं उन पर कृपा करता है ऐसे स्तर पर पहुंचता है। हमें एक लिस्ट बनानी चाहिए हमें देखना चाहिए कि भीष्म देव उनमें इतने सारे जो गुण हैं उनके जीवन में कितने सारे उतार-चढ़ाव भी आए, शुरुआत में उन्होंने पिता की संतुष्टि के लिए प्रतिज्ञा ली कि मुझे विवाह नहीं करना है तो उसका पालन करने में भी बहुत सारे व्यवधान आ गए। कल हमारी पूरी चर्चा हुई थी जबकि साथ ही साथ में एक राजा बनने के योग्य थे किंतु फिर भी जो दूसरे राजा बने उनकी बात उनको सुननी पड़ती थी धृतराष्ट्र की, फिर बाद में भरी सभा में द्रोपदी का जब वस्त्र हरण हो रहा था तब भी वे कुछ नहीं कर पाए, अलग-अलग बहुत सारे प्रसंगों में भी उनको विभिन्न परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, सबको क्षमा किया और इसीलिए जब उनको इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त हुआ तो उस समय जो जो लोग वहां पर आए थे उन सभी का स्वागत किया और उनके मन में यह भावना थी कि यह जो अलग-अलग तत्व बता रहे हैं। भीष्म ने क्या किया, उन सबको अपने अंदर ही धारण किया, वह केवल ऐसे बोल ही नहीं रहे जैसे तोता बोलता है अपितु अंदर से सभी चीजों को उन्होंने प्राप्त किया है जिससे उन उपलब्धियों या गुणों की नारद मुनि भी कहते हैं कि भक्त होता है *यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः । हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा मनोरथेनासति धावतो बहिः ॥* (श्रीमदभागवतम ५. १८. १२) अनुवाद- जो व्यक्ति पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् वासुदेव के प्रति शुद्ध भक्ति उत्पन्न कर लेता है उसके शरीर में सभी देवता तथा उनके महान् गुण यथा धर्म , ज्ञान तथा त्याग प्रकट होते हैं । इसके विपरीत जो व्यक्ति भक्ति से रहित है और भौतिक कर्मों में व्यस्त रहता है उसमें कोई सद्गुण नहीं आते। भले ही कोई व्यक्ति योगाभ्यास में दक्ष क्यों न हो और अपने परिवार और सम्बन्धियों का भलीभाँति भरण - पोषण करता हो वह अपनी मनोकल्पना द्वारा भगवान् की बहिरंगा - शक्ति की सेवा में तत्पर होता है । भला ऐसे पुरुष में सद्गुण कैसे आ सकते हैं। भगवान के शुद्ध भक्त या अनन्य भक्त हैं वह भगवान की भक्ति करते हैं सभी दैवीय गुण हैं उसके अंदर प्रकट हो जाते हैं अलग से विशेष प्रयास नहीं करना होता। गुरु महाराज एक बार बेलगांव के प्रवचन में बता रहे थे कि आत्मा में सारे गुण हैं जैसे नम्रता यह पहले से ही है किंतु यह सभी गुण छुपे हुए हैं किंतु जब हम भगवान की अनन्य भाव से भक्ति करेंगे तब यह सारे गुण धीरे-धीरे प्रकट हो जाएंगे और फिर जो भक्त नहीं हैं वह मन रूपी रथ पर भ्रमण कर रहे हैं उनके अंदर कुछ भी अच्छे गुण दिखाई नहीं देते और एक और भी बताते हैं कि किसी के प्रति शत्रुता का भाव भी नहीं रखना चाहिए। जैसे उसके लिए कहा जाता है अजातशत्रु, अजातशत्रु के अंदर यह गुण होता है वह यह सोचता है कि मेरा कोई शत्रु ही नहीं है वह शत्रु को भी अपने शत्रु के रूप में नहीं देखता है वह सोचता है कि यह सारे तो मेरे अपने हैं ,मेरे अपने अर्थात मेरे भगवान के हैं, सब लोग कृष्ण के, मैं भी कृष्ण का हूं और यह सभी भी कृष्ण के ही हैं। इस प्रकार ये सभी भी मेरे अपने ही हैं। इसीलिए उनसे शत्रुता नहीं होती। जैसे युधिष्ठिर महाराज अजातशत्रु थे और भीष्म देव महाराज भी अजातशत्रु थे। शत्रुता के रूप में उन्होंने पांडवों के जो शत्रु थे कौरव उनके साथ वे रह रहे हैं इसीलिए हम समझ सकते हैं, हो सकता है कि कोई हमारी ि नंदा कर रहा है यह हमारे साथ कोई अच्छा व्यवहार नहीं कर रहा है और हम क्या करते हैं कि तुरंत ही उनके विषय में कुछ बोलना शुरू कर देते हैं उनसे दूर रहते हैं। वह आते हैं तो भी उनकी तरफ हम नफरत की दृष्टि से देखते हैं। जब इतना है तो उनके साथ रहना कितना मुश्किल है किंतु फिर भी बीच में क्या कर रहे हैं भीष्म देव, वह उनके साथ ही रह रहे हैं अर्थात कौरवों के और साथ रहते हुए भी उनको शत्रु के भाव से कभी नहीं देख रहे हैं। जैसे पांडवों के प्रति उनका ज्यादा स्नेह था किन्तु उन्होंने कौरवों के प्रति फिर भी शत्रुता के भाव से कुछ नहीं किया इसीलिए हम समझ सकते हैं कि हर समय उन्होंने यह गुण अपने अंदर धारण किया हुआ था और बताते हैं कि हमें सरल होना चाहिए। भीष्म देव ने हमें सिखाया जो वैष्णव है वह सरल होता है। श्रील प्रभुपाद से पूछा कि वैष्णव कौन है उसे कैसे समझना चाहिए? प्रभुपाद जी ने कहा ही मस्ट बी ए परफेक्ट जेंटलमैन, वह सभी व्यक्ति, वैष्णव सरल है सभ्य है वह कुटिल नहीं है। अंदर से और बाहर से स्पष्ट है। जैसे अंदर एक होता है ना, दिखाने के दांत और खाने के साथ अलग, किंतु वैष्णव दोनों तरफ से एक सा ही है। भीष्म देव जब अंतिम समय में भगवान की स्तुति कर रहे थे। बहुत ही विशेष स्थिति है पूरे सारे श्लोक तो नहीं लेकिन कुछ ही ले रहे हैं इसमें बताते हैं यह पहले स्कंध के नवे अध्याय में जहां पर कृष्ण की उपस्थिति में भीष्म देव का देह त्याग उस का 38 वां श्लोक है *शितविशिखहतो विशीर्णदंशः क्षतजपरिप्लुत आततायिनो मे । प्रसभमभिससार मद्वधार्थं स भवतु मे भगवान् गतिर्मुकुन्दः ॥* ( श्रीमदभागवतम १. ९. ३८) अनुवाद- भगवान् श्रीकृष्ण जो मोक्ष के दाता हैं , वे मेरे अनन्तिम गंतव्य हो । युद्ध क्षेत्र में उन्होंने मेरे ऊपर आक्रमण किया , मानो वे मेरे पैने बाणों से बने घावों के कारण क्रुद्ध हो गये हों । उनका कवच छितरा गया था और उनका शरीर खून से सन गया था । भगवान श्रीकृष्ण जो मोक्ष के दाता हैं जो मेरे अंतिम गंतव्य होंगे युद्ध क्षेत्र में उन्होंने मेरे ऊपर आक्रमण किया मानो मेरे पहले बाणो के घाव के कारण क्रुद्ध हो गए उनका कवच छिद्र गया और खून से सन गया था। वह बता रहे हैं कि देखिए भगवान को किस रूप से देखना चाह रहे हैं। *विजयरथकुटुम्ब आत्ततोत्रे धृतहयरश्मिनि तच्छ्रियेक्षणीये । भगवति रतिरस्तु मे मुमूर्षो र्यमिह निरीक्ष्य हता गताः स्वरूपम् ॥* (श्रीमदभागवतम १. ९. ३ ९ ) अनुवाद- मृत्यु के अवसर पर मेरा चरम आकर्षण भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति हो । मैं अपना ध्यान अर्जुन के उस सारथी पर एकाग्र करता हूँ , जो अपने दाहिने हाथ में चाबुक लिए थे और बाएँ हाथ से लगाम की रस्सी थामे और सभी प्रकार से अर्जुन के रथ की रक्षा करने के प्रति अत्यंत सावधान थे । जिन लोगों ने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में उनका दर्शन किया, उन सबों ने मृत्यु के बाद अपना मूल स्वरूप प्राप्त कर लिया मृत्यु के अवसर पर मेरा चरम आकर्षण भगवान श्रीकृष्ण के प्रति हो। अब कैसे दर्शन की कामना कर रहे हैं देखिए मैं अपना ध्यान अर्जुन के सारथी पर आकर्षित करता हूं जो अपने दाहिने हाथ में चाबुक लिए हुए थे और बाएं हाथ में लगाम की रस्सी थी और सभी प्रकार से अर्जुन के रथ की रक्षा करने में लगे थे। जिन लोगों ने कुरुक्षेत्र में उनका दर्शन किया उन सबों ने मृत्यु के उपरांत अपना मूल स्वरूप प्राप्त कर लिया। यहां पर एक गोपनीय बात भी बता रहे हैं जिन्होंने दर्शन किया लोग कहते हैं, कि क्या फायदा हुआ कुरुक्षेत्र में ,जब श्रीकृष्ण इतना युद्ध किया उनको शांति स्थापित करनी चाहिए थी, क्या यह शांति थी ? अरे शांति नहीं, परम शांति प्राप्त हुई उन लोगों को, केवल जो लोग देख रहे थे उनको भी भगवान के धाम की प्राप्ति हुई। तो जो लोग उनका चिंतन स्मरण करते हैं उनको क्यों नहीं होगी। इसीलिए ऐसे पार्थसारथी भगवान का दर्शन करते करते वह क्या कर रहे हैं अपना प्राण त्याग रहे हैं और एक और श्लोक लेता हूं यह चालीसवां श्लोक है। *ललितगतिविलासवल्गुहास प्रणयनिरीक्षणकल्पितोरुमानाः ।* *कृतमनुकृतवत्य उन्मदान्धा : प्रकृतिमगन् किल यस्य गोपवध्वः ॥* (श्रीमदभागवतम १. ९. ४०) अनुवाद- मेरा मन उन भगवान् श्रीकृष्ण में एकाग्र हो , जिनकी चाल तथा प्रेम भरी मुस्कान ने व्रजधाम की रमणियों ( गोपियों ) को आकृष्ट कर लिया । [ रास लीला से ] भगवान् के अन्तर्धान हो जाने पर गोपिकाओं ने भगवान् की लाक्षणिक गतियों का अनुकरण किया । देखिए कितने समझने की बात है बीच में ऐसा ही नहीं हुआ कि वह सोचे कि चलो मैं पार्थसारथी रूपों का ध्यान करता हूं इसीलिए गोपियों के साथ में कृष्ण की जो लीला है वह तुच्छ है ऐसा नहीं है, उनकी भी सराहना कर रहे हैं बल्कि यही भक्तों का एक विशेष लक्षण होता है कि वह अपनी सेवा में हर समय रहता है अपने विशेष रस के द्वारा भगवान के साथ संबंध स्थापित करता है। किंतु अन्य जो भक्त हैं या अन्य जो सेवा कर रहे हैं उनकी किसी भी स्थिति में चाहे थोड़ी ज्यादा जो सेवा कर रहे हैं उनका हर समय भक्त सराहना करता है। इसीलिए भीष्म देव का जीवन चरित्र है उनकी जो सारी स्तुतियाँ हैं भगवान के प्रति उनसे हम ही सीख सकते हैं कि वह भगवान के हर समय चिंतन और स्मरण में हीं रहते थे और कभी भी अन्य जो जीव हैं या जो वैष्णव हैं उनको कभी उन्होंने कम नहीं देखा कि मैं इतना बड़ा चढ़ा हूं या इतना बड़ा ब्रहमचारी हूं , मैं कौरव के बीच में रहते हुए भी शत्रुओं के बीच में रहते हुए भी उनकी स्तुति कर रहा हूं। ऐसा उन्होंने कभी नहीं किया उन्होंने क्या किया स्वयं को भगवान के चरणों में समर्पित करते हुए भगवान के धाम में लौट गए। हरे कृष्ण ! भीष्म अष्टमी महोत्सव की जय!

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