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हरे कृष्ण जप चर्चा पंढरपुर धाम से, 8 दिसंबर 2020

737 स्थानों से आज जप हो रहा है। जय हो। आप सभी का स्वागत है। हरे कृष्ण। रामनाम , कौंतेय आपका भी स्वागत है। गोपाल राधे आपका भी स्वागत है। आप में से कुछ भक्तो के इसलिए मैंने नाम लिए जैसे रामनाम है या गोपाल राधे है और कौंतेय है , आपका तो स्वागत है ही किंतु आपके देश के अन्य भक्तो का भी हम स्वागत करना चाहेंगे। उनको भी इस कॉन्फ्रेंस में जोड़ो , मॉरीशस की संख्या कुछ कम ही है , जरा देख लो कौंतेय। आप किसी भी देश के होंगे या नोएडा में होंगे , अद्वैत आचार्य , लाडली किशोरी मायापुर से देख लेना कि आपके देश के या आपके शहर के या हो सकता है कि आपके परिवार के सदस्य जुड़ रहे हैं कि नहीं ? लाडली किशोरी ? हरि हरि ।

औरों पर भी दया करो , औरों को भी प्रात काल में जगाया करो , अगर वह जागे है तो सुबह-सुबह उनसे जप करवाओ और जप भी कर रहे हैं तो भक्तों के साथ , हमारे साथ या हमारे संग में भी जप कर सकते हैं। ठीक है। आप सभी देख लेना कौन छूट रहा है ?

नाम संकीर्तन कलयुग का धर्म है ।

जीवे दया नामे रुचि वैष्णव सेवन । इहँ चार धर्म नाहिं आर सनातन ॥ (चैतन्य भागवत आदि 1.1 )

अनुवाद : हे सनातन ! वैष्णव के लिये समस्त जीवों पर दया , भगवन्नाममें रुचि एवं वैष्णव - भक्तों की सेवा की यही धर्म है और नही ।

यह भी सिद्धांत है । आपके नाम में रुचि बढे ऐसी हमारी भी प्रार्थना है । और आपके प्रयास भी होने चाहिए कि आपकी हरिनाम में रुचि बढे , जीवो पर दया करो , जीवेदया मतलब जो नए लोग हैं , नए भी है और श्रद्धालु भी है उन पर दया करो । ऐसे कहा है , जीवदया । और फिर वैष्णव सेवा क्या हो सकता है ? जो नौसिखिया वैष्णव है उनपर दया करो और आपके समकक्ष है उनसे मैत्रीपूर्ण व्यवहार करो जो आप से बड़े हैं उनकी सेवा करो । यह विचार की आपसे कोई बड़ा नहीं है ,

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय | मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ||

(भगवद्गीता 7.7)

अनुवाद: हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है | जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है |

ऐसा भी आप अहंकार के कारण सोच सकते है। मुझसे और कोई बडा भक्त ढुंडके भी नही मिलेगा। सबसे बडा तो मैं ही हू , तो अगर ऐसा आपका विचार है तो फिर किसी को आप पर दया दिखानी होगी, आपको समझा-बुझाना होगा। आप वैसे कनिष्ठ अधिकारी ही हो , उत्तम भक्त नहीं हो। ऐसा अगर आप सोचते हो कि मैं श्रेष्ठ हूं और पूजा , प्रतिष्ठा , लाभ इस प्रकार की कामनाएं भी चल रही है । सोच कि मैं एक बड़ा भक्त हूं और हम पूजा , प्रतिष्ठा , लाभ की अभिलाषा बनाए रखते हैं , ऐसी आशा है यह आशा बंध नहीं है जैसे हमने कल आशा बंध की चर्चा की थी वह आशा गलत है। नम्रता जहाँ होएते वह आशा है। वैसे कृष्ण प्राप्ति या मुझे भक्त सेवा प्राप्ति हो ऐसी आशा बंध है। वैसे उस समय मुझे श्रील प्रभुपाद ने कहा भी था , "आर न करिए मनिया ,"। हरि हरि। ऐसा न सोचे की हम बडे भक्त है । फिर कहा ,

तृणादपि सु-नीचेन तरोरिव सहिष्णुना। अमानिना मान-देन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥

(चैतन्य चरितामृत आदी 17.31)

अनुवाद: जो अपने आपको घास से भी अधिक तुच्छ मानता है, जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु है और जो किसी से निजी सम्मान की अपेक्षा नहीं रखता, फिर भी दसरों को सम्मान देने के लिए सदा तत्पर रहता है, बह सरलता से सदा भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन कर सकता है।"

यह कीर्तनीय सदा हरी हम से नहीं होगा या हो भी नहीं हो रहा है। क्यों नहीं हो रहा है? क्योंकि हो सकता है कि हम सोच रहे हैं कि हम बड़े भक्त हैं , महात्मा है, हरी हरी। फिर मानशून्यता की आवश्यकता है। मानशून्यता , कल इसका भी उल्लेख हुआ था। जो हमने नौ प्रकार कल कहे थे। मानशून्यता , मान से शून्य , मान सम्मान की अपेक्षा , हमने भी कहा था हमारा मान सम्मान हो। सत्कार हो। हरि हरि।

जीवे दया नामे रुचि वैष्णव सेवन

नाम में रुचि बढ़ानी है। जिवो में दया, वैष्णव की सेवा भी करनी होगी। हरि हरि। यह कहते कहते हैं मेरा समय तो नहीं गंवाया , कुछ जो भी कहा उसका भी लाभ होगा ही, कुछ भक्तों को तो होगा ही। हरी हरी। हमारी ऐसी प्रवृत्ति है। ऐसे हम घमंडी और अहंकारी भक्त है। उनके लिए भी आज उपयोगी यह बात हो सकती है , होनी चाहीये।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

यह कहते कहते कुछ समय तो बित ही गया। ऐसे ही होता है, मैं एक बात कहने का सोचकर बात शुरू तो करता हूं लेकिन जो बात मुझे कहने होती है वहीं रह जाती है और और बातों की चर्चा हो ही जाती है। ठीक है , कोई बात नहीं। वैसे मुझे कहना तो यह था, मैं याद कर रहा था वैसे वह अर्जुन का वचन है। भगवद गीता के द्वितीय अध्याय का सातवां श्लोक है , वचन है।

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावःपृच्छामित्वांधर्मसम्मूढचेताः | यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मेशिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ||

(भगवद्गीता 2.7)

अनुवाद: अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ | अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृप्या मुझे उपदेश दें |

ऐसे विचार अर्जुन ने व्यक्त किए है। आप तो जानते हो। पता नहीं जानते हो कि नहीं ? लेकिन जानना चाहिए। भगवद गीता के प्रथम अध्याय में तो अर्जुन ही बोल रहे थे। भगवत गीता के प्रथम अध्याय में पूरा तो नहीं लेकिन दूसरे आधे भाग मे अर्जुन ही बोल रहे थे। यह अर्जुन का गीत है, भगवान श्री कृष्ण का गीत नहीं है। अर्जुन कई सारी बातें बोलते हैं , कहते हैं जैसे भी बोलते हैं , मनोधर्म की बातें बोलते हैं।

सञ्जय उवाच तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् | विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः || (भगवद्गीता 2.1)

अनुवाद: संजय ने कहा – करुणा से व्याप्त, शोकयुक्त, अश्रुपूरित नेत्रों वाले अर्जुन को देख कर मधुसूदन कृष्ण ने ये शब्द कहे |

ऐसा वह कह रहे थे इसका क्या अर्थ है? युद्ध करने के लिए कह रहे हो , युद्ध की योजना बन चुकी है।

धृतराष्ट्र उवाच धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः | मामकाः पाण्डवाश्र्चैव किमकुर्वत सञ्जय || (भगवद्गीता 1.1)

अनुवाद: धृतराष्ट्र ने कहा — हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ?

युद्ध करने का जो परिणाम है , वर्णसंकर होगा, या कुल धर्मा का क्या होगा? जाति धर्म का क्या होगा? यह भी विचार कह रहे थे और अपने ही विचार ही कह रहे थे। मेरे विचार से कह रहे थे , फिर अंततोगत्वा उनोने ये भी कहा मैं युद्ध नहीं करूंगा। क्यों? युद्ध भगवान चाहते थे। भगवान चाहते थे युद्ध हो क्योंकि धर्म की स्थापना होगी।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् | धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ।। (भगवद्गीता 4.8)

अनुवाद: भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ |

युद्ध के साथ धर्मराज राजा बनेंगे , युधिष्ठिर महाराज राजा बनेंगे और फिर वह धर्म की स्थापना करेंगे। हरी हरी। और भगवान भगवत गीता का उपदेश भी तो करना चाहते हैं। भगवान ने ऐसा कुछ मंच बनाया है जहां पर उन्होंने भगवत गीता का उपदेश सिखाया, वहां वह बैठे हैं। अर्जुन बोलते हैं और यहां तो श्रीकृष्ण भगवान को बोलने का अवसर ही नहीं दे रहे थे लेकिन फिर वह चुप हो गए , रोने लगे अश्रुपूर्णाकुलेक्षणम पूर्ण आतुर , शोकयुक्त और अश्रुपूर्ण नेत्रों वाले अर्जुन जब बने देखे कृष्ण ने तो कृष्णा ने कहा ,

श्रीभगवानुवाच कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् | अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन || (भगवद्गीता 2.2)

अनुवाद: श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! तुम्हारे मन में यह कल्मष आया कैसे? यह उस मनुष्य के लिए तनिक भी अनुकूल नहीं है, जो जीवन के मूल्य को जानता हो | इससे उच्चलोक की नहीं अपितु अपयश की प्राप्ति होती है |

ऐसे विचार ? अर्जुन ने अब तक जो जो कहा उसपर भगवान ने कहा , ऐसे विचार ? अर्जुन ने तो सोचा होगा मेरे बढ़िया विचार हैं, मैं कईयों की हित की बात कर रहा हूं लेकिन भगवान ने कहा नहीं , यह तो बेकार के विचार है। यह विचार कहां से आए हैं ? तो आपकी जानकारी के लिए भगवत गीता जो भगवान का गीत है द्वितीय अध्याय के तृतीय श्लोक से यह भगवत गीता या भगवान का वचन प्रारंभ होता है। वैसे प्रथम अध्याय में अर्जुन ने भगवान को बोलने ही नहीं दिया। स्वयं ही बोल रहे हैं , स्वयं ही बकते जा रहे हैं , बकबक करे जा रहे हैं । मनोधर्म चल रहा है, बस भगवान एक ही बात कही थी जब अर्जुन ने कहा था कि मेरे रथ को आगे ले चलो।

अर्जुन उवाच सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थाप्य मेऽच्युत | यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् || कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे || (भगवद्गीता 1.21)

अनुवाद: अर्जुन ने कहा – हे अच्युत! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले चलें जिससे मैं यहाँ युद्ध की अभिलाषा रखने वालों को और शस्त्रों कि इस महान परीक्षा में, जिनसे मुझे संघर्ष करना है, उन्हें देख सकूँ |

यह गीता जयंती का महीना भी है। भगवत गीता भगवान ने इस महीने में सूनाई। वैसे मोक्षदा एकादशी के दिन भगवान ने भगवत गीता सुनाई। एकादशी आ रही है। इस महीने में ही संभव है मोक्षदा एकादशी , भगवद गीता का उपदेश एकादशी के दिन भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र में सुनाया। प्रारंभ में जैसे , भगवान का तो रथ नहीं था , अर्जुन का रथ था। लेकिन संभावना थी जो रथ के चालक बने थे , भगवान पार्थ के सारथी बने है। ऐसे हम उनको बुद्धी के भी चालक कहते हैं। वैसे भगवान एक रथ के तो चालक बन ही चुके थे लेकिन साथ ही साथ वैसे अर्जुन को बुद्धि दे रहे थे।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् | ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते || (भगवद्गीता 10.10)

अनुवाद: जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञान प्रदान करता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं |

इस बुद्धू अर्जुन को , यह जो भी बातें भगवत गीता की प्रथम अध्याय मे अर्जुन ने की है इसको भगवान ने कहा है , यह कोनसे विचार है ? कहां से विचार आए हैं ? यह तुम्हें शोभा नहीं देते हैं , अर्जुन। और फिर भगवान ने जो कहा वह आपको सुना रहा हूं ।अर्जुन ने वह स्विकार किया।

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावःपृच्छामि त्वांधर्मसम्मूढचेताः

फिर अर्जुन ने दौहराया है , हाँ हाँ। मैं जो भी कह रहा था वह आपने तो उस पर कहां, यह कचरा , यह नीच विचार कहां से आए हैं ? अर्जुन ने स्वीकार किया है अर्जुन कह रहा है , मेरी कृपनता। एक होता है ब्राम्हण , उच्च विचार वाला ब्राह्मण होता है , उसके विपरीत व्यक्तित्व जो होते हैं वह कृपन कहलाते हैं , नीच विचार वाले। फिर अर्जुन ने यह स्वीकार किया कार्पण्यदोषोपहतस्वभाकार्पण्यदोषोपहतस्वभावःपृच्छामि त्वांधर्मसम्मूढचेताः प्रभू इसलिए मैं आपसे अब भिक्षा मांग रहा हूं , प्रार्थना कर रहा हू , मैं धर्मसम्मूढचेताः मैं संभ्रमित हो चुका हूं और मुझे अभी समझ में नहीं आ रहा है कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है? लगभग अधार्मिक बातें मैं कर रहा हूं , अगर वह कोई धार्मिक बातें है भी , उसे धार्मिक कहा भी जा सकता है तो बड़े गौड धर्म की बातें मैं कर रहा था , कूल धर्म यह धर्म वह धर्म इसलिए भगवान ने भगवत गीता के अंत में अर्जुन को कहा था ,

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज | अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः || (भगवद्गीता 18.66)

अनुवाद: समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत।

हे अर्जुन, तुमने कई सारे धर्मों का जो विचार व्यक्त किया जैसे कि, इस धर्म का क्या होगा? उस धर्म का क्या होगा ? तो यह सब धर्मों को तुम त्याग दो! फिर सही धर्म कौनसा है? या धर्म का सार क्या है? मेरी शरण में आ जाओ यही धर्म है! और मेरी शरण में आने से जो जो बातें या तथाकथित धर्म रोकते है या बाधा उत्पन्न करते है ऐसे धर्म को त्याग दो! हरि हरि! पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः तो अब हम फिर से दूसरे अध्याय के 7 वे श्लोक पर चर्चा करते है। जहां पर अर्जुन ने कहा है कि मै संभ्रमित हो चुका हूं, अब मेरा कुछ सत-असत विवेक नहीं रहा, मेरा विवेक काम नहीं कर रहा। विवेक या बुद्धिमान व्यक्ति क्या करता है? यह सही है, या यह गलत है, या यह धर्म है या अधर्म है यह बुद्धिमान व्यक्ति को पता चलता है। तभी तो अर्जुन ने भगवान से कहा था,

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः | यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मेशिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ||

हे भगवान, हे श्री कृष्ण, क्या कीजिए, जिन बातों में मेरा कल्याण है या मेरा उद्धार होगा उन बातों को कहिए! उन बातों को मुझे सुनाइए! तन्मेशिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् मुझे कृपया आदेश दीजिए, मुझे समझाइए! मैं आपकी शरण में आ रहा हूं, मैं आपका शिष्य बन रहा हूं। तो ऐसे अर्जुन तैयार हुए है अर्जुन की भगवान में श्रद्धा है या गुरु में श्रद्धा है, और कोई मिला ही नहीं तो भगवान ही मिले तू तो भगवान ही गुरु की भूमिका निभाने वाले है। तो इस प्रकार दोनों में संवाद हुआ। जो संवाद भगवतगीता कहलाता है। हम खाते रहते है कि क्या संवाद था। जब हम मूवी देख कर घर लौटते हैं आजकल तो घर लौटने की भी जरूरत नहीं घर में ही मूवी देखी जाती है। एक समय था जब सब मूवी थिएटर में जाकर सिनेमा देखते थे, लेकिन आजकल तो घर को ही सिनेमाघर बना दिए है तो कहीं आने जाने की जरूरत ही नहीं। और चर्चा होती रहती है वाह क्या सुंदर संवाद था! अमिताभ बच्चन का! लेकिन यह सब संवाद कचरे समान है। और यह कचरा कूड़ेदान में डालना चाहिए। और कृष्ण अर्जुन का जो संवाद है यह भी एक संवाद है, जिसको हमें पढ़ना चाहिए! और कहा भी गया है कि गुरु हो तो भगवान जैसे, गुरु हो तो कृष्ण जैसे और शिष्य हो तो अर्जुन जैसा! यह एक आदर्श गुरु और चेला, या गुरु शिष्य कि यह टीम है। तो गुरु भगवान का प्रतिनिधित्व करें या फिर करते ही है, तभी तो वह गुरु बन जाता है। शुरुआत के दिनों में कभी-कभी श्री गोरू चरण पदमा ऐसे मैं तो नहीं लेकिन कुछ कुछ वक्त गाया करते थे, तो श्रील प्रभुपाद सामने बैठे रहते थे और सब भक्त गाते थे श्री गोरू चरण पद्मा तो फिर आप आज बोलते थे मैं गोरू नहीं हूं।

गोरू मतलब पशु, गाय या बैल को बंगाली में गोरू बोलते है। तो इससे हमें यह भी समझना चाहिए कि, सही उच्चारण कितना महत्वपूर्ण है! इसीलिए कहा गया है सावधान मते तो हमें सावधान रहना चाहिए! तो गुरु होने चाहिए और होते भी है, जो भगवान के प्रतिनिधि होते हैं और हमें अर्जुन के जैसे भूमिका निभानी चाहिए। तो एक समय जो यह धर्म का क्या वह धर्म का क्या यह सब विचार थे अर्जुन के तो बाद में उसे समझ में आया कि, नहीं नहीं मैं जो सोच रहा था वह सही नहीं है! धर्मसम्मूढचेताः धर्म में समुढ़ होकर या संभ्रमित होकर कह रहा था लेकिन आप ही मुझे बताइए कि, सही धर्म क्या है, मेरा धर्म क्या है या मेरा कर्तव्य क्या है? तो जब हमारा ऐसा विचार बनेगा जैसा अंततः अर्जुन का बन गया, तो यह सब सुनकर अर्जुन सीधे पटरी पर आए है और भगवान के शरण में आए है। और अपनी मूर्खता को स्वीकार कर रहे है, अपने अज्ञान और संभ्रम को स्वीकार कर रहे है। तो जब हम भी ऐसा स्वीकार करेंगे, जैसे अर्जुन ने स्वीकार किया दूसरे अध्याय के प्रारंभ में यह सब समझ में आता है। तो जब हम भगवतगीता को समझने के पात्र होंगे तब हमारे विचार भी अर्जुन जैसे बन जाएंगे! पहले अध्याय में जो अर्जुन के विचार थे वह कुछ काम के नहीं थे। लेकिन दूसरे अध्याय के प्रारंभ में जो अर्जुन की मनस्थिति हुई वह उचित है। तो हमें यह देखना है कि अर्जुन ने विनम्रता व्यक्त की, और भगवान की शरण ली तो आप भी गुरु की शरण ले सकते है! गुरु भगवान का प्रतिनिधित्व करते है। ऐसा करने के बाद हम भी कह पाएंगे कि, नष्टो मोहः!

अर्जुन उवाच | नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत | स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव || ७३ ||

भगवत गीता के प्रारंभ में अर्जुन संभ्रमित थे और फिर उन्होंने भगवान की शरण ग्रहण कर ली और फिर अंत में कहा कि नष्टो मोहः! मेरा सारा मोह अब नष्ट हो चुका है! गतसन्देहः अब कोई संदेह नहीं रहा! और यह हुआ कैसे? त्वत्प्रसादा आपसे मुझे जो प्रसाद मिला, इसे भी लिख लीजिए कि भगवत गीता के वचनों को अर्जुन प्रसाद के समान बोल रहे है। प्रसाद का नाम लेते ही हमें खिचड़ी की याद आती है, लेकिन अर्जुन ने कहा कि, यह जो गीता के वचन है यह प्रसाद है! त्वत्प्रसादान्मयाच्युत तो हे अच्युत आपसे भगवत गीता का जो मुझे यह प्रसाद मिला इसी से ही पुनः मुझे स्मृति हो रही है कि मैं कौन हूं आप कौन हो! मेरा आप से क्या संबंध है! तो आप भी ऐसा कहने के लिए तैयार हो कि, नष्टो मोहः! मेरा मुंह नष्ट हो चुका है। कोई है कहने वाला? कोई कोई है सभी तो नहीं! हां सदानंदी माताजी वृंदावन तो पहुंच गई लेकिन वह यह कह सकती है? हां बोल रही है। तो ऐसा १ दिन हमें कहना होगा! इतना ही नहीं बाद में एक विशेष बात अर्जुन ने कही है,

करिष्ये वचनं तव अब मैं क्या करूंगा? आप तो कह रहे थे युद्ध करो युद्ध आप तो कह रहे थे युद्ध करो युद्ध करो! लेकिन मैं भ्रमित था लेकिन अब आप का उपदेश सुनने के उपरांत तो आपका जैसा आदेश है, अगर आप चाहते हो कि मैं युद्ध करूं तो मैं तैयार हूं! यह नहीं कहा कि आप की बात समझ लि लेकिन थोड़ा नाश्ता वगैरह कर लेते है, और अगले सप्ताह में करेंगे, लेकिन ऐसा नहीं! उन्होंने अपना धनुष उठाया और युद्ध के लिए तैयार हो गए। तो 45 मिनटों तक यहां संवाद कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि पर चलता रहा। और जैसे ही संवाद का सार समझ में आया, तो अर्जुन ने युद्ध प्रारंभ किया! वैसे सभी समझ सकते हैं और हम भी कह सकते है, करिष्ये वचनं तव तभी कह सकते हैं कि हां मैं भगवत गीता समझ गया हूं, या भगवत गीता के सार को समझ गया हूं। आप कह तो रहे हो कि भगवत गीता समझ में आ गई लेकिन इसे सिद्ध करो! लेकिन आपके और से कुछ कृति नहीं हो रही है। आत्मा तयार नहीं है,

श्रीप्रह्लाद उवाच श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ २३ ॥ इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेन्नवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥२४ ॥ श्रीमद भगवतम स्कंद ७ अध्याय ५ श्लोक २३-२४

अनुवाद :- प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज - सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना , उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) -शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है ।

यह सब करने के लिए अगर आप तैयार नहीं है तो आपको भगवत गीता समझ में नहीं आई है! या फिर ऐसा भी हो सकता है कि आधी ही समझ में आई है, तो इसीलिए आधी ही सेवा कर रहे हैं। या फिर हो सकता है कि 75% समझ में आई है तो इतना भाव उत्पन्न नहीं हुआ है। लेकिन भगवान कहते हैं कि, सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज | ठीक है! अब मैं यहां पर रुक जाता हूं। तो यह गीता जयंती का महीना है तो आप भी गीता को इस महीने में पढ़िए! और इस महीने में हम भी गीता पर कुछ चर्चा करेंगे। और आप प्रचार कीजिए, प्रचार ही एकमात्र है जो आप कर सकते हो। प्रभुपाद के ग्रंथों का विशेषता भगवतगीता का वितरण कीजिए। इस्कॉन में गीता मैराथन चालू हो चुका है तो आप भी मैदान में अयिए! और वहां पर भगवतगीता यथारूप का वितरण कीजिए! आपने कार्तिक में अधिकाधिक दीपदान करने का अभियान छेड़े थे उसका रिजल्ट अभी तक नहीं आया है, लेकिन तब तक दूसरा मैराथन शुरू भी हो गया और हम थोड़ा धीरे चल रहे है मैराथन तो एक तारीख से शुरू हो चुका है। तो आप योजना बना हो और भगवतगीता का वितरण करो! अपने इष्ट में या पड़ोसियों से या फिर जिनसे जिनसे आप प्रेम करते हो उन सबको भगवतगीता यानी कृष्ण के प्रेम के वचन, वाणी दीजिए! ठीक है! हरे कृष्ण!

English

8 December 2020

Receive the mercy of the spiritual master by accepting our own ignorance

Hare Krishna.

Welcome, all you souls to this japa session. Devotees from 737 locations are chanting with us right now. More devotees need to join. Devotees must check in their local areas whether the devotees are joining or not, and can mercifully encourage others to wake up early and chant in the association of devotees. One must develop interest and taste for the holy name. Then one must also show concern and mercy for those who have not developed the right taste yet.

jive daya name ruci, vaisnava-sevana | iha chara dharma nahi suna sanatana ||

Translation: Hear, Sanatana! Kindness to all living beings, taste for the holy name, and service to vaisnavas – apart from these there is no other dharma” (Caitanya Bhagavata Adi Khanda 1.1)

You need to serve the senior devotees and Vaisnavas. You must develop friendly relations with those equal to you. Be merciful towards juniors, friendly with equals and serve the seniors. If you feel that there is no one senior to you or better than you, then it is an alarming situation. This pride or ego says that you are a junior devotee and haven't advanced at all. One has to be hopeful of getting association and engagement in service of Krsna and His devotees. There should be no other desire. Once Srila Prabhupada also quoted this line from the Guru Arati to me.

The 9 items that we discussed yesterday also had this point which said to not expecting any respect from others. One should not feel that I am senior or better than others. We need to strengthen our interest and taste in the holy name. What I have been saying is certainly not in vain. It is very important. Those devotees who are in any way proud of themselves should realise this. I had planned to speak on something else, but this topic got extended. I wanted to speak on Bhagavad Gita 7.7

mattaḥ parataraṁ nānyat kiñchid asti dhanañjaya mayi sarvam idaṁ protaṁ sūtre maṇi-gaṇā iva

Translation: There is nothing higher than myself, O Arjun. Everything rests in Me, as beads are strung on a thread. (BG 7.7)

In the first chapter of Bhagavad Gita Arjuna speaks almost all the time. So chapter one is in a way a song of Arjuna. He kept on speaking the language of Mano-dharma - 'What is right according to me'. He was concerned about the dynasty, the women, progeny, etc. He even concluded there and then that he would not fight. Krsna is setting up the base for speaking the entire knowledge of Bhagavad Gita. Krsna did not speak till Arjun spoke everything and finally with his tearful eyes he sat down totally bewildered. It was then that Krsna started speaking.

Arjuna was speaking all that he thought was right according to him. But Krsna said that this is all nonsense. You all must note that Bhagavad Gita actually begins from 2.2. The first chapter only has Arjuna speaking. Krsna only responded to Arjuna's command to take the chariot in between the two armies on the battlefield.

arjuna uvāca senayor ubhayor madhye rathaṁ sthāpaya me 'cyuta yāvad etān nirīkṣe 'haṁ yoddhu-kāmān avasthitān kair mayā saha yoddhavyam asmin raṇa-samudyame

Translation:

Arjuna said: O infallible One, please draw my chariot between the two armies so that I may see who is present here, who is desirous of fighting, and with whom I must contend in this great battle attempt. (BG 1.21)

Moksada Ekadashi- Gita Jayanti is also approaching. Krsna instructed the Bhagavad Gita to Arjuna on Ekadasi in Kuruksetra. Krsna has willingly become Arjuna’s charioteer. Sastra says that one should always make his intelligence his driver. Krsna has become the giver of intelligence to Arjuna. Krsna says, "From where are these thoughts hounding your mind? They don't speak your Glory! Arjuna admits that he is suffering from this miserly disease.

kārpaṇya-doṣhopahata-svabhāvaḥ pṛichchhāmi tvāṁ dharma-sammūḍha-chetāḥ yach-chhreyaḥ syānniśhchitaṁ brūhi tanme śhiṣhyaste ’haṁ śhādhi māṁ tvāṁ prapannam

Translation:

Now I am confused about my duty and have lost all composure because of weakness. In this condition I am asking You to tell me clearly what is best for me. Now I am Your disciple, and a soul surrendered unto You. Please instruct me. (BG 2.7)

“I have become bewildered and all that I was speaking was very lowly or unrighteous. I ask from You, seek from You the actual dharma.” Arjuna was talking of so many different dharma duties. Krsna says,"Sarva dharman parityajy. Give up all sorts of dutifulness. Just surrender unto Me.” When Arjuna said that he was bewildered and his intelligence was not working, he was not able to figure out what is right and what is wrong. He requested Krsna to show him that which would benefit him and add to his glory. He surrendered unto Krsna as his disciple. “Please instruct me, explain to me. I am your student disciple.”

Krsna is playing the role of a Guru. He doesn't send another representative here. Then their conversation goes on. There are so many dialogues in the world. People are impressed by so many movies and dialogues. People have made their houses into cinema houses, but all those mundane dialogues are nonsensical. This is the dialogue worth reading or listening to. Krsna is playing the Guru of Arjuna. The Guru has to be the representative of Krsna and speak such relevant things. If a Guru doesn't do this, then he is a Goru. In Bengali Goru means an animal. One has to be conscious. Some devotees while offering Guru puja to Srila Prabhupada, used to sing sri goru carana padma....Srila Prabhupada pointed saying, “I am not a Goru.” Arjuna realises that he is suffering from miserliness and all that he was thinking and speaking was out of the influence of this disease. Now he asks Krsna to speak that which is right and true.

Now he is on the right path. He is accepting that he did not have the right knowledge and that he is bewildered. If we also accept our short comings and approach Bhagavad Gita for the right guidance, then we shall also develop such surrender like that of Arjuna.

sarva-dharmān parityajya mām ekaṁ śaraṇaṁ vraja ahaṁ tvāṁ sarva-pāpebhyo mokṣayiṣyāmi mā śucaḥ

Translation Abandon all varieties of religion and just surrender unto Me. I shall deliver you from all sinful reaction. Do not fear. (BG 18.66)

We must take shelter under a Guru who is the representative of Krsna. Here Arjuna says that he has been bewildered and in the end he admits that his bewilderment has been destroyed by Krsna’s mercy which he has received. Here Arjuna says that this Bhagavad Gita is prasada. Prasada is not necessarily some sweets or some kichadi. Anything mercifully received from Krsna is prasada. Is there anyone among us who can claim that their bewilderment has been destroyed? Can anyone claim that their illusion has been destroyed? Has anyone realised their original identity? Is anyone ready to strictly obey what Krsna or Guru would ask them to do? Are you ready to take it up right away? One should not procrastinate on this. I have understood Bhagavad Gita well and I will follow it after a week, month or some time.

śrī-prahrāda uvāca śravaṇaṁ kīrtanaṁ viṣṇoḥ smaraṇaṁ pāda-sevanam arcanaṁ vandanaṁ dāsyaṁ sakhyam ātma-nivedanam iti puṁsārpitā viṣṇau bhaktiś cen nava-lakṣaṇā kriyeta bhagavaty addhā tan manye ’dhītam uttamam

Translation:

Prahlāda Maharaja said: Hearing and chanting about the transcendental holy name, form, qualities, paraphernalia and pastimes of Lord Visnu, remembering them, serving the lotus feet of the Lord, offering the Lord respectful worship with sixteen types of paraphernalia, offering prayers to the Lord, becoming His servant, considering the Lord one’s best friend, and surrendering everything unto Him (in other words, serving Him with the body, mind and words)—these nine processes are accepted as pure devotional service. One who has dedicated his life to the service of Kṛṣṇa through these nine methods should be understood to be the most learned person, for he has acquired complete knowledge. (SB 7.5.23-24)

If you are not ready to hear, sing glories, serve and engage in other devotional activities then you haven't understood it well yet. So try to realise. There cannot be a limit to this. Read Bhagavad Gita. I will also keep speaking on Bhagavad Gita. Distribution of Bhagavad Gita should be done. This is Book Marathon month. Distribute books in your local areas in your local languages. You had campaign of lamp offering in Kartik. And now you have the Bhagavad Gita Book Marathon.

Russian

Наставления после совместной джапа-сессии 08.12.2020г.

Харе Кришна

Преданные из 737 мест воспевают с нами прямо сейчас

Нужно присоединиться к большему количеству преданных. Преданные должны проверить в своем районе, присоединяются ли преданные или нет, и могут милостиво побудить других проснуться пораньше и воспевать в обществе преданных.

нужно развивать интерес и вкус к святому имени. Затем нужно проявить заботу и милосердие к тем, у кого еще не развился правильный вкус.

Вам нужно служить старшим преданным-вайшнавам.

Вы должны развивать дружеские отношения с равными вам.

Должно быть милосердное отношение к начинающим, дружелюбие к равным и служение старшим.

Если вы чувствуете, что вы не служите старшим, считаете себя лучше, то это тревожная ситуация. Эта гордость или эго говорит о том, что вы младший преданный и совсем не продвинулись.

Человек должен хотеть общения и участия в служении Кришне и его преданным.

Другого желания быть не должно. Однажды Шрила Прабхупада также процитировал мне эту строчку из Гуру Арати.

В девяти пунктах, которые мы обсуждали вчера, также было сказано, что мы не ожидаем никакого уважения от других.

Не следует думать, что я старше или лучше других.

Итак, нам нужно усилить интерес и вкус к святому имени.

То, что я сказал, конечно, не напрасно. Это очень важно. Те преданные, которые хоть немного гордятся собой, должны осознать это.

Я планировал поговорить о другом, но эта тема расширилась.

Я хотел поговорить о Бхагавад Гите (БГ) 2.7

ка̄рпан̣йа-дошопахата-свабха̄вах̣ пр̣ччха̄ми тва̄м̇ дхарма-саммӯд̣ха-чета̄х̣ йач чхрейах̣ сйа̄н ниш́читам̇ брӯхи тан ме ш́ишйас те ’хам̇ ш́а̄дхи ма̄м̇ тва̄м̇ прапаннам

Перевод:

Я больше не знаю, в чем состоит мой долг, и постыдная слабость скупца лишила меня самообладания. Поэтому прошу, скажи прямо, что лучше для меня. Отныне я Твой ученик и душа, предавшаяся Тебе, — наставляй же меня.

(БГ 2.7)

В первой главе Бхагавад Гиты (БГ) Арджуна говорит почти все время.

Итак, первая глава - это своего рода песня Арджуны.

Он продолжал говорить на языке Манодхармы: «Что правильно для меня».

Он заботился о династии, женщинах, потомстве и т. д.

Он даже тут пришел к выводу, что я не буду сражаться

Но это, однако, происходит по воле Кришны. Кришна создает основу для того, чтобы рассказывать все знание БГ.

Кришна не говорил, пока Арджуна не сказал все, и, наконец, со слезами на глазах он сел в полном недоумении.

Именно тогда Кришна начал говорить.

Арджуна говорил все, что он считал правильным. Но Кришна сказал, что все это вздор.

Вы все должны знать, что БГ на самом деле начинается с 2 главы 2 стиха .

В первой главе непрерывно говорит только Арджуна. Кришна только ответил на слова Арджуны, чтобы он поставил колесницу между двумя армиями на поле битвы.

Также приближается Мокшада Экадаши-Гита Джаянти. Кришна рассказал БГ Арджуне на экадаши на курукшетре.

Кришна охотно стал возничим Арджуны. Шастра говорит, что нужно всегда делать свой разум своим водителем. Итак, Кришна дал Арджуне разум.

Кришна говорит, откуда эти мысли господствуют над твоим умом? Они не говорят о твоей славе!

Итак, Арджуна признает, что я страдаю от скупости

Итак, он был сбит с толку, и все, что он говорил, было очень мелким или неправедным. Я прошу Тебя, укажи мне настоящую Дхарму.

Арджуна говорил о стольких разных обязанностях Дхармы. Итак, Кришна говорит Сарва Дхарман Паритьаджй. Откажись от всех видов религий. Просто предайся мне.

Поэтому, когда Арджуна сказал, что он сбит с толку, что его разум не работает. Он не мог понять, что правильно, а что нет. Итак, он искал у Кришны то, что принесло бы ему пользу и увеличило его славу.

Он предался Кришне как своему учителю.

Пожалуйста, наставь меня, объясни мне, я Твой смиренный ученик.

Сам Кришна играет роль Гуру. Он не посылает сюда другого представителя. Затем их разговор продолжается. В мире так много разговоров. Людей впечатляют столько фильмов и разговоров.

Люди превратили свои дома в кинотеатры. Но все эти банальные разговоры бессмысленны. Этот диалог, который стоит прочитать или послушать.

Кришна играет Гуру Арджуны.

Гуру должен быть представителем Кришны и говорить такие важные вещи.

Если гуру этого не делает, то он гору.

Гору на бенгальском означает животное.

Надо быть сознательным. Некоторые преданные, предлагая гуру пуджу Шриле Прабхупаде, пели Шри гору чарана Падма ... Итак, Шрила Прабхупада поправлял, говоря, что я не Гору.

Итак, Арджуна понимает, что я страдаю от скупости и все, о чем я думал и говорил, было от влияния этой болезни (скупца).

Итак, теперь он просит Кришну сказать, что правильно и что правда.

Теперь он на правильном пути. Он соглашается с тем, что у него нет правильных знаний и что он сбит с толку. Итак, если мы также принимаем наши недостатки и обращаемся к БГ за правильным руководством, тогда мы также разовьем такую преданность, как у Арджуны.

Мы должны принять прибежище у Гуру, который является представителем Кришны. Здесь Арджуна говорит, что я был сбит с толку, и в конце признает, что мое недоумение было уничтожено Твоей милостью, которую я получил. Здесь Арджуна говорит, что эта Бхагавад Гита - прасад.

Прасад - это не обязательно сладости, какие-нибудь кичади. Что-нибудь переданное

Полностью полученное от Кришны - это прасад

Так есть ли среди нас кто-нибудь, кто может утверждать, что их замешательство развеяно?

Может ли кто-нибудь утверждать, что их иллюзия была уничтожена?

Кто-нибудь осознал свою изначальную природу?

Готов ли кто-нибудь строго повиноваться тому, что Кришна или Гуру попросят их сделать?

Вы готовы сразу же взяться за это?

На это не следует распространяться.

Я хорошо понял БГ и буду следовать ей через неделю, месяц или каждый раз.

Если вы не готовы слушать, воспевать славу, служить и участвовать в другой религиозной деятельности, значит, вы еще этого не поняли.

Так что попробуйте осознать.

Этому не может быть предела.

Так что читайте БГ, я также буду продолжать говорить о БГ.

Раздача БГ должна быть произведена.

Это месяц Книжного марафона.

Распространяйте книги в ваших регионах на ваших местных языках.

у вас была кампания предложения Лампад в Картику. А теперь у вас есть книжный марафон.

хорошо, на этом мы остановимся.

Харе Кришна.

(Перевод Кришна Намадхан дас)