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*जप चर्चा*, *पंढरपुर धाम*, *4 जुलाई 2021* हमारे साथ 812 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद। कुरुक्षेत्र धाम की जय। कल हम कुरुक्षेत्र में थे। कुरुक्षेत्र में हम कृष्ण अर्जुन संवाद सुन रहे थे। हम भगवत गीता के चौथे अध्याय के प्रारंभ की चर्चा को सुन रहे थे। कृष्ण बोल ही रहे हैं और कुरुक्षेत्र में संवाद चल ही रहा है और हम उसको सुन रहे हैं। कृष्ण और अर्जुन का संवाद चल ही रहा था और हस्तिनापुर में संजय धृतराष्ट्र को सुना रहे थे। वही संवाद हमें श्रीला प्रभुपाद भगवत गीता यथारूप के रूप में सुनाते हैं। हम जब ग्रंथ पढ़ते हैं तब हमें श्रील प्रभुपाद मानो संवाद सुना रहे हैं। उसी कुरुक्षेत्र में, भगवान एक बार और गए। सूर्य ग्रहण का समय था। भगवान द्वारका से गए और ब्रज वासियों को भी बुलाया था। द्वारका वासी और ब्रज वासियों का महामिलन कुरुक्षेत्र में हुआ। वृंदावन से, ब्रज धाम से राधा और गोपियां भी पहुंची थी। कृष्ण के संवाद वहां पर सभी के साथ हुए। नंद बाबा, यशोदा मैया के साथ, मित्रों के साथ और गायों के साथ भी संवाद उन्होंने किया होगा। वृंदावन से कुरुक्षेत्र में गाय भी आई थी, गायों को भी लाए थे। राधा, गोपीयां और कृष्ण के मध्य में भी बातें हुई। *मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |* *कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ ||* (श्रीमद भगवत गीता यथारूप 10.9) अनुवाद मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं। *बोधयन्तः परस्परम्* हुआ। हम उस संवाद को सुनेंगे। कल जो भगवद गीता का संवाद सुन रहे थे। तो जैसे प्राथमिक पाठशाला में हम पाठ पढ़ते हैं। क ख ग पढ़ते हैं। लेकिन वह महत्वपूर्ण तो होता ही है। हमको मूलभूत बातें पढ़ाई जाती है। हम पढ़ते हैं। तो श्रील प्रभुपाद वैसे कहा भी करते थे। यह प्राथमिक विद्यालय के ज्ञान जैसा ज्ञान है। भागवतम् ग्रेजुएशन है और चैतन्य चरितामृत पोस्ट ग्रेजुएशन है। तो आज हम पोस्ट ग्रेजुएशन का जो पाठ्यक्रम है यानी चैतन्य चरितामृत जो ग्रंथ है, के बारे में हम पढ़ेंगे। यह संवाद ऊंचा है और गोपनीय भी है। आशा है, प्रार्थना है कि हम उसके लिए तैयार हैं। हम सुन सकते हैं क्योंकि आप भगवत गीता और भागवतम पढ़े हो। तो धीरे-धीरे आप चैतन्य चरितामृत पढ़ सकते हो। जो यहां पर संवाद है, यह संवाद वैसे जगन्नाथपुरी में हो रहा है। कुरुक्षेत्र का ही संवाद उसकी पुनरावृति हो रही है। जगन्नाथ पुरी में रथ यात्रा के समय, जगन्नाथ रथ यात्रा कुछ दिनों में संपन्न होने वाली है इसलिए हमने यह विषय खोला जा रहा है ताकि हमारी मानसिक तैयारी यात्रा के लिए होगी। हम रथ यात्रा को समझेंगे या रथ यात्रा के भाव को और उसके रहस्य को समझेंगे। हम इस उद्देश्य से इस संवाद को पढ़ रहे हैं। सिंह द्वार से जगन्नाथ पुरी में रथ यात्रा प्रारंभ हो रही है। द्वारकाधीश जगन्नाथपुरी द्वारिका है। वह द्वारकाधीश, जगन्नाथ है। ऐसी भी समझ है। हरि हरि। वैसे द्वारका धाम से कृष्ण ,बलराम और सुभद्रा कुरुक्षेत्र आए और ब्रज धाम से सारे बृजवासी आए। आपको पता है कि बृजवासी इस वक्त क्या करने वाले थे? सारे बृजवासी कृष्ण को वृंदावन लाने वाले थे। यदि आवश्यकता पड़ती तो खींच के लाने वाले थे। वही भाव जगन्नाथ रथ यात्रा के समय के हैं या जगन्नाथपुरी में वह यशस्वी प्रयत्न रहता है। रथ यात्रा प्रारंभ होती है। इस को समझाते समझाते फिर समय निकल जाता है। हम आपको इस संवाद को कब सुनाएंगे। नीलांचल जहां पर जगन्नाथ मंदिर है वहां से रथयात्रा सुंदरांचल तक जाती है। जहां पर गुंडिचा मंदिर है। रथ को खींचने वाले या जगन्नाथ, बलदेव और सुभद्रा को खीच के वहां ले जाने वाले बृजवासी होते हैं। उसमें राधा रानी भी है, गोपिया भी हैं और अन्य ब्रज के भक्त भी हैं। तो यहां पर रथ यात्रा प्रारंभ हो रही है। तो संवाद हो रहा है, कृष्ण जो रथ में विराजमान जगन्नाथ है। जो द्वारका से आए है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु राधा रानी के भाव में। *राधा कृष्ण - प्रणय - विकृति दिनी शक्तिरस्माद् एकात्मानावपि भुवि पुरा देह - भेदं गतौ तौ ।* *चैतन्याख्यं प्रकटमधुना तद्वयं चैक्यमाप्तं ब - द्युति - सुवलितं नौमि कृष्ण - स्वरूपम् ॥५५ ॥* *राधा - भाव* (आदि 1.5) अनुवाद श्री राधा और कृष्ण के प्रेम - व्यापार भगवान् की अन्तरंगा ह्लादिनी शक्ति की दिव्य अभिव्यक्तियाँ हैं । यद्यपि राधा तथा कृष्ण अपने स्वरूपों में एक हैं , किन्तु उन्होंने अपने आपको शाश्वत रूप से पृथक् कर लिया है । अब ये दोनों दिव्य स्वरूप पुनः श्रीकृष्ण चैतन्य के रूप में संयुक्त हुए हैं । मैं उनको नमस्कार करता हूँ , क्योंकि वे स्वयं कृष्ण होकर भी श्रीमती राधारानी के भाव तथा अंगकान्ति को लेकर प्रकट हुए हैं । श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु राधा भाव में और राधा के कांति को अपना के प्रकट हुए ही थे। राधा रानी जो जगन्नाथ के रथ के समक्ष हैं और उनके रास्ते के रथ के मार्ग पर है। उनके दोनों के मध्य में आदान-प्रदान संवाद होता रहता है। वह संवाद को कृष्णदास कविराज गोस्वामी लिपि बद्ध किए है। यहां चैतन्य चरितामृत मध्य लीला अध्याय 13 श्लोक संख्या 124। यदि आपके पास है, श्लोक देख सकते हो। *पूर्वे यैछे कुरुक्षेत्रे सब गोपी - गण ।* *कृष्णेर दर्शन पाञा आनन्दित मन ।।* (मध्य लीला 13.124) अनुवाद पहले, जब वृन्दावन की सारी गोपियाँ कृष्ण से कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि में मिलीं, तो वे परम प्रसन्न हुई । यदि आप पास चैतन्य चरितामृत है, तो उसको खोल सकते हो। हम मध्य लीला अध्याय 13 श्लोक संख्या 124 से कुछ 30 – 35 पयार पढ़ेंगे। अंतर और भावार्थ कहने का प्रयास करेंगे। भाषा भी कठिन है, बांग्ला भाषा है। मेरी मातृभाषा नहीं है और यहां के भावों का क्या कहना? उच्च विचार, हरि हरि या प्रेम के विचार हैं और प्रेम के भाव है और यह भी कठिन समझे जाते ही हैं। तो हम भी, इसको समझ कर, इसको सुनाने का प्रयास करते हैं। यहां पर शुरुआत हुई है। पहले कुरुक्षेत्र में गोपियों, राधा रानी भी पहुंची थी। *कृष्णेर दर्शन पाञा आनन्दित मन* और कृष्ण को मिलकर मन आनंदित हुआ। *जगन्नाथ देखि ' प्रभुर से भाव उठिल ।* *सेइ भावाविष्ट हआ धुया गाओयाइल ॥* (मध्य लीला 13.125) अनुवाद इसी तरह भगवान जगन्नाथ का दर्शन करने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु में गोपी - भाव जाग्रत हआ । इस भाव में मग्न होने के कारण उन्होंने स्वरूप दामोदर से कहा कि वे टेक गायें । जगन्नाथ को देखे है। इस दृश्य में कुरुक्षेत्र से जगन्नाथपुरी जा रहा है। कृष्ण है जगन्नाथ और राधा रानी है चैतन्य महाप्रभु। इन दोनों का मिलन हो रहा है और यह भावाविष्ठ हो रहे हैं। फिर कुछ गा भी रहे हैं। *अवशेषे राधा कृष्णे करे निवेदन ।* *सेइ तुमि , सेड़ आमि , सेड़ नव सङ्गम ।।* (मध्य लीला 13.126) अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान जगन्नाथ से इस प्रकार कहा , आप वही कृष्ण हैं और मैं वही राधारानी हैं । हम पुनः उसी प्रकार मिल रहे हैं , जिस तरह हम अपने जीवन के प्रारम्भ में मिले थे । अब राधा रानी कुरुक्षेत्र में कह रही हैं या कही थी। अब जगन्नाथपुरी में वही बातों की पुनरुक्ति हो रही है। तो राधा रानी ने कहा या कृष्ण से निवेदन किया। *सेइ तुमि* आप तो वही हो, *सेड़ आमि* मैं भी वही हूं, *सेड़ नव सङ्गम* किंतु जब हम पुन: बहुत समय के उपरांत मिल रहे हैं। कृष्ण वृंदावन से बहुत समय से दूर थे। द्वारिका में थे। उन दोनों का, कृष्ण राधा का मिलन हो रहा है। यह संगम और मिलन मानो पहली बार हम मिल रहे हैं और उस मिलन से वह भाव में आविष्ठ हो रहे हैं और मिलन उत्सव मना रहे हैं। *तथापि आमार मन हरे वृन्दावन ।* *वृन्दावने उदय कराओ आपन - चरण।।* (मध्य लीला 13.127) अनुवाद यद्यपि हम दोनों वही हैं , किन्तु आज भी मेरा मन वृन्दावन - धाम के प्रति आकृष्ट होता है । मेरी इच्छा है कि आप पुनः वृन्दावन में अपने चरणकमल रखें । राधा रानी कहती है। आप तो सुन ही रहे हो, सुनो सुनो मतलब ध्यान से सुनो या आत्मा से सुनो और आत्मा को सुनने दो। आप आत्मा हो, केवल कान से नहीं सुनना या कान से सुनी हुई बातों को, इस संवाद को हृदय तक पहुंचाओ, हृदय में आपका वास है। आत्मा हृदय में रहती है या रहता है। जो भी उसका लिंग है। *श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः |* *ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति || ३९ ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 4.39) अनुवाद जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान में समर्पित है और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरन्त आध्यात्मिक शान्ति को प्राप्त होता है | श्रद्धा से सुनो। तो राधा रानी कह रही है, कृष्ण से मिली है। कृष्ण के साथ कुरुक्षेत्र में, हम यहां मिल रहे हैं। लेकिन मेरा मन तो वृंदावन की ओर दौड़ता है। मेरा मन तो वृंदावन को ही पसंद करता है, वहां पर राधा रानी कह रही है और यही बात चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ स्वामी को कह रहे हैं। *वृन्दावने उदय कराओ आपन - चरण* यहां मिल रहे हैं अच्छी बात है। लेकिन हम आपसे वृंदावन में मिलना चाहते हैं। आप आइए अपने चरण वृंदावन में वहां पर रखिए। *इहाँ लोकारण्य , हाती , घोड़ा , रथ - ध्वनि ।* *ताहाँ पुष्पारण्य , भृङ्ग - पिक - नाद शुनि ।।* (मध्य लीला 13.128) अनुवाद कुरुक्षेत्र में लोगों की भीड़ है ; उनके हाथी , घोड़े तथा घर घर्र करते रथ हैं । किन्तु वृन्दावन में फूलों के बाग हैं और उनमें मधुमक्खियों की गुंजार तथा पक्षियों की चहचहाहट सुनी जा सकती है । राधा रानी कह रही हैं, यहां कुरुक्षेत्र में लोग अरण्य है मतलब कई सारे लोग हैं, मतलब उसमें से कुछ फालतू या सांसारिक भी हो सकते हैं। यहां पर हाथी है, घोड़े हैं और रथ चल रहे हैं। यह सब कुरुक्षेत्र से लाए हैं। यहां पर धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र का वर्णन नहीं हो रहा है, युद्ध का वर्णन नहीं हो रहा है। द्वारकाधीश जो द्वारिका में राजा है। वहां से यह सब साथ में हाथी, घोड़ा, पालकी और रथ ले आए हैं। राधा रानी कह रही है कि मुझको यह सब पसंद नहीं है। लोग अरण्य, हाथी, घोड़े और ध्वनि पसंद नही है। *ताहाँ पुष्पारण्य , भृङ्ग - पिक - नाद शुनि* वृंदावन में पुष्प अरण्य हैं। वहां पुष्प खिलते हैं। वहां मयूर और कोयल की नाद हम सुन सकते हैं। कुरुक्षेत्र और वृंदावन में यह भेद या अंतर है। या फिर यह कह सकते हो कि संसार में और धाम में यानी वृंदावन में यह अंतर है। *इहाँ राज - वेश , सड़गे सब क्षत्रिय - गण ।* *ताहाँ गोप - वेश , सङ्गे मुरली - वादन ।।* (मध्य लीला 13.129) अनुवाद यहाँ कुरुक्षेत्र में आप राजसी वेश में हैं और आपके साथ बड़े - बड़े योद्धा हैं , किन्तु वृन्दावन में आप सामान्य ग्वालबाल की तरह अपनी सुन्दर मुरली लिए प्रकट हुए थे। यहां कुरुक्षेत्र में तो आपने राजा का वेश, राजसी वेश पहना हुआ है। द्वारकाधीश जो हो इसलिए राजा जैसा वेश पहने हुए हो। आपके इर्द-गिर्द सारे सिपाही, सैन्य और क्षत्रिय हैं। *ताहाँ गोप - वेश* लेकिन वृंदावन में तो आप गोप वेश में रहते हो। यहां पर तो आप राज वेश में दर्शन दे रहे हो। कई सारे हथियार आपके हाथ में हैं। तलवार, ढाल, धनुष बाण और सुदर्शन चक्र है। किंतु वृंदावन में आप मुरली को धारण करते हो। *बजे तोमार सङ्गे येइ सुख - आस्वादन ।* *सेड़ सुख - समुद्रेर इहाँ नाहि एक कण ॥* (मध्य लीला 13.130) अनुवाद यहाँ पर उस सुखसागर की एक बूंद भी नहीं है , जिसका आनन्द मैं वृन्दावन में आपके साथ लेती हूं। जो वृंदावन का वास और वहां का जो आनंद है। राधा रानी वहां के आनंद को कह रही हैं *सुख - समुद्रेर*। वृंदावन सुख का सागर है। उस सुखसागर या आनंद की तुलना में यहां कुरुक्षेत्र में जिसका हम अनुभव कर रही हैं वह एक कण भी नहीं है। उस सिंधु आनंद के सागर के समक्ष यह तो एक बिंदु भी नहीं है। *आमा लञा पुनः लीला करह वृन्दावने ।* *तबे आमार मनो - वाञ्छा हय त ' पूरणे ॥* (मध्य लीला 13.131) अनुवाद अतएव मैं आपसे प्रार्थना करती हूँ कि आप वृन्दावन आयें और मेरे साथ लीलाविलास करें । यदि आप ऐसा करेंगे , तो मेरी मनोकामना पूरी हो जायेगी । तो राधा रानी निवेदन कर रही हैं। आइए आइए, चलो वृंदावन चलते हैं, वृंदावन लौटते हैं। वहां आप अपनी लीला खेलिए और संपन्न कीजिए। *तबे आमार मनो - वाञ्छा हय त ' पूरणे* हे कृष्ण! तब मेरी मनो वाञ्छा पूरी होगी। *भागवते आछे चैछे राधिका - वचन ।* *पूर्वे ताहा सूत्र - मध्ये करियाछि वर्णन।।* (मध्य लीला 13.132) अनुवाद मैं पहले ही श्रीमद्भागवत से श्रीमती राधारानी के कथन का संक्षिप्त वर्णन कर चुका हूँ । तो श्रीमद् भागवत में कृष्णदास कविराज, जो इस ग्रंथ के लेखक हैं। वह कह रहे हैं कि श्रीमद्भागवत में श्रीमती राधिका का वचन है। तो उसी का उल्लेख यहां पर कर रहे हैं। *सेइ भावावेशे प्रभु पड़े आर श्लोक ।* *सेइ सब लोकेर अर्थ नाहि बुझे लोक ॥* (मध्य लीला 13.133) अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने उस भावावेश में अन्य कई श्लोक सुनाये, किन्तु सामान्य लोग उनका अर्थ नहीं समझ सके। तो उस श्लोक में जो भाव है। *सेइ सब लोकेर अर्थ नाहि बुझे लोक*। तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु रथ यात्रा में जगन्नाथ के समक्ष नृत्य भी कर रहे हैं और उन्होंने यह श्लोक कहा जो वृंदावन में राधा रानी ने एक श्लोक कहा हुआ। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने रथ यात्रा के समय वह श्लोक कहने लगे या उच्चारण करने लगे। किंतु किसी को वह श्लोक समझ में नहीं आ रहा था। क्या कह रहे हैं। सुन तो रहे थे किंतु उसका भाव नहीं समझ पा रहे थे। *स्वरूप - गोसाजिजाने ना कहे अर्थ तार ।* *श्री - रूप - गोसाजि कैल से अर्थ प्रचार ।।* (मध्य लीला 13.134) अनुवाद इन श्लोकों का अर्थ स्वरूप दामोदर गोस्वामी को ज्ञात था, किन्तु उन्होंने इसे प्रकट नहीं किया । फिर भी श्री रूप गोस्वामी ने इसका अर्थ विज्ञापित किया है । आप जानते हो स्वरूप दामोदर गोस्वामी श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु के सचिव और सहायक, वह स्वयं ललिता ही है। वे तो समझ गए कि चैतन्य महाप्रभु क्या कह रहे थे। लेकिन उन्होंने किसी को भी अर्थ या भावार्थ नहीं सुनाया। किंतु रूप गोस्वामी इसको समझे भी और दूसरों को कहने लगे कि चैतन्य महाप्रभु इस श्लोक के बारे में जो कह रहे हैं उसका यह भावार्थ है। *स्वरूप सने यार अर्थ करे आस्वादन ।* *नृत्य - मध्ये सेइ श्लोक करेन पठन ।।* (मध्य लीला 13.135) अनुवाद नाचते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने निम्नलिखित श्लोक पढ़ना शुरू किया , जिसका आस्वादन उन्होंने स्वरूप दामोदर गोस्वामी के साथ किया । उसी श्लोक का अब पठन हो रहा है और उच्चारण हो रहा है। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु भी आस्वादन कर रहे हैं और उस वचन को, उन भावों को जो समझ रहे हैं, तो वह भी आस्वादन कर रहे हैं। *आहश्च ते नलिन - नाभ पदारविन्द योगेश्वरैर्हदि विचिन्त्यमगाध - बोधः ।* *संसार - कूप - पतितोत्तरणावलम्ब गेहं जुषामपि मनस्युदियात्सदा नः ॥* (मध्य लीला 13.136) अनुवाद गोपियाँ इस प्रकार बोली : हे कमल - नाभ , जो लोग भौतिक संसाररूपी गहरे कुएँ में गिर चुके हैं , उनके लिए आपके चरणकमल ही एकमात्र आश्रय हैं । आपके चरणों की पूजा तथा उनका ध्यान बड़े - बड़े योगी तथा विद्वान दार्शनिक करते हैं । हम चाहती हैं कि वे ही चरणकमल हमारे हृदयों में भी उदित हों , यद्यपि हम सभी गोपियाँ गृहस्थी के कार्यों में संलग्न रहने वाली सामान्य स्त्रीयाँ हैं। राधा रानी कह रही है *नलिन - नाभ* मतलब पद्मनाभ, हे पदारविन्द आपका स्मरण हृदय प्रांगण में योगी जन करते हैं। तो आप क्या कीजिए? *संसार - कूप - पतितोत्तरणावलम्ब* तो हम जो संसार कूप में गिरे हैं, पतित है। आप थोड़ा सहायता कीजिए। हमें उठाइए और बाहर निकालिए। हमारा उद्धार कीजिए। क्या करके? आप हमारे मन में या ह्रदय में प्रकट हो और हमारा उद्धार कीजिए। ऐसी प्रार्थना राधा रानी ने की थी। वही प्रार्थना चैतन्य महाप्रभु राधा भाव में कह रहे हैं। *अन्येर हृदय - मन , मोर मन - वृन्दावन , ' मने ' वने ' एक करि ' जानि ।* *ताहाँ तोमार पद - द्वय , कराह यदि उदय , तब तोमार पूर्ण कृपा मानि ।।* (मध्य लीला 13.137) अनुवाद श्रीमती राधारानी के भाव में श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा , अधिकांश लोगों के लिए मन तथा हृदय एक होते हैं , किन्तु मेरा मन कभी भी वृन्दावन से अलग नहीं होता , अतएव मैं अपने मन और वृन्दावन को एक मानती हूँ । मेरा मन पहले से वृन्दावन है और चूँकि आप वृन्दावन को पसन्द करते हैं , तो क्या आप अपने चरणकमल वहाँ रखेंगे ? इसे मैं आपकी पूर्ण कृपा मानूंगी । आगे चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं औरों का हृदय मन होता है। लेकिन *मोर मन - वृन्दावन* मेरा मन तो वृंदावन ही है। आप क्या सुने? *मोर मन - वृन्दावन* चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं। मेरा मन ही वृंदावन है। *मने वने एक करि जानि* मेरा मन और वृंदावन एक ही है। मेरा मन श्री वृंदावन है। मैं तो एक ही समझती हूं मेरा मन और वृंदावन। *ताहाँ तोमार पद - द्वय , कराह यदि उदय , तब तोमार पूर्ण कृपा मानि* अगर आप अपने चरण कमल मेरे मन में, जो वृंदावन ही है, वहां रखोगे तो मैं समझूंगी कि आपकी मुझ पर पूर्ण कृपा हुई। आप सुन रहे हो? *प्राण - नाथ , शुन मोर सत्य निवेदन व्रज - आमार सदन , ताहाँ तोमार सङ्गम।* *ना पाइले ना रहे जीवन ।।* (मध्य लीला 13.138) अनुवाद हे प्रभु , कृपया मेरी सच्ची विनती सुनें । मेरा घर वृन्दावन है और मैं वहाँ आपका सान्निध्य चाहती हूँ । किन्तु यदि मुझे सान्निध्य नहीं मिला , तो मेरा जीवन दूर्भर हो जायेगा । हे प्राण नाथ, राधा रानी कह रही है, चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं। मेरे सत्य निवेदन को सुनो, दिल की बात कहूं? कहो कहो। तो राधा रानी कहती है *व्रज - आमार सदन* बस ब्रज ही हमारा भवन है, सदन है, निवास स्थान है। हम ब्रजवासी हैं ब्रज हमारा सदन है। *ताहाँ तोमार सङ्गम* बस हम आपसे वहां मिलना चाहती हैं। हमारा मिलन आपके साथ वृंदावन में हो। *ना पाइले ना रहे जीवन* ऐसा नहीं होगा तो हम जीवित नहीं रह पाएंगे। *पूर्वे उद्धव - द्वारे , एवं साक्षातामारे , योग - ज्ञाने कहिला उपाय ।* *तुमि – विदग्ध , कृपामय , जानह आमार हृदय , मोरे ऐछे कहिते ना युयाय ॥* (मध्य लीला 13.139) अनुवाद हे कृष्ण , जब आप पहले मथुरा में रह रहे थे , तब आपने मुझे योग तथा ज्ञान की शिक्षा देने के लिए उद्धव को भेजा था । अब आप स्वयं वही बात कह रहे हैं , किन्तु मेरा मन उसे स्वीकार नहीं करता । मेरे मन में ज्ञानयोग या ध्यानयोग के लिए कोई स्थान नहीं है यद्यपि आप मुझे अच्छी तरह से जानते हैं , फिर भी जानयोग तथा ध्यानयोग का उपदेश दे रहे हैं । ऐसा करना आपके लिए उचित नहीं है । पहले आप मथुरा पहुंचे थे और मथुरा में रहते थे। तब आपने उद्धव को भेजा था। उद्धव संदेश के साथ पत्र भी दिया था और कहा था कि हे उद्धव गोपियों को कहना मैं तो सर्वत्र हूं। मेरा ध्यान करो और ध्यान के साथ मेरे सानिध्य का लाभ उठाओ। ऐसा संदेश आप भेजे थे। *तुमि – विदग्ध , कृपामय , जानह आमार हृदय , मोरे ऐछे कहिते ना युयाय* लेकिन यह क्या उचित था? क्या वो संदेश हम गोपियों और राधा के लिए? ऐसा संदेश नही नही, उचित नही था। यह तो योगियों के लिए संदेश हो सकता है। *दैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैगायन्ति यं सामगाः ।* *ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥१ ॥* (श्रीमद भागवतम 12.13.1) अनुवाद: सूत गोस्वामी ने कहा : ब्रह्मा , वरुण , इन्द्र , रुद्र तथा मरुत्गण दिव्य स्तुतियों का उच्चारण करके तथा वेदों को उनके अंगों , पद - क्रमों तथा उपनिषदों समेत बाँच कर जिनकी स्तुति करते हैं , सामवेद के गायक जिनका सदैव गायन करते हैं , सिद्ध योगी अपने को समाधि में स्थिर करके और अपने को उनके भीतर लीन करके जिनका दर्शन अपने मन में करते हैं तथा जिनका पार किसी देवता या असुर द्वारा कभी भी नहीं पाया जा सकता - ऐसे भगवान को मैं सादर नमस्कार करता हूँ । यह योगियों के लिए उचित है किंतु ऐसा संदेश हमारे लिए उचित नही है। आप तो कृपामय हो। आप तो विनोदी भी हो। आप हमारे ह्रदय को जानते हो या नही। ऐसा संदेश हम पर लागू नहीं होता, हमारे लिए उचित नही है। अब भी आप ऐसा कह रहे हो, यह सही नहीं है। *चित्त कादि तोमा हैते , विषये चाहि लागाइते , यत्न करि , नारि कादिबारे ।* *तारे ध्यान शिक्षा कराह , लोक हासाला मार , स्थानास्थान ना कर विचारे ॥* (मध्य लीला 13.140) अनुवाद चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा , मैं अपनी चेतना आपसे हटाकर भौतिक कार्यों में लगाना चाहती हूँ , लेकिन लाख प्रयत्न करके भी ऐसा नहीं कर पाती । मैं स्वभाव से आपकी ओर उन्मुख हूँ । अतएव आपका यह उपदेश कि मैं आपका ध्यान करूँ , अत्यन्त हास्यास्पद प्रतीत होता है । इस तरह आप तो मुझे मारे डाल रहे हैं । आपके लिए अच्छा नहीं है कि आप मुझे अपने उपदेशों का पात्र समड़ । कभी-कभी हम सोचती हैं, राधा रानी कह रही हैं। हमारा चित् ध्यान स्मरण आपसे अलग करना चाहती है। आपको भूलना चाहती है। थोड़ा काम धंधे में मन लगाती हैं ताकि कृष्ण को भूल जाए। *यत्न करि , नारि कादिबारे* लेकिन ऐसा प्रयत्न करने पर भी हम आप से अलग नहीं हो सकती। *मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् |* *कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च || ९ ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 10.9) अनुवाद मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं, उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते तथा मेरे विषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आनन्द का अनुभव करते हैं। हमारा चित् तो आप में लगा हुआ है और आपके चरण कमलों से चिपका हुआ है। *तारे ध्यान शिक्षा कराह , लोक हासाला मार , स्थानास्थान ना कर विचारे* यह जो शिक्षा है कि हम सर्वत्र है, हमारा ध्यान करो। यह तो ऐसा सत्य है कि आप हमारी जान लेना चाहते हो क्या? ऐसा विचार तो *स्थानास्थान* या किस व्यक्ति को क्या प्रचार करना चाहिए, यह कला आप नही सीखे। योगियों को एक बात कहनी चाहिए, कर्मियों को दूसरी बात कहनी चाहिए, गोपियों को कोई और बात कहनी चाहिए। सद असद विवेक आपको नही है क्या। *नहे गोपी योगेश्वर , पद - कमल तोमार , ध्यान करि ' पाइबे सन्तोष।* *तोमार वाक्य - परिपाटी , तार मध्ये कुटिनाटी , शुनि ' गोपीर आरो बाढ़े रोष ॥* (मध्य लीला 13.141) अनुवाद गोपियाँ योगियों जैसी नहीं हैं । वे आपके चरणकमलों का ध्यान करने एवं तथाकथित योगियों का अनुकरण करने मात्र से कभी तुष्ट नहीं होंगी । गोपियों को ध्यान की शिक्षा देना एक अन्य कार का रुल्न है । जब उन्हें योगाभ्यास करने उपदेश दिया है , तब वे तनिक भी सन्तुष्ट और अधिक नाराज हो जाती हैं । हे कन्हिया, हम आपका ध्यान करके हमको संतोष नहीं होता है। हम योगिनी नही बनना चाहती है। हमारे लिए योगी बनना संभव नहीं है। हमे उसमे कोई संतोष नहीं है। तुम ऐसा जब हमको समझाते हो कि हमारा ध्यान किया करो, हम सर्वत्र है, हम तुमसे अलग थोड़ी ही है। यह जो वचन है इसमें आपकी *कुटिनाटी* है। आप का वचन *कुटिनाटी* कपट जैसा होता है। जब हम यह वचन सुनते हैं तब हमको तो क्रोध आता है, हम आपसे अधिक नाराज हो जाती है। आप हमको ऐसा क्यों सुनाते हो? *देह - स्मृति नाहि यार , संसार - कूप काहाँ तार , ताहा हैते ना चाहे उद्धार ।* *विरह - समुद्र - जले , काम - तिमिङ्गिले गिले , गोपी - गणे नेह ' तार पार ।।* (मध्य लीला 13.142) अनुवाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने आगे कहा , गोपियाँ विरह रूपी महासागर में गिर गई हैं और उन्हें आपकी सेवा करने की अभिलाषा रूपी तिमिंगल मछली निगले जा रही है । शुद्ध भक्त होने के कारण गोपियों को इन तिमिंगल मछलियों से बचाना है । उन्हें जीवन की भौतिक अनुभूति नहीं है , तो ' क्यों करें ? गोपियों को योगियों तथा ज्ञानियों द्वारा अभीष्ट मुक्ति नहीं चाहिए , क्या अस्तित्व के सागर से मुक्त हो चुकी हैं । जिनको देह की स्मृति नही है, देह का भान नहीं है। तो उनको क्या चिंता। जिन्हे इस संसार रूप कूप की चिंता नहीं है। उनका तो पहले उद्धार हो चुका है क्योंकि हमको तो देह का भान भी नहीं है। उस प्रकार का उद्धार संसारी लोगों जैसा हम नही चाहते। हम तो आपके विरह के समुद्र जल में डूब रही है। आपको क्या करना चाहिए? *तिमिङ्गिले* नाम की मछली से बचाइए। हमे काम वासना से बचाइए। हमें काम से बचाइए। जो काम रूपी नाम की तिमिङ्गिले मछली है उस से बचाइए ताकि वह हमको निगल ना जाए ऐसा कुछ कीजिए। *गोपी - गणे नेह ' तार पार* गोपी गणों को हमे उस समुद्र के पार ले जाओ। काम तिमिङ्गिले से हमारी रक्षा करो। *वृन्दावन , गोवर्धन , यमुना - पुलिन , वन , सेड़ कुजे रासादिक लीला ।* *सेइ व्रजेर व्रज - जन , माता , पिता , बन्धु - गण , बड चित्र , केमने पासरिला ॥* (मध्य लीला 13.143) अनुवाद यह विचित्र बात है कि आप वृन्दावन की भूमि को भूल गये हैं । भला आप अपने पिता , माता तथा मित्रों को कैसे भूल गये ? आपने गोवर्धन पर्वत , यमुना - तट तथा उस वन को , जहाँ आप रासनृत्य का आनन्द लूटते थे , किस तरह भुला दिया ? क्या हो जाए? वृंदावन धाम की जय। गोवर्धन की जय। द्वादश कानन वन वहां के कुंजो में, हे प्रभु रास आदि लीलाएं संपन्न हो जाए। *सेइ व्रजेर व्रज - जन , माता , पिता , बन्धु - गण , बड चित्र , केमने पासरिला* वृंदावन के जो ब्रज जन है, उसमे आपकी माता है, आपके पिता है, बंधु गण है, गाय है, बछड़े है, मित्र है, ये है वो है। आप इन सब को कैसे भुल गए? बड़ी विचित्र बात है, अचरज वाली बात है। लगता है कि आप सबको भूल गए हो। *विदग्ध , मृद , सद्गुण , सुशील , स्निग्ध , करुण , तुमि , तोमार नाहि दोषाभास ।* *तब ये तोमार मन , नाहि स्मरे व्रज - जन , से आमार दुर्दैव - विलास ॥* (मध्य लीला 13.144) अनुवाद हे कृष्ण , आप समस्त सद्गुणों से युक्त शिष्ट महानुभाव हैं । आप सदाचारी हैं , नम्र हृदय वाले तथा दयालु हैं । मैं जानती हूँ कि आपमें दोष का लेशमात्र भी नहीं है , फिर भी आपका मन वृन्दावनवासियों का स्मरण तक नहीं करता । यह हमारे दुर्भाग्य के अलावा और क्या हो सकता है ? राधा रानी कह रही है कि आप तो सुसंस्कृत हो, आप तो मृदु हो, आप तो सद्गुणी हो, आप तो सुसुशील हो, आप तो स्निग्ध हो, आप करूण हो। वैसे आप में कोई दोष नही है। हम आपको दोषारोपण नही करना चाहती। तो समस्या क्या है? *तब ये तोमार मन , नाहि स्मरे व्रज - जन , से आमार दुर्दैव - विलास* आप का कोई कसूर नहीं है। यह हमारा दुर्दैव है कि आप ब्रजवासियों को भूल गए हो। हमको भूल गए हो। यह हमारा दुर्दैव है। *ना गणि आपन - दुःख , देखि ' व्रजेश्वरी - मुख , व्रज - जनेर हृदय विदरे ।* *किवा मार व्रज - वासी , किबा जीयाओ बजे आसि ' , केन जीयाओ दुःख सहाइबारे ।।* (मध्य लीला 13.145) अनुवाद मुझे अपने निजी दुःख की परवाह नहीं है , किन्तु जब मैं माता यशोदा का खिन्न मुखड़ा तथा आपके कारण समस्त वृन्दावनवासियों के भग्न हृदयों को देखती हूँ , तो मुझे आश्चर्य होता है कि आप कहीं उन सबको मारना तो नहीं चाहते या आप यहाँ आकर उन्हें जीवनदान देना चाहते हैं ? आप क्यों उन्हें कष्टप्रद स्थिति में जिन्दा रखना चाहते हैं ? राधा रानी कहती है कि हमारे दुख, विरह, व्यथा को आप भूल जाओ। लेकिन वो ब्रजेश्वरी यशोदा मैया के मुख की ओर तो देखो। *व्रज - जनेर हृदय विदरे* उनके चेहरे को देखती है तो हमारा हृदय वृद्रिण होता है, आपको कोई फरक नही पड़ता क्या? *किवा मार व्रज - वासी , किबा जीयाओ बजे आसि ' , केन जीयाओ दुःख सहाइबारे* क्या आप ब्रजवासियों की जान लेना चाहते हो? *किबा जीयाओ बजे आसि* यहां आकर आप उनको जीवन दान नही देना चाहते हों क्या? आप ब्रज वासियों को जीने दो और जीकर उनको दुख झेलने दो। जान ले लेते तो अच्छा होता। लेकिन आप उनकी जान नहीं ले रहे हो। वह जी तो रहे है परंतु वह दुखी हो रहे ऐसा चाहते हो क्या? *तोमार ये अन्य वेश , अन्य सङ्ग , अन्य देश , व्रज - जने कभु नाहि भाय ।* *व्रज - भूमि छाड़िते नारे , तोमा ना देखिले मरे , व्रज - जनेर कि हबे उपाय॥* (मध्य लीला 13.146) अनुवाद वृन्दावन के निवासी आपको न तो राजकुमार के वेश में देखना चाहते हैं , न ही वे चाहते हैं कि आप अनजाने देश में महायोद्धाओं की संगति करें । वे वृन्दावन भूमि को छोड़ नहीं सकते और आपकी उपस्थिति के बिना वे सब मर रहे हैं । न जाने उनकी कैसी दशा होगी ? राधा रानी कह रही है कि आप जो अन्य देश में, ब्रज के बाहर कहीं रहते हो। औरों का संग करते हो। वेश भी आपका राजवेश, कुछ गोपवेश जैसा नही है। ब्रज वासियों को ये सब अच्छा नहीं लगता। प्रदेश में रेहना ,दूसरा कोई वेश पहनना और ब्रज वासियों को छोड़कर औरों का संग करना। *व्रज - भूमि छाड़िते नारे , तोमा ना देखिले मरे , व्रज - जनेर कि हबे उपाय* ब्रज भूमि को हम तो छोड़ना नहीं चाहती। लेकिन ब्रज में रहकर लगभग आपके बिना जान जा रही है। *व्रज - जनेर कि हबे उपाय* अब क्या होगा ? क्या उपाय है? *तुमि - व्रजेर जीवन , व्रज - राजेर प्राण - धन , तुमि ब्रजेर सकल सम्पद् ।* *कृपार्द्र तोमार मन , आसि ' जीयाओ व्रज - जन , व्रजे उदय कराओ निज - पद ।।* (मध्य लीला 13.147) अनुवाद हे कृष्ण , आप वृन्दावन धाम के प्राण और आत्मा हैं । आप विशेषकर नन्द महाराज के जीवन हैं । आप वृन्दावन भूमि में एकमात्र ऐश्वर्य हैं और आप अत्यन्त कृपालु हैं । कृपा करके आइये और सभी वृन्दावनवासियों को जीवन दीजिये । कृपया वृन्दावन में पुनः अपने चरणकमल रखिये । राधा रानी पहले यशोदा माता के बारे में कह रही थी अब नंद बाबा के बारे में कह रही है। *तुमि - व्रजेर जीवन , व्रज - राजेर प्राण - धन , तुमि ब्रजेर सकल सम्पद् ।* ब्रज राज के आप प्राण धन हो। नंदबाबा के आप प्राण धन हो। ब्रज वासियों के आप जीवन हो। आप ही उनकी संपत्ति हो। *कृपार्द्र तोमार मन , आसि ' जीयाओ व्रज - जन , व्रजे उदय कराओ निज - पद* आप तो कृपार्द्र, दयालु हो। आइए आइए ब्रजवासियों को जीवनदान दीजिए और जीवित रखिए। *व्रजे उदय कराओ निज - पद* अपने चरण कमल वृंदावन में रखिए। *शुनिया राधिका - वाणी , व्रज - प्रेम मने आनि , भावे व्याकुलित देह - मन ।* *व्रज - लोकेर प्रेम शुनि ' , आपनाके ' ऋणी ' मानि ' , करे कृष्ण तारे आश्वासन।* (मध्य लीला 13.148) अनुवाद श्रीमती राधारानी के वचनों को सुनकर भगवान् कृष्ण में वृन्दावनवासियों के प्रति प्रेम जाग्रत हो आया और उनका तन तथा मन अत्यन्त व्याकुल हो उठा । अपने प्रति उनके प्रेम की बात सुनकर भगवान् नेआश्वासन दिया। अब यह मोड़ है। कृष्ण अब तक राधा रानी को सुन रहे थे और राधा रानी के भाव भक्ति, प्रेम के विचार, विरह की व्यथा सुनकर व्याकुल हुए। अब उनको सारे बृजवासी और वृंदावन याद आ रहे हैं। वह सब भूलते तो नही पर इस प्रसंग में ऐसा कहना पड़ता रहा है कि वे दुबारा सब कुछ स्मरण कर रहे है। *व्रज - लोकेर प्रेम शुनि ' , आपनाके ' ऋणी ' मानि ' , करे कृष्ण तारे आश्वासन* कृष्ण राधा रानी से ब्रजवासियों के प्रेम की कहानी सुनते हैं। कृष्ण स्वयं को ऋणी मान रहे है। कृष्ण अपने विचार व्यक्त करेंगे और अपने विचारो का आस्वादन कृष्ण स्वयं भी करेंगे और राधा रानी भी करने वाली हैं और हमको भी आस्वादन करना है। *प्राण - प्रिये , शुन , मोर ए - सत्य - वचन तोमा - सबार स्मरणे , झुरों मुजि रात्रि - दिने ।* *मोर दुःख ना जाने कोन जन ।।* (मध्य लीला 13.149) अनुवाद प्रिय श्रीमती राधारानी ! कृपया मेरी बात सुनो । मैं सच कह रहा हूँ । मैं तुम समस्त वृन्दावनवासियों की याद कर - करके रात - दिन रोता रहता कोई नहीं जानता कि इससे मैं कितना दुःखी हो जाता हूँ । कृष्ण अपने दिल की बात यहां कह रहे है। हे प्राणप्रिय, सुनो सुनो, मेरे सत्य वचन को सुनो। मैं सच कहता हूं। तुमको तो मैं कभी नहीं भूल सकता हूं। रात दिन आप सभी ब्रजवासियों का ही तो मै रोते हुए स्मरण करता रहता हूं। लेकिन मेरे दुख को कोई नहीं जानता। मैं किसको सुनाऊं? मेरे दुख को कौन समझेगा? *व्रज - वासी यत जन , माता , पिता , सखा - गण , सबे हय मोर प्राण - सम ।* *तौर मध्ये गोपी - गण , साक्षात्मोर जीवन , तुमि मोर जीवनेर जीवन ।।* (मध्य लीला 13.150) अनुवाद श्रीकृष्ण ने आगे कहा , वृन्दावन धाम के सारे निवासी - मेरे माता , पिता , ग्वालसखा तथा अन्य सभी मेरे प्राणों के समान हैं । वृन्दावन के सारे निवासियों में से गोपियाँ तो मेरे प्राण के समान हैं और गोपियों में , हे राधारानी ! तुम मुख्य हो । अतएव तुम मेरे जीवन का भी जीवन हो। वृंदावन के सभी बृजवासी जन, मेरे माता पिता, मेरे सखा, मेरी गाय, मेरा वृंदावन, मेरे लिए सभी प्राण के समान है या मेरे प्राण ही है। उन सभी में गोपिया जो है। वह साक्षात मेरा जीवन है और हे राधा रानी, तुम तो मेरे जीवन का भी जीवन हो। *तोमा - सबार प्रेम - रसे , आमाके करिल वशे , आमि तोमार अधीन केवल ।* *तोमा - सबा छाड़ाना , आमा दूर - देशे लत्रा , राखियाछे दुर्दैव प्रबल ॥* (मध्य लीला 13.151) अनुवाद हे श्रीमती राधारानी ! मैं तुम सबके प्रेम के अधीन हूँ । मैं तो एकमात्र तुम्हारे वश में हूँ । तुमसे मेरा विछोह तथा दूर स्थान में मेरा प्रवास मेरे प्रबल दुर्भाग्य के कारण ही हुआ है । मैं तो आप सब के अधीन हूं। आप सभी ने मुझे वशीभूत किया हुआ है। आप सभी ने मुझे जीत लिया है। *तोमा - सबा छाड़ाना , आमा दूर - देशे लत्रा , राखियाछे दुर्दैव प्रबल* राधा रानी ने पहले अपने दुर्दैव की बात की थी। अब कृष्ण अपने दुर्दैव की बात कह रहे है। वे कह रहे है कि मैं जो दूर देश में रहता हूं और ब्रज में नही रहता हूं। अन्य स्थान पर रहता हूं। न चाहते हुए भी मुझे रहना पड़ता है। यह दुर्दैव है, बलवान है यह दुर्दैव जो मुझे व्रज से दूर रख रहा है। *प्रिया प्रिय - सङ्ग - हीना , प्रिय प्रिया - सङ्ग विना , जीये , ए सत्य प्रमाण ।* *मोर दशा शोने यबे , तार एड दशा हबे , एइ भये दुहे राखे प्राण ॥* (मध्य लीला 13.152) अनुवाद जब किसी स्त्री का उसके प्रेमी से विछोह होता है या कोई पुरुष अपनी प्रिया से विलग होता है , तो उनमें से कोई भी जीवित नहीं रह सकता । यह तथ्य है कि वे एक - दूसरे के लिए जीवित रहते हैं , क्योंकि यदि इनमें से कोई मरता है , तो दूसरा इसे सुनते ही मर जाता है । प्रिय और प्रिया से विरह के व्यथा के कारण आदमी आत्महत्या भी कर सकता है। लेकिन वह जानता है कि मैं आत्महत्या करूंगा तो प्रिया भी आत्महत्या करेगी। इसीलिए उसको जीवित देखने के लिए अपनी जान नही लेता या फिर अपने दुख को प्रिया को नही सुनाता ताकि प्रिया दुखी हो। *एइ भये दुहे राखे प्राण* इसलिए प्रिय और प्रिया को जीवित रहते है क्योंकि दूसरे को वह जीवित देखना चाहते हैं। *सेड़ सती प्रेमवती , प्रेमवान्सेड़ पति , वियोगे ये वाञ्छे प्रिय - हिते ।* *ना गणे आपन - दुःख , वाञ्छे प्रियजन - सुख , सेड़ दुइ मिले अचिराते ॥* (मध्य लीला 13.153) अनुवाद ऐसी प्रेमवती सती पत्नी तथा प्रेमवान पति , विरह में एक - दूसरे की शुभकामना करते हैं और अपने निजी सुख की परवाह नहीं करते । वे एक - दूसरे के कल्याण की ही कामना करते रहते हैं । ऐसे प्रेमी - प्रेमिका दोनों शीघ्र ही फिर से मिलते हैं । वही सती है जो प्रेमवती है और वही पति है जो प्रेमवान है। सती होती है प्रेमवती और पति होता है प्रेमवान। *ना गणे आपन - दुःख , वाञ्छे प्रियजन - सुख , सेड़ दुइ मिले अचिराते* अपने स्वयं के दुख की अधिक चिंता नहीं करेते और जो औरों का सुख चाहता है। तो ऐसे व्यक्ति जो बिछड़ गए है, वियोग हो चुका है। वे तुरंत ही एक दूसरे को मिल जाते है, उनका मिलन हो जाता है। *राखिते तोमार जीवन , सेवि आमि नारायण , तार शक्त्ये आसि निति - निति ।* *तोमा - सने क्रीड़ा करि ' , निति याइ यदु - पुरी , ताहा तुमि मानह मोर स्फूर्ति ।।* (मध्य लीला 13.154) अनुवाद तुम मेरी अत्यन्त प्रिय हो और मैं जानता हूँ कि तुम मेरे बिना एक क्षण तुम्हें जीवित रखने के लिए ही मैं भगवान् नारायण की पूजा करता हूँ । उनकी कृपामयी शक्ति से मैं तुम्हारे साथ लीला करने के लिए नित्य वृन्दावन आता हूँ । फिर मैं द्वारका धाम लौट जाता है । इस तरह तुम वृन्दावन में सदैव मेरी उपस्थिति का अनुभव कर सकती हो । मैं नारायण की आजकल आराधना कर रहा हूं। नारायण की कृपा से क्या मुझे कुछ विशेष बुद्धि, सामर्थ्य और शक्ति प्राप्त हो रही है और इसलिए मैं जीवित भी रह रहा हूं। इसका परिणाम यह भी होता है कि मैं वैसे तुमको समय समय पर मिलने आता हूं। मैं द्वारका में रहता हूं पर वृंदावन मिलने आता हूं। *तोमा - सने क्रीड़ा करि ' , निति याइ यदु - पुरी , ताहा तुमि मानह मोर स्फूर्ति* मैं वृंदावन आता हूं। तुम्हारे साथ रास क्रीडा खेलता हूं इत्यादि और पुन: मैं द्वारका लौटता हूं, जब मैं आता हूं तब तुम सुफर्त रहती हो। मेरे संग का लाभ प्राप्त करती रहती हो। *मोर भाग्य मो - विषये , तोमार ने प्रेम हये , सेइ प्रेम - परम प्रबल ।* *लुकाजा आमा आने , सग कराय तोमा - सने , प्रकटेह आनिबे सत्वर ।।* (मध्य लीला 13.155) अनुवाद हमारा प्रेम - व्यापार इतना शक्तिशाली इसीलिए है , क्योंकि सौभाग्यवश मुझे नारायण की कृपा प्राप्त है । इससे मैं दूसरों से अप्रकट होकर वहाँ आ सकता हूँ । मुझे आशा है कि शीघ्र ही मैं सबको दिख सकूँगा । मैं वैसे छिप छिप कर आता हूं और तुम्हारे साथ क्रीडा करता हूं। किंतु अब क्या होगा? तुरंत ही भविष्य में सचमुच वृंदावन में आकर रहने वाला हूं। वृंदावन में आना जाना होता रहता है छिप छिप कर आता हूं। हे राधे, लेकिन अब वहां आकर मैं प्रकट होंगा और वही रहूंगा। अब कुछ ही समय बाकी है। *यादवेर विपक्ष , यत दुष्ट कंस - पक्ष , ताहा आमि कैलुं सब क्षय।* *आछे दुइ - चारि जन , ताहा मारि ' वृन्दावन , आइलाम आमि , जानिह निश्चय ॥* (मध्य लीला 13.156) अनुवाद मैं यदुवंश के उत्पाती असुर शत्रुओं को पहले ही मार चुका हूँ और मैंने कंस तथा उनके मित्रों का भी वध कर दिया है । फिर भी दो - चार असुर अभी भी बचे हुए हैं । मैं उन्हें मारना चाहता हूँ और उनका वध करने के बाद मैं शीघ्र ही वृन्दावन लौट आऊँगा। इसे तुम निश्चित जानो । यादव के जो विपक्ष में जो भी दुष्ट है , शत्रु है। उनका तो मैंने वध किया हुआ है। जैसे कंस है, उनको तो मेने यमपुरी भेजा है। कइयों की मैंने जान ली है। *परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।*| *धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे || ८ ||* (श्रीमद्भगवद्गीता 4.8) अनुवाद भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ | दुष्टो का संहार कर चुका हूं। अब दो चार बाकी है। उसके बाद मेरे को कहां आना है? सीधा मैं वृंदावन ही आऊंगा। यह बात निश्चित है। *सेड़ शत्रु - गण हैते , व्रज - जन राखिते , रहि राज्ये उदासीन हजा ।* *येबा स्त्री - पुत्र - धने , करि राज्य आवरणे , यदु - गणेर सन्तोष लागिया ।* (मध्य लीला 13.157) अनुवाद मैं वृन्दावन के निवासियों को अपने शत्रुओं के हमलों से बचाना चाहता हूँ । इसीलिए मैं अपने राज्य में रहता हूँ , अन्यथा मैं अपने राजसी पद के प्रति उदासीन हूँ । मैं राज्य में जो भी पलियाँ , पुत्र धन रखता हैं , वे सारे के सारे केवल यदुओं के सन्तोष के लिए हैं । मैं भी तो प्रसन्न नही हूं, मै भी तो उदासीन हूं। मुझे भी तो वृंदावन आना है। कृष्ण कह रहे है कि मैं अगर बचे हुए असुरों का संहार करे बिना वृंदावन आ जाऊंगा तो ये असुर और राक्षस वृंदावन पहुंच जायेंगे। वहां उत्पात मचेगा इसलिए मैं दूर रहता हूं। द्वारका रहता हूं। *येबा सेड़ शत्रु - गण हैते , व्रज - जन राखिते।* ब्रजवासियों की रक्षा के लिए दूर रहता हूं। *येबा स्त्री - पुत्र - धने , करि राज्य आवरणे , यदु - गणेर सन्तोष लागिया ।* यहां मेरा रहना तो वैसे मुझे अच्छा नहीं लगता है। किंतु लेकिन यादुओं की प्रसन्नता के लिए मैं यहां इच्छा नहीं होते हुए भी रहता हूं और यह अंतिम प्रयार है। *तोमार ये प्रेम - गुण , करे आमा आकर्षण , आनिये आमा दिन दश बिशे ।* *पुनः आसि ' वृन्दावने , व्रज - वधू तोमा - सने , विलसिब रजनी - दिवसे ॥* (मध्य लीला 13.158) अनुवाद तुम्हारे प्रेममय गुण मुड़ो सदैव वृन्दावन की ओर खींचते रहते हैं । वे दस - बीस दिनों में मुडो , निश्चय ही , वापस बुला लेंगे और लौटने पर मैं तुम्हारे तथा व्रजभूमि की सारी बालाओं के साथ रात - दिन विलास करूँगा । तुम्हारा जो प्रेम है, तुम्हारी जो भक्ति है मुझे वृंदावन की ओर आकृष्ट कर रही है। बस अब 10–20 दिन की बात है तो मैं पुनः वृंदावन पहुंचने वाला हूं। *पुनः आसि ' वृन्दावने , व्रज - वधू तोमा - सने , विलसिब रजनी - दिवसे* पुनः जब वृंदावन आ जाऊंगा। तुम *व्रज - वधू* राधा रानी और गोपियां, तुम्हारे साथ मैं विलास करूंगा। कितने समय के लिए और फिर मुझे क्या करना है? मैं यही तुम्हारे साथ रहूंगा, खेलूंगा, साथ में आनंद लूटेंगे। मिलन उत्सव होगा। निताई गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल।

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