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*जप चर्चा* *पंढरपुर धाम से* *3 जुलाई 2021* हरे कृष्ण!!! आज इस जप कॉन्फ्रेंस में 776 स्थानों से प्रतिभागी सम्मिलित हुए हैं। ( यहां कुछ करंट व इंटरनेट का इशू चल रहा है। ये लोग ठीक करने का प्रयास कर रहे हैं। फिर भी हम प्रारंभ तो कर ही देते हैं।) आप तैयार हो? यस! ठीक है। गौरांग! हम धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे का स्मरण कर रहे हैं। केवल कुरुक्षेत्र का ही नहीं, कुरुक्षेत्र में उपस्थित श्रीकृष्ण का भी स्मरण कर रहे हैं। श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में भगवतगीता सुनाई। *गीता सुगीताकर्तव्या किमन्य: शास्त्रविस्तरैः । या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ॥* (गीता महात्मय ४) अनुवाद :- चूँकि भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है, अतएव किसी अन्य वैदिक साहित्य को पढ़ने की आवश्कता नहीं रहती । केवल भगवद्गीता का ही ध्यानपूर्वक तथा मनोयोग से श्रवण तथा पठन करना चाहिए । केवल एक पुस्तक, भगवद्गीता, ही पर्याप्त है क्योंकि यह समस्त वैदिक ग्रंथो का सार है और इसका प्रवचन भगवान् ने किया है।” भगवतगीता के चतुर्थ अध्याय में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, "सेना भी है, सेना युद्ध करने के लिए तैयार है।" अर्जुन उवाच *सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थाप्य मेऽच्युत । यावदेतान्निरिक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।। कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे ।।* ( श्रीमद् भगवतगीता १.२१-२२) अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – हे अच्युत! कृपा करके मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले चलें जिससे मैं यहाँ युद्ध की अभिलाषा रखने वालों को और शस्त्रों कि इस महान परीक्षा में, जिनसे मुझे संघर्ष करना है, उन्हें देख सकूँ। दोनों सेनाओं के मध्य में मेरे रथ को खड़ा करो। पार्थ के सारथी श्रीकृष्ण ने वैसे ही किया है। दोनों सेनाओं के मध्य में पहुंचने पर बहुत कुछ हुआ। हरि! हरि! *क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते । क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्तवोत्तिष्ठ परन्तप।।* ( श्रीमद् भगवतगीता 2.3) अनुवाद- हे पृथापुत्र! इस हीन नपुंसकता को प्राप्त मत होओ | यह तुम्हेँ शोभा नहीं देती | हे शत्रुओं के दमनकर्ता! हृदय की क्षुद्र दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़े होओ। अर्जुन का हृदयदौर्बल्यं हो रहा था अर्थात उसके मन की स्थिति डांवाडोल हो रही थी। सञ्जय उवाच *एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तपः न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।* ( श्रीमद् भगवतगीता २.९) अनुवाद:- संजय ने कहा – इस प्रकार कहने के बाद शत्रुओं का दमन करने वाला अर्जुन कृष्ण से बोला, “हे गोविन्द! मैं युद्ध नहीं करूँगा,” और चुप हो गया । मैं लड़ाई नहीं करूंगा। *कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः | यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ।।* ( श्रीमद् भगवतगीता २.७)) अनुवाद:- अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ | अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृप्या मुझे उपदेश दें । तब उन्होंने शिष्यस्तेऽहं भी कहा। शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।मैं आपका शिष्य बन रहा हूँ। शिष्यत्व स्वीकार कर रहा हूँ। शाधि मां - मुझे आदेश उपदेश कीजिए, जिसमें मेरे कल्याण की बात है, वह मुझे सुनाइए। कृष्ण उसे सुना रहे हैं। वे सुनाते सुनाते चौथे अध्याय तक पहुंचे हैं। हम वहां से आपको यह दिव्य ज्ञान सुनाएंगे। कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं। महाभारत में लिखा है। भगवत गीता भी महाभारत ही है। भीष्म पर्व के18 अध्याय हैं। महाभारत इतिहास है। भगवतगीता का उपदेश श्रीकृष्ण ने सुनाया, यह भी इतिहास है, यह तथ्य सत्य है। वहां स्वयं कृष्ण है, अर्जुन है, बहुत कुछ है। अठारह अक्षौहिणी सेना भी है। यह सारा महाभारत है। श्री भगवानुवाच *इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् । विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।* ( श्रीमद् भगवत् गीता ४.१) अनुवाद- भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – मैंने इस अमर योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान् को दिया और विवस्वान् ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश इक्ष्वाकु को दिया | श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- इमं विवस्वते योगं - यह योग का ज्ञान मैने विवस्वान देवता को सुनाया था। प्रोक्तवानहम - कहा था। यह भूतकाल की बात है। इमं योगं- यह योग का ज्ञान है। गीता का यह जो ज्ञान है, मैने विवस्वान देवता को सुनाया था। तत्पश्चात विवस्वान्मनवे प्राह। विवस्वान सूर्य देवता है। वही बातें जो मैंने विवस्वान को सुनाई थी, वही बातें विवस्वान ने मनु को सुनाई थी। पहले प्रोक्तवानहम - कहा था। विवस्वान ने वही बाते मनु को कही। प्राह - वो भी कहा के अर्थ में ही है। तत्पश्चात मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्। मनु ने जो ज्ञान इक्ष्वाकु राजा को दिया। मैंने जो सुनाया, उसे प्रोक्तवान कहा। विवस्वान ने जो कहा, उसे प्राह कहा। तत्पश्चात मनु ने जो इक्ष्वाकु से बातें कही, उसको ऽब्रवीत् कहा गया है। संस्कृत बीच में आ जाती है।प्रोक्तवान,प्राह,ऽब्रवीत् मतलब कहा, कहा अर्थात विवस्वान ने भी कहा, मनु ने भी कहा। इतना कहकर कृष्ण चौथे अध्याय के आगे के श्लोक २ में कहते हैं। बड़ी प्रसिद्ध बात कहते हैं। *एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।* ( श्रीमद् भगवतगीता 4.2) अनुवाद:- इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु - परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई , अत: यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है । एवं' मतलब इस प्रकार। जैसे पहले श्लोक में सुनाया था- प्रोक्तवान, प्राह, अब्रवीत। इस प्रकार परम्पराप्राप्तं अर्थात परंपरा में इस ज्ञान को राज ऋषि सुनाया करते व सुनते रहे। परम्परा पर जोर दे रहे हैं। *एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप* किंतु काल के प्रभाव से यह जो ज्ञान है, जो परंपरा में दिया जाता है उसमें कुछ विकृति आती है। विकृति तो नहीं आनी चाहिए। ढक जाता है। कुछ लोग 'मेरा विचार, मेरा विचार' करते हैं अथवा अपना भाष्य सुनाते हैं। वे उस मूल ज्ञान को आच्छादित करते हैं जिसे कृष्ण कहते हैं । *स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।* अर्जुन, इस प्रकार यह ज्ञान नष्ट हुआ। नष्ट नहीं होता है लेकिन ढका जाता है, आच्छादित होता है। कुछ लोग पथभ्रष्ट करते हैं। मनगढ़ंत बातें सुना कर गीता को यथारूप नहीं सुनाते है। 'नष्टः परन्तप' कृष्ण बता रहे हैं। पहले कहा कि इस प्रकार परंपरा में ज्ञान प्राप्त किया जाता है। लेकिन काल के प्रभाव से यह ज्ञान आच्छादित होता है अथवा लोग भूल जाते हैं। इसीलिए अर्जुन को तैयार कर रहे हैं अथवा अर्जुन को बता रहे हैं कि तुम्हें मैं यह ज्ञान दे रहा हूं। आगे तृतीय श्लोक में कृष्ण कहेंगे। इस क्रम को समझिए। प्रथम श्लोक में क्या कहा था, द्वितीय श्लोक में क्या कहा और अब इस तृतीय श्लोक में क्या कह रहे हैं? *स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।* (श्रीमद् भगवतगीता 4.3) अनुवाद:- आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, तुमसे कहा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो, अतः तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो। स एव मतलब वही ज्ञान। जो ज्ञान मैंने विवस्वान को सुनाया था और विवस्वान ने मनु को सुनाया था और मनु ने इसे इक्ष्वाकु को सुनाया था, वही ज्ञान मेरे द्वारा तुम्हें आज या अभी अभी सुनाया जा रहा है। यह मोक्षदा एकादशी का दिन है। यह महाभारत युद्ध का प्रथम दिवस व प्रातः काल है। अब मैं ऐसी परिस्थिति में कुरुक्षेत्र में दोनों सेनाओं के मध्य में, प्रातः काल के समय व एकादशी के दिन मैं यह ज्ञान तुम्हें सुना रहा हूं। बगल में एक वृक्ष भी खड़ा है, वह भी साक्षी है। श्रीकृष्ण कह रहे हैं- *योगः प्रोक्तः पुरातनः* अर्थात इस पुरातन और शाश्वत ज्ञान को मैं तुम्हें पुनः आज अब यहां कुरुक्षेत्र में सुना रहा हूँ। यह भी महत्वपूर्ण बात है। मैं तुम्हें ही क्यों, औरों को क्यों नहीं सुना रहा? *स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।।* ( श्रीमद् भगवतगीता ४.३) अनुवाद: आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीन योग यानी परमेश्र्वर के साथ अपने सम्बन्ध का विज्ञान, तुमसे कहा जा रहा है, क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो, अतः तुम इस विज्ञान के दिव्य रहस्य को समझ सकते हो। तुम मेरे भक्त हो, मेरे सखा हो। वैसे और भी भक्त और सखा है लेकिन अर्जुन कुछ विशेष सखा है। लेकिन प्रिया, प्रियतर ही नहीं अपितु प्रियतम है। कृष्ण ने अर्जुन का चयन किया है। क्योंकि त्वम भक्तोऽसि। कृष्ण बड़े अभिमान के साथ कह रहे हैं कि हे अर्जुन। तुम मेरे भक्त हो, तुम मेरे सखा हो। इसीलिए रहस्यं ह्येतदुत्तमम् अर्थात जो गीता का रहस्य है जो कि उत्तम है। *राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ।।* (श्रीमद् भगवत गीता 9.2) अनुवाद :- यह ज्ञान सब विद्याओं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सर्वाधिक गोपनीय है | यह परम शुद्ध है और चूँकि यह आत्मा की प्रत्यक्ष अनुभूति कराने वाला है, अतः यह धर्म का सिद्धान्त है | यह अविनाशी है और अत्यन्त सुखपूर्वक सम्पन्न किया जाता है। यह राज विद्या है। गीता का ज्ञान राज विद्या है। राजगुह्यं - अत्यंत गोपनीय है। उत्तमं अर्थात उत्तम से परे ज्ञान है, मैं तुम्हें सुना रहा हूं। जब कृष्ण ने चौथे अध्याय के प्रारंभ में यह दो तीन बातें अर्जुन से कही - अर्जुन का संवाद तो चल ही रहा है। प्रश्न उत्तर हो रहे हैं। कॄष्ण को अर्जुन की शंकाओं का समाधान भी करना पड़ेगा। अर्जुन के प्रश्न व संशय हैं, तब चौथे अध्याय के चौथे श्लोक में अर्जुन कहेंगे- अर्जुन उवाच *अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः । कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति।।* (श्रीमद् भगवतगीता BG 4.4) अनुवाद- अर्जुन ने कहा – सूर्यदेव विवस्वान् आप से पहले हो चुके (ज्येष्ठ) हैं, तो फिर मैं कैसे समझूँ कि प्रारम्भ में भी आपने उन्हें इस विद्या का उपदेश दिया था। अर्जुन ने आगे कहा अथवा पूछा। अर्जुन ने कहा कि 'यह सब कह कर क्या डींग मार रहे हो?' अपरं भवतो जन्म- आपका जन्म तो अभी-अभी का हुआ है। आप और हम तो रिश्तेदार हैं, सगे संबंधी हैं, मेरी और आपकी उम्र में कोई ज्यादा अंतर तो नहीं है। हम समकालीन हैं, आप और मैं। अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः आपने जो अभी अभी कहा - *इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।* मैंने जो यह ज्ञान है, विवस्वान को सुनाया था। यह कैसे संभव है? विवस्वान का जन्म तो बहुत पहले का और आपका जन्म तो अभी-अभी का है? इसलिए यह कैसे सम्भव है कि विवस्वान के समय आपने गीता सुनाई। 'कथमेतद्विजानीयां'- मैं कैसे इस बात को समझ सकता हूँ। त्वमादौ प्रोक्तवानिति पहले पूर्व काल में अर्थात बहुत समय पहले की बात है, उस समय आपने विवस्वान देवता को ज्ञान दिया था। मैं इसे कैसे स्वीकार करूंगा? कहिए तो सही? आप अर्जुन के प्रश्न को समझे? शायद आपका भी ऐसा प्रश्न हो सकता है? और होना चाहिए ।कईयों का ऐसा प्रश्न होता है। श्रीभगवान कहते हैं। वे अर्जुन की खोपड़ी में कुछ प्रकाश डाल रहे हैं। *ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः* अर्जुन के दिमाग अथवा खोपड़ी में ज्ञान का अंजन डालेंगे। कृष्ण ने क्या कहा- श्रीभगवानुवाच *बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन । तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।* ( श्रीमद् भगवत गीता 4.5) अनुवाद- श्रीभगवान् ने कहा – तुम्हारे तथा मेरे अनेकानेक जन्म हो चुके हैं | मुझे तो उन सबका स्मरण है, किन्तु हे परंतप! तुम्हें उनका स्मरण नहीं रह सकता है। अर्जुन, हां, समस्या यह है कि 'बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन' -अरे अरे अर्जुन, मेरे बहुत सारे जन्म हुए हैं 'संभवामि युगे युगे' मैं पहले कई बार जन्म ले चुका हूं। बहूनि मे व्यतीतानि- कई सारे मेरे जन्म पहले व्यतीत हो चुके हैं। मेरे भी और तुम्हारे भी कई सारे जन्म हो चुके हैं। हम दोनों पहले कई बार जन्मे हैं। समस्या क्या है तान्यहं वेद सर्वाणि बहुवचन में कह रहे हैं और तब तुम्हारी भी और मेरे भी और तुम्हारे भी कई सारे जन्म हो चुके हैं। हम दोनों पहले जन्मे थे। वे जन्म मुझे भलीभांति याद है। लेकिन समस्या यह है न त्वं वेत्थ परन्तप अर्थात अर्जुन तुम भूल गए हो। जब तुम या दुनिया वाले जन्म लेते हो, तब सोचते हो कि हम पहली बार जन्मे हैं। जब हम पूछते हैं कि हाउ ओल्ड आर यू, तब वे कहते हैं कि आई एम 50 ईयर्स ओल्ड, मैं 50 साल का हूं। वे सोचते हैं कि 50 साल पहले तो मैं था ही नहीं। मैंने 50 वर्ष पहले जन्म लिया है, मैं 50 साल से ही हूं। कोई नहीं कहता कि मैं पहले भी था या शाश्वत हूं। यह समस्या है, यह समस्या अर्जुन के साथ भी थी और यही समस्या सारी दुनिया के साथ है। *तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप* हम भी इस बात को भूल जाते हैं। अर्जुन भूल चुका है या भगवान ने उसे उस परिस्थिति में भुला दिया है व अर्जुन के ऊपर मोह माया लाद दी है। इस प्रकार के विचारों अथवा भ्रम या मोह माया के चक्कर में अर्जुन को फंसा दिया है। अब वे ऐसे भ्रमित अर्जुन को ज्ञान दे रहे हैं। भगवान् अर्जुन को सारी गीता की बातें सुना कर अथवा ज्ञान देकर सीधे पटरी पर लाएंगे । तत्पश्चात अर्जुन कहने वाले हैं- अर्जुन उवाच | *नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ।।* ( श्रीमद् भगवतगीता 18.73) अनुवाद:- अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया। आपके अनुग्रह से मुझे मेरी स्मरण शक्ति वापस मिल गई | अब मैं संशयरहित तथा दृढ़ हूँ और आपके आदेशानुसार कर्म करने के लिए उद्यत हूँ । अब मैं डांवाडोल नही रहा। अब कोई संदेह नहीं रहा। 'स्थितोऽस्मि' मैं स्थिर हो गया हूँ और 'करिष्ये वचनं' मैं अपने धर्म को निभाउंगा। मैं अपने कर्तव्य और आपके आदेश का पालन करूंगा। हरि! हरि! अभी इतना ही कह सकते हैं। वैसे मैंने पहले कह ही दिया है कि यह महाभारत है। गीता महाभारत का ही अंग है। महाभारत इतिहास है। सारा घटना क्रम महाभारत अर्थात महान भारत का इतिहास है। इस इतिहास का यह विशिष्टय है कि यह कृष्ण के साथ जुड़ा हुआ है। वह कालावधि जब कृष्ण प्रकट लीला संपन्न कर रहे हैं और लीला खेलते खेलते अथवा संपन्न करते करते वह कुरुक्षेत्र तक पहुंचे हैं। वहां पर भगवान ने ऐसी विशेष परिस्थिति निर्माण की है और वहां पर गीता का उपदेश सुनाया है। *ईश्वर: परम: कृष्ण: सच्चिदानंद विग्रहः। अनादिरादिर्गोविन्दः सर्वकारणकारणम्।।* ( ब्रह्म संहिता श्लोक ५.१) अर्थ:- गोविन्द के नाम से विख्यात कृष्ण ही परमेश्वर हैं। उनका सच्चिदानंद शरीर है। वे सबों के मूल उत्स हैं। उनका कोई अन्य उत्स नहीं एवं वे समस्त कारणों के मूल कारण हैं। कई लोग ऐसा नहीं मानते हैं। उनकी शुरुआत यहां से होती है कि भगवान हैं या नहीं? है तो रूप वाले हैं या नहीं? उनका रूप है या नहीं? वे यह भी नहीं जानते कि यदि उनका रूप नहीं है तो लीला खेल सकते हैं या खेलते हैं अथवा नहीं। वह कुरुक्षेत्र में पहुंचे भी थे या कुरुक्षेत्र में थे। वे भी शायद नहीं जानते। इसलिए वे अपने अलग-अलग गीता पर भाष्य सुनाना चाहते हैं। कई अपने भाष्य की सिद्धि तथा समर्थन के उद्देश्य हेतु भगवान को मानते हैं। कुछ नहीं मानते हैं या इतना मानते हैं अथवा उतना मानते हैं। जैसे महात्मा गांधी की भी ऐसी ही मान्यता थी। उन्होंने ऐसा लिखा है- माई एक्सपेरिमेंट विथ ट्रुथ। उन्होंने सत्य के ऊपर प्रयोग किए। सत्य के ऊपर प्रयोग नहीं करना होता है। प्रभुपाद ने कहा कि अभी तक तुम्हारा सत्य पर प्रयोग ही चल रहा है मतलब तुम सत्य को नहीं जानते हो। ट्रुथ (सत्य) के साथ एक्सपेरिमेंट नहीं करना चाहिए, सत्य को स्वीकार करना चाहिए। सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव। न हि ते भगवन्व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवाः।। ( श्रीमद् भगवतगीता १०.१४) अनुवाद:- हे कृष्ण! आपने मुझसे जो कुछ कहा है, उसे मैं पूर्णतया सत्य मानता हूं। हे प्रभु! न तो देवतागण, न असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं। अर्जुन का स्टैंड क्या था, आप जो भी कह रहे हो, यन्मां वदसि केशव अर्थात अभी अभी जो मुझे सुना रहे हो 'सर्वमेतदृतं मन्ये' आप जो भी कह रहे हो, सत्य ही कहते हो। सत्य के अलावा आप कुछ नहीं कहते हो। आप जो मुझे सुना रहे हो सर्वमेतदृतं मन्ये'10वें अध्याय में श्रीकृष्ण से अर्जुन ने कहा। आप जो कह रहे हो, वह सत्य है, मुझे मंजूर है। मैं इन तथ्यों के साथ प्रयोग नहीं करूंगा महात्मा गांधी तो सत्य के साथ प्रयोग कर रहे थे। वे अपराध कर रहे थे, उनकी समझ है, नासमझी है। भगवान तो कुरुक्षेत्र नहीं गए। यह फिर वही बातें हैं। यह शरीर ही रथ है, इंद्रियां घोड़े हैं। इस प्रकार यह सारा वर्णन कुरुक्षेत्र का होता है। वहां के युद्ध यह दंतकथा, यह माइथोलॉजी है। लोग ऐसा मानते हैं। महात्मा गांधी ने यहां तक कहा था कि गीता का सार है- अहिंसा। हर व्यक्ति अपना अपना सार निकालता है। लोकमान्य तिलक ने जैसे कहा कि गीता का रहस्य है कर्म योग। महात्मा गांधी की समझ में और ही कुछ रहस्य आया। वे भगवान को लड़ने नहीं दे रहे हैं। भगवान् लड़ तो नहीं रहे थे लेकिन भगवान् अर्जुन को युद्ध के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। *तस्मात्सर्वेषु कालेषु, मामनुस्मर युध्य च।मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयः।।* ( श्रीमद् भगवतगीता ८.७) अर्थ:- अतएव, हे अर्जुन! तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिंतन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा करना चाहिए। अपने कर्मों को मुझे समर्पित करके तथा अपने मन एवं बुद्धि को मुझमें स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे। युद्ध करो। महात्मा गांधी की ऐसी नासमझी है अथवा गलतफहमी है कि भगवान तो हिंसक हो गए। वे हिंसा को प्रमोट कर रहे हैं तो यह कैसे भगवान हैं। नहीं! नहीं! हम नहीं मानते। वह अहिंसा को नहीं समझ रहे हैं कि अहिंसा किसको कहते हैं। हरि! हरि ! वर्ष 1970 में श्रील प्रभुपाद अपने विदेश के शिष्यों के साथ (उस समय विदेश के ही शिष्य थे। जहां तक मुझे स्मरण है, अमृतसर में गीता जयंती का उत्सव संपन्न हो रहा था। श्रील प्रभुपाद को आमंत्रण मिला था। तब प्रभुपाद अपने शिष्यों के साथ गए थे।) अमृतसर से दिल्ली लौट रहे थे, रास्ते में कुरुक्षेत्र आ गया । ट्रेन से यात्रा हो रही थी, जब रेल कुरुक्षेत्र से गुजर रही थी, तब प्रभुपाद ने अपने कंपार्टमेंट की खिड़की में से उंगली करके दिखाया कि वह देखो, वहां पर देखो, यही है धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र। सेना के मध्य में वहां पर कृष्ण खड़े थे और वहां पर उपदेश किया था। यह अंतर है। कैसे महात्मा?? हरि! हरि! *श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ज्ञानं लब्धवा शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।* ( श्रीमद् भगवतगीता ४.३९) अनुवाद:- जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान में समर्पित हैं और जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया है, वह इस ज्ञान को प्राप्त करने का अधिकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरन्त आध्यात्मिक शांति को प्राप्त होता है। प्रभुपाद की दृढ़ श्रद्धा है, यह इतिहास है। ऐसी घटना घटी थी और एक समय कृष्ण यहां थे। उन्होंने उपदेश सुनाया था। इसलिए ऐसे महात्मा ही परंपरा में आते हैं। एवं परंपरा प्राप्तं उस गीता को यथारूप सुना सकते हैं। जो परंपरा में नहीं है, जो श्रद्धालु नहीं है जिनका विश्वास ही नही है कि कृष्ण कुरुक्षेत्र में पहुंचे भी थे या नहीं। *गीता सुगीताकर्तव्या किमन्यौ: शास्त्रविस्तरैः । या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ॥* चूँकि भगवद्गीता भगवान् के मुख से निकली है, अतएव किसी अन्य वैदिक साहित्य को पढ़ने की आवश्कता नहीं रहती । केवल भगवद्गीता का ही ध्यानपूर्वक तथा मनोयोग से श्रवण तथा पठन करना चाहिए । केवल एक पुस्तक, भगवद्गीता, ही पर्याप्त है क्योंकि यह समस्त वैदिक ग्रंथो का सार है और इसका प्रवचन भगवान् ने किया है।”(गीता महात्मय ४) कृष्ण के मुख से वचन निकले थे। ऐसे लोग भगवत गीता के संबंध में क्या समझेंगे, क्या सुनाएंगे और क्या भाष्य लिखेंगे? यह सारी गुमराही ही होगी। हरि! हरि! इसलिए भी कहा है- *सम्प्रदायविहीना ये मंत्रास्ते निष्फ़ला मताः* ( पद्म पुराण) अर्थ:- यदि कोई मान्यताप्राप्त गुरु- शिष्य परंपरा का अनुसरण नहीं करता, तो उसका मंत्र या उसकी दीक्षा निष्फ़ल है। संप्रदाय के बाहर या परंपरा के बाहर मंत्र या मंत्रना या भाष्य विफल है। उससे फल प्राप्त नहीं होगा। हरि! हरि! इसलिए आप 'एवं परंपरा प्राप्तं की महिमा को जानो, समझो। भगवान इसी अध्याय में आगे कुछ श्लोकों के उपरांत कहने वाले हैं- *तद्विद्धि प्राणिपातेन परिप्रेक्षन सेवया।उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः।।* ( श्रीमद् भगवतगीता ४.३४) अनुवाद:- तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो। उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो। स्वरूपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है। जो तत्व की दृष्टा है उनसे सुनो। गीता के अध्याय उनसे प्राप्त करो। कृष्ण कहने वाले हैं *जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेति तत्वत्तः। त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सो अर्जुन।।* ( श्रीमद् भगवतगीता ४.९) अर्थ:- हे अर्जुन! जो मेरे आविर्भाव तथा कर्मों की दिव्य प्रकृति को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस भौतिक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता, अपितु मेरे सनातन धाम को प्राप्त होता है। भगवान को तत्वत्तः समझना है। हम भगवान को तत्वत्तः तभी समझते हैं जब हम परंपरा में गीता को सुनते हैं। तत्पश्चात सुनाते हैं अन्यथा चीटर एंड चीटेड होते हैं। कुछ ठगाने वाले हैं और कुछ ठग जाते हैं। दुनिया इन दो प्रकार के लोगों से भरी पड़ी है । ठगाने वाले है और ठगने वाले हैं, इसलिए सावधान रहो। हरे कृष्ण!

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