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*जप चर्चा*, *पंढरपुर धाम*, *15 अगस्त 2021* हरी हरी। हमारे साथ 777 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। एक दिन आपका भगवत धाम में स्वागत हो। नवद्वीप पैसे अच्छा होगा ना। एक दिन क्या हो जाए? आपका स्वागत भगवत धाम में हो जाए। स्वयं भगवान भी स्वागत समारोह में रहते हैं और भक्त भी रहते हैं। ऐसा कुछ करो। ऐसी कुछ करणी करो। हरि हरि। आपके चेहरे पर मुस्कान हो। आप में से कुछ थक गए हो। हरि हरि। गौरंग। यह सब जप तप करने का उद्देश्य है। क्या हो जाए? गोपाल राधे अंते नारायण स्मृति हो जाए। *एतावान् साड्ख्ययोगाभ्यां स्वधर्मपरिनिष्ठया ।* **जन्मलाभ: पर: पुंसामन्ते नारायणस्मृति: ।।* (श्रीमद् भागवतम् 2.1.6) अनुवाद: पदार्थ तथा आत्मा के पूर्ण ज्ञान से, योगशक्ति के अभ्यास से या स्वधर्म का भलीभाँति पालन करने से मानव जीवन कि जो सर्वोच्च सिध्दि प्राप्त कि जा सकती है, वह है जीवन के अन्त में भगवान् का स्मरण करना। नारायण की स्मृति अंत में हो जाए। अंत भला सो सब भला। अगर ऐसा अंत होता है *अंते नारायणस्मृति:*, तो जीवन सफल पैसा वसूल। लक्ष्य को ध्यान में रखिए। अपने लक्ष्य को को कभी ना भूलिए। उसका स्मरण रखिए। वैसे कृष्ण ही लक्ष्य हैं। सूत उवाच आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे । कुर्वन्त्यहैतुकों भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः ॥ १० ॥ (श्रीमद् भागवतम् 1.7.10) अनुवाद: जो आत्मा में आनन्द लेते हैं , ऐसे विभिन्न प्रकार के आत्माराम और विशेष रूप से जो आत्म - साक्षात्कार के पथ पर स्थापित हो चुके हैं , ऐसे आत्माराम यद्यपि समस्त प्रकार के भौतिक बन्धनों से मुक्त हो चुके हैं , फिर भी भगवान् की अनन्य भक्तिमय सेवा में संलग्न होने के इच्छुक रहते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि भगवान् में दिव्य गुण हैं, अतएव वे मुक्तात्माओं सहित प्रत्येक व्यक्ति को आकृष्ट कर सकते हैं । ऐसा सूत गोस्वामी कहे और यह शुकदेव गोस्वामी के संबंध में कहें। अभी-अभी वह कह चुके थे। शुकदेव गोस्वामी कोई अनुष्ठान और कोई संस्कार नहीं हुआ था। वह वन के लिए दौड़ पड़े। *सूत उवाच यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव ।* **पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥२ ॥* (श्रीमद् भागवतम् 1.2.2) अनुवाद: श्रील सूत गोस्वामी ने कहा : मैं उन महामुनि ( शुकदेव गोस्वामी ) को सादर नमस्कार करता हूँ जो सबों के हृदय में प्रवेश करने में समर्थ हैं । जब वे यज्ञोपवीत संस्कार अथवा उच्च जातियों द्वारा किए जाने वाले अनुष्ठानों को सम्पन्न किये बिना संन्यास ग्रहण करने चले गये तो उनके पिता व्यासदेव उनके वियोग के भय से आतुर होकर चिल्ला उठे , " हे पुत्र , " उस समय जो वैसी ही वियोग की भावना में लीन थे , केवल ऐसे वृक्षों ने शोकग्रस्त पिता के शब्दों का प्रतिध्वनि के रूप में उत्तर दिया । पिताश्री श्रील व्यासदेव पीछे दौड़ पड़े थे। शुकदेव गोस्वामी को कोई परवाह नहीं थी। किंतु फिर शुकदेव गोस्वामी ये भी कहे। *स संहितां भागवतीं कृत्वानुक्रम्य चात्मजम् ।* **शुकमध्यापयामास निवृत्तिनिरतं मुनिः ॥ ८ ॥* (श्रीमद् भागवतम् 1.7.8) अनुवाद: श्रीमद्भागवत का संकलन कर लेने तथा उसे संशोधित करने के बाद महर्षि व्यासदेव ने इसे अपने पुत्र श्री शुकदेव गोस्वामी को पढ़ाया, जो पहले से ही आत्म - साक्षात्कार में निरत थे । ऐसे शुकदेव गोस्वामी *निवृत्तिनिरतं* सेवानिवृत्त महाराष्ट्र में कहते हैं। शुकदेव गोस्वामी मुक्त हो गए थे और वन के लिए प्रस्थान किए। वह मुक्त थे। निवृत्तिनिरतं किंतु फिर उन्होंने भागवत की कथा सुन ली ही। बड़ी युक्तिपूर्वक श्रील व्यासदेव अपने पुत्र शुकदेव गोस्वामी को भागवत की कथा पढ़ाए। वह दूर ही रहते थे किंतु श्रील व्यासदेव ने अपने कुछ शिष्यों को कहे कि वन में जाओ और जोर-जोर से भागवत की कथा कहो। ओम नमो भगवते वासुदेवाय। *वासुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखाः ।* **वासुदेवपरा योगा वासुदेवपराः क्रियाः ॥२८ ॥* *वासुदेवपरं ज्ञानं वासुदेवपरं तपः ।* **वासुदेवपरो धर्मो वासुदेवपरा गतिः ॥ २ ९ ॥* (श्रीमद् भागवतम् 1.2.28-29) अनुवाद: प्रामाणिक शास्त्रों में ज्ञान का परम उद्देश्य पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर श्रीकृष्ण हैं । यज्ञ करने का उद्देश्य उन्हें ही प्रसन्न करना है । योग उन्हीं के साक्षात्कार के लिए है । सारे सकाम कर्म अन्ततः उन्हीं के द्वारा पुरस्कृत होते हैं । वे परम ज्ञान हैं और सारी कठिन तपस्याएँ उन्हीं को जानने के लिए की जाती हैं । उनकी प्रेमपूर्ण सेवा करना ही धर्म है । वे ही जीवन के चरम लक्ष्य हैं । *वासुदेव सर्वमिति* वासुदेव की कथा सुनाओ। उनके कुछ शिष्य सुनाने लगे और वो कथा सुन सुन के … * *श्रूयतां श्रूयतां नित्यं गीयता गीयता मुदा ।* **चिन्त्यतां चिन्त्यता भक्ताचैतन्य - चरितामृतम् ॥1 ॥* (अंतिम लीला 12.1) अनुवाद: हे भक्तों , श्री चैतन्य महाप्रभु का दिव्य जीवन तथा उनके गुण अत्यन्त सुखपूर्वक नित्य ही सुने , गाये तथा ध्यान किये जाए। सब समय भागवत की कथा सुननी चाहिए और बढ़े प्रेम से उस कथा को सुनाना भी चाहिए। इस प्रकार वन में ही श्रवण और कीर्तन होने लगा। तो शुकदेव गोस्वामी आकृष्ट हुए। भागवत से, भागवत कथा से आकृष्ट हुए। मतलब की भगवान से आकृष्ट हुए और इस प्रकार श्रील व्यासदेव ने भागवत कथा अपने पुत्र शुकदेव गोस्वामी को सिखाई और पढ़ाई। क्योंकि शुकदेव गोस्वामी इस कथा के प्रवक्ता बनाना चाहते थे। मैंने भागवत की रचना की है। लेकिन इसका प्रचार प्रसार करने वाला भी तो चाहिए। उन्होंने अपने पुत्र का चयन किया था और उन्होंने अपने पुत्र को शिष्य बनाया। हरि हरि। वह शिष्य बने तो और भगवान के अनन्य भक्त भी बने। शुकदेव गोस्वामी महा भागवत हुए। *नष्टप्रायेष्वभरेषु नित्यं भागवतसेवया ।* *भगवत्युत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिको ॥१८ ॥* *(श्रीमद् भागवतम् 1.2.18) * अनुवाद: भागवत की कक्षाओं में नियमित उपस्थित रहने तथा शुद्ध भक्त की सेवा करने से हृदय के सारे दुख लगभग पूर्णतः विनष्ट हो जाते हैं और उन पुण्यश्लोक भगवान् में अटल प्रेमाभक्ति स्थापित हो जाती है , जिनकी प्रशंसा दिव्य गीतों से की जाती है । वस्तुओं को निकालने का उपचार दिया गया। तो श्रील प्रभुपाद लिखते है कि भागवत दो प्रकार के होते हैं। एक व्यक्ति भागवत और दूसरा ग्रंथ भागवत। श्रीमद् भागवतम् की जय। व्यक्ति भागवत चलते फिरते भागवत। हरि हरि। तो जब अब यह शुकदेव गोस्वामी भागवत बने ही हैं। वैसे तो *निवृत्तिनिरतं* थे। वैसे ब्रह्मवादी थे। मायावादी नहीं थे। ब्रह्मवादी और मायावादी में अंतर होता है। 4 कुमार भी मायावादी नहीं थे। वह ब्रह्म वादी थे। मायावादी तो निराकार और निर्गुणवादी होते हैं। लेकिन मायावादी तो भगवान के साथ प्रतियोगिता करना चाहते हैं और भगवान बनना चाहते हैं। *अहम ब्रह्मास्मि*। मायावादी निराकार निर्गुणवादी होते हैं। ब्रह्मवादी खुले विचार के होते हैं। उनको अब ब्रह्म का साक्षात्कार हुआ है और वह आगे बढ़ना चाहते हैं। *वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् ।* **ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥११ ॥* (श्रीमद् भागवतम् 1.2.11) अनुवाद: परम सत्य को जानने वाले विद्वान अध्यात्मवादी ( तत्वविद ) इस अद्वय तत्त्व को ब्रहा, परमात्मा या भगवान् के नाम से पुकारते हैं। यह भगवान की तीन अवस्थाएं हैं या स्वरूप है कहो। ब्रह्म भी भगवान की स्वरूप है। परमात्मा भगवान का एक स्वरूप है और भगवान का स्वरूप है ही। ब्रह्म और परमात्मा के स्त्रोत भगवान है और अद्वैत। यह तीनों अलग अलग नहीं है। एक ही है। जो ब्रह्मवादी होते हैं, वह आगे बढ़ते हैं। ब्रह्म का दर्शन और साक्षात्कार और परमात्मा का साक्षात्कार और फिर भगवान साक्षात्कार भी ब्रह्मवादियों को होता है। मायावादियों को नहीं होता। तो ब्रह्मवादी थे, मुक्ता आत्मा थे। तो वह कैसे भगवान से आकृष्ट हुए? और केवल आकृष्ट ही नहीं हुए और शुकदेव गोस्वामी भगवान की भक्ति भी करने लगे। *श्रीप्रह्लाद उवाच श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।* **अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥२३ ॥* (श्रीमद् भागवतम् 7.5.23) अनुवाद: प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम , रूप , साज - सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना , उनका स्मरण करना , भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना , षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना , भगवान् से प्रार्थना करना , उनका दास बनना , भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा , वाचा , कर्मणा उनकी सेवा करना ) -शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं । जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए , क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है । यह नवविधा भक्ति में से शुकदेव गोस्वामी उनकी क्या ख्याति है? कीर्तनकार, पहले पद पर सबसे ऊपर शुकदेव गोस्वामी कीर्तनकार है। इस भक्ति के प्रतिनिधित्व करने वाले यह भक्त हैं। कीर्तन के शुकदेव गोस्वामी और श्रवण के परीक्षित महाराज और बलि महाराज आत्मनिवेदन के प्रतिनिधित्व है। शुकदेव गोस्वामी भगवान की भक्ति करने लगे। अहैतुकी भक्ति करने लगे। यह कैसे संभव हुआ? वह ब्रह्मवादी थे और मुक्तात्मा थे किंतु वह भगवान से आकृष्ट हुए और भगवान की भक्ति करने लगे और महाभागवत हुए। तो उसके उत्तर में कई सारी बातें हैं। इसी श्लोक में आत्माराम यह श्लोक प्रसिद्ध भी है। *आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे* निर्ग्रन्था मतलब कोई भव बंधन नहीं। ग्रंथि मतलब गांठ। संसार से संस्कारों के संबंधों से हम बंद जाते हैं। तो उसको हृदय ग्रंथि कहते हैं। लेकिन शुकदेव गोस्वामी बन गए निर्ग्रन्था। यह तो बात है वैसे। मुख्य कारण यहां पर बताया जा रहा है कि निर्ग्रन्था, यह सेवानिवृत्त, यह मुक्त आत्मा भगवान के भक्त कैसे हुए और भगवान से आकृष्ट कैसे हुए? *इथम भूत गुणों हरि:* भगवान ऐसे ही है से या भगवान के गुण ही ऐसे हैं, जो सभी को आकृष्ट करते हैं। *आकर्षिति स: कृष्ण* और व्यक्ति जब भक्ति करता है तब यह भक्ति कृष्ण आकर्षिणी बन जाती हैं। भगवान भी आकृष्ट होते हैं भक्त की ओर और भक्त तो होता ही है आकृष्ट भगवान की ओर। भगवान के गुणों से, भगवान के कई सारे गुण हैं। कई सारे मतलब अनगिनत, असंख्य गुण हैं। तो भी उसमें 64 गुणों का उल्लेख हुआ है, रूप गोस्वामी भक्ति रस अमृत संधू में करते हैं। उन 64 गुणों में से 60 गुण विष्णु तत्वों में या भगवान के अवतारों में पाए जाते हैं। लेकिन 4 विशेष गुण हैं, जो केवल कृष्ण में ही पाए जाते हैं। इसके कारण विशेष बन जाते हैं। असाधारण बन जाते हैं, अपवाद बन जाते हैं या फिर इसीलिए वह कह सकते हैं कहीं भी । मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय । मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥ ( भगवत गीता 7.7 ) अनुवाद:- हे धनञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है । जिस प्रकार मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ मुझ पर ही आश्रित है । मतलब राम भी नहीं, नरसिंह भी नहीं यह भी नहीं वह अवतार भी नहीं । रामदिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन् नानावतारमकरोद् भुवनेषु किन्तु । कृष्ण: स्वयं समभवत्परम: पुमान् यो गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥ ( ब्रम्ह संहिता 5.39 ) अनुवाद: -जिन्होंने श्रीराम, नृसिंह, वामान इत्यादि विग्रहों में नियत संख्या की कला रूप से स्थित रहकर जगत में विभिन्न अवतार लिए, परंतु जो भगवान श्री कृष्ण के रूप में स्वयं प्रकट हुए, उन आदिपुरुष भगवान् गोविंद का मैं भजन करता हूंँ । परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ( भगवद् गीता 4.8 ) अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ । चलता ही रहता है लेकिन उन सभी में मैं जो कृष्ण हूं "मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति" कोई भी नहीं है । जीवो को तो भूल ही जाओ और देवताओं को तो दूर रखो यहां तक की अवतार जो है यह भी मेरे जैसे नहीं है, मेरे समकक्ष नहीं है । "समुर्ध्वंम" "असमुर्ध्वंम" कहा है । भगवान कैसे हैं असम "समुर्ध्वंम" सम और उर्ध्व "समुर्ध्वं" और आगे अ लिखा है । "असमुर्ध्वं" अ मतलब नहीं तो कृष्ण जैसे कोई नहीं है और "ऊर्ध्व" मतलब ऊपर । 10 दिशाओं में 9वी दिशाओं है, वैसे पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, अग्नेर, नैरति, वायु, विशान्य यह 8 दिशाएं हुई और फिर 9वी दिशा है । 10 दिशा कहते हैं ना 10 दिशा पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, अग्नेर, नैरति, वायु, विशान्य 8 हो गई । ऊर्ध्वंम एक । एक दिशा है ऊपर "उर्ध्वंम" और फिर "अधः" नीचे तो भगवान इस शब्द में कहा है "असमुर्ध्वं" कृष्ण के समान भी कोई नहीं है और "ऊर्ध्वम" का फिर प्रश्न ही नहीं है, समान ही नहीं है कोई तो उर्ध्व को भूल ही जाओ तो ऐसे हैं कृष्ण तो ऐसे कृष्ण क्यों बने हैं कैसे बने हैं तो "ईथम् भुत गुणो हरिः" इस आत्माराम श्लोक में जो ग्रंथ राज श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध के सातवें अध्याय का यह 10 वा श्लोक है । आप इसे चाहे तो नोट कर सकते हैं तो कृष्ण के जो गुण है विशेष गुण है तो वह गुण है भक्ति रसामृत सिंधु में रूप गोस्वामी प्रभुपाद समझाते हैं भगवान का वेणुमाधुर्य । यह कृष्ण का वैशिष्ट्य है । वेणुमाधुर्य, लीलामाधुर्य, रूपमाधुर्य, प्रेममाधुर्य ऐसा कहने वाला एक श्लोक भी है भक्ति रसामृत सिंधु में । आप खोज सकते हो तो इन गुणों के कारण "ईथम् भुत गुणो हरिः" तो प्रश्न पूछा गया था की ; क्या हुआ कैसे हुआ यह सुकदेव गोस्वामी जैसा यह निवृत्ति नीरोत्तम यह मुक्त आत्मा यह भगवान से कैसे आकृष्ट हुआ ? और भगवान का भक्ति कैसे करने लगा ? "कुरूर्वंति अहेतुकी भक्तिम्" या "ऊरुक्रमें" ऊरुक्रम ही, भगवान का एक संबोधन है "ऊरुक्रम" तो ऐसे हैं कृष्ण । इसी के साथ वैसे कृष्ण का गौरव हो रहा । कृष्णा के गुणों का उल्लेख हो रहा है और यह गुण भी ऐसा हम कहते रहते हैं, अगर हम समझ सकते हैं तो, तो यह गुण भी भगवान है । अभी अभी कहा ब्रह्म और परमात्मा और भगवान यह एक ही है कहने जा रहे हैं भगवान का नाम, भगवान का रूप, भगवान के गुण, भगवान के लीला, भगवान का धाम, यह सब एक ही है यह भगवान ही है । भगवान से यह अभिन्न है । दूसरा शब्द आगया तो गुणों से आकृष्ट हुए मतलब क्या ? गुण भगवान से अलग थोड़ी ही है ! ऐसे ऐसे गुण वाले भगवान । हरि हरि !! तो हम थोड़ा ही कुछ कह रहे हैं इस श्लोक के संबंध में । किंतु श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जी यह जो आत्माराम श्लोक है यह जगन्नाथपुरी में सार्वभौम भट्टाचार्य को सुनाया या मैं सोच रहा था कि चैतन्य महाप्रभु की मध्यलीला, मध्यलीला समझते हो ? मध्यलीला कुछ जगन्नाथ पुरी से प्रारंभ होती है । यह मध्यलीला प्रारंभ होने जा रही थी तब सार्वभौम भट्टाचार्य को जगन्नाथ पुरी में चैतन्य महाप्रभु इस आत्माराम श्लोक पर व्याख्या सुनाएं और आत्माराम श्लोक की व्याख्या सार्वभौम भट्टाचार्य को सुना रहे थे और पता है सार्वभौम भट्टाचार्य कौन है ? स्वयं बृहस्पति । स्वयं बृहस्पति प्रकट हुए हैं चैतन्य लीला में सार्वभौम भट्टाचार्य बने हैं । वृहस्पति कौन है ? वे गुरु हैं 33 करोड़ देवताओं के जो गुरु हैं वह बने हैं सार्वभौम भट्टाचार्य और अब वे जगन्नाथपुरी में चैतन्य महाप्रभु के शिष्य बने हैं । मानना पड़ेगा बन गए और यह आत्माराम श्लोक पर चैतन्य महाप्रभु की व्याख्या सुनकर और भी कुछ घटनाएं घटती है कारण बन जातें है किंतु इस बृहस्पति ने सुनी चैतन्य महाप्रभु ने की हुई व्याख्या आत्माराम श्लोक पर व्याख्या की तो मान गए । यह तो साक्षात भगवान होने चाहिए । यह ज्ञानवान, देखो उनका ज्ञान चैतन्य महाप्रभु का ज्ञान देखो । ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः । ज्ञान वैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ॥ अनुवाद:- सम्पूर्ण ऐश्वर्य , वीर्य ( जगत् को धारण करने की शक्ति विशेष ) , यश ,श्री ,सारा ज्ञान , और परिपूर्ण वैराग्य के समुच्चय को भग कहते हैं. इस तरह से भगवान शब्द से तात्पर्य हुआ उक्त छह गुणवाला, और कई शब्दों में ये6 गुण जिसमे हमेशा रहते हैं, उन्हें भगवान कहते हैं । यह भगवान के अच्छे ऐश्वर्य है, वैभव है पेडऐश्वर्य पूर्ण भगवान है तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने अपने ज्ञान का कुछ थोड़ा हल्का सा प्रदर्शन किया और उससे प्रभावित होके शरण में आए मान गए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को तो फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने षड़भुज दर्शन दीया । मतलब समझाये कि मैं राम हूं, मैं कृष्ण हूं मैं वही श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु अब मैं हूं तो आत्माराम श्लोक पर की हुई व्याख्या से भी प्रभावित हुए यह सार्वभौम भट्टाचार्य और उनको साक्षात्कार हुआ भगवद् साक्षात्कार । चैतन्य महाप्रभु साक्षात्कार, चैतन्य महाप्रभु की साक्षात परम पुरुषोत्तम श्री भगवान हैं । यह साक्षात्कार हुआ तो यह साक्षात्कार हुआ या संवाद कहो । चैतन्य महाप्रभु के मध्यलीला के प्रारंभ में हुआ और फिर पुनः श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु लगभग 6 वर्षों के उपरांत दक्षिण भारतीय यात्रा हुई फिर पूर्व बंगाल, बांग्लादेश यात्रा हुई और फिर वृंदावन, उत्तर भारत, झारखंड, वृंदावन की यात्रा भी की और फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु को अब पिछले 6 वर्षों से वे भ्रमण कर रहे थे और ... श्री - राधार भावे एवे गोरा अवतार । हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार ॥ 4 ॥ ( जय जय जगन्नाथ शचिर नंदन , वासुदेव घोष ) अनुवाद:- अब वही भगवान् श्रीकृष्ण राधारानी के दिव्य भाव एवं अंगकान्ति के साथ श्रीगौरांग महाप्रभु के रूप में पुनः अवतीर्ण हुए हैं और उन्होंने चारों दिशाओं में " हरे कृष्ण " नाम का प्रचार किया है । हरे कृष्ण महामंत्र का प्रचार प्रसार और इस धर्म की स्थापना कर रहे थे । "धर्मसंस्थापनार्थाय" कलि - कालेर धर्म - कृष्ण - नाम - सङ्कीर्तन । कृष्ण - शक्ति विना नहे तार प्रवर्तन ॥ ( चैतन्य चरितामृत अंत्यलीला 7.11 ) अनुवाद:- कलियुग में मूलभूत धार्मिक प्रणाली कृष्ण के पवित्र नाम का कीर्तन करने की है । कृष्ण द्वारा शक्ति प्राप्त किये बिना संकीर्तन आन्दोलन का प्रसार कोई नहीं कर सकता । यह समझा रहे थे ! केवल भाषण देके ही नहीं, अपने आचरण से स्वयं ही कीर्तन कर रहे थे, नृत्य कर रहे थे । हरि हरि !! तो उसी के साथ उन्होंने धर्म की स्थापना हरे कृष्ण कीर्तन धर्म की स्थापना की है और अब जगन्नाथपुरी लौट रहे हैं, अब लौटेंगे जगन्नाथपुरी तो फिर जगन्नाथ पुरी के बाहर एक पग भी नहीं रखने वाले हैं । ठीक है ! उनके जो शेष पड़ा था परिभ्रमण चल रहा था पिछले 6 वर्षों से अब अंत में रुक गए वाराणसी में । बनारस में, गंगा के तट पर और फिर यहां होता है संवाद वह भी शुकदेव गोस्वामी और राजा परीक्षित का संवाद भी भागवद् का संवाद गंगा के तट पर हुआ हस्तिनापुर के बाहर और यहां अब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और सनातन गोस्वामी का संवाद होगा । 2 महीने चलेगा संवाद तो इस संवाद के अंतर्गत, वैसे सनातन गोस्वामी विशेष निवेदन किए । ओ ! आपने जो शुभम भट्टाचार्य जो आत्माराम की व्याख्या सुनाई थी मैं भी सुनना चाहता हूं, मुझे भी सुनाइए तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु; उन्होंने कहा की अरे क्या मैंने सुनाया ! मैं भी एक बातुल, पागल और सार्वभौम भट्टाचार्य वह भी दूसरा पागल पता नहीं मैंने क्या-क्या कहा तो यह ऐसा पागलपन वैसे श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा ही था । किवा मन्त्र दिला , गोसायि , किबा तार बल । जपिते जपिते मन्त्र करिल पागल ॥ ( चैतन्य चरितामृत आदिलीला 7.81 ) अनुवाद:- हे प्रभु , आपने मुझे केसा मन्त्र दिया है ? मैं तो इस महामन्त्र का कीर्तन करने मात्र से पागल हो गया हूँ । तो ऐसे पागल, पगला बाबा । मैंने सुनाया और दूसरे पागल ने सुना ठीक है तुम भी सुनना चाहते हो तो सुनो सही तो श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु आत्माराम श्लोक को और भी व्याख्या किए । इसमें से एक एक शब्द जो है आत्माराम श्लोक कीसको कहते हैं, एक एक शब्द नहीं ! एक एक अक्षर की किए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु और कुल मिलाकर 64 हो गए । 64 प्रकार से व्याख्या सुनाए श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस आत्माराम श्लोक की व्याख्या । उसी प्रकार से उन्होंने, चैतन्य महाप्रभु ने व्याख्या की और ऐसी व्याख्या तो बस भगवान ही कर सकते हैं । इससे भी सिद्ध होता है कि श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु स्वयं भगवान है और इससे भी सिद्ध होता है की .."मत्तः परतरं नान्यत" "असमुर्ध्वंम" तो यह अतुलनीय है । आप कभी पढ़िएगा यह आत्माराम श्लोक पर जो व्याख्या श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु किसको किसको सुनाएं ? एक तो सार्वभोम भट्टाचार्य को सुनाएं पता है वह कौन थे ? बृहस्पति थे और फिर सनातन गोस्वामी को वाराणसी में सुनाएं जो एक मंजरी । अब एक पुरुष देह को धारण करके, स्वीकार करके सनातन गोस्वामी बने हैं "सनातन" । इसी के साथ वैसे यह जो चैतन्य चरितामृत है या श्रील प्रभुपाद इसको जो पोस्ट ग्रेजुएशन कहते हैं । यह एक पोस्ट ग्रेजुएशन कोर्स है । भागवद् तो वैसे ग्रेजुएट अध्ययन लेकिन चैतन्य चरितामृत एक उच्चतम शिक्षा है तो ऐसा है यह । भागवद् भो ऐसा है, चैतन्य चरितामृत भी वैसा ही है । इसीलिए वैसे कृष्ण दास कविराज गोस्वामी कहे चैतन्य चरितामृत के संबंध में कहे श्रूयतां श्रूयतां नित्यं गीयतां गीयतां मुदा । चिन्त्यतां चिन्त्यतां भक्ताश्चैतन्य - चरितामृतम् ॥ ( चैतन्य चरितामृत अंत्यलीला 12.1 ) अनुवाद:- हे भक्तों , श्री चैतन्य महाप्रभुका दिव्य जीवन तथा उनके गुण पूर्वक नित्य ही सुने , गाये तथा ध्यान किये जाँय । इसको सुनो इसको सुनो । चैतन्य चरितामृत को सुनो । सुनो सुनाओ और इसका चिंतन करो, मनन करो या भागवद् और चैतन्य चरितामृत दोनों चर्चाएं यहां एक साथ हो रही है तो "श्रुयतां श्रूयतां नित्यं गीयतां गीयतां मुदा" और "चिन्त्यतां चिन्त्यतां भक्त्या" चिंतन करो भक्ति पूर्वक । चैतन्य चरितामृत का, भागवद् का और क्यों नहीं भगवद् गीता का भी । ना हम आगे नहीं बढ़ सकते गीता तो नींव है । ठीक है । ॥ हरि हरि ॥

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