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*जप चर्चा* *पंढरपुर धाम से* *14 अगस्त 2021* हरे कृष्ण!!! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 855 स्थानों से प्रतिभागी जप कर रहे हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!!! कई भक्त मॉरीशस, वर्मा, थाईलैंड, यूक्रेन, रशिया, नेपाल, बांग्लादेश इत्यादि से भी सम्मिलित हैं। इस तरह से हम एक बड़े परिवार की तरह हैं। वसुदेव कुटुम्बकम। हम इसका भी अनुभव करते हैं जब हमारे साथ देश विदेश से भक्त मिलकर जप करते हैं। यहां पर कोई विदेशी है ही नहीं, इस संसार में चलता है देश-विदेश, ईस्ट वेस्ट, अपना पराया, लेकिन हम भक्तों के लिए क्या है, सभी लोग अपने ही हैं। हैं या नहीं? कोई पराया नहीं है। सभी भगवान के हैं। भगवान किसके हैं? भगवान मेरे हैं। मेरे भगवान के सभी लोग, मेरे हो गए। भगवान मेरे और मेरे भगवान के सभी लोग, मेरे लोग हो गए। पराए का प्रश्न ही नहीं है। यह संसार ऐसे द्वंद उत्पन्न करता है। द्वंद का मतलब समझते हो? द्वंद अर्थात दो जैसे अपना पराया, देशी विदेशी, काला गोरा, स्त्री पुरुष इत्यादि। इसका कोई अंत ही नहीं है। थोड़े में कहा जा सकता है कि यह संसार द्वंद्वों से भरा है। सुख है- दुख भी है। हरि हरि! सदाचारी है तब फिर दुराचारी भी होने चाहिए। इस संसार में ऐसा ही है। यह संसार है लेकिन हमें इस संसार में नहीं रहना है। हमें इस द्वंद से परे पहुंचना है। जैसा कि भगवतगीता में कृष्ण ने कहा *यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः | समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते ||* ( भगवतगीता 4.22) अनुवाद: जो स्वतः होने वाले लाभ से संतुष्ट रहता है, जो द्वन्द्व से मुक्त है और ईर्ष्या नहीं करता, जो सफलता तथा असफलता दोनों में स्थिर रहता है, वह कर्म करता हुआ भी कभी बँधता नहीं। ऊपर वाले की इच्छा से जो भी प्राप्त है, उसी में संतुष्ट रहो। द्वंद के अतीत पहुंचो। क्या करना है? द्वंद से अतीत पहुंचना है। द्वन्द्वातीत को ही गुणातीत कहा जाता है अर्थात गुणों से परे। इन तीन गुणों में से ही यह रजोगुण द्वंद उत्पन्न करता है। रजोगुण से द्वंद होता है, रजोगुण से इस संसार में प्रतियोगिता, ईर्ष्या द्वेष चलते रहते हैं ।हरि! हरि! *मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्टवत्।आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति स पंडित:।।* (चाणक्य नीति) अनुवाद:- जो कोई पराई स्त्री को अपने माता की तरह, पराए धन को धूल के समान तथा सारे जीवों को अपने समान मानता है, वह पंडित माना जाता है। (शायद आपको पता होगा पूरा समझाने का समय भी नहीं है) कुछ दिन पहले या शायद कल ही कुछ भक्तों ने कहा था- मातृवत् परदारेषु, सभी स्त्रियां माता के समान है। परद्रव्येषु लोष्टवत्। इस प्रकार एक अक्षर एक् अक्षर को सुनना चाहिए, एक-एक शब्द को सुनना चाहिए, समझना चाहिए लेकिन हम सुनते नहीं हैं। हम पूरा वाक्य सुनते हैं लेकिन हम हर शब्द और हर अक्षर को सुनते नहीं है। हम पूरा महामंत्र एक ही बार सुनते हैं। हमारे भूरिजन प्रभु जब जपा रिट्रीट करते हैं, कहते हैं कि हर शब्द को सुनो, हर अक्षर को सुनो। हरि नाम महामंत्र में कितने अक्षर हैं? कितने हैं? (अभी गिनना प्रारंभ करोगे) आपके मुख में कितने दांत हैं? कभी गिना है? जितने दांत आपके मुख में, उतने ही अक्षर महामंत्र में हैं। इसलिए उसे बदनभरी भी कहा है। भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं- बलेन बोलो अर्थात थोड़ा ताकत के साथ भगवान का नाम लेते हैं। अरे अरे बोलो, वदन हरि। मुख भर के बोलो। है मुख में 32 दांत हैं। पूरे मुख का उपयोग करो औऱ सभी अक्षरों को सुनो, हर शब्द को। बलेन बोलो ना वदन हरि। यह जो सूक्ष्मता है इसकी और ध्यान देना चाहिए। कितना सूक्ष्म है। अनस्पर्श है, मेरी सम्पति नहीं है। हम छुऊँ भी नहीं। ऐसा सूक्ष्म दृष्टिकोण, गहराई में पहुंचना है। भगवान सूक्ष्म अति सूक्ष्म है। हमारी आत्मा भी वैसे ही है। (पता नही मैं क्या क्या कह रहा हूं। जो भी मन में आता जा रहा है, ऐसे ही कहते जा रहा हूँ ।) लोष्टवत मतलब कूड़ा करकट, कंकड़, पत्थर । परद्रव्येषु- हम अन्यों का द्रव्य, वस्तु, संपत्ति को छुएंगे ही नहीं। हम स्पर्श भी नहीं करेंगे क्योंकि वो मेरी संपत्ति नहीं है। हरि! हरि! भगवान ने जो मुझे दिया है, उसी में हम संतुष्ट रहेंगे। *ईशावास्यमिद्ँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद् धनम्।।* ( ईशोपनिषद मंत्र१) अनुवाद:- इस ब्रह्माण्ड के भीतर की प्रत्येक जड़ अथवा चेतन वस्तु भगवान द्वारा नियंत्रित है और उन्हीं की संपत्ति है। अतएव मनुष्य को चाहिए कि अपने लिए केवल उन्हीं वस्तुओं को स्वीकार करें जो उसके लिए आवश्यक है, जो उसके भाग के रूप में नियत कर दी गई हैं। मनुष्य को यह भली-भांति जानते हुए कि अन्य वस्तुएं किसकी हैं, उन्हें स्वीकार नहीं करना चाहिए। इसी के साथ हमनें 'ईशावास्यमिद्ँ सर्वं' का पालन किया। अन्यों की सम्पति को छूना और तिरछी नज़र से देखना तक नहीं है । संसार की जो समस्याएं हैं, उनका ईशावास्यमिद्ँ सर्वं- सुलझन है। परद्रव्येषु लोष्टवत- वैसे सभी मतलब की बातें ही हैं लेकिन मैं जो कह रहा हूँ- याद रखिये- आत्मवत् सर्वभूतेषु। वैसे आपको कहना आना चाहिए। आत्मवत् सर्वभूतेषु। (राखी तुम्हें याद हुआ? सुन तो लिया?) आत्मवत् सर्वभूतेषु संसार में जो भी लोग हैं, वह कैसे हैं? आत्मवत् हैं । मेरे जैसे ही हैं, मेरे ही हैं। इसीलिए मैं उनके साथ वैसा ही व्यवहार करूंगा अथवा मेरा उनके साथ व्यवहार वैसा ही रहेगा, जैसा कि मैं स्वयं के साथ करता हूं। यदि मैंने दूसरे को तमाचा लगाया तो मैं स्वयं को ही तमाचा लगा रहा हूं । यदि मैं ऐसा नहीं करना चाहता तब मैं औरों को क्यों तमाचा लगाऊं? मुझे कष्ट होता है जब कोई तमाचा लगाता है या कुछ गाली गलौच होता है। इसलिए मैं औरों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करूंगा। वैसे यह कृष्ण भावना भी है। पहले तो हम कृष्ण भावना भावित् हैं फिर हम जीव भावना भावित भी हो जाएंगे । कृष्ण कॉन्शसनेस (भावना) पूर्ण हो जाती है,जब हमारे अंदर जितने भी जीव हैं उनके लिए भी चेतना हो जाती है अथवा हम उनके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं उनका जो भगवान के साथ संबंध है, वह भी समझ लेते हैं। हमारा उनके साथ संबंध है इसको भी समझ लेते हैं। वह हमारे ही परिवार के हैं, हम समझ गए। वे हमारे परिवार के क्यों हैं? क्योंकि कृष्ण इस परिवार के द हेड ऑफ फैमिली हैं। हमारे परिवार के मुखिया कौन हैं? कृष्ण हैं। कहते हैं ना कि- *त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रव्य द्रव्य त्वमेव ।त्वमेव सर्वम् मम देव देव।* अनुवाद:- हे भगवान्! तुम्हीं माता हो, तुम्हीं पिता, तुम्हीं बंधु, तुम्हीं सखा हो, तुम्हीं विद्या हो, तुम्हीं द्रव्य, तुम्हीं सब कुछ हो। तुम ही मेरे देवता हो।' कितना कहूं, रुक जाता हूं क्या कहूं। आप ही सब कुछ हो, आप ही हेड ऑफ द फैमिली हो ही। *सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः | तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ||* ( श्रीमद् भगवतगीता १४.४) अनुवाद- हे कुन्तीपुत्र! तुम यह समझ लो कि समस्त प्रकार की जीव-योनियाँ इस भौतिक प्रकृति में जन्म द्वारा सम्भव हैं और मैं उनका बीज-प्रदाता पिता हूँ | भगवान् ने भगवत गीता में कहा ही है। आत्मवत् सर्वभूतेषु। कृष्ण भावना भावित होना मतलब कृष्ण को जानना, कृष्ण की सेवा करना, कृष्ण से प्रेम करना तत्पस्च समाप्त। यदि हम इतना ही समझे हैं तो हम समझे नहीं हैं। यह नासमझी है, हमारी समझ कुछ अधूरी है। जीवों को भी समझना है। *ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ||* ( श्रीमद् भगवतगीता BG 15.7) अनुवाद : इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं। बद्ध जीवन के कारण वे छहों इन्द्रियों से घोर संघर्ष कर रहे हैं, जिसमें मन भी सम्मिलित है । उनको भी समझना है, उनको भी प्रणाम करना है, उनकी भी सेवा करनी है और उनको भी प्रेम करना है। उनके साथ भी हमारे मैत्रीपूर्ण व्यवहार होने चाहिए। वैसे तो कहा ही है- ईश्वर से प्रेम करना चाहिए। *ईस्वरे तदधीनेषु बालिशेषु द्विषत्सु च ।प्रेममैत्रीकृषोपेक्षा यः करोति स मध्यमः ॥* (श्रीमद् भागवतम् 11.2.46) अनुवाद- द्वितीय कोटि का भक्त, जो मध्यम अधिकारी कहलाता है, भगवान् को अपना प्रेम अर्पित करता है, वह भगवान् के समस्त भक्तों का निष्ठावान मित्र होता है, वह अज्ञानी व्यक्तियों पर दया करता है जो अबोध है और उनकी उपेक्षा करता है, जो भगवान् से द्वेष रखते हैं। तदधीनेषु, भगवान् के अधीन जो जीव है, उनसे मैत्री करनी चाहिए। बालिशेषु - जैसे बालक भोले भाले व श्रद्धालु होते हैं, उन पर कृपा करनी चाहिए । द्विषत्सु जो द्वेषीजन हैं- हरे कृष्ण! हरे कृष्ण! ( तुम सो रहे हो, नींद आ रही है) गौरांगा कुछ करो) द्विषत्सु जो द्वेष करने वाले हैं। विष्णु और वैष्णवों के जो द्वेषीजन हैं, हमें उनकी उपेक्षा करनी चाहिए। यह पिछले 1 मिनट में जो मैंने कहा वे मध्यमा अधिकारी के लक्षण हुए। प्रभुपाद कहा करते थे कि हमें कम से कम द्वितीय स्तर का अधिकारी तो बनना ही चाहिए। लक्ष्य तो हमारा उत्तम अधिकारी बनने का होना चाहिए। तीन प्रकार के अधिकारी व स्तर हैं। कनिष्ठ अधिकारी कोई पदवी तो नहीं है लेकिन कुछ लोग वैसे ही रह जाते हैं। कहने में अच्छा भी नहीं लगता की वह थर्ड क्लास का भक्त है। कनिष्ठ अधिकारी। तृतीय श्रेणी के भक्त जो भगवान से प्रेम करता है और भक्तों के चरणो में अपराध करता है। इतना ही है, तीसरी श्रेणी के भक्तों से भगवान भी प्रसन्न नहीं हैं। प्रभुपाद कहा करते थे कि मध्यम श्रेणी के भक्त तो बनो। कनिष्ठ, मध्यम, उत्तम। यह जो शब्दकोश है, हमें सीखना चाहिए। यह हमारी भाषा होनी चाहिए। यह हमारे शब्द होने चाहिए। इस भाषा में हमें बोलना चाहिए। दुनिया की भाषा तो हम बोलते सुनते रहते हैं। जो हम सुनते हों, फिर उसी को बकते रहते हैं। लेकिन यह शास्त्र की भाषा जो है वह शास्त्र प्रमाण है। शास्त्र क्या है? शास्त्र प्रमाण है। शास्त्र के जो वचन अथवा शब्द हैं, हमें उन्हें भी याद रखना चाहिए। उनको कहना चाहिए, इसे कहते कहते और जब हम लोग प्रवचन करना शुरू करेंगे, कुछ भाषण, संभाषण के पश्चात वही भाषा बोलेंगे जो कि शास्त्र या भगवान की भाषा है। यह ऋषि मुनियों की भाषा है। भाषा संस्कृत भी है। हरि! हरि! वैसे ही शब्द बोलते बोलते हमारा शुद्धिकरण होगा क्योंकि शब्द शुद्ध भी हैं पवित्र भी हैं। हमारे शुद्धिकरण की शक्ति सामर्थ्य इन शब्दों, वाक्यों , वचनों, श्लोकों, इन भावों में है। हमें जीवों से प्रेम करना है। हम यहीं फेल होते हैं। हम भगवान की सेवा में तो आगे आगे रहते हैं लेकिन जब भक्तों की सेवा का समय आता है तो हम पीछे हटते हैं परंतु भगवान को उनके भक्त इतने प्रिय हैं *श्रीभगवानुवाच* *अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज । साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ॥* ( श्रीमद् भगवातम 9.4.63) अनुवाद:- भगवान् ने उस ब्राह्मण से कहा : मैं पूर्णतः अपने भक्तों के वश में हूँ । निस्सन्देह , मैं तनिक भी स्वतंत्र नहीं हूँ । चूँकि मेरे भक्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः रहित होते हैं अतएव मैं उनके हृदयों में ही निवास करता हूँ । मुझे मेरे भक्त ही नहीं , मेरे भक्तों के भक्त भी अत्यन्त प्रिय हैं । मैं भक्तों के अधीन हूं। *साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम् । मदन्यत्ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ॥* ( श्रीमद् भगवतगीत 9.4.68) अनुवाद:- शुद्ध भक्त सदैव मेरे हृदय में रहता है और मैं शुद्ध भक्त के हृदय में सदैव रहता हूँ । मेरे भक्त मेरे सिवाय और कुछ नहीं जानते और मैं उनके अतिरिक्त और किसी को नहीं जानता । साधु मेरा हृदय है, साधुओं के हृदय में मैं रहता हूं। मेरे हृदय में साधु रहते हैं और साधुओं के सिवा और मैं किसी को नहीं जानता। साधु भी मुझे छोड़कर और वे किसी को नहीं जानते। ऐसे साधु, ऐसे भक्त अंततः सभी जीव एक ही हैं। कुछ समय के लिए भूल गए हैं। ऐसे जीवों की भक्तों , संतों की सेवा हमें करनी चाहिए।। सूत उवाच *यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव । पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥* (श्रीमद् भगवातम 1.2.2) अनुवाद:- श्रील सूत गोस्वामी ने कहा : मैं उन महामुनि ( शुकदेव गोस्वामी ) को सादर नमस्कार करता हूँ जो सबों के हृदय में प्रवेश करने में समर्थ हैं। जब वे यज्ञोपवीत संस्कार अथवा उच्च जातियों द्वारा किए जाने वाले अनुष्ठानों को सम्पन्न किये बिना संन्यास ग्रहण करने चले गये तो उनके पिता व्यासदेव उनके वियोग के भय से आतुर होकर चिल्ला उठे , " हे पुत्र , " उस समय जो वैसी ही वियोग की भावना में लीन थे , केवल ऐसे वृक्षों ने शोकग्रस्त पिता के शब्दों का प्रतिध्वनि के रूप में उत्तर दिया । शुकदेव गोस्वामी को प्रार्थनाएं कर रहे थे। उन्होंने ये प्रार्थनाएं की और अपने गुरु महाराज की वंदना की। वे वंदना कर रहे हैं- उन्होंने कहा *प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव । पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदु स्तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि।।* शुकदेव गोस्वामी जो शुक मुनि हैं, के चरणों में मुनिमानतोऽस्मि। मैं नमस्कार करता हूं, नतमस्तक होता हूं। लेकिन शुकदेव गोस्वामी कैसे हैं? सर्वभूतहृदयं। इसको नोट करो। सब भूतों के (भूत शब्द भी ऐसा है शुकदेव गोस्वामी सभी जीवों से प्रेम करते हैं। सभी जीवों के दिल की बात को जानते हैं, उनके भावों को समझते है। *सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि* वह सभी से स्नेह करते हैं। वह पर दुख दुखी हैं ।अन्यों का दुख देखकर दुखी होते हैं और फिर कुछ करते भी हैं। वे औरों के दुख को हटाने घटाने के लिए कुछ करते भी हैं और उन्होंने वही किया। श्रीमद् भागवत कथा सुनाई। क्यों सुनाई? हम सभी दुखियों को सुखी बनाने के उद्देश्य से शुकदेव गोस्वामी ने कृपा की और श्रीमद् भागवतं संसार भर को कथा सुनाई। एक बार उन्होंने गंगा के तट पर कथा सुनाई। कलयुग के कितने साल बीत चुके थे? जब शुकदेव गोस्वामी ने कथा सुनाई थी, तब कलयुग कितने साल का था? (आप उंगलियां दिखा रहे हो लेकिन..लेकिन उत्तर है 30 साल। (राखी कोई सिग्नल दे रही है लेकिन मैं पढ़ नहीं पा रहा हूं । 3 उंगली और जीरो। ऐसा कुछ किया। ) हरि! हरि! लगभग कलयुग 30 साल का था, बच्चा था, तब उन्होंने इस कथा को सुनाया। हरि! हरि! और उन्होंने सारे संसार के ऊपर कृपा की। सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ' हमें भी यह करना और सीखना है। भगवान के भक्तों की, जीवों की सेवा के कुछ उपाय या माध्यम आप सोचो, इसको कहा भी है जीवे दया, नामे रुचि, वैष्णव सेव,। नाम में रुचि होनी चाहिए और साथ में क्या क्या होना चाहिए? वैष्णव सेवा, वैष्णवों की सेवा करनी चाहिए। जीवे दया अर्थात जीवों पर दया दिखाओ। *निन्दसी यज्ञविधेरहह श्रुतिजातं सदयह्रदय! दर्शित- पशुघातम। केशव! धृत- बुद्धशरीर! जय जगदीश हरे!* ( श्री दशावतार स्त्रोत) अनुवाद:- हे केशव!हे जगदीश! हे बुद्ध का शरीर धारण करने वाले श्री हरि! तुम्हारी जय हो! तुम्हारा ह्रदय दया से परिपूर्ण है, तुम वैदिक यज्ञ- विधि की आड़ में सम्पन्न पशुओं की हिंसा की निंदा करते हो। बुद्धदेव ने भी दया दिखाई, जब इतनी सारी पशुहत्या हो रही थी। उस समय भगवान् बुद्धदेव के रूप में प्रकट हुए। जयदेव गोस्वामी ने दशावतार स्त्रोत में लिखा है। वे लिखते हैं- सदयह्रदय! दर्शित- पशुघातम। पशुओं के जो वध होते थे। सदयह्रदय! देखो! दया शब्द जैसे छिपा हुआ है। उनको पकड़ना चाहिए। स ,सदय। स मतलब के साथ, दय अर्थात दया के साथ। उन्होंने दया का दर्शन प्रदर्शन किया उन्होंने। पशु हत्या बंद की उन्होंने। अहिंसा परमो धर्म ( महाभारत) अहिंसा परम धर्म है। उन्होंने ऐसी भी घोषणा की । उन्होंने ऐसा किया तो सही , पशु हत्या बंद की, अभी के जो बौद्ध पंथीय है, वे क्या करते हैं, वह सारे हिंसक है। मांस भक्षण करते रहते हैं। मैंने कई देशों में देखा है, वर्मा में भी देखा। म्यांमार में बौद्ध धर्म इतना प्रचार, इतने मंदिर वर्मा में है। उनके इतने बौद्धपंथीय अनुयायी हैं लेकिन वहां भक्षण है, वे मांस खूब खाते रहते हैं। जी भर के खाते ही रहते हैं। बुद्धदेव ने अहिंसा का प्रचार किया और पशुवध बंद किया, उनके अनुयायी ही ऐसे धंधे कर रहे हैं, तब यह कैसे बौद्धपंथीय हैं, वे किस तरह के अनुयायी हैं। वही समय था। जब बुद्ध देव 2500 वर्ष पूर्व प्रकट हुए। उसके २००० वर्ष बाद हमारे जीसस क्राइस्ट हुए, उन्होंने भी पशु हत्या बंद करने के लिए प्रचार व प्रयास किए। दाऊ शॉल नॉट किल पशु हत्या नहीं करनी चाहिए। केवल कहा ही नहीं। मिडल ईस्ट में वहां भी कर्मकांड चलता था। यज्ञ में पशुओं की हत्या या आहुति चढ़ती थी। मिडल ईस्ट ज़्यादा दूर नही है भारत में भी होता था। बुद्धदेव ने इसको रोकने के लिए सफल प्रयास किया। इसके उपरांत जो ईसा मसीह प्रकट हुए, उन्होंने भी मिडिल ईस्ट में पशु हत्या अर्थात जिन पशुओं जैसे मुर्गी, गायों या हो सकता हैं ऊंटों व अन्य पशुओं को भी वहां वध के लिए पहुंचा देते थे।( मैंने एक डॉक्यूमेंट्री में देखा था) इसाई मसीह उन सारे पशुओं मुर्गी इत्यादि को आजाद कर देते थे। सभी उनको रोकने का प्रयास करते थे, विरोध करते थे। लेकिन वे पशुओं को भेज देते थे, यहां से जाओ। हरि हरि। कहा है सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि या कहा है? नाम में रुचि, जीवे दया, वैष्णव सेव कहा है? ओके! ठीक है! हम पूर्णतया कृष्ण भावना भावित हो गए हैं या होंगे। जब हम समझेंगे, तब हम भगवान की भी सेवा करेंगे और जीवों की भी सेवा करेंगे। वैष्णवों की सेवा करेंगे ।जीवों में दया का प्रदर्शन करेंगे। उसके लिए केवल लिप सर्विस नहीं होगी, हम उसके लिए कुछ कदम उठाएंगे। *यारे देख , तारे कह ' कृष्ण ' - उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु हञा तार ' एइ देश ॥* (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 7.128॥) अनुवाद:- " हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । " हम स्वयं करेंगे। हम प्रसाद का वितरण भी कर सकते हैं या श्रील प्रभुपाद के ग्रंथों का वितरण कर सकते हैं। एक दिवस की पदयात्रा भी कर सकते हैं। कीर्तन को बांटों। राम नाम के हीरे मोती बिखराऊं में गली गली। बहुत कुछ किया जा सकता है। श्रील प्रभुपाद ने अंतरराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ की स्थापना करके हम सब को एक मंच/ प्लेटफार्म तैयार करके दिया है। जहां से हम परोपकार का कार्य अर्थात वैष्णव सेवा, जीवे दया का कार्य कर सकते हैं। सेवा कर सकते हैं और यह करते-करते ही हम अधिक अधिक कृष्ण भावना भावित होते जाएंगे। कृष्ण भावना भावित मतलब कांशसनेस ऑफ कृष्ण। साथ ही साथ जीवों को जोड़ेंगे। कृष्ण, जीवों / भक्तों के बिना अधूरे हैं। ठीक है। इस पर विचार करो, चिंतन करो, मनन करो, स्मरण करो। ऐसा जीवन जीते रहो, जीते रहो। हरि हरि! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

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