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जप चर्चा, 7 जनवरी 2022, मुंबई जुहू, हरे कृष्ण, 1032 स्थानो से भक्त जप के लिए जुड़ गए हैं। हरिबोल, गीता जयंती महोत्सव की जय! गीता जयंती मैराथाँन की जय! जय प्रभुपाद! भगवत गीता का छठवां अध्याय ध्यानयोग कहलाता है। कृष्ण जो भी कहते हैं वह केवल महत्वपूर्ण ही नहीं होता है। अलग से कहने की आवश्यकता नहीं और जैसे कहना पड़ता है महत्वपूर्ण यह है, यह महत्वपूर्ण नहीं है। भगवत गीता में भगवान कृष्ण जो कहे है वहां अतिमहत्वपूर्ण अत्यावश्यक है। उसमें यह छठवां वैसा ही महत्वपूर्ण है यह अध्याय है। शीर्षक पढ़कर ध्यानयोग, इस्कॉन के भक्त कहेंगे ध्यान से हमारा कोई संबंध नहीं है। ध्यान मेडिटेशन यहां हम कुछ करते नहीं हैं। लेकिन हम सुनाते तो रहते हैं। जप करते हो आप हमें कैसे जप करना है, एक ही शब्द में कहना है। जप कैसे करना है, ध्यानपूर्वक करना है। हमको भी योगी बनना है। जैसे कुछ प्रकार की योगी, ध्यानयोगी जो अष्टांग योगी भी कहलाते हैं। पतंजलि का पूरा योग सूत्र है जो गीता पर, यहां गीता के छठवें अध्याय पर ही आधारित है, पतंजलि का योग। जो षड्दर्शन है हमारे भारत में, उसमें से एक योग दर्शन पतंजलि का उसमें जो अष्टांग योग है। वहां पर तो परमात्मा पर ध्यान की बात है। ठीक है, हम परमात्मा का नहीं सीधे भगवान कृष्ण का ही ब्रम्हेति परमात्मेति भगवानिति शब्दते। हम ब्रह्म तक ही नहीं रुके हैं। कुछ तो ब्रह्मा का ही ध्यान या ब्रह्म ही बनना चाहते हैं। अहम् ब्रह्मास्मि कहते जो शंकराचार्य के अनुयायी, अव्दैतवादि की पहुंच ब्रह्म तक ब्रम्हेति परमात्मेति। जो ध्यानयोगी, अष्टांगयोगी है उनकी पहुंच परमात्मा तक। हम तो हम यहां से तो नहीं होते हैं। ब्रह्म बनने का तो बिल्कुल विचार नहीं होता। कोई ब्रह्म बन ही नहीं सकता वह बात अलग है। और ब्रह्म से, परमात्मा से भी ऊपर इन दोनों का जो स्त्रोत है, उस भगवान हम ध्यान जरूर करते हैं। ध्यान तो करना ही होगा। सतयुग में कृतयेधद्धयायतो विष्णुं तो इस प्रकार का ध्यान सतयुग में भी होता था। अष्टांगयोग योग का ध्यान वह पद्धति फिर उनका लक्ष्य। वैष्णव का वैष्णव का गौड़िय वैष्णव का लक्ष्य तो भगवान है। कृष्णस्तु भगवान स्वयं, श्रीकृष्णचैतन्य राधाकृष्ण नाहिं अन्य या संभवामि युगे युगे अवतार लेते हैं। रामदिमूर्तिषु कलानियमेन तिष्ठन् नानावतारमकरोद् भुवनेषु किन्तु। इसमें से किसी अवतार का भी हम ध्यान करते हैं। कर सकते हैं, अपने अपने इष्टदेव के अनुसार ध्यान तो करना है। केवल जैसे प्रभुपाद कहते हैं, पहले निर्धारित करना है। किसका ध्यान करना है, ध्यान तो करना ही है, ध्यान तो करना है यह सामान्य बात है। लेकिन उसका जो लक्ष्य है जिसका ध्यान करना है वह सबका अलग अलग होता है। यहां तक कि कृष्ण ने कहा द्वितीय अध्याय में ध्यायतो विषयाम पुंसा जनता जनार्दन लोग भी ध्यान तो करते हैं, किस पर ध्यान करते हैं। किनका ध्यान करते हैं। विषयों का ध्यान करते हैं। इंद्रियों के विषयों का ध्यान करते हैं। तो फिर तो कर्मी है यहां या कर्मयोगी है। ध्यान योगी हैं या फिर भक्तियोग भी है। ध्यान तो करना ही है भक्तियोगी भी ध्यान करते हैं। हमको ध्यान करना है। ध्यानपूर्वक जप करना है। ध्यानपूर्वक तप करना है। ध्यानपूर्वक मतलब भक्तिपूर्वक भी हो गया। इसी छठवें अध्याय के अंत में कृष्ण कहने वाले हैं अंतिम श्लोक इस छठे अध्याय का “योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना | श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः || सभी योगी में भक्ति योगी श्रेष्ठ है। तो बात ही यह है, हमें नहीं समझना चाहिए यह जो छठवें अध्याय में ध्यानयोग की जो बातें की है, हमें नहीं लेना देना है। हम तो भक्ति योगी हैं हम तो जप योगी हैं, ऐसी बात नहीं है। इसीलिए अर्जुन ने कहा है, “चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् |" नहीं, मैं ध्यान नहीं कर सकता, कठिन है, मन चंचल है। और केवल अर्जुन ही नहीं थे ऐसी शिकायत करने वाले, संसार के हर साधक की यह शिकायत है। समस्या है, क्योंकि मन तो मन ही है। यहां पर मेरा मन, तुम्हारा मन अमेरिकन मन, इंडियन मन, स्त्री मन, पुरुष मन ऐसा कुछ नहीं है। मन तो मन ही है। मन एक तत्व है। श्रीकृष्ण ने कहा है, “भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च |" आठ प्रकार की मेरी प्रकृति है। लिस्ट में “भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च | मन बुद्धि अहंकार तो मन एक धातु है। तत्व है। उसी से हमारा अंतःकरण या सूक्ष्म शरीर बनता है। इस मन 2 गुण हैं। इस मन के जो गुणधर्म है, लक्षण है, उसी का तो परिचय दे रहे हैं श्रीकृष्ण इस छठवे अध्याय में। ठीक है, अर्जुन ने शिकायत की, शिकायत क्या जो वस्तुस्थिति हैं वह कह दी। श्रीकृष्ण आप यह कह रहे, ध्यान लगाओ, मन को फिर करो। यहां तक कि आपने कहा,“यथा दीपो निवातस्थो नेङगते सोपमा स्मृता |योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः || 19 वें अध्याय के श्लोक में, आपने कहा जिस प्रकार वायु रहित स्थान में दीपक हिलता नहीं, डूलता नहीं, उसी तरह योगी का मन वश में होता है। वह आत्म तत्व के ध्यान में सदैव स्थिर रहता है। यह संभव है, मन चंचल है, प्रमादी क्रीडा यह सब ठीक है। उसी अध्याय में यह कहा है कि, मन पर नियंत्रण, मना निग्रह कठिन है लेकिन, असंभव नहीं है। आप ध्यान में रख रहे हो, मन को नियंत्रण करना कठिन है लेकिन, असंभव नहीं है। प्रयास करना जरूरी होगा ताकि, हम साधक क्या कर सकते हैं, निवातस्तो। दीपक जलाया है या जल रहा है, किसी का कक्ष में कमरे में। और वहां से हवा नहीं रही हैं। पंखा नहीं है। और दरवाजा खिड़की सब बंद है। नियंत्रित किया गया है। सभी द्वार बंद है तो फिर यह दीपक नेङगते, दीपक की ज्योत ज्वाला है वह स्थिर रहती है। हिलती डूलती नहीं। कोई हल्की सी खिड़की खुल गई, कोई आ गया दरवाजा खुल गया तो फिर दीपक हिलने लगेगा। और संभावना यह भी है कि दीपक बुझ सकता है। मन को स्थिर करना है। दीपक जैसा, जो दीपक निवातस्तो निवात वात मतलब हवा जिस कमरे में हवा नहीं है, मतलब हवा तो है लेकिन बाहर से हवा नहीं आ रही है। हवा चलायमान नहीं है। तो मान लो कि हमारा यह शरीर ही है वह कक्ष या कमरा और मन की ज्योति है। ऐसा करना है तो निवातस्थो उस कमरे को निवात वात से, हवा से, हवा के झोंके को अंदर नहीं आने देना है तो क्या करना होगा? वैसे जो नवद्वारे पुरे देही इस शरीर को कृष्ण कहे हैं यह शरीर एक पूर है नगर है। जिसके नव द्वार है। तो इस सारे द्वारों पर कंट्रोल रखना होगा। तो मन निग्रह का संबंध इंद्रिय निग्रह के साथ भी है। इसीलिए कृष्णा पुनः अठारहवें अध्याय में कहे है ब्राह्मणों के लक्षण सुनाते हुए, क्षमः दमः दोनों साथ में। क्षम मतलब यहां मन निग्रह है, दम मतलब इंद्रिय निग्रह है। मन निग्रह, इंद्रियां निग्रह क्षमः दमः। तो हमारे जो द्वार है, जिस द्वार से हम बाहर जाते हैं फिर अंदर आते हैं। यह जो अलग-अलग आंख है, नासिका है, कान है, मुख जीव्हा है, त्वचा है यह द्वार है। तो इस पर भी नियंत्रण रखना है और द्वार पर चौकीदार को खड़ा करना है। वैसे चौकीदार बुद्धि है हमारी। बुद्धि सब के ऊपर नियंत्रण रखता है, मन के ऊपर भी। इंद्रियों के ऊपर मन है। फिर मन:षष्ठानीन्द्रियाणि तो मन को छठवा इंद्रिय कहां है। इंन्द्रियेभ्यः परं मनः कृष्ण कहे मनसस्तु परा बुद्धि तो इंद्रियों के ऊपर मन है और मन के ऊपर बुद्धि है। इसको लगाम भी कहा है। घोड़ा चलाते समय जो लगाम होता है, रस्सी डोरी होती है और वह ड्राइवर के हाथ में होती हैं। तो घोड़े हैं इंद्रिय और लगाव है वैसे मन और लगाम जिसके हाथ में हैं वह है बुद्धि। तो बुद्धि से काम लेना होगा, ताकि क्या करना है निवातस्थो हमारे अंतःकरण को, हमारे शरीर में हमारा मन ही चलायमान होता है हिलता है डुलता है। चांचल्य जो है मन का उसको मिटाना है तो बाहर की जो हवा या बाहर के जो इंद्रियों के विषय अंदर आते हैं। मन बाहर जाता है और इंद्रियों को के विषयों को अंदर लेकर आता है। इसीलिए कृष्ण वहां समझाएं हैं भगवदगीता यह मैन्युअल है। पगपग पर हमें भगवदगीता की आवश्यकता है। भगवदगीता हमें मदद कर सकती है। यह प्रवास जो है जीवन एक प्रवास है कहते हैं। पता नहीं जो कहते हैं जीवन प्रवास है, उस प्रवास में तो गोल ही घूमते रहते हैं। आब्रह्मभुवनाल्लोकका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन लेकिन हमको राउंड नहीं मारने हैं बस हो गया इनफ इज इनफ। हमको सीधे जाना है, भगवदधाम लौटना है वह हमारा लक्ष्य है। तो इस मार्ग पर हमें कृष्ण का मार्गदर्शन अत्यावश्यक है। इस मार्गदर्शन पर ही फिर गुरुजन आचार्य वृंद हमारे शिक्षा दीक्षा गुरु उसी के आधार पर बोलते हैं और बोलना चाहिए। शास्त्र प्रमाण है और गीता में तो कृष्ण स्वयं प्रमाण है। तो गीता की मदद से भगवदगीता के छठवे अध्याय की मदद से भी हमें अपने जीवन को, कार्यकलापों को कुछ नियंत्रण में लाना है। ताकि हमारी यह जो प्रवास है हम आगे बढ़ते रहेंगे। कभी-कभी अटके रहते हैं हम। न तो आगे बढ़ रहे हैं न तो पीछे मुड़ रहे हैं या फिर कुछ पीछे मुड़ जाते हैं यू टर्न। पुनः मुशिक भाव बन जाओ पुनः चूहा बन जाओ। तो यह हम नहीं चाहते हैं, कौन साधक चाहेगा यह। साधना में तो सिद्धि ही चाहेगा सिर्फ प्रगति चाहेगा षड्भिर्भक्तिः प्रसिध्यति चाहेगा, विनश्यति विनाश नहीं चाहेगा। तो कुछ बातों से प्रगति होती है तो कुछ सेट है दूसरे बातों का उससे हमारी अधोगति होती है। कृष्ण जो बातें कहे हैं उनकी जो सलाह है छठवे अध्याय में उसको हमें फॉलो करना चाहिए। और कुछ बातें नहीं समझ में आती है तो और भक्तों की, जिन भक्तों के साथ आप इस्कॉन मंदिर के भक्त या आपके शिक्षा गुरु, आपके काउंसलर से आपको सलाह लेनी चाहिए, इष्ट गोष्टी होनी चाहिए। इसी को फिर कहां है षड़विधं प्रीतिलक्षणम् गुह्यमाख्याति पृच्छति कुछ बात चुभ रही है, कुछ बात समझ में नहीं आ रही है। किसी को कुछ अनुभव हो रहे हैं अच्छे-अच्छे उसको भी फिर शेयर करना चाहिए। ऐसा नहीं कि हर वक्त बैड न्यूज़ ही शेयर करें है हम, फिर लोग आपसे दूर रहेंगे। हर वक्त आप जो भी बोलते हो कुछ खुशखबरी नहीं.. कुछ बैड न्यूज़, कोई समस्या हर वक्त समस्या हर वक्त उलझन। कभी सुलझन भी होनी चाहिए उलझन भी होना चाहिए। कभी प्रॉब्लम भी हम प्रस्तुत कर सकते हैं और कभी सलूशन भी हमारी ओर से होना चाहिए, अपने अनुभव से कहां हमें सफलता मिल रही है। तो सफलता का साफल्य की बातों को भी शेयर करना चाहिए। तो इस तरह से भक्तों के समाज में इस प्रकार का लेन देन, विचार-विमर्श होना चाहिए। जैसे हम इस जपा टॉल्क के अंतर्गत भी करते रहते हैं, यह वही बात है। और इसी को भी फिर कह सकते हैं... साधु-संग', 'साधु-संग - सर्व शास्त्र कय। लव-मात्र साधु-संग सर्व-सिद्धि हय ॥ तो इस्कॉन में सभी साधु है। कोई छोटे-मोटे या अलग-अलग स्तर पर हो सकते हैं। तो इस साधु संग का हमें लाभ उठाना चाहिए। ताकि हम कुछ आगे ही नहीं बढ़ रहे है, कहीं अटक गए हम, जप छूट रहा है या माला नहीं हो रही है, मंदिर आने का दिल नहीं करता या और कुछ मूवी देखना शुरू किया है हमने। तो पढ़िए इस अध्याय को भी, हर अध्याय को पढ़ना चाहिए। आज तो ध्यान योग नामक अध्याय की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास चल रहा है। तो याद रखिए यह छठवां अध्याय बहुत महत्वपूर्ण है। इसको आत्म साक्षात्कार कहते हैं। आत्म साक्षात्कार में वैसे आत्मा, आत्मा मतलब आत्मा भी होता है और आत्मा मतलब मन भी होता है। यहां तक की आत्मा मतलब शरीर भी होता है। अलग-अलग कुछ सात बातों का संकेत या उल्लेख होता है जब हम आत्मा आत्मा कहते हैं। तो मन भी हमारा आत्मा ही है, हमारा अंतरंग है। इस मन का अभ्यास करना चाहिए। वैसे कृष्ण कहे भी है इसी अध्याय में अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येन च गृह्यते हां कठिन है, कठिन है मन को जीतन या मना निग्रह। लेकिन असंभव नहीं है। तो क्या करो? अभ्यास करो अभ्यास करो प्रैक्टिस। तो इसीलिए हम लोग केवल एक दिन जप कर लिया, कभी किया, कभी नहीं किया ऐसा नहीं। अभ्यास मतलब प्रतिदिन यह अभ्यास करना हैं। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येन दोनों में तृतीया विभक्ति है। दो प्रकार से दो बातें कह रहे हैं अभ्यास करना चाहिए मन निग्रह के लिए अभ्यास और वैराग्य। वैराग्य मतलब जिसमें हमारा दिल लगता है, हमारा मन चाहता है, यह चाहता है, वह चाहता है, तो उसमें भोग के स्थान पर उसको योग से जोड़ीए। योगी बने भोगी न बने, भोग विलास का जीवन। फिर यह जो चार नियम का पालन करते हैं हम यह उसी के अंतर्गत है। नशापान नहीं, मांसभक्षण नही, परस्त्री संग नहीं, जुगार नहीं। यह लिस्ट और भी आगे विस्तृत लिस्ट है, तो उसके अनुसार जीवन शैली बना दे। तो वैराग्येन या दूसरे शब्दों में सिंपल लिविंग हाई थिंकिंग सादा जीवन जीओ। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येन च गृह्यते फिर यह संभव होगा। ठीक है। श्री कृष्ण अर्जुन की जय। भगवदगीता की जय। कुरुक्षेत्र धाम की जय। गीता डिस्ट्रीब्यूशन मैराथॉन की जय। श्रील प्रभुपाद की जय। गौर प्रेमानंदे हरी हरी बोल।

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