Hindi

*जप चर्चा* *पंढरपुर धाम से* *दिनांक 31 मार्च 2021* *हरे कृष्ण!* *जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुनित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।* आज इस जप कॉन्फ्रेंस में ७४२ स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल! आप भी वैकुंठ जाने की तैयारी कर रहे हो? यस! जैसे तुकाराम महाराज वैकुंठ गए थे। कल हम उनके वैकुंठ गमन की कथाएं व लीलाएं सुन रहे थे, हमनें संक्षिप्त में कहा था। आप को प्रेरित करने के लिए भगवान ने ऐसा दर्शाया हैं। ' मुझे दिखाओ, क्या सबूत है, बैकुंठ है या नहीं, क्या बैकुंठ जाना भी होता है, क्या कोई बैकुंठ गया भी है यदि ऐसा कोई पूछता है तब हम बता सकते हैं, हां! हां! संत तुकाराम महाराज गए थे। वैसे कई गए हैं अर्थात असंख्य हैं जो जा रहे हैं लेकिन कभी-कभी भगवान दिखाते हैं, वह घटना प्रकट होती है। दिखती है अथवा दिखाई जाती है। वैकुण्ठ से विमान आ रहे हैं और कुछ विशेष भक्त उस विमान में आरूढ़ हो रहे हैं। तत्पश्चात विमान ने प्रस्थान किया । जैसे तुकाराम महाराज के समय किसी ने भी कोई भी विमान देखा ही नहीं था, केवल शास्त्रों में पढ़ा और सुना था। इसलिए भगवान ने उन्हें दिखाया, भगवान ने भेजा। उस समय कईयों ने देखा था इसके कई साक्षी थे। संत तुकाराम महाराज ने भी कहा *आम्ही जातो आपुल्या गावा ।* *आमचा राम राम घ्यावा ।।* *तुमची आमची हे चि भेटी ।* *येथुनियां जन्मतुटी ।।* *आतां असों द्यावी दया ।* *तुमच्या लागतसें पायां ।।* *येतां निजधामीं कोणी ।* *विठ्ठल विठ्ठल बोला वाणी ।।* *रामकृष्ण मुखी बोला ।* *तुका जातो वैकुंठाला ।।* मैं अपने गांव जा रहा हूं। मैं वैकुंठ लौट रहा हूं। राम! राम! हरि! हरि! उनका साधन भजन तो नाम कीर्तन ही था। संत तुकाराम महाराज अपने कीर्तन व अपने भजन के लिए प्रसिद्ध हैं। वे अभंग लिखते थे, कहते थे और गाते थे। गुणगान कर रहे थे *श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।* *इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्र्चेन्नवलक्षणा। क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मयेअधीतमुत्तमम्।।* *( श्रीमद्भागवतम् ७.५.२३-२४)* *अनुवाद:- प्रह्लाद महाराज ने कहा: भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज-सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना भगवान के चरण कमलों की सेवा करना, षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान की सादर पूजा करना, भगवान को प्रार्थना अर्पण करना, उनका दास बनना, भगवान को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रुप में मानना उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना (अर्थात मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना) शुद्ध भक्ति की ये नौ विद्यियाँ स्वीकार की गई हैं। जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है, उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है।* उनको भगवत प्राप्ति हुई व उन्होंने वैकुंठ के लिए प्रस्थान किया। उनके वैकुंठ जाने का कारण यह श्रवण और कीर्तन बना जिसे हरेर्नामैव केवलम ही कहा गया है। नाम संकीर्तन करने से यह भी सिद्ध हुआ। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* इस प्रकार वह साधक अपनी साधना में सिद्ध होगा और उस मंत्र में सिद्धि प्राप्त करेगा। तत्पश्चात फिर मंत्र देवता प्रसन्न होंगे। वह साधक जोकि साधना करते-करते सिद्ध हो चुका है अर्थात साधना सिद्ध हुआ है, भगवान ऐसे सिद्ध महात्मा को अपने धाम लौटाने अथवा ले जाने की व्यवस्था करते हैं ।हरि! हरि! वैसे अजामिल भी वैकुंठ गए थे, इसका भी वर्णन है, नारायण! नारायण! उन्होंने कहा इस बड़ी हेल्पलेस ( असहाय ) स्थिति में अब उन्हें कौन बचा सकता है। यमदूत तो पहुंचे थे। हरि! हरि! लेकिन नारायण नारायण पुकारते ही अर्थात नारायण कहते ही नारायण के दूत अथवा विष्णु दूत आ गए। उस समय का नारायण नारायण कहना, यह नामाभास हुआ यह जप क्लीयरिंग स्टेज में था लेकिन वह शुद्ध नाम जप नहीं था इसीलिए उस नारायण नारायण नाम उच्चारण से वह केवल मुक्त हो गया। नारायण नारायण कहते ही विष्णु के दूत वहां पहुंचे गए थे। विष्णु दूतों और यमदूतों के मध्य संवाद संपन्न हुआ। वह भाग्यवान जीव जोकि उस संवाद को सुन रहा था, उसे साधु सङ्ग प्राप्त हो रहा था। *आदौ श्रद्धा ततः साधु सङ्गोअ्थ भजन क्रिया। ततोअनर्थ-निवृत्तिः स्यात्ततो निष्ठा रचिस्ततः। अथासक्तिस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्युदञ्चति। साधकानामयं प्रेम्णः प्रादुर्भावे भवेत्क्रमः।।* *(भक्तिरसाअमृत सिंधु १.४.२५-२६)* *अनुवाद:- सर्वप्रथम श्रद्धा होनी चाहिए। तब मनुष्य शुद्ध भक्तों की संगति करने में रुचि दिखाने लगता है। तत्पश्चात वे गुरु द्वारा दीक्षित होता है और उसके आदेशानुसार विधि-विधानों का पालन करता है। इस तरह में वह समस्त अवांछित आदतों से मुक्त हो जाता है और भक्ति में स्थिर हो जाता है। इसके बाद रुचि तथा आसक्ति उत्पन्न होती है। यह साधन भक्ति का मार्ग है। धीरे-धीरे भाव गहन होते जाते हैं और अंत में प्रेम जागृत होता है। कृष्ण भावनामृत में रुचि रखने वाले भक्त के लिए भगवत प्रेम के क्रमिक विकास की यही प्रक्रिया है।* अजामिल को विष्णु दूतों का संग प्राप्त हुआ लेकिन ज्यादा समय के लिए नहीं। *'साधु सङ्ग' 'साधु सङ्ग' सर्व शास्त्र कय। लव मात्र साधु सङ्ग सर्व सिद्धि हय।* *( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला २२.५४)* *अनुवाद:- सारे शास्त्रों का निर्णय है कि शुद्ध भक्त के साथ क्षण भर की संगति से ही मनुष्य सारी सफलता प्राप्त कर सकता है।* अजामिल को लव मात्रा अर्थात थोड़े समय अथवा कुछ क्षण भर के लिए उसे विष्णु दूतों का संग प्राप्त हुआ। उसने संवाद में जो चर्चा सुनी, आदौ श्रद्धा ततः साधु सङ्गोअ्थ भजन क्रिया सुना। यह अजामिल जोकि कानपुर के पास कन्नौज के था, वे वहां से हरिद्वार गया। वहां उसे साधु संग प्राप्त हुआ था, उससे उन्होंने भजन क्रिया को सीखा था। क्या करना चाहिए? भजन क्रिया अथवा साधना करनी चाहिए। वे हरिद्वार गया और गंगा के तट पर साधना की, भजन क्रिया, भजन के रहस्य को समझा और भजन किया अर्थात भजन क्रिया को अपनाया उससे वह अनर्थों से मुक्त हो गया और तत्पश्चात वह भक्त भी हुआ, पहले मुक्त हुआ था लेकिन साधना करने से भक्त भी हो गए। जब वह भी भक्त हुआ था तब उस समय भी वैकुण्ठ से विमान आ गया। कौन सा विमान भेजा गया। ऐसा भी सुनने में आता है कि वही विष्णु दूत जो कन्नौज में आए थे और जिनका संवाद यमदूतों के साथ हुआ था लेकिन उस वक्त अजामिल योग्य नहीं हुआ था अथवा वैकुंठ प्राप्ति के लिए पात्र नहीं बना था अर्थात उसकी वैकुंठ प्राप्ति की पात्रता नहीं थी उसे वैकुंठ गमन के अधिकार प्राप्त नहीं थे किंतु अब जब उसने साधना की, भजन किया और विशेषतया यह देखा कि अपराध क्या होते हैं? तब अजामिल सारे अपराध टाल रहा था, सेवा विग्रह सेवा अपराध, वैष्णव अपराध, अजामिल का भी वैकुंठ के लिए प्रस्थान हुआ। हरि! हरि! ऐसे कई उदाहरण है। ध्रुव महाराज भी अंततोगत्वा बद्रिकाश्रम पहुंचे थे, वहां पर उनके लिए विमान आया था। भगवान् ने ध्रुव महाराज के लिए वहां पर विमान भेजा था। भगवान् ने ध्रुव महाराज के लिए मृत्यु के सर पर अपना पैर रखकर मृत्यु का दमन किया। *उग्रं वीरं महाविष्णु ज्वलन्तम सर्वतोमुखं नृसिंह भिषण भद्र मृत्योर्मृत्यु नमायअह।।* *अनुवाद:- भगवान् मृत्यु की भी मृत्यु होते हैं। यदि मृत्यु को कोई मार सकता है, तो वे केवल भगवान् हैं। जब व्यक्ति भक्त बनता है, तब उस व्यक्ति की मृत्यु जोकि प्रतीक्षा में होती ही है, भगवान् उसको हटाते हैं अथवा उसका दमन करते हैं अथवा मृत्यु की जान लेते है। *मृत्योर्मृत्यु नमायमह।* श्रीमद्भगवतम में ऐसा वर्णन आया है कि ध्रुव महाराज मृत्यु के सिर पर पैर रखकर छलांग मारकर विमान में आरूढ़ हुए। जब वे विमान में विराजमान होकर वैकुण्ठ जा रहे थे उनको अपनी माँ की याद आयी। वैसे कहना चाहिए था कि शिक्षा गुरु की याद आ गयी। ध्रुव महाराज की माताश्री सुनीति ने ध्रुव महाराज का मार्गदर्शन किया था। ध्रुव महाराज की सुनीति पथ प्रदर्शक गुरु अर्थात मार्ग प्रदर्शक गुरु अथवा प्रांरभिक अवस्था में मार्ग दिखाने वाली गुरु थी। ध्रुव महाराज ने सोचा कि मैं तो वैकुण्ठ जा रहा हूँ। मेरी पथ प्रदर्शक गुरु जिन्होंने मेरा मार्गदर्शन किया कि मैं कहाँ भगवान् को प्राप्त कर सकता हूं। ('जाओ, वन जाओ।' वह वन वृन्दावन में मधुवन हुआ।) सुनीति के मार्गदर्शन के अनुसार वे वृन्दावन में भगवान को खोजने अर्थात भगवत प्राप्ति के लिए के लिए पहुंचे थे। ध्रुव महाराज, अपने माँ अर्थात पथ प्रदर्शक गुरु के प्रति कृतज्ञ थे इसलिए वे उनका स्मरण कर रहे थे, मैं तो जा रहा हूँ लेकिन मेरी मां सुनीति का क्या होगा, क्या वह भी जाएंगी। ध्रुव महाराज ऐसा सोच ही रहे थे, तब उन्होंने थोड़ा पीछे मुड़कर एक और विमान को देखा जिसमें भगवान, सुनीति को बैठाकर वैकुण्ठ ले जा रहे थे। भगवान् ने यह व्यवस्था की थी। ध्रुव महाराज की इच्छा थी, ध्रुव महाराज कृतज्ञ थे इसलिए भगवान् ने तुरन्त व्यवस्था की। वैसे भी भगवान् कहते हैं और शास्त्र भी कहते हैं कि यदि परिवार में कोई एक भक्त बन जाए तो उसकी कई सारी पीढ़ियां उसके वंशज, पूर्वज (जो पहले जन्मे थे उन्हें पूर्वज कहते है। पूर्व मतलब पहले के और ज मतलब जन्मा अर्थात फ़ॉरफादर्स) (वंशज अर्थात उस वंश में जन्म लेने वाले, भूतकाल और भविष्यकाल में होने वाले) अथवा उस परिवार के सदस्यों का भी उद्धार निश्चित है। भगवान् ऐसी व्यवस्था करते हैं। यह भी देखने में आ रहा है कि किस प्रकार भगवान् ध्रुव महाराज की माता को भी विमान में बैठाकर वैकुण्ठ ले गए। हरिबोल! हरिबोल! विमान जैसे आगे बढ़ रहा है, तब कई सारे लोग या स्वर्ग के निवासी भी ऐसा दृश्य देखने वाले होंगे वे भी प्रसन्न थे। हरि! हरि! श्रीमद्भागवतम के चतुर्थ स्कन्ध में ध्रुव महाराज का यह प्रसंग आता है। मैंने अभी अभी जो बात आपसे कही हैं, वहीं पर श्रील प्रभुपाद एक तात्पर्य में लिखते हैं (प्रभुपाद की नम्रता तो देखिए। कैसे देखोगे, यदि हम सुनाएंगे, तो आप देखोगे, हम आपको दिखाएंगे।) कि मेरे शिष्य भी जिन्हें मैंने मार्ग दिखाया अथवा मंत्र दिया है, वे अपनी साधना में सिद्ध होंगे। भगवान् उनके लिए विमान भेजेंगे। उस विमान में विराजमान होकर जब वे वैकुण्ठ के रास्ते में होंगे, तब संभावना है कि वे मुझे (श्रील प्रभुपाद) याद करेंगे। श्रील प्रभुपाद के शिष्य वैकुण्ठ जा रहे हैं। श्रील प्रभुपाद लिखते हैं कि तब भगवान् मुझे भी भगवतधाम ले जाएंगे। हरि! हरि! ऑल इंडिया पदयात्रा वाले तो समझ गए, पता नहीं सभी की समझ में आया या नहीं कि प्रभुपाद का क्या भाव है। माधवी कुमारी समझ रही हो? हरि !हरि! *य़ारे देख, तारे कह' कृष्ण'- उपदेश।आमार आज्ञाय गुरु हञा तार' एइ देश।* *( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला श्लोक ७. १२८)* *अनुवाद:- हर एक को उपदेश दो की वह भगवतगीता तथा श्रीमद्भागवत में दिए गए भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे। इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो।* ऐसा मार्गदर्शन करो। कृष्ण उपदेश करो, उसका फायदा है। आपने जिन जिनको उपदेश किया, यदि उन्होंने उस उपदेश का पालन किया तब वे वैकुण्ठ गमन के अधिकारी बन जाएंगे तब आप को याद करने की संभावना है। ( वे सोचेंगे, उनकी सहायता से, मुझे ऐसा मार्गदर्शन मिला, उन्होंने मुझे उपदेश किया। मेरी मदद की, इसी का ही परिणाम है कि मैं वैकुण्ठ जा रहा हूँ। (उनका क्या होगा?) तब भगवान् आपको वैकुण्ठ ले जाने की व्यवस्था करेंगे। केवल अपने खुद के प्रयास से ही नहीं जाएंगे। हम प्रचार करेंगे और वे भक्त बनेंगे, वे भक्त भी हमारे लिए प्रार्थना करेंगे, हमें याद करेंगे। तब हमारा भी कल्याण अथवा उद्धार अथवा भगवतधाम लौटना होगा। *जाऊं देवाचिया गांवां।* *घेऊ तेथेचि विसावा।।* *देवा सांगों सुखदुःख।* *देव निवारील भूक।।* *घालूं देवासीच भार।* *देव सुखाचा सागर।।* *राहों जवल्ली देवापाशीं* *आतां जडेनि पायांशी।।* *तुका ह्मणे आह्मी बालें* *या देवाचीं लडिवालें।।* ऐसा भी कहा गया है कि जब हम भगवतधाम जाएंगे तब भगवान् के धाम में जाकर विश्राम करेंगे। यहां विश्राम नही करेंगे, आराम हराम है। यहां तो परिश्रम करेंगे, कई भक्त कहते हैं, महाराज, टेक रेस्ट,टेक रेस्ट( विश्राम कीजिए, विश्राम कीजिए। वैसे संत तुकाराम महाराज ने भी कहा, जब भगवतधाम लौटेंगे, वहाँ विश्राम लेंगे अन्यथा आराम हराम है। श्रील प्रभुपाद की जय! पद्मपुराण में भागवत महात्मय में एक प्रसंग समझाया है। गोकर्ण अपने भ्राताश्री धुंधकारी को उसके उद्धार के लिए कथा सुना रहे हैं। वैसे कई और सारे आ कर बैठ ही गए थे। असंख्य लोग भागवत कथा सुन रहे थे। प्रतिदिन धुंधकारी भागवत कथा के श्रवण से मुक्त हो रहे थे। जब कथा का समापन हुआ तब वह मुक्त और भक्त भी हो ही गए। (आप शायद नोट करते होंगे , हम केवल मुक्त ही नहीं कहते। मुक्त होना लक्ष्य नहीं है। भक्त होना जीवन का लक्ष्य है। ) कई मुक्त हुए व्यक्तियों में कोई विरला ही भक्त होता है। मायावादी अथवा अद्वैत् वादी का लक्ष्य मुक्ति या मोक्ष होता है लेकिन वैष्णवों का लक्ष्य मुक्ति नहीं होता। इसे केवलम् नरकायते भी कहते हैं, *कैवल्यं नरकायते त्रिदेशपूराकाशपुष्पायते दुर्दान्तेन्द्रियकालसर्पपटलि प्रोत्खातदंष्टायते। विश्वं पूर्णसुखायते विधिमहेन्द्रादिश्र्च कीटायते यत्कारूण्यकटाक्षवैभवतां तं गौरमेव स्तुमः।।* *(चैतन्य चरितामृत 5)* *अनुवाद:- भक्तों के लिए ब्रह्म के अस्तित्व में लीन हो जाने का आनंद नर्क के समान है। उसी प्रकार ,उसे स्वर्ग लोक में उन्नत होना एक दूसरी तरह का मृगजाल लगता है। योगीगण इंद्रिय दमन के लिए ध्यान करते हैं परंतु भक्त को इंद्रियां टूटे हुए दांत वाले सर्प के समान प्रतीत होती हैं। पूरा भौतिक ब्रह्मांड भक्त को आनंदमय लगता है और ब्रह्मा और शिव आदि बड़े देवता उसे कीट के समान प्रतीत होते हैं। इस प्रकार की स्थिति उस भक्त की होती है जिसे श्री चैतन्य महाप्रभु की कृपा का एक छोटा सा कटाक्ष मिला है ऐसे श्रीचैतन्य महाप्रभु को, जो सबसे उदार चरित्र हैं, मैं आदर युक्त प्रणाम करता हूं।* यह मुक्ति नरकायते अर्थात नरक से भी बेकार की चीज़ है, जो वैष्णव होते हैं, वे इसलिए भक्ति करते हैं। तत्पश्चात वे भक्त हो जाते हैं और भगवान् को प्राप्त करते हैं व भगवतधाम लौटते हैं। धुंधकारी मुक्त व भक्त हुए। कथा का समापन होते ही वैकुण्ठ से विमान आया और इशारा किया कि तुम! तब शायद सभी सोच रहे थें कि मुझे तो विमान में बैठने के लिए नहीं कह रहे, मुझे तो नहीं कह रहे। वैसे जब कथा के समय कोई भक्त कथा सुनते सुनते सो जाता है तब कथाकार कहता है कि ए तुम सोने वाले! तब वह सोने वाला पीछे देखता है, ताकि औरों को यह पता चले कि नहीं, नहीं, मैं नहीं सो रहा था। शायद यह वक्ता किसी ओर की तरफ उंगली कर रहे हैं या किसी अन्य के लिए संकेत कर रहे हैं। वह मैं नहीं हूं। 'आनेस्टी इज द् बेस्ट पॉलिसी' हम ईमानदार नहीं होते। यहां पर जब विमान आया और विष्णुदूतों ने जैसा कि उनको आदेश था कि उस व्यक्ति को ले आना, पर सभी सोच रहे थे कि क्या मुझे बुला रहे है, मुझे बुला रहे है मुझे सीढ़ी से ऊपर चढ़ कर विमान में बैठने के लिए कह रहे हैं लेकिन धुंधकारी ही केवल अधिकारी अथवा योग्य पात्र बन चुका था। उस वक्त उस भागवत कथा के वक्ता को भी अजरज लगा कि यह हुआ क्या? कथा तो सभी ने सुनी और आप एक व्यक्ति को वैकुण्ठ विमान में बैठने के लिए कह रहे हो, यह सब बातें हुईं। विष्णुदूतों ने कहा कि कथा तो सभी ने सुनी पर कथा का जो मनन होता है अर्थात कथा के उपरांत जो मनन व चिंतन होता है , वह सभी ने नहीं किया, एक ने ही किया। इसलिए हम उनको ले जा रहे हैं। धुंधकारी भी वैकुण्ठ गए। उन विष्णुदूतों ने कहा कि आप कथा का पुनः आयोजन करो और पहले से बता कर रखो, कथा का मनन करना होता है। उस कथा को ह्रदयंगम करना होता है। केवल कथा को स्टोर( एकत्रित) करके नहीं रखना होता है। दुबारा कथा करो, सबको सावधान करो, विधि निषेध बता दो। यह निषिद्ध बात है, वैसा ही किया गया। गोकर्ण ने दुबारा कथा का आयोजन किया, सभी आ गए। अब सब दूसरी बार सुन रहे हैं। कथा के उपरांत प्रतिदिन उनका मनन व चिंतन भी हो रहा है। कथा का समापन हुआ, पहली बार विष्णुदूत छोटा सा ही विमान लेकर आए थे। एक व्यक्ति को ले जाना था लेकिन अब हजारों लोगों को ले जाना है। जम्बोजेट्स लैंड हो रहे थे। आप सबका आदेश हुआ है, उठो। सब उठे और सबको विमान में बैठाया। हरि हरि! इस बार स्वयं भगवान् भी आए थे उन्होंने कथाकार गोकर्ण को भी कहा आप भी पधारिये। हम ऐसी बात सुनते हैं कि सन्त तुकाराम महाराज तो 'सदेह' वैकुण्ठ गए । ऐसा इतिहास है। रास्ते में उस देह का क्या हुआ यह बात कोई नहीं जानता लेकिन जब उन्होंने देहु से प्रस्थान किया तब उन्होंने अपनी देह के साथ प्रस्थान किया लेकिन अधिकतर दूसरी घटनाएं व लीलाएँ व वैकुण्ठ प्रस्थान की जो बातें है, वहां पर प्रवासी या वैकुण्ठ गमन के अधिकारी अपने स्वरूप को धारण करते हैं, चतुर्भुज हो जाते हैं। वे भी पीताम्बर वस्त्र पहने हैं, मुकुट है,, कुंडल है। वैकुण्ठ के लिए प्रस्थान करने वाले *मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः* *( श्रीमद्भागवतम् २.१०.६)* *अनुवाद:- परिवर्तनशील स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों को त्याग कर जीवात्मा के रूप की स्थायी स्थिति मुक्ति है।* वे अपने स्वरूप में स्थित होकर र्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः अन्य रूप व अन्य देह को त्यागकर अर्थात देह को छोड़ते हैं। आत्मा का भी रूप है, आत्मा का हाथ, पैर, कान, नाक सब कुछ है। वह विमान में विराजमान होगा। वह अपनी सीट लेगा, तत्पश्चात प्रस्थान होगा। ऐसा ही प्रस्थान हुआ, ऐसे कई प्रसंग है। तुकाराम महाराज का प्रसंग एकदम नया है। यह ताजी खबर है लेकिन प्राचीन काल में कई सारे वैकुण्ठ गमन हुए जिसको देखने वाले कई साक्षी रहे, जिसका वर्णन आया है। पर्दे के पीछे तो वैकुण्ठ गमन होते ही रहते हैं लेकिन कुछ वैकुण्ठ गमन भगवान् ने दिखाए हैं। फ़ोटो खींच सकते थे, वीडियो बना सकते थे। सेल्फी भी खींच सकते थे। गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल। जीव जागो। यहीं पर विराम देते हैं।

English

Russian