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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक 15.05.2021 हरे कृष्ण!!! गौरांगा!!! आज इस जपा कॉन्फ्रेंस में 877 स्थानों से भक्त जप कर रहे हैं। सुन लिया? यह अच्छी खबर है। संख्या अच्छी है इसलिए अच्छी खबर है। आज की ताजी खबर है। यहां इतने सारे भक्तों का जीव जागो हुआ है। जीव जागो, जीव जागो, गोराचाँद बोले। कत निद्रा जाओ माया-पिशाचीर कोले॥1॥ भजिब बलिया ऐसे संसार-भितरे। भुलिया रहिले तुमि अविद्यार भरे॥2॥ तोमार लइते आमि हइनु अवतार। आमि विना बन्धु आर के आछे तोमार॥3॥ एनेछि औषधि माया नाशिबार लागि। हरिनाम-महामंत्र लओ तुमि मागि॥4॥ भकतिविनोद प्रभु-चरणे पडिया। सेइ हरिनाममंत्र लइल मागिया॥5॥ (1) श्रीगौर सुन्दर कह रहे हैं- अरे जीव! जाग! सुप्त आत्माओ! जाग जाओ! कितनी देर तक मायारुपी पिशाची की गोद में सोओगे? (2) तू इस जगत में यह कहते हुए आया था, ‘हे मेरे भगवान्‌, मैं आपकी आराधना व भजन अवश्य करूँगा,’ लेकिन जगत में आकर अविद्या (माया)में फँसकर तू वह प्रतिज्ञा भूल गया है। (3) अतः तुझे लेने के लिए मैं स्वयं ही इस जगत में अवतरित हुआ हूँ। अब तू स्वयं विचार कर कि मेरे अतिरिक्त तेरा बन्धु (सच्चा मित्र) अन्य कौन है? (4) मैं माया रूपी रोग का विनाश करने वाली औषधि “हरिनाम महामंत्र” लेकर आया हूँ। अतः तू कृपया मुझसे महामंत्र मांग ले। (5) श्रील भक्तिविनोद ठाकुर जी ने भी श्रीमन्महाप्रभु के चरण कमलों में गिरकर यह हरे कृष्ण महामंत्र बहुत विनम्रता पूर्वक मांग लिया है। पिशाचीर कोले - हम सब माया रूपी पिशाचीर की कोले अर्थात गोद में लेटे हुए हैं। हम लोग गोद में केवल रात्रि को ही नहीं लेटते अपितु हम दिन में भी लेटे ही रहते हैं। हम माया में ही है, इसलिए रात दिन लेटे ही रहते हैं। माया-मुग्ध जीवेर नाहि स्वतः कृष्ण-ज्ञान। जीवेरे कृपाय कैला कृष्ण वेद-पुराण ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला २०.१२२) अनुवाद: बद्धजीव अपने खुद के प्रयत्न से अपनी कृष्णभावना को जाग्रत नहीं कर सकता। किन्तु भगवान् कृष्ण ने अहैतुकी कृपावश वैदिक साहित्य तथा इसके पूरक पुराणों का सर्जन किया। गौरांगा! गौरांग की कृपा से, हम जो यहां उपस्थित हैं, वे तो जग रहे हैं, नहीं नहीं, अपितु जग चुके हैं। इतना नहीं कह सकते कि वे पूरी तरह जगे हैं या नहीं किन्तु आँखें तो खोल रहे हैं। आंखें खोल कर फिर कान भी खोल कर सुन रहे हैं। जैसे जैसे हम अधिक अधिक सुनते जाएंगे, वैसे वैसे ही हम अधिक अधिक जगने वाले हैं। सोने वालों, जागो। ॐ असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय, मॄत्योर्मा अमॄतं गमय ॥ अर्थ: हे प्रभु! असत्य से सत्य, अन्धकार से प्रकाश और मृत्यु से अमरता की ओर मेरी गति हो । तब तमसो मा ज्योतिर्गमय होगा। मा, मतलब 'मत' सोना या अंधेरे में मत रहना। ज्योतिर्गमय, ज्योति की ओर जाओ। ज्ञान की ज्योति की ओर जाओ। ज्ञान की ज्योति भगवान् ही है। हरि! हरि! मेरे मन में कई विचार आ रहे थे। वैसे सभी के मन में विचार उदित होते ही हैं। हम जब जगे होते हैं, केवल तभी नहीं अपितु हम रात्रि के समय सो जाते हैं लेकिन मन तो सोता नहीं हैं। इसलिए हम सपने देखते हैं। यह निरिक्षण है कि जब हम स्वप्न देखते हैं तब भी हमारा मन सक्रिय होता है। हरि! हरि! जैसा कि मैंने कहा कि मैं सोच रहा था। सोचने वाला मन होता है। स वै मनः कृष्णपदारविन्दयो बचांसि वैकुण्ठगुणानुवर्णने । करी हरेमन्दिरमार्जनादिषु श्रुति चकाराच्युतसत्कथोदये ॥१८ ॥ मुकुन्दलिङ्गालयदर्शने दृशी तद्धत्यगात्रस्पर्शासङ्गमम् । प्राणं च तत्पादसरोजसा श्रीमनुलस्या रसनां तदर्पिते ॥१ ९ ॥ पादौ हरेः क्षेत्रपदानुसर्पणे शिरो हृषीकेशपदाभिवन्दने । कामं च दास्ये न तु कामकाम्बया यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रतिः ॥ २० ॥ ( श्रीमद् भागवतं ९.४.१८-२०) अनुवाद:- महाराज अम्बरीष सदैव अपने मन को कृष्ण के चरणकमलों का ध्यान करने में, अपने शब्दों को भगवान् का गुणगान करने में , अपने हाथों को भगवान् का मन्दिर झाड़ने - बुहारने में तथा अपने कानों को कृष्ण द्वारा या कृष्ण के विषय में कहे गये शब्दों को सुनने में लगाते रहे । वे अपनी आँखों को कृष्ण के अर्चाविग्रह , कृष्ण के मन्दिर तथा कृष्ण के स्थानों , यथा मथुरा तथा वृन्दावन, को देखने में लगाते रहे । वे अपनी स्पर्श- इन्द्रिय को भगवद्भक्तों के शरीरों का स्पर्श करने में अपनी घ्राण इन्द्रिय को भगवान् पर चढ़ाई गई तुलसी की सुगन्ध को सूंघने में और अपनी जीभ को भगवान् का प्रसाद चखने में लगाते रहे । उन्होंने अपने पैरों को पवित्र स्थानों तथा भगवत् मन्दिरों तक जाने में, अपने सिर को भगवान के समक्ष झुकाने में और अपनी इच्छाओं को चौबीसों घण्टे भगवान की सेवा करने में लगाया। निस्सन्देह, महाराज अम्बरीष ने अपनी इन्द्रियतृप्ति के लिए कभी कुछ भी नहीं चाहा। वे अपनी सारी इन्द्रियों को भगवान् से सम्बन्धित भक्ति के कार्यों में लगाते रहे। भगवान् के प्रति आसक्ति बढ़ाने की और समस्त भौतिक इच्छाओं से पूर्णतः मुक्त होने की यही विधि है । सोचना कोई खराब चीज़ नहीं है, सोचना मतलब माया नहीं है। लेकिन सोच किस प्रकार की है, उस पर निर्भर करता है कि वह माया है या कृष्ण है। मैं सोच तो रहा था। (यह सुनकर आप यह नहीं सोचना कि महाराज माया में थे। महाराज सोच रहे हैं अर्थात माया में हैं। मुझे उम्मीद है, आप ऐसा नहीं सोचोगे ) कल जो अक्षय तृतीया थी। पता नही पर मेरे मन में यह विचार उदित हुआ कि कल की अक्षय तृतीया क्या केवल कल ही थी? इस संसार ने कितनी अक्षय तृतीया देखी हैं। गत वर्ष, उससे पूर्व, 5 वर्ष पूर्व, 10 वर्ष पूर्व भी। 500 वर्ष पूर्व माधवेंद्रपुरी ने क्षीर चोर गोपीनाथ की खीर ग्रहण की थी। 5000 वर्ष पूर्व अक्षय तृतीया के दिन द्रौपदी का वस्त्र हरण हो रहा था। तब कृष्ण प्रकट हुए थे। अक्षय तृतीया पर भगवान् परशुराम प्रकट हुए थे। अक्षय तृतीया थी इसलिए कल हम आपको आधा घंटा सुनाते रहे कि अक्षय तृतीया के दिन यह हुआ, अक्षय तृतीया के दिन वह हुआ। लेकिन एक ही साल ही नहीं हुआ। हजारों, लाखों, करोड़ो अक्षय तृतीया इस संसार ने देखी है। वह लिस्ट आपको सुनाते सुनाते एक बात तो रह ही गयी। अक्षय तृतीया के दिन ही सतयुग प्रारंभ होता है। वैसे अन्य युगों के विषय में कहा है लेकिन सतयुग के विषय में कम् ही कहा है। सतयुग अक्षय तृतीया के दिन प्रारंभ होता है। जो जानकार है अथवा जो ज्ञानवान है। सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः।। ( श्रीमद् भगवत गीता ८.१७) अनुवाद:- मानवीय गणना के अनुसार एक हजार युग मिलकर ब्रह्मा का दिन बनता है और इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि भी होती है। भगवत गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं कि ब्रह्मा के एक दिन में सहस्त्र युग होते हैं। सहस्त्र युगों का एक दिन होता है। एक सहस्त्र युग, दूसरा सहस्त्र युग, यह महायुग कहलाते हैं। महायुग मतलब सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग को मिलाकर जब युगों अथवा काल की गणना हुई, उसको युग कहते हैं। ऐसे हजार युग जब बीतते हैं तब ब्रह्मा का एक दिन होता है। ब्रह्मा के एक दिन में हजार बार सतयुग भी आता है। जब जब सतयुग आता है तब वह अक्षय तृतीया के दिन ही प्रारंभ होता है। इसी को शास्त्र कहते हैं। हरि! हरि! इसी को ज्ञान कहते हैं, यह ज्ञान है। एक दृष्टि से काल की गणना का ज्ञान, इस सृष्टि का ज्ञान या फिर ब्रह्मा होने का ज्ञान अर्थात यह ज्ञान कि ब्रह्मा है, ब्रह्मलोक है और उनकी आयु इतनी लंबी है, इसका ज्ञान और उनका एक दिन इतने युगों का होता है लेकिन यह ज्ञान किसको है? लोग ऐसे ज्ञान से रहित हैं। श्रुतिशास्त्र निन्दनम वैदिक साहित्य जैसे चारों वेदों तथा पुराणों की निंदा करना ( श्रीचैतन्य चरितामृत आदि लीला तात्पर्य 8.24) हम लोग जप कर रहे हैं लेकिन अधिकतर लोग जप भी नही करते, तब वह महाअपराध व महापाप हुआ। हम जप भी कर रहे हैं लेकिन साथ में एक अपराध भी कर रहे हैं, 'श्रुतिशास्त्र निन्दनम' अर्थात श्रुति शास्त्र की निंदा मतलब श्रुति शास्त्र को स्वीकार ही नहीं करते, उसको पढ़ते ही नहीं, उसको सुनना ही नहीं है। यदि पढ़ सुना लिया फिर कहना कि यह माइथोलॉजी ( काल्पनिक) है। ऐसे ही दन्त्य कथा है। काल्पनिक कथाएँ हैं। यह इतिहास नहीं है। जो संसार कहता हैं, ऐसा ही कहना, यह श्रुति शास्त्र निन्दनम हुआ। फिर हो गया प्राप्त... हरि! हरि! कल अक्षय तृतीया थी , हम अक्षय तृतीया की ही महिमा सुन रहे थे । हमनें अक्षय तृतीया के ही दिन जो इतनी सारी घटनाएं हुई, सुनाई किंतु केवल उतना ही नहीं, और भी बहुत कुछ है। हर वर्ष अक्षय तृतीया आती है, तो कुछ न कुछ विशेष घटनाएं भी घटी होगी। निश्चित उसका भी हमको ज्ञान नही है। जो भी है, काफी हैं। एक दृष्टि से पूर्ण ज्ञान भी है। ओम पूर्ण मदः, पूर्णमिदं, पूर्णात पूर्ण मुदच्यते,पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेववशिष्यते ( ईशोपनिषद) अनुवाद: भगवान पूर्ण हैं और पूर्ण से जो भी उत्पन्न होता है वह भी पूर्ण ही है । वह भी ज्ञान है, पूर्ण है। अगर हम संसार का अवलोकन करेंगे, पता चलेगा कि यह जो ज्ञान की बातें, सत्य कथाएं व बातें, इतिहास, पुराण हैं अथवा महाभारत हैं, रामायण हैं। इसके विषय में किसको पता है। अधिकतर लोगों को पता ही नहीं है। पंद्रह प्रतिशत लोग तो नास्तिक हैं। न अस्ति न अस्ति, हम नास्तिक हैं। ईमानदारी सर्वोत्तम नीति है। हम बड़े ईमानदार हैं और कहते हैं कि भगवान् नहीं हैं लेकिन भगवान् हैं। यह कहने वाले भी हमारे इसाई, मुस्लिम, यहूदी हुए, अन्य भी धर्म है। उनको भी ये ज्ञान कहां है? उनका ज्ञान का इतिहास अर्थात वे एडम और इव का ही नाम लेते हैं कि वे इतने हजार वर्ष पूर्व प्रकट हुए थे। डार्विन की थ्योरी ऑफ एवोल्यूशन तो है ही। पहले अमीबा था, उनको विठोबा का पता नहीं। अमीबा का पता है। उनको भगवान् जो 'बा' है, उसका पता नहीं है। इनको भगवान् का भी पता नहीं है। ब्रह्मा भी है, कौन जानता है व कौन ब्रह्मा को स्वीकार करता है, फिर भगवान् तो दूर की बात है, ब्रह्मा को कौन जानता है। अगर वे जानते हैं तो वानर को जानते हैं। बंदर को जानते हैं कि हम बंदर की औलाद हैं। ऐसा डार्विन ने घोषित किया। रेवोलुशन हुई थी, तब हम आप मनुष्य बने। आपका क्या विचार है, आप या हम बंदर की औलाद हैं या ब्रह्मा की औलाद हैं। 30-35% मनुष्य इस पृथ्वी पर ईसाई हैं। उनको यह ज्ञान नहीं है। तब ये भूल जाओ कि अक्षय तृतीया क्या होती है। रामायण, महाभारत यह और वह अथवा परशुराम प्रकट हुए थे, यह सब अवतार और ना ही वैकुंठ, न ही गोलोक का आईडिया उनके लिए बहुत दूर की बातें हैं। कोई नहीं समझता। शून्य, लगभग शून्य । वे काल की गणना शुरू करेंगे। बी.सी. या ए.डी. से अर्थात उन्होंने क्राइस्ट (ईसा मसीह) को बीच में ला दिया, उनके पहले का इतिहास या पहले का घटनाक्रम २००० वर्ष पहले का बिफोर क्राइस्ट कहलाता है और बाद का, आफ्टर क्राइस्ट कहलाता है। बिफोर क्राइस्ट को हम खींचते खींचते १००० वर्ष पूर्व ऐसा हुआ था या तीन हजार वर्ष पूर्व ऐसा हुआ था, दस हजार वर्ष पूर्व ऐसा हुआ था तत्पश्चात समाप्त, आगे बढ़ नहीं सकते। कुछ नहीं कह सकते। कहां इस प्रकार का यह ज्ञान अर्थात कुरान / बाइबल या और जो उनके शास्त्र जो ज्ञान देते हैं और कहां ये हमारे शास्त्र। तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ | ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि ।। ( श्रीमद् भगवत गीता१६.२४) अनुवाद:- अतएव मनुष्य को यह जानना चाहिए कि शास्त्रों के विधान के अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है । उसे विधि-विधानों को जानकर कर्म करना चाहिए जिससे वह क्रमशः ऊपर उठ सके। कृष्ण कहते हैं कि शास्त्र प्रमाण है किंतु कौन सा शास्त्र प्रमाण है। एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतम् । एको देवो देवकीपुत्र एव ।। एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि। कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा ।। अर्थ:- आज के युग में लोग एक शास्त्र, एक ईश्र्वर, एक धर्म तथा एक वृति के लिए अत्यन्त उत्सुक हैं। अतएव सारे विश्र्व के लिए केवल एक शास्त्र भगवद्गीता हो। सारे विश्र्व के लिए एक इश्वर हो-देवकीपुत्र श्रीकृष्ण । एक मन्त्र, एक प्रार्थना हो- उनके नाम का कीर्तन *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। केवल एक ही कार्य हो – भगवान् की सेवा।” (गीता महात्म्य ७) भगवत गीता शास्त्र है या वेदान्त शास्त्र है। वेद पुराण शास्त्र है। महाभारत शास्त्र है। रामायण शास्त्र है। यह सारे मनुष्यों के लिए है तो सही लेकिन सभी तो पूरे मनुष्य बने ही नही हैं। उनमें कुछ दानवी प्रवृत्ति रहती ही है। सभी पूरे मानव नहीं हुए। ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् | मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।। (श्रीमद् भगवत गीता ४.११) अनुवाद: जिस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अनुरूप मैं उन्हें फल देता हूँ | हे पार्थ! प्रत्येक व्यक्ति सभी प्रकार से मेरे पथ का अनुगमन करता है। कुछ ही स्वीकार करते हैं कि भगवान् है, हां हैं। इसलिए भी उनको इतना सा कुछ भी ज्ञान प्राप्त है, उनके शास्त्र उनको उतना ही ज्ञान देते हैं लेकिन कुछ का ज्ञान जीरो ही है। नास्तिक हो गए हैं। जैसे हमारे वैज्ञानिक भाई अथवा शास्त्रज्ञ हुए। अभी यहां दूसरा विचार सम्मिलित करने का समय नही है लेकिन हल्का सा कहा जा सकता है कि एक होता है प्रत्यक्ष वाद। दूसरा होता है परोक्ष वाद। यह दो प्रसिद्ध प्रमाण भी हैं। वैसे परोक्ष वाद को श्रुति प्रमाण भी कहते हैं। प्राचीन काल में जो हुआ, अर्थात जो घटनाएं घटी। घटनाएं केवल इस ब्रह्मांड में ही घटी। ऐसी बात नही हैं। घटनाएं घटती ही रहती हैं। इस ब्रह्मांड से परे भी। परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः | यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति ।। ( श्रीमद् भगवत गीता ८.२०) अनुवाद : इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यय प्रकृति है, जो शाश्र्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है | यह परा (श्रेष्ठ) और कभी न नाश होने वाली है | जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता। | सनातन जगत है या वहां की घटनाएं, वहां की लीलाएँ, यह सब परोक्ष वाद अथवा श्रुति प्रमाण में आती हैं। इस संसार का जो वाद अथवा इज्म है, वह प्रत्यक्ष वाद है। जो वैज्ञानिक इस संसार की अध्यक्षता कर रहे हैं, वे वैज्ञानिक ही शास्त्रों के गुरु हो गए हैं अर्थात वैज्ञानिक अर्थात प्रत्यक्ष वादी जो भी कहेंगे, दुनिया केवल मुंडी( सिर) हिलाती है। यस, यस! 'शास्त्रज्ञ कह रहे हैं अवश्य सत्य ही होगा'। लेकिन जब कोई साधु कुछ बताता है तो कहते हैं कि हम अंधाधुंध इसका अनुसरण नहीं करते। वे शास्त्रज्ञ को तो अंधाधुंध अनुसरण करते हैं। हमें इस प्रत्यक्षवाद से बचना है। प्रभुपाद दो मेंढकों के माध्यम से समझाते हैं कि एक पैसिफिक महासागर में रहने वाला मेंढक, कुएं में रहने वाले मेंढक को मिलने के लिए आ गया। कूपमंडूक। कूप मतलब कुंआ। मंडूक मतलब मेंढक।कूपमंडूक इस संसार में व्यक्ति भी हैं। प्रभुपाद उसको ही समझा रहे हैं। कूप में रहने वाले मंडूक ने कहा-मेंढक महाशय! आपका स्वागत है, कहां से आए हो, कहां रहते हो? तब उस मेंढक ने कहा कि मैं पैसिफिक् महासागर में रहता हूँ। तब कूप में रहने वाले मंडूक ने पूछा- अच्छा! वह कितना बड़ा है? क्या बहुत बड़ा है? क्या मेरे कुएं से दुगना है क्या?पैसिफिक् महासागर में रहने वाले मेढ़क ने कहा, नहीं! नहीं! इससे कई गुणा बड़ा है।तब कूप में रहने वाले मंडूक ने पूछा- क्या वह चार गुना हो सकता है। तब दूसरे मेंढक ने उत्तर दिया कि नहीं नहीं, इससे कई गुना ज्यादा बड़ा हैं। तब कूप में रहने वाले मंडूक ने पूछा- क्या दस गुना या सौ गुना बड़ा है? वैसे इसकी क्या तुलना हो सकती है। लाखों करोड़ो कुएं भी छोटे से होते हैं। उस कुएं की तुलना पैसिफिक महासागर के साथ कैसे हो सकतीहै। कितना बड़ा है कोई कह सकता है क्या?। कुएँ में रहने वाला मेंढक केवल कह ही नही रहा था, वह साथ साथ अपना पेट फूला कर दिखा भी रहा था। चौगुना है क्या या दस गुना है क्या? ऐसा कहते कहते वो अपने पेट को फूला रहा था तब विस्फोट हुआ व उसका अस्तित्व समाप्त हो गया अर्थात वह नहीं रहा। इस संसार की यह समस्या है। यह संसार जितना अज्ञानी है और उतना ही रात दिन शास्त्रज्ञ के प्रयास चल रहे हैं। वह अपनी इन्द्रियों की मदद से अधिक अधिक जानकारी प्राप्त करते हैं। वह सारी जानकारी प्रत्यक्ष होती है। अक्ष मतलब आँखें भी होता है, केवल आँखें ही नहीं, नासिका और इन्द्रियों का भी ज्ञान का साधन इंद्रियां तथा मन ही होता है। उनकी बुद्धि जैसे विनाशकाले विपरीत बुद्धि होती है। सदा के लिए उनकी बुद्धि अथवा दिमाग उल्टा काम करता है। न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः | माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः || ( श्रीमद् भगवतगीता ७.१५) अनुवाद: जो निपट मूर्ख हैं, जो मनुष्यों में अधम है, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते। कृष्ण ने कहा - संसार में दो प्रकार के लोग होते हैं। एक दुष्कृतन होते हैं, दूसरे सुकृतिन होते हैं। सुर और असुर, ये दो प्रकार के लोग हैं। एक हैं सुकृतिन, दूसरे हैं दुष्कृतन। अच्छा या पुण्य कृत्य करने वाले या पाप कृत्य करने वाले। जो दुष्कृतिन होते हैं- वे भी चार प्रकार के होते हैं। (अभी विस्तार से नही सुना सकते) चार प्रकार के लोग मेरी शरण में नहीं आते उनको दुष्कृतिन कहा गया है। वे भगवान् की ओर नहीं आते व, भगवान् की शरण नहीं लेते हैं। न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते मेरी शरण में नहीं आते। चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन | आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ || ( श्रीमद् भगवतगीता ७.१६) अनुवाद: हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं – आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी। भगवान् ने एक के बाद एक वचन कहे हैं। चार प्रकार के लोग मेरी शरण में नहीं आते- वे हिन्दू भी हो सकते हैं, मुसलमान भी हो सकते हैं, जन्म तो हुआ इस धर्म या उस धर्म में लेकिन उन्हें धर्म का ज्ञान नही है या उनके अपने जो शास्त्र हैं, उनका किन्चित सा ज्ञान है। जैसे कुँए में जितना जल है। कहां कुँए का जल और कहां महासागर का जल। उसी प्रकार उनकी उतनी ही शरण है। सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः || ( श्रीमद् भगवतगीता १८.६६) अनुवाद: समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत । वे अन्य धर्मो के अनुयायी हैं, उनके भी शास्त्र हैं। उन से भी ज्ञान प्राप्त होता है लेकिन कितना ज्ञान? जैसे कुँए में जितना जल होता है, बस उतना। दूसरे जो गौडीए वैष्णव हैं, वे परम्परा से ज्ञान प्राप्त करते हैं एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप || ( श्रीमद् भगवतगीता 4.2) अनुवाद:- इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु - परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई , अत : यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है। भगवान् से कोई बात छिपाते नहीं हैं। वे चार प्रकार के लोग होते हैं। आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ । यदि वे दुखी होते हैं, तब भगवान् के पास आते हैं। भगवान् के पास आना भी चाहिए। अर्थार्थी- जिन्हें धन की आवश्यकता है, चलो, भगवान् के पास दौड़ते हैं। जिसे कोई जिज्ञासा है अथवा भगवान के सम्बंध में कोई जिज्ञासा है, अथातो ब्रह्म जिज्ञासा ( वेदान्त सूत्र १.१.१) अनुवाद:- अतः अभी ब्रह्म ( पूर्ण पुरषोत्तम भगवान्) के विषय में प्रश्न पूछने चाहिए। कुछ ज्ञान हैं वे भी आगे बढ़ते हैं और ज्ञानार्जन करते हैं। चार प्रकार के लोग मेरी और आते हैं, चार प्रकार के लोग मेरी ओर नहीं आते। भगवान् की ओर जो आते हैं। माया-मुग्ध जीवेर नाहि स्वतः कृष्ण-ज्ञान। जीवेरे कृपाय कैला कृष्ण वेद-पुराण ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला 20.122) अनुवाद: बद्धजीव अपने खुद के प्रयत्न से अपनी कृष्णभावना को जाग्रत नहीं कर सकता। किन्तु भगवान् कृष्ण ने अहैतुकी कृपावश वैदिक साहित्य तथा इसके पूरक पुराणों का सूजन किया। भगवान् ने जीवों पर कृपा करने के लिए वेद, पुराण दिए हैं। अन्य शास्त्रों का भी नाम होना चाहिए किन्तु इस श्लोक में नहीं है। यह सारे शास्त्र भगवान् ने दिए हैं। यह भगवान् की कृपा है। यह शास्त्र कोई हिन्दू शास्त्र नहीं है, यह भगवान् के दिये हुए शास्त्र हैं। सभी मनुष्यों के लिए हैं। आप जो भी हो आप मनुष्य हो, आपके लिए है।आप चाइनीज हो सकते हैं, आप मुसलमान हो सकते हो, आप हिन्दू हो सकते हो, आप इस में वैसे कुछ भी नहीं होते हो लेकिन आपने मान लिया है कि मैं चाइनीज़ हूँ या ईसाई हूँ, मैं हिन्दू हूँ, या काला हूँ। सर्वोपाधि - विनिर्मुक्त तत्परत्वेन निर्मलम् । हृषीकेण हृषीकेश - सेवनं भक्तिरुच्यते ॥ ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १९.१७०) अनुवाद: भक्ति का अर्थ है समस्त इन्द्रियों के स्वामी, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इन्द्रियों को लगाना। जब आत्मा भगवान की सेवा करता है , तो उसके दो गौण प्रभाव होते हैं । मनुष्य सारी भौतिक उपाधियों से मुक्त हो जाता है और भगवान् की सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं । ' वैसे यह ज्ञान आत्मा के लिए है, शरीर के लिए नहीं। यह हमारे मन के लिए भी नहीं है। कल हमनें अक्षय तृतीया के सम्बंध में सुनाया था, तब मैं कल दिन में सोच रहा था व जप के समय भी सोच रहा था। ऐसे विचार आ रहे थे। बहुत सारे विचार तो कह भी नहीं पाया लेकिन कुछ विचार आपके साथ शेयर किए हैं। आप लोग भी विचार करो। विचार करते हो या नहीं? किसी पाश्चत्य देश के तत्ववेत्ता ने कहा है "मैं विचार करता हूँ। इसलिए मैं हूँ।" मैं हूँ, यह होना चाहिए। आप हो, आप कैसे दावा कर सकते हो? आप हो। मैं सोचता हूँ। इसलिए मैं हूँ। आप हो या नहीं? न तो आप हिल रहे हो, न आप डुल रहे हो। कैसे पता चलेगा? आप सोचते तो होंगे। आप सोच रहे हो या नहीं? अगर आप सोचते हो तो मतलब आप हो अन्यथा आप निर्जीव हो। आप नहीं हो। इसलिए सोचा करो। कृष्ण ने कहा भी हैं मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु | मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे || ( श्रीमद् भगवत गीता 18.65) अनुवाद: सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो और मुझे नमस्कार करो | इस प्रकार तुम निश्चित रूप से मेरे पास आओगे | मैं तुम्हें वचन देता हूँ, क्योंकि तुम मेरे परम प्रियमित्र हो | कृष्ण का स्मरण करने के लिए अपने मन का प्रयोग करो। कृष्ण के द्वारा कही हुई, शास्त्रों में दी हुई बातों पर विचार करने के लिए, कुछ समझने के लिए, समझ कर कुछ औरों को समझाने के लिए अपने मन का प्रयोग करो। मन्मना, विचारवान बनिए। आप सब सोचा करो। कृष्ण के विषय में सोचो। सोचते रहो ,यहीं चिंतन है। चिंतन करते रहो। ठीक है। यहीं विराम देते हैं। हरे कृष्ण!!!

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