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*जप चर्चा* 19 -01-2022 *भगवन्नाम की महिमा* (मुरली मोहन प्रभु द्वारा ) हरे कृष्ण ! हम सब यहां गुरु महाराज और श्रील प्रभुपाद के अन्य शिष्यों के स्वास्थ्य के लिए सारे ग्रुप मिलकर बहुत सारा जप कर रहे हैं। यह बहुत सुंदर सेवा का अवसर हमें प्राप्त हुआ है। *ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥* *श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थापितं येन भूतले। स्वयं रूपः कदा मह्यं ददाति स्वपदान्तिकम्॥* *नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते लोकनाथ -स्वामिन् इति नामिने ।* *नम ॐ विष्णु-पादाय कृष्ण-प्रेष्ठाय भूतले श्रीमते भक्तिवेदांत-स्वामिन् इति नामिने नमस्ते सारस्वते देवे गौर-वाणी-प्रचारिणे निर्विशेष-शून्यवादि-पाश्चात्य-देश-तारिणे ॥* *जय ! श्रीकृष्ण-चैतन्य प्रभु-नित्यानन्द । श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि गौरभक्तवृन्द॥* *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥* हरे कृष्ण ! तो आज मुझे हरि नाम के विषय में या नाम की महिमा के विषय में चर्चा करने के लिए कहा गया है इसलिए आज हम हरि नाम की महिमा के विषय में चर्चा करेंगे। *वन्दे श्री कृष्ण चैतन्य - देवं तं करुणार्णवम् । कलावण्प्यति गूढ़ेयं भक्तिर्येन प्रकाशिता ॥* (चैतन्य चरितामृत मध्य 22.1) अनुवाद मैं श्री चैतन्य महाप्रभु को सादर नमस्कार करता हूँ । वे दिव्य करुणा के सागर हैं । वे यद्यपि भक्ति का विषय अत्यन्त गुह्य है , फिर भी उन्होंने इस कलह के युग कलियुग में भी उसे इतनी सुन्दरता से प्रकट किया है । चैतन्य महाप्रभु जो श्रीराधा कृष्ण के अवतार हैं देवं तं करुणार्णवम् है करुणा से भरे हुए हैं करुणा अवतार हैं कि वह हमें कलावण्प्यति गूढ़ेयं अर्थात जो बहुत ही कॉन्फिडेंशियल है, रसमय भक्ति जिसे उन्होंने माधुर्य रस हो या रस से भरी हुई भक्ति इसको हमें प्रदान किया है और कर रहे हैं। वह भी अत्यंत सुलभ वृत्ति से, किस प्रकार ऐसी भक्ति को प्राप्त किया जा सकता है ? ऐसी यह प्रार्थना है सनातन गोस्वामी उनके चरणों में दंडवत प्रणाम करते हैं चैतन्य महाप्रभु सनातन गोस्वामी को श्री हरि नाम की महिमा, चैतन्य चरितामृत जो पूर्ण रूप से अनेक जगह भरा हुआ है , सनातन गोस्वामी को अनेक प्रकार के भक्ति के अंग को समझा रहे हैं। *विविधाङ्ग साधन - भक्तिर बहुत विस्तार । सङ्क्षेपे कहिये किछु साधनाङ्ग - सार ।।* (चैतन्य चरितामृत मध्य 22.114) अनुवाद - मैं भक्ति के विविध साधनांगों के विषय में कुछ कहूँगा, जिनका विस्तारअनेक प्रकार से हुआ है। मैं मुख्य साधनांगों के विषय में संक्षेप में कहना चाहता हूँ । अनेक प्रकार की साधना भक्ति के अंग हैं और उसमें भी उप अंग हैं विस्तार रूप से जो फैला हुआ है फिर भी "सङ्क्षेपे कहिये किछु साधनाङ्ग - सार ", चैतन्य महाप्रभु सनातन गोस्वामी को कहते हैं कि मैं तुम्हें संक्षेप रूप में साधना के अंगो का सार कहूंगा और यह संक्षेप भी जो है आप समझ सकते हैं क्योंकि सार रूप में कह रहे हैं तो संक्षेप या सार रूप में भी जो है वह 64 अंग हैं। जो बहुत ही कम लोग, इसे अपना सकते हैं। लेकिन चैतन्य महाप्रभु की जो दया कृपा है वह अंत में कहते हैं 64 अंगों में भी जो पांच अंग हैं वह बहुत ही महत्वपूर्ण अंग है जो हम जानते हैं साधु संग, नाम कीर्तन, भागवत श्रवण, मथुरा वास (धाम वास) और श्रद्धा पूर्वक विग्रह की सेवा, यह पांच अंग हैं। *सकल साधन श्रेष्ठ एइ पञ्च अङ्ग, कृष्ण प्रेम जन्माय एड पाँचेर अल्प सङ्ग ॥* (चैतन्य चरितामृत मध्य 22. 129) अनुवाद " भक्ति के ये पाँच अंग सर्व अंगों में श्रेष्ठ हैं । यदि इन पाँचों को थोड़ा सा भी सम्पन्न किया जाए , कृष्ण प्रेम जाग्रत होता है " यह अल्प संग बहुत महत्वपूर्ण है जो थोड़ा भी इन पांच अंगो का संग करेंगे साधु संग कहो, नाम कीर्तन कहो, भागवत श्रवण कहो, या भगवान की सेवा कहो या धाम वास कहो, थोड़ा भी संग हम प्राप्त करेंगे तो कृष्ण प्रेम जन्माय, कृष्ण प्रेम का उदय होता है। ऐसा चैतन्य महाप्रभु कह रहे हैं अर्थात हम देखते हैं कि इतने सालों से जप कर रहे हैं, संग कर रहे हैं, भागवत श्रवण कर रहे हैं, अनेक अंग को अपना रहे हैं फिर भी यहां पर कहा गया है अल्प संग, थोड़ा भी अगर संग करते हैं तो कृष्ण प्रेम जन्माय , पर यह कृष्ण प्रेम हमारे हृदय में जन्म नहीं रहा, उदय नहीं हो रहा है इसका कारण क्या है ? आगे चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी में आते हैं उस समय वह कहते हैं। *तार मध्ये सर्वश्रेष्ठ नाम - सङ्कीर्तन | निरपराधे नाम लैले पाय प्रेम - धन ॥* (चैतन्य चरितामृत अन्त्य 4.71) अनुवाद “ भक्ति की नौं विधियों में से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है भगवान् के पवित्र नाम का सदैव कीर्तन करना । यदि कोई दस प्रकार के अपराधों से बचते हुए ऐसा करता है तो वह आसानी से भगवान् के अमूल्य प्रेम को प्राप्त कर लेता है । " अनेक अंगों में से नवधा भक्ति भी समझाया है और उसमें कहते हैं "तार मध्ये सर्वश्रेष्ठ नाम - सङ्कीर्तन | निरपराधे नाम लैले पाय प्रेम - धन", निरपराध की बात हो रही है। हम जानते हैं कि अपराध कितने प्रकार के हैं। कनिष्ठ अधिकारी अपराध में जप करता है फिर धीरे-धीरे थोड़ा उठता है और उसे नाम आभास होता है। शुद्ध नाम तो अंतिम स्टेज है जिससे कृष्ण प्रेम प्राप्त होता है। शुद्ध नाम जप करने से कृष्ण प्रेम प्राप्त होता है लेकिन हमें कृष्ण प्रेम तो क्या नाम आभास भी हो रहा है इसका भी डाउट है। क्योंकि हम निरंतर अपराधों में जप कर रहे हैं क्योंकि यहां कहा गया है नाम जो है वह भगवान का स्वरूप है भगवान स्वयं है भगवान का अवतार है नाम स्वरूप, हालांकि नाम और कृष्ण में भेद नहीं है। *कलि काले नाम रूपे कृष्ण अवतार।नाम हइते हय सर्व जगत निस्तार ।।* (चैतन्य चरितामृत 1.17.22) अनुवाद:- मनुष्य उसका निश्चित रूप से उद्धार हो जाता है । इस कलियुग में भगवान् के पवित्र नाम अर्थात् हरे कृष्ण महामन्त्र भगवान् कृष्ण का अवतार है । केवल पवित्र नाम के कीर्तन से भगवान् की प्रत्यक्ष संगति कर सकता है । जो कोई भी ऐसा करता है। अर्थात नाम के माध्यम से हमे सभी से मुक्त होना चाहिए अपराधों से कहो या भौतिक इच्छाओं से कहो या भौतिक जगत में जो दुख है ताप है इनसे कहो इन सब से मुक्त होना चाहिए। इस तरह से कहा जा रहा है शुद्ध नाम तो बहुत दूर की बात है नाम आभास होने से भी हम सारी चीजों से मुक्त होते हैं। यहां परीक्षाओं से भी मुक्त नहीं हो रहे और ना ही अनेक प्रकार के ताप और दुखों से मुक्त हो रहे हैं इसका मतलब वी आर कंटिनयसली चैटिंग अपराध में जप , श्रीवास आचार्य के उदाहरण से हम समझ सकते हैं किस तरह से सदा नाम लेने से भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो सकते हैं। चैतन्य महाप्रभु ने संकीर्तन आंदोलन की शुरुआत श्रीवास आंगन के घर से, उनके आंगन से की। हम सब जानते हैं कि चैतन्य महाप्रभु 1 साल तक श्रीवास आंगन में संकीर्तन करते रहे। आंदोलन वहां से शुरू हुआ क्योंकि श्रीवास आचार्य चैतन्य महाप्रभु के बहुत ही प्रिय भक्त थे। हम जानते हैं कि श्रीवास आचार्य कौन हैं ? पंच तत्व के एक तत्व हैं "श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौर भक्त वृन्द श्रीवास आचार्य जो है चैतन्य महाप्रभु के बहुत ही निकट के और प्रिय भक्त हैं और वह गृहस्थ भी हैं उनका बड़ा परिवार है उनके बच्चे हैं सगे संबंधी हैं और यह सभी लोग श्रीवास आचार्य के ऊपर निर्भर थे वैसे श्रीवास आचार्य किसी काम के लिए बाहर नहीं जाते थे (ही इज़ नॉट हेविंग जॉब एंड ही नेवर वेंट फॉर ए जॉब) ना ही उनका बिजनेस था धंधा था जिसके कारण कुछ आमदनी हो, सिर्फ सदा सर्वदा भगवान के चिंतन, भगवान के नाम में रहते थे। एक बार चैतन्य महाप्रभु श्रीवास आचार्य के घर में आते हैं। श्रीवास तुम्हारा तो बहुत बड़ा परिवार है बच्चे हैं पुत्र पुत्री हैं, पत्नी हैं कई सारे परिवार हैं तुम्हें बाहर काम करना चाहिए आमदनी की कोई सुविधा कर लेनी चाहिए इस तरह से चैतन्य महाप्रभु ने कहा, श्रीवास आचार्य सोचने लगते हैं बाहर काम में जाऊंगा काम करने लगूंगा तो माया का दास बनूंगा किन्तु मुझे तो कृष्णदास बनना है, कृष्ण के भक्तों का दास बनना है। बाहर काम करूंगा नौकरी करूंगा क्या कमा लूंगा, माया का दास बनना पड़ेगा इस तरह सोचते हैं और इस तरह चैतन्य महाप्रभु के कहने पर वो तीन तालियां बजाते हैं। चैतन्य महाप्रभु समझ नहीं पाते 3 तालियों का अर्थ क्या है ? तब श्रीवास आचार्य को महाप्रभु पूछते हैं इसका क्या अर्थ है ? श्रीवास कहते हैं पहली ताली 1 दिन यदि भगवान सुविधा नहीं करेंगे हमारा पालन-पोषण करने का, मेरा परिवार है (वैसे श्रीवास आचार्य इस परिवार को मेरा परिवार ऐसा नहीं समझते हैं यह मेरी पत्नी है यह मेरे बच्चे हैं यह मेरी पुत्री है या मेरा लड़का है या मेरे मां-बाप हैं या मेरा घर है) श्रीवास आचार्य कभी ऐसा नहीं समझते थे वह यह समझते थे यह कृष्ण का परिवार है मैं भी कृष्ण का हूं और यह स्त्रियां यह मेरी पुत्री है मेरे बच्चे यह सब कृष्ण का परिवार हैं और कृष्ण का परिवार है तो निश्चित रूप से कृष्ण ही इसे संभालते हैं। जब हम यह समझते हैं कि मेरा परिवार है मेरे बच्चे हैं मेरा घर है तो मेंटेन करने के लिए हमें प्रयास करना पड़ता है। किन्तु जब हम यह समझते हैं कि यह परिवार जो है कृष्ण का परिवार है मेरी पत्नी जो है वह भी कृष्ण के परिवार की है मेरे बच्चे यह सब कृष्ण के परिवार के हैं उनकी सेवा में लगे हुए हैं इस प्रकार बहुत ही सुंदर रूप से सारे परिवार को श्रीवास कृष्ण की सेवा में लगाते थे और कहते हैं परिवार तो कृष्ण का है और कृष्ण यदि पहले 1 दिन नहीं देंगे तो हम टॉलरेट करेंगे, सह लेंगे, यदि खाने की सुविधा यदि कोई या फिर कोई और सुविधा जो जरूरतमंद है परिवार के लिए 1 दिन नहीं आ रहा है उसे हम सह लेंगे। *तृणादपि सु-नीचेन तरोरिव सहिष्णुना। अमानिना मान-देन कीर्तनीयः सदा हरिः ॥* (चैतन्य चरितामृत आदि लीला17.31) अनुवाद -जो अपने आपको घास से भी अधिक तुच्छ मानता है, जो वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु हैं और जो किसी से निजी सम्मान की अपेक्षा नहीं रखता फिर भी दसरों को सम्मान देने के लिए सदा तत्पर रहता है वह सरलता से सदा भगवान् के पवित्र नाम का कीर्तन कर सकता है।" जैसे माली यदि पेड़ में पानी नहीं डालता है तो पेड़ सह लेता है पेड़ में पानी डालने के बाद ही उसकी पुष्टि होती है। इस तरह से पेड़ में जो सहनशीलता है वैसे हम सह लेंगे पहले दिन अगर दूसरे दिन भी नहीं आता है फिर भी टॉलरेट करेंगे , सह लेंगे तीसरे दिन नहीं आता है तो भी सह लेंगे और यदि चौथे दिन नहीं आता है तो गंगा के तट पर पूरा परिवार हम जाएंगे और डुबकी लगा कर के हमारा पूरा परिवार इस देह को त्याग देंगे। चैतन्य महाप्रभु इस भाव से इतना संतुष्ट होते हैं कि कितना विश्वास है श्रीवास को, भगवान के ऊपर, भगवान के नाम में कि निश्चित रूप से कृष्ण पोषण करते हैं। *सदा नाम लइब , यथा - लाभेते सन्तोष । एइत आचार करे भक्ति - धर्म - पोष ।।* (चैतन्य चरितामृत आदि लीला 17. 30) अनुवाद “ मनुष्य को सदा नाम - कीर्तन करने के सिद्धान्त का दृढ़ता से पालन करना चाहिए और उसे जो कुछ आसानी से मिल जाए उसी से सन्तुष्ट होना चाहिए । ऐसे भक्तिमय आचरण से उसकी भक्ति सुदृढ़ बनी रहती है । " सदा नाम लेने से सैटिस्फैक्शन मिलता है आत्मा को, जीवात्मा का ऐसा आचरण करने से भगवान स्वयं भक्तों का पोषण करते हैं ताकि उनकी भक्ति जारी रहे, धार्मिक बने, इसलिए कृष्ण स्वयं पोषण करते हैं। *एइत आचार करे भक्ति - धर्म - पोष*, मतलब पोषण भक्ति धर्म को पोषण करने के लिए कृष्ण स्वयं उनका पालन करेंगे ऐसा यहां पर कहा गया है। जैसा सदा नाम लइब , यथा हमेशा हमें नाम लेते रहना चाहिए। 24 आवर्स, श्रील भक्ति विनोद ठाकुर हरी नाम चिंतामणि में कहते हैं आवहिश्रान्ते, इसका अर्थ है बिना विश्राम किए, हमारे आचार्य समझाते हैं बिना विश्राम किए लगे रहे, निश्चित रूप से सोना पड़ता है या आराम करना पड़ता है 24 घंटे, यदि ६ /७ घंटे सो भी लेते हैं तो सोने के बाद जब उठ जाते हैं तो सदा भगवान का नाम लेना चाहिए। ऐसा लेने से होता क्या है ? नाम अपराध जाए, दूर भाग जाता है या नाम अपराध करने की इच्छा या जाने अनजाने में जो हम करते रहते हैं, इसीलिए अभी तक हम कृष्ण प्रेम नहीं प्राप्त कर पाए , ना ही दुखों से मुक्त हुए हैं ना ही भौतिक इच्छाओं से मुक्त होते हैं। नाम आभास से और भौतिक इच्छाओं से मुक्त होते हैं तब शुद्ध नाम जाप श्रीकृष्ण प्रेम प्राप्त होता है। इसका अर्थ है कि हम सदैव नाम अपराध या अपराध में जप कर रहे हैं। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं कि नाम अपराध में यदि जप से मुक्त होना है या छुटकारा पाना है तो आवहिश्रान्ते , नाम अपराध जाए, फिर अपराध की भावना जो है हमारे दिमाग में, हमारे हृदय में कोई स्थान ही नहीं होगा। सदैव हमें भगवान के नाम का उच्चारण करना चाहिए। चलो यदि हम अभी निरपराध जप करते भी हैं फिर भी भगवान का प्रेम प्राप्त नहीं हो रहा है क्या कारण हो सकता है ?हम कई लोग जो हैं कई बार सुनते हैं कि अपराधमय जप मत करो निरपराध जप करो, फिर भी हमें कृष्ण प्रेम प्राप्त नहीं होता है। आगे स्वयं चैतन्य महाप्रभु कहते हैं। दीवा रात्र नाम लय, दिवा रात्र मतलब दिन रात भगवान का नाम लेना चाहिए लेकिन एक इनग्रेडिएंट उसमें ऐड करो 1 गुण जो है उसमें हमें ऐड करने से वह क्या है अनुत्ताप करें, दिवा रात्र जाप करें अनुत्ताप करें, अनुत्ताप मतलब क्या कहते हैं उसको रिपेंटेंट हाय हाय ! पश्चाताप करना ! हाय हाय मैंने कितने बड़े अपराध किए हैं अपराध ही नहीं मैंने कई प्रकार के पाप भी किए हैं। ऑफ कोर्स पाप और अपराध में बहुत अंतर है पाप जो लागू होता है वह भौतिक लोगों पर लागू होता है और अपराध जो है जो आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करना चाहते हैं या किए हुए हैं उनको अपराध लागू होता है। *एक कृष्ण - नामे करे सर्व पाप क्षय नव -विधा भक्ति पूर्ण नाम हैते हय ॥* (चैतन्य चरितामृत मध्य लीला 15. 107) अनुवाद “ कृष्ण के पवित्र नाम का एक बार कीर्तन करने मात्र से मनुष्य सारे पापी जीवन के सारे फलों से छूट जाता है । पवित्र नाम का कीर्तन करने से मनुष्य भक्ति की नवों विधियों को पूरा कर सकता है । सारे पाप नष्ट होंगे सरल है। भगवान स्वयं भी भगवत गीता में कहते हैं *सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||* (भगवद्गीता १८. ६६ ) अनुवाद- समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत । सारे पापों को नष्ट करता हूं और सरल है पापों को नष्ट होना यह बहुत कठिन है ऐसा नहीं है। भगवान का नाम लेने से पाप नष्ट हो जाते हैं लेकिन अपराध नहीं होते, अपराध को नष्ट करना बहुत कठिन है फिर भी चैतन्य महाप्रभु की कृपा से वो अपराधों को भी नष्ट करना या निरपराध जप करना सुलभ बनाते हैं और वह हैं अनुत्ताप ! पश्चाताप करते करते आपको जप करना चाहिए। हाय हाय ! भगवान मैं इतना जप कर रहा हूं फिर भी मेरे हृदय में दया की भावना क्यों नहीं है क्यों आपका प्रेम प्राप्त नहीं हो रहा है या मेरे हृदय में भक्तों के प्रति क्यों प्रेम या दया उत्पन्न नहीं हो रही है। इससे यहां चैतन्य महाप्रभु इस तरह से कह रहे हैं दीवा रात्र नाम लय, अनुत्ताप करें, पश्चाताप करते करते, हम देखते हैं श्रीमद भगवतम के अजामिल के एपिसोड में या उस कथा में देखते हैं कि किस तरह से अजामिल ने धाम को प्राप्त किया, कृष्ण प्रेम प्राप्त किया, ऐसे तो भगवान भौतिक लोगों के लिए कहते हैं। *येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् | ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ||* (भगवद्गीता ७. २८) अनुवाद- जिन मनुष्यों ने पूर्वजन्मों में तथा इस जन्म में पुण्यकर्म किये हैं और जिनके पापकर्मों का पूर्णतया उच्छेदन हो चुका होता है, वे मोह के द्वन्द्वों से मुक्त हो जाते हैं और वे संकल्पपूर्वक मेरी सेवा में तत्पर होते हैं | दृढ़ता पूर्वक लेकिन यह भौतिक लोगों के लिए है। वे कहते हैं जिनका पाप नष्ट हुआ है पुण्य कर्म इकट्ठा हुआ है और द्वंद से मुक्त हैं ऐसे व्यक्ति दृढ़ता पूर्वक मेरा आश्रय ग्रहण करता है। मुझे पता है दृढ़ता जो है इसके लिए योग्यता दूसरी तरह से लागू होती है। जो हम अजामिल की कथा से समझ सकते हैं। यहां पर यदि भक्ति में दृढ़ता प्राप्त करनी है तो सबसे पहले है पश्चाताप भाव, हमे अपने आप में पश्चाताप करना चाहिए कि हाय मैंने कितने पाप किए हैं और भगवान का आश्रय प्राप्त करने के बाद भी, नाम का आश्रय लेने के बाद भी, मैं अपराध कर रहा हूं हाय हाय! इसके उपरांत जो है आता है जागरूक अवस्था, पश्चाताप के बाद ऐसा करने से मेरा ऐसा हुआ यह मैंने किया इसलिए यह सारी आपत्ति और यह सारे दुख मुझे आए हैं और ना ही मैं कृष्ण प्रेम प्राप्त कर रहा हूं इसकी जागरूकता, हम जानते हैं अजामिल की कथा में जब यमदूत आते हैं और अजामिल नारायण का नाम लेता है अपने पुत्र को संबोधित करके, लेकिन साक्षात नारायण के विष्णुदूत आ जाते हैं और उस रस्सी को काटते हैं। अजामिल सब कुछ देख रहा होता है किस तरह से यह विष्णुदूत आए और मुझे यमदूतों से बचाया और उनका जब संवाद चल रहा था यमुदुतो और विष्णु दूतों का, अपने जीवन को माप रहा था कि मैंने क्या-क्या किया जिसके कारण यमदूत आए और क्या और क्या किया जिसके कारण विष्णु दूत आए और यमदूत से उसे मुझे बचाया, मतलब सारे नियमों को तोड़ दिया था। 4 नियम तो दूर की बात है बाकी अन्य सारे धार्मिक नियमों को भी उन्होंने तोड़ दिया था वैश्या से विवाह किया था, 80 साल की उम्र में उन्होंने पुत्र को जन्म दिया था इत्यादि इत्यादि, उसके प्रति वह पश्चाताप कर रहा है कि मैंने क्या किया था जिसके कारण मुझे यह भोगना पड़ा, समाज से मुझे बाहर निकाला गया अनेक प्रकार के ताप आए फिर संवाद चलते समय जो बातें चल रही थी उसके प्रति वह जागरूक हो गया कि मुझे यह नहीं करना चाहिए था जिसके कारण मुझे यह हुआ तो पहली अवस्था पश्चाताप और दूसरी अवस्था जो है वह जागरूकता अपने आप में प्रकाश लाना यह करने से यह होता है और मुझे त्यागना चाहिए और ऐसी भक्ति करने से ही मैं आगे बढूंगा। निर अपराधी भक्ति कहो। ऐसी भक्ति करने से इस जागरूक अवस्था में हमें आना चाहिए। जैसे अजामिल आया, उसके उपरांत जो है जागृत अवस्था के बाद विष्णु दूतों के प्रति उनके हृदय में कृतज्ञता जागृत हुई। ग्रिटीट्यूड, इनके कारण मैं बच गया इन्होंने मुझे यमदूतों के हाथों से बचाया। (ही फेल्ट ग्रिटीट्यूड टुवर्ड्स विष्णु दूत ) जब हम भक्ति में आ जाते हैं हमें कई लोग भक्ति में लाते हैं और भक्ति में हमें पोषण करते हैं उनके हमारा ग्रिटीट्यूड उत्पन्न होना चाहिए कृतज्ञता उत्पन्न होना चाहिए और इसके उपरांत नहीं रुकना है, आगे प्रशंसा है। अजामिल विष्णु दूतों की प्रशंसा करने लगे हर जगह जहां भी वे जाते हैं इनके कारण मैं बचा, इनके कारण में भक्ति में आया, इनके कारण ही मैं यहां पर भक्ति कर रहा हूं। यह सब प्रशंसा ग्लोरीज ऑफ द डेवोटीज़ , प्रशंसा इसके उपरांत फिर भक्ति में दृढ़ता आ जाती है। यह चार स्टेज हैं बहुत महत्वपूर्ण है सबसे प्रथम स्टेज, वह है पश्चाताप, उसके उपरांत जागरूकता, यानी वापस ऐसे कार्य ना हो जिसके कारण हम भक्ति से विलग हो जाएं और जो हमें भक्ति में लाएं हैं उनके प्रति कृतज्ञता, जो पोषण कर रहे हैं, भक्ति में लाए हैं, भक्ति में आगे बढ़ा रहे हैं, उनके प्रति कृतज्ञता और उनके गुणगान ऐसा करने से भक्ति में दृढ़ता आती है। यह सब भक्तों पर लागू है हालांकि भगवान सभी लोगों के लिए कह रहे हैं। येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् , सभी पाप नष्ट होकर जब पुण्य इकट्ठा हो जाते हैं और द्वन्द से मुक्त हो जाता है दृढ़ता पूर्वक वह मुझे भजता है। लेकिन भजन करने के बाद दृढ़ता का डेफिनेशन बदल जाता है जो हम अजामिल की कथा से समझते हैं। दृढ़ता कैसी है ? पश्चाताप , कहो यदि हमने कोई अवैध संग किया तो किसी को बोल नहीं सकते अरे मैंने यह किया वह किया, शर्म आती है लज्जा आती है, भक्त होने के बाद भी हम फिर अवैध स्त्री संग या कुछ अन्य नियमों को भंग कर दिया, लेकिन भगवान को जरूर बोलना चाहिए कि भगवान मुझसे यह बहुत बड़ा अपराध हुआ है वापस मैं नहीं करूंगा, भगवान को तो हम सब कुछ कह सकते हैं। क्योंकि भगवान परमात्मा रूप में हमारे हृदय में रहते हैं और वह जानते तो हैं ही हमने क्या-क्या किया है। कैसे-कैसे कार्य किए हैं, हल्के हल्के कार्य किए हैं। भगवान को बताने में क्या है? जिसके कारण हमें पश्चाताप हो, पश्चाताप का सिस्टम है भगवान को बताना मुझे पश्चाताप हो रहा है कृपा करके मुझे इससे बचाइए तब भगवान भक्तों की व्यवस्था करते हैं और हमें बचाते हैं। हमें उन भक्तों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिए और फिर बाद में उनकी प्रशंसा उनके गुणगान, जिसके कारण हम भक्ति में दृढ़ता पूर्वक रह सकते हैं। आगे यहां पर कहा गया है जैसे ही अपराध चला जाता है शुद्ध नाम का उदय होता है जब अपराध नष्ट होंगे तो शुद्ध नाम का उदय होता है। जैसे मैंने कहा है कि हम निर अपराध जप तो कर रहे हैं लेकिन साथ में 1 गुण ऐड करना चाहिए वह अनुत्ताप ऐड करके यदि हम सदा नाम लेते हैं तो अपराध के लिए कोई जगह ही नहीं रहेगी, अपराध नष्ट हो जाते हैं और फिर शुद्ध नाम का उदय होता है। शुद्ध नाम भावमय और प्रेम मय शुद्ध नाम का उदय हो जाता है फिर उसी प्रकार का भाव उत्पन्न होता है और भाव के बाद प्रेम उत्पन्न होता है। ऐसा श्रील भक्ति विनोद ठाकुर बताते हैं और यदि हम देखेंगे तो भक्ति विनोद ठाकुर के अनेक भजनों में त्रिनादपि के अनेक भजन उन्होंने लिखे हैं सबसे पहले उन्होंने पश्चाताप पर भजन लिखा है कई भजन लिखे हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि भक्तों ने स्वयं ही कुछ ऐसे कार्य किए हैं जिसकी वजह से वह पश्चाताप कर रहे हैं। भगवान के प्रति हमारा जीवन सदा पापी रथ नहीं वह हमें सिखाने के लिए अपना उदाहरण व्यक्त करते हैं फिर धीरे-धीरे जागरूक अवस्था फिर गुणगान ग्रिटीट्यूड यह सब यहां पर दिखते हैं। हम बहुत लंबे समय तक अपराध करते हैं लेकिन उनसे जाकर क्षमा मांगना बहुत कठिन लगता है तो चैतन्य महाप्रभु बताते हैं सदा नाम दिवा रात्र और आविश्रांत इस तरह से धीरे-धीरे नाम लेने से अपराध नष्ट हो जाते हैं। हममें ऐसा परिवर्तन होता है उस भक्तों से हम अपराध के कारण जाकर क्षमा मांगते हैं फिर भक्तों में शुद्ध नाम का उदय होने लगता है। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज के समय तक 64 माला जप का, जो सदा कि जप की बात हो रहा है वह करने की विधि तब उस समय पर थी। प्रभुपाद की कृपा से हमें 16 माला तक कहा गया है। मिनिमम कम से कम 16 माला जप करो, ऐसा कहा गया है भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज तक तो 64 माला की विधि थी 64 माला जप करोगे तो भगवत प्रेम प्राप्त होगा, तभी आविश्रांत नाम होगा, दिवा रात्र नाम होगा या सदा नाम होगा, लेकिन एक बार क्या हुआ कि भक्ति सिद्धांत महाराज के शिष्य कंप्लेंट लेकर के आए प्रभुपाद! प्रभुपाद ! यह भक्त केवल 16 माला जप करता है हालांकि 64 माला का आदेश आपने दिया है तब भक्ति सिद्धांत सरस्वती महाराज कहते हैं कि वो प्रचार कर रहा है इसलिए वह 64 माला का जाप नहीं कर सकता, लेकिन आप प्रचार नहीं कर रहे हो आपको करना है। इस आधार पर जब शिष्य प्रभुपाद के पास गए कि हम 64 माला का जप कैसे करेंगे समय नहीं है। तब प्रभुपाद 64 माला से 48 माला तक आ गए 48 माला से 32 माला तक आ गए, तब फिर प्रभुपाद को बोला इतना भी नहीं हो पाएगा हमसे इतनी सारी माला कैसे कर पाएंगे ? प्रभुपाद ने लास्ट में आकर कहा 16 माला से कम नहीं यहां पर स्टॉप कर दिया इसकी वजह क्या है क्योंकि हमारा मिशन जो है वह प्रचार का मिशन है। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती महाराज ने कहा ही इज़ प्रीचिंग, तो प्रभुपाद ने इस आधार पर हमारे मूवमेंट को प्रचार का मूवमेंट बनाकर सबको १६ माला करने की विधि दी है और प्रभुपाद के सभी शिष्यों ने इस साधना से सिद्धि प्राप्त की है। प्रभुपाद के प्रति प्रेम प्राप्त किया है। गुरु का आदेश जो है, जैसे सारे वेदों का सार है भगवत गीता, भगवत गीता का सार है शिक्षा अष्टकम, शिक्षा अष्टकम का सार है हरी नाम, और हरी नाम का सार जो है वह गुरु सेवा, गुरु के प्रति सेवा, वैष्णव के प्रति सेवा, भगवान के प्रति सेवा, क्योंकि महामंत्र के जप का अर्थ ही है कि हे राधा रानी हमें भगवान की सेवा में लगाओ, वैष्णव की सेवा में हमें लगाओ, जिसके कारण मुझे शुद्ध नाम प्राप्त हो या सद्भाव प्राप्त हो प्रेम प्राप्त हो, ऐसे बहुत सुंदर उदाहरण हैं जिसमें से अभी कुछ दिन पहले ही मैं पढ़ रहा था कि किस प्रकार गुरु के प्रति सेवा करने से और निष्ठा करने से अंतिम सिद्धि को प्राप्त कर सकते हैं अर्थात कृष्ण प्रेम को प्राप्त कर सकते हैं। जगन्नाथ दास बाबाजी के एक शिष्य थे जिनका नाम बिहारी बाबू , हम सभी जानते हैं यह जो बिहारी बाबू हैं यह जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज को टोकरी में उठाकर लेकर जाते थे उनको जहां भी जाना होता था। उस वक्त जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज 147 वर्ष के थे उन्होंने इतना लंबे समय तक जीवन जिया और यहां तक की उनकी जो पलकें थी उनको किसी को देखना होता था तो उसको उठाने के लिए भी किसी व्यक्ति की आवश्यकता पड़ती थी। हाथों से पलकों को उठाना पड़ता था इतने वृद्ध थे। ऐसी अवस्था में बिहारी बाबू जो कि उनके शिष्य थे इतने सुंदर ढंग से उनकी सेवा की थी एक बार जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज कीर्तन के लिए किसी के घर जाते हैं। वहां पर बिहारी बाबू को कहते हैं कि मृदंग बजाओ, बिहारी बाबू कहते हैं कि मैं मृदंग तो क्या करताल भी नहीं बजा सकता और आप मुझे मृदंग बजाने के लिए कह रहे हो। नहीं नहीं ! तुम मृदंग हाथ में ले लो, गुरु के आदेश के अनुसार , गुरु के आदेश का पालन करते हुए उन्होंने मृदंग लिया और ऐसा मृदंग उन्होंने बजाया कि एक प्रोफेशनल व्यक्ति भी नहीं बजा सकता। इतना सुंदर मृदंग बजाया। गुरु का आदेश, मृदंग नहीं आता तो भी उस सेवा को ले लिया और एक बार और एक सुंदर घटना है जब वह क्लास दे रहे थे तो चैतन्य चरितामृत में से बिहारी बाबू को पढ़ने के लिए कहा, बिहारी बाबू तुम पढ़ो, उन्होंने कुछ अध्याय दे दिया और बोला कि अध्याय पढ़ो , बिहारी बाबू कहते हैं वृंदावन के थे और बंगाली नहीं जानते थे और चैतन्य चरितामृत बंगाली है। उन्होंने कहा कि महाराज में कैसे पढ़ लूंगा मुझे तो बंगाली का एक शब्द भी नहीं आता आप मुझे चैतन्य चरितामृत पढ़ने के लिए कह रहे हो। आप चैतन्य चरितामृत खोलो, गुरु के आदेश के अनुसार उन्होंने चैतन्य चरितामृत को खोला और बंगाली पढ़ना शुरू किया हालांकि उनको बंगाली का एक शब्द भी नहीं आता था फिर भी उन्होंने पढ़ना शुरू किया, सारे लोगों को आश्चर्य हो गया, तो क्या है गुरु का आदेश, मेरी योग्यता नहीं है तो भी मुझे गुरु के आदेश का पालन करना चाहिए। चाहे टूटा फूटा ही क्यों ना हो, ठीक से कर भी ना पाए तो भी कोई दिक्कत नहीं है फिर भी हमें करना चाहिए। प्रभुपाद के गुरु हैं श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर महाराज उन्होंने दो आदेश दिए जैसे ही पैसा मिलता है ग्रंथ लिखो, ग्रंथों को प्रिंट करो और उसका वितरण करो, और तुम अंग्रेजी अच्छी तरह से जानते हो इसलिए पाश्चात्य देश में उसका प्रचार करो। अभी सोचो तो यह बहुत बड़ा कार्य है कई लोग ग्रंथ लिखते हैं और उसका वितरण भी करते हैं कई लोग अंग्रेजी भी जानते हैं और उसका प्रचार भी करते हैं प्रभुपाद के जाने से पहले भी कई गौड़िये भक्त गए थे लेकिन असफल हो कर के आए क्योंकि उन्हें अपने गुरु के प्रति निष्ठा नहीं थी लेकिन प्रभुपाद ने यह दो कार्य इसको इस प्रकार से किया कि उन्होंने इसे पूरे जगत में फैलाया, इतने बड़े व्यक्ति बने, प्रभुपाद का नाम सब जगह हुआ क्योंकि गुरु के प्रति उनकी निष्ठा थी और देखो कितने निस्वार्थ भाव से प्रभुपाद जी ने यह कार्य किया। ऐसे ही जगन्नाथदास बाबा जी भी अपने अंतिम समय में जाते जाते बिहारी बाबू को कहते हैं उनकी परीक्षा लेना चाहते हैं वह पूछते हैं बिहारी बाबू तुमने बहुत सुंदर रूप से मेरी सेवा की किंतु मैं तुम्हें कुछ दे नहीं पाया तुम मांगो तुम्हें क्या चाहिए ? बिहारी बाबू कहते हैं कि महाराज आपके पास क्या है आपके पास ना तो धन है ना कुछ है आप मुझे क्या देंगे? मैं सिर्फ यह चाहता हूं कि आप मेरे साथ रहो वह जा रहे थे अंतिम समय था , जगन्नाथदास बाबा जी महाराज यहां तक भी वे कहते हैं की बोलो तो मैं चैतन्य महाप्रभु को कहकर 5 बैलगाड़ी सोने के सिक्के से भरवा कर तुम्हारे घर भिजवा दूं बिहारी बाबू ने कहा मुझे यह सब नहीं चाहिए मुझे माया में जाना ही नहीं है बस मेरी इच्छा यही है। जा ही रहे हो तो आप हर समय मेरे साथ रहना इस तरह से कहा बिहारी बाबू ने तो जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज उनको आशीर्वाद देते हैं कि हां मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा और तुम्हारी भक्ति से संबंधित जो भी इच्छा है उसकी मैं पूर्ति करता रहूंगा ऐसा आशीर्वाद दिए इतना प्रेम जगन्नाथ दास बाबा जी महाराज ने बिहारी बाबू से किया उसी तरह से श्रील प्रभुपाद ने गुरु का आदेश पालन करते करते पूरे जगत में विख्यात हुए हम सब जानते हैं कि प्रभुपाद जी ने कितनी मेहनत की है। हरि नाम का प्रचार किया है कहने का तात्पर्य यह है कि हरि नाम का सार जो है यह गुरु की आज्ञा का पालन करना होता है। गुरु जो इंस्ट्रक्शंस देते हैं उसका पालन करना। वेदों का सार भगवत गीता है भगवत गीता का सार शिक्षष्टकम है शिक्षा अष्टकम का सार हरि नाम है और हरी नाम का सार गुरु की सेवा, यदि शुद्ध नाम प्राप्त करना है तो सदा नाम लेना है ऐसा कहा गया है। हम श्वास लेंगे या भगवान का नाम लेंगे कृष्ण राम ऐसा करते रहेंगे , बाकी के कार्य भी नहीं होंगे , हम पूरे दिन में कितने श्वास लेते हैं आपको पता है कितने लेते हैं 23000 से 27000 श्वास लेते हैं हम पूरे दिन में अर्थात हमें 23000 से 27 हजार बार तक भगवान का नाम जप करना चाहिए, प्रत्येक श्वास के साथ भगवान का नाम हो, वो समय यह क्षण जो है वह हमें भगवत प्रेम देता है वरना भौतिक जगत हमें बाध्य कर देता है। जो श्वास भगवान के साथ नहीं है उतना समय के लिए हम भौतिक स्थिति के लिए बाध्य हो जाते हैं या भौतिक अवस्था में गिर जाते हैं। हरे कृष्ण महामंत्र में 16 बार भगवान का नाम आता है *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* षोडश इति नाम नामिनो , 16 शब्दों वाला नाम और इसको हम 16 बार जप करते हैं 108 का माला है और जिसकी संख्या होती है 1700 से भी ज्यादा बार भगवान का नाम हम लेते हैं और 16 माला जप करते हैं मतलब 27600 से भी ज्यादा बार भगवान का नाम लेते हैं अर्थात प्रत्येक श्वास के साथ भगवान का नाम लिया जा रहा है। 27000 बार श्वास वह लेता है जो बहुत दौड़ भाग करता है और आराम से जो ऐसी में बैठता है वह 23 हजार से ज्यादा श्वास नहीं लेता लेकिन जब हम यहां पर जप करते हैं तब 27600 बार से ज्यादा भगवान का नाम जप करते हैं 16 माला जप कर जब हम भगवान की सेवा करते हैं तब निश्चित रूप से भगवत प्रेम प्राप्त होना चाहिए। प्रभुपाद तथा गुरुजनों की आज्ञाओ पर हमें पूरा विश्वास होना चाहिए कि उन्होंने हमें जो आदेश दिए हैं निश्चित रूप से हमें भगवान का नाम हम सदा ले सकते हैं। भगवत प्रेम शुद्ध नाम जप का फल है कृष्ण प्रेम, ये नाम की महिमा है हम निर अपराध और पश्चाताप से और जागरूक अवस्था में आ जाएं और फिर उसके बाद उन भक्तों के प्रति कृतज्ञता और फिर बाद में उनके गुणगान , इससे निश्चित रूप से डिटरमिनेटली दृढ़ता पूर्वक हम भगवान का शुद्ध नाम जप कर सकते हैं और भगवान का प्रेम प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार से प्रभुपाद ने भी बहुत कृपा करके 16 माला के माध्यम से नाम का जाप हम कर सकते हैं और वैसे भी यह प्रभुपाद की 125 वीं सालगिरह है जिसमें हमने कई प्रकार के संकल्प किए थे। जो हमने 125 गांव में पदयात्रा का जो संकल्प था हमारा, प्रभुपाद के जो शिष्य हैं उनके लिए उनका स्वास्थ्य अच्छा रहे , यह भी हमने संकल्प किया था कि एक लाख 25,000 एक्स्ट्रा नाम माला जप करेंगे। इस तरह से बहुत ही जल्दी यह संकल्प भी पूर्ण होगा। इस माध्यम से भी क्यों ना हो हम भगवान का नाम ज्यादा ले सकते हैं। महाराज के स्वास्थ्य के लिए भी कई भक्त कह रहे हैं कि नाम का जप करो, माला करो, यह प्रार्थना है महामंत्र का जप करना उन भक्तों के लिए उन वैष्णव के लिए यह प्रार्थना ही है। इस प्रकार से भगवान के नाम का जप और प्रार्थना करते रहेंगे । ऑफ कोर्स जिसके लिए हम कर रहे हैं एक भक्त को यदि मैं उनकी सहायता करता हूं तो मेरी आपत्ति में वह भक्त मेरी सहायता करेगा यह निश्चित है यह नेचुरल है इसीलिए प्रभुपाद के जो शिष्य हैं जो वरिष्ठ गण हैं उनके अच्छे स्वास्थ्य के लिए हमे ज्यादा जप करते हैं तब निश्चित रूप से उनकी कृपा हमें प्राप्त होती है। शुद्ध नाम प्राप्त होता है। इस तरह से संबंध अभिदेय और प्रयोजन, कृष्ण प्रेम चैतन्य महाप्रभु सनातन गोस्वामी को समझाते हैं और वह कहते हैं कि भगवान से भी ज्यादा भक्तों के प्रति जो प्रेम होता है तब भगवान बहुत संतुष्ट होते हैं और आसानी से अपना प्रेम दे देते हैं उस भक्त को , यह नाम की महिमा है। जगतगुरु श्रील प्रभुपाद की जय ! परम पूज्यनीय लोकनाथ स्वामी महाराज की जय ! गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल !

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