Hindi

जप चर्चा 11 जून 2021 पंढरपुर धाम हरे कृष्ण, 816 स्थानों से भक्त जप के लिए आज जुड़ गए हैं। मस्तिष्क के लिए भोजन कभी कभी कहते हैं। आज का विचार कह सकते हैं। केवल विचार ही नहीं सुविचार अच्छा विचार। मस्तिष्क के लिए खुराक आप चाहते हो कि, पेट भर गया? पेट कभी भरता नहीं। आपकी चाह कुछ बढती रहती है। आप लोभी बन जाते हो। लोभ बढ़ता है और फिर और मांग बढ़ने लगती है। अन्योर, अन्योर, और दे दो, और दे दो। हरि हरि, आप जब चाहते हैं। जिसकी चाह होती हैं या इच्छा होती हैं वह चीज कहो पहले भी उसका अस्तित्व होता है। मैं फिर सिद्धांतों की बात कर रहा हूं, उसको ध्यान से सुनिएगा। वह चीज या चाह है, वह चाह है पहले ही उसका अस्तित्व रहता है। दोनों साथ में ही होते हैं। वह चाह, कोई इच्छा है और फिर जो चाहते हैं। उसका अस्तित्व पहले ही होता है। वांच्छा कल्पतरुभैष्य हम करते हैं। वांच्छा फिर वांच्छा कल्पतरु भी होता ही है। कल्पतरु आपकी इच्छाएं पूरी करने वाला वृक्ष। हमारी इच्छा भी होती ही है, इच्छा पूरी करने वाला वृक्ष भी होता है। यह दोनों संबंधित ही है। हरि हरि, जैसे हिरण कभी रेगिस्तान पहुंच जाए तो, रेगिस्तान में वह जल देखाता है। वहां उसके प्यास और भी बढ़ जाती है। रेगिस्तान में उसके प्यास और भी बढ़ जाती हैं। और तीव्र इच्छा भी होती हैं पानी के लिए। पानी के लिए वह दौड़ता है। खोजता है जल को, लेकिन रेगिस्तान में जल कहांका। वहां तो जो जल दिखता है उस जल का नाम है मृगजल। मृगजल कुछ दूरी पर दिखता है तो, हिरण को लगता है कि वहां पर जल है। पास जाने पर पता चलता है अरे यहां तो जल ही नहीं हैं। फिर इधर उधर देखता है फिर से वह कुछ दूरी पर पुनः मृगजल दिखता है। क्योंकि उसके अंदर जल की तीव्र इच्छा होती है। जल की चाह है। पानी कितनी मांग है। उसको इतनी प्यास लगी हैं। उसको बुझाने के लिए जल की खोज में है। किंतु उससे मृगजल ही दिखता है। हिरण को चाहिए जल। जिसको वह देख रहा है वह नहीं है जल। वैसे जल का अस्तित्व है। हिरण को जल की आवश्यकता है। सभी जीवो को जल की आवश्यकता है। पानी को वैसे जीवन भी कहा है। सभी जीव चाहते हैं पानी। या रेगिस्तान में हिरण भी चाहता है पानी। हिरण रेगिस्तान में पानी को ढूंढ रहा है। रेगिस्तान में पानी नहीं है। इसका मतलब यह नहीं है कि पानी है ही नहीं। पानी का अस्तित्व है। और खोजते जाएगा, खोजते जाएगा तो कभी रेगिस्तान से राजस्थान से हरियाणा तक पहुंच जाएगा। रेगिस्तान से जयपुर जोधपुर पहुंच जाएगा। वहां उसको जल मिल जाएगा और जल पीकर वह अपनी प्यास बुझा सकता है। हरि हरि यह सब कहने का तात्पर्य क्या है, हम भी भगवान को चाहते हैं। चाहते हो कि नहीं? मैंने कहा हम, हममें केवल मैं नहीं, आप भी आते हो। इसलिए पूछा कि आप चाहते हो कि नहीं क्योंकि मैंने हम कहां। तो हममें आप भी आ गए। हम चाहते हैं भगवान को। हम भगवान को चाहते हैं, मतलब क्या इसका अर्थ क्या हुआ? भगवान होने चाहिए। वह हिरण जल को चाहता था। चाहता है। सभी के जीव चाहते हैं जल को। जल का अस्तित्व होता है। तो फिर सभी जीव चाहते ही हैं जल को या हिरण भी। तो उसी प्रकार जब जीव चाहते हैं। दर्शन दो घनश्याम मोरी अखियां प्यासी रे हमारी ओर से मीराबाई भी वही राजस्थान की मीराबाई कह के गई उसकी आंखें प्यासी हैं। उनकी आंखें प्यासी थी। हिरण का मुख प्यासा था। मीराबाई को लगी है प्यास। मीराबाई के आंखों पर लगी है प्यास। तो प्यास कैसे बुझेगी, घनश्याम के दर्शन से बुझेगी। मीराबाई ने कहा या जीवो में कहां। सभी जीवो में नहीं मनुष्य में कहो भगवान के दर्शन की लालसा, भगवान के दर्शन की इच्छा जो उत्पन्न होती हैं। भगवान की कृपा से जिज्ञासु बनता है जीव। जिज्ञासु बनना चाहिए जीव को मनुष्य शरीर में। जीव वैसे कहा है वेदांत सूत्र में, आप मनुष्य हो कि नहीं या मनुष्य बने हो कि नहीं। यह कैसे सिद्ध होगा, वेदांत सूत्र सुना होगा। वेदांत सूत्र या व्यास सूत्र भी कई कई नाम है उसके। तो पहला सूत्र है, "अथातो ब्रह्म जिज्ञासा" अथ मतलब अब, अतः मतलब इसलिए। तुम अब मनुष्य बने हो ब्रह्म जिज्ञासा करो। जिज्ञासु बनो। ब्रह्म जिज्ञासा करते हो मतलब तुम मनुष्य बन गए हो नहीं तो, द्विपाद पशु। द्विपाद पशु, दिखते तो हो मनुष्य जैसे लेकिन अथातो ब्रह्म जिज्ञासा नहीं है, जिज्ञासु नहीं हो तुमको भगवान के दर्शन की लालसा इच्छा नहीं है, तुम्हारे आंखों को भगवान के दर्शन की प्यास तुम मनुष्य नहीं हो। महत्वपूर्ण बात तो यही है, जिज्ञासा है भगवान के संबंध में तो भगवान भी हैं। कई लोग कहते हैं, भगवान नहीं हैं। तो भगवान नहीं है ऐसी बात नहीं है। भगवान का अस्तित्व नहीं हुआ, उनके लिए नहीं है। भगवान का अस्तित्व है. हां उनके लिए भगवान नहीं है। मतलब वह मनुष्य, मनुष्य बने हैं नहीं है। आहार, निद्रा, भय, मैथुन बहुत व्यस्त हैं, किस में आहार, निद्रा, भय, मैथुन हो गया तो जीवन सफल। धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ऐसा कहा है, मनुष्य का वैशिष्ट्य क्या है? अथातो ब्रह्म जिज्ञासा है। धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः व्यक्ति जब धार्मिक बनता है। धर्म को अपनाता है वही एक विशेषता है मनुष्य जीवन की। बाकी तो काम धंधे पशु जैसे ही है आहार निद्रा भय मैथुन सामान्य पशु और मनुष्यो में। धर्मो हि तेषामधिको विशेषो किंतु धर्म ही एक अतिरिक्त विशेषता है। आहार निद्रा भय मैथुन तो सामान्य है, पर धर्म अतिरिक्त है। हम धार्मिक बनते हैं। कृष्ण भावनामृत बनते हैं या बनने के लिए साधना करते हैं। तो फिर हम मनुष्य हैं इसीलिए कहा है, अथातो आप मनुष्य बने हो अब जिज्ञासु बनो। प्रश्न पूछो मैं कौन हूं? के आमि, 'केने आमाय जारे ताप-त्रय सनातन गोस्वामी ऐसे प्रश्न पूछ रहे थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को ही। मैं कौन हूं और मुझे इतने सारे कष्ट क्यों भोगने पड़ते हैं। ताप-त्रय नहीं चाहते हुए भी। भगवान है। कृष्ण का अस्तित्व है। हरि हरि, यह मुझे भी अलग से घोषणा करने की जरूरत नहीं है या फिर मैं अलग से ट्रस्ट का निर्माण कर रहा हूं। ओ कृष्ण का अस्तित्व है। मेरे कहने के पहले ऐसा समय नहीं था। कृष्ण ने कहा है, "मैं नहीं था, तुम नहीं थे, हे अर्जुन यह राजा नहीं थे। और हम सब अभी हैं मैं हूं तुम हो मेरे समक्ष रथ में विराजमान हो और राजा वहा खड़े हैं भविष्य में भी रहेंगे।" हमें जो भगवत प्राप्ति की लालसा है। इच्छा है। यह साक्षी है जैसे भगवान के अस्तित्व का। जैसे वह हिरण को लगी है पानी की चाह। हिरण को लगी है प्यास। पानी है, पहले पाने की चाह, पानी की प्यास इन दोनों का एक ही समय अस्तित्व है। जीव भगवान को चाहता है। वह जिसको चाहता है, वह भगवान भी है। और उसकी चाह भी हैं। आध्यात्मिक जगत में तो भगवान को सदैव ही चाहते हैं। हम सदैव चाहते हैं। भगवान की चाहत जो है उनके निकट भी रह सकते हैं। हम सायुज्य सालोक्य सामिप्य सार्ष्टी सारूप्य यह मुक्ति के प्रकार हैं। यह मुक्तिया भी कहे हैं। जीव तो भगवान के सानिध्य सालोक्य उसी लोक में वैकुंठा में ही रहते हैं। जो जीव उनको सालोक्य मुक्ति प्राप्त हुई है। सामिप्य है। सालोंक्य हैं। सारूप्य है रूप भी भगवान जैसा ही। वैकुंठ में जाओ तो आप थोड़ा कठिनाइयां महसूस करोगे। अरे इसमें भगवान कौन है और भक्त कौन है। एक जैसे ही दिखते हैं। सारूप्य मुक्ति में। फिर आपको थोड़ा निहारना होगा उनके गले में क्या है? कौस्तुभ मणि है। हां यह कृष्ण है और बाकी हो गए फिर भक्त। सार्ष्टी मुक्ति भगवान जैसा वैभव। बाप जैसा बेटा कहो। वहा वैभव की क्या कमी है। किसी के बाप का थोड़ी है हम कहते रहते हैं गोलोक में बैकुंठ में हम कह सकते हैं। यह जो प्रॉपर्टी हैं, यह मेरे बाप की ही है। कौन है मेरे बाप, मेरे बाप विठोबा है। अहम बीजप्रदःपिताः राधा कृष्ण पिता है तो कृष्ण की प्रॉपर्टी उनके पुत्रों की पुत्रीयों की होती है। ईशावास्यमिदं सर्वं कहां हुई है। इस प्रकार की मुक्तिया भी कई लोगों को प्राप्त होती है। सायुज्य मुक्ति भी है। यह मुक्ति वैष्णव नहीं चाहते हैं। कैवल्यं नरकायम, तो आप समझ गए कि, मैं कुछ महत्वपूर्ण बात बताना चाहता हूं। पानी की जो चाह या प्यास है। तो पानी तो होता ही है, होना ही चाहिए। तभी तो पानी की प्यास की व्यवस्था की है। यह दोनों व्यवस्था भगवान की ही है। भगवान ने पानी भी निर्माण किया या भगवान की एक शक्ति ही है, जल, पानी। पृथ्वी आप तेज वायु आकाश पंचमहाभूत है इन पंचमहाभूत में से एक तत्व पानी हे भगवान की शक्ति है और फिर जीवो में भगवान ने यहां वैसे शरीर के लिए भी पानी चाहिए। जो है ब्रह्मांड में वह है हमारे पिंड में। तो हमारा जो पिंड है, जो योनिया है 8400000 योनिया हैं, इनका भी जो अस्तित्व है, यह जो बने हैं वे भी पृथ्वी आकाश वायु के मिश्रण से ही बने हैं। हरि हरि। फिर शरीर के लिए पानी चाहिए जो बाहर पानी होता है, उसको अंदर कर लेता है उसको पी लेता है। ताकि मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना पिण्डे पिण्डे मतिः भिन्ना" ताकि पिण्ड भी बना रहे। ब्रह्मांड के साथ पिण्ड भी बना रहे। क्योंकि ब्रह्मांड और पिंड उसी धातु के है बनावट एक ही है, एक ही तत्व है। एक जैसे वैसे कम अधिक मात्रा में। तो उस जीवो में, शरीरों में, योनियों में भगवान ने यह इच्छा पानी की इच्छा या अन्न की भी इच्छा अन्नादभवंती भूतानि अन्न के बिना जी नहीं सकते पानी ही जीवन है इसकी आवश्यकता है। इसकी बहुत बड़ी मांग है। अन्न, पानी, हवा इसकी बहुत बड़ी मांग है। जो बाहर होता है जिसको हम अंदर लेते ही रहते हैं। तो इसकी जो मांग है इस मांगों से ही पता चलता है कि इन तत्वों का अस्तित्व है। और उसकी पूर्ति भी होती है। तो जीव अथातो ब्रह्मजिज्ञासा जिज्ञासु बनता है। भगवान को फिर चाहता है, सुन सुन के फिर और भी इच्छा बढ़ जाती है। वैसे रुक्मिणी सुन सुन कर मुकुंद के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम के संबंध में, द्वारकाधीश के संबंध में सुन सुन कर और अधिक अधिक इच्छा जगती रही। और फिर इच्छा इतनी तीव्र हुई कि उन्होंने फिर सोचा कि मेरा विवाह होगा तो कृष्ण के साथ द्वारकाधीश के साथ ही। और हे देवी नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः ऐसी प्रार्थनाएं लेकर वह देवी के पास पहुंचती है यहां कौण्डिन्य पुर मे रुक्मिणी पहुंची और गोपियां पहुंची वहां जमुना के तट पर कात्यायनी देवी के पास। तो उस प्रार्थना के अनुसार भी भगवान प्राप्त हुए। हरि हरि। तो भगवान है, कृष्ण है, उनका अस्तित्व है। यह कहने के साथ-साथ मुझे ऐसा लगता है कि मैंने इसे स्पष्ट रूप से कह दिया है। या उसी किसी को थोड़ा और एक प्रकार से भी हम समझ सकते हैं। भगवान ने हमको कहा ही है हमको कहां, अर्जुन को कहा ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः हम भगवान के अंश हैं। ममैवांशो मम एव अंशः। मैं ज्यादा व्याख्या नहीं करूंगा मम एव अंशः हम जो अंश हैं, जो बोल रहे हैं उनके हम अंश है। यहां तो कृष्ण भगवान उवाच भगवान श्री कृष्ण बोल रहे हैं अर्जुन से कह रहे हैं। मम एव अंशः जो जीव है वह मेरे ही अंश है और किसी दुर्गा शिवा काली ब्रह्मा इनके अंश नहीं है मम एव अंशः। एव पर ध्यान देना होगा, एव को रेखांकित करना होगा। हम ऐसे ही झट से कह देते हैं ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। मम एव अंशः ऐसे तीन शब्द है। ममैवांशो मम एव अंशः मेरे ही अंश है और किसी के नहीं है यह तात्पर्य है। इसीलिए एव इस शब्द का या अव्यय का उपयोग हुआ है। सभी जीव मेरे ही अंश है। और फिर इसीलिए भी सर्वस्य चाहं ह्रदि सन्निविष्टो और मैं ही सबके हृदय प्रांगण में हूं। हमारे ह्रदय में जो भगवान है जो सुनते रहते हैं, वह कौन से भगवान हैं? कृष्ण भगवान ही तो बोल रहे हैं यहां और वे तो घोषित कर रहे हैं मैं तुम्हारे ह्रदय में हूं। तो उस भगवान के हम अंश है। कृष्ण कहे मम एव अंशः हम अंश हैं। तो टेक्निकली फिर भगवान हो गए अंशी इसको पहले भी हम कहे हैं तो समझ जाओ। एक होते हैं अंशी मतलब पूर्ण या स्रोत। और फिर अंशी के होते हैं अंश तो हम हैं अंश, अंशी भगवान के। अंशी मतलब एंशी नहीं मराठी में कहते हैं एकोणएंशी, एंशी,एक्याएंशी, ब्याएंशी तो वह एंशी नहीं है यह मराठी भाषिक भक्त यह अंशी चल रहा है। तो भगवान है अंशी और हम हैं अंश। और फिर यह थोड़ा निरीक्षण और परीक्षण करने से यह पता चलता है इस संसार में की अंश अंशी की ओर दौड़ता रहता है। अंश अंशी को प्राप्त करना चाहता है और प्राप्त होता ही है अंततोगत्वा। या जैसे निम्नगाना यथा गङ्गा जो जल होता है, फिर नदी का जल है और भी कई सारे कूए का जल है या यहा का जल वहा का जल। यह जो जलाशय है यह अंश हुआ आंशिक जल वहा है। तो इस जल का यह जल अलग-अलग स्थानों पर या नदी भी बह रही है। विशेष रूप से हमारे काम की नदी है अभी जैसे हम सुना रहे हैं समझा रहे हैं। तो मान लो नदी है अंश या नदी में जो जल है वह अंश है आंशिक रूप में है। तो अंशी कौन है इसमें? अभी तो आपका मुंह हमने बंद करके रखा है सारे म्युटेड हो या बोलोगे तो भी फिर सुनाई नहीं देगा। तो समुद्र सागर है अंशी जिसका जलाशय असीम है अनंत है तो समुद्र है अंशी। और दूसरे जो अलग-अलग जलाशय या नदी का जो जल है वह है अंश। तो क्या देखा जाता है? यह जो अंश है आंशिक जल है नदी के रूप में तालाब कुआं यह सारे सागर की ओर इनका प्रवास चलता रहता है। निम्नगाना निम्नग नदी को कहा ही है निम्नग नदी का एक नाम है। संस्कृत में निम्न मतलब नीचे ग मतलब जाने वाली। निम्न तो पृथ्वी पर पृथ्वी का जो सबसे नीचा स्थान होता है वह होता है समुद्र। और वहां से फिर सारी ऊंचाई नापी जाती है। समुद्र के लेवल से यह हजार फिट है यह हो गया 5000 मीटर और हिमालय का शिखर इतना ऊंचा है। समुद्र का जो लेवल है वह सबसे नीचा माना जाता है और वहां से सारी ऊंचाई गिनी जाती हैं। तो निम्नग नदी पहाड़ या जहां-तहां से पहाड़ से यह अधिकतर उत्पन्न होती है विस्तृत होती है और फिर समुद्र की ओर वह दौड़ती रहती है। तो समुद्र होता है अंशी, और फिर कुवे का भी जल है नीचे से पृथ्वी से वैसे सागर की और ही बहता जाना उसका प्रयास रहता है। या तालाब का जल, कुवे का जल, यह जल वह जल सभी तो अंश रूप में है, और सभी अंशी की ओर जाने के प्रयास में अहर्निश लगे रहते हैं। या नदी के रास्ते में कोई रूकावट डाल दी बांध डाल दिया तो कभी-कभी नदी क्या करती है, उसे तोड़ के, तोड़फोड़ के दौड़ पड़ती है समुद्र की ओर। कोई रोक नहीं पाता। हरि हरि ! और फिर हम लोग जो आग जलाते हैं, जलाते हैं कि नहीं आपके चूल्हे की आग ? वह आग किस और और जाती रहती है ? ऊपर जाती है। वैसे आग की जो ज्वालाएँ है उसे शिखा कहते है। दीपशिखा दीपक की भी शिखा उसकी चोटी। हम देखते हैं कि आग ऊपर जाते रहती है। आग हमेशा ऊपर की ओर जाती हैं और पानी नीचे की ओर जाता है समुद्र की ओर। आग जाती रहती है अग्नि जाती रहती है फिर हम चिंता करते हैं, आग है या आग लगी है जंगल को, दावाग्नि आसमान की ओर ऊपर जाती दिखती है। तो ऊपर क्यों जाती है ? या फिर ठीक है, जो कोई छोटी आग है या ज्यादा बडी आग है, यह सारी आग का अंश है, तो आग और अग्नि का अंशी कौन है? कौन है अग्नि का अंशी ? कौन है ? सारे कहो, हां ऊपरवाला, ऐसे ऊपर करके दिखा रहे हैं, कौन है ? संकेत तो मिल रहा है आपको, सूर्य है सारे अग्नि का तेज का, प्रकाश का स्रोत सूर्य है। सूर्य का गोला जल रहा है, आग बबूला है, तो वह है अंशी। सारी जो आग है, अंशी की और जाने का प्रयास या दौड़ती रहती है। तो इतना ही अभी कहते हैं और फिर निष्कर्ष यही हुआ कि, तो हम हैं अंश और अंशी कौन है? अंशी है भगवान। तो अंश का जीव का भगवान की और जाना क्या है, यह स्वाभाविक है। सिद्धांत क्या है अंश अंशी की ओर जाता है, अंश अंशी को प्राप्त करना चाहता है। अंश अंशी का अंग बनना चाहता है। ऐसा नियम है, सृष्टि का ऐसा नियम है और भी कई उदाहरण मिलेंगे पर समय बीत रहा है, तो जीव जो अंश है अंशी भगवान का उस जीव का भगवान की और जाना, वापिस अपने घर जाना, भगवान के धाम जाना, हाथी है ना घोड़ा है लेकिन जाना तो है पैदल ही है ,जाना है पदयात्रा करते जाओ, या वहां से विमान आएगा आपको लेने के लिए। तो वही जाना है, वह स्वाभाविक है। तो बाकी सब आना जाना तो कृत्रिम है, निसर्ग के विरुद्ध जाना है। हम माया के अंश नहीं है, हम किस के अंश है? भगवान के अंश हैं? तो माया की ओर जाना, इसलिए उसे कहा भी है वह विमुख हुआ। एक है विमुखता और दूसरा है सन्मुखता। तो भगवान की ओर जाना यह सन्मुख सही है,.और उल्टी और जाना विमुखता है, मूर्खता है। अवजानन्ति मां मूढा है चार प्रकार के लोग मेरी ओर नहीं आते.है ” न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः | माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः || १५ ||” अनुवाद जो निपट मुर्ख है, जो मनुष्यों में अधम हैं, जिनका ज्ञान माया द्वारा हर लिया गया है तथा जो असुरों की नास्तिक प्रकृति को धारण करने वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण नहीं करते | और चार प्रकार के लोग मेरी ओर आते है गीता में कृष्ण कहे हैं “चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन | आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ || १६ ||” अनुवाद हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं – आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी | तो चार प्रकार के लोग मेरी और आते हैं और चार प्रकार के लोग हैं जो मुझसे दूर जाते हैं। तो एक पार्टी है स्विकृतिनः सज्जन होते हैं और दूसरे होते हैं दुष्ट या दुर्जन, जो दूर जाते हैं उल्टा काम धंधा करते हैं। जीव के लिए, पहले तो हमें समझना चाहिए हम जीव है। मैं जीव हूं शरीर नहीं हूं , मैं मन भी नहीं हूं, मैं बुद्धि भी नहीं हूं, आध्यात्मिक जीव हु तो उस आत्मा का जीवात्मा का भगवान की ओर जाना ही स्वाभाविक है और ऐसा प्रयास करना चाहिए। हित्वा अन्यथा रुपम स्वरूपेन व्यवस्थितः बाकी सब काम धंधे या रूप भी, स्वरूप भी हित्वा त्याग कर स्व-रुपेण व्यवस्थितिः अपने रूप में ये जीव कृष्ण दास एइ विश्वास कर लो तो आर दुख नाय तो जीव का जो स्वरूप है यह कृष्णदास है कृष्ण का दास है। तो दास का स्वामी की ओर जाना स्वाभाविक है। ठीक है, तो लगे रहो और थोड़ा समझ भी जाओ। थोड़े कुछ तर्क कहो या कुछ न्याय की मदद से आश्वस्त हो जाओ की आप कौन हो? क्या लक्ष्य है? कृष्ण की और आगे बढ़ते रहो, पीछे मुड़कर नहीं देखना। ऐसे निष्ठावान बनो। ठीक है, हरे कृष्ण।

English

Russian