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जप चर्चा
21 जनवरी 2021,
श्रीमान ब्रज विलास प्रभुजी.
ओम अज्ञानं तिमिरंधास्ञ ज्ञानांजन शलाकय।
चक्षुरन्मिलितन्मेन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
हे कृष्ण करुणासिंधु दीनबंधु जगत्पते गोपेश, गोपीकाकांत राधाकांत नमस्तुते।
तप्तकांचन गौरांगी राधे वृंदावनेश्वरी,
वृषभानोसुतेदेवै प्रणमामि हरिप्रिये।।
नमो विष्णुपादाय कृष्णप्रेष्ठाय भुतले।
श्रीमते लोकनाथ स्वामीने इति नामिने।।
जय श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानंद,
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवास आदि गौरभक्त वृंद।। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।
हरे कृष्ण, सर्वप्रथम मैं अपने परमपूज्य गुरुमहाराज श्रील लोकनाथ स्वामी गोस्वामी महाराज के श्री चरणों में प्रणाम करते हुए, आप सभी गुरु भाई और गुरु बहनों को भी नमस्कार करता हूं। और कुछ विशेष प्रार्थना में करना चाहूंगा क्योंकि, बात यह है कि हजारों गुरु भाई और गुरु बहनों को कुछ कहने का अवसर हमें मिला है। यह हमारे सौभाग्य की बात है। मैं संक्षिप्त रूप में कहूंगा। यह केवल जप चर्चा है। गुरुमहाराज जी की विशेष कृपा है। जब महाराजजी ने अपनी शिष्यों के ऊपर कृपा करने के लिए यह कार्यक्रम शुरू किया क्योंकि, यह कहां गया है कि, वास्तव में सच्चे गुरु वही है
गुरुर्न स स्यात्स्वजनो न स स्यात् पिता न स स्याज्जननी न सा स्यात् । दैवं न तत्स्यान्न पतिश्च स स्या न मोचयेद्यः समुपेतमृत्युम् ॥
यानी भगवान ऋषभदेव ने कहा जो अपने शिष्यों को जन्मा मृत्यु के चक्कर से छुड़ाने का प्रयास ना करें, वह वास्तव में गुरु नहीं है। वही माता-पिता के बारे में कहा वही इष्टदेव के बारे में कहा वास्तव में हम देख रहे हैं कि हमारे जो गुरु महाराज है वह कितने परम कृपालु और कितने दयालु है। जो हमें जन्म मृत्यु के चक्कर से छुड़ाने का ही प्रयास कर रहे हैं क्योंकि, वास्तव में सच्चे साधु का यही कर्तव्य है जो, हमारे गुरुदेव कर रहे हैं। यह कहावत कही गई है, "वृक्ष कभी फल न ढके नदी न संचे नीर, करूणा रथ के कारण साधु ने धरा शरीर" कहते हैं वृक्ष कभी अपने फलों को नहीं खाते। फलों का बोझ सहन करते हैं लेकिन, अपने फल का रसास्वादन नहीं करते। दूसरे लोगों के लिए वृक्ष इतना फल धारण करते हैं। नदियां भी कितना जल लेकर चलती है लेकिन, वह स्वयं के लिए नहीं करती दुसरे लोगों के कल्याण के लिए ही वह करती हैं। उसी प्रकार करुणा रथ के कारण साधु धरा शरीर दूसरों के कल्याण के लिए जो साधु शरीर धारण करते हैं। भले ही कष्ट हो, तकलीफ हो फिर भी वह सभी के कल्याण के लिए लगे ही रहते हैं। गुरु महाराज की बड़ी कृपा है क्योंकि, हरिनाम जप के कारण है हमारे अंतःकरण की शुद्धि होती है। हमारा मन पवित्र हो जाता है। और जब मन पवित्र होता है तभी ही हमारा चित्त श्रीकृष्ण के चरणों में लग जाता है क्योंकि, सारा खेल तो मन का ही है।"मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत।।" सारा खेल मन का है। इसीलिए भगवान कपिल देव ने माता से कहां मां यह मन ही जीव के बंधन का कारण है और मन है मोक्ष का कारण है।
चेतः खल्वस्य बन्धाय मुक्तये चात्मनो मतम् । गुणेषु सक्तं बन्धाय रतं वा पुंसि मुक्तये।।
भगवान कपिल देव कहते हैं मां यह मन ही बंधन का कारण है यह मन मोक्ष का कारण है, कैसे? गुणेषु सक्तं बन्धाय यह मन है बंधन का कारण है कैसे, यह मन प्रकृति के तीनो गुणो में आसक्त हो जाता है तो यह मन बंधन का कारण हो जाता है। रतं वा पुंसि मुक्तये परम कृष्ण भगवान के चरणों में जब इस रति आसक्त हो जाते हैं प्रेम होता है तब यह मन मुक्ति का कारण हो जाता है। इसीलिए भक्तों का साधक का सर्वप्रथम कर्तव्य यही है अपने मन को निर्मल बनाएं। मन को शुद्ध बनाएं। भगवान ने कहा भी है।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥ भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥3॥
भगवान ने कहा है जिसका मन निर्मल है वही मुझे प्राप्त कर सकता है। जिसके मन में थोड़ा भी कुछ छल है, कपट है, राग द्वेष क्रोध काम है इत्यादि सारे विकार भरे हुए हैं वह मुझे कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता। मन को शुद्ध करने के लिए हमारे गुरु महाराज ने बड़ा ही सुंदर कार्यक्रम शुरू किया है। नित्य प्रति गुरु महाराज के सानिध्य में जप करते हैं। जिससे मन शुद्ध होगा और जब मन शुद्ध होगा तो निश्चित रूप से कन्हैया हमारे मन में आकर विराजमान हो जाएंगे। भगवान गीता में कहां हैं
” मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेश्य |
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः || ८ ||”
भगवान कहते हैं तुम अपने मन को मुझे दे दो। अर्थात अपने मन को मुझ में स्थित करके अपनी सारी बुद्धि मुझ में लगा दो। और ऐसा करोगे तो निश्चित रूप से मयि निवेश्य |
निवसिष्यसि मुझ में ही निवास करोगे। हम अपने मन को शुद्ध भाव से भगवान के चरणों में ले सकते हैं। तब भी हम भगवान के चरणों में स्थान प्राप्त कर सकते हैं। हमारे पूर्व आचार्य है रूप गोस्वामी इसलिए हम रूपानुग हैं। परमपूज्य लोकनाथ स्वामी कहते हैं कि, हम प्रभुपादानुग रूपानुग है। तो रूप गोस्वामी ने बहुत ही सुंदर गीत गाया है। थोड़ा इसे गाऊंगा उसके भी इच्छा हुई है। उन्होंने प्रार्थना की है और मन के लिए ही। प्रार्थना की है, कृष्ण देव! भवन्तं वन्दे
मन्मानसमधुकरमर्पय निजपदपङ्कजमकरन्दे।
अर्थात रूप गोस्वामी कहते हैं कि, हे कृष्ण, हे प्रभु मैं आपके चरणकमलों की वंदना करता हूं। मैं आपसे प्रार्थना करता हूं, कृपया मेरे मन में मधुकर को मना रूपी भ्रमर को अपनी चरणकमलो रुपी मकरंद में इसे लगा लीजिए। अर्थात अपने चरणारविंद का रस इसे चखा दीजिए। जिससे यह मन तो कभी संसार रूपी विषय में न जाए।
यद्यपि समाधिषु विधिरपि पश्यति न तव नखाग्रमरीचिम्
इदमिच्छामि निशम्य तवाच्युत! तदपि कृपाद्भुतवीचिम्
रूप गोस्वामी कहते हैं, हे प्रभु यद्यपि ब्रह्मजी भी समाधि लगा करके ही आपके चरणनखों की ज्योति के भी एक तिनका भी नहीं देख पाते यानी ब्रह्मा जी भी समाधिस्थ होकर भी आपके चरणनखो की एक किरण को भी नहीं देख पाते है। फिर भी प्रभु मैंने सुना है कि, आपकी जो कृपा है बड़ी अद्भुत, आपकी कृपा है। तो आपकी जो कृपा है उस कृपा की तारीफ को सुनकर के कि, आपकी कृपा की परम मोहिनी अपार हैं। आपकी कृपा की तरंग को सुनकर की है मैंने यह हिम्मत की है कि, आपके पद चरणों में आप अपने मन को स्थिर करूं। अपने मन को आपके चरणों में अर्पित करूं।
भक्तिरुदञ्चति यद्यपि माधव! न त्वयि मम तिलमात्री
परमेश्वरता तदपि तवाधिकदुर्घटघटनविधात्री
रूप गोस्वामी कहते हैं, हे प्रभु यद्यपि आपकी चरणों में मेरी भक्ति बिल्कुल नहीं है। फिर भी आपकी जो परमेश्वरता है। आपकी परमेश्वरता को सोचकर के मैं यह हिम्मत करता हूं की, मेरे मन को आपके चरणकमलों में स्वीकार कर ही लेंगे। और आगे कहते हैं,
अयमविलोलतयाद्य सनातन! कलिताद्भुतरसभारम्
निवसतु नित्यमिहामृतनिन्दिनिविन्दन् मधुरिमसारम्
रूप गोस्वामी कहते हैं, प्रभु आपके जो श्रीचरणकमल है, अमृत से भी अत्यंत मधुर है। इसलिए हे प्रभु मैं आपसे यही विनती करता हूं, प्रार्थना करता हूं कि, मेरे इस मन को आपके चरणकमलों में हमेशा के लिए रख ले। जिससे यह मन संसार के विषयों में डूबता नहीं जाए। तो यह मन को भगवान के चरणों में समर्पित करने के लिए हमें प्रयास करता हुं। और मन जब पवित्र हो जाएगा तभी हम मन को भगवान के चरण कमलों में अर्पित कर सकते हैं। मन पवित्र होने का जो साधन है वह हम भगवान का जप करते हैं। हरिनाम का जप करते रहे तो हमारा मन शुद्ध हो जाएगा। और संसार के विषयों से हमारा मन जितना जितना हटता जाएगा उसमें ही उतना हम भगवान के श्रीकृष्ण के नजदीक होते जाएंगे। जितना जितना हम संसार के भौतिक वस्तुओं से इस संसार के भौतिकता संसार के भौतिक जनों से या संसार के भौतिक वस्तु से जितना जितना हम दूर हटेंगे उतना ही कन्हैया के नजदीक जाएंगे, नजदीक पहुंचते जाएंगे, संसार के भौतिक वस्तुओं से भौतिकता से हमें हटना होगा। और हम तभी हट सकते हैं जब हमारे मन में कृष्ण बैठ जाएंगे।*ज्ञान वैराग्य........ फिर भगवान श्रीकृष्ण के भक्ति करने से हरिनाम जप करने से, वैराग्य का और ज्ञान वैराग्य का अहैतुकी ज्ञान निश्चय होगा। तो मन की भारी आवश्यकता है शुद्ध करने की क्योंकि, मन इतना चंचल है कि, यह हमेशा भागता रहता है। इंद्रियों के विषय में भागता रहता है। इतनी परमभक्त कुंतीदेवी जब भगवान से प्रार्थना की। भगवान श्रीकृष्ण कौरव पांडव के युद्ध के पश्चात भगवान श्रीकृष्ण द्वारिका जा रहे थे। तैयार हो रहे थे। तब कुंतीदेवी आई तो, उन्होंने बहुत सुंदर प्रार्थना की। पर यह विषय अलग हो जाएगा। तो मेरे कहने का तात्पर्य यह है, भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि, तुम मुझे इतनी प्रार्थना करती हो बुआ। इतना तुम हमको यहां बार-बार भगवान ही बता रहे हो। तो कुछ वरदान मांगो। कुंतीदेवी ने मांगा कि, ठीक है दुनिया भर के दुख हमारे झोली में डाल दो।
विपदः सन्तु ताः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो । जितने भी दुख है हमारे झोली में डाल दो। भगवान ने कहा बुआ मैं इससे संतुष्ट नहीं हूं, कुछ और मांगो। कुंतीदेवी भी आपने बात पर अडी रही। तो भगवान ने कहा, आपने तो बहुत दुख झेले हैं अपने जीवन में, कुछ और मांगो। कुंतीदेवी ने कहा, प्रभु जब आप की प्राप्ति हो गई तो फिर और कोई भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। सब मुझे मिल गया। तो वह बोले, नहीं नहीं मेरे संतुष्टि के लिए कुछ मांगो। तो कुंतीदेवी ने जो वरदान मांगा है, इसे हम सब भी मांग सकते हैं। नित्य प्रतिदिन प्रार्थना करें, जो कुंती देवी ने लिखी है। श्रील प्रभुपाद कहते हैं, जो व्यक्ति नित्य प्रतिदिन भगवान से प्रार्थना करता है। भगवान बहुत प्रसन्न होते हैं। और कोई अलग से प्रार्थना नहीं करनी हैं। जो हमारे आचार्य ने और भागवत में बड़े-बड़े ब्रह्माजी ने की है और कई लोगों ने स्तुति की है। भगवान शिव ने की है स्तुति। भागवत में रुद्रगीत है। जितनी हम प्रार्थना करें भगवान बहुत प्रसन्न होते हैं। कुंतीदेवी ने क्या प्रार्थना की है, क्या मांगा है, आप सब लोग पढ़ सकते हो और रोज बोल सकते हो।
त्वयि मेऽनन्यविषया मतिर्मधुपतेऽसकृत् । रतिमुद्वहतादद्धा गङ्गेवौघमुदन्वति ॥
कुंतीदेवी ने कहा, हे प्रभु वैसे तो मुझे वरदान की आवश्यकता नहीं है लेकिन, यदि आप देना ही चाहते हो, तो मैं यह चाहती हूं कि मेरा मन आपके चरणों को छोड़ कर के संसार के अन्य किसी भी विषय में ना रहे। मेरी मति आपके चरणों को छोड़ कर संसार के अन्य किसी किसी विषय में भी ना रहे। मैं यह मांगती हूं कि मेरा मन आपके चरण कमलों में स्थिर डटा रहे। इस तरह मेरा मन आपके चरणों की ओर बढ़ता रहे। जिस तरह गंगा की अखंड धारा समुद्र की ओर की दौड़ती रहती है। उसका लक्ष्य कहीं नहीं होता केवल समुद्र की ओर दौड़ती है। उसी तरह मेरा मन आपके चरणों की और दौड़ता रहे। आपके चरणों में लगा रहे। यही मैं आपसे प्रार्थना करती हूं। कहने का तात्पर्य यह है हमारा मन ऐसा शुद्ध बने जो केवल और केवल भगवान का ही चिंतन करें। भगवान भगवदगीता में कहते हैं,
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् |
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ||
भगवान ने कहा है कि, जब मनुष्य अपने मनोधर्म से उत्पन्न होने वाले सारी कामनाओ को त्याग करता है। जो इंद्रियों की कामना है। इतनी कामना है इंद्रिय तृप्तिकि सारी कामनाएं त्याग कर अपने मन को मेरे चरणों में लगाता है। तो वही व्यक्ति अपने मन को मुझ में स्थित कर पाता है। नहीं तो मन दुनिया भर में भागता ही रहता है। स्वयं चैतन्य महाप्रभु ने कहा है जो साक्षात भगवान है। दुर्वार इन्द्रिय करे विषय ग्रहण दारवी प्रकृति हरे मुनेरपि मन, चैतन्य महाप्रभु कहते हैं, इंद्रिय इतने बलवत है यह हमेशा अपने अपने विषयों की और बढ़ती है। प्रत्येक इंद्रियां अपने विषयों की ओर बढ़ते रहते हैं। यहां तक कहा है चैतन्य महाप्रभु ने सिर्फ लकड़ी की बनी हुई जो मूर्ति होती हैं। जैसे कि लोग शोरूम में लगाते हैं कपड़े वाले। जो लकड़ी की बनी हुई स्त्री की जो मूर्ति रहती है। लकड़ी की बनी हुई स्त्री की मूर्ति बड़े-बड़े मुनियों के मन को मोह लेती है। मुनीरअपि मन
“यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्र्चितः |
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः || भगवान कहते हैं कि यह इंद्रियां इतनी बलवति होती है कि, जो व्यक्ति इन इंद्रियों को और मन को वश में करने का प्रयत्न कर रहा होता है। बड़ा भारी प्रयास कर रहा होता है। ऐसे विवेकशील, जो विवेकशील व्यक्ति के मन को भी यह इंद्रिय हर लेती है। इसलिए इस मन को वश में करना बहुत जरूरी है क्योंकि, मन बहुत चंचल है। शुकदेव गोस्वामी तो कहते हैं यहां भागवत में,
तथा चोक्तम् न कुर्यात्कर्हिचित्सख्यं मनसि ह्यनवस्थिते । यद्विश्रम्भाच्चिराच्चीर्णं चस्कन्द तप ऐश्वरम् ॥
शुकदेव गोस्वामी यहां पर कह दिया कि परीक्षित इस चंचल मन के दृष्टता को कभी किसी को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए। कहां कह दिया इन्होंने जब भगवान ऋषभदेव एकदम जब अवधूत रूप में हुए थे। पागलों की तरह घूम रहे थे ऋषभदेव। ऋषभदेव के पास सारी रिध्दिया सिद्धियां हाथ जोड़कर खड़े रहते थे कि, प्रभु हमको स्वीकार करो। शुकदेव गोस्वामी कहते हैं, अपने आप रिद्धिया और सिद्धिया ऋषभदेव के पास आए और कहती है कि प्रभु हम को स्वीकार करो। और ऋषभदेवने एक को भी स्वीकार नहीं किया। सबको कह दिया जाओ यहां से। महाराज परीक्षित को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह कहते हैं कि, रिद्धि और सिद्धि को प्राप्त करने के लिए बड़े-बड़े योगी पूरा जीवन लगा देते हैं और वह सारी रिद्धि और सिद्धि या उनके पास होती है तो उन्होंने स्वीकार नहीं की। और फिर वह तो कोई साधारण व्यक्ति नहीं है कि चलो रिध्दिया सिद्धियां स्वयं उनके पास आ गई तो उनको अहंकार हुआ और कह दिया कि जाओ यहां से। ऐसा हो नहीं सकता। शुकदेव गोस्वामी कहते हैं जानते हो, जो श्रेष्ठ पुरुष होते हैं। जो महान पुरुष होते हैं अपने आचरण के द्वारा लोगों को शिक्षा देते हैं। तो उन्होंने यह शिक्षा दी कि, किसी भी साधक के लिए चाहे कितनी भी बड़ी व्यवस्थाए पहुंच जाए उनके पास लेकिन इस चंचल मन का भरोसा कभी भी किसी को नहीं करना चाहिए।
न कुर्यात्कर्हिचित्सख्यं मनसि जहां मन चंचल है इस चंचल मन का भरोसा किसी भी साधक को कभी भी किसी को भी नहीं करना चाहिए। चाहे कितनी बड़ी सिद्ध अवस्था हो क्यों क्योंकि भरोसा किया तो बाबा सोबरी मुनि जल के अंदर तपस्या करते थे। यमुना के जल के अंदर मुनि को अपने मन के ऊपर विश्वास था। लेकिन बिल्कुल सिध्दावस्था आने ही वाली थी। एक मछली अपने मच्छसंग को देखकर के बाबा को भी संग का ध्यान हुआ और बाबा का ध्यान टूट गया। ध्यायतो विषयांपुंसा संगस्ते उपजायते भगवान कह रहे हैं कोई व्यक्ति अगर विषयों का ध्यान कर रहा है तो उसे वह संग करने का प्राप्त करने का प्रयास करता है। तो वहीं उन्होंने किया और बेचारे फंस गए। एक नहीं 50 -50 राजकुमारियों के साथ विवाह किया। भरोसा था कि, भगवान शिव को अपने मन का अपने यहा तक कि, कामदेव को भी उन्होंने बस में ही किया था एक बार। लेकिन फिर भी भगवान भोलेनाथ भी मोहिनी रूप को देख कर के उनका भी सारी तपस्या शुद्ध हो गई सोबरी मुनि जैसे भगवान शिव जैसे अपने अपने मन के वशीभूत हो गए। हम और आप किस खेत की मूली है। इसीलिए कहा है कि, इस चंचल मन का भरोसा कभी भी किसी को भी नहीं करना चाहिए। और बड़ी सावधानी पूर्वक गुरु के निर्देशन में अपनी साधना को दृढ रखना चाहिए। और प्रयास करते रहिए भगवान से प्रार्थना करते रहिए की हे प्रभु हमारे मन को अपने चरणों में लगा दो। हमारे अंदर इतनी शक्ति नहीं, इतनी भक्ति नहीं जो अपने प्रयास से अपने मन को अपने वशीभूत कर सके। हे प्रभु हम बस आप से प्रार्थना करते हैं कि हमारे मन को अपने चरणों में लगा दो। हे प्रभु बस अन्य विषयों में मन जाकर के बस आपके ही चरणों में लगा रहे। यही हम आप से प्रार्थना करते हैं. यह सब भजन साधन से ही होगा। जितना जितना हम भजन साधन करेंगे उतना ही निखार आता जाएगा क्योंकि, तपने से निखार आ जाता है। स्वर्ण को कितना तपाएंगे उतना ही वो निखरता जाता है। जितना हम इस पद्धति को अपनाएंगे भजन साधन कराएं करेंगे उतना ही निखरते जाएंगे।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥ भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥
जिसका मन निर्मल होता है वही मुझे प्राप्त कर सकता है। यही बोल कर अपनी वाणी को विराम देता हूं। कोई किसी का प्रश्न हो तो वह प्रश्न पूछ सकते हैं। हरे कृष्ण।
प्रश्नः हरे कृष्ण प्रभुजी मेरा सवाल आज के विषय में नहीं है किंतु, मेरा प्रश्न है कि जब हम भक्ति करते हैं, कैसे जानेंगे कि हम सहजिया के तरफ जा रहे हैं कि शुद्ध भक्ति की तरफ जा रहे हैं?
ब्रज विलास प्रभुजीः बहुत सुंदर आपका प्रश्न है। देखिए ब्रह्माजी ने कहा है जो कोई व्यक्ति भोजन करता है तो, तुष्टि पुष्टि संतुष्टि इन तीन चीजों का सेवन अनुकरण करता है। वह जब भोजन करता है। भोजन करता है एक निवाला आएगा आहाहा बड़ी तुष्टि है। इच्छा थी भोजन, प्रसाद मिले। बढ़िया से उसे भोजन खिला दिया तुष्टि होगी पुष्टि फिर संतुष्टि तुष्टि उसी वक्त होगी फिर पुष्टि फिर संतुष्टि। तो उसी प्रकार जैसे हम अपने प्रसाद को खाते हैं। हमारे प्रसाद की तुष्टि पुष्टि संतुष्टि हुई है यह किसी दूसरे से पूछने की आवश्यकता नहीं पड़ती। हमें स्वयं ही अनुमान लगता है। उसी प्रकार जो हम अपनी भजन साधना करते हैं, शरीर के लिए भोजन करते हैं आत्मा के लिए भजन साधना करते हैं। आत्मा की भजन के द्वारा तुष्टि संतुष्टि पुष्टि हो रही है। यह आत्मा हमें और किसी से पूछने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, हम स्वयं ही जान जाएंगे। इस बात के लिए हम स्वयं ही जान जाएंगे। हमारे भक्ति के लिए अब हम कहां तक है और कैसे हैं हमारी भक्ति नीचे गिर रही है। ऊपर है। हमसे कोई अपराध हुआ है या हमसे कोई पाप हुआ है क्या, हमारी भक्ति आगे क्यों नहीं बढ़ रही है, हम पहले जप करते थे, करते-करते आंखें गीली हो जाती थी अब क्यों नहीं हो रही है, स्वयं भी इसका अनुभव होगा हमें किसी की पूछने की आवश्यकता नहीं पड़ती। ठीक है।
हरे कृष्ण।