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*जप चर्चा* *श्रीमान अनंत शेष प्रभु द्वारा* *दिनांक 22 जनवरी 2022* हरे कृष्ण!!! *ॐ अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।* *नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते लोकनाथ – स्वामिन् इति नामिने।* *नम ॐ विष्णु – पादाय कृष्ण – प्रेष्ठाय भूतले। श्रीमते भक्तिवेदान्त – स्वामिन् इति नामिने।।* *नमस्ते सारस्वते देवे गौर – वाणी प्रचारिणे निर्विशेष – शून्यवादी – पाश्चात्य – देश – तारिणे* *(जय) श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभु नित्यानन्द श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासादि – गौरभक्तवृन्द।।* *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* सर्वप्रथम गुरु महाराज और यहां उपस्थित समस्त भक्तों को दण्डवत प्रणाम। थोड़े विलम्ब के लिए क्षमा चाहता हूं। आज मुझे विशेष रूप से नाम जप के विषय में बताने के लिए कहा गया है। हम सब का सौभाग्य है जो हम सभी भक्त गुरु महाराज के पावन सन्निध्य में एकत्रित होकर नाम जप करते हैं। वास्तविकता में हमें जो प्राप्त हो रहा है, इसकी महिमा हमें स्मरण रहनी चाहिए। जैसा कि मैं कुछ दिन पूर्व कह रहा था कि ऐसा सौभाग्य..., लगभग कह सकते हैं और यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि लभभग सम्पूर्ण पृथ्वी मंडल अथवा सम्पूर्ण ब्रह्मांड में ऐसा सौभाग्य किसी औऱ भक्त को प्राप्त नहीं हुआ होगा, जो हमें प्राप्त हो रहा है कि हम नित्य प्रति गुरु महाराज के सान्निध्य में नामजप कर रहे हैं। उसी के विषय में मैं थोड़ा कुछ कहना चाहता था।हालांकि नाम की महिमा तो अनंत है। जिस प्रकार से स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने ही आदि पुराण में अर्जुन से कहा था। *न नाम-सद्रसम ज्ञानम्* *न नाम-सद्रसम व्रतम* *न नाम सद्रसम ध्यानम्:* *न नाम सद्रसम फलम* *न नाम सद्रसम त्याग:* *न नाम सद्रसम क्षमा:* *न नाम सद्रसम पुण्यम:* *न नाम सद्रसी गति:* *नामैव परम: मुक्ति:* *नामैव परम: गति:* *नामैव परम: शांति:* *नामैव परम: स्थिति:* *नामैव परम: भक्ति:* *नामैव परम: मति:* *नामैव परम: प्रीति:* *नामैव परम: स्मृतिः* *नामैव कार्णम जंतोर* *नामैव प्रभु एव च* *नामैव परमराध्याम्:* *नामैव परमः गुरु:* (आदि पुराण) अर्थः- पवित्र नाम के जप के समान कोई व्रत नहीं है, उससे श्रेष्ठ कोई ज्ञान नहीं है, कोई ध्यान नहीं है जो उसके निकट कहीं भी आता हो और वह सर्वोच्च फल देता है। इसके समान कोई तपस्या नहीं है और पवित्र नाम के समान शक्तिशाली कुछ भी नहीं है। जप पवित्रता का सबसे बड़ा कार्य और सर्वोच्च शरण है। यहां तक कि वेदों के शब्दों में भी इसकी परिमाण का वर्णन करने के लिए पर्याप्त शक्ति नहीं है, जप मुक्ति, शांति और शाश्वत जीवन का सर्वोच्च मार्ग है। यह भक्ति का शिखर है, हृदय की हर्षित प्रवृत्ति और आकर्षण सर्वोच्च भगवान के स्मरण का सर्वोत्तम रूप है। पवित्र नाम पूरी तरह से जीवों के लाभ के लिए उनके भगवान और गुरु, उनकी सर्वोच्च पूजा की वस्तु और उनके आध्यात्मिक मार्गदर्शक और गुरु के रूप में प्रकट हुआ है। आदि पुराण में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से स्वयं कहा कि नाम से बढ़कर कोई ज्ञान नहीं, नाम से बढ़कर कोई व्रत नहीं, नाम से बढ़कर कोई ध्यान नहीं है। नाम से बड़ा कोई फल नहीं है। नाम से बढ़कर कोई श्रेष्ठ त्याग नहीं है। नाम से श्रेष्ठ कोई पुण्य नहीं हैं। नाम से बढ़कर कोई स्थिति नहीं। नाम से बड़ी कोई गति नहीं, नाम से बड़ी कोई शांति नहीं। नाम से बढ़कर कोई भक्ति नहीं है। नाम से बड़ी कोई स्थिति नहीं है। नाम से बढ़कर कोई स्मृति नहीं है। वास्तविक नाम से बड़ा कोई प्रभु नहीं है। नाम ही सबसे श्रेष्ठ आराध्य है। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर के कुछ वचन मुझे स्मरण हो रहे थे कि नाम ही सर्वश्रेष्ठ साधन है। हमनें यह कुछ दिन पहले परम् पूज्य श्रीमान मुरली मनोहर प्रभु के मुख से भी श्रवण किया था। परंतु यह नाम कैसे प्रकाशित होता है? नाम किस प्रकार से हमारे जीवन में प्रकट होता है। इस विषय में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर अपने भजन में कहते हैं कि नाम जप का लाभ कैसे मिलेगा। उन्होंने वहां पर जो प्रथम बात कही है, वैसे अन्य भी कई बातें कही है परंतु सबसे प्रथम बात जो कही गयी है, वह यह है कि *नाम चिंतामणि: कृष्णश्र्चैतन्य- रस- विग्रह: पूर्णः शुद्धो नित्य-मुक्तो अभिन्नत्वान्नाम- नामिनोः।।* ( पदम् पुराण) अर्थ:- कृष्ण का पवित्र नाम दिव्य रूप से आनंद मय है। यह सभी प्रकार के आध्यात्मिक वरदान देने वाला है, क्योंकि यह समस्त आनंद का आगार अर्थात स्वयं कृष्ण है। कृष्ण का नाम पूर्ण है और सभी दिव्य रसों का स्वरूप है। यह किसी भी स्थिति में भौतिक नाम नहीं है यह स्वयं कृष्ण से किसी तरह कम शक्तिशाली नहीं है। चूंकि कृष्ण का नाम भौतिक गुणों से कलुषित नहीं होता, अतएव इसका माया में लिप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। कृष्ण का नाम सदैव मुक्त तथा आध्यात्मिक है, वह कभी भी भौतिक प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध नहीं होता। ऐसा इसलिए है, क्योंकि कृष्ण नाम तथा स्वयं कृष्ण अभिन्न है। भगवान् श्रीकृष्ण का नाम और भगवान् अभिन्न है। भक्ति विनोद ठाकुर के शब्दों में यह बात जब स्वीकार करते हैं और इस बात की स्वीकृति होने के साथ जब नाम जप किया जाता है, तब नाम जप के समय यह अनुभूति हो कि साक्षात भगवान् ही हमारे साथ हैं, तब वास्तविक नाम जप प्रारंभ होता है। जब तक यह धारणा आप ह्रदय में स्वीकार न करें तब तक अनुभव रहता है कि नाम जप यांत्रिक ही रहता है। नाम स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं, यह बतलाया जाता है और भगवान् श्रीकृष्ण भगवद्गीता में कहते हैं। जिस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण भी इस धरातल पर अवतरित हुए थे। *अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्र्वरोऽपि सन् | प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ||* ( श्रीमद भगवतगीता 4.6) अनुवाद:- यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और यद्यपि मैं समस्त जीवों का स्वामी हूँ, तो भी प्रत्येक युग में मैं अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होता हूँ | भगवान् अपनी स्वेच्छा से इस धरातल पर अवतरित होते हैं। विशेष रूप से जब भक्तों के द्वारा आह्वाहन किया जाता है। जब समस्त भक्तगण मिलकर आह्वाहन करते हैं। भगवान् रामचंद्र इस धरातल पर अवतरित हुए। भगवान् श्रीकृष्ण इस धरातल पर अवतरित हुए। समस्त देवताओं ब्रह्मा, शिव आदि ने मिलकर भगवान् का आह्वाहन किया। भगवान् को आमंत्रण दिया। तब भगवान् प्रकट हुए। साथ में ही हम देखते हैं कि जब हम भगवान् की अर्चावतार के रूप में अर्चना करते हैं। अर्चा विग्रह भी कैसे अवतरित होता है? यह बतलाया जाता है कि आचार्य आह्वाहन करते हैं। अन्य शब्दों में मैं दोनों दृष्टांत देकर बतलाना चाहता था कि जिस तरह से भगवान् अपने लीला अवतार या अर्चा अवतार तब लेते हैं, जब सब भक्त मिलकर आह्वाहन करते हैं। जैसे भगवान् अवतरित होते हैं, वैसे ही भगवान नाम के रूप में हमारे जीवन में कैसे प्रकट होते हैं? जब उसे भी गुरु, साधु मिलकर आह्वाहन करते हैं। जैसे श्री जगदानंद पंडित प्रेम विवर्त में कहते हैं- *असाधु-संगे भाई कृष्ण-नाम नहीं हय नामक्षर बहिरय बते तबू नाम कबू नये* अर्थ:- कभी-कभी नाम का आभास होता है, लेकिन नाम के प्रति अपराध हमेशा होते हैं। इन दोनों को जानो, भाई, कृष्ण भक्ति में बाधक बनना। असाधु की संगति में वास्तविक नाम कभी प्रकट नहीं होता है। नामक्षर बहिरय बते नाम नहीं हय। वहां अक्षर मात्र रहते हैं। परंतु आवश्यक नहीं नाम प्रभु साक्षात नाम के रूप में हमारी जिव्हा पर प्रकट होंगे। वैसे असत्संगति तो कई हैं परंतु सबसे मुख्य असाधुता जो बतलाई जाती है, वह हमारा मन है। मन ही सबसे बड़ा असाधु है। जहां तक मुझे स्मरण है, ध्यान चंद्र गोस्वामी ने गोपाल गुरु गोस्वामी की महामन्त्र टीका में इस बात को बतलाया है। अनेक जन्मों की भक्ति उन्मुख स्वीकृति के बल से..., भक्ति उन्मुख स्वीकृति कैसे प्राप्त होती है? बतलाया जाता है कि जब हमारे जीवन में किसी साधु या गुरु का सङ्ग होता है। उस साधु गुरु के सङ्ग से भक्ति उन्मुखी स्वीकृति होती है। भक्ति उन्मुखी स्वीकृति से व्यक्ति श्रद्धा को प्राप्त करता है। जब श्रद्धा प्राप्त होती है तब बतलाया जाता है कि वह गुरु का आश्रय प्राप्त करता है। यहां पर कह रहे हैं कि कई जन्मों में अर्चना करने के पश्चात उसे श्रद्धा प्राप्त होती है। कौन सी श्रद्धा? नाम की श्रद्धा, जब नाम की श्रद्धा आती है तो वहां साधु सङ्ग से वह नाम जप को करता है। श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने कहा- साधु सङ्गे, भजन क्रिया.. भजन प्रारंभ कब होता है, जब साधु का सङ्ग हो। प्रारंभ में जिस साधक को कृष्ण नाम में श्रद्धा होती है, उनके लिए बतलाया जाता है कि वह तत्व विद गुरु का आश्रय ग्रहण करता है। ऐसे तत्वविद जो नाम को तत्व से जानते हैं उनका आश्रय लेकर वह उनके सङ्ग में नाम- कीर्तन करता है। ऐसा नाम- कीर्तन करने से अल्प समय में उसका चित पवित्र होने लगता है और अविद्या का नाश होता है।अविद्या का नाश मतलब हमारी भगवान् श्रीकृष्ण जो विस्मृति हुई है,उसका नाश होता है। सम्बंध ज्ञान बहुत शीघ्र जागृत होने लगता है। यहां जो मैं पढ़ रहा था, ये ध्यान चन्द्र गोस्वामी के वचन है। साथ ही हरिनाम चिंतामणि में वर्णन है.., हालांकि मेरा कुछ प्रेजेंटेशन दिखाने का विचार था, परंतु वह यहां चलते हुए नहीं बताया जा सकता। हरिनाम चिंतामणि में जहां पर 10 नाम अपराधों का वर्णन श्री हरिदास ठाकुर ने किया है । दस नाम अपराधों के अंतर्गत असावधानीपूर्वक नाम जपना अर्थात ध्यानपूर्वक नाम जप ना करना है, जो समस्त अनर्थों, समस्त दोषों व समस्त अपराधों का मूल कहा गया है। उसमें भी तीन बताए गए हैं, उदासीनता मतलब नाम के प्रति रस न प्राप्त होना। नाम के प्रति कोई आकर्षण ना होना। दूसरा लय बताया गया है अर्थात नाम जप करते समय नींद आना। तीसरा विक्षेप बताया गया था अर्थात मन की चंचलता। मन कृष्ण को छोड़कर अन्य विषयों में भटकना। तीन जो दोष बताए गए हैं, मैं वहां तीनों दोषों के उपाय हरि नाम चिंतामणि में पढ़ रहा था। (अभी समय का अभाव भी है) वैसे इसका हमने विस्तृत रूप से अलग एक सेमिनार भी किया था। इन तीनों के उपाय में वहां बताया जाता है कि गुरु साधु के आश्रय में बैठकर जब उस नाम का जप किया जाता है तब तीनों दोष बहुत शीघ्र ही चित से निकलने लगते हैं। जिस प्रकार से इसके पूर्व एक चर्चा में एक जप टॉक में मैंने बताया भी था। एक पुराण के श्लोक में आता है (अभी श्लोक मेरे पास उपलब्ध नहीं है।) कि मंत्र का प्रभाव स्थान के हिसाब से अपने आपको प्रकाशित करता है। जैसे भगवान भगवद्गीता में कहते हैं - *नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः |मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ||* ( श्रीमद भगवद्गीता 7.25) अनुवाद मैं मूर्खों तथा अल्पज्ञों के लिए कभी भी प्रकट नहीं हूँ | उनके लिए तो मैं अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा आच्छादित रहता हूँ, अतः वे यह नहीं जान पाते कि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ । "जैसे मैं सहजता से अपने आप को प्रकाशित नहीं करता, वैसे नाम भी सर्वत्र प्रकाशित नहीं होता। "वहां ऐसा बतलाया जाता है कि जब नाम को अपने घर में बैठकर उच्चारित करते हैं तो नाम का एक फल प्राप्त होता है और उसी नाम को जब आप गौशाला (जहां पर गाय रखी जाती है। गाय के शरीर में समस्त देवों व समस्त तीर्थों का वास होता है) में गाय के सानिध्य में नामजप किया जाए तो उसका दस गुना फल बताया गया है। वहैं फिर जब तुलसी के सानिध्य में नाम जप किया जाता है तब उसका शत गुणा फल बतलाया जाता है। उसके ऊपर उन्होंने बहुत अधिक विशेष जोर दिया है। तुलसीदास ठाकुर स्वयं भी तुलसी के सानिध्य में जप करते थे। बताया जाता है कि जब नाम जप करते हैं, विशेष रूप से जब हम भोग लगाते हैं तब भोग लगाते समय तुलसी का पत्र रखते हैं ताकि वह भोग भगवान श्रीकृष्ण के ग्रहण करने योग्य बन सके। बिन तुलसी भगवान कोई भोग स्वीकार नहीं करते। वैसे गुरु क्या करता है? गुरु तुलसी प्रदान करता है। गले के लिए कंठी भी देते हैं और हाथ में माला भी प्रदान करते हैं। तब हम वास्तविक रूप से भगवान के द्वारा स्वीकार करने योग्य बनते हैं। वहां पर बतलाया जाता है कि श्रील हरिदास ठाकुर वहां पर काफी जोर दिया हैं एक तो तुलसी के सानिध्य में जप करना और साथ में जो तुलसी की माला पर जप करते हैं, उन्हें सदैव यह बात स्मरण रखनी चाहिए कि तुलसी भगवान की नित्य संगिनी है। भगवान की सेविका है। यह कोई जड़ पदार्थ नहीं है। कभी-कभी हम दोष के कारण विचार करते हैं कि तुलसी की माला कोई लकड़ी या कोई मणि है। हमने वास्तव में ऐसे-ऐसे भक्तों की कथाओं का श्रवण किया है, जिन्होंने श्री विग्रह का अनुभव किया है। कुछ कथाओं में बताया जाता है, किस प्रकार विग्रह रूप में जैसे साक्षी गोपाल या अन्य विग्रह रूप में भगवान भक्तों के साथ आदान प्रदान करते हैं। वैसे ही कथाएं प्राप्त होती हैं। जब जब तुलसी की माला भी हमारे भाव को सुनती है। तुलसी की माला भी आदान प्रदान करती है। कई बार बहुत उच्च कोटि के भक्तों की कथाओं में सुनते हैं कि आज माला रुष्ट हो चुकी है, आज माला अधिक प्रसन्न है। वहां पर बतलाया जाता है कि जब माला गुरु से प्राप्त होती है , उसके प्रति कैसा भाव होना चाहिए? जैसा श्रीविग्रह के प्रति भाव होता है, हमें वैसा ही भाव रखकर उसकी आराधना करनी चाहिए। कभी भी किसी भी अवस्था में अपनी माला को किसी को दिखानी नहीं चाहिए। कहा जाता है कि कभी किसी अन्य व्यक्ति की दृष्टि आप की माला पर पड़ जाती है तो आपके जप का जो फल है,उसका कुछ प्रतिशत उसको प्राप्त होने लगता है। माला को सदैव आदरपूर्वक रखा जाना चाहिए। कई भक्त उसको बहुतअच्छी तरह से रखते हैं। जैसे आपकी पूजा की वेदी होती है। वहां पर उस माला को रखा जा सकता है। एक बहुत सुंदर उपाय मैंने सुना था कि जो नाम जप अच्छे से करना चाहता हो,वह रात्रि को सोने से पूर्व कुछ जप करें और जप करने के पश्चात अपनी माला को प्रणाम करें। माला को प्रणाम करके प्रार्थना करें कि वह उसे नाम रुचि प्रदान करें। प्रातः काल जैसे ही आंख खुलती है। दो कार्य महत्वपूर्ण बताए गए हैं कि आंख खुलते ही मुँह भी न धोये और हाथ भी ना धोये, उठते ही दो कार्य बताए गए हैं कि माला को प्रदान करने वाले गुरु को और माला को, दोनों को तुरंत प्रणाम करना चाहिए। यह जैसे ही करते हैं, आपकी नाम रुचि बहुत अधिक बढ़ने लगती है। क्योंकि माला कृपा करती है तो मंत्र बहुत शीघ्रता से होता है। इसलिए उस तुलसी के सानिध्य में किए गए जप के फल को शतगुणा कहा गया है। तत्पश्चात उसे ही जब किसी तीर्थ क्षेत्र जैसे गंगा, यमुना जैसी नदियों के तट पर जप किया जाता है तब उसका सहस्त्र गुणा फल बताया गया है अर्थात यदि नदियों पर लगभग सात हाथ के अंतर में जब जप किया जाता है तब सहस्त्र गुणा फल मिलता है। यदि भगवान श्रीकृष्ण की लीला स्थली जैसे वृंदावन, गोवर्धन, काम वन आदि जैसे स्थानों पर जप किया जाता है तब लगभग उसका लक्ष्य गुणा फल कहा गया है, इन्हें मन्त्र सिद्ध स्थली भी कहा जाता है। जहां पर रूप गोस्वामी व सनातन गोस्वामी आदि की भजन कुटीर है। जहां पर उन्होंने मंत्र का जप किया। जहां जप करके उनका मन्त्र सिद्ध हुआ। नाम के साथ रूप, गुण, लीला आदि को भी उस स्थान पर प्रकाशित किया। वहां पर जो व्यक्ति भजन व जप करता है...। नाम जप के परमाणु चारों तरफ सदा उस स्थान पर बने रहते हैं। कुछ भक्तों का ऐसा अनुभव होता है कि जब हम धाम में जाते हैं, गोवर्धन परिक्रमा करते हैं, आचार्यों के स्थान, व उनकी समाधि ,उनके भजन कुटीर, पर जाते हैं। पहली बात कि हमें अधिक नाम जप की इच्छा होने लगती है। दूसरा अनुभव देखा गया है कि अति शीघ्रता से नाम जप होने लगता है। वहां पर बतलाया गया है कि ऐसे स्थानों पर यदि नाम जप को किया जाए तो 10 लक्ष्य गुणा फल बताया गया है। उसी नाम को यदि जिन गुरु ने मंत्र प्रदान किया है, उन गुरु के सानिध्य में यदि उस मंत्र का जप किया जाता है तो बतलाया जाता है कि उसका फल फिर अनंत गुणा प्राप्त होता है। हरि बोल !!! (मेरा समय तो लगभग हो चुका है) प्रथम बात जो मैंने बताई कि गुरु के सानिध्य में नाम जप किया जाता है परंतु जब हम वहीं गुरु के सानिध्य में नाम जप करते हैं तो गुरु की कृपा दृष्टि पड़ती है। वास्तविक जब हम गुरु के दृष्टि पथ में आते हैं तब किस प्रकार से भक्ति प्राप्त होती है यह हमारा अनुभव जो है इस जगत में। *भक्तिस्तु भगवद भक्त संगीता परिजायते सत-संग-प्रपयते पुंभिः सुकृतैः पूर्व संहिताः।।* (ब्रह्म नारदीय पुराण 4.33) "भक्ति भगवान के भक्तों की संगति से प्रकट होती है। भक्तों की संगति पिछले संचित पवित्रता से प्राप्त होती है।" कैसे हम भक्ति मार्ग में आए, वहां बतलाया जाता है कि जब हम किसी साधु के संकल्प में आते हैं। कोई भक्त हमसे मिला। किसी भक्त के मन में इच्छा हुई कि यह व्यक्ति भक्त बनना चाहिए। जिस प्रकार से चैतन्य भागवत में वर्णन आता है कि नित्यानंद और हरिदास संकीर्तन कर रहे थे। नित्यानंद प्रभु की दृष्टि जगाई, मधाई पर पड़ी, तुरंत उस समय जब नित्यानंद प्रभु को पता चला कि यह बहुत बड़े पापी हैं। उनके मन में आया कि अगर यदि इनको श्री महाप्रभु की कृपा मिलेगी तो वास्तविक रूप से चैतन्य महाप्रभु का नाम पतित पावन प्रसिद्ध हो जाएगा। तुरंत उसी समय हरिदास ठाकुर कहते हैं कि हे नित्यानंद यदि आपके संकल्प में आ चुका है कि यह भक्त बने तो निश्चित रूप से इनका उद्धार हो गया। जिस तरह से श्रील भक्ति विनोद ठाकुर कहते हैं- *वैष्णवेर आवेदन कृष्णः दयामय एहे न पामर*.... यदि हम वैष्णव की दृष्टि में आते हैं, वैष्णव के संकल्प में आते हैं तो तुरंत हम में भक्ति की श्रद्धा जागृत होती है। वहां पर बतलाया जाता है कि दो मार्ग है - वैधी मार्ग और रागानुगा मार्ग। श्री शचीनन्दन महाराज अपने ग्रंथ हार्ट ऑफ ट्रांसफॉर्मेशन अर्थात ह्रदय के परिवर्तन में बताते हैं कि हम जो नाम जप कर रहे हैं, हम जो साधना कर रहे हैं, हम जो कथा श्रवण करते हैं, हम जो विग्रह की अर्चना आदि करते हैं। इन समस्त कार्य को वैधी भक्ति कहा जाता है। वैधी भक्ति अर्थात जब आपका मन भगवान में ना लगा हो, भगवान के प्रति सहज स्वाभाविक आकर्षण ना होते हुए भी शास्त्र के निर्देश में आप अपनी इंद्रियों को भगवान की सेवा में लगाते हैं। इसको वैधी भक्ति कहा जाता है। एक बहुत सुंदर बात वहां पर शचीनन्दन महाराज बतलाते हैं। जब आप वैधीभक्ति करते हैं। व्यक्ति वैधी भक्ति कितनी भी करें ,आप कितना भी समय करते रहे, वैधी भक्ति में वह सामर्थ्य नहीं है कि आपको रागानुग भक्ति में लेकर जाए। जिस प्रकार से नवद्वीप धाम महात्म्य में भी आता है कि नित्यानंद प्रभु और श्री जीव गोस्वामीपाद संवाद में बताया गया है कि *कोटि वर्ष करि यदि श्री कृष्ण भजन कभु ना पाए कृष्ण नाम प्रेम धन।।* करोड़ों वर्ष भी श्रीकृष्ण का भजन किया जाए फिर भी नाम के प्रति रुचि नहीं प्राप्त हो सकती। फिर प्रश्न आता है कि वैधी भक्ति से राग भक्ति में कैसे जाया जा सकता है? वहां पर शचीनन्दन महाराज बताते हैं कि जब आप वैधी भक्ति करते हैं। वैधी भक्ति करते हुए गुरु के प्रति पूरा समर्पण आ जाता है, आप पूर्णतया से गुरु को समर्पित होते हैं। गुरु की इच्छा के अनुसार गुरु के अनुकूल बनकर जब अपने आपको उनको अर्पित करते हैं। वहां पर शब्द का प्रयोग किया है कि उनको कृत दास कहा जाता है। कृत दास मतलब पूर्णतया से विदाउट एनी रिजर्वेशन कमिंग आउट ऑफ द कंफर्ट जोन। जो अपने कंफर्ट जोन से बाहर निकलकर गुरु को प्रसन्नता देने के लिए कष्ट को स्वीकार करता है। यह कार्य होने से क्या होता है। गुरु के चित में आह्लाद आता है। गुरु प्रसन्न होते हैं। गुरु के मुख मंडल सुमित हास्य आता है, वहां पर बताया गया है कि जब हमारे ऐसे कार्य से गुरु के ह्रदय में आह्लाद आता है और गुरु हमारा प्रसन्नतापूर्वक स्मरण करने लगते हैं। अभी तो हमारी ऐसी दशा है कि अभी गुरु हमें सहन करते हैं। गुरु हम से प्रसन्न नहीं होते। गुरु प्रसन्न हो जाएं और गुरु के चित्त अथवा गुरु की स्मृति में जब हम आने लगते हैं तो उसका परिणाम क्या होता है। तब बतलाया जाता है कि अब जो वैधी मार्ग में है। तुरंत आपको रागानुगा भक्ति का जो रस है, वह बूंद बूंद करके प्राप्त होने लगता है। अन्य शब्दों में कहा जाए बहुत सुंदर बात आचार्यगण बतलाते हैं कि हम जब गुरु का स्मरण कर रहे हैं..। प्रातः काल गुरु का स्मरण करना बहुत पवित्र होता है। कल हम श्रीमद् भागवतं के चुर्तथ स्कन्ध का श्रवण कर रहे थे, जहां पर दक्ष प्रजापति द्वारा शिवजी के दर्शन का वर्णन है। शिवजी के दर्शन करने मात्र से ही उनका ह्रदय का कल्मष दूर हो गया था। इसी तरह से भागवतम के प्रथम स्कंध में भी कहा गया है *येषां संस्मरणात्पुंसां सद्यः शुद्ध्यन्ति वै गृहाः । किं पुनर्दर्शनस्पर्शपादशौचासनादिभिः ॥* ( श्रीमद भागवतम 1.19.33) अनुवाद:- आपके स्मरण मात्र से हमारे घर तुरन्त पवित्र हो जाते हैं । तो आपको देखने स्पर्श करने, आपके पवित्र चरणों को धोने तथा अपने घर में आपको आसन प्रदान करने के विषय में तो कहना ही क्या ? आप जब गुरु का स्मरण करते हैं तो आपके हृदय का कल्मष निकल जाता है, इसे अनर्थ निवृति कहते हैं। आप जब गुरु का स्मरण करेंगे तो अनर्थ निवृत्ति होती है लेकिन जब गुरु आपका स्मरण करते हैं तो अब अर्थ प्रवृत्ति होती है। आप जब गुरु का स्मरण करते हैं तो वैधी भक्ति प्रारंभ होती है। जब गुरु आपका स्मरण करते हैं तो रागानुगा भक्ति प्रारंभ होती है। आप जब गुरु का स्मरण कर रहे हैं तो आप के चित्त से संसार की इच्छाएं निकलने लगती है लेकिन जब गुरु आपका स्मरण करते हैं तो आपके अंदर भगवत लालसा जन्म लेती है। जब आप गुरु का स्मरण करते हैं तो संसार हृदय से निकलता है जब गुरु आपका स्मरण करते हैं तो भगवान श्रीकृष्ण हृदय में प्रवेश करते हैं। जब आप गुरू का स्मरण करते हैं तो भगवान् के नाम के प्रति निष्ठा आने लगती है लेकिन गुरु का स्मरण करने से नाम की पकड़ आती है। कुछ दिन पहले मैं सुन रहा था कि यदि गुरु की कृपा ना हो, नाम जप करना तो दूर की बात है, एक नाम भी मुख से नहीं निकलेगा। देखा जाता है कि जब गुरु अप्रसन्न हो जाए तो मुख से नाम भी निकलना बंद हो जाता है। गुरु का स्मरण करने से आपके नाम में पकड़ आती है मतलब आप हरि नाम को पकड़ते हैं परंतु गुरु आपका स्मरण करने लगे तो हरि नाम आप को पकड़ने लगता है। आप जब गुरु का स्मरण करते हैं तो आप की बहिर्मुखता चली जाती है मतलब आप कृष्ण उन्मुख हो जाते हैं और गुरु का स्मरण करने से आप कृष्ण उन्मुख होते हैं। आपका ध्यान कृष्ण की ओर जाने लगता है। आप कृष्ण की ओर देखने लगते हैं। कृष्ण में आपका चिंतन होने लगता है परंतु जब गुरु आपका स्मरण करते हैं तो कृष्ण आपका चिंतन करने लगते हैं। हम जब गुरु का स्मरण करते हैं भक्ति की इच्छा... भगवान की प्राप्ति कैसे होती है? बतलाया जाता है कि सर्वाधिक आवश्यक है कि भगवान की प्राप्ति की इच्छा हो। गुरु के स्मरण से वह इच्छा जागृत होती है। गुरु का स्मरण करने से भक्ति की इच्छा जागृत होती है परंतु जब गुरु हमारा स्मरण करते हैं, वहां बतलाया जाता है कि हम भगवान की इच्छा करना तो और बात है, भगवान हमारे सानिध्य की इच्छा करने लगते हैं। इस तरह की बहुत सारी बातें हैं। जितना मुझे स्मरण हुआ। वैसे एक अन्य प्रेजेंटेशन था उसमें बहुत विस्तृत रूप से बताया गया है। एक श्लोक भी आता है अभी मेरे समक्ष वह श्लोक नहीं है। जिसे गुरु दिव्य दृष्टि कहा जाता है। बहुत बड़ी महिमा है यदि आप गुरु की दृष्टि में आ जाते हैं, गुरु के संकल्प में आ जाते हैं...। जिस प्रकार से श्रील रूप गोस्वामी उपदेशामृत में कहा है कि समस्त भौतिक जगत से श्रेष्ठ वैकुंठ है, वैकुंठ से श्रेष्ठ मथुरापुरी कहा गया है क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण जहां स्वयं प्रकट हुए। मथुरा से श्रेष्ठ वृंदावन को बतलाया जाता है क्योंकि श्रीकृष्ण की नित्य लीला वहां पर हुई है। वृंदावन से श्रेष्ठ गोवर्धन है क्योंकि श्रीकृष्ण उसे अपने कर कमलों पर धारण करते हैं। गोवर्धन से श्रेष्ठ राधाकुंड को बतलाया जाता है क्योंकि वहां पर राधा कृष्ण नित्य विहार करते हैं परंतु कुछ भक्त बतलाते हैं कि राधा कुंड से भी श्रेष्ठ स्थान गुरु का हृदय है। जीवन की सर्वोच्च उपलब्धि क्या है? जब आप गुरु के चित्त में अथवा गुरु के हृदय में आ जाए। वास्तविक रूप से हम नहीं जानते और जाने-अनजाने में भले ही यह यांत्रिक रुप से दिखाई दे रहा है कि हम मशीन/ मोबाइल के सामने बैठे हैं परंतु वास्तविकता में प्रातः काल का जो ब्रह्म मुहूर्त का काल है, ब्रह्म मुहूर्त के काल में वे गुरु जिनके हृदय में राधा-कृष्ण का चिंतन होता है,..। जब हम कृष्ण प्रेष्ठाएं कहते हैं। कृष्ण प्रेष्ठाएं का अर्थ क्या होता है? आप समझते हैं? कृष्ण प्रेष्ठाएं वे हैं जो कृष्ण का चिंतन नहीं करते अपितु कृष्ण जिनका चिंतन करते हैं, कृष्ण जिनका स्मरण करते हैं। इसलिए उनको कृष्ण प्रेष्ठाएं कहा गया है अर्थात जो कृष्ण को अति प्रिय है। कृष्ण जिनको याद करते हैं। वे गुरु जिनको कृष्ण स्मरण कर रहे हैं, जिनके हृदय में राधा कृष्ण नित्य वास करते हैं। ऐसे गुरु के सामने जब हम आ जाते हैं और वे गुरु हमारा स्मरण करते हैं। व्यवहारिक अनुभव में देखा जाता है ( क्षमा चाहता हूं बहुत समय ले लिया) कि कई भक्त जो नियमित रूप से दो-तीन सालों से जप कर रहे हैं। केवल गुरु महाराज के सानिध्य में जप करने से उनके जीवन में बहुत बड़ी आध्यात्मिक क्रांति आई है। जल्दी उठने की आदत बनना, वह तो एक अलग बात है लेकिन कई भक्तों का अनुभव हुआ है कि जब महाराज उन्हें देखकर प्रसन्न होते हैं और जब महाराज देखते हैं कि अधिक से अधिक भक्त नाम जप कर रहे हैं तो परिणाम यह हुआ है कि उनकी नाम रुचि, नाम के प्रति निष्ठा, भक्तिमय जीवन में जो स्थिरता है, वह बहुत तेजी से हो रही है। कहीं भक्त नाम जप में बहुत अधिक गंभीर हो चुके हैं। कई भक्तों का नाम जप बहुत अधिक बढ़ा है। क्रमश: हमारा यह विचार था और लगभग यह चर्चा भी हुई थी, जब हम पंढरपुर में थे। आपकी जानकारी के लिए महाराज जी के पूरे विश्व में लगभग 7000 से अधिक शिष्य हैं परंतु यहां पर लगभग दो-तीन हजार भक्त ही दिखाई देते हैं। पता नहीं क्या कारण है, जो भी कारण हो अन्य भक्त दिखाई नहीं देते परंतु धीरे-धीरे दीक्षा के नियमों में भी इस बात को लाया जा रहा है कि जो भी दीक्षा लेने वाले भक्त है, पदमाली प्रभु बता रहे थे कि उनके लिए कम से कम 500 जपा टॉक अर्थात कम से कम एक से डेढ़ वर्ष नियमित रूप से महाराज के सानिध्य में नाम जप करें। यह अपने आप में बहुत शक्तिशाली ट्रेनिंग है। जो तुरंत सभी भक्तों को भक्ति की उच्चतम अवस्था में ले जा सकती है। जब हम यह चर्चा कर रहे थे तो हमारे पदमाली प्रभु कह रहे थे कि कम से कम हजार भक्त तो होना चाहिए तब हम कह रहे थे हजार नही अपितु हमें महाराज जी के लिए कम से कम 5000 पार्टिसिपेंट्स वाला ग्रुप तो लेना चाहिए। इसलिए सभी भक्तों से अनुरोध है और आशा करते हैं की जो भी भक्त सुन रहे है, आप सभी अधिक से अधिक अपने अपने क्षेत्र में एक संस्कृति या कल्चरल विकसित करें कि जितने भी भक्त प्रचार कर रहे है या जितने भी भक्त नाम जप कर रहे हैं या जितने भी भक्त महाराज के सानिध्य में है, आवश्यक नहीं है कि वे महाराज के शिष्य हो। अन्य भी किसी गुरु के शिष्य हो सकते हैं। सभी को उत्साहित करें ताकि यह जो मन में भावना थी कि हम 1000 वाला नहीं अपितु हम एक दो या तीन, चार हजार वाला ग्रुप नहीं अपितु 5000 पार्टिसिपेंट वाला ग्रुप ले सके। तब हमारा वह संकल्प पूर्ण होगा और हम अधिक से अधिक इस नाम की कृपा को प्राप्त कर सकेंगे। *हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।* ( अधिक समय के लिए क्षमा चाहते हैं) हरे कृष्ण!!!

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