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जप चर्चा पंढरपुर धाम से दिनांक १७.०१.२०२१ हरे कृष्ण! साधु सावधान! आज इस जप कॉन्फ्रेंस में ७६४ स्थानों से भक्त सम्मिलित हैं। हरे कृष्ण! *जय जय श्रीचैतन्य जय नित्यानन्द। जयाद्वैतचन्द्र जय गौरभक्तवृन्द॥* चैतन्य महाप्रभु की जय! गौर पूर्णिमा महोत्सव के उपलक्ष में कीर्तन मेला तो हो ही रहा है। वैसे आज कीर्तन मेले का समापन होगा। प्रात: काल ९.०० से १०.०० बजे तक हम भी कीर्तन मेले का अंतिम कीर्तन या समापन कीर्तन करेंगे। आपका स्वागत है। फुरसत निकालो। हरे कृष्ण! आजकल हम कुछ कथाएं भी कर रहे हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के स्मरण हेतु ताकि जिससे हमें गौरांग महाप्रभु का स्मरण हो जाए। वैसे कल प्रारंभ किया था और संक्षिप्त में ही आदि लीलाओं का क्रम ही चल रहा है। कुछ अधिक लीला का वर्णन तो नहीं कर पाते, केवल अलग अलग लीलाओं के नाम ही गिनवा रहे हैं। कौन सी लीला के उपरांत कौन सी लीला सम्पन्न हुई थी, इसका संस्मरण करने का एक प्रयास चल रहा है। ताकि ऐसे श्रवण कीर्तन से चैतन्य महाप्रभु का स्मरण हो सके। श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।। इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्रे्चन्नवलक्षणा। क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मयेअधीतमुत्तमम्।। ( श्रीमद् भागवतम् ७.४.२३-२४) अनुवाद:- प्रह्लाद महाराज ने कहा: भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज- सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना, षोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना, भगवान को प्रार्थना अर्पण करना, उनका दास बनना, भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना( अर्थात मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना) शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियां स्वीकार की गई है। जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है, उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए, क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लिया है। हम जिसका श्रवण कीर्तन करते हैं, उनका स्मरण होता है। हम श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की लीलाओं का श्रवण कीर्तन करेंगे। यह लीला कीर्तन है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु लीला के रूप में प्रकट होंगे। हमें स्मरण दिलवाएंगे। अनर्पित-चरीं चिरात्करुणयावतीर्णः कलौ समर्पयितुमुन्नतोज्ज्वल-रसां स्व-भक्ति-श्रियम्। हरिः पुरट-सुन्दर-द्युति-कदम्ब-सन्दीपितः सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु वः शची-नन्दनः।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला अध्याय१ श्लोक १३२) अनुवाद:- " परम् भगवान्, जो कि श्रीमती शचीदेवी के पुत्र के रूप में सुविख्यात हैं, आपके ह्रदय के अन्तरतम प्रदेश में स्थित हों। पिघले सोने की द्युति से देदीप्यमान, वे अपनी अहैतुकी कृपा से कलियुग में वह प्रदान करने के लिए अवतरित हुए हैं, जो अन्य अवतारों ने कभी नहीं दिया- वे भक्ति का सर्वाधिक उच्च रस अर्थात माधुर्य- प्रेम-रस प्रदान करने के लिए अवतरित हुए हैं। सदा हृदय-कन्दरे स्फुरतु- ऐसी भी प्रार्थना है कि सदैव आप सभी के ह्रदय प्रांगण में शचीनन्दन स्फुरित हो। जब ऐसा होगा तो यही जीवन है और यही कृष्णभावना है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु चातुर्मास में श्रीरंगम में रहे, वहां कई लीलाएँ सम्पन्न हुई। जब वह प्रस्थान कर रहे थे तब वैंकट भट्ट के लिए यह काफी कठिन था। वे और अन्य भक्त चैतन्य महाप्रभु के साथ जाने लगे। गोपाल भट्ट भी जो अभी गोस्वामी नहीं बने थे, एक बालक थे, वे भी साथ जाने लगे। तब श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें खूब समझाया- बुझाया और लौटने के लिए निवेदन किया। तत्पश्चात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े। मध्य लीला में आगे वर्णन आता है कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु परमानंद पुरी से मिले। तीन दिन उन्होंने अपना समय परमानंद पुरी के सङ्ग में बिताया। हरि कथाएं हुई, सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो भवन्ति हृत्कर्णरसायनाः कथाः तज्जोषणादाश्र्वपवर्गवर्त्मनि श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति।। ( श्रीमद् भागवतम् ३.२५.२५) अनुवाद:- शुद्ध भक्तों की संगति में पूर्ण पुरषोत्तम भगवान् की लीलाओं तथा उसके कार्यकलापों की चर्चा कान तथा ह्रदय को अत्यधिक रोचक एवं प्रसन्न करने वाली होती है। ऐसे ज्ञान के अनुशीलन से मनुष्य धीरे- धीरे मोक्ष मार्ग में अग्रसर होता है, तत्पश्चात मुक्त हो जाता है और उसका आकर्षण स्थिर हो जाता है। तब असली समपर्ण तथा भक्तियोग का शुभारंभ होता है। भगवान् कहते हैं कि जब कभी सन्त साथ में आ जाते हैं, तब सतां प्रसङ्गान्मम वीर्यसंविदो अर्थात मेरे वीर्य, शौर्य, औदार्य की कथाएँ सत्संग में होती हैं, वहां वैसी कथाओं का श्रवण कीर्तन हुआ। परमानंद पुरी ने कहा कि "मैं नीलांचल जा रहा हूँ।" श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नीलांचल से ही आ रहे थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने कहा- "हां, हां जरूर जाइए, मैं भी सेतुबंध रामेश्वरम् तक जाऊंगा। वहां से मुझे नीलांचल लौटना ही है, वहीं पर मिलेंगे।" चैतन्य महाप्रभु ने कहा तो सही कि मैं सेतुबंध रामेश्वरम तक जाऊँगा और फिर लौटूंगा, लेकिन वे आगे बढ़ गए। अंततोगत्वा उनको जगन्नाथ पुरी लौटना ही था। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और आगे बढ़ते हैं। वे श्रीशैल नामक पर्वत की ओर आगे बढ़ते हैं, वहां शिव और पार्वती एक ब्राह्मण और ब्राह्मणी के भेष में रहते थे। उन्होंने श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को भिक्षा के लिए अथवा भोजन के लिए आमंत्रित किया। शिव पार्वती को श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का आतिथ्य और अंग सङ्ग प्राप्त किया। तत्पश्चात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आगे बढे। (देखिए, कैसे मिलन हो रहे है। परमानंद पुरी को मिलते हैं। स्वयं शंकर, पार्वती को मिलते हैं।) तत्पश्चात श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु मदुरई पहुंच जाते हैं। वहां वे एक ब्राह्मण को मिले, उस ब्राह्मण के आश्रम में गए। इस ब्राह्मण ने जब से पढ़ा और सुना था कि रावण ने सीता का अपहरण किया है, तब से वह इस बात से बड़े ही परेशान थे और सोच रहे थे कि मुझसे सहा नहीं जाता। उस राक्षस ने सीता का अपहरण किया, वह ब्राह्मण अपनी व्यथा को व्यक्त कर रहे थे कि मैं तो आग में प्रवेश करके भस्म होना पसंद करूंगा। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के साथ इस ब्राह्मण की और भी लीलाएँ हुई हैं। तत्पश्चात श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु रामेश्वरम चले गए। वहां एक बार कुछ संत मंडली हरि कथा व राम कथा की चर्चा कर रही थी, चैतन्य महाप्रभु ने वहां से एक उद्धरण प्राप्त किया था जिसमें किसी पुराण से उल्लेख हुआ था कि रावण ने सीता का अपहरण तो किया लेकिन मूल सीता अथवा आदि सीता का अपहरण नहीं किया था अपितु माया सीता का अपहरण किया था। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उस पुराण के उद्धरण जोकि सन्तों से प्राप्त किए थे उसकी कॉपी (फोटोस्टेट) बनवाई और चैतन्य महाप्रभु पुनः वापस मदुरई उस ब्राह्मण के पास लौटकर मिले और समझाया, नहीं! नहीं! रावण ठग गया था, उसको ठगाया गया था। वह तो छाया या माया सीता को ही ले गया था, यह देखो शास्त्र का प्रमाण है। जब ब्राह्मण ने उसे पढ़ा व सुना तब उसकी तसल्ली हुई, वह संतुष्ट हुआ। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उस ब्राह्मण को सत्य का उद्घाटन करने का प्रयास भी किया। उसकी आत्मा व मन को शांति प्रदान की। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु कन्याकुमारी गए। कन्याकुमारी के पास आदि केशव नामक मंदिर है। जिन जिन स्थानों का हम कल से उल्लेख कर ही रहे हैं और आज भी कर रहे हैं, इन सभी स्थानों पर हम पदयात्रा में गए हैं। वर्ष १९८५-८६ कुछ 18 महीने की पदयात्रा वर्ष १९८६ में मायापुर पहुंच कर सम्पन्न हुई थी। हमने उस वर्ष को श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु का पंच शताब्दी जन्मोत्सव के रूप में मनाया था। चैतन्य महाप्रभु के प्राकट्य को 500 वर्ष पूर्ण हुए थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वर्ष 1486 में प्रकट हुए थे व 1986 में उनके जन्म को 500 वर्ष पूर्ण हुए थे, इसलिए हम यह वर्षगांठ मना रहे थे। इस पदयात्रा का उद्देश्य यह था कि चैतन्य महाप्रभु जहां-जहां गए थे, वहां वहां हम भी जाएं। इसलिए गौर निताई के विग्रह और श्रील प्रभुपाद के विग्रह को रथ में विराजमान करके विश्व भर के भक्तों के साथ द्वारिका से कन्याकुमारी से हम मायापुर गए। चैतन्य चरितामृत, चैतन्य भागवत और कई ग्रंथों से हम रेफरेन्स (उद्धरण) निकाल रहे थे कि चैतन्य महाप्रभु कहां-कहां गए थे? चैतन्य महाप्रभु के भेंट की जितनी स्थलीय का हमें पता चला, वहां वहां इस पद यात्रा के जाने का उद्देश्य था। इन सारे स्थानों पर हम गौरांग महाप्रभु और श्रील प्रभुपाद की कृपा से गए हैं। हम आदि केशव भी गए जहां पर चैतन्य महाप्रभु के सुंदर दर्शन हें। श्रीरंगम जैसा ही दर्शन है। भगवान वहां लेटे हुए हैं। 'सुप्तम मधुरम' सुप्तम मतलब सोना।'भुक्तं मधुरं' अर्थात भगवान जो भोजन करते हैं, वह भी मधुर है। भोजन के उपरांत यदि वह सोते हैं, तो वह भी मधुर है। 'मधुराधिपतेरखिलं मधुरं' भगवान की हर बात मधुर है। माधुर्य से पूर्ण है, उस आदि केशव मंदिर में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को ब्रह्म संहिता का एक अध्याय प्राप्त हुआ। १०० अध्याय वाली ब्रह्म संहिता जो कि लुप्त थी लेकिन उस मंदिर में 1 अध्याय प्राप्त हुआ। उन्होंने उसकी एक कॉपी बनाई और साथ में रख ली। तत्पश्चात महाप्रभु वहां से आगे बढ़े और तमिलनाडु से केरल में प्रवेश करते हैं। उन्होंने त्रिवेंद्रम में अनन्त पद्मनाभ का दर्शन किया, यह बहुत अद्भुत मंदिर है, वहां का दर्शन भी विशेष है। वहां से महाप्रभु फिर उत्तर दिशा में जाने लगे, अभी तक वह दक्षिण दिशा में जा रहे थे। भारत के ईस्ट कोस्ट से (अमेरिका में ईस्ट कोस्ट, वेस्ट कोस्ट खूब चलता रहता है। लेकिन हम ऐसा नहीं कहते लेकिन कहा भी जा सकता है) उड़ीसा, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु जहां पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने भ्रमण किया यह इंडिया का ईस्ट कोस्ट है। उन्होंने कन्याकुमारी से यू टर्न लिया और उत्तर दिशा में भारत के वेस्ट कोस्ट से श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़ें। त्रिवेंद्रम में अनंत पद्मनाभ के दर्शन के उपरांत (आप भूलना नहीं) श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की एकत्तयअर्थात एक लीला तो सदैव चलती ही रहती थी और वह है कीर्तन। वे हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। के बिना एक पग भी आगे नहीं बढ़ाते थे। खाइते शुइते य़था तथा नाम लय।काल-देश-नियम नाहि, सर्व सिद्धि हय।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत अन्त्य लीला २०.१८) अनुवाद:- " देश या काल से निरपेक्ष जो व्यक्ति खाते तथा सोते समय भी पवित्र नाम का उच्चारण करता है, वह सर्व सिद्धि प्राप्त करता है।" तत्पश्चात जनार्दन भगवान, केरल में जनार्दन का दर्शन करते हैं। समुंदर के तट पर ही यह प्रसिद्ध मंदिर है। चैतन्य महाप्रभु वहां से और अंदर मंगलौर से उडूपी जाते हैं। थोड़ा अंदर जाकर पहले शंकराचार्य का एक स्थान अथवा पीठ आता है, वहाँ से चैतन्य महाप्रभु पुनः कोस्टल एरिया उडूपी आते हैं। उडूपी में मध्वाचार्य के कृष्ण को उडूपी कृष्ण भी कहते हैं, उन्होंने वहां नर्तक गोपाल के दर्शन किया और खूब कीर्तन और नृत्य किया। उडूपी कृष्ण का दर्शन करते हुए फिर वे वहां के तत्त्व वादियों से मिले। कुछ शास्त्रार्थ भी हुआ, वर्णाश्रम की साधना करने वाले मध्वाचार्य सम्प्रदाय के अनुयायियों को चैतन्य महाप्रभु ने कहा आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद धाम वृंदावनं रम्या काचिदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता। श्रीमद् भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान् श्री चैतन्य महाप्रभोर्मतमिदं तत्रादरो नः परः।। ( चैतन्य मञ्जूषा) अनुवाद:- भगवान् व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभवयुक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है। व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी, वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है। श्रीमद्भागवत ग्रंथ ही निर्मल शब्द प्रमाण है एवं प्रेम ही परम् पुरुषार्थ है- यही श्रीचैतन्य महाप्रभु का मत है। यह सिद्धांत हम लोगों के लिए परम् आदरणीय है। प्रेम प्राप्ति की साधना सर्वोपरि है, अन्य भी काफी वार्तालाप अथवा चर्चा हुई। हरि! हरि! तत्ववादियों ने चैतन्य महाप्रभु को सर्वप्रथम जब देखा तो उन्हें लगा कि ये मायावादी सन्यासी हैं किंतु जब मध्व संप्रदाय के आचार्यों व अनुयायियों ने चैतन्य महाप्रभु की भाव भक्ति का दर्शन किया, तब वे समझ गए कि नहीं! नहीं! ये मायावादी नहीं हैं। प्रभु कहे- " मायावादी कृष्णे अपराधी। ' ब्रह्म',' आत्मा,' ' चैतन्य' कहे निरवधि।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला १७.१२९) अनुवाद:- श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर दिया," मायावादी निर्विशेषवादी लोग भगवान कृष्ण के सबसे बड़े अपराधी हैं। इसलिए वे मात्र' ब्रह्म,' ' आत्मा' तथा चैतन्य' शब्दों का उच्चारण करते हैं। मायावादी तो कृष्ण अपराधी होते हैं। मायावादी तो निराकारवादी और निर्गुण वादी होते हैं लेकिन ये सन्यासी तो भगवान के आकार, रूप का इतने प्रेम से दर्शन कर रहे हैं, इनका भगवान के नाम, रूप, लीला , गुण, धाम में इतना विश्वास है, तभी यह उडूपी धाम भी आए हैं। ये मायावादी सन्यासी नहीं हो सकते। तब वे चैतन्य महाप्रभु से मिले, पहले वे चैतन्य महाप्रभु से नहीं मिलना चाह रहे थे। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने यह नोट किया था कि इन लोगों को अपनी वैष्णवता का थोड़ा गर्व है। इस संबंध में उन्होंने कुछ उपदेश किए जिससे वे भी विनम्र बन जाएं। तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना अमानिना मानदेन कीर्तनीयः सदा हरिः।। ( शिक्षाष्टक श्लोक संख्या ३) अनुवाद:- स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, मिथ्या मान की भावना से सर्वथा शून्य रहकर दूसरों को सदा ही मान देने वाला होना चाहिए। ऐसी मनः स्थिति में ही व्यक्ति हरिनाम कीर्तन कर सकता है। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु और आगे बढ़ते हैं। यह कर्नाटक चल रहा है, तत्पश्चात वे महाराष्ट्र में पहुंच जाते हैं। (मैं तो सोच रहा था कि एक सत्र में आदि लीला का संक्षिप्त विवरण, आज के सत्र में मध्य लीला का और फिर एक सत्र में अन्त्य लीला का संक्षिप्त वर्णन व संस्मरण करेंगे किंतु हम बहुत पीछे हैं, हम अपने समय सारणी से बहुत पीछे हैं) चैतन्य महाप्रभु ने कोल्हापुर में महालक्ष्मी का दर्शन किया। वैसे और भी दर्शन किए। यह महालक्ष्मी वैकुंठ से पधारी हैं, विष्णु से कुछ नाराज अथवा रूठी हुई लक्ष्मी वैकुण्ठ से सीधे आकर कोल्हापुर में विराजमान हैं। हरि! हरि! यह सब लीलाएं, कथाएं सब इतिहास है। यह सब घटित घटनाएं है, महालक्ष्मी कोल्हापुर में हैं। वह कौन है? वह वहां कैसे पहुंच गई? या उसकी अपनी भगवान के साथ क्या लीला है? यह सब जानने, सुनने, पढ़ने व समझने की बातें हैं। शायद हमने एक बार सुनाया था। अभी कुछ संकेत तो दिया है आप और पता लगाइए। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां से पंढरपुर के लिए प्रस्थान करते हैं। रास्ते में इस गरीब का गांव भी आ गया, वे अरावड़े होते हुए आए, वैसे उस समय तो यह हमारा गांव नहीं था, अब भी नहीं है लेकिन वहां जन्म हुआ था इसलिए हम कहते हैं कि यह मेरा गांव है। मेरा जन्म स्थान। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु मेरे जन्म स्थान अरावड़े से भी गुजरे थे। उन्होंने वहां भी कीर्तन किया। अरावड़े से कुछ ही दूरी पर शायद लगभग दो ढाई किलो मीटर की दूरी पर पंढरपुर के रास्ते में एक गांव गौर गाँव है। गौरांग महाप्रभु ने वहां कीर्तन किया होगा। इसलिए उस गांव का नाम गौरगाँव हुआ। हमनें कम से कम अरावड़े में कुछ वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के चरण चिन्हों की स्थापना की थी। श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती ठाकुर ने भी (दक्षिण भारत में चैतन्य महाप्रभु तिरुपति भी गए थे हमने आपको बताया नहीं हमने कई स्थानों का उल्लेख नहीं किया जैसे चैतन्य महाप्रभु मंगलगिरी गए थे।) कई स्थानों पर चैतन्य महाप्रभु के चरण चिन्हों की स्थापना की है। अरावड़े में हमने किया और पंढरपुर में भी वर्ष 1984 में किया था जब पदयात्रा यहां आई थी। चैतन्य महाप्रभु ने पंढरपुर में विठ्ठल ठाकुर का दर्शन किया, चंद्रभागा में स्नान किया। विट्ठल के समक्ष दर्शन मंडप में कीर्तन नृत्य किया था, श्री रंगपुरी के साथ उनका मिलन इसी पंढरपुर धाम में हुआ। वे सात दिन सात रात तक हरि कथा में तल्लीन रहे। श्री रंगपुरी से ही पता चला कि चैतन्य महाप्रभु के भ्राता अर्थात भाई शंकरारण्य स्वामी पंढरपुर में आए थे और यहां से ही वे अंतर्धान हो गए थे। यह बता सकते हैं कि श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने जगन्नाथपुरी से अपनी यात्रा प्रारंभ की थी, जगन्नाथ पुरी वासी तो नहीं चाहते थे कि चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी को छोड़ कर कहीं जाए। लेकिन चैतन्य महाप्रभु ने कहा नहीं! नहीं! मुझे जाना होगा, मुझे जाना होगा। किसी ने पूछा- क्यों जाना चाहते हो? चैतन्य महाप्रभु ने कहा - मेरे भाई, विश्वरूप जिन्होंने सन्यास लिया है, वे दक्षिण भारत में कहीं परिभ्रमण करते होंगे, मैं उनसे मिलना चाहता हूं, मैं उन्हें खोजना चाहता हूं, ढूंढना चाहता हूं ,मिलना चाहता हूं, मुझे जाने दो। किन्तु यह बहाना ही था कि कृष्ण दास कविराज गोस्वामी लिखते हैं कि जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी से प्रस्थान करना चाह रहे थे, बता रहे थे कि मुझे विश्वरूप को खोजना है। विश्वरूप उस समय से पहले ही दक्षिण भारत की यात्रा करते हुए पंढरपुर पहुंचे थे और अंतर्धान हो चुके थे। इस बात को श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जानते थे, वे सर्वज्ञ हैं, त्रिकालज्ञ हैं, वे अभिज्ञ स्वराट हैं। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जानते हुए भी कह रहे हैं कि नहीं! नहीं! मुझे ढूंढना है, खोजना है। उन्होंने ऐसा बहाना बनाया, वैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को करना क्या था? परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ( श्रीमद् भगवतगीता ४.८) अनुवाद:- भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ। उनको अपनी भविष्यवाणी को भी सच करना था। पृथिवीते आछे यत् नगरादि-, ग्राम,। सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम।। ( चैतन्य भागवत) अनुवाद:- पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गांव हैं, उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा। श्री-राधार भावे एबे गोरा अवतार हरे कृष्ण नाम गौर करिला प्रचार॥4॥ ( वासुदेव घोष द्वारा रचित गीत जय जय जगन्नाथ) अनुवाद:- अब वे पुनः भगवान्‌ गौरांग के रूप में आए हैं, गौर-वर्ण अवतार श्रीराधाजी के प्रेम व परमआनन्दित भाव से युक्त और पवित्र भगवन्नामों हरे कृष्ण के कीर्तन का विस्तार से चारों ओर प्रसार किया है। (अब उन्होंने हरे कृष्ण महामंत्र का वितरण किया है, उद्धार करने का महान कीर्तन। वे तीनों लोकों का उद्धार करने के लिए पवित्र भगवन्नाम वितरित करते हैं। यही वह रीति है जिससे वे प्रचार करते हैं। ) श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हरिनाम का प्रचार करना चाहते थे। संकीर्तन धर्म की स्थापना करना चाह रहे थे। इस उद्देश्य से वे दक्षिण भारत की यात्रा पर जाना चाहते थे और गए भी। उन्होंने सर्वत्र कीर्तन और नृत्य किया व उन्होंने सभी को कृष्ण प्रेम दिया है। नमो महावदान्याय कृष्ण – प्रेम – प्रदाय ते कृष्णाय कृष्ण – चैतन्य – नाम्ने गौरत्विषे नमः। ( श्री गौरांग प्रणाम मंत्र) अनुवाद:- हे परम् करुणामय व दानी अवतार! आप स्वयं कृष्ण हैं, जो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए हैं। आपने श्रीमती राधारानी का गौर वर्ण धारण किया है और आप कृष्ण के विशुद्ध प्रेम का सर्वत्र वितरण कर रहे हैं। हम आपको सादर नमन करते हैं। श्री रंगपुरी जो माधवेंद्रपुरी के शिष्य और ईश्वर पुरी के गुरु भ्राता है । उन्होंने पंढरपुर में चैतन्य महाप्रभु को समाचार दिया, श्री रंगपुरी ने कहा कि शंकरारण्य यहाँ से अंतर्ध्यान हुए थे। तत्पश्चात श्री रंगपुरी ने यहां से प्रस्थान किया, श्री चैतन्य महाप्रभु अभी पंढरपुर में कुछ दिन अर्थात दो चार दिन और रहे, ऐसा उल्लेख आता है। मतलब सात दिन उन्होंने हरि कथा में समय व्यतीत किया और भी दो चार दिन रहे। ऐसा भी चैतन्य चरितामृत में लिखा हुआ है। इस प्रकार कुछ ग्यारह दिन तो हो जाते हैं। चैतन्य महाप्रभु ने इतना सारा समय पंढरपुर धाम में व्यतीत किया। वे प्रायः ऐसा नहीं करते थे, वे कुछ ही स्थानों पर थोड़ा अधिक रूके। वे स्थान हैं जहां कोहुरूर में गोदावरी के तट पर राय रामानंद के साथ उनका मिलन हुआ और फिर संवाद हुआ था, वहां पर थोड़ा अधिक रुके। वे श्री रंगम में चातुर्मास अर्थात चार महीने रुके। पंढरपुर में कम से कम् ग्यारह दिन तो रुके ही, ऐसा ज्ञात होता है। कुछ ही गिने चुने स्थान थे, जहां चैतन्य महाप्रभु एक से अधिक दिन रुके, नहीं तो अधिकतर स्थानों में चैतन्य महाप्रभु एक या आधी रात बिताते और आगे बढ़ते लेकिन पंढरपुर में थोड़ा अधिक समय व्यतीत किया हुआ है। पंढरपुर धाम की जय! इसी के साथ उन्होंने पंढरपुर की महिमा को भी बढ़ाया और गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के साथ भी पंढरपुर धाम का सम्बंध स्थापित किया । हरि! हरि! यह पंढरपुर शोलापुर जिले में है, यहां से महाप्रभु सतारा गए। सतारा एक दूसरा जिला है, जैसे कोल्हापुर एक जिला है, शोलापुर दूसरा जिला है, सतारा तीसरा जिला है। वहां सतारा में कृष्ण और वेनन नदियों का संगम है। वहां उनके नदियों के संगम तट पर श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गए और वहां स्नान किया। चैतन्य महाप्रभु पहुंच ही गए थे लेकिन सतारा के पास ही कृष्ण वेन संगम स्थल का जो उल्लेख किया जा रहा है, यहां ही श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु को कृष्णकर्णामृत नामक ग्रंथ प्राप्त हुआ था। वहां कृष्णकर्णामृत नामक ग्रंथ की चर्चाएं हो रही थी जब चैतन्य महाप्रभु ने सुनी, वे कृष्णकर्णामृत ग्रन्थ से इतने प्रभवित हुए कि उन्होंने इसकी भी कॉपी( छायाप्रति) ले ली। जैसे उन्होंने ब्रह्म संहिता की कॉपी ( छायाप्रति) आदिकेशव मंदिर में ली थी और यहां कृष्णवेनना के तट पर कृष्णकर्णामृत ग्रन्थ की छायाप्रति प्राप्त की। बिल्वमंगल ठाकुर नामक एक विशेष भक्त अथवा आचार्य हुए हैं। कृष्ण कर्णामृत अर्थात कर्ण के लिए अमृत उनकी ही रचना है। चैतन्य महाप्रभु अब जब जगन्नाथ पुरी पहुंचेंगे, वहां पर उनके श्रवण का अलग अलग जो विषय हुए करते थे जैसे गीत गोविंद या चंडी दास के गीत अथवा श्रीमद् भागवतम् या जगन्नाथ का नाटक, अब उन ग्रंथो की सूची में यह कृष्ण कर्णामृत का नाम भी आता है। वे जगन्नाथ पुरी गंभीरा में कृष्ण कर्णामृत का भी श्रवण किया करते थे। उन्होंने कृष्ण कर्णामृत की कॉपी बनवा कर अपने साथ में ले ली। तत्पश्चात वहाँ से आगे बढ़ते हुए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु नासिक गोदावरी के तट पर पहुंच जाते हैं, वहां स्नान, कीर्तन करते हैं। जब वे वहां थे, तब सभी नासिक निवासी या पंचवटी निवासी ऐसा अनुभव कर या सोच रहे थे कि राम यहां हैं, राम आए हैं। पुनः राम लौट आये हैं, यहां पर वही पंचवटी है, जहां से सीता का अपहरण हुआ था। पंचवटी में ही सीता,राम और लक्ष्मण कुछ समय के लिए रहे थे। वहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गए और रहे, कीर्तन किया। कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! हे। कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!हे।। कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण! रक्ष माम्। कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण! पाहि माम्।। राम! राघव!राम! राघव!राम!रक्ष माम्। कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! पाहि माम्।। ( श्रीचैतन्य चरितामृत मध्य लीला ७.९६) अनुवाद:- महाप्रभु कीर्तन कर रहे थे-कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! हे। कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!हे।। कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण! रक्ष माम्। कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण!कृष्ण! कृष्ण! पाहि माम्।। अर्थात "हे भगवान कृष्ण! कृपया मेरी रक्षा कीजिए और मेरा पालन कीजिये।"उन्होंने यह भी उच्चारण किया-राम! राघव!राम! राघव!राम!रक्ष माम्। कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! कृष्ण! केशव! पाहि माम्।। अर्थात हे राजा रघु के वंशज! हे भगवान् राम! मेरी रक्षा करें। हे कृष्ण, हे केशी असुर के संहारक केशव, कृपया मेरा पालन करें। चैतन्य महाप्रभु ऐसा भी गीत गाते थे। रक्ष माम, पाहिमाम राम राघव राम राघव राम राघव रक्षमाम। नासिक के क्षेत्र में वहां कुछ विशाल ताल वृक्ष थे अर्थात बहुत ही बड़े ऊंचे वृक्ष थे। चैतन्य महाप्रभु ने एक-एक करके उनको आलिंगन दिया। चैतन्य महाप्रभु के आलिंगन होते ही उन में से चतुर्भुज धारण करने करने वाले व्यक्तित्व प्रकट होते और वे वैकुंठ के लिए प्रस्थान करते। वे भक्त थे, भगवान नहीं थे। वैकुंठ में भक्तों के भी चार हाथ होते हैं। मॉरीशस में नहीं होते और भी कहीं नहीं होते लेकिन वैकुंठ में होते हैं या अभी भी हो सकते हैं लेकिन दिखते नहीं है, हमें दो ही हाथ दिखते हैं। वैकुंठ में भगवान ही चतुर्भुज नहीं हैं, वैकुंठ में भक्त भी चतुर्भुज हैं और मुकुट धारी हैं। वे भी सारा वैभव कुंडल धारण करते हैं। ऐसे शोभायमान है। चैतन्य महाप्रभु ने इन सातों वृक्षों को आलिंगन दिया। वे भक्त वृक्ष की योनि से मुक्त हुए और बाहर आए और वैकुंठ के लिए प्रस्थान किए। श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने उन को मुक्त किया। जैसे गोकुल में नंद बाबा के आंगन में यमलार्जुन वृक्ष थे जो कुबेर के पुत्र थे, जब बाल कृष्ण ने दामोदर लीला की थी तब उन्होंने उन दोनों वृक्षों को उखाड़ा व गिराया। बाल कृष्ण ऊखल को खींच रहे थे। ऊखल उन दोनों वृक्षों के बीच में फंस गया और वे दोनों वृक्ष गिर गए और दो व्यक्ति मणिग्रीव और नलकुबेर प्रकट हुए थे।मणिग्रीव और नलकुबेर ने कृष्ण की स्तुति और प्रदक्षिणा की और अपने स्वधाम प्रस्थान किया। वैसे ही यह सातों वृक्ष विमुक्त हुए, वृक्ष मुक्त नहीं हुए वृक्ष में जो बद्ध थे तथा बंधन में थे, वे आत्माएं मुक्त हुई। नासिक में श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु की यात्रा का समापन हो रहा है, वे वहां से आगे नहीं बढ़ेंगे, यहां से वे जगन्नाथपुरी वापस लौटेंगे। कुछ ज़्यादा विशेष या लगभग है ही नहीं वर्णन। चैतन्य महाप्रभु कुछ हवाई जहाज से तो नहीं गए, कुछ उड़ान तो नहीं भरी। वह चलकर ही गए। जैसे वे अन्य स्थानों पर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा रहे थे लेकिन कोई उल्लेख नहीं मिलता कि वह कैसे गए, कहां से गए, क्या-क्या लीलाएं हुई लेकिन वे पुन: आंध्रप्रदेश गए, ऐसा लिखा है। वे दोबारा रामानंद राय से मिले। जब पहले चैतन्य महाप्रभु, रामानंद राय के साथ कोहरूर में गोदावरी के तट पर थे, तब ऐसा वादा हुआ था। राय रामानंद ने कहा था, रहिए! रहिए! और कुछ दिन रहिए। हम आपका संग चाहते हैं। हम आप का सानिध्य चाहते हैं। ऐसा राय रामानंद कह रहे थे तब चैतन्य महाप्रभु ने कहा कि कुछ दिन की बात क्या है? हम तो पूरे जीवन भर आपके साथ रहना चाहते हैं। जब मैं दक्षिण भारत की यात्रा करते हुए जगन्नाथपुरी लौटूंगा तब आप आ जाना। यह जो गवर्नर बने हुए हो, यह सब धंधा पानी नौकरी छोड़ दो, रिटायर हो जाओ अर्थात सेवानिवृत्त हो जाओ और जगन्नाथपुरी आ जाओ। हम जीवन भर के लिए साथ में रहेंगे। राय रामानंद ने स्वीकार किया था। वह इस प्रस्ताव से प्रसन्न थे। जब चैतन्य महाप्रभु यात्रा करके पुनः लौटकर राय रामानंद से मिलते हैं। तब चैतन्य महाप्रभु ने कहा, चलो! चलो! हम दोनों मिलकर जगन्नाथ पुरी जाते हैं लेकिन राय रामानंद ने कहा, जब मैं आऊंगा तो यह हाथी घोड़े सब साथ में होगा, आपकी शांति भंग होगी। आप अकेले आगे बढ़िए और मैं बस आता ही हूं। चैतन्य महाप्रभु वहां से जगन्नाथपुरी के लिए लौटते हैं, रास्ते में वह उन उन भक्तों से मिल रहे थे जिन जिन भक्तों को वे पहले मिलते हुए गए थे। आंध्र प्रदेश और उड़ीसा में उन भक्तों और उन लोगों को मिलते हुए चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी लौट रहे थे। उनकी यात्रा अलारनाथ नाथ से शुरू हुई थी। उन्होंने जगन्नाथ पुरी से आए और सभी भक्तों को वहां रोका था। केवल कृष्ण दास के साथ अर्थात केवल एक भक्त के साथ दक्षिण भारत की यात्रा में गए थे। जगन्नाथपुरी में जब सबको पता लगने लगा कि चैतन्य महाप्रभु लौट रहे हैं, नित्यानंद प्रभु और अन्य कई भक्त अलारनाथ तक आ गए और अलारनाथ में चैतन्य महाप्रभु का भव्य स्वागत हुआ। वहां से जगन्नाथपुरी धाम के लिए प्रस्थान हुआ। राजा प्रताप रुद्र भी चैतन्य महाप्रभु को मिलना चाहते थे लेकिन फर्स्ट विजिट में मुलाकात नहीं हो पायी। इस बार चैतन्य महाप्रभु के निवास आवास की व्यवस्था काशी मिश्र भवन में हुई थी जो कि राजा प्रताप रूद्र ने ही की थी। पूर्व में जब चैतन्य महाप्रभु 2 महीने रुके थे तब सार्वभौम भट्टाचार्य ने उनके निवास की व्यवस्था की थी लेकिन अब वे दूसरे स्थान काशी मिश्र भवन में थे। इसी को गंभीरा कहा जाता है। चैतन्य महाप्रभु सब समय जितना समय जगन्नाथपुरी में रहेंगे अर्थात अंतर्ध्यान होने के समय तक इसी गंभीरा काशी मिश्र भवन में ही रहेंगे। ठीक है। रुक जाते हैं। कल आगे बढ़ाते हैं। देखते हैं। मध्य लीला भी पूरी नहीं हुई। यह अभी पहली बार है जब चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी से गए और लौटे, अभी दो और बार जगन्नाथ पुरी से चैतन्य महाप्रभु प्रस्थान करेंगे और परिभ्रमण करके पुनः जगन्नाथपुरी लौटेंगे। दो बार डिपार्चर( जाना) होगा और दो बार अराइवल(आना) होगा। उसका संक्षिप्त वर्णन कल परसों ही करना होगा। ठीक है। आपने जो भी लिखा हो या उसको पढ़िए या जो भी सुना हो, उसका स्मरण कीजिए या फिर आपस में भी इसी विषय पर आप कुछ चर्चा कर सकते हो अथवा चैतन्य चरितामृत में उसको पढ़ सकते हो। सुदर्शन चक्र, हरि! हरि! पढ़ो। लॉज़ ऑफ द् लार्ड का पता लगाओ न केवल लॉज ऑफ द् लैंड। भगवान के दिए हुए नियमों का अध्ययन करो। फिर सही निर्णय होगा। ओके! मैं यहीं विराम देता हूं। पुनः मिलावा, गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल!

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