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जप चर्चा पंढरपुर धाम से 16 मार्च 2021 हरे कृष्ण । गौर हरि हरि बोल । अर्जुन ? सब कुछ ठीक है ? मायापुर से श्यामलता । मुकुंद माधव , कहां से हो ? पुणे से हो । हरि हरि । गौर प्रेमानंदे हरि हरि बोल । 765 स्थानो से आज ज हो रहा है । जय जय श्री चैतन्य जय नित्यानंद । जय अद्वैत चंद्र जय गौर भक्त वृंद ।। गौर पूर्णिमा महोत्सव की जय । गौर पूर्णिमा महोत्सव प्रारंभ हो चुका है , कीर्तन मेला हो रहा है , परिक्रमा होगी और क्षणय , क्षणय , धीरे-धीरे गौर पूर्णिमा का दिन भी आएगा और निमाई का प्राकट्य होगा । हरि बोल । स्वर्ण गोपी , स्वर्ण वर्ण है । गौरांग महाप्रभु प्रकट होंगे , वैसे हो चुके हैं और होते रहेंगे , प्रकट होने की लीला नित्य लीला भी है ऐसा भी समझ सकते हैं । हरि हरि। कल परसो हम वर्णन भी कर रहे थे , कैसे श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए ? या वह किस परिस्थिति में प्रकट हुए ? या अद्वैत आचार्य ने ओमकार के साथ कैसे प्रार्थना की ? और उनकी पुकार भगवान ने गोलोकधाम में सुनी । गौरांग महाप्रभु चले आए । गौरांग । आज मैं सोच रहा था , समय तो किसी के लिए रुकता नहीं, जपा टॉक के 5 मिनट तो बीत गए । ठीक है । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए और प्रकट होने के उपरांत कहा कहा के लिए उंहोणे प्रस्थान किया , कहा भ्रमण किया , आप जानते ही हो । 48 वर्ष श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु इस धरातल पर रहे , वैसे 24 वर्ष नवदीप में रहे । मायापुर नवदीप धाम की जय । 24 वर्ष , इसी को आदी लीला कहते हैं , फिर प्रस्थान करते हैं सन्यास लेते है , प्रस्थान होता है , नवदीप को छोड़ा । सन्यास लिया तो नवदीप को उन्होंने त्यागा और अगले 6 वर्षों तक वह भ्रमण करेंगे , पूरे भारतवर्ष का भ्रमण होगा , इसको मध्य लिला कहां है । और फिर अंतिम 18 वर्ष जगन्नाथपुरी में रहेंगे , कहीं पर उनका आना जाना नहीं होगा , और यह अंतिम लीला है । चैतन्य चरितामृत मे इस लीला को अंतिम लीला कहा है । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रगट हुये । योगपीठ की जय । हरी हरी । वहा योगपीठ है , यहा पंढरपूर मे भी योगपीठ है , यहा पांडुरंग रहते हैं । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रगट होकर जहा रहे वह योगपीठ और अधिकतर जैसे हमने कहा 24 वर्ष नवदीप में ही रहे , नव द्वीप है , नाम सुना है ? आप तो जानते ही होगे , नवदीप कौन-कौन से हैं ? आपको पता होने चाहिए । श्रीमंत द्वीप , गौद्रूम द्वीप , मध्य द्वीप , कोलम द्वीप , ऋतू द्वीप , जाणू द्वीप , मोद्रद्युम द्वीप , रुद्र द्वीप और अंतर द्वीप , इन नवदीपो में गौरांग महाप्रभु की लिलाये संपन्न हुई । विद्या विलास भी हुआ । मतलब वह लीला जिस लीला में उन्होंने विद्या अर्जन भी किया , जिसके लिए वह विद्यानगर जाते थे , नवदीप के ऋतु द्वीप में , अलग-अलग ऋतु होते हैं , ऋतु द्वीप मे सभी ऋतू विद्यमान है । वहां पर विद्यानगर है , सारी विद्या वहा निवास करती है , जो भी विद्या हो , जितना भी विद्या का अस्तित्व है , वेद , पुराण , उपनिषद , वेदांत सूत्र , शास्त्र और अन्य शास्त्र , यह भी व्यक्ति है , जैसा आपने सुना है , वेदों ने रूप धारण किया और वेद स्तुति गाने लगे ऐसा श्रीमद्भागवत के 10 वे स्कँद में लिखा है । मच्छ अवतार मैं भगवान ने अवतार लिया और सारी विद्या उन्होंने एक नौका में भर दी , रखी , उसकी रक्षा की वही विद्या का स्थान विद्यानगर कहलाता है । वहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु गंगादास पंडित उनके गुरु बने , टोल चलाते थे , ट्यूशन जैसा पढ़ाते थे , निमाई भी गंगादास पंडित का विद्यार्थी बना , वहां श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जाते थे , विद्या विलास महाप्रभु की विशेष लीला प्रसंग का वर्णन चैतन्य भागवत मे आता है । चैतन्य मगप्रभु का प्रथम विवाह लक्ष्मी प्रिया के साथ हुआ और उसी विवाह के उपरांत श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु पूर्व बंगाल गये जिसको अब बांग्लादेश कहते हैं । चैतन्य महाप्रभु के विरह की व्यथा से पीड़ित लक्ष्मी प्रिया नहीं रही । यह काल उनके लिए कठिन रहा , काल का दंश , और श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु बांग्लादेश , पूर्व बंगाल से लौटे तब पुनः विष्णु प्रिया के साथ उनका विवाह हुआ , इतने में विश्वरूप में सन्यास लिया , विश्वरूप में प्रस्थान किया , वह चले गए नवदीप मायापुर से दक्षिण भारत की यात्रा में या भारत की यात्रा मे चले गये । जगन्नाथ मिश्रा का तिरोभाव हुआ वह नहीं रहे । श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु पिंड दान इत्यादि कृत्य संपन्न करने हेतु गया गए । आप नोंद कर रहे हो , पूर्व बंगाल गए थे , अब गया गए नवदीप के बाहर , नवदीप के बाहर 24 वर्षों में यह दो समय ही गए । वहा ईश्वर पुरी से उंहोणे दीक्षा ली और चैतन्य महाप्रभु की कीर्तन लीला प्रारंभ हुई । नवदीप लौटते लौटते किर्तन करते थे , कीर्तन करते करते लौटे और इसी के साथ नित्यानंद महाप्रभु भी उन से जुड़ते हैं । चैतन्य महाप्रभु का संकीर्तन लीला अब श्रीवास ठाकुर के आंगन से या निवास स्थान से प्रारंभ होती है । संकीर्तन ! संकीर्तन ! प्रथम पूरी रात भर कीर्तन करते थे और लोग जागरण करते थे जैसे आपने सुना है देवीका , चंडीका जागरण कीर्तन , गान लोग करते थे , यह तो धर्म की ग्लानि थी । हरि हरि । भगवान के नाम के बराबर अन्य देवी देवता के नाम भी समकक्ष है , यह सभी एक है । हरी हरी । यह लोग नहीं जानते थे इसी को धर्म की ग्लानि कहते है । इसीलिए श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रकट हुए हैं , धर्म की स्थापना करेंगे , और धर्म की स्थापना के लिए धर्म है । कली काले धर्म , हरी नाम संकीर्तन श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु श्रीवास आंगण में कीर्तन आरंभ करते है , सारे पंच तत्व उनके साथ है और अन्य कई असंख्य भक्तों ने जहां उन्होंने जन्म लिया , प्रकट हुए थे वहा से सभी का नवदीप मायापुर में आगमन होता है । और चैतन्य महाप्रभु के पार्षद , संगोपांगा पार्षदम बन जाते है और चैतन्य महाप्रभु की लीला में अपना योगदान देते हैं । अधिकतर पूरे नवद्वीप में कीर्तन लीला हुई है , चैतन्य महाप्रभु का भी अष्ट काली लीला का वर्णन है , जैसे कृष्ण की अष्ट काली लीला का वर्णन है , वैसे चैतन्य महाप्रभु के अष्ट काली लीला का भी वर्णन है । और वह कब , कहा किर्तन करते थे और कोई लीला करते थे इसका वर्णन भी उपलब्ध है । मध्यान के समय मध्यदीप मे किर्तन होता है , रामघाट गये और अपने भुके परिकरो को उन्होंने आम खिलाया और कई सारी लीलाएं हैं । अब जल्दी आगे बढ़ते हैं मध्य लीला ने कई स्थानो पर गये । यह आदी लीला चल रही है ,संन्यास लिया , संन्यास के लिए वह काटवा पहुंच गए , गंगा के तट पर , मायापुर के पश्चिम दिशा में होना चाहिए , 25 किलोमीटर दूरी पर , वहां संन्यास लिया और कुछ दूरी पर चैतन्य महाप्रभु ने पाच छह व्यक्तियों संन्यास लेने की जो योजना बताई थी लेकिन संन्यास के समय असंख्य भक्त वहां काटवा में एकत्रित हुए थे , संन्यास लिया तब केशव भारती ने कहा , "श्रीकृष्ण चैतन्य तुम्हारा नाम है " और वह श्रीकृष्ण चैतन्य बन गए , पहले निमाई कहते थे , विश्वंभर कहते थे महाप्रभु कहते थे , लेकिन अब नाम हुआ , श्रीकृष्ण चैतन्य । संन्यास दिक्षा का श्रीकृष्ण चैतन्य । चैतन्य को फैलाएंगे सर्वत्र चेतना जागृत करेंगे सभी की यह चैतन्य महाप्रभु की इच्छा है। संन्यास ले कर उन्हें वृंदावन जाना था। जब कोई मुक्त होता हैं तो कहा जाते हैं हम घर जाते हैं अपने धाम लौटते हैं। क्योंकि वो श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हैं श्रीकृष्ण चैतन्य राधा कृष्ण नाही अन्य और वैसे कृष्ण के भक्त भी बने हैं तो कृष्ण के भक्त..... आराध्यो भगवान् व्रजेशतनयस्तद् धाम वृंदावनं रम्या काचीदुपासना व्रजवधूवर्गेण या कल्पिता । श्रीमद भागवतं प्रमाणममलं प्रेमा पुमर्थो महान् श्रीचैतन्य महाप्रभोर्मतामिदं तत्रादशे नः परः ।। (चैतन्य मंज्जुषा) अनुवाद : भगवान व्रजेन्द्रन्दन श्रीकृष्ण एवं उनकी तरह ही वैभव युक्त उनका श्रीधाम वृन्दावन आराध्य वस्तु है । व्रजवधुओं ने जिस पद्धति से कृष्ण की उपासना की थी , वह उपासना की पद्धति सर्वोत्कृष्ट है । श्रीमद् भागवत ग्रन्थ ही निर्मल शब्दप्रमाण है एवं प्रेम ही परम पुरुषार्थ है - यही श्री चैतन्य महाप्रभु का मत है । यह सिद्धान्त हम लोगों के लिए परम आदरणीय है । वृंदावन को प्रिय होता है चेतन महाप्रभु वृंदावन जाना चाहते थे किंतु नित्यानंद महाप्रभु और फिर अन्य भक्तों का भी योगदान रहा अद्वैत आचार्य का भी योगदान रहा इनका भी योगदान रहा और उन्होंने उन्हें शांतिपुर लाया शांतिपुर में सची माता और असंख्य भक्तों के साथ मिलन हुआ तब चैतन्य महाप्रभु 10 दिन यही रहे और विशेष उदंड कीर्तन हुआ और होता रहा सची माता निमाई के लिए अपने हाथों से भोजन बनाया करती थी। और भी लीलाएं वहां संपन्न हुई हैं। सचि माता ने आदेश दिया नहीं-नहीं वृंदावन नहीं जाना वृंदावन तो बहुत दूर है तुम जगन्नाथपुरी में रहो तथास्तु हां मैया वैसे ही होगा तब चैतन्य महाप्रभु कुछ भी भक्तों के साथ साथ में चार भक्त लिए नित्यानंद महाप्रभु मुकुंद ऐसे चार पांच भक्तों के साथ उन्होंने जगन्नाथ पुरी के लिए प्रस्थान किया रास्ते में खीर चोर गोपीनाथ मंदिर में पड़ाव हुआ और बहुत जगह पर पड़ाव हुआ है पर मुख्यता चैतन्य चरितामृत में विशेष उल्लेख हैं। श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु वहां पर भक्तों को माधवेंद्र पुरी की कथा सुनाएं फिर वहां से वह सब आगे बढ़े कटक गए वहां नित्यानंद प्रभु ने साक्षी गोपाल की कथा सुनाएं और वहां से आगे बढ़े तो नित्यानंद प्रभु ने चैतन्य महाप्रभु का दंड भंग लीला भी हुई वहां से आगे बढ़े तो 18 नाला नाम का एक स्थान आता है वहां जगन्नाथ मंदिर दूर से दिखने लगता है वहां चैतन्य महाप्रभु स्वयं आगे बढ़े दौड़ पड़े और फिर सर्वप्रथम दर्शन हुआ पहली बार जब वह दर्शन कर रहे थे तब भाव विभोर अवस्था में चैतन्य महाप्रभु ज ज ग ग ऐसे ही कह पा रहे थे जगन्नाथ कहना संभव नहीं हो पा रहा था तब वहां पर वह 2 महीने कहेंगे और फिर सार्वभौम भट्टाचार्य का उद्धार होगा 2 महीने में उनका उद्धार करा दिया हरि हरि वह चाहते तो दो क्षण में भी कर सकते थे पर उन्होंने 2 महीने में करा दिया फिर वहां से आगे प्रस्थान किए अलारनाथ गए वहां से थोड़ी ही दूर है जब जगन्नाथ पुरी का मंदिर बंद होता है रथ यात्रा के पहले स्नान यात्रा के बाद में दर्शन बंद हो जाते हैं तब क्या करें सब सभी अलारनाथ जाते हैं वहां अलारनाथ भगवान के दर्शन करना और जगन्नाथ जी के दर्शन करने जैसी बात है जो चेतन महाप्रभु जाना चाहते थे तब साथ में सभी भक्तों जाना चाहते थे किंतु चैतन्य महाप्रभु ने मना कर दिया मैं केवल अकेला ही जाऊंगा ठीक है कम से कम एक बार सको तो साथ में रखिए तब कृष्णदास को साथ में रखा तब अलारनाथ में भी विशेष कीर्तन हुआ वैसे इस कीर्तन के ऊपर नित्यानंद प्रभु कहे थे उन्होंने भविष्यवाणी के लिए थे ऐसा कीर्तन सारे संसार भर में होगा...... चैतन्य भागवत पृथिवीते आछे यत नगरादि - ग्राम । सर्वत्र प्रचार हइबे मोर नाम पृथ्वी के पृष्ठभाग पर जितने भी नगर व गाँव हैं , उनमें मेरे पवित्र नाम का प्रचार होगा । ( चैतन्य भागवत अन्त्य - खण्ड ४.१.२६ ) ऐसे ही भविष्यवाणी नित्यानंद महाप्रभु ने किया इस कीर्तन के बाद वहां से श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु प्रस्थान किया और अन्य भक्तों का बहुत बुरा हाल रहा विरह की व्यथा से हरि हरि सब परेशान थे हरि हरि या जैसे श्री राम जब वनवास के लिए प्रस्थान कर रहे थे तब उस समय जो अयोध्या वासियों की जो मन की दी हुई यहां श्री कृष्ण जन्म बलराम के साथ भी उनको अक्रूर वृंदावन से मथुरा ले जा रहे थे जो गोपियों के मन की स्थिति और अन्य ब्रज वासियों की मन की स्थिति जो हुई वैसे ही जैसे सोडूनिया गोपिना कृष्ण मथुरेसी गेला उस समय जब ब्रज वासियों की गोपियों मन स्थिति जैसे कोई वैसे ही मन स्थिति हुई जहां पर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु जा रहे हैं अकेले और साथ में केवल एक भक्त को रखा स्थिति तो वैसे ही रहेंगी मरेंगे विराट की व्यथा से और परेशान होंगे पर चैतन्य महाप्रभु ने उनकी ओर देखा तक नहीं देखते तो थोड़ा कठिन ज्यादा उनसे सहा नहीं जाता इसलिए वह आगे बढ़े और फिर श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु दक्षिण भारत में कई स्थानों पर उड़ीसा के पास जहां से उनकी यात्रा प्रारंभ हुई है आंध्र प्रदेश में कूर्म क्षेत्र गए हैं चैतन्य महाप्रभु कूर्म ब्राम्हण को विशेष आज्ञा दिए.... यार देख , तारे कह ' कृष्ण ' - उपदेश । आमार आज्ञाय गुरु है या तार ' एइ देश ॥१२८ ॥ अनुवाद " हर एक को उपदेश दो कि वह भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के आदेशों का पालन करे । इस तरह गुरु बनो और इस देश के हर व्यक्ति का उद्धार करने का प्रयास करो । " यह जो चैतन्य महाप्रभु का वचन है यह कूर्म ब्राह्मण को कूर्म क्षेत्र में ओडिशा के कोई बॉर्डर है वहां पर दिया वहां से चैतन्य महाप्रभु आगे बढ़े और वह से विशाखापत्तनम वहा नरसिंह भगवान का क्षेत्र हैं जहां नरसिंह भगवान की विशेष लीलाए हुई हैं उस स्थान को सिंहाचल भी कहते हैं। अचल मतलब पर्वत उस पर्वत का नाम ही हुआ नरसिंहाचल जब श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु ने दर्शन किया है पुजारी ने कुछ माला अर्पण किया है चैतन्य महाप्रभु को और वहां से आगे करते हैं गोदावरी के तट पर आते हैं और गोदावरी को देखते ही कैसे हैं जमुना मैया की जय जब भी कोई नदी देखते तो उन्हें लगता कि यह गंगा हैं गंगा और जमुना है और कई पर्वत देखते तो यह गोवर्धन है आकाश में बादल देखते तो उन्हें लगता कि यह कृष्ण ही है क्योंकि कृष्ण के रंग के बादल होते हैं वहां गोदावरी के तट पर नृत्य किया है और गोदावरी को पार किया है और वहां रामानंद राय जी के साथ चैतन्य महाप्रभु का मिलन हुआ वह भी एक अद्भुत घटना और दर्शन लीला है मिलन की लीला है मिलन उत्सव का हो और फिर चैतन्य महाप्रभु प्रतिदिन उनसे मिलते थे और कथाएं होती थी जिसको राय रामानंद के साथ के साथ जो संवाद हैं महाप्रभु और राय रामानंद का संवाद जो चैतन्य चरित्रामृत में उसका उल्लेख हैं। तब वह संवाद वहां होते रहे वो बाहोत गुह्य संवाद होते रहे हैं। क्योंकि राय रामानंद ललिता और विशाखा में से ही हैं तो यहीं पर चैतन्य महाप्रभु ने राय रामानंद या फिर कह सकते हैं विशाखा को दर्शन दिया कैसे दर्शन दिया श्री कृष्ण चैतन्य राधाकृष्ण ना ही अन्य अभी अभी तो गौरांग थे एक ही थे और दूसरे क्षण राय रामानंद देखा वहां कृष्ण थे और राधा थी तब वहां एक गौड़ीय मठ भी है। राधा और कृष्ण का दर्शन वो एक ही स्थान हैं जहां राधा कृष्ण प्रकट हुए ये दक्षिण भारत का वृंदावन हैं जहां चैतन्य महाप्रभु से राधा कृष्ण प्रकट हुए। वहां से आगे बढ़े तो श्रीरंगम पहुंचे रामानुजाचार्य का पीठ रहा एक समय क्योंकि चैतन्य महाप्रभु तो 500 वर्ष पूर्व हुए रामानुजाचार्य 1000 वर्ष पहले थे श्रीरंगम में वही समय था चतुर्मास से प्रारंभ होने जा रहा था जब से चैतन्य महाप्रभु वहां गए वह सदैव भ्रमण करते रहते थे और 1 दिन में कई गांव और कई नगर कवर कर लेते थे। कई स्थानों पर रात में रुकते या कई स्थानों से रात में ही उठ कर आगे बढ़ने लगते। यदि वैसे नही करते तो सारा गाव ही उनके पीछे पीछे जाने लगता गाव वालो को टालने के लिए चैतन्य महाप्रभु रात को ही आगे बढ़ते। ऐसा प्रतिदिन भ्रमण करने वाले चैतन्य महाप्रभु ने अभी चातुर्मास अभी प्रारंभ होने जा रहा था तब श्रीरंगम में रुकने का निर्णय लिया और वैकंठ भट्ट के यहां रुके 4 महीने वहां ही रुके और उनके बालक गोपाल भट्ट गोस्वामी जब वो बालक ही थे और प्रबोधानंद सरस्वती ठाकुर भविष्य में बनने वाले जो वैकंठ भट्ट के पुत्र गोपाल भट्ट गोस्वामी और वैकंठ भट्ट के भ्राता श्री प्रबोधानंद सरस्वती ठाकुर तब इन सब को चैतन्य महाप्रभु ने अपना अंग संग और सब आतिथि का प्रदर्शन हुए और यही श्री चैतन्य महाप्रभु श्री रंगम के दर्शन के लिए या रंगनाथ के दर्शन के लिए गए और दर्शन करते रहते थे। और श्रीरंगम कावेरी नदी के तट पर हैं।जो 7 पवित्र नदिया हैं उसमेंसे अति पवित्र महा पवित्र नदी जो हैं उनमें हैं कावेरी और इसमे स्नान किया करते थे चैतन्य महाप्रभु और फिर श्री रंगम का दर्शन रामानुज का भी दर्शन करते होंगे जरूर तब यही पर आपको याद हैं आप तो भूल जाते हो महाराज कहते है उदयपुर की शशि माताजी को याद होगा और यदि मैं बता दु तो पता चलेगा ही वो ब्राम्हण जो गीता का उच्चारण ठीक से नही कर पाते थे वही ना..... ठीक है।। मुंडी तो हिला रही हैं। चैतन्य महाप्रभु तो बोहोत प्रभावित थे उस ब्राम्हण से और गीता के उच्चारण से वो गीता का उच्चारण तो करते ही थे वैसे ही वो भाव विभोर होते थे चैतन्य महाप्रभु जा कर उन्हें आलिंगन भी फिये वो जो ब्राम्हण और जो घटना हैं श्रीरंगम में हुई श्री रंगनाथ में हुई और यही चातुर्मास में हुई। ठीक है अभी हम यहां अल्पविराम लेते हैं और जो बचा हुआ चैतन्य महाप्रभु का भ्रमण हैं आगे वो जगन्नाथ पुरी पोहोचेंगे पुन्हा वृन्दावन जायेगे और फिर कहि नही जायेगे 18 वर्ष के लिए जगन्नाथपुरी में ही रहेंगे इन सभी बातों का कल हम आपको स्मरण दिलाते हैं और आप अपने मन को तो विराम नही देना मन को सदैव व्यस्त रखिए जो सुना है उसका स्मरण करो कृष्ण के सम्बंध में जो सुना है वो स्मरण करो..... श्रीप्रह्वाव उ्वच श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् । अर्चनं बन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ इति पुंसार्पिता विष्णी भक्तिश्चेत्रवलक्षणा । क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमुत्तमम् ॥ (श्रीमद भागवद् 7.5.23-24) अनुवाद: प्रह्लाद महाराज ने कहा : भगवान् विष्णु के दिव्य पवित्र नाम, रूप, साज-सामान तथा लीलाओं के विषय में सुनना तथा कीर्तन करना, उनका स्मरण करना, भगवान् के चरणकमलों की सेवा करना, घोडशोपचार विधि द्वारा भगवान् की सादर पूजा करना, भगवान् से प्रार्थना करना, उनका दास बनना, भगवान् को सर्वश्रेष्ठ मित्र के रूप में मानना तथा उन्हें अपना सर्वस्व न्योछावर करना ( अर्थात् मनसा, वाचा, कर्मणा उनकी सेवा करना)-शुद्ध भक्ति की ये नौ विधियाँ स्वीकार की गई हैं। जिस किसी ने इन नौ विधियों द्वारा कृष्ण की सेवा में अपना जीवन अर्पित कर दिया है उसे ही सर्वाधिक विद्वान व्यक्ति मानना चाहिए, क्योंकि उसने पूर्ण ज्ञान प्राप्त *कर लिया है। ऐसे ही स्मरण,चिंतन,मनन करो ऐसे ही मन का शुद्धिकरण होगा और मन स्थिर होग़ा फिर ध्यान समाधि की और बढेंगे ठीक है। गौरांग..... श्री कृष्ण चैतन्य महाप्रभु की जय...

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